आदमी के हितों के लिये निर्दयी सब नियम तोड़ दो: चन्द्रसेन विराट
___________
प्रस्तुति
और
टिप्पणी
मनोज जैन
कीर्तिशेष चन्द्रसेन विराट जी से मेरा संवाद उनके जीवन काल के अंतिम दो दिनों पहले तक सोशल मीडिया के जरिये कहीं न कहीं निरन्तर होता रहा है।मंच से जुड़े जिन कवियों की रचना धर्मिता मुझे प्रभावित कर सकी उनमें से विराट जी का नाम मेरी सूची में सदैव टॉप पर रहा है।
यद्धपि हमारे शहर से भी मंच से कुछ असफल नाम जुड़ते हैं,पर उनके लेखन पर टीका टिप्पणी करके मैं अपना समय और ऊर्जा दोनों नष्ट नहीं करना चाहता। प्रस्तुत गीत में,गीतकार जो,स्वयं अपने समय में सफलता के शिखर पर रहे हैं,गीत की ध्रुव पँक्ति में,अहम को तोड़ने की बात करते हैं।छोटी-छोटी दो पंक्तियों के अंतरों में,शब्दों का फैलाव भले ही बहुत ज्यादा न हो,पर कथ्य के स्तर पर हर अंतरे में बात पते की ही कही गई है।
गीत की सफलता का राज भी यही है,कि वह जितना ग्राह और सन्देशप्रद होगा वह उतना ही प्रभावी होता है।बस यही तो कविता का रहस्य है जो आम पाठक कवि से चाहता है।इस अर्थ में विराट जी के प्रस्तुत गीत में उनकी विराट रचना धर्मिता और स्वयं के गीतकार के प्रति अगाध श्रद्धा के दर्शन होते हैं।
एक बात और जोड़ना चाहता हूँ,जरूरी नही है कि हमें आम आदमी या जनपक्षधरता की बात कहने और करने के लिये जनवादियों के संघ में जाकर उनकी घोषित सदस्यता की मोहर अपनी पीठ पर लगवाई ही जाय,यह काम तो वैसे ही हो सकता है।
वैसे भी इन संघों के आका तो उद्योगपति/पूंजीपति ही रहे है।प्रकारान्तर से कहें तो अब तक इन संघो की अघोषित बागड़ोर तो पूँजी पतियों के हाथ में ही रही हैं।जनवाद की विचारधारा तो शुद्ध आचरण का विषय है।और सच्चा कवि स्वभाव और आचरण दोनों से ही प्रगतिशील और जनवादी होता ही है।तभी तो विराट जी लोकमंगल के भावना से पूरे गीत को निम्न पँक्ति लिखकर आम आदमी के पक्ष में सलीके से खड़ा करते हैं।
आप खुद भी पढ़ लीजिये
"आदमी के हितों के लिए निर्दयी सब नियम तोड़ दो"
आइये पढ़ते हैं।
एक बहुत प्यारा गीत
_______________
प्रस्तुति और टिप्पणी
मनोज जैन
वहम तोड़ दो
__________
तोड़ दो मन,वहम तोड़ दो
मत शिखर पर अकेले रहो
मुक्त मैदान में भी बहो
अंधक्षण में कभी ली हुई
दंभ की हर कसम तोड़ दो
गीत लिक्खे न सूरजमुखी
चेतना हो दुखी की दुखी
काव्य लिखना जरूरी नहीं
कुंठिता हो कलम तोड़ दो
जिंदगी बंध गई झील-सी
एक बीमार कंदील-सी
आदमी के हितों के लिये
निर्दयी सब नियम तोड़ दो
श्रेष्ठतम सृष्टि की सर्जना
व्यर्थ उस प्यार की वर्जना
स्वस्थ संशोधनों के लिए
रूढ़ियों की रसम तोड़ दो
स्वप्न वह जो कि पैदल चले
धूप जलती हुई मुख मले
सिर्फ रेशम नहीं जिंदगी
इंद्रधनुषी वहम तोड़ दो
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें