चर्चा में आज :
डॉ रामवल्लभ आचार्य जी के एक गीत :
"मैं तुम्हारी बाँसुरी हूँ "
के बहाने गीत पर बातचीत
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मैं तुम्हारी बाँसुरी हूँ
मैं तुम्हारी बाँसुरी हूँ,
फूँकते हो बज रही हूँ ।
तुम मुझे जब तक धरे हो,
मैं अधर पर सज रही हूँ ॥
ये तुम्हारे भाव ही हैं
प्राण में जो पल रहे हैं ।
ये तुम्हारे शब्द ही हैं
जो स्वरों में ढल रहे हैं ।
जो तुम्हारे कंठ में है
नाम वह ही भज रही हूॅं ॥
गूँजती है ध्वनि तुम्हारी ही
निरंतर नाद बनकर. ।
जो कि प्राणों को प्रफुल्लित
कर रही अाह्लाद बनकर ।
मान मुझको मिल रहा है,
बस इसी से लज रही हूॅं ॥
साज़ क्या जाने कि मुखरित
हो रहा वह बोल क्या है ?
बिक चुका जो क्या पता उसको
कि उसका मोल क्या है ?
परस पाकर महकती हूँ
मैं चरण की रज रही हूँ ॥
यह तुम्हारा खेल है
चाहे धरो चाहे उठाओ ।
मैं कहूँ क्या मन तुम्हारा
जब तलक चाहे बजाओ ।
सौंपकर सब कुछ तुम्हें
हर कामना मैं तज रही हूँ ॥
- डा. राम वल्लभ आचार्य
वैश्विक महामारी कोविड 19 के चलते लॉक डाउन और लॉक डाउन के कारण एक ओर जहाँ, हम सब लोग घरों में बैठने के विवश हैं,वहीं दूसरी और राजमार्गों पर घर वापसी के लिए ,रोज कमाकर अपना भरण पोषण करने वाले लाखों की संख्या में मजदूरों की,अनियंत्रित भीड़ उतर आई है,देखा जाय तो भीड़ की अपनी न तो कोई दिशा होती है और न ही दशा! ऐसे में यहाँ,सवाल यह उठता है कि अनिश्चय की इस स्थिति में कोई अपनी मंजिल पर पहुँचना चाहे भी तो कैसे?
घटनाएं हमें सचेत करने के साथ-साथ भावी संकेत भी देती हैं।हाल ही में घटी एक घटना पर गौर करें तो,घर वापसी के चलते मजदूरों से भरी एक ट्रेन झाँसी स्टेशन पर रुकी,ट्रैन में सवार भूखे मजदूरों ने रुकते ही वेंडरों सहित उनकी खाद्य सामग्री पर हमला बोल दिया।
गौरतलब है कि इस हल्लाबोल उपक्रम की परिधि के केंद्र में भूख है।और भूख का अपना कोई संविधान नहीं होता वह तो केवल रोटी से ही शांत होती है।क्या कारण है कि हमारी सरकारें आजादी के सात दशक गुजरने के बाद भी मूलभूत आवश्यकताओं की प्राथमिकताओं में सबसे पहले क्रम पर आने वाली रोटी कपड़ा और..….में भी संतुलन नहीं बैठा सकीं!
बहरहाल,केंद्रीय नेतृत्व ने बड़े बड़े पैकेजो की घोषणा की है,आवश्यकता इस बात की है कि संकट के इस चुनौती पूर्ण काल में प्रदत्त राहत सही हाथों में पहुँचे, यहाँ देखना यह होगा कि इस कसौटी पर हमारा राजा कितना खरा उतरता है, इस खुरदुरे समय में ध्यातव्य तो यह भी है कि,
उस राजा को चैन से बैठने को कोई हक़ नहीं जिसकी प्रजा भूख से बिलख रही हो और पीड़ित हो!
असमंजस और अनिर्णय की इस स्थिति का लाभ लेने के लिए,मीडिया से लेकर तमाम राजनीतिक दलों तक,फिर चाहे पक्ष हो या विपक्ष इसमें अंदर और बाहर के थिंक टैंक भी शामिल हैं,सबके सब गर्म तवे पर रोटियाँ सेंक रहे हैं।संकट की इस घडी में,चाहे सामाजिक इकाई हो समूह या फिर संस्थान ,हर एक को मदद के लिए आना ही चाहिए।ऐसे में उन सामाजिक संगठनों के अनुकरणीय योगदान की मुक्त कंठ से सराहना की जानी चाहिए जिनके वालेंटियर्स अपनी जान की परवाह किये बैगर ही, मानवीय संवेदना के चलते,अपने मानव होने के धर्म का निर्वहन करते हुए,दिन-रात राष्ट्र की सेवा में निमग्न हैं।
जो इस समय विकास के अंतिम छोर पर खड़े सबसे जरूरत मन्द आदमी की मदद कर रहे हैं,यहाँ मैं उन सेल्फीस्टों को शामिल नहीं कर रहा हूँ जो,दो केले दान में देकर,अपनी चार सेल्फ़ी संचार के,दस-बीस माध्यमों फेसबुक ,इंस्टाग्राम से लेकर ट्विटर इत्यादि पर सौ बार साझाकर,दान का जिक्र हजार बार करते हैं।मेरे इस कथन के केंद्र में वह कवि भी शामिल नहीं हैं जिन्होंने सिर्फ निर्वात में रचा भर है उसे जिया नहीं है।
