भावनात्मक रिश्तों का स्थायी सेतु: - सन्दर्भ डॉ श्याम निर्मम के दो अनुत्तरित पत्र
पोस्ट प्रेषण के ठीक पहले तक मेरे अवचेतन में यह विचार स्थायीरूप से अपनी जड़ें जमाने की पूरी कोशिश चुका था कि मेरी भेंट किसी न किसी अवसर पर और कहीं न कहीं श्याम निर्मम जी से जो,अब इस दुनिया में नही हैं,अवश्य हुई है।
माथे पर बहुत सारे बल एक साथ डालने के बावजूद भी,मैं भूली स्मृतियों के सिरों को जोड़ नहीं पा रहा था।तभी मेरी निगाह दादी अम्मा के जमाने के उस पिटारे पर पड़ी,जिसमें मैंने पिछले दो दशकों की धरोहर के सन्दर्भों को स-सम्मान सम्हाल रखा है।
बच्चों की नजरों में पोटली भले ही कबाड़ का हिस्सा हो,पर मेरे लिए किसी खजाने से कम नहीं।जब भी उलझता हूँ तब यह पोटली गुमें हुए सन्दर्भों के सिरों को जोड़ने के काम में मेरी शिद्धत से मदद करती है।इसी बहाने साल में औसतन दो एक बार स्मृतियों के संसार से गुजरने ने का सुनहरा अवसर मुझे मिल ही जाता है।
पोटली के करण्ड में मुझे इस बार दो पत्रों के रत्न मिले,जो मुझे खुद श्याम निर्मम जी ने उन दिनों साहिबाबाद E-28,लाजपत नगर(गाजि.)उ.प्र.डाक के पते से भेजे थे।
इन दोनों पत्रों की सबसे महत्वपूर्ण और उल्लेखनीय बात यह थी कि ये पत्र एक नामचीन साहित्यकार द्वारा अपनी ओर से,जनरेशन गैप को भुलाकर,एक अनचीन्हें,नौसिखिए को,जो उन दिनों कविता का बमुश्किल ककहरा ही सीख रहा था,को बड़ी आत्मीयता से लिखे गए थे।
दीपावली पर्व सन 2007 में प्रेषित पहले पत्र में उन्होंने उन दिनों चर्चित प्रेसमेन के गत अंक में प्रकाशित गीतों को पढ़कर दिल से बधाइयाँ दी थीं।
और नवगीत को लेकर किसी बड़े ग्रन्थ के प्रकाशन की योजना (जिसमें लगभग 500 रचनाकारों को समाहित करने का उनका मन था,जो उनके जीते जी नहीं आ सका) के लिए मेरे 5 गीत पूर्ण परिचय के साथ मुझसे अविलम्ब भेजने का जिक्र जिस प्रेम और आत्मीयता से किया गया था उसे मैं आज तक नहीं भुला पाया।
साथ ही डीएमसी पालिका समाचार पत्रिका के लिए प्रकाशनार्थ कुछ सामग्री प्रेषित करने का निवेदन भी शामिल था।
इसी तारतम्य में कविवर श्याम निर्मम जी का एक दूसरा और अंतिम पत्र,साहित्यसागर पत्रिका के नटवर गीत सम्मान की बधाई संदेश के रूप में 19,अक्टूवर 2011.की डाक से प्राप्त हुआ था।
इस पत्र में उन्होंने भोपाल राष्ट्रभाषा प्रचार प्रसार समिति के जाने माने मंत्री संचालक,श्री कैलाश चन्द्र पंत जी के अमृत महोत्सव में अपनी उपस्थिति का जिक्र,और समयाभाव के कारण भेंट न कर सकने पर अपनी ओर से अफसोस जाहिर किया था।
आंतरिक संवेदन की दृष्टि से देखा जाय तो यह महज पत्र नहीं बल्कि भावनात्मक सेतु था,जिसकी नींव में निर्मम जी ने संवेदना का ऐसा जल सींचा जो उनके न रहने के बाद भी नहीं सूखा।
उनके दोनों पत्रों में एक बात कॉमन थी उन्होंने मेरे गीत संग्रह को (जो उस समय आया ही नहीं था)पढ़ने की जिज्ञाषा व्यक्त की थी, साथ ही आगे बढ़कर अपनी तरफ से रिश्तों को सुदृढ़ करने की सार्थक पहल का अविस्मरणीय और अनुकरणीय उदाहरण पेश किया था।
जबकि मेरा संग्रह 13,सितंबर 2011को लोकार्पित हुआ। इस दौरान उनसे दूरभाष पर यदा कदा लंबी वार्ताएं तो हुई पर अफसोस कि मैं उन्हें उनकी इच्छानुसार अपना संग्रह नहीं दे पाया और न ही उनके पत्र का उत्तर!
