स्वाभिमान से भूखे रहना हमें गवारा है :डॉ वीरेंद्र "निर्झर"
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टिप्पणी
मनोज जैन
आज मैं आपका परिचय एक ऐसे प्रतिभाशाली नवगीतकार से कराना चाहता हूँ जिन्हें गणना के हिसाब से नवगीतकारों की प्रथम पँक्ति में शुमार होना चाहिए था। परन्तु कवि ने स्वयं की शक्तियों को प्रदर्शन की अनिच्छा के चलते,कछुए की भाँति जैसे वह अपने आप को खोल में समेट लेता है, वैसे ही कुछ इसी अंदाज़ में खुद की विराट शक्तियों को सिकोड़ कर संकुचित कर लिया।फिर भी कवि के विराट स्वरूप की धारा का उद्गम ताप्ती तट यानि बुरहानपुर से होता है।
यहाँ से आगे बढ़ें तो यह धारा मालवा,महोबा,छतरपुर होती हुई प्रदेश की राजधानी भोपाल तक आते आते कुछ मण्डलों,संघों,संस्थाओं में लगभग पूरी तरह विलीन हो जाती है।
मैंने अपने स्तर पर कुछ तथ्यों की पड़ताल से इतना तो जान ही लिया है कि संस्थाएं,संघ,समितियाँ,आपको सिर्फ एक मंच भर प्रदान करती है पर आपके आगे बढ़ाने में तो आपकी प्रतिभा ही काम आएगी।
मेरे देखने में ऐसे कई प्रतिभाशाली रचनाकार आये हैं जिन्होंने इन संस्थानों की अध्यक्षता जिसे मैं यहाँ बोल्डली फेक आइडेंटिटी भर कहूँगा,के तमगे के चक्कर में अपनी प्रतिभा का कवाड़ा स्वयं अपने ही हाथों से कर लिया बैरसिया में भी ऐसे ही एक प्रतिभाशाली कवि थे,जो लोकल संस्थाध्यक्ष के व्यामोह के चलते कहीं नहीं पहुँच सके।निःसन्देह संस्थाएं प्रतिभा को एक्सपोज़ भी करती हैं और दोहन भी यह आप पर है कि आप इन पिंजरों के चंगुलों में रहना चाहते हैं या फिर मुक्त!
यदि मुक्त हो भी गए तो आखिरकार आपका क्या बिगड़ेगा? ज्यादा से ज्यादा आपको वह सम्मान नहीं मिलेगा जिसकी जगह आज नहीं तो कल डस्टविन ही है।
कहने का आशय सच्चे और अच्छे रचनाकारों को ज्यादा संस्थाओं/सम्मानों के फेर में न पढ़कर अपनी मूल शक्ति को जितनी जल्दी हो सके पहचान लेना चाहिए!
संस्थाओं से आपको नहीं बल्कि आप जैसे प्रतिभाशाली रचनाकारों से इनके मठाधीशों को बल जरूर मिलता है जिन्हें आपकी प्रतिभा निरन्तर पोषिती रहती है बावजूद इसके मठाधीश आपको शोषित करने का कोई भी सुनहरा अवसर हाथ से नहीं जाने देता।नेता,बिल्डर,अफसर,तस्कर,माफियाओं के थोड़े-थोड़े गुणों का समुच्चय इन मठाधीशों के जीन में आजीवन व्याप्त रहते हैं।
आइये अब थोड़ा सा प्रकाश वहाँ डालें जहाँ से मैंने पोस्ट को उठाया है
30/12/2018 को राजधानी के किसी संस्थागत भव्य समारोह में मेरी भेंट बुरहानपुर के सुकवि डॉ वीरेंद्र निर्झर जी से हुई यह भेंट कोई तीसरी या चौथी रही होगी
डा.वीरेन्द्र निर्झर स्वर्णकार जी मेरे प्रियनवगीतकारों में से एक हैं उनकी रचनाएँ कथ्य के स्तर पर बेहद प्रभावी हैं शिल्प के सम्बंध में मेरी टिप्पणी नहीं बल्कि आपकी दृष्टि जरूरी है। गद्य-पद्य मेंअब तक लगभग दर्जन भर कृतियों के रचनाकार निर्झर जी अपने नवगीतों में नवीन शिल्प और तेवरों के साथ मात्र स्वानुभूति ही नहीं बल्कि समकालीन भावबोध सामाजिक परिवेश विडम्बना और चुनोतियों को स्वर दे रहे हैं। साथ ही उनके कवि की हर कोशिश में मनुष्य से विदकती मानवता की पुनर्स्थापन के सद्प्रयास ही उनके सृजन का मूल हैं।
आइये पढ़ते हैं
डॉ वीरेंद्र निर्झर जी के तीन नवगीत
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टिप्पणी
मनोज जैन
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सहते हैं जो लोग,सहैं
या कबीर की तरह लुकाठी
गहना चाहें,गहैं
बढ़कर बात कहैं
जिनका कोई धर्म नहीं
वे धर्मात्मा बने
जड़े धंसी हैं अन्यायों में
रस चूसते तने
अपना तो परहेज
विधर्मी अन्यायों से है
भीष्म ,द्रोण,कृप जहाँ कहीं भी
रहना चाहें रहैं
रामायण के पन्नों पर
अब रावण हावी है
जो जितना है चाटुकार
उतना मेधावी है
हमने तो धारा से
लड़ने का संकल्प लिया
बहती हुई हवा के संग जो
बहना चाहें वहें
आदर्शों पर अब यथार्थ की
पहरेदारी है
वस्त्रों से विचार तक एक
गुलामी जारी है
स्वाभिमान से भूखे रहना
हमें गवारा है
कोल्हू में बैलों जैसे जो
नहना चाहें नहें
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क्या होना था...और..
क्या हुआ?
घर घर बँटना थी खुशहाली
गाँव गाँव में खुली कलाली
विश्वासों में सेंध लगाकर
मुखिया ने सब कुशल चुरा ली
गुलमोहर से दिवस ना रहे
संक्रामक किस छूत ने छुआ
स्वर्ग नहीं कुछ नर्क नहीं है
वस्तु व्यक्ति में फर्क नहीं है
जो उपयोगी नहीं रह गया
उसका कोई तर्क नहीं है
उड़ना कब का भूल चुका है
पिंजरे में ही मस्त है सुआ
धूप सुनहरी श्याम हो गई
गुमनामी के नाम हो गई
निरुद्देश्य पेण्डुलम सरीखी
भटकन आठों याम हो गई
जब जब भी शिव होना चाहा
फैला विष तन बदन में मुआ
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समय सभी से है ऊपर
हाथ बाँध कर बैठ न ऐसे
गाण्डीव पर शर तो धर
कुछ तो कर
उसके गेह धूप ने आना
ही कर दिया मना
भूख प्यास का जोड़ घटाना
जिनसे नहीं बना
सूरज की मत बाट जोह तू
अमा निशा में
दीपक धर
यह निस्सीम गगन उनका है
जो उड़ान भरते
हर बाधा को लाँघ नियत के
सिर पर पग धरते
बातों में मत शिखर खड़ाकर
नींवों में ही
पत्थर भर
रद्दी में मत फेंक समय के
किसी विफल पल को
अनउत्तरित समस्याओं को
आज और कल को
शब्द नहीं यदि पढ़ पाता है
जोड़ जोड़कर
पढ़ अक्षर
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