कृति:कब तक सूरजमुखी बनें हम
कवयत्री:कल्पना मनोरमा
प्रकाशन वर्ष :2019
प्रकाशक:लोकोदय प्रकाशन प्रा.लि.
मूल्य: 225/-
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"कब तक सूरजमुखी बनें हम" पर एक छोटी सी चर्चा
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प्रस्तुति
मनोज जैन
चर्चित कवयित्री कल्पना मनोरमा जी का सन 2019 में लोकोदय प्रकाशन से मुद्रित एवं प्रकाशित गीत-नवगीत संग्रह "कब तक सूरजमुखी बनें हम" इस समय मेरे हाथों में है यद्धपि यह पुस्तक मेरे पास 7 जनवरी 1920 से है और इसे पहले पढ़ चुका हूँ।आज पुनः कुछ लिखने पढ़ने के लिहाज से मैंने संग्रह के पन्ने उलटने शुरू किए संग्रह में लगभग आठ दर्जन से भी अधिक गीतों को पढ़ा जा सकता है।
पूरे संग्रह की रचनाओं से गुजरते हुए मुझे दो एक बातें रेखांकित करने योग्य लगीं कल्पना मनोरमा जी ने सृजन के क्षणों को पूरी ईमानदारी के साथ पकड़ने की कोशिश की है।कवयित्री की रचनाएँ बनाबट और बुनाबट में नितांत मौलिक हैं।विषय वैविध्य के मामले में कल्पना जी धनी हैं।
एक बात और कवयित्री जहाँ एक ओर नूतन सन्दभों को आम बोलचाल की भाषा मे पिरोने में सिद्ध हस्त हैं तो वहीं दूसरी ओर रचना में उठाये गए विषय के निर्वहन में कल्पना जी को छायावादी शब्दाबली और कथ्य के उपयोग से भी परहेज नहीं है।
सार संक्षेप में कहा जाय तो कवयत्री को आत्मीय संलाप और युगीन यथार्थबोध के अंतर को आत्मसात कर अपनी लेखनी को सामयिक सरोकारों से जोड़ते हुए युगीन यथार्थ की तरफ मोड़ना होगा।और ऐसा करने में कवयत्री सक्षम हैं।रचना प्रक्रिया की पड़ताल करने पर यही कहा जा सकता कि विषय वस्तु की माँग पर सहज रूप से उनके जहन मेंआता है रचना का ताना वाना स्वतः बुनता चला जाता है।
पुस्तक के शीर्षक कब तक सूरजमुखी बनें हम की व्यंजना से उनके प्रतिरोधी तेवरों का अंदाज़ लगाया जा सकता है कवियों के स्वभाव के सन्दर्भ में एक प्रचलित युक्ति मुझे याद आती है लीक छोड़ तीनों चलें शायर..सिंह... सपूत...मुझे यह बात कल्पना जी के सन्दर्भ में भी प्रासंगिक लगती है पुस्तक के शीर्षक को लेकर उन्हीं के विचारों का एक अंश यहाँ रखता हूँ वे कहती हैं कि संग्रह का नाम "कब तक सूरजमुखी बनें हम" महज एक शीर्षक नहीं, अपितु कठोर सवाल भी है समाज ,समय और पितृसत्ता के सिंहासन पर आरूढ़ उन तमाम पुरुषों से जो स्त्री को नाकाबिल समझते हैं।
उसे अपनी खुशी के लिए कुछ भी कहने सुनने की अनुमति नहीं देते। परिवार के लिए निर्णय लेकर उसको अमल में ले आना तो वैसे ही है, जैसे छत पर खड़े होकर सितारे तोड़ना।किसी ने ठीक ही कहा है कि साहित्य समाज का दर्पण होता है।और मैं कहती हूं कि रचनाकार एक कुशल नाई की भाँति होता है, जो समय पर समाज को दर्पण में उसका चेहरा दिखाते हुए,उसकी साज सवार का कार्य भी करता है।
संग्रह की भूमिका वरेण्य कवि नचिकेता जी ने डूब कर लिखी है उन्होंने और कुमार रविन्द्र जी ने अपनी महत्वपूर्ण छोटी सी टिप्पणी में कवयत्री को आगामी संग्रहों में भाषा कथ्य शिल्प को लेकर पर्याप्त संकेत और सुझाव भी दिए हैं जो कल्पना जी का मार्गदर्शन जरूर करेंगे।कुल मिलाकर कल्पना जी का पहला संकलन आश्वश्त करता है कि वे अपना श्रेष्ठ जल्द ही आगामी नवगीत संकलनों में देंगी।
कल्पना मनोरमा जी को बहुत बधाइयाँ
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प्रस्तुत हैं उनके इस महत्वपूर्ण संग्रह से मेरी पसन्द के दो गीत
टिप्पणी
मनोज जैन
एक
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एक मुट्ठी धूप
एक मुट्ठी धूप है
तो क्या हुआ?
हार जाएंगे अंधेरे
आस्था ने मंदिरों की
सीढ़ियां चढ़ जान दी
पर कुछ न पाया
झूठ ने पर्दा ने पर्दा गिराकर
सत्य को गुमराह कर
मौसम बनाया
चाँद पाया दूज का
तो क्या हुआ?
फैल जाएँगे उजेरे ।
चांदनी को क्या पता
कब रूठ जाए कौन तारा
मुँह छिपाकर
रात की है संधि
तम के साथ,बैठी का घात में
चुप्पी लगाकर
है मलिन भिनसार यदि
तो क्या हुआ?
रीझ जाएँगे सवेरे।
मौज दरिया की थकी
साहिल न ऊबे
तैरते आए शिकारे ।
सीपियों ने उर्मियों की
बंदिशों पर मुग्ध होकर
प्राण वारे ।
भाव -सरिता मंद है
तो क्या हुआ?
गीत गाएँगे घनेरे।
दो
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देखा है
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देखा है जीवन को हमने
चुपके- चुपके रोते -गाते ।
खून पसीना बहा -बहाकर
तीस दिनों को चमकाते हैं
दिवस एक जीवित कर पाते
उन्तिस दिन फिर घिंघयाते हैं
देखा है रातों को हमने
पेट भरा कर जश्न मनाते ।
सबके लिए देवता सूरज
वे कहते अगनी का गोला
भोर संतरी होगी सबकी
उनका मुर्गा भूखा बोला
देखा है दुपहर को हमने
दाल भात में गोता खाते ।
देव,दनुज,मानव ,नर ,किन्नर
नहीं फटकते वहां भूलकर
शुद्ध साँस को साँस तरसती
पवन निकलता दूर घूरकर
देखा है उत्सव को हमने
दूर सड़क पर आते -जाते।
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