इन दिनों तेजी से चर्चा में आए ,फेसबुक पर हिंदी कविता के पेज के सन्दर्भ से कहूँ तो, समकालीन कविता पर अनेक कवियों और विचारको को ,साहित्य की राजनीति और कविता के वर्तमान विषय पर सुनने और समझने का अवसर मिला। सार संक्षेप में पेज पर सम्पन्न हुए विमर्श के कुछ बिंदुओं को साझा करूँ तो समकालीन कविता के बरक्स गीत नवगीत के अवदान पर नई कविता का कोई भी कविऔर समालोचक गीत नवगीत को न तो कविता की मुख्यधारा में शामिल करता है ,और न ही गीत नवगीत पर खुलकर बात करता है।दरअसल यह भी गीत नवगीत को कविता के वर्तमान से काटने की एक किस्म की साजिश और सोची समझी उनकी अपनी आदतन राजनीति है।
यहाँ डॉ रामवल्लभ आचार्य जी के एक गीत जिसे यदि उन आलोचक की दृष्टि से देखें तो हिन्दूमन के एक गीत पर चर्चा करते हुए मैं उस हिंदी कविता पेज पर विमर्श के दौरान बोलते हुए एक युवा आलोचक के वक्तव्य के अंश आपके समक्ष रखना चाहता हूँ। बातचीत के दौरान वह कहता है कि रामराज्य की परिणिति अंततः साम्प्रदायिकता में होती है।
अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए कहते है कि अधिकांश हिंदी साहित्य हिंदुमन का साहित्य बना हुआ है और हमें हिंदी साहित्य को हिंदुमन से मुक्त करना होगा।
प्रश्न उठता है कि क्या हमारी सांस्कृतिक जड़ें इतनी कमजोर हैं कि किसी के हिलाने भर से उखड़ जाएं?इस विचारधारा के लोग तो महाकवि तुलसी को भी कवि नही मानते वे उन्हें भक्त कहते हैं।
खैर,भारत में न तो राम के अस्तित्व को मिटा पाना असंभव है न ही जन जन के कंठ में बसे कृष्ण के उपदेशों को ,न ही गीता के संदेशों को अनदेखा किया जा सकता है।
हमें इनके इरादों को समझने की जरूरत है ये वही लोग हैं जिन्होंने अपनी स्थापना के चलते देव वाणी सँस्कृत को डेड लेंग्वेज कहकर लगभग चलन से बाहर कर दिया?
हमारी लोक संस्कृति तो कंकर में भी शंकर को खोज लेने का सामर्थ्य रखती हैं। भक्ति ही हमारी अतुल्य शक्ति है।क्षमा हमारा धर्म है,और यह सब हमें हमारी समृद्ध परंपरा से ही तो मिला है। फिर चाहे समर्पण हो या शालीनता या फिर विनय प्रत्यक्ष या परोक्ष में ये सारे टूल हमारे आंतरिक सौंदर्य को निखारने में हमारी मदद करते हैं।
कविवर डॉ रामवल्लभ आचार्य जी के इस गीत की जड़ें गीता के नौवें अध्याय के 34 वें श्लोक तक जातीं हैं।और इस गीत का जन्म वहीं से होता है।
गीत में प्रयुक्त प्रतीक बेजोड़ हैं।
कबीर के एक पद और डॉ रामवल्लभ आचार्य जी के गीत में तुलनात्मक प्रतीक साम्य सन्देशप्रद हैं।
कबीर चादर को जतन से ओढ़कर जस का तस धर देना चाहते हैं और आचार्य जी देह की बाँसुरी को प्रभु को समर्पित करते हैं/इदं न मम ,तेरा तुझको अर्पण,जैसी अनेक सूक्तियों को एक सूत्र में यहाँ देखा जा सकता है!
उनके यहाँ समर्पण के मायने तेरा तुझको अर्पण क्या लागे मेरा से आगे जाकर जीव और देह के एकत्व से शुद्धात्म के पृथक्त्व तक की अविराम यात्रा से हैं।
उनके इस छोटे से गीत में शाश्वत भारतीयदर्शन और सँस्कृति बोध के दर्शन होते हैं।
हमें चाहिए कि हम रचनाओं को ठहर कर पढ़े और स्वयं को समृद्ध करें।
मैं तुम्हारी बांसुरी हूँ
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मैं तुम्हारी बाँसुरी हूँ/मैं तुम्हारी बाँसुरी हूँ/फूँकते हो बज रही हूँ /तुम मुझे जब तक धरे हो,मैं अधर पर सज रही हूँ /ये तुम्हारे भाव ही हैं/प्राण में जो पल रहे हैं/ये तुम्हारे शब्द ही हैंजो स्वरों में ढल रहे हैं/
जो तुम्हारे कंठ में है नाम वह ही भज रही हूॅं /गूँजती है ध्वनि तुम्हारी ही/निरंतर नाद बनकर/
जो कि प्राणों को प्रफुल्लित /कर रही आह्लाद बनकर /मान मुझको मिल रहा है/बस इसी से लज रही हूॅं/
साज़ क्या जाने कि मुखरित/हो रहा वह बोल क्या है ?
बिक चुका जो क्या पता उसको/कि उसका मोल क्या है ?
परस पाकर महकती हूँ/मैं चरण की रज रही हूँ/यह तुम्हारा खेल है/चाहे धरो चाहे उठाओ ।मैं कहूँ क्या मन तुम्हारा/जब तलक चाहे बजाओ/
सौंपकर सब कुछ तुम्हें/हर कामना मैं तज रही हूँ/
क्या इस तरह की सांस्कृतिक बोध से सम्पन्न रचनाओं को हिन्दू मन का साहित्य कहकर खारिज कर देना चाहिए ?
नहीं मैं तो कतई इस पक्ष नहीं।
बहुत प्यारे गीत के लिए डॉ राम वल्लभआचार्य जी को हार्दिक बधाई।
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मनोज जैन
106,विट्ठल नगर
लालघाटी भोपाल
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