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गीत नवगीतकारों पर शताधिक विशेषांक देने वाले प्रखर पत्रकार और ख्यात सम्पादक श्रेष्ठ गीतकार राम अधीर जी को विनम्र श्रद्धांजलि
गीत के हित में एक मात्र ऐसा व्यक्तित्व जिसने जीवन भर ठोस काम किया साथ ही अनेक प्रतिभाओं को पहचानकर उन्हें दिशा दी
समूह वागर्थ आज उन पर एकाग्र अंक लगाकर उन्हें अश्रुपूरित श्रद्धांजलि देता हैं उन्हें श्रद्धा से स्मरण करता है।उनके पूरे व्यक्तित्व और कृतित्व को पद्मश्री विजय दत्त श्रीधर की एक छोटी सी टिप्पणी के आलोक में देखा और समझा जा सकता है।अधीर जी के ना रहने की खबर पर अपनी त्वरित टिप्पणी में वह लिखते है।
"हिन्दी का एक बहुत अच्छा गीतकार नहीं रहा। नवभारत में कयी साल उनका साथ रहा।रविवारीय परिशिष्ट वे देखते थे।स्वभाव से ही अधीर और चिर असंतुष्ट प़कृति के थे।लेकिन खूबियाँ भी कम नहीं थीं।ईश्वर उनकी आत्मा को शांति प़दान करें।शोक की इस घड़ी में हम सब उनके परिवार के साथ हैं।ऊँ शांति शांति शांति।"
प्रस्तुति
समूह वागर्थ
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स्मृतिशेष राम अधीर जी के गीत /नवगीत
(१)
जब मुझे संदेह की कुछ सीढ़ियाँ
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जब मुझे संदेह की कुछ सीढियाँ चढ़नी पड़ी थीं,
तब लगा मुझको, तुम्हारे द्वार
पर पहरा लगा है।
जानता हूँ मैं तुम्हारी आँख में
पानी नहीं है।
इसलिए तो मेघ का पाहुन
यहाँ दानी नहीं है।
तुम किसी की
पीर को समझे बिना उपचार-रत हो,
और हो अनभिज्ञ मुझको घाव
कब गहरा गया है।
यह समर्पण है मगर
विश्वास की बेला नहीं है।
क्योंकि तुमने दर्द को
हँसकर कभी झेला नहीं है।
गाँव से उस छाँव की जब-जब मुझे पाती मिली थी,
इस नगर में प्यार का मौसम
मुझे ठहरा लगा है।
इस हथेली का खुलापन देख लो
याचक नहीं हूँ
मैं किसी चौपाल या मठ का
कथा-वाचक नहीं हूँ।
कौन सुनता है यहाँ पर गीत की अंतर-व्यथा को,
इन सभाओं का मुझे हर आदमी
बहरा लगा है।
(२)
आग डूबी रात को
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आग डूबी रात को क्या हो गया है राम जाने ,
आइये हम चाँदनी के नाम से पाती लिखें ।
यह सफर लम्बा बहुत है
जानती है यह सदी
सीढ़ियों का खुरदरापन
और यह सूखी नदी
रोशनी का धर्म क्या है, हम नहीं कुछ जानते ,
क्या बुरा है, दीप से ही पूछकर बाती लिखें ।
इस तरह कब तक जलेंगे
पाँव तपती रेत में
कल हमें बतला गई थी
दोपहर संकेत में
जब घटाओं का नहीं कुछ भी भरोसा रह गया ,
किस मरुस्थल के लिये हम बूँद की थाती लिखें ।
हम किसी के हाथ के
मोहरे बने, तब-तब पिटे
चित्रकारी के प्रबलतम
मोह में अक्षर मिटे
एक भी तारा निहारेगा नहीं जब भोर तक ,
है उचित, अपने लिए हम रात गहराती लिखें।
(३)
नदी से सामना
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जो नदी
गत रात गाँवों को बहाकर ले गई थी,
उस निठुर से बंधु मेरा कल सुबह
फिर सामना है।
घर
बुलाकर रोज़ मेरे
आईनों को तोड़ती है।
वह असुंदर है, सभाओं से सदा
मुख मोड़ती है।
यह सुनिश्चित है
मुझे यह भाइयों से छीन लेगी,
इसलिए परिवार की यह डोर
मुझको थामना है।
द्वीप
उससे युद्ध करने
के लिए सन्नद्ध होंगे।
और तट बदला चुकाने के
