रविवार, 28 फ़रवरी 2021
नरेश सक्सेना जी के नवगीत और टीप प्रस्तुति : वागर्थ
वागर्थ में आज
नई कविता के सुप्रसिद्ध कवि नरेश सक्सेना जी के नवगीत
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वागर्थ का आज का अंक नई कविता के शीर्ष कवि नरेश सक्सेना जी के गीतों पर केन्दित है समूह वागर्थ उन्हें ससम्मान यहाँ जोड़कर स्वयं को गौरवान्वित महसूस कर रहा है।इन नवगीतों को प्रस्तुत करते हुए एक टीस जो रह रह कर उभरती है वह यह कि नई कविता ने एक नवगीतकार को छीन लिया।
विशेष आभार वागर्थ सम्पादन टीम के अनिल जनविजय जी का जिन्होंने सहर्ष वागर्थ के पाठकों को यह सामग्री कविता कोश के सौजन्य से यहाँ जोड़ने में हमारी सहायता की आगे भी हम नवगीत की विभिन्न शैलियों और रूपाकारों से अपने पाठकों को परिचित कराते रहेंगे।
प्रस्तुति
वागर्थ सम्पादन मण्डल
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प्रस्तुति
समूह वागर्थ
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1
फूले फूल बबूल बबूल कौन सुख
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फूले फूल बबूल कौन सुख,अनफूले कचनार ।
वही शाम पीले पत्तों की
गुमसुम और उदास
वही रोज़ का मन का कुछ-
खो जाने का एहसास
टाँग रही है मन को एक नुकीले खालीपन से
बहुत दूर चिड़ियों की कोई उड़ती हुई कतार ।
फूले फूल बबूल कौन सुख, अनफूले कचनार ।
जाने; कैसी-कैसी बातें
सुना रहे सन्नाटे
सुन कर सचमुच अंग-अंग में
उग आते हैं काँटें
बदहवास, गिरती-पड़ती-सी; लगीं दौड़ने मन में-
अजब-अजब विकृतियाँ अपने वस्त्र उतार-उतार
फूले फूल बबूल कौन सुख, अनफूले कचनार ।
2
साँझ की विदा के क्षण
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साँझ की विदा के क्षण अनजाने
आ बिखरा जाते हैं सिरहाने
पोर-पोर कँपती उँगलियों से
थे अन्तिम बार के प्रणाम।
छत ऊपर लौट चुकी होंगी अब
बगुलों की सितबरनी पातें
छिन अबेर आँगन में चिड़ियों की
चुक जाएँगी सारी बातें
फिर ख़ालीपन की ध्वनियाँ विचित्र
सिरजेंगी अजब-अजब अर्थ-चित्र
खिड़की में उलझी रह जाएगी
सिर्फ़ एक तारे की शाम।
द्वार पार से निर्वासित प्रकाश
देहरी पर रोपेगा छाँहें
कमरे भर जलता एकान्त लिए
उठेंगी अन्धेरे की बाँहें
रात गए पच्छिम का वह कोना
तन-मन पर कर जाएगा टोना
आकाशे उगेगा तुम्हारे—
लिए एक प्यारा-सा नाम।
3
रह रहकर आज साँझ मन टूटे
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रह-रह कर आज साँझ मन टूटे-
काँचों पर गिरी हुई किरणों-सा बिछला है
तनिक देर को छत पर हो आओ
चाँद तुम्हारे घर के पिछवारे निकला है ।
प्रश्नों के अन्तहीन घेरों में
बँध कर भी चुप-चुप ही रह लेना
सारे आकाश के अँधेरों को
अपनी ही पलकों पर सह लेना
आओ, उस मौन को दिशा दे दें
जो अपने होठों पर अलग-अलग पिघला है ।
अनजाने किसी गीत की लय पर
हाथ से मुंडेरों को थपकाना
मुख टिका हथेली पर अनायास
डूब रही पलकों का झपकाना
सारा का सारा चुक जाएगा
अनदेखा करने का ऋण जितना पिछला है ।
तनिक देर को छत पर हो आओ
चाँद तुम्हारे घर के पिछवारे निकला है ।
4
सूनी सँझा, झाँके चाँद
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सूनी सँझा, झाँके चाँद
मुँडेर पकड़ कर आँगना
हमें, कसम से, नहीं सुहाता-
रात-रात भर जागना ।
रह-रह हवा सनाका मारे
यहाँ-वहाँ से बदन उघारे
पिछवारे का पीपल जाने-
कैसे-कैसे वचन उचारे
जाने कब तक नीम पड़ेगा-
'घी मिसरी' में पागना ।
कैसे मन की करूँ चिरौरी
खाली-खाली बाखर-पौरी
ऐसे मौसम तुम बाहर हो
आँगन टपके परी निबौरी
जैसे हैम अपने, वैसे हों-
दुश्मन के भी भाग ना ।
हमें, कसम से, नहीं सुहाता-
रात-रात भर जागना ।
5
साँकल खनकाएगा कौन
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दिन भर की अलसाई बाहों का मौन,
बाहों में भर-भर कर तोड़ेगा कौन,
बेला जब भली लगेगी।
आज चली पुरवा, कल डूबेंगे ताल,
द्वारे पर सहजन की फूलेगी डाल,
ऊँची हर डाल को झुकाएगा कौन
चौथे दिन फली लगेगी।
दिन-दिन भर अनदेखा, अनबोली रात
आँखों की सूने से बरजोरी बात,
साँझ ढले साँकल खनकाएगा कौन,
कितनी बेकली लगेगी।
6
बैठे हैं दो टीले-
___________
तनिक देर और आसपास रहें
चुप रहें, उदास रहें,
जाने फिर कैसी हो जाए यह शाम ।
एक-एक कर पीले पत्तों का
टूटते चले जाना, इतने चुपचाप,
और तुम्हारा पलकें झपकाकर
प्रश्नों को लौटा लेना अपने आप ।
दूर-दूर सड़क के किनारे पर
सूखे पत्तों के धुँधुआते से ढेर,
एक तरफ बैठे हैं दो टीले
गुमसुम-से पीठ फेर-फेर ।
डूब रहा सभी कुछ अँधेरे में
चुप्पी के घेरे में
पेड़ों पर चिड़ियों ने डाला कुहराम ।
परिचय
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नरेश सक्सेना / परिचय
नरेश सक्सेना की रचनाएँ
जीवन
जन्म : १६ जनवरी १९३९ ग्वालियर, म. प्र. में।
शिक्षा : एम. ई।
सम्प्रति : उत्तर प्रदेश जल निगम में एग्ज़ीक्यूटिव डायरेक्टर टैक्नोलाजी मिशन। गंगा आई. सी. डी. पी. में पर्यावरण इंजीनियरिंग के क्षेत्र में महत्वपूर्ण कार्य। कविताओं के अतिरिक्त नाटक, फिल्मों और संपादन के क्षेत्र में महत्वपूर्ण कार्य। सम्मिलित रूप से आरंभ, वर्ष और छायानट साहित्यिक पत्रिकाओं का संपादन।
पहली कविता १९५८ में ज्ञानोदय में प्रकाशित तदुपरांत कल्पना, ज्ञानोदय, धर्मयुग, साक्षात्कार, पहल, वसुधा, प्रयोजन, तद्भव आदि हिन्दी की सभी महत्वपूर्ण पत्रिकाओं में प्रकाशित। हिन्दी के अनेक प्रतिष्ठित संकलनों में चयनित एवं प्रकाशित।
विविध
ग्वालियर में जन्मे नरेश सक्सेना हिंदी कविता के उन चुनिन्दा ख़ामोश लेकिन समर्पित कार्यकर्ताओं की अग्रिम पंक्ति में हैं, जिनके बिना समकालीन हिंदी कविता का वृत्त पूरा नहीं होता। वे विलक्षण कवि हैं और कविताओं की गहन पड़ताल में विश्वास रखते हैं, इसका एक सबूत ये है कि 2001 में वे `समुद्र पर हो रही है बारिश´ के साथ पहली बार साहिब ए -किताब बने और 70 की उम्र में अब तक उनके नाम पर बस वही एक किताब दर्ज़ है - इस पहलू से देखें तो वे आलोकधन्वा और मनमोहन की बिरादरी में खड़े नज़र आयेंगे। वे पेशे से इंजीनियर रहे और विज्ञान तथा तकनीक की ये पढ़ाई उनकी कविता में भी समाई दीखती है। वे अपनी कविता में लगातार राजनीतिक बयान देते हैं और अपने तौर पर लगातार एक साम्यवादी सत्य खोजने का प्रयास करते हैं। कविता के लिए उनकी बेहद ईमानदार चिन्ता और वैचारिक उधेड़बुन का ही परिणाम है कि कई पत्रिकाओं के सम्पादक पत्रिका के लिए सार्थक कविताओं की खोज का काम उन्हें सौंपते हैं। कविता के अलावा उनकी सक्रियता के अनेक क्षेत्र हैं। उन्होंने टेलीविज़न और रंगमंच के लिए लेखन किया है। उनका एक नाटक `आदमी का आ´ देश की कई भाषाओं में पाँच हज़ार से ज़्यादा बार प्रदर्शित हुआ है। साहित्य के लिए उन्हें 2000 का पहल सम्मान मिला तथा निर्देशन के लिए 1992 में राष्ट्रीय फि़ल्म पुरस्कार। संपर्क: नरेश सक्सेना ; विवेक खण्ड, 25-गोमती नगर, लखनऊ-226010 ; मो. 09450390241
मंगलवार, 23 फ़रवरी 2021
सुभाष वशिष्ठ जी के नवगीत और अनामिका सिंह की टीप
~।।वागर्थ।। ~
में आज प्रस्तुत हैं आदरणीय सुभाष वसिष्ठ जी के नवगीत
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बहुआयामी व्यक्तित्व सुभाष वसिष्ठ जी की संवेदनशील क़ल़म ने आखरों से चेतना बोयी है , हमारे इस कथन से उनके नवगीतों का पाठक भी इत्तिफ़ाक़ रखेगा। लिखने को तो बहुत लोग लिख रहे हैं लेकिन लेखन वही समर्थ व सार्थक , जो समय की आँख में आँख डालकर बात कर सके , वंचित की पीर को स्वर दे , गलत का विरोध कर सके ,सच के साथ काँधे से काँधा मिलाकर खड़ा हो सके ।
हम खूब टटके बिम्ब ले आयें , मुहावरेदार भाषा के रजत वर्क में रम्य गीत रच दें ऐसा सृजन पाठक को पल भर सोचने को विवश न करे तो उस लेखन का क्या अर्थ और क्या अभीष्ट !
भले ही हम उस लेखन को सोशल मीडिया के विभिन्न मंचों पर कितना ही सराहें किन्तु जब बात मूल्यांकन की हो तब कहना न होगा कि क्या ऐसा सृजन वर्तमान व भविष्य के साथ न्याय कर सकेगा!
हमें यह कहने में कतयी गुरेज नहीं कि स्वभाव से अति विनम्र व शिष्ट सुभाष वसिष्ठ जी ने अपने नवगीतों में समय की विसंगतियों , दोमुँही नीतियों व प्रवंचनाओं को कथ्य बनाया है , जोकि आवश्यक , अनुकरणीय व श्लाघनीय है ।
संदेशप्रद व सार्थक नवगीत सृजन हेतु वागर्थ आपको बधाई व शुभकामनाएँ प्रेषित करता है ।
समूह वागर्थ के लिये
~ अनामिका सिंह
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(१)
सच न बहरा है
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जी नहीं पाते हमेशा के लिए
सूत्र सतही दृष्टिकोणों में पगे
औपचारिकता तहत
ख़ामोशियों का क्रम
एक हद होगी !
मात्र दिखने को
अपर से लोक की ख़ातिर
हम नहीं योगी
चीत दो चहरे मठों के इस क़दर
फिर न कोई बिन्दु
ख़ुद तक से ठगे !
जीतने या हारने का हर प्रतिष्ठा-प्रश्न
सिर्फ़ अ-धरा है
सूर्य होने
लाख करवाओ निरन्तर घोषणा
सच
न बहरा है
काट दो शातिर रिवाजों को लिये
तार
ठण्डी आग वाले जाल के !
(२)
सत्ता ने चाहा...
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सत्ता ने चाहा है अंधकार राज करे
ताकि सदा लुटे रहें हम !
सहमे उनवान की कसम
लुटते इन्सान की कसम
रमुआ की जिनगी तो
लाला की बही में गयी
फूल सी बहनिया भी
ब्याज लिखी सही में गयी
लाला ने चाहा है करजदार ब्याज मरे
ताकि सदा लुटे रहें हम
बहना के मान की कसम
रमुआ की जान की कसम
गठी देह सुरसतिया
बिन सिँदूर भाल क्या हुई
सामन्ती आँखों से
फूटी, लो, दया की नदी
सामन्ती चाह यही माथे-भर गाज गिरे
ताकि सदा लुटे रहें हम
डिगते ईमान की कसम
जालिम श्रीमान की कसम
पन्ना पन्ना आखर
ज्यों ही कुछ बोलने लगा
दमन लिप्त मौसम का
सिंहासन डोलने लगा
मौसम ने चाहा है कुंठित आवाज करे
ताकि सदा लुटे रहें हम
टूटे अरमान की कसम
अंधे भगवान की कसम
सत्ता ने चाहा है अंधकार राज करे
ताकि सदा लुटे रहें हम ! ...... सच में ...... !
(३)
मैं फँसा टुकड़ा हवा का
-----------------------------
चक्र है गतिमान टेढ़ा
और उसमें
मैं फँसा टुकड़ा हवा का !
हैं दबावों के नियोजन
ढोंग की निर्लज कथाएँ
धूर्तता का चलन हावी
संग्रहालय में ऋचाएँ
चित हुआ बीमार ऐसा
फिरे दर-दर
ढूँढ़ता पुर्ज़ा दवा का !
मैं फँसा टुकड़ा हवा का!
हो रहा भवितव्य धूमिल
युग-निराली-चाल शातिर
अकारण ही पात्र शापित
सृजनधर्मी हो गया थिर
पड़ गयीं नीली शिराएँ
अग्नि प्रश्नित
हाल है ठण्डा अवाँ का !
मैं फँसा टुकड़ा हवा का! ।
(४)
नदी ने बुरा माना -
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फिर हुईं उद्दाम लहरें
फिर नदी ने बुरा माना
गुम हुए अस्तित्व तट के
ढूँढते कोई ठिकाना
हुईं शाखें छिन्न-भिन्ना
पत्र थर-थर काँपते से
वृक्ष डटने के प्रयासी
समय के पल भाँपते से
एक हलचल का उदय है
ताल लय का बिगड़ जाना
फिर नदी ने बुरा माना
जल थपेड़ों पर हवा है
या हवा पर जल थपेड़े
फेन की विक्षिप्त रचना
रुद्र ध्वनि के विकट बेड़े
कण उठें हर बार गिरने
प्रकृति का ताना न बाना
फिर नदी ने बुरा माना
शिला-खण्डों का उछलना
टूट कर आकाश में है
जल-सतह पर धम्म गिरना
दृश्य आँखों से परे है
तीव्र गति की धार पर,सच,
कब हुआ है पार पाना
फिर नदी ने बुरा माना
जलाप्लावित पूर्ण घाटी
डरी बहकी यों प्रवाहित
चाबुकी दण्डाधिकारी
करे निर्मम ज्यों प्रताड़ित
शून्य की नियमावली को
जान कर भी नहीं जाना !
फिर हुईं उद्दाम लहरें
फिर नदी ने बुरा माना !
(५)
पंख का नुचना
------------------
एक चिड़िया
झेलती है
पंख का नुचना
गिद्ध लिये वहशीपन
घेरते
खुली चोंच पर
जिह्वा फेरते
चीख धाड़ें
विरचती हैं
चीख का घुटना
एक चिड़िया
झेलती है
पंख का नुचना
पंजों को जकड़
खींच आवरण
जीवित ही देते
उसको मरण
भरी आँखें
देखती हैं
स्वयं का लुटना
एक चिड़िया
झेलती है
पंख का नुचना
(६)
नम्र होने का नहीं मतलब बनो कमजोर-
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नम्र होने का नहीं मतलब
बनो कमज़ोर
या तमस के हाथ में ख़ुद
सौंप दो तुम भोर !
छिपे उसके
किटकिटाते दाँत होते हैं
सिलसिले जड़ कालिमा के पाँत होते हैं
लिये उनचस पवन
शातिर
ताँसता घनघोर
नम्र होने का नहीं मतलब
बनो कमज़ोर !
चाल शतरंजी रगों में
भरम पैदा कर
कुछ वज़ीरों,ऊँट,घोड़ों
से नपा कर घर
मारता है निरे पैदल,दाब,
जुमलाखोर
नम्र होने का नहीं मतलब
बनो कमज़ोर !
शब्द में तिरते इरादों से
बचे रहना
'अन्ततः' के लक्ष्य ख़ातिर
'तुरत' को सहना
साथ है आँसू ढले
आवाज़-बिन,का,शोर !
नम्र होने का नहीं मतलब
बनो कमज़ोर !
(७)
सूरजमुखी सहते रहे
--------------------------
स्याह पंजों की जकड़ का
दर्द
सूरजमुखी सहते रहे
उस पड़ोसी ताल की
लहर तक से बे-कहे
पत्तियाँ आकाश
हवा यों बिथुरी
दो ध्रुवों को नाप आई
गन्ध में, उपराग में
कौंधती बिजुरी
सख़्त धरी में
बचा कुछ भुरभुरापन
प्राणों से गहे
सूरजमुखी सहते रहे
स्याह पंजों की जकड़ का
दर्द
(८)
जहरीला परिवेश हो गया
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लाएँ क्या गीतों में ढूँढ़कर नया ?
ज़हरीला पूरा परिवेश हो गया !
चिकने-चुपड़े से कुछ शब्दों में
अँकुराए तिरस्कार बीज
सार्वभौम सत्य का बखान करें
जिन्हें नहीं झूठ की तमीज़
धुएँ की हवाओं में, कौन, कब जिया !
कहने को सतरंगी चादर है
पर, भीतर बहु पानीहीन
आसमान छू लेने को तत्पर
बिन देखे पाँव की ज़मीन
प्रतिभा के हक़ में क्या सिर्फ़ मर्सिया ?!!
(९)
धूप की ग़ज़ल
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शुरू हुई
दिन की हलचल
गए सभी
लोहे में ढल
देह दृष्टि
लिपट गई
ताज़े अख़बारों से
शब्द झुण्ड
निकल पड़े
खुलते बाज़ारों से
गुनता मन
धूप की ग़ज़ल
एक उम्र और घटी
तयशुदा सवालों की
बाँझ हुई सीपियाँ
टीसते उजालों की
चौराहा : माथे पर बल !
(१०)
पारा कसमसाता है -
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साँस ही मुश्किल
नियत आन्दोलनों
आबद्ध
पारा कसमसाता है
धुन्ध के आग़ोश में
जकड़ा
ठिठुरता गीत
अग्नि ले
मुस्कराता है
हर हवा का तर्क अपना
और उसकी पुष्टि में
जेबित
सहस्रों हाथ
एक सहमा
चिड़ा नन्हा
खोजता
चोरी गए
जो क़लम औ’ दावात
मुक्ति क्रम में
पाँव कीलित
मृत्युभोगी चीख़ लेकर
पंख रह-रह
फड़फड़ाता है ।
~ सुभाष वसिष्ठ
परिचय~
परिचय -जन्म ४नवंबर १९४६
जन्मस्थान - सिकन्दरपुर काकोड़ी ,हापुड़ ,उत्तर प्रदेश
प्रकाशित कृतियाँ -बना रह ज़ख्म तू ताजा (नवगीत संग्रह )
शुक्रवार, 19 फ़रवरी 2021
देवेंद्र दीपक जी की एक कविता पर टीप प्रस्तुति : वागर्थ
https://m.facebook.com/story.php?story_fbid=3628805550544037&id=100002438833305
कविता वह जो
पढ़ने के उपरांत देर तक आपके साथ रहे,और मंथन करने को मजबूर करे ।राजधानी की सबसे पुरानी संस्था कला मन्दिर प्रकाशन से प्रकाशित एक दुर्लभ पुस्तक झील के स्वर हाथ लगी जिसका प्रकाशन सन 1981में हुआ इस कृति में उस समय के सभी चमकीले सितारे मौजूद हैं दुर्योग से उनमें से अधिकतर अस्त हो गए हैं।और जो हैं उनकी चमक आज भी बरकरार है आज प्रस्तुत है देशभर में चर्चित राजधानी के वरिष्ठ साहित्यकार डॉ देवेंद्र दीपक जी की एक कालजयी रचना
प्रस्तुत कविता की विशेषता यह है कि यह आज भी उतनी ही प्रासंगिक है जितनी कल थी और आगे भी उतनी प्रासंगिक रहेगी।
प्रस्तुति
मनोज जैन मधुर
मेरा देश
मलूकदास का अजगर
मेरी पत्नी
मंहगाई की मार के कारण परेशान है,
मैं व्यवस्था की
असंगतियों के कारण परेशान हूँ,
हमारा बच्चा
हम दोनों की
परेशानी के कारण परेशान है।
भारत के हर घर की,
कुछ ऐसी ही कहानी है
परेशानी ही परेशानी है।
भारत में फिर भी
ऐसा कुछ नहीं होता
कि भारत
ठीक हो,
रफ़ीक कम से कम
मय्यत में तो
शरीक हो।
मेरा देश मलूकदास
का अजगर
या
झुम्मन कबाड़ी का
टीन कनस्तर!
मेरे देश में
पानी खौलता है खून नहीं खौलता।
देवेंद्र दीपक
अशोक धमनियाँ जी के संस्मरण पर चर्चा
आज वागर्थ के
कॉलम में संस्मरण विधा में पढ़ेंगे,यात्रा वृतांत कवि लेखक अशोक धमनिया जी की कलम से, Ashok Dhameniya जी एक मात्र ऐसे संस्मरणकार हैं जो बिना देखे अपने संस्मरण का पाठ पूरी तन्मयता से करते है।उनकी इस विलक्षण प्रतिभा को मैंने उनकी कृति 'मेरे ईश' के लोकार्पण के समय जाना
प्रस्तुत यात्रा वर्त्तान्त में लेखक लोक और उससे जुड़ी आस्था को अपनी रोचक शैली और अनूठे अंदाज में प्रस्तुत करता है।यद्धपि चमत्कार ,आस्था और मान्यता निजता के विषय हैं।यह पाठक के अपने संज्ञान पर निर्भर कि वह प्रस्तुत विषय वस्तु से अपने लिए क्या चुनें!
कुल मिलाकर लठाटोर भगवान के पाठ से कहीं न कहीं आस्था तो बलवती होती ही है।
पूरे प्रसंग में मुझे जो बात मुझे पसन्द आई वह लेखक की अन्तर दृष्टि ही है जिसने आस्था की आड़ में मनुष्य के भौतिक छल को सुस्पष्ट शब्दों में पकड़ कर व्यक्त कर दिया एतदर्थ में अशोक धमनिया जी को बधाई देता हूँ।
प्रस्तुत है वह अंश जिसका जिक्र मैने किया है ।
"पुजारी जी से चर्चा में मुझे इतना अवश्य समझ आया कि शायद वर्तमान मंदिर घनी आबादी में होने से पुजारी या अन्य कोई इस जगह का व्यापारिक उपयोग सोच रहे होंगे और भगवान जी को नदी के दूसरी ओर वीराने में बैठाना चाहते होंगे।"
प्रस्तुति
मनोज जैन
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लठाटोर भगवान
____________
भूमि भ्रमण केवल मनोरंजन न होकर एक ठोस शिक्षा क्रम है । वास्तव में बगैर भ्रमण के किताब द्वारा अर्जित ज्ञान को सीमित दायरे में ही आंका जा सकता है । भ्रमण में आंखों देखी "प्रत्यक्षम् किम प्रमाणम् " के समान है । उपरोक्त भावना से ओत -प्रोत होकर तीर्थ स्थानों के दर्शन करने की कामना ने मेरे अंदर वेग धारण करते हुए वहाँ जाकर भगवान के दर्शन के लिए प्रेरित किया।
पूर्व में हमारे कई मित्र / साहित्यकार भगवान लठाटोर की जानकारी अपनी पत्रिका में छापने के लिए मुझसे मांग करते रहे हैं । अतः प्रभु दर्शन में क्या प्रसाद मिला , क्या देखा ? वृतांत के माध्यम से आप सभी के साथ मिलकर रसधार का संयुक्त पान और भगवान लठाटोर के संबंध में जो कुछ देखा , जानकारी प्रस्तुत करने की अनुमति चाहता हूं ।
मऊरानीपुर , मेला जलविहार का जो विशेष आकर्षण है , वह है वहां के लठाटोर महाराज। लठाटोर भगवान अर्थात लठा को तोड़ने वाले भगवान जी । आख्यान है कि वर्षों पहले लठाटोर भगवान का विमान चार कहारों द्वारा उठाया जाता था। लेकिन विमान उठाने के दरमियान तथा रात्रि में विहार करते समय हर साल एक कहार मर जाया करता था । अतः कहारों ने लठाटोर भगवान का विमान उठाने से मना कर दिया , तब फिर लठों की व्यवस्था की गई । बांस के मोटे - मोटे लठों पर भगवान के विमान को रखा जाता और लठों पर भगवान के विमान को उठाकर भक्त और कहार रात भर चलते थे। लेकिन यह क्या ! इन लठों में से भी एक लठा रास्ते में टूटने लगा । बताया जाता है कि तब प्रशासन ने व्यवस्था की जांचकर मोटे से मोटे लठों की व्यवस्था करायी तथा निगरानी भी की गई । किंतु खास स्थान पर आकर लठा टूटता रहा । इसे कोई रोक नहीं पाया। इसीलिए इनका नाम लठाटोर भगवान पड़ गया । बाद में पुनः प्रशासन के हस्तक्षेप से लठों के स्थान पर विमान एक मोटर गाड़ी में निकलने लगा । किंतु नियत स्थान पर पहुंचकर यह मोटर गाड़ी भी पंचर हो जाती है /बंद हो जाती है । भक्तगण इसे धक्का देकर काफी मशक्कत के बाद स्टार्ट करते हैं , तब गाड़ी आगे बढ़ती है । भगवान की लीला के सामने अधिकारियों की सारी जांच और सावधानियां असफल हो गईं ।
भगवान का एक नाम भी लीलाधर है। उनकी लीलाओं को समझना तुच्छ मानव केे परे की बात है। बताया जाता है कि जिस मंदिर में भगवान कृष्ण (लठाटोर जी ) विराजते हैं , उनके साथ राधिका जी भी बिराजतीं थी। किंतु किन्हींं कारणों से राधिका जी का विग्रह खंडित हो गया। अतः इस विग्रह को प्रयाग ले जाकर विसर्जित कराया गया । रात्रि में प्रयाग के पन्डों को विग्रह ने दर्शन दिये, तब पंडों ने विग्रह निकालकर वहीं पर स्थापन करा दिया। इधर मऊरानीपुर में एक सेठ द्वारा राधिका जी का नया विग्रह मँगाया गया और उसके साथ भगवान कृष्ण का विवाह रचाकर कन्यादान किया । तत्पश्चात राधिका जी को विदा किया और विधिवत विग्रह की स्थापना मंदिर में करायी। तब से सेठ जी का घर भगवान कृष्ण की ससुराल बन गया है। जब भी भगवान जलविहार के अवसर पर अपने ससुराल से होकर निकलते हैं ,तो मचल जाते हैं । तथा उपरोक्त घटनाएं होती हैं । भगवान के मंदिर में पूर्व में एक बूढ़ी माँ सेवा के लिए रहा करतीं थीं ,जो दिन भर उनकी सेवा किया करतीं थीं। जब वो ससुराल आकर मचलते तथा आगे बढ़ने का नाम ही नहीं लेते , तब वह बूढ़ी माँ गुस्सा होकर चँवर से उनको मारतीं तथा कहतीं :-
"अब आगे नहीं चलना क्या? कब तक ससुराल में मचले रहोगे । अब ससुराल पुरानी हो गई है । चलो देर हो रही है । "-बताते हैं कि बूढ़ी माँ के द्वारा यह कहने पर विमान आगे बढ़ने लगता था ।
भगवान लठाटोर की नगर यात्रा के समय सर्वाधिक भीड़ रहती है । दूर-दूर से ग्रामीण आकर नदी के किनारे और पूरे बाजार में दर्शन के लिए बैठे रहते हैं, घूमते रहते हैं । लोग भगवान के दर्शन कर, कुछ देर के लिए विमान में लठे के नीचे लगने तथा विमान के नीचे से निकलने में अपने को धन्य मानते हैं । जलविहार के पश्चात भगवान लठाटोर का विमान भी अगले दिन भक्तों के घर- घर जाता है, सभी भक्तजन पूजा /अर्चना करते हैं तथा भगवान के घर आने पर अपने को धन्य मानते हैं , अंग - अंग फूले नहीं समाते हैं ।
अपनी मऊरानीपुर यात्रा के दौरान में भगवान लठाटोर के मंदिर भी गया । यह मंदिर छिपयाने (दमेले चौक) में स्थित है । मेरी यात्रा के समय मंदिर के नवीनीकरण का कार्य चल रहा था । इस मंदिर के पुजारी और सर्वेसर्वा श्री बृजेंद्र तिवारी जी हैं। संभवत मंदिर का कोई ट्रस्ट नहीं है। बताया गया कि इस संबंध में प्रक्रिया चल रही है । पुजारी जी और आसपास बैठे भक्तों ने बताया कि जलविहार की झांकी के समय लठाटोर महाराज की साज-सज्जा भगवान की पसंद के अनुरूप करना पड़ती है। कई बार तो उनको बांधे जाने वाले साफे आठ-दस बार बदलना पड़ते हैं, जो उनको पसंद नहीं आते , वह सिर पर रुकते ही नहीं । जो साफा पसंद आ जाता है केवल वही रूकता है । पुजारी जी ने मुझे श्रंगार के समय आने के लिए कहा ताकि सब कुछ अपनी आंखों से देखा जा सके । पुजारी और अन्य लोगों से चर्चा में यह भी विदित हुआ कि भगवान के लिए एक दूसरा नया मंदिर नदी के दूसरी ओर बनवाया गया है । किंतु भगवान वहां जाने को तैयार ही नहीं है । जब भी गाड़ी नए मंदिर की ओर जाती है तो रास्ते में ही बंद हो जाती है और आगे नहीं बढ़ती। पुजारी जी से चर्चा में मुझे इतना अवश्य समझ आया कि शायद वर्तमान मंदिर घनी आबादी में होने से पुजारी या अन्य कोई इस जगह का व्यापारिक उपयोग सोच रहे होंगे और भगवान जी को नदी के दूसरी ओर वीराने में बैठाना चाहते होंगे । पर लालच में आदमी यह भूल जाता है कि भगवान तो अंतर्यामी होते हैं । लठाटोर भगवान, भोलेनाथ थोड़े हैं जो सुनसान जगह में जाकर बैठ जाएँगे।
चर्चा के समय योग से ससुराल पक्ष की एक बूढ़ी माँ भी आ गईं । वह भगवान को जलविहार के समय घर पधारने का निमंत्रण देने आईं थीं । सही भी है , ससुराल में बगैर निमंत्रण के भगवान जी कैसे जाएं? बुंदेलखंड की परंपरा है कि दामाद अपनी ससुराल में बगैर निमंत्रण /बुलावे के नहीं जाया करते ।
भगवान की लीला भगवान ही जानें,यह हम जैसे न समझ व्यक्ति कीे समझ से परे है। भगवान लठाटोर जो इस क्षेत्र में जन -जन के भीतर आस्था के रूप में समाए हुए हैं , उनका मैं वंदन करता हूं ,नमन करता हूं।
अशोक कुमार धमेंनियांँ 'अशोक'
संत कुमार मालवीय जी की कृति पर चर्चा
संत कुमार मालवीय "संत" :खुशियों को बचाये रखने की पुरजोर कोशिश !
प्रवाह
~~~
अति प्रवाह
दे जाता है, हमें
एक संदेश ।
सामर्थ्य से अधिक पा लिया
और ,न कर पाए सदुपयोग
तो,ले जाएगा बहाकर
एक दिन
सभी को, उस पार।
चाहे, वह जल हो
वह धन हो
अथवा ज्ञान।
●
संत कुमार मालवीय "संत"
●
मध्यप्रदेश के छोटे से कस्बे सांची में जन्मे संत कुमार मालवीय संत जी पिछले कई वर्षों से भोपाल शहर में निवासरत है ।
कस्वाई संस्कृति में पले बढ़े श्री मालवीय जी को,आज भी, शहरी संस्कृति जरा भी न छू सकी।
मैंने अपने जीवन में बहुत कम लोगों को यथा नाम तथा गुण की युक्ति पर खरा उतरते देखा है। पर यह बात मित्र संत के व्यक्तित्व पर जरूर लागू होती है!
संत होने के लिए कतई जरूरी नहीं है कि, घर छोड़कर जंगल में जाकर धूनी रमा ली जाय! गार्हस्थ्य जीवन में जो अपने भीतर बैठे मनुष्य को मनुष्य बना रहने दे,मेरी दृष्टि में वही संत है। भरत जी घर में ही वैरागी की तर्ज पर मैंने मित्र संत मालवीय जी के जीवन को बहुत निकट से देखा है इनके सुख दुख में निरन्तर भागीदारी की है।
कर्मठता इनके व्यक्तित्व का विशेष गुण हैं ।
कछुए की तरह मंथर गति से निरन्तर चलते हुए मेरे इस मित्र ने अनेक उपलब्धियों को अपनी कर्मठता के बूते ही अपने खाते में दर्ज किया है ! जिनमें मध्यप्रदेश साहित्य अकादमी का 1.श्री कृष्ण सरल सम्मान रेलवे बोर्ड का 2.मैथिली शरण गुप्त सम्मान 3. तुलसी साहित्य अकादमी का तुलसी शिखर सम्मान के साथ अन्य सम्मान भी नई कविता की इनकी बहुचर्चित पुस्तक "बची हुई खुशियाँ" के नाम पर दर्ज है।
लेखन में विविधता ,स्वभाव में सरलता, व्यवहार में कुशलता,बोली में मिठास,जीवन में कर्मठता, मित्रों के सहयोग में तत्परता, के इस अनूठे समुच्चय का नाम संत कुमार मालवीय 'संत' के अतिरिक्त अन्य दूसरा हो ही नहीं सकता।
सरल और सहज कविताओं के माध्यम से अपने आपको अभिव्यक्त करना इनकी अन्यतम ख़ूबी है।इनकी पुस्तक बची हुई खुशियाँ की कविताएँ प्रेरणा का अद्भुत संचार करती अपने समय की जरूरी कविताएँ हैं जो निराशा के इस माहौल में हौसला देती है।
पढ़ते हैं
●
खुशियों के अलाव
●
सुलगाते रहे
उनकी खातिर
सदैव हम
अपनी खुशियों के अलाव।
वे सेंकते रहे
अपने तन मन और धन को
हम जलाते रहे
लकड़ियां
प्रीत की रीत की
ईमानदारी और भाईचारे की
कभी नहीं पूछा उन्होंने
आखिर
इतनी सारी लकड़ियां
तुमने
कहां से
और कैसे
एकत्रित कीं।
●
प्रस्तुत है संग्रह की दो-एक और सहज और सरल कविताएँ!
