रविवार, 28 मार्च 2021

वरेण्य कवि मयंक श्रीवास्तव जी के दस नवगीत और एक टिप्पणी प्रस्तुति समूह ~।।वागर्थ।।~

~ ।।वागर्थ ।। ~

             में आज प्रस्तुत हैं आदरणीय मयंक श्रीवास्तव जी के नवगीत ।

       मैंने साप्ताहिक हिंदुस्तान और धर्मयुग के  समय को तो नहीं देखा परन्तु साप्ताहित पत्र प्रेममेन के अंक के आरम्भ फिर चरम और बाद में इसके समापन के सभी अंकों का साक्षी जरूर रहा हूँ।
 गीत नवगीत विषयक रोचक और अभिनव सामग्री के चलते आज भी प्रेसमेन के अंक साहित्य प्रेमियों ने सहेज कर रखे हैं।उन दिनों शैक्षणिक पृष्ठ भूमि के सामान्य से पत्र प्रेसमेन की तुलना साहित्यिक खेमों में धर्मयुग और साप्ताहिक हिंदुस्तान से की जाती थी। निःसन्देह इस पत्र ने गीत/ नवगीत विषयक विपुल सामगी देकर नए कीर्तिमान रचे और अनेक चेहरों को मंच प्रदान किया था। देखा जाय तो साहित्यिक पत्र का सम्पादकीय धर्म भी यही होता है जो इस पत्र ने बखूबी निभाया। इस पत्र के साहित्यिक सम्पादक कोई और नहीं राजधानी भोपाल के ख्यात कवि मयंक श्रीवास्तव जी थे। वागर्थ में उनके नवगीतों को जोड़ते समय मुझे उनके मित्र महेन्द गगन जी की एक टिप्पणी ,जो उन्होनें मयंक जी पर केंद्रित विशेषांक के समय अपने एक आलेख 'दिलासों की दवा से बदलते नही' से साभार प्रस्तुत करना प्रासंगिक लगा, जिसे भोपाल की प्रतिनिधि साहित्यिक मासिक पत्रिका राग भोपाली से लिया है।
महेंद्र गगन अपने लेख में मयंक जी के व्यक्तित्व कृतित्व का पूरा खाका बहुत थोड़े से शब्दों में खींचते हैं।
पढ़ते हैं उन्ही के शब्दों में:-
          "मैं जब भी मयंक श्रीवास्तव के बारे में सोचता हूँ मेरे कानों में मयंक जी की कड़क खनकदार आवाज गूंजने लगती है। वे अपने गीतों में कभी गाँव याद करते हैं तो कभी समाज की विद्रूपता पर चोट करते हैं। वे पूरे विश्वास से कहते हैं ' तुम हमको चट्टानों वाला/ भाग भले दे दो/ लेकिन जल की धार हमारे /दर से ही निकलेगी"। यह विश्वास कवि में अनेक विषमताओं /व्यथाओं से गुजरने के बाद आया है। शारीरिक तौर पर भी मयंक जी ने बहुत कष्ट झेले हैं मगर वे उनसे भी पूरी दृढ़ता से निपटते रहे हैं। वे कहते हैं 'मैं रोज डूबता उतराता/ इस सागर /की गहराई में/ मैं हुआ पराजित जीता भी/जीवन की बड़ी लड़ाई में।
            कभी उनका कवि मन कहता है ''बहुत दिनों से कैद स्वयं में हूँ/ अब मुझको बाहर हो जाने दो/ बहुत जी लिया बूँद -बूँद होकर/अब मुझको सागर हो जाने दो /मयंक जी के गीतों में जख्मी अहसास हैं ,खटासों की मौलिक कथा है ,समय की गर्म सलाखों का एहसास है। दिलासों की दवा से ये बहलते नहीं हैं। उल्टे उनके पाखण्ड पर प्रश्न उठाते हैं। बेमौसम बरसते बादलों को खूब पहचान हैं तभी किसी के बहकावे में नहीं आते। वे वर्तमान के छल को पहचानते हैं, उसे गाते हैं, भले ही वे कितने छले जाएं। मयंक जी ने कभी कोई समझौता नहीं किया। अपने जीवन मूल्यों पर अडिग रहे। ऐसा करना हर किसी के बस की बात नहीं। यही मयंक जी की विशेषता है। 

       हाल ही में मयंक जी को दुष्यन्त कुमार स्मारक पाण्डुलिपि संग्रहालय ने सुदीर्घ साधना सम्मान देने की घोषणा की हैं 
     वागर्थ उन्हें इस अवसर पर बहुत बहुत बधाइयाँ प्रेषित करता है ।

            प्रस्तुति 
      ~।।  वागर्थ ।। ~
        संपादन मण्डल
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(१)

आग लगती जा रही है
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आग लगती जा रही है
अन्न-पानी में
और जलसे हो रहे हैं
राजधानी में

रैलियाँ पाबंदियों को
जन्म देती हैं,
यातनाएँ आदमी को
बाँध लेती हैं,
हो रहे रोड़े बड़े
पैदा रवानी में

खेत में लाशें पड़ी हैं
बन्द है थाना,
भव्य भवनों ने नहीं
यह दर्द पहचाना,
क्यों बुढ़ापा याद आता
है जवानी में

लोग जो भी इस
ज़माने में बड़े होंगे,
हाँ हुजूरी की नुमाइश
में खड़े होंगे,
सुख दिखाया जा रहा
केवल कहानी में

(२)

एक अरसे बाद
------------------
 
एक अरसे बाद
फिर सहमा हुआ घर है
आदमी गूँगा न बन जाये
यही डर है

याद फिर भूली हुई
आयी कहानी है,
एक आदमखोर
मौसम पर जवानी है,
हाथ जिसका आदमी के
खून से तर है

सोच पर प्रतिबंध का
पहरा कड़ा होगा,
अब बड़े नाख़ून वाला
ही बड़ा होगा,
वक्त ने फिर से किया
व्यवहार बर्बर है।

पूजना होगा
सभाओं में लुटेरों को
मानना होगा हमें
सूरज अँधेरों को,
प्राणहंता आ गया
तूफान सर पर है।

कोंपलें तालीम लेकर
जब बड़ी होंगीं,
पीढ़ियाँ की पीढ़ियाँ
ठंडी पड़ी होंगी,
वर्णमाला का दुखी
हर एक अक्षर है

(३)

नदी
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आह भरती है नदी
टेर उठती है नदी
और मौसम है कि उसके
दर्द को सुनता नहीं

रेत बालू से अदावत
मान बैठे हैं किनारे
जिंदगी कब तक बिताएँ
शंख -सीपी के सहारे
दर्द को सहती नदी
चीखकर कहती नदी
क्या समुन्दर में नया
तूफान अब उठता नहीं ?

मन मरुस्थल में दफ़न है
देह पर जंगल उगे हैं
तन बदन पर किश्तियों के
खून के धब्बे लगे हैं
आज क्यों चुप है सदी
प्रश्न करती है नदी
क्या नदी का दुःख
सदी की आँख में चुभता नहीं ?

घाट के पत्थर उठाकर
फेंक आयी हैं हवाएँ
गोंद में निर्जीव लेटी
पेड़-पौधों की लताएँ
वक्त से पिटती नदी
प्राण खुद तजती नदी
क्योकि आँचल से समूचा
जिस्म अब ढँकता नहीं ?

(४)
 
पता नहीं है
--------------
पता नहीं है, लोगों को
क्यों अचरज होता है
जब भी कोई गीत प्यार का
मैं गा देता हूँ

प्यार कूल है प्यार शूल है
प्यार फूल भी है
प्यार दर्द है प्यार दवा है
प्यार भूल भी है
मेरे लिए प्यार की इतनी
भागीदारी है
इसको लेकर अपनी रीती
नैया खेता हूँ

प्यार एक सीढ़ी है
इस पर चढ़ना ही होता
प्यार एक पुस्तक है
इसको पढ़ना ही होता
धरती का कण-कण जब मुझसे
रूठा लगता है
गा कर गीत प्यार के ही
मन समझा लेता हूँ

प्यार दया है प्यार धर्म है
प्यार फ़र्ज भी है
प्यार एक जीवन की लय है
प्यार मर्ज़ भी है
जब भी किया प्यार पर मैंने
न्योछावर खुद को
मुझे लगा है सब हारे
मैं एक विजेता हूँ

(५)

मेरे गाँव घिरे ये बादल
---------------------------
 
मेरे गाँव घिरे ये बादल
जाने कहाँ-कहाँ बरसेंगे

अल्हड़पन लेकर पछुआ का
घिर आयीं निर्दयी घटाएँ
दूर -दूर तक फ़ैल गयीं हैं
घाटी की सुरमई जटाएँ
ऐसे मदमाते मौसम में
जाने कौन -कौन तरसेंगे

मछुआरिन की मस्ती लेकर
मेघों की चल पड़ी कतारें
कहीं बरसने की तैयारी
कहीं -कहीं गिर पड़ी फुहारें
कितने का तो दर्द हरेंगे
कितनों को पीड़ा परसेंगे

मेरे गाँव अभागिन संध्या
रोज-रोज रह जाती प्यासी
जिसके लिए जलाए दीपक
उसका ही उपहार उदासी
जाने किसका हृदय दुखेगा
जाने कौन-कौन हरषेगें

(६)

हुई मुनादी 
---------------

सागर से पर्वत तक 
ऐसी हुई मुनादी है 
अपना राजा यश गाथा 
सुनने का आदी है 

मजमेदार वज़ीरों की 
लग रही नुमाइश है
अपनी धरती पर इसकी 
अच्छी पैदाइश है 

हमको दम्भ देखना है 
किसका फौलादी है ?

आँखों में अनलिखे पृष्ठ
को पढ़ते रहना है 
नित्य प्रतीक्षा की घड़ियों से 
लड़ते रहना है 

झुककर खड़ा दलालों 
के आगे फरियादी है।

अर्थ खोजना नहीं
महज शब्दों को सुनना है
फर्ज़ हमारा झूठे साँचे
सपने बुनना है
सपने दिखलाने

की संख्या
और बढ़ा दी है।

(७)

बिन्दी हमें कहाँ रखना है 
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बिन्दी हमें कहाँ रखना है 
इसका ध्यान नहीं 
अपनी खींची 
हुई लकीरों 
की पहचान नहीं 

न तो अर्थ ने और न 
शब्दों ने ही समझाया 
भाव सिन्धु  की लहरों ने 
जो भी बोला गाया
किसी ठौर
पर भी राहत 
दे सकी थकान नहीं 

अर्ध-विरामों और 
विरामों ने भी बहुत छला 
झूठ बोलकर रुक जाने  की 
सीखी नहीं कला 
शायद इसीलिए 
अपनी 
रुक सकी उड़ान नहीं 

नए सोच के संदर्भों ने
ऐसी चाल चली 
जिस धारा में बहे हमें 
वह लगने लगी भली
तेज दौड़कर
भी बागी 
हो सकी रुझान नहीं।

(८)

नुकीला पत्थर लगता है
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हाथों में हर समय नुकीला 
पत्थर लगता है 
हमें आदमी 
की छाया से 
भी डर लगता है 

ऊब  गया है मन 
अलगावों की पीड़ा सहते 
कुटिल इरादों को 
मुट्ठी में बंद किए रहते 
जीवन जंगल के भीतर का 
तलघर लगता है 

संबंधों का मोल भाव है 
खींचा तानी है 
पहले वाला कहाँ रहा 
आँखों में पानी है 
रिश्तो वाला सेतु 
पुराना जर्जर लगता है 

लोग लगे हैं सोने 
चाकू रखकर सिरहाने
कविता लिखने वाला
दुनियादारी क्या जाने 
हैं ऐसे हालात 
कि जीना दूभर लगता है।

(९)

ऐसी राजधानी दे
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दे सके तो एक ऐसी 
राजधानी दे 
भोर दे हँसती हुई 
रातें सुहानी दे।

स्वप्न के अनुबंध पर 
जो दस्तखत कर दे 
वक्त से हारे हुए 
इंसान को स्वर दे
 दुख -पलों को भेदकर 
खुशियाँ सयानी दे ।

जो करे चिन्ता सदा 
छोटी इकाई की
जिन्दगी के पाँव की 
फटती बिवाई की 
हर सड़क हमको 
सुरक्षित जिन्दगानी दे ।

अर्थ को लेकर हवा कुछ 
इस तरह डोले 
रात को मजदूर भी 
सुख चैन से सो ले 
जो हमें भरपेट रोटी 
स्वच्छ पानी दे।

(१०)

यहाँ हजारों बार 
--------------------

इसकी चर्चा नहीं तुम्हारी 
नयी कहानी में
यहाँ हजारों बार लुटी है 
नदी जवानी में

चिड़िया बता रही है अपना 
दुख रोते -रोते
करते हैं उत्पात शहर के
पढ़े हुए तोते

पगडण्डी मिट गई सड़क की.
आनाकानी में 

चिमनी के बेरहम धुएँ का 
इतना अंकुश है
जंगल बनते हुए गाँव से 
मौसम भी खुश है 

लोक धुनें कह रहीं
नहीं सुख रहा किसानी में

जब अपने ऊपर मँडराती 
चील दिखाई दी
बूढ़ी इमली की अपराजित 
चीख सुनाई दी

कोयल लगी हुई है 
गिद्धों की मेहमानी में ।

                 ~ मयंक श्रीवास्तव
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परिचय -
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मयंक श्रीवास्तव
जन्म- ११ अप्रैल १९४२ को उत्तर प्रदेश के फिरोज़ाबाद के ऊँदनी गाँव में।

कार्यक्षेत्र-
माध्यमिक शिक्षा सेवा मंडल मध्य प्रदेश में लम्बे समय तक सहायक सचिव के महत्त्वपूर्ण पद पर रहने
के बाद स्वैक्षिक सेवानिवृत्ति। मयंक जी के गीत डॉ० शम्भुनाथ सिंह जी द्वारा सम्पादित नवगीत
अर्धशती में सम्मिलित हैं।

प्रमुख प्रकाशित कृतियाँ-
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नवगीत संग्रह- सूरज दीप धरे, सहमा हुआ घर, इस शहर में आजकल और उँगलियाँ उठतीं रहें , ठहरा हुआ समय , समय के पृष्ठ पर ।

ग़ज़ल संग्रह- रामवती

पाँच समसामयिक दोहे होशंगावाद का एक छाया चित्र अवसर गिरिमोहन गुरु जी एवं मित्रगण

पाँच-दोहे
______
1

दुनिया के इतिहास से,जालिम कुछ तो सीख।
कब  तक  धरती पुत्र की, दबा रखेगा चीख।।

2

जिनकी दम  पर  बन  गया, तू  शाहों का शाह।
जालिम क्यों सुनता नहीं,उनकी करुण कराह।।

3

आग  लगा कर  जिन्दगी , खेल  रही  है  खेल।
आसमान   तक जा  चढ़ी, महँगाई  की  बेल।।

4

भक्त   बता   किस   देव ने, तुझे बताया खास।
फिर  क्यों तू भगवान  से, बाँधे रहता  आस ।।

5
प्रश्न    दाग  तू सैकड़ों  ,जिंदा   रख  प्रतिरोध।
प्रश्नों  से  ही  एक  दिन, तय है   होना  बोध।।