पत्रों के जिक्र के चलते न चाहते हुए भी मुझे संस्मरण के इर्द गिर्द आना पड़ा,यदि नहीं आता तो मेरे अवचेतन का विचार पक्की जड़ें जमा लेता,एक बार पुनः इस करण्ड उर्फ पिटारे का शुक्रिया जिसके पुख्ता प्रमाण के चलते आज मुझे पता चला कि उनके भावनात्मक स्नेह के कारण मुझे आज तक पता ही नहीं चला की मैं उनसे कभी भौतिक रूप से मिला ही नहीं।
काश!यह भ्रम जिंदगी भर यूँ ही बना रहता वैसे एक बात और बताता चलूँ,किसी को जानने के लिए जरूरी नहीं कि आप उससे मिलकर ही उसे जानें कई बार कृतित्व से भी व्यक्तित्व भी पहचानना पड़ता है और इस पहचान का रंग इतना पक्का होता है कि जीवन भर उतारे नहीं उतरता!
मनोज जैन
आइये पढ़ते हैं अत्यंन्त लोकप्रिय कवि श्याम निर्मम जी के तीन नवगीत जो मुझे बेहद प्रिय हैं।
एक
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रोग बहुत हैं
लेकिन उनका कहीं निदान नहीं
ये कैसी अनहोनी
जीवन विष पीते बीता
उमर बढ़ें हर रोज
मगर ये अश्रु-पात्र रीता
चलते हुए
सभी लगते पर हैं गतिमान नहीं !
आशा की नैया को
मन के सागर ने लूटा
बीच धार का नाविक
थका, किनारे का टूटा
संकल्पों की
फसल उगाकर बने महान नहीं
चेहरा-मोहरा देख
रोटियाँ मुँह तक हैं आतीं,
छोटा-सा है दीप
आंधियां तेज बढ़ी जातीं
अगड़े-पिछड़े
हुए बराबर दिखे समान नहीं !
रहे किरायेदार सदा से
हम तन के घर में
जख्मी पंछी उड़ता है
परवाज लिये पर में
पूरा देश
हमारा घर पर एक मकान नहीं!
दो
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जिन्दगी ,इंजन बिना ही रेल
ठेल,जितना ठेल सकता, ठेल!
पटरियाँ
बचपन-जवानी हैं
पास रहकर भी न मिल पातीं,
दूसरे का दुख समझती हैं पर
किसी से कह नहीं पातीं
है समस्या विष-बुझे शर सी ,
झेल,जितना झेल सकता झेल!
है,गरीबी -
टूटने का नाम
सुख लगाये कहकहों के दाम,
जब बिखरना ही नियति उसकी
फ़र्क़ क्या तब,हो सुबह या शाम
पापड़ों-सा हाल ख़स्ता है,
बेल,जितना बेल सकता,बेल!
है कभी-
जाना, कभी आना
चिंतकों-सा इसे दुहराना,
आदमी है जन्म का प्यासा
मौत से कब रहा अनजाना
उम्र के अंतिम पड़ाव पर ,
खेल, जितना खेल सकता, खेल!
तीन
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अक्सर ही
ऐसा क्यों होता
जीते सपने बहुत बुरे आते हैं
डर कर नींद उचट जाती है !
जिधर देखता भाग रहे सब
चारों तरफ आग फैली है
सागर में तूफान उठा है
हर सूरत ही मटमैली है
अक्सर ही
ऐसा क्यों जाना
निर्बल सँभल-सँभल जाते हैं
क्षमता रपट -रपट जाती है !
हर चेहरा है शकुनी सरीखा
चौपड़ पर गोटिया सजी हैं
रणभेरी के शंख गूँजते
मौन मुरलिया नहीं बजे हैं
अक्सर ही
ऐसा क्यों देखा
जीते हुए हार जाते हैं
बाजी उलट पलट जाती है
प्रतिभाएँ हारी-सी बैठीं
अपराधी माला पहने हैं
कुछ को सुख की मिली विरासत
हम को दुख अपार सहने हैं
अक्सर ही
ऐसा क्यों समझे
हर जीवन की कुछ उम्मीदें
बन कर साँस सिमट जाती है।
डॉ श्याम निर्मम
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