यद्धपि कवि का जुड़ाव किसी विशेष विचारधारा से नहीं है ,पर कविधर्म के निर्वहन के लिए वह विषय विशेष को अपने अनूठे अंदाज में अभिव्यक्ति देते हैं।
द्रष्टव्य है आम जन की पैरबी करती उनकी सफलता शीर्षक से एक सुन्दर रचना।
●
सफलता
●
अजीब परिदृश्य रहा
हड़ताल और बंद के दौरान
गरीब के घर
चूल्हे नहीं जले
मजदूर के बच्चे
भूखे ही सोए
हां
आंदोलन कारी
और सुखी संपन्न नेता गण
बंद सफल का
समारोह मनाते दिखे।
●
विषय वैविध्य की बात की करें तो संग्रह में अलग अलग विषयों पर कुल जमा 60 कविताएं हैं ।कवि ने पर्यावरण, प्रकृति भूमण्डलीकरण,बाजारवाद,ग्रहरति, तीज-त्योहार,राजनैतिक-परिदृश्य ,कार्यस्थल,दर्शन-बोध,छरण होते मानवीय सम्बन्धों को अपनी कविताओं का विषय बनाया है।
प्रतीकों में नवीनता और भाषा में सहजता और सरलता है। संग्रह की एक कविता अपेक्षा शीषक से कवि मन की सहजता को सहज ही टटोला जा सकता है।आइये थाह लेते हैं कविता के माध्यम से कवि मन की।
●
अपेक्षा
●
मुझे भय नहीं
अपनी निंदा का
न ही शर्मिंदा हूं ,अपने स्वभाव से ,
तलब गार भी नहीं
क्षणिक सम्मान
और झूठी प्रतिष्ठा का
बनाना भी नहीं चाहता
किसी की आह के ऊपर
अपनी वाह के महल
हो चुका हूँ अभ्यस्त
स्वाभिमान की झोपड़ी में चैन पाने का
हां ,जीवन पथ पर
स्वजनों से अपेक्षा
और ईश्वर से यही अभिलाषा
कि, देर सवेर स्पष्ट हो जावे
निज कर्म, धर्म और मर्म
जनता जनार्दन के समक्ष
ताकि,
हो सके विदाई
उनके समाज से
बिना किसी गिले-शिकवे के।
सार संक्षेप में कहें तो कुल मिलाकर संग्रह बचे "हुई खुशियाँ" बार-बार पठनीय है।
●
टिप्पणी
मनोज जैन मधुर
●
बची हुई खुशियां
कवि:संत कुमार मालवीय
प्रकाशक संदर्भ प्रकाशन
संस्करण प्रथम 2016
अनिल जनविजय जी का एक नवगीत और टीप
वागर्थ में आज अनिल जनविजय जी का एक नवगीत और कविता पोस्टर
समूह वागर्थ में आज प्रस्तुत है कवि अनिल जनविजय जी का एक नवगीत
अनिल जनविजय जी पहचान वैश्विक स्तर पर साहित्यकार के रूप में हैं इस बात की पुष्टि उनके परिचय से भी होती है यद्धपि हम यहाँ उनके कुछ और नवगीत जोड़ना चाहते थे परन्तु उनसे हुए संवाद के उपरान्त जो तथ्य सामने आया वह यह है कि अनिल जी ने अधिक नवगीत लिखे ही नही हैं मुझे जहाँ तक याद है मैंने बहुत पहले उनकी एक रचना जिसका कविता पोस्टर कुँवर रविन्द्र जी ने बनाया था,उनकी वह रचना पूरी तरह नवगीत के निकट की रचना थी यदि मुझे वह रचना कुँवर के सहयोग से मिलती है तो आपके मध्य यहाँ जरूर जोड़ने का प्रयास करूँगा।अनिल जनविजय जी की रुचियों की पड़ताल करने पर यह बात निर्विवाद रूप से सामने आती है जनविजय जी कविता के बिना किसी पूर्वाग्रह के सच्चे पारखी हैं और मुझे पूरे साहित्यिक परिद्रष्ट में ऐसे लोग उँगलियों पर गिनने वाले ही मिले जिनके यहाँ नई कविता या नवगीत में काव्य विषयक कोई दुराग्रह नहीं है।
नवगीत के उद्भव से लेकर आज और अब तक के विकास पर आपके जहन में जितने प्रश्न हों आप अनिल जनविजय जी के सामने प्रस्तुत करके देख लें उनका पूरा और सम्यक समाधान उनके यहाँ मिल जाएगा।
अपने स्वयं के विषय में वह इरादतन मुझे यहाँ कुछ भी लिखने नहीं देंगे इसलिए दो एक बातें कहकर मैं सीधे आपको प्रस्तुत नवगीत से जोड़ता हूँ।
सम्भवतः यह रचना 1972 के आस पास की है बेटियों के उज्ज्वल भविष्य की मंगल कामना का कितना सुंदर गान है इन पंक्तियों में
जीवन के
अरुण दिवस सुनहरे
नहीं आज तुम पर
कोई पहरे
बहुत सुंदर नवगीत के लिए हार्दिक बधाइयाँ
_____
बेटियों का गीत
__________
मैं मौन रहूँ
तुम गाओ
जैसे फूले अमलतास
तुम वैसे ही
खिल जाओ
जीवन के
अरुण दिवस सुनहरे
नहीं आज
तुम पर कोई पहरे
जैसे दहके अमलतास
तुम वैसे
जगमगाओ
कुहके जग-भर में
तू कल्याणी
मकरंद बने
तेरी युववाणी
जैसे मधुपूरित अमलतास
तुम सुरभि
बन छाओ
परिचय
_______
अनिल जनविजय (२८ जुलाई १९५७[1]), हिन्दी कवि[2]-लेखक[3] और रूसी और अंग्रेज़ी भाषाओं से हिन्दी में दुनिया भर के साहित्य का अनुवादक[4] हैं। उन्होंने दिल्ली विश्वविद्यालय से बी.कॉम और मॉस्को स्थित गोर्की साहित्य संस्थान से सृजनात्मक साहित्य विषय में एम० ए० किया। इन दिनों मॉस्को विश्वविद्यालय में हिंदी साहित्य का अध्यापन और रेडियो रूस का हिन्दी डेस्क देख रहे हैं।
अनिल जनविजय
______________
जन्म
अनिल कुमार जैन
28 जुलाई 1957
भूड़, बरेली
व्यवसाय
कवि, लेखक और अनुवादक
राष्ट्रीयता
भारतीय
विधा
कविता, कहानी
विषय
साहित्य
उल्लेखनीय कार्य
कविता नहीं है यह,माँ, बापू कब आएँगे,राम जी भला करें,दिन है भीषण गर्मी का,तेरे क़दमों का संगीत, चमकदार आसमानी आभा,धूप खिली थी और रिमझिम वर्षा
गुरुवार, 18 फ़रवरी 2021
शिवोहम पर चर्चा
जीवंत प्रस्तुतियों की श्रेष्ठतम बानगी : शिवोहम साहित्यक मंच का पेज
टिप्पणी
मनोज जैन
वैश्विक महामारी कोविड-19,के कारण लॉक डाउन के पहले चरण में,जनहित में जारी शासकीय बाध्यता के चलते लोगों को घरों में कैद होना पड़ा।
अनचाहे हिस्से में आये खाली समय के उपयोग के लिए यह वह समय था,जब फेसबुक पर 'पेज' तेजी से लगातार चर्चा के केंद्र में आ रहे थे।इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की तरफ साहित्यिक अभिरुचि के बढ़ते रुझान को देखते हुए शिवोहम साहित्यिक मंच के संस्थापक सदस्य सॉफ्टवेयर इंजीनियर अमित तिवारी जी Amit Tiwari जी और उनकी अर्धांगिनी चर्चित कवयित्री डॉ भावना तिवारी जी ने छंद प्रसंग और अपनी संस्था शिवोहम साहित्यिक मंच के उद्देश्यों की पूर्ति के चलते मुख्यतः गीतकारों को केन्द्र में रखकर,पृष्ठ पर एकल गीत पाठ करने के लिये गीतकारों को आमन्त्रित किया।अपनी स्तरीय और श्रेष्ठ साहित्यिक गतिविधियों के चलते यह पेज तेजी से चर्चा में आने लगा।
शिवोहम साहित्यिक मंच की स्थापना आशु कवि पं शिव प्रसाद मिश्र जी के नाम पर 2017 में हुई जिनका सम्बंध कानपुर से जुड़ता है।मिश्र जी पेशे से शिक्षक और अभिरुचि से साहित्यकार रहे हैं।
चूंकि,संस्था के अन्यतम उद्देश्यों में एक उद्देश्य यह भी है की ऐसे साहित्यिक मनीषियों की पहचान की जाय जिनका ध्येय मंच की तरफ न होकर अपने अवदान से
निरन्तर साहित्य में अपनी ओर से नया जोड़ते रहने की कोशिश का रहा हो परिणाम स्वरूप संस्था अपने संस्थागत उद्देश्य को लेकर विगत तीन वर्षों से देश के अनेक मनीषियों को सम्मानित करती आ रही है।
शिवोहम साहित्यिक मंच ने अपनी पहली प्रस्तुति 29 अप्रैल 2020 को शाम 6 बजे हरदोई के गीतकार पवन कश्यप से आरम्भ की,जबकि समापन 16 जुलाई 20 को मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल के प्रख्यात गीतकार मयंक श्रीवास्तव जी Mayank Shrivastava की सर्वाधिक मनभावन प्रस्तुति से हुआ।
लगभग ढाई महीने चले इस आयोजन ने लोगों का ध्यान अनेक कारणों से अपनी ओर आकृष्ट किया उनमें से कुछ बिंदुओं पर चर्चा करने पर सामने जो निष्कर्ष आता है,वह यह कि सोशल मीडिया की साहित्यिक भीड़ से स्तरीय गीतकारों का चयन।
दूसरा,सुदूर अंचलों से ऐसे गीतकारों को मंच प्रदान करना जिन्हें पहले कभी लाइव न तो कभी देखा और न ही सुना।
मैं कुछ प्रस्तुतियों को स्मरण कर अपने अनुभव साझा करना चाहूँगा।
इस मंच से पहले मेरा ध्यान कभी भी प्रदीप पुष्पेंद्र जी के गीतों पर नहीं गया मैं उन्हें सुनकर आश्चर्य चकित था उनके गीत बेजोड़ थे।एक और अनुभव जोड़ना चाहूँगा,निःसन्देह डॉ राहुल अवस्थी जी अपनी जगह बहुत चर्चित रहे होंगे।पर मैंने उनके दार्शनिक पृष्ठभूमि पर सृजित गीत पहली दफा सुनें,उन्हें पूरे मन से आज भी सराहने का मन होता है।इसी तारतम्य में जहाँ एक ओर वरिष्ठ नवगीतकार Gulab Singh जी,गुलाब सिंह जी,माहेश्वर तिवारी जीMaheshwar Tiwari ,डॉ सुभाष वसिष्ठ जी dr Subhash Vasishthaजी,कुमार शिव जी Kumar Shiv जी,डॉ जगदीश व्योम जी,dr Jagdish Vyom जी, डॉराजेन्द्र गौतम जी,ख्यात समालोचक और नवगीतकार वीरेंद्र आस्तिक जी, दिल्ली से भारतेंदु मिश्र जी,जमशेदपुर बिहार से,शांतिसुमन जी, सीमा अग्रवाल जी,बेगूसराय से Rahul Shivay जी, Garima Pandey जी,बैंगलोर से गरिमा सक्सेना Garima Saxenaजी,शाहजहांपुर से अभिषेक औदिच्य जी,लखनऊ से संध्या सिंह जी वाराणसी से ओम धीरज जी,कानपुर यू.पी.से अवध बिहारी श्रीवास्तव जी विनोद श्रीवास्तव जी,Vinod Srivastava जी, Jairam Jay जी,अनुज अरुण तिवारी जी,गाजियाबाद से जगदीश जैन्ड 'पंकज' जी इलाहाबाद से यश मालवीय Yash Malviya जी, होशंगाबाद से Vinod Nigam जी और भोपाल से डॉ रामवल्लभ आचार्य जी RV Acharya जी और Mamta Bajpai जी,की प्रस्तुतियों ने मन मोह लिया।
वहीं,दूसरी पूर्णिमा वर्मन जी और राकेश खंडेलवाल जी जो सात समंदर पार से आते हैं, की प्रस्तुतियों ने भी कम सम्मोहित नहीं किया।कुल मिलाकर ऐसी गम्भीर रचनाओं का पाठ इससे पहले मैंने अपने जीवनकाल में नहीं सुना।समग्रतः कहा जा सकता है कि शिवोहम साहित्यिक पेज अपनी प्रस्तुतियों के कारण ही सबका चहेता बन गया।
अब तक देश विदेश के रचनाकारों को गिनें तो कुल जमा अपनी 78 प्रस्तुतियों को यह मंच अपने खाते में दर्ज करा चुका है। ऐसा नहीं कि यहाँ सिर्फ वरिष्ठ रचनाकारों को ही वरीयता दी गयी।आयुवर्ग से घटते क्रम में देखें तो 94 साल के वयोवृद्ध श्रद्धेय यतीन्द्रनाथ राही जी Yatindranath Rahi जी,से लेकर 28 वर्ष तक के युवतम रचनाकारों को आज भी पेज की रिकॉर्डेड प्रस्तुतियों में लाइव देखा और सुना जा सकता है।
नवगीत के शोधार्थियों को विपुल सामग्री प्रदान करने में यह मंच सक्षम है।निःसन्देह भविष्य में नवगीत के शोधार्थी यहाँ की सामग्री से लाभान्वित होंगे।
इस पूरे उपक्रम में सबसे सक्रिय और सराहनीय भूमिका रही उनके नाम क्रमशः Amit Tiwari जी,डॉ भावना तिवारी जी और उनके सहयोगी और संस्था के सांस्कृतिक सचिव विश्वनाथ विश्व जी की रही,शिवोहम की इस पूरी टीम को सारे देश और विदेश के लोगों का स्नेह और सहयोग मिला।प्रिया राठी के आकर्षक पोस्टर और उसकर विश्वनाथ विश्व जी की टिप्पणी के महत्व की चर्चा किये बिना बात पूरी नहीं होगी।
आज भी शाम के छह बजते ही मोबाइल की स्क्रीन पर उँगलियों कई बार शिवोहम टाइप करने को मचल उठतीं हैं।
"लव यू शिवोहम"
______________
मैं पुनः शिवोहम की टीम विराम के बाद दूसरे चरण की आगामी योजनाओं के क्रियान्वयन के लिए शुभकामनाएँ और अग्रिम बधाइयाँ प्रेषित करता हूँ।
जल्द ही शिवोहम साहित्यिक मंच अपनी गतिविधियों के दूसरे चरण से आपको अवगत कराने जा रहा है।
शुभकामनाएँ
प्रस्तुति
मनोज जैन
106,विठ्ठल नगर
लालघाटी गुफामन्दिर रोड़
भोपाल
462030
महेश उपाध्याय के नवगीत प्रस्तुति : वागर्थ संपादक मण्डल
अप्रतिम नवगीतकार महेश उपाध्याय के पाँच और नवगीत
1
हम टिकने के लिए
______________
एक तेज़ धारा में आदमक़द
हम टिकने के लिए
खड़े हैं कतारों में जैसे हों एक अदद
हम बिकने के लिए
जीवन में तिनका होना
कौन चाहेगा
बस इनका-उनका होना
धब्बों को धब्बों से धोते हैं
चमकदार —
हम दिखने के लिए
2
कल न मिलूँगा वहाँ
_______________
मुझे तुम देख रहे हो जहाँ
कल न मिलूँगा वहाँ ।
पलछिन-छिनपल बन्धु
तुम्हारा पथ मैं छोड़ रहा हूँ
राजमार्ग को त्याग
नई पगडण्डी मोड़ रहा हूँ
राह कौन जाने आगे की
पहुँचूँगा मैं कहाँ ।
ठकुर सुहाती चाहें जो
सामन्तवाद उनकी थाती
लोक-चेतना ने सौंपी
हम को जनवादी पाती
रचने को इन्सान नया
जूझ रहे हैं जहाँ तहाँ ।
3
अब कुछ भी
_________
अब कुछ भी सहा नहीं जाता
दरियाई जोश भरा द्वेष
ठान रहा नावों से बैर
टूटे विश्वासों के कगार
अपने से ज़्यादा है ग़ैर
कारण भी कहा नहीं जाता
अब कुछ भी सहा नहीं जाता
4
आदर और निरादर
______________
आँधी आएगी
__________
तुम !
लँगड़े हो
एक टाँग पर खड़े रहो
तुम्हारा इसी में
आदर होगा ।
तुम्हारी दोनों आँखें
सलामत हैं
फिर भी तुम सबको
एक ही आँख से देखते हो
तुम्हारा निरादर होगा ।
5
ज़हरीला सूनापन
_____________
माना कुछ पास नहीं है अपने
कहने को बातें क्या कम हैं ?