मनोज जैन

कुमार शिव पर विशेष सामग्री प्रस्तुति समूह वागर्थ

नवगीत दशक -2 के नवगीतकार कुमार शिव अब हमारे बीच नहीं रहे उनकी रचना धर्मिता ने सदैव प्रभावित किया उनके नवगीतों में प्रकृति से जुड़े टटके बिम्बों की बहुलता के साथ ही मानवीय प्रवृत्तियों का अनूठा विश्लेषण देखने को मिलता है।
वे व्यक्तित्व को पढ़कर उसके मनोभावों का विश्लेषण करने में माहिर थे इस आशय का संकेत हमें उनके एक नवगीत में मिलता है।
द्रष्टव्य हैं उनके रचे एक नवगीत की चंद पंक्तियाँ
"लिखी हुई संदिग्ध भूमिका /जब चेहरे की पुस्तक पर/
भीतर के पृष्ठों/अध्यायों को /पढ़कर भी क्या होगा/
           आज हर आदमी के चेहरे पर एक नहीं सौ-सौ मुखौटे जड़े हुए हैं ऐसे में सही और गलत की पहचान का आसन्न संकट सदैव मंडराता रहता है।कुमार शिव ने अपने नवगीतों में स्वाभिमान को जिया है। तभी तो वह इतनी बेबाकी से इतना सुंदर नवगीत रच सके। हाथ नहीं जोड़े हमने /और नहीं झुके /पाँव किसी की अगवानी में /नहीं रुके /इसीलिए जो बैसाखियों /लिए निकले /वो भी हमको मीलों पीछे /छोड़ चुके /वो पहुंचे यश की मंडी में/
      समूह वागर्थ उन्हें उन्हीं के कृतित्व से अश्रुपूरित भावभीनी श्रधांजलि अर्पित करता है प्रस्तुत हैं उनके 12 नवगीत
प्रस्तुति 
वागर्थ सम्पादन मण्डल
_________________

1
सुबह बने हैं ओस
रात को बने सितारे 
मेरे होंठों पर जितने 
स्पर्श तुम्हारे।

देहगंध जो आसपास
बिखरी है मेरे
कई तुम्हारे उसने 
अद्भुत चित्र उकेरे 
महक नीम के फ़ूलों की
मेरी साँसों में 
इन्द्रधनुष बन लिपट गये
बाँहों के घेरे

जामुन जैसे कभी 
कभी लगते हैं खारे
मेरे होंठों पर जितने
स्पर्श तुम्हारे।

दाड़िम जैसे सुर्ख़ 
पके अंगूरों जैसे 
किशमिश जैसे मधुर
लाल अमरूदों जैसे 
है मिठास चीकू या 
खट्टी नारंगी की
अवर्णनीय प्यासे
रेती के धोरों जैसे 

मीठे हैं शहतूत
कभी जलते अंगारे 
मेरे होंठों पर जितने 
स्पर्श तुम्हारे।

2
बगिया में उतरे बसंत ने
 छक कर चाँद पिया।

रात फेरती जिव्हा अपने
कत्थई होंठों पर
गुदना गुँदवा रही चाँदनी 
गोरी बाँहों पर

झुक झुक कर महके कनेर ने
एकालाप किया।

पतझर में जो सूखे पत्ते थे
परित्यक्त हुए
खुशबूदार बैंगनी फूलों में
अभिव्यक्त हुए

प्रोषितपतिका के हाथों में
जलता रहा दिया।

3
 शर हैं हम विपरीत दिशा के 
मिले गगन में इक पल। 

वहाँ शून्य में किसी जगह 
अपने अपने रस्ते पर 
अपने सुख दुःख,संग साथ
अपनी स्मृतियाँ लेकर 

गुजरे हैं हम बहुत पास से 
लेकर मन  में हलचल । 

मिलन हमारा निश्चित था 
कड़की थी चाहे बिजली
चाहे चली तेज़ थी आँधी
गरजी चाहे बदली

वर्तमान जी लेंगे हम फिर 
हो जाएँगे ओझल।

बहुत निकट थे इक दूजे के 
गर्म गर्म उच्छवास 
पलकों पर थे कभी सितारे 
कभी लबों की प्यास

हमें ज्ञात है सफ़र हमारा
होगा यहाँ मुकम्मल।

4
खो गये थे तुम  उजाले  में 
तुम्हें पाया अँधेरे में !

रेशमी स्पश॔ केशों के 
किये अनुभूत मैंनें 
चख लिये हैं शाख पर ही
रसभरे शहतूत मैंने

गंध में डूबी हुई थी शीश तक 
याद की काया अँधेरे में!

रास्ता अवरुद्ध था लेकिन 
सुरंगें सामने थीं
पेड़ पर लटकी हुई नीली 
पतंगें सामने थीं

क्या हुआ मुझको मैं अपना 
 ढूंढता साया अँधेरे में!

5
दरिया के बहते पानी 
जहाँ जहाँ से गुज़र गए हम 
नहीं वहाँ वापस लौटेंगे ।

कई बार देखा 
ललचायी नज़रों से 
तट के फूलों ने 
बहुत झुलाया 
तन्वंगी पुरवा की
बांहों के झूलों ने 

हम से मोह बड़ी  नादानी
जिन ऑखों से बिखर गए हम
नहीं वहाॅ वापस लौटेंगे।

चाहो तो रखना
हमको अपनी घाटी से
गहरे मन में
साॅझ ढले हम ही
महकेंगे नीलकमल बन कर
चिन्तन में

हम जिद्दी हैं हम अभिमानी
जिन अधरों से उतर गए हम
नहीं वहाॅ वापस लौटेगे।

6

होंठों तक आया कई बार 
वाणी तक पहुँच नहीं पाया 
वो  हुआ कभी भी नहीं व्यक्त!

मेरे मन में जितना कुछ था 
वह बिना सुने ही चला गया 
अब घिरा बैंगनी सन्नाटा 
चुप्पी ने  पाया अर्थ नया 

यादें  पीली  है बेशुमार 
अंजुरी में समा नहीं पाया 
सूखी रेती सा झरा वक्त ।

पीड़ा बिछोह की महक रही
दुख के पत्ते हो रहे हरे
मौसम के कुछ नीले निशान
नदिया के होंठों पर उभरे

आवेगयुक्त वो आलिंगन
उन्मीलित पलकें  सीपों  सी
नस नस में उबला हुआ रक्त।

7

मैंने तो कुछ धूप के टुकड़े माँगे थे 
तुमने वर्गाकार अँधेरे भेज दिये।

मेरी सुबह नक़ाब  पहन कर आई है 
चितकबरा सूरज   बैठा है पर्वत पर 
सन्नाटा   गूँजा    है   मेरे   होंठों   से 
फूल  नीम के महके  मेरी चाहत पर 

मैंने तो पुरवा के झोंके माँगे थे 
तुमने अंधड़ केश बिखेरे भेज दिये।

मैं तट पर बैठा बैठा यह देख  रहा 
नदी तुम्हारी कितनी  गोरी बाँहें हैं 
दो  नावें  जो  तैर  रहीं हैं  पानी में 
यही  तुम्हारी जादूगरनी  आँखें हैं 

नदी,भरोसे मैंने तुमसे माँगे थे 
तुमने तो भँवरों के घेरे भेज दिये।

घिरा खजूरों से मैं  एक किनारा हूँ
बहुत  टूट कर मैंने चाहा है तुमको 
सूखा हो या बाढ़ तुम्हारे होंठों पर 
मैंने बाँहें खोल  निबाहा है तुमको

मैंने तो अनियंत्रित धारे माँगे थे
तुमने तो लहरों के फेरे भेज दिये।

8

खुशबू बिखरी है कदम्ब के फूलों की
कभी गुज़ारी थी हमने यह  सुबह
तुम्हारे साथ।

यही समय था जब हमने सीखा था
चुप्पी का उच्चारण
इक दूजे की आंखों में रहना
कर लेना ऑसू का भंडारण

स्मृतियाॅ उभरी होंठों की भूलों की
कभी गुज़ारी थी हमने यह सुबह 
तुम्हारे साथ।

जल भीगा  एकान्त,  उर्मियों का 
मधुरम संवाद हठी चट्टानों से
दृष्टि नहीं हटती थी नदिया के
मुखड़े पर नीले पड़े निशानों से

चुभन पाँव में अब तक हरे बबूलों की
कभी गुजारी थी हमने यह सुबह
तुम्हारे साथ।

9

राखदान   में   पड़े    हुए 
हम सिगार से जला किये।

उँगलियों  में  दाब  कर  हमें 
ज़िंदगी   ने  होंठ  से   छुआ
कशमश में एक कश लिया 
ढेर  सा  उगल  दिया   धुआँ 

लोग  मेज़   पर   झुके  हुए
आँख बाँह  से मला किये।

बुझ गए अगर पड़े पड़े 
तीलियों ने मुख झुलस दिया 
फूँक गई त्रासदी कभी 
और कभी दर्द ने पिया

झंडियाँ उछालते हुए 
दिन जुलूस में चला किये।

बोतलों गिलास की खनक 
आसपास से गुज़र गई 
बज उठे सितार वायलिन
इक उदास धुन बिखर गई 

राख को उछालते रहे 
हम बुलन्द हौसला किये।

10

कतार में खड़े अंतिम व्यक्ति का 
विदा गीत 

काले कपड़े पहने हुए 
सुबह देखी 
देखी  हमने दिन की  
सालगिरह  देखी!

हमको सम्मानित  होने  का 
चाव  रहा 
यश की मंदी में पर मंदा 
भाव रहा 
हमने चाहा हम भी बने
विशिष्ट यहाँ 
किन्तु हमेशा व्यर्थ हमारा 
दांव रहा 
किया काँच को काला 
सूर्यग्रहण देखा 
और  धूप भी हमने 
इसी तरह देखी!

हाथ नहीं जोड़े हमने 
और नहीं झुके 
पाँव किसी की अगवानी में 
नहीं रुके 
इसीलिए जो बैसाखियों 
लिए निकले 
वो भी हमको मीलों पीछे 
छोड़ चुके 
वो पहुंचे यश की 
कच्ची  मीनारों पर 
स्वाभिमान की हमने 
सख्त सतह देखी!

11

 साँझ सकारे 
अस्त ,सूर्य के साथ हुए हम 
बिना तुम्हारे 
ओ शतरूपा!

ऐसे बिछुड़े 
पुनर्मिलन  फिर सम्भव कभी 
नहीं हो पाया 
यादों के जंगल में 
किये रतजगे 
कोई भोर न आया 

नदी किनारे
लहरें देखीं नयन हुए नम
बिना तुम्हारे 
ओ शतरूपा!

कितने दिन बीते 
जब हम पर
हरसिंगार के  फूल झरे  थे
बारिश में भीगे थे 
बाँहों में हमने
 कचनार भरे थे 

आँसू खारे 
ढूंढ रहे हैं अपना उदगम
बिना तुम्हारे 
ओ शतरूपा!

12

लिखी हुई संदिग्ध भूमिका 
जब चेहरे की पुस्तक पर
भीतर के पृष्ठों, अध्यायों को
पढ़   कर  भी क्या  होगा 

चमकीला आवरण सुचिक्कन
और   बहुत  आकर्षक  भी 
खिंचा घने केशों के नीचे
इन्द्रधनुष सा मोहक भी 

देखे,मगर अदेखा कर दे 
नज़र झुका कर चल दे जो 
ऐसे अपने-अनजाने के सम्मुख 
बढ़ कर भी क्या होगा।

अबरी गौंद शिकायत की है
मुस्कानों की जिल्द बँधी 
होंठों पर उफनी रहती है
परिवादों से भरी नदी 

अगर पता चल जाय ,कथा का 
उपसंहार शुरू में ही 
तो फिर शब्दों की लम्बी सीढ़ी 
चढ़ कर भी क्या होगा
#कुमारशिव

परिचय
_______
नाम: कुमार शिव
शिक्षा :एम ०ए०, एल० एल ०बी०
जन्मतिथि: 11 अक्टूबर,1946
मृत्यु: 21 मार्च 2021
जन्मस्थान :जयपुर
व्यवसाय: राजस्थान उच्च न्यायालय के सेवा निवृत न्यायधीश, स्वतन्त्र लेखन

कृतियाँ : शंख, रेत के चेहरे, पंख धूप के, हिलते हाथ दरख्तों के,आईना जमीर का देखा, एक गिलास दोपहरी
विशेष :नवगीत दशक -2
नवगीत अर्धशती में शामिल नवगीतकार
सम्पर्क: ए ०-10,गाँधी नगर,जयपुर

रविवार, 21 मार्च 2021

गीत गाँव में एक गीत पर चर्चा टिप्पणी एडमिन गीत गाँव


काश शब्द की छाया में कवि नदी किनारे का वृक्ष होने की कामना करता है। यह गीत सुंदर से असाधारण तब हो उठता है जब आगे की पंक्तियों में यह भेद खुलता है कि कवि अपने चेतन अस्तित्व को लगभग नकारते हुए ऐसी जड़ अवस्था की इच्छा सिर्फ इसलिए रखता है कि वह इस स्थिति को प्रेम के अधिक अनुकूल पाता है लेकिन आगे की पंक्तियां हमें फिर चौंकाती हैं कि कवि का उद्देश्य सिर्फ अपना एकांगी प्रेमालाप नहीं बल्कि शाश्वतता से साक्षात्कार भी है। वह यह भी विश्वास रखता है कि उसके इस प्रयास का प्रतिउत्तर वह शाश्वत - सत्ता भी उसी अनुराग से देगी।
गीत की जीवन यात्रा एक सुबह जैसी इच्छा के उदय से चांदनी का पट निहारने तक की है। यह किसी व्यक्ति का अपने सम्पूर्ण अस्तित्व को तिरोहित कर अपनी बहुत सारी सुविधाओं को तजकर अपने बहुत सारे स्वार्थों से उठकर, महाविराट प्रकृति की सत्ता में अपना विनम्र स्थान पा जाने की इच्छा भर है जिसका उद्देश्य कोई महान उदाहरणीय संज्ञा हो जाने से भिन्न मैथिलीशरण गुप्त की नियति नटी का दर्शक भर हो जाना है।
यह शुद्ध प्रकृतिवाद है।

पढ़िए मनोज जैन मधुर का गीत।

काश,हम होते नदी के

काश हम होते नदी के
तीर वाले वट!

हम निरंतर भूमिका 
मिलने-मिलाने की रचाते
पाखियों के दल उतरकर 
नीड़ डालों पर सजाते

चहचहाहट सुन ह्रदय का
छलक जाता घट!
         
नयन अपने सदानीरा से मिला 
हँस -बोल लेते।
हम लहर का परस पाकर
खिलखिलाते ,डोल लेते

मन्द मृदु मुस्कान बिखराते 
नदी के तट!
       
साँझ घिरती ,सूर्य ढलता
थके पाखी लौट आते
पात -दल अपने हिलाकर
हम रूपहला गीत गाते

झुरमुटों से झाँकते हम 
चाँदनी के पट!
     
देह माटी की पकड़कर
ठाट से हम खड़े होते
जिन्दगी होती तनिक -सी
किन्तु कद में बड़े होते।

सन्तुलन हम साधते ज्यों
साधता है नट!

-मनोज जैन मधुर

कवि ब्रजनाथ श्रीवास्तव जी के नवगीत

~।। वागर्थ ।। ~ 
_______________


मार्च जैसा दिसम्बर लगा : कवि ब्रजनाथ श्रीवास्तव 
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वागर्थ में आज प्रस्तुत हैं बृजनाथ श्रीवास्तव जी के  नौ नवगीत ।

      बृजनाथ श्रीवास्तव जी के नवगीतों में आम जनमानस के जीवन की कटु अनुभूतियाँ अंकित हैं । इनके  गीत विकट शब्द जाल या शब्दों की बाजीगरी से परे यथार्थ के धरातल पर रचे हुए हैं ।
            अपने कहन के मिजाज और भावों के स्थाई प्रभाव के स्तर पर  बृजनाथ श्रीवास्तव जी  ऐसे कवि हैं जो अपनी सरल सहज शैली से पाठकों का ध्यानाकर्षण  करते हैं।   
      इनके नवगीतों में  कथ्य समय के यथार्थ की पड़ताल करता सहज व  स्पष्ट है।  बृजनाथ श्रीवास्तव जी के नवगीत युगीन यथार्थ को व्यक्त करने में समर्थ हैं ।

      ' नए साल ' नवगीत में उन्होंने अनेक समस्याओं के समाधान की उम्मीद व कामनाएँ की हैं , जर ,जोरू ,जमीन , दफ्तर , खेत ,महँगाई की विषबेल के सूखने  व समतापरक समाज की कामना  करते हुए कहते हैं .....

समरसता के टूट रहे जो 
जुड़ें रेशमी रिश्ते फिर से
साथ उठें.बैठें सब खाए्ँ
शिक्षित हों दूर रहें डर से 

भेद भुलाकर 
चलें साथ में अगड़े -पिछड़े

सामयिक परिदृश्य में संयुक्त परिवारों की अवधारणा नई पीढ़ी को कम समझ आ रही है या उसके अन्यान्य कारण हैं , जिसके चलते एकल परिवारों का अवतरण हुआ है , बेशक उसमें अनेक विसंगतियाँ व दुरूहता है ,किन्तु चलन एकल परिवार का बढ़ा है । घर के रिश्तों की गर्माहट व अर्थवत्ता उनके एक गीत में बहुत ही खूबसूरती से मुखरित होती है .....

नींव विश्वास की.
यह भवन है उसी पर खड़ा
सब बड़े हैं बड़़े 
किंतु घर से न कोई बड़ा

सच कहें 
आज रिश्ता यहाँ हर दिगंबर लगा ।

पूँजी का पूँजीपतियों की तरफ ध्रुवीकरण हेतु शापिंग माल्स का प्रचलन व खुदरा व्यापारियों की कष्टप्रद स्थिति व सर्वहारा की पहुँच से दूरी की व्यथा कहता गीत....

यह रही कुबेरों की मंडी
सारे शोषक मंत्र गढ़ें
जो आया वह लुटा यहाँ पर
चाहे कितने ग्रंथ पढ़े

करें नहीं घुसने की हिम्मत 
बुधई ,रामचरन ,धनिया

नवगीत के मूल में संवेदना है , नवगीत कार के गीत संवेदना को स्पर्श व चिंतन हेतु विवश करते हैं ।  बृजनाथ श्रीवास्तव जी के नवगीतों का फलक काफी विस्तृत है, उनकी सजग दृष्टि समाज की समस्त विकृतियों व कारणों पर पड़ी है । 

         वागर्थ उन्हें हार्दिक बधाई व शुभकामनाएँ प्रेषित करता है ।

         प्रस्तुति
वागर्थ संपादन मण्डल

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(१)

नये साल में 
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अच्छा होता 
अगर निपटते 
जर, जोरू ,जमीन के झगड़े 
           नये साल में

जाने कब से जमी फाइलें 
न्यायालय के तहखानों में 
पीढ़ी दर पीढ़ी लड़ते हैं 
सब अपनी-अपनी शानों में 

जिसका खेत 
उसे मिल जाये  
मिट जायें अमीन के लफड़े 
            नये साल में 

पड़े न अब तो मँहगाई का 
आम आदमी पर फिर डाका
मत भागें विदेश को बच्चे
रहें साथ में काकी काका 

नहीं सतायें 
अब गरीब को जो हैं तगड़े
           नये साल में

समरसता के टूट रहे जो 
जुड़ें रेशमी रिश्ते फिर से
साथ उठें बैठें सब खायें 
शिक्षित हों दूर रहें डर से 

भेद भुलाकर 
चलें साथ में अगड़े-पिछड़े
           नये साल में
 
            
(२)
मार्च जैसा दिसम्बर लगा 
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सच कहें 
घर हमेशा मुझे एक मंदिर लगा
                     
भोर से शाम तक
आरती के यहाँ गान हैं 
त्याग मृदु प्यार के 
मूर्तिवत बंधु प्रतिमान हैं

सच कहें 
शीश पर हाथ माँ का शुभंकर लगा

आँगने द्वार तक 
खुशबुओं के यहाँ सिलसिले 
लोग घर के 
जहाँ भी मिले हँस गले से मिले 

सच कहें 
प्यार में मार्च जैसा दिसम्बर लगा

नींव विश्वास की 
यह भवन है उसी पर खड़ा
सब बड़े हैं बड़े
किंतु घर से न कोई बड़ा

सच कहें 
आज रिश्ता यहाँ हर दिगम्बर लगा  
        
(३)

हाँफते दिन भर 
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कई युग से 
लकीरें हाथ की हम 
   बाँचते दिन भर

महल में नाचतीं परियाँ 
पहनकर मणिजड़े गहने 
विलासी मधुक्षणों के सुख 
वहीं आकर लगे रहने

इधर हम 
रोज पन्ने भाग्य के हैं 
     जाँचते दिन भर

सुगंधित भोग की थालें 
वहाँ दिन भर महकती हैं 
हमारे पेट में अनुदिन 
जठर बनकर दहकती हैं 

इधर हम 
एक रोटी के लिये ही 
    नाचते दिन भर   

इधर तो प्यास के मारे 
हमारे हैं गले सूखे 
सुबह से शाम तक हम तो 
रहे गिरते रहे टूटे 

लिए हम 
अनबुझी चाहें डगर में 
     हाँफते दिन भर
         

(४)
राजा से पूछ रहे 
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क्यों लूटी सुबहों से 
कौवों की काँव 
राजा से पूछ रहे बेचारे गाँव 

हरे-भरे खेतों की 
सोनमयी वे फसलें 
महक भरी अमराई 
गौवों की वे नसलें

कहाँ गये अनुभव वट 
पीपल की छाँव
राजा से पूछ रहे बेचारे गाँव 

तट रोकर पूछें क्यों 
हमसे जल दूर हुए 
कैद हैं मछलियाँ क्यों 
क्यों नट मशहूर हुए 

कहाँ गईं पतवारें 
घाट नदी नाव 
राजा से पूछ रहे बेचारे गाँव 

क्यों ऐसे दिन आये 
हवा हुई जहरीली 
घाटी के कण-कण की 
प्यास दिखी रेतीली 

जहाँ-जहाँ आँख गड़ी 
वहीं हुआ घाव 
राजा से पूछ रहे बेचारे गाँव
        
 (५)
वालमार्ट 
-------------
वालमार्ट ने 
पाँव पसारे 
मरा मुहल्ले का बनिया 

यह रही कुबेरों की मंडी
सारे शोषक मंत्र गढ़ें 
जो आया वह लुटा यहाँ पर 
चाहे कितने ग्रंथ पढ़ें

करें नहीं 
घुसने की हिम्मत 
बुधई , रामचरन ,धनिया 

साजिश ,साजिश 
साजिश लेकर 
आये नये नवेले दिन 
भूल गये सब 
आपसदारी 
कितने लिये झमेले दिन 

क्रच में बच्चे
पलते देखे 
सूनी अम्मा की कनिया 

वालमार्ट, बिग-बाजारों ने
कैसे-कैसे व्यूह रचे 
सेठों की तो पौ बारह है 
सीधे-सादे लोग फँसे 

और करें क्या 
केवल कहते 
यह तो भाई है दुनिया
       
(६)
छँटनी
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खिसक गये दिन 
रोटी वाले पिछले पखवारे से 

पेट काट जब जिया पिता ने 
राम भजन पढ़ पाया 
पढ़ लिख करके लगी नौकरी 
पैसा घर में आया 

आता घर अब 
घुप्प अँधेरे जाता भिनसारे से 

बड़ी लगन से काम सँभाले 
खुश है सारा दफ्तर 
पीठ ठोंकते , हाथ फेरते 
आकर मालिक अक्सर 

लड़ा बहुत दिन 
अँधियारे से और उजारे से 

आज कम्पनी ने छँटनी की 
कुछ लोग हुए बाहर 
राम भजन का भाग्य निगोड़ा
बैठा तनकर सिर पर 

पिता चल बसे 
अम्मा बेसुध अब दिन बंजारे से
      
(७)
बादल सिरजो 
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ओ विज्ञानी !
बंद करो ये तोप मिसाइल 
          बादल सिरजो

तुम्हें पता है धरती माँ की 
कोख हुई कितनी ही खाली 
फेंक-फेंक कर परा बैंगनी 
बजा रहा सूरज भी ताली 

ओ विज्ञानी !
नये शोध संधान करो अब 
          बादल सिरजो

धरती के तन फटी दरारें 
हिमनद कई विलीन हो गये 
साँसें मंद हुईं नदियों की 
तट बंजर श्रीहीन हो गये 

ओ विज्ञानी !
खग मृग मीन पियासी संस्सृति 
              बादल सिरजो

मंगल और चाँद पर जाकर 
माना शातिर लोग बसेंगे 
किंतु हमारे धरती वासी 
बिन पानी किस तरह जियेंगे 

ओ विज्ञानी ! 
सागर जल पर यंत्र लगाकर 
           बादल सिरजो
        
(८)

कैसी है बंधु ! यह सदी
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हाट हुए रिश्ते सब 
नेह कागदी
कैसी है बंधु ! यह सदी

मंगल पर बसने को 
लोग हैं खड़े 
छीन रहे घर ,