लिए प्रतिबद्ध होंगे।
गुनगुनाना
इस नदी का बंद होना चाहिए
गीत से यह बेख़बर है, छंद
इससे अनमना है।
इस नगर
में मैं विवादों के
चरण तक आ गया हूँ।
और सब खोकर चिरंतन से
क्षरण तक आ गया हूँ।
रुख बदल कर
यह बहे, इसमें भलाई है इसी की
या समंदर की शरण जाए,
सभी की कामना है।
घाट की
बेचैनियाँ सुनकर
नहाना ठीक होगा।
दुखित मन को साँत्वना का
यह बहाना ठीक होगा।
जो बड़ों की
बात सुनकर वेग कम करना न चाहे
उस नदी को क्या पता यह पुल
पसीने से बना है।
(४)
जब मिला तो -
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जब मिला तो
आगमन के अनगिनत कारण दिये ,
और फिर उपकार के सब बोझ भी धारण किये
किंतु, मन से हर समय अच्छी
उसे दूरी लगी।
पास आया तो
मुझे कुछ छल दिखाई दे गया।
या कि मौसम के बिना मृग–जल
दिखाई दे गया।
और उस दिन यह मनोरम
साँझ सिंदूरी लगी।
सब उसी के
पक्षधर है, कौन सुनता बात को।
इस तरह मैं जीत कर भी सह
गया हूँ मात को।
मन नहीं माना, मिलन की
मीत मजबूरी लगी।
तुम इसे समझो
न समझो, यह तपस्या बन गई।
यह परायों की नहीं, अपनी
समस्या बन गई।
बन गया कंचन इसी से
साधना पूरी लगी।
(५)
मैं तो किसी नीम की छाया-
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मैं तो किसी नीम की छाया बैठ गीत फिर से लिख लूँगा
तुम दीवारों की अनुनय पर, कैसे मिश्री घोल रहे हो।
शब्दों की संपदा लुटाकर
मत समझाओ तुम दानी हो।
जाहिर नहीं करो तो क्या है
बादल जैसे अभिमानी हो।
मेरी तपती काया छूकर पहले ही पानी-पानी थे,
अब अभिनव की किस शैली में, खारे आँसू रोल रहे हो।
दुख को अनावृत करने से
वह सचमुच धनवान हुआ है।
जो सुख बिकने को उद्धत है,
वह कल की पहचान हुआ है।
चिंता नहीं अगर ये सपने भाँवर पड़े बिना मर जाएँ
तुम क्यों, इनकी असफलता का भेद अचानक खोल रहे है।
गीत आजकल बड़ी सभा में
जाने तक से घबराते हैं।
बादल इनकी प्यास देखकर
बूँदें तक को तरसाते हैं।
धरती का संबल ही सारी काया को कंचन कर देगा,
लेकिन तुम अंबर के कानों में जाने क्या घोल रहे हो।
(६)
जो कलाई
पर बँधा है
आज रक्षा-सूत्र मेरी
मुझ अकिंचन के लिए यह
बहिन की सद्भावना है।
भाल पर मेरे तिलक जो
कुमकुमी तुमने किया है।
हो रहा अनुभव कि अक्षत
ने मुझे अक्षत किया है।
साँतिए मुझको निमंत्रित
कर यहाँ लाते रहे हैं
यह तुम्हारी स्नेह-मय
कल्याणमय शुभकामना है।
है तुम्हें आषीष तुम
खिलती रहोगी, पूर्णिमा सी।
और घर-परिवार से
मिलती रहोगी चंद्रिमा सी।
मैं तुम्हें कुछ दे सकूँ सक्षम नहीं हूं
बहिन मेरी
कल यही साकार होगा
आज जो उद्भावना है।
जब मने त्यौहार मेरे
नाम से दीपक जलाना।
और उसकी रश्मियों के
साथ तुम भी झिलमिलाना।
इस अगोचर-पंथ में बस
तुम मेरा संबल रहोगी,
क्योंकि मेरे टूट जाने की
प्रबल सँभावना है।
~ राम अधीर
परिचय -
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राम अधीर जन्म- १२ अप्रैल १९३५,
निधन-९फरवरी २०२१
श्रीराम नवमी के दिन आर्वी, महाराष्ट्र, भारत में। गीत संग्रह- सूरज को उत्तर दो, धूप सिरहाने खड़ी है, बूँद की थाती, वह नदी बीमार है। गीत धर्मी मासिक पत्रिका संकल्प रथ का प्रकाशन अनेक दैनिक समाचार पत्रों में पत्रकार के रूप में कार्य।
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