मित्रों में गेन्द-सी उछालेंगे
दो बातें बासी अख़बारों की
माथे पर ग़ाली-सी फेंकेंगे
सौगातें पिछले इतवारों की
देखेंगे कैसे ?
डस पाएगा ज़हरीला सूनापन
संध्या तक इतने हम दम हैं
क्या कम हैं ?
बहसों में टूटेंगी आवाज़ें
यूँ ही दिन बीतेगा
मुफ़्ती जल-पान के सहारे में
(बैठे हैं)
कोई तो हारेगा, जीतेगा
धुँधलापन ओढ़कर चलेंगे घर
रातों को अनसुलझे ग़म हैं
क्या कम हैं ?
6
साँध्य-गीत
_________
टूट गई
धूप की नसैनी
तुलसी के तले
दिया धर कर
एक थकन सो
गई पसर कर
दीपक की ज्योति
लगी छैनी
आँगन में
धूप-गन्ध बोकर
बिखरी
चौपाइयाँ सँजोकर
मुँडरी से उड़ी
कनक-डैनी
https://www.facebook.com/groups/181262428984827/permalink/1116860365425024/
वागर्थ में आज
हिंदी के अप्रतिम नवगीतकार
महेश उपाध्याय जी के नवगीत
प्रस्तुति
मनोज जैन
__________
1
पाँवों ने छोड़ दिया घर
अनचाहे काम के लिए
लानी है चार रोटियाँ
नन्हे आराम के लिए
टाँककर रजिस्टर में हाज़िरी
हम नई मशीन हो गए
घर पर तो एक अदद थे
दफ़्तर में तीन हो गए
शीशे से टूटते रहे
थोड़े से दाम के लिए
टूटी मुस्कानों पर अफ़सरी
एक कील ठोंकती रही
थोथी तारीफ़ बाँधती गई
हाथों की गति रही सही
जड़ता से जूझते रहे
काग़ज़ी इनाम के लिए ।
2
काम पड़ा है
दो अदद थकान के
पहाड़ों के बीच
घाटी-सा काम पड़ा है
कमरे के चेहरे पर
आब नहीं
अधजले उदास कई क्षण पड़े
इधर-उधर
जिनका कोई कहीं
हिसाब नहीं
चाँदी के तारों से
कसा हुआ दिन
कितना मायूस खड़ा है ?
घर भर में काम पड़ा है ।
3
दोपहर : नश्तर
ओ मेरे अब ! दूँ तो क्या दूँ तुझे
पास मेरे कुछ नहीं है रे,
सिर्फ़ कुछ हारी-थकी बातें
सुबह की ताज़ी हवा :
कड़वी दवा
दोपहर : नश्तर
शाम : भद्दी गालियों
का नाम
रात : ठण्डा ज्वर
ज़िन्दगी टूटी हुई टहनी
मारती है हवा जिस पर
ठोकरें लातें
पास मेरे कुछ नहीं है रे,
सिर्फ़ कुछ हारी-थकी बातें ।
4
कैसी आज़ादी
उठो देश के जन-गण-मन
दे दो अपना तन-मन-धन ।
कैसी आज़ादी भाई
भाई का दिल है काई
काई खाती अपनापन
अपनापन ही है जीवन ।
आँगन की बदली काली
काली निगले ख़ुशहाली
ख़ुशहाली होगी रखनी
रख पाएँ तब अमन-चमन ।
छुपा बहारों में पतझर
पतझर की ख़ूँख़्वार नज़र
नज़र रहे चौकस आगे
आगे बढ़ते चलें चरन ।
5
मौक़ापरस्ती पंख
छितर जाएँगे सुनो !
मौक़ापरस्ती पंख काग़ज़ के
एक दिन की मेज़ पर सज के
ये अपने पाँव खड़ी घास
टीले के पास
(मौसम भर ही सही)
छोड़ेगी अपना इतिहास
भूमिका जो हो रहे हैं
भूमि को तज के
(वे) छितर जाएँगे
एक दिन की मेज़ पर सज के
6
अनकही कहानी
एक रंग को जीवन कहना
ग़लत बयानी है
जीवन रंग-बिरंगा
इसकी साँस रवानी है
मरुथल से हरियाली तक
झरने से सागर तक
इसके ही पन्ने बिखरे हैं
घर से बाहर तक
सौ-सौ बार कही फिर भी
अनकही कहानी है
कभी बैठ जाता है
जीवन सूखे पत्तों में
कभी उबल पड़ता है
मज़बूरी में जत्थों में
धरती से आकाश नापता
कितना पानी है ?
7
आदमी का फूल
रंग भर-भर कर रह गया है
आदमी का फूल
एक परचा थामने सम्बन्ध का
कोष खाली कर रहा है गन्ध का
रोज़ होता जा रहा है शूल
भीतर आदमी का फूल
काट कर सम्बन्ध आदमज़ात से
बाँध अपने पाँव अपने हाथ से
वस्तुओं को दे रहा है तूल
आदमी का फूल
कवि परिचय
__________
_____________
जन्म 11 जुलाई 1941
जन्म स्थान गाँव नदरोई, लोधा, अलीगढ़, उत्तरप्रदेश
कुछ प्रमुख कृतियाँ
आँधी आएगी, आदमी परेशाँ है, जल ठहरा हुआ (तीनों नवगीत संग्रह)
विविध
कवि रमेश रंजक के सगे छोटे भाई और हिन्दी के अप्रतिम नवगीतकार।
महेश उपाध्याय के नवगीत प्रस्तुति : वागर्थ
वागर्थ में आज
हिंदी के अप्रतिम नवगीतकार
महेश उपाध्याय जी के नवगीत
प्रस्तुति
मनोज जैन
__________
1
पाँवों ने छोड़ दिया घर
अनचाहे काम के लिए
लानी है चार रोटियाँ
नन्हे आराम के लिए
टाँककर रजिस्टर में हाज़िरी
हम नई मशीन हो गए
घर पर तो एक अदद थे
दफ़्तर में तीन हो गए
शीशे से टूटते रहे
थोड़े से दाम के लिए
टूटी मुस्कानों पर अफ़सरी
एक कील ठोंकती रही
थोथी तारीफ़ बाँधती गई
हाथों की गति रही सही
जड़ता से जूझते रहे
काग़ज़ी इनाम के लिए ।
2
काम पड़ा है
दो अदद थकान के
पहाड़ों के बीच
घाटी-सा काम पड़ा है
कमरे के चेहरे पर
आब नहीं
अधजले उदास कई क्षण पड़े
इधर-उधर
जिनका कोई कहीं
हिसाब नहीं
चाँदी के तारों से
कसा हुआ दिन
कितना मायूस खड़ा है ?
घर भर में काम पड़ा है ।
3
दोपहर : नश्तर
ओ मेरे अब ! दूँ तो क्या दूँ तुझे
पास मेरे कुछ नहीं है रे,
सिर्फ़ कुछ हारी-थकी बातें
सुबह की ताज़ी हवा :
कड़वी दवा
दोपहर : नश्तर
शाम : भद्दी गालियों
का नाम
रात : ठण्डा ज्वर
ज़िन्दगी टूटी हुई टहनी
मारती है हवा जिस पर
ठोकरें लातें
पास मेरे कुछ नहीं है रे,
सिर्फ़ कुछ हारी-थकी बातें ।
4
कैसी आज़ादी
उठो देश के जन-गण-मन
दे दो अपना तन-मन-धन ।
कैसी आज़ादी भाई
भाई का दिल है काई
काई खाती अपनापन
अपनापन ही है जीवन ।
आँगन की बदली काली
काली निगले ख़ुशहाली
ख़ुशहाली होगी रखनी
रख पाएँ तब अमन-चमन ।
छुपा बहारों में पतझर
पतझर की ख़ूँख़्वार नज़र
नज़र रहे चौकस आगे
आगे बढ़ते चलें चरन ।
5
मौक़ापरस्ती पंख
छितर जाएँगे सुनो !
मौक़ापरस्ती पंख काग़ज़ के
एक दिन की मेज़ पर सज के
ये अपने पाँव खड़ी घास
टीले के पास
(मौसम भर ही सही)
छोड़ेगी अपना इतिहास
भूमिका जो हो रहे हैं
भूमि को तज के
(वे) छितर जाएँगे
एक दिन की मेज़ पर सज के
6
अनकही कहानी
एक रंग को जीवन कहना
ग़लत बयानी है
जीवन रंग-बिरंगा
इसकी साँस रवानी है
मरुथल से हरियाली तक
झरने से सागर तक
इसके ही पन्ने बिखरे हैं
घर से बाहर तक
सौ-सौ बार कही फिर भी
अनकही कहानी है
कभी बैठ जाता है
जीवन सूखे पत्तों में
कभी उबल पड़ता है
मज़बूरी में जत्थों में
धरती से आकाश नापता
कितना पानी है ?
7
आदमी का फूल
रंग भर-भर कर रह गया है
आदमी का फूल
एक परचा थामने सम्बन्ध का
कोष खाली कर रहा है गन्ध का
रोज़ होता जा रहा है शूल
भीतर आदमी का फूल
काट कर सम्बन्ध आदमज़ात से
बाँध अपने पाँव अपने हाथ से
वस्तुओं को दे रहा है तूल
आदमी का फूल
कवि परिचय
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_____________
जन्म 11 जुलाई 1941
जन्म स्थान गाँव नदरोई, लोधा, अलीगढ़, उत्तरप्रदेश
कुछ प्रमुख कृतियाँ
आँधी आएगी, आदमी परेशाँ है, जल ठहरा हुआ (तीनों नवगीत संग्रह)
विविध
कवि रमेश रंजक के सगे छोटे भाई और हिन्दी के अप्रतिम नवगीतकार।
रविशंकर पांडेय जी का एक नवगीत
नीचे से ऊपर तक खोटा सिक्का खनक रहा:
डॉ रविशंकर पाण्डेय
__________________
उत्तर प्रदेश सिविल सेवा के सदस्य से सेवा निवृत्त डॉ रविशंकर पाण्डेय जी के नवगीतों में प्रतिरोध के प्रबल मुखर स्वरों को स्पस्ट सुना जा सकता नवगीतों में वह अपनी संवेदना को,समकालीन यथार्थ के, ताने-बाने से,आम आदमी के पक्ष में,बड़े सलीके से बुनते हैं।जन पक्षधरता,इनके नवगीतों की अन्यतम विशेषताओं में से एक है।
पढ़ते है अपने समय के प्रखर प्रतिभा सम्पन्न और सामयिक सरोकारों के बेहतरीन नवगीत कवि डॉ रविशंकर पाण्डेय जी को।
प्रस्तुति
मनोज जैन
■
संविधान रक्खा
सालों से सौ-सौ तालों में,
हम मक्खी में उलझ गये
मकड़ी के जालों में
तेरा मेरा नहीं
दर्द यह
कई पीढ़ियों का,
चौपड़ का वह खेल
आज है
साँप-सीढ़ियों का,
भटक रहे हम
भूल-भुलैया
गड़बड़झालों में
छल के आगे
चल न सकी कुछ,
तीर कमानों की
एकलव्य के
कटे अँगूठे
कटी जबानों की
द्रौणाचार्य फँसे हैं
अब भी इन्हीं सवालों में
शीशे का
यह महल देखकर
माथा ठनक रहा
नीचे से ऊपर तक
खोटा
सिक्का खनक रहा
है महज रोशनी का धोखा
यह नीम उजालों में
■
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आकलन में आज प्रस्तुत है
सप्तराग
संपादक शिवकुमार अर्चन
__________________________
नवगीत पर लिखे ख्यात लेखकों के आलेख हमारी विषय पर पकड़ मजबूत करते हैं।यह आकलन इसलिए नहीं कि मैं इसमें शामिल हूँ बल्कि इसलिए कि उस समय जब एक समालोचक ने इसे पढ़ा तब हम लोग कहाँ खड़े थे इन सब बारीकियों को आप बिना पढ़े नहीं समझ सकेंगे
भोपाल में स्थानीय स्तर पर चर्चित हुकुम पाल सिंह विकल जी और उन दिनों देशभर में तेजी से पहचान बनाने वाले दिवाकर वर्मा जी का जिक्र इस आलेख में होने के कारण यह आकलन यहाँ प्रस्तुत है ,ताकि उनके अनन्य मित्र उन्हें स्मरण कर सकें सात कवियों में से दो अब नहीं हैं।
दुर्योग से इस लेख के लेखक और कवि कुमार रविन्द्र जी भी हमारे बीच नहीं हैं!
युवा मित्रों (जिनमें मैं भी शामिल हूँ)को नवगीत लिखने की बजाय पहले इसे समझने में अपनी ऊर्जा झोंकनी चाहिए।
आशा है मित्र इस लेख को पढ़कर प्रतिक्रिया देंगे।
प्रस्तुति
मनोज जैन
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वागर्थ में आज प्रस्तुत है
कीर्तिशेष कवि कुमार रविन्द्र जी का भोपाल के सात चर्चित कवियों के समवेत संकलन की समीक्षा
प्रस्तुति
मनोज जैन
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आकलन में आज
'सप्तराग'
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यानी सात सुरों का समवेत सरगम
कुमार रवीन्द्र
गीत-नवगीत के बीच जो एक घनिष्ठ रिश्ता है और उनके बीच में जो एक सूक्ष्म विभेद है, उसकी साक्षी देते भोपाल नगर के सात प्रतिष्ठित कवियों की गीत-रचनाओं के समवेत संकलन 'सप्तराग' का आना इधर के गीत-प्रसंग की एक प्रमुख घटना है। इस संकलन में गीतकविता की तीन पीढ़ियों का प्रतिनिधित्त्व हुआ है - एक ओर हैं श्री हुकुमपाल सिंह 'विकल' एवं श्री जंगबहादुर श्रीवास्तव 'बंधु', जो आयु एवं अपनी सुदीर्घ गीत-यात्रा की दृष्टि से छायावाद की परिधि को छूते हैं तो दूसरी ओर हैं उनके बाद की पीढ़ी के गीत की साखी देते भाई दिवाकर वर्मा, मयंक श्रीवास्तव एवं शिवकुमार अर्चन और उसके बाद के आज के समय के गीत के तेवर से रू-ब-रू कराते युवा कवि दिनेश प्रभात एवं मनोज जैन 'मधुर'। इन गीत कवियों का एक साथ उपस्थित होना गीत-नवगीत के बीच में उपजे सभी विवादों को एक साँझे संवाद की सुखद स्थिति में हमारे सामने प्रस्तुत करता है। कुछ वर्षों पूर्व भोपाल के यशस्वी पत्र 'प्रेसमेन' के माध्यम से 'गीत को गीत ही रहने दो' शीर्षक एक परिसंवाद का आयोजन किया गया था, जिसमें गीत-नवगीत के रिश्ते और उनके बीच के विभेदों पर एक सार्थक बहस हुई थी। यह संकलन उसी परिसंवाद की वह कड़ी है, जिसमें इस बात को रेखायित किया गया है कि गीत एवं नवगीत एक ओर तो घनिष्ठ रिश्ते यानी पिता-पुत्र सम्बन्ध से जुड़े हैं, किन्तु दूसरी ओर उनमें कहीं-न-कहीं एक विशिष्ट अंतर भी है, जो उन्हें एक-दूजे से अलगाता है। इस संग्रह के वरिष्ठतम से लेकर कनिष्ठतम गीतकवि की रचनाओं में इस द्वंद्व के संकेत स्पष्ट दिखते हैं। यदि विकल एवं बंधु में साग्रह नये कथ्य के साथ-साथ नई कहन को अपनाने की लालसा झलकती है तो दूसरी ओर दिनेश प्रभात एवं मनोज'मधुर' के गीतों में भी पारम्परिक कहन के पर्याप्त संकेत झलकते हैं। बीच की पीढ़ी के तीनों गीतकार इस संकलन की उस संधिरेखा पर खड़े दिखाई देते हैं, जहाँ से गीत को नवगीत बनते देखा जा सकता है।
इस संकलन में इन सातों कवियों की सपरिचय एवं सवक्तव्य ग्यारह-ग्यारह गीत-कविताएँ प्रस्तुत हुई हैं। संग्रह के 'समर्पण' से इन कवियों का मन्तव्य स्पष्ट हो जाता है - 'उनको जो गीत में आस्था / रखते हैं / और उनको भी / जो इसकी मृत्यु की / अफवाह को / सच मान बैठे हैं' यानी यह संग्रह एक ओर गीतकविता के साक्षी के रूप में प्रस्तुत हुआ है तो दूसरी ओर एक चुनौती और चैलेन्ज के रूप में भी पाठक की बौद्धिकता को कुरेदता है। वस्तुतः पिछले आधी सदी का हिंदी कविता का इतिहास गीत के विरुद्ध 'नई कविता' के पुरोधाओं द्वारा लगाये विविध आरोपों-अस्वीकारों का रहा है। इस दृष्टि इस संग्रह के समर्पण के इस तेवर का अतिरिक्त महत्त्व है। गीत-नवगीत की अस्मिता को यह समर्पण-वाक्य निश्चित ही रेखांकित करता है। संकलन के सम्पादक श्री शिवकुमार 'अर्चन' अपनी प्रस्तुति-भूमिका में भोपाल नगर के गंगा-जमुनी सांस्कृतिक परिवेश पर 'छ्न्दानुरागी भोपाल जहाँ आरती और नमाज़ को गले मिलते देखा जा सकता है' वाक्यांश के माध्यम से बड़ा ही सार्थक इंगित किया है। भोपाल नगर की सांस्कृतिक चेतना एवं उसके रागात्मक अहसासों का निश्चित ही यह समवेत संकलन एक महत्त्वपूर्ण दस्तावेज़ है।
जैसा कि पहले ही कहा जा चुका है संग्रह के सातों कवियों की रचनाओं में गीत की पारम्परिक और नवगीतात्मक कहन की बानगी एक साथ उपस्थित दिखाई देती है। संग्रह के वरिष्ठतम कवि हैं डॉ. हुकुमपाल सिंह 'विकल'। उनकी कविताई का शुभारम्भ छायावाद काल के अंतिम पड़ाव से होता है और आज के नवगीत के चौथे आयाम के कालखंड तक उसका प्रसार-विस्तार है। उनके गीतों में एक सहज पारम्परिक सामाजिक उत्तरदायित्त्वबोध है, जो हमारी देशज आत्मीय संवेदना को व्याख्यायित करता है - फिलवक्त के पदार्थवादी आपाधापी वाले संवेदनशून्य मूल्यहीन सभ्यता के उत्तर में वे हमारे सनातन मूल्यों की पुनर्स्थापना इस प्रकार के आत्मीय संबोध से करने का उपक्रम करते दीखते हैं -
रोटी एक खड़े आँगन में / भूखे चार जने / खाते नहीं बने
... ... ...
चार जनों ने उस रोटी को / सहज बाँटकर खाया
देख उसे आँगन का बिरवा / मन-ही-मन मुस्काया
द्वार-देहरी उसी ख़ुशी में / लगे संग नचने
उनकी चिंताएँ भी वही हैं जो आज के आम चिन्तनशील आदमी की हैं - मसलन, 'राजपथों पर डाल दिए ओछी किरणों ने डेरे' और 'लगीं टूटने परम्परा से / नेहभरी निष्ठाएँ' या 'राजपथों से राजनीति की ऐसी हवा चली / राम-भरत का प्यार नहीं अब / दिखता गली-गली'। वैसे आज की गीत-कविता के प्रति वे आश्वस्त नहीं दिखते -
अपनी भावभूमि से हटकर / लगे शब्द शिल्पों को ढोने
नए प्रतीकों की भटकन में / पश्चिम को लग गये पिरोने
सभी गलत संदर्भ खोजते / गंध छोड़ अपने चन्दन की
उनके कुछ गीत विशुद्ध पारम्परिक हैं, पर उनमें उनके कवि की विशिष्ट कहन स्पष्ट दीखती है - उदाहरणार्थ 'संध्या की अनलस बाँहों में / सूरज को इठलाते देखा' अथवा 'ठूँठ-ठूँठ पर चौपाई-सी डाल-डाल दोहे / अमराई में अंग-अंग में पद्माकर सोहे' जैसी सम्मोहक उक्तियाँ उनके गीतों में उपलब्ध हुई हैं। समूचे रूप में वे एक ऐसे गीतकवि हैं जिनमें नवता का आग्रह तो है और नये ढंग की कहन के प्रति रुझान भी है, किन्तु वह कहन उनकी स्वाभाविक भूमि नहीं है। फिर भी नवगीत की कहन को अपनाने के प्रति उनकी रुझान संग्रह के कई गीतों में दीखती है। उनका यह सम्मोह उनके गीतों को क्या दिशा देगा यह आने वाला समय ही बता सकेगा। ,
संकलन के दूसरे वरिष्ठ कवि है जंगबहादुर श्रीवास्तव ‘बन्धु’। उनके वक्तव्य में एक बहुत ही सार्थक टिप्पणी हुई है - 'गीत को अपने अंदर ऐसी आवाजें पैदा करनी होंगी जो समय के साथ सार्थक संवाद करती हों। समय की सांकेतिक भाषा आगाह करती है कि गीत अपने नखों में शातिर नुकीलापन और चितवन में चुटीले सम्मोहन के प्रभावशाली बिन्दुओं का अविष्कार करे तथा शब्दों की मामूली चटक-मटक के मोहपाश से बाहर आये’। उनके गीतों में एक नये किसिम की भाषा-संरचना देखने को मिलती है, जो उन्हें अन्य गीतकारों की रचनाओं से अलगाती है। व्यंग्य की प्रखर अभिव्यक्ति कई गीतों में हुई है - परम्परा से प्राप्त पौराणिक बिम्बों का नये सन्दर्भों में प्रयोग उनके ऐसे गीतों की विशिष्टता है। 'यहाँ के नागरिक ब्रह्मा सभी हैं चार मुख वाले', 'कुंद इंदु दर गौर कामिनी / भीगे पट मधुरंगम / मन सन्यासी गोता खाए / तिरवेनी के संगम ... प्रीति उर्वशी रीझ पुरुरवा देवराज विष घोलम ... तन्वंगी सत्ता के पग में / पायल खन खन खन' जैसी पंक्तियाँ इन गीतों को एक अनूठा भाव-संवाद प्रदान करती हैं, इसमें कोई संदेह नहीं है। उनकी एवं सम्भवतः पूरे संकलन की उपलब्धि-रचना है ‘खरी कमाई मेरा घर’ शीर्षक गीत, जिसमें परिवार एवं घर के बिखराव को बड़े ही सजीव बिम्बों में परिभाषित किया है कवि ने। देखें उसकी कुछ सार्थक पंक्तियाँ –
बड़े सबेरे अम्मा चाची / भजन सुनातीं चाकी पर
तुलसी सूर कबीरा कुम्भन / मीराबाई मेरा घर
... ... ...
दादी वाली रई मथानी / बाबा के बजरंगबली
खेल कबड्डी धमा चौकड़ी / घाम घरों से भाग चली
सांझ आरती ठाकुर जी की / जय जगदीश हरे वाली
ग्यारह दोहे पांच सोरठा / दस चौपाई मेरा घर
घर के पीछे महुआ पीपल / दरवाजे का बाबा नीम
रामू रंगा अगनू तेली / चुन्नन मिसरा शेख सलीम
मन्दिर मस्जिद की आशीषें / गुरबानी गुरुद्वारे की
पीड़ा को पी जाने वाला / चिर विषपायी मेरा घर
यह गीत निश्चित ही हमारी उस पारम्परिक आस्तिक अस्मिता का आख्यान कहता है, जिसमें सब कुछ शामिल है और जो अब बिलाने की कगार पर है। इसी तरह की कुछ पंक्तियाँ है एक और गीत की -
दादी के बक्से से निकला / हल्दी रोली चन्दन
पुरिया भर ब्रज लीला निकली / डिबिया में रघुनन्दन
दो दोहे रहीम के निकले / हनूमान चालीसा
बंधी मिली तुलसी माला में रामनाम की गाँठ
गीत की यह भाषा-भंगिमा हमारी पारम्परिक बोली-बानी से उपजी है और इस नाते हमें अपनी परम्परा से जोडती है। यह कहन, सच में, अलग है आम गीत की कहन से। किन्तु यह पारम्परिकता -मोह ही संभवतः इन गीतों की परिसीमा भी है।
संकलन के वय-वरिष्ठता क्रम में अगले कवि हैं दिवाकर वर्मा। उनकी राय में, 'संवेदना की तीव्रता जितनी अधिक होती है, अभिव्यक्ति उतनी ही प्रभावी होती है' और 'अभिव्यक्ति का माध्यम भी संवेदना स्वयं ही खोज लेती है' एवं उनके 'गीत अनुभूति और दृष्टि की उपज हैं। अनुभूति और दृष्टि यानी जीवन के अनुभवों से उपजे अहसास और समझ-सोच - हाँ, यही तत्त्व तो किसी कवि की कविताई के कथ्य को प्रामाणिक बनाते हैं। उनके गीतों में फिलवक्त की विसंगतियों को एक नये भाषिक मुहावरे में अभिव्यक्ति मिली है, जो उन्हें नवगीत की भाव एवं कहन-भंगिमा के एकदम निकट ला देती है। संकलन में शामिल उनका पहला ही गीत इस तथ्य की बानगी देता है। देखें उसके कुछ अंश -
शहर अघासुर / खड़ा लीलने / निश्चल वृन्दावन
बुद्धूबक्सा शयनकक्ष में / खेल रहा पारी
बोली-भाषा बदली / चौका-व्यंजन बदल गये
वृन्दावन की कोलगेट से भोर दमकती है
डियोडोरेंट की खुशबूवाली / साँझ गमकती है
मोबाइल की रिंगटोन पर / पागल वृन्दावन
इसी तरह का एक और गीत-अंश है -
घर-घर 'नूडल और दो मिनिट' / सिर चढ़कर बोले
नयी क्षितिज, आयाम नवल / हैं टी.वी. ने खोले
ये पंक्तियाँ आज के आम भारतीय समाज के बदलते परिवेश की व्याख्या तो करती ही है, साथ ही इनकी भाषिक संरचना भी आज के समय के अनुकूल ही है। यही तथ्य इन्हें विशिष्ट बनाता है। किन्तु परम्परागत गीतात्मकता की ध्वनियाँ भी उनके कई गीतों में स्पष्ट झलकती है, जैसे यह गीतांश -
प्रस्फुटित रक्ताभ आभा / धूप की रोली धुली-सी
गंध-किंशुक-पँखुड़ियों की / क्षीर में केसर घुली-सी
ओस आवृत वसुमती पर / सूर्यर्श्य्यावलि थिरकती
स्वर्ण-मिश्रित रजत-बुंदकी / पारिजातों से लिपटती
द्विवेदी युग एवं छायावाद काल के कविता स्वरूप एवं भाषिक-शिल्प की याद ताज़ा कर जाता है। एक ओर यह कवि की शब्द-सामर्थ्य को दर्शाता है तो दूसरी ओर यह एक बीते युग के भावबोध तथा शिल्प के प्रति उनके सम्मोह की बानगी भी देता है।
संकलन में शामिल सभी कवियों में मयंक श्रीवास्तव इस दृष्टि से विशिष्ट हैं कि नवगीत की पचास वर्षों से ऊपर की यात्रा में अपने सृजन के प्रारम्भ से ही वे शामिल रहे हैं। उनकी रचनाओं में नवगीत के समूचे इतिहास के सभी पड़ावों के इंगित मिलते हैं। वे एक सम्पूर्ण गीत कवि हैं और उनकी कविताई में बिम्बों का अवतरण बिलकुल सहज रूप में होता है। उनके गीतों में आज की लगभग सभी राजनैतिक-आर्थिक-सामाजिक अनर्गल चेष्टाओं एवं चिन्तनशील व्यक्ति के मन में उनसे उपजी चिंताओं का आकलन एवं आलेखन हुआ है। एक ओर यदि 'सत्ता और सियासत के कपटी मल्लाहों', 'अक्षयवट के नीचे बैठे हुए जुआरी' शासक वर्ग की खबरें इन गीतों में हैं तो दूसरी ओर आज के तथाकथित सभ्य समाज में पलते 'हत्या चोरी लूट डकैती / गबन घूसखोरी' के वातावरण के प्रति कवि की आशंका एवं आक्रोश की भी अभिव्यक्ति इन गीतों में हुई है। कवि 'द्रव्य कोष के स्रोत अनैतिक -सभ्य लुटेरों के 'लॉकर / तस्कर बिल्डर अफसर लीडर / के गठबन्धन' के साथ 'न्याय तुला कमजोर हुई' की जो त्रासक स्थिति आज के समय में जो पैदा हुई है, उसकी 'पड़ताल जरूरी है' मानता है। जो 'दोमुँही निर्लज्ज निष्ठाएँ' आज के समय में पनप रही हैं और जिनसे हमारी समूची व्यवस्था, हमारा पूरा समाज बिखराव की स्थिति में है, उन्हें देख-परखकर कवि का मन 'राह पर चलता हुआ फकीरा' और 'कबीरा' दोनों होने लगता है और वह 'धूप के अय्याश चेहरे से...लड़ाई' की मुद्रा में उद्यत हो जाता है। फिलवक्त में जो हाट-संस्कृति पनपी है और जिसके तहत 'घर अपनी प्रासंगिकता खो बैठा' है, उसकी खबर देती हैं इस तरह की गीत-पंक्तियाँ -
घर आकर बाज़ार हमारी / ज़ेब टटोल गया
... ... ...
अनुशासित चूल्हे का छोटा हो भूगोल गया
अक्षर मँहगा हुआ / मगर कंगाल हथेली है
ग्राम्य परिवेश के शहरीकरण से उपजे 'चिमनी के बेरहम धुएँ का ...अंकुश' और उससे 'जंगल बनते हुए गाँव' उसे व्यथित करते हैं। उनसे उपजे अनर्गल संदर्भों की खबर देते हुए वह कहता है -
करते हैं उत्पात / शहर के पढ़े हुए तोते
पगडंडी मिट गई / शहर की छेड़ाखानी में
... ... ...
लोकधुनें कह रहीं / नहीं सुख / रहा किसानी में
कोयल लगी हुई है / गिद्धों की मेहमानी में
इसी के साथ कवि की अपनी वैयक्तिक पीर भी एक-आध पारम्परिक शैली के गीत में व्यक्त हुई है, किन्तु उनमें भी एक अलग किसिम की दृष्टि हमें देखने को मिलती है, जो उन्हें पारम्परिक गीतों से अलगाती है -
झर रहे पत्ते हमारी / कल्पना के मीत हैं
ये हमारे छंद हैं / ये ही हमारे गीत हैं
लिख दिया शुभ भाग्य / पतझड़ ने हमारे भाल पर
दे रहीं सूनी टहनियाँ / साँस को संजीवनी
अंग्रेजी रोमांटिक कवि पी.बी.शेली की प्रसिद्ध 'ओड टू दि वेस्ट विंड' गीतकविता में पतझड़ का भविष्य की जीवनदायिनी ऋतु के रूप में अंकन हुआ है, किन्तु यहाँ तो मनुष्य के जीवन के उम्र रूपी पतझड़ की प्रतीक-कथा कही गयी है और उसमें भी गीत-मन की शाश्वतता को बड़े ही सटीक रूप में अभिव्यक्ति दी गयी है। यह कथ्य बिलकुल अलग ढंग का है। इसमें जो उद्भावना हुई है, वह विशुद्ध भारतीय काव्य अस्मिता की है,जो अनथक-अजर एवं अनंत है।
इस समवेत संकलन के सम्पादक शिवकुमार 'अर्चन' की गीतात्मकता गीत के प्रति इस आस्था से उपजी है कि 'गीत भाषा की सर्वोत्तम अभिव्यक्ति हैं' और इनकी 'व्याप्ति लोकरंजन से लोकमंगल तक है'। कवि का 'दृढ विश्वास है भविष्य में समय की छन्नी से यदि कुछ बचा तो वो शायद गीत की ही पंक्तियाँ होंगी'। उनके गीतों में भी नवगीतात्मक कहन के प्रचुर अंश मिलते हैं। समय के सन्दर्भों का इंगित देते ये गीत हमें उस मनस्थिति से जोड़ देते हैं, जिसमें 'साँस में बजता नहीं अब कोई बादल राग / काल-धुन से बहिष्कृत / बेसुरे पत्तों' की 'ही ध्वनियाँ हम सुन पाते हैं। आज के वक्त का हवाला देती कवि के पहले ही गीत की इन पंक्तियों में पौराणिक एवं लोक सन्दर्भों के बिम्ब बड़ी ही सहजता से अवतरित हुए हैं, जो अर्चन के कवि की कहन को विशिष्ट बनाते हैं -
यह समय चट्टानवत है
यक्ष प्रश्नों के नहीं उत्तर / युधिष्ठिर का शीश नत है
अंधकूपों से निकलते / सत्य के कंकाल
बोधिवृक्षों पर जमे हैं / सैकड़ों वेताल
मौन हैं सारी कथाएँ / और विक्रम भूमिगत है
... ... ...
दुकानों में बेच आए / क्रांति की भाषा
पांचजन्य गिरवी पड़ा है / युद्ध से अर्जुन विरत है
आज के छल-प्रपंच वाले विषम समय की आख्या यों कही गई है -
आँखों के आगे दीवारें / आँखों के पीछे जंगल हैं
जिनके चेहरे रंग-बिरंगे / उन पर लिखे हुए मंगल हैं
वह बिलकुल साधारण जिसके / नाखूनों में धार नहीं है
आम आदमी के जीवन सामान्य चिंताओं से जोड़ती ये पंक्तियाँ साधारण हैं, फिर भी कितनी सहज बिम्बात्मक हैं -
ऑफिस में भी चिंता सर पर / कल बिजली का बिल भरना है
सब्जी, दवा, दूध, अम्मा का / चश्मा भी तो बनवाना है
चित्रात्मकता अच्छी कविता की एक विशिष्ट पहचान है। अर्चन का एक प्रकृतिपरक शब्द-चित्र तो हमें नवगीत के प्रथम चरण की याद बरबस दिला जाता है -
गीतों के नीलकंठ - मेघों के झगड़े -बिजली की डांट-डपट
झींगुर की चिल्लपों / मेढक की टर्र टर्र
बूँदों की फ्रॉक पहिन / हवा चले फर्र फर्र
भींग रही नन्हीं सी गौरैया बाँस पर
अर्चन की रचनाओं में नवगीत की आहटें एकदम स्पष्ट हैं इसमें कोई संदेह नहीं है।
दिनेश प्रभात के अनुसार गीत उनकी साँसों के सरगम में है, धड़कनों की थिरकन में है, आंसुओं के बह्वों में है, स्वप्न के अलावों में है, दर्द के उतार-चढ़ावों में है यानी गीत के वे हर वैयक्तिक स्वरूप को जानते-पहचानते हैं। पारम्परिक भावबोध का उनका एक गीत अपनी अनूठी कहन-भंगिमा की दृष्टि से बिलकुल अनूठा बन पड़ा है। देखें उसकी कुछ पंक्तियाँ -
एक हिमालय हूँ तब ही तो / धीरे-धीरे पिघल रहा हूँ
जितना माँज रही है पीड़ा / उतना उजला निकल रहा हूँ
जितना अनुभव मिला उम्र से / उतनी यादें हैं बालों में
इस वैयक्तिक अनुभूति में भी एक सामाजिक संचेतना प्रच्छन्न रूप से व्याप्त है। इसी भाव की एक और गीत की पंक्तियाँ है -
झील नहीं हूँ इक दरिया हूँ / ठहरा कब हूँ सिर्फ चला हूँ
राहगीर हूँ कड़ी धूप में / खूब तपा हूँ खूब जला हूँ
वक्त नहीं शामिल कर पाया / कभी मुझे बैठे-ठालों में
शहरीकरण के वर्तमान माहौल में सनातन सांस्कृतिक मूल्यों के विघटन और ग्रामीण परिवेश की विकृति की कथा कमोबेश आज के हर गीतकवि की संवेदना को उद्वेलित करती दिखती है। दिनेश भी इससे अछूते नहीं रह पाए हैं। उनकी स्वयं की ग्रामीण पृष्ठभूमि उन्हें आज के बदले ग्राम्य परिवेश के स्वरूप को खिन्न मन से अवलोकती है और व्यथित होती है -
संग्रह के सबसे कम उम्र के और आज के गीत-नवगीत का प्रतिनिधित्व करते कवि हैं मनोज जैन 'मधुर'। अपने वक्तव्य में 'मधुर' ने दो बहुत ही महत्त्वपूर्ण बातें कहीं है - एक तो यह कि आज के 'नवसामंतवाद और नवउपनिवेशवाद के विरुद्ध गीत में एक रचनात्मक प्रतिरोध मुखर होना ही चाहिए': दूसरी यह कि 'समय के साथ-साथ गीत की कथ्य-वस्तु जैसे-जैसे जटिल होती जाती है, रचना-प्रक्रिया की सहज मुद्रा उतनी ही श्रम-साध्य होती जाती है। दूसरे शब्दों में शब्द को उतना ही धारदार होकर प्रासंगिक होना होता है, अन्यथा शब्द और समय का रिश्ता टूट-सा जाता है'।
संकलन में शामिल मनोज के अधिकांश गीत अपने रचनात्मक प्रतिरोधी स्वर की दृष्टि से उक्त वक्तव्य की तसदीक करते हैं। उनकी रचना-प्रक्रिया भी अवचेतन से उपजी जटिल है। फिलवक्त के सरोकारों से जोड़ती इन गीत-पंक्तियों की कहन पारम्परिक गीत से बिलकुल अलग किसिम की है -
तोड़ पुलों को बना लिए हैं / हमने बेढब टीले
देख रहा हूँ परम्परा के / नयन हुए हैं गीले
नयी सदी को संस्कार से / कटते देख रहा हूँ
या हर कंकर में शंकर वाला / चिन्तन पीछे छूटा
अथवा हम ट्यूब नहीं हैं डनलप के / जो प्रेशर से फट जायेंगे
और हाँ इस प्रकार की विशुद्ध निसर्ग-परक उत्सवी मुद्रा से उपजी पंक्तियाँ भी आम पारम्परिक गीत-भंगिमा से मनोज के गीतों को अलगाती है -
मेघ देते थाप / बूँदें नाचतीं
आज सोंधी गंध का / धरती लगाती इत्र
बरखा से भीगी धरती का इत्र लगाने का बिम्ब मेरी राय में नवगीत की आज की कहन की विशिष्ट मुद्रा का हिस्सा है।
इसी प्रकार 'दृष्टि है इक बाहरी / तो एक अंदर है / बूंद का मतलब समन्दर है' भी समग्र सृष्टि में व्याप्त जीवनी शक्ति एवं एक साँझे सात्विक अस्ति-बोध को परिभाषित करती है। यह दृष्टि एक ओर सनातन भारतीय मनीषा में व्याप्त आस्तिकता को रेखांकित करती है तो दूसरी ओर आज के वैश्विक मानव की संचेतना को भी कहीं-न-कहीं संकेतित करती है। मनोज के लिए शब्द-ब्रह्म की संचेतना मानुषी आस्था का सबसे सार्थक स्वरूप है -
शब्दों में ताकत अद्भुत है / हर मन का कल्मष धोते हैं
... ... ...
शब्दों की पावन गंगा में / जो भी उतरा वह हुआ अमर
शब्दों ने रच दी रामायण / शब्दों ने छेड़ा महासमर
हमने चाहा कुछ गीत लिखें / पर छंद नहीं सध पाता है
मन बोला ऐसा होता है / जब भावों का / अभिषेक न हो
वस्तुतः कविता में शब्द की रसात्मक परिणति अनिवार्य है, वरना शब्द झूठे एवं अनाचारी हो जाते हैं। किन्तु इसका तात्पर्य यह कदापि नहीं कि कविता में चिन्तन का कोई स्थान नहीं और वह कोरी भावाभिव्यक्ति है। भावों की छलनी से छनकर सोच एक नई भंगिमा अख्तियार कर लेता है और उसका वही स्वरूप कविता में अनायास प्रस्तुत हो जाता है। मनोज के कुछ गीत उनके संस्कारों में बसे जैन दर्शन से उपजी हैं और मेरी दृष्टि में यदि वे इस संग्रह में न शामिल होतीं तो अच्छा होता। मनोज की कविताई में नवगीत की अधुनातन कहन अपनी पूरी सामर्थ्य के साथ देखने को मिलती है। उनके जैन दर्शन वाले गीत इस दृष्टि से कमजोर लगते हैं। अस्तु, वे इस कवि की छवि को खंडित करते हैं, ऐसा मेरा मानना है।
समग्रतः 'सप्तराग' एक ऐसा समवेत संकलन है जिसमें गीत-नवगीत के वर्तमान समय के कुछ सशक्त हस्ताक्षर प्रस्तुत हुए हैं। इन सभी कवियों की रचनाओं में आधुनिक भावबोध यानी समय-सन्दर्भ मुखर हुआ है और गीत-नवगीत के वर्तमान सरोकारों से वह आम पाठक को परिचित कराता है। साथ ही नवगीत एवं पारम्परिक गीत की जो अलग-अलग कहन-भंगिमाएँ हैं, उनका भी कुछ हद तक इस संग्रह से पता चलता है। संग्रह का 'सप्तराग' नाम सार्थक है क्योंकि इसमें समकालीन गीतकविता के सातों राग यानी वर्तमान यथार्थबोध, भारतीय सांस्कृतिक संचेतना, लोकसम्पृक्ति और जातीयता के बोध, परम्परा से जुड़े नवताबोध, संवेदनधर्मिता के कथ्यात्मक एवं छान्दसिकता और लयात्मकता, सहज अनलंकृत बिम्बधर्मिता एवं संप्रेप्रेषणीय ऋजुता के कहन-वैशिष्ट्य आदि अपने पूरे प्रखर स्वरूप में उपस्थित हैं। इन दृष्टियों से यह संग्रह, सच में, आज की गीतकविता का प्रतिनिधित्व करता है। मेरा हार्दिक साधुवाद है संग्रह में शामिल सभी गीतकवियों को। संकलन के सम्पादक शिवकुमार 'अर्चन' एवं उनके सहयोगी एक लगभग त्रुटिविहीन संयोजन-प्रकाशन के लिए विशेष बधाई के पात्र हैं। इस संकलन ने गीत के प्रति जो आस्था जगाई है, उसको नये आयाम प्राप्त हों, मेरी यही मंगलकामना है।
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‘'सप्तराग'’ –
यानी यह सात सुरों का सरगम
'अँजुरी में आस लिये दिन' के सुर
'धरती, पेड़, पहाड़ी, अम्बर' के गायन
'बोधि वृक्ष पर जमे (हुए) बैताल' दिखे
'बूढ़ी इमली की अपराजित चीख' मिली
'नेह गंग का गोमुख रीता'-पीर उसी की
'ग्यारह दोहा पाँच सोरठा दस चौपाई'
'शब्दों की निष्ठा अकुलानी'
मधुर-प्रभात-अर्चन-मयंक-दिवाकर-बंधु-विकल की / ने साधी
यह गीतों के सात सुरों वाली है वंशी
-- कुमार रवीन्द्र
परिचय
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जन्म 10 जून 1940
निधन 01 जनवरी 2019
जन्म स्थान लखनऊ, उत्तर प्रदेश, भारत
कुछ प्रमुख कृतियाँ
आहत हैं वन, चेहरों के अन्तरीप,पंख बिखरे रेत पर, सुनो तथागत, हमने संधियाँ कीं (सभी नवगीत-संग्रह), लौटा दो पगडंडियाँ (कविता-संग्रह), दी सैप इज स्टिल ग्रीन (अंग्रेज़ी में प्रकाशित कविता-संग्रह), एक और कौन्तेय, गाथा आहत संकल्पों की, अंगुलिमाल, कटे अंगूठे का पर्व,कहियत भिन्न न भिन्न (सभी काव्य-नाटक)
विविध
हिन्दी साहित्य सम्मेलन, प्रयाग, उत्तरप्रदेश हिन्दी संस्थान तथा हरियाणा साहित्य अकादमी के सम्मानों सहित दर्जनों सम्मान और पुरस्कार।
दिवाकर वर्मा जी की सम्मति एक बूँद हम पर
धरोहर श्रृंखला में पढ़ते हैं कीर्तिशेष
प्रख्यात साहित्यकार दिवाकर वर्मा जी के एक गद्यखण्ड को बिना पढ़े आप कोई निष्कर्ष नहीं निकाल सकेंगे इसलिए पूरा पढ़ना होगा।
प्रस्तुति
मनोज जैन
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युगबोध को अभिव्यक्त करते गीत
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काव्य सृजन की प्रारंभिक चेतना के कालखंड में रचनाकार की मानसिकता बहुत द्वंद्वात्मक और संघर्षमयी होती है। उस समय अत्यधिक उद्वेलन एवं आवेगमय आवेश का दबाव होता है।उन क्षणों में संवेदना से संपृक्त अनुभूतियों के तेवर कुछ अनूठे ही होते हैं। वाह्य पर्यावरण कैसा भी हो, आंतरिक संवेदन के तीव्र प्रवाह को रोकना असंभव नहीं तो कठिन अवश्य हो जाता है। उस समय सर्जन को लगता है कि उस अनुभूति को शब्दाकार दे दिया जाए ।वह लिखने को विवश हो जाता है और तब जो पंक्तियां ,जो रचनाएं अवतरित होती हैं उसमें रचनाकार के मन प्राण अभिव्यन्जित होते हैं ।ऐसी कविता स्वतः रूप से अपनी अनुभूतियों की बेबाक अभिव्यक्ति होती है ।भोपाल के युवा गीत कवि मनोज जैन मधुर इसी प्रकार की गीत कविता के सर्जक हैं। मनोज, अपने हमारे रचना -समय के युवा गीतकारों की पुष्प माला में वैजयंती के समान हैं, जो अपने परिवेश को न केवल सुरभित करती है, प्रत्युत उसे यशस्वी भी बनाती है।जब गीत वंश के वरिष्ठ सदस्य चिंतातुर थे कि गीत विधा के अधिसंख्य सर्जक रचनाकार,साठ के दशक के पूर्व के जन्मे हुए हैं, नई पीढ़ी गीत से असंपृक्त है, साहित्यिक परिदृश्य पर गीत की वैजयन्ती थामे हुए मनोज मंथर गति से आए और अल्पकाल में ही उन्होंने अपनी रचना धर्मिता से गीत-जगत को स्वयं की उपस्थिति की अनुभूति करा दी।देश भर की गीतिधर्मी पत्रिकाओं में गीतों में उनके गीत अपनी सम्पूर्ण त्वरा के साथ प्रकाशित होने लगे। गीतकार के रूप में उनकी एक पहचान बन गयी। अस्सी के दशक के कुख्यात आपातकाल के घटाटोप-अंधकार में जन्में मनोज जैन मधुर के अवचेतन पर यह प्रभाव निश्चित ही प्रक्षेपित हुआ है ।उस कालखंड के पश्चात तो राष्ट्रीय सामाजिक परिवेश कुछ और अधिक ही प्रदूषित हुआ है ।सामाजिक विषमताओं ,जीवन की विसंगतियों और राजनीतिक विद्रूपताओं में निरंतर बढ़ोत्तरी हुई है ।भ्रष्टाचार का ग्राफ ऊंचा हुआ ऊंचा ही चढ़ता चला जा रहा है ।महंगाई राकेट की गति से आकाश की ऊंचाइयों का स्पर्श कर रही है। संवेदनहीनता ,रिश्तो में विखंडन और आत्मकेंद्रित स्वार्थपरता हमारे दैनंदिन जीवन को ग्रस रही है। वर्तमान (कथित) लोकतांत्रिक राजे -महाराजे अपनी सामंती मनोवृत्ति को प्रकट करने में कुख्यात राजाओं, जागीरदारों और जमींदारों को भी मात दे रहे हैं ।निश्चित ही, आज समाज के एक अक्खड़ और फक्कड़ कबीर की आवश्यकता है और मनोज के गीत इसी भूमिका में हैं। इन नेताओं में पदे -पदे कबीर की साखी सबद, रमैंनी और उलटबॉसियाँ नटराज नर्तन करती नजर आती हैं। 'मधुर'का यह प्रकाश्य संग्रह 'एक बूँद हम क्षयिष्णु- सर्जनात्मक -परिवेश को शब्द चित्रित करते ऐसे ही परितोषदायी गीतों का सुंदर स्तवक है ।
प्रकाश्य संग्रह के गीत विविधवर्णी गीत मन -प्राण को आल्हादित करने वाले हैं ।वे जहां एक ओर भावक की चेतना रससिक्त करते हैं,वहीं उसे यदा-कदा झकझोर ने की सामर्थ्य से भी ओतप्रोत हैं। मनोज,गीत के माध्यम से अपनी समाज -राष्ट्रीय भूमिका के विषय में बताते हऐन,तो इस भूमिका के निर्वहन में आने वाले अवरोधों की ओर भी संकेत करते हैं:-
'कठिन परीक्षा /समय शिकारी ने /अपनी ली है /फूलों से दुश्मनी/ दोस्ती कांटो की दी है /हमने नहीं/ बबूल किसी के/ पथ में बोए हैं/'(सपने सारी उमर)
गीतकार एक अन्य गीत 'नहीं जरूरत पड़ी' में अपने चाल- चरित्र और गीत समाज निष्ठा की घोषणा भी हाथ उठाकर करता है-
' नहीं जरूरत पड़ी/ बंधु रे /हमें, कहारों की /मीत हमारे प्राण /गीत के तन में/ रमते हैं /मग में मिलते /गीत वहां/ पग अपने थमते हैं/ नहीं जरूरत हमने समझी श्रीफल हारों की/ हमें स्वयं के/कीर्तिकरण की बिल्कुल चाह नहीं/थोथे दम्भ छपास मंच की/ पकड़ी राह नहीं /
नहीं जरूरत पड़ी कभी रे/ कोरे नारों की /
हमें हमारी /निष्ठा ही /परिभाषित करती है /कवि को तो/ बस कविता ही/प्रामाणित करती है/ नहीं जरूरत हमें/ बंधु रे पर उपकारों की/'
ऐसा कवि जो विराट अथवा समाज (राष्ट्र )और गीत के प्रति निष्ठावान हो तथा जिसका समर्पण संपूर्ण हो, कभी भी अपनी परंपरा अथवा मूल से अलग नहीं हो सकता।
वह जानता है कि परंपरा के एक पांव के सहारे से ही प्रगति का दूसरा पाँव आगे बढ़ सकता है ।जड़ से कटकर वट-वृक्ष जैसा विशाल तरु भी जीवित नहीं रह सकता। किंतु हमारे रचना- समय के अपसांस्कृतिक वातावरण से मनोज दुखी हैं ।उन्हें लगता है कि वर्तमान समाज अपनी जड़ों से कट रहा है ।
गीत' हम जड़ों से कट गए'में वह इस त्रासदी को तर्जनीदिखा रहे हैं-
हम जड़ों से कट गए /डोर रिश्तों की/ नए वातावरण सी हो गई /थामने वाली जमीं हमसे/ कहीं पर खो गई /भीड़ की खाता -बही में /कर्ज से हम पट गए /खोखले आदर्श के /हमने मुकुट धारण किए/ बेचकर हम सभ्यता के / कीमती गहने जिए/ कद भले चाहे बड़े हों/पर वजन में घट गए/
समग्रतः संग्रह 'एक बूंद हम' के गीत अपने सर्जक की की अनंत संभावनाओं के प्रति आश्वस्ति- भाव जगाते हैं और उसकी आगामी सृजनात्मकता के प्रति भावक- मन को पिपासु-प्रतीक्षा से जोड़ते हैं ।यह प्रतीक्षा ही मनोज जैन मधुर की शक्ति और सामर्थ्य है। यह किसी भी रचनाकार की श्रीसंपन्नता का पर्याय है। मुझे विश्वास है कि रूगानुरूप युगबोध को अभिव्यंजित करतीं ये कविताएं का प्रेमियों को निश्चित ही आकर्षित करेंगीं और उनमें से उभरते स्वरों की दस्तक दूर दूर तक सुनी जाएगी।
मनोज की प्रथम कृति के लिए हार्दिक बधाई ।
दिवाकर वर्मा
निराला सृजन पीठ ,
भोपाल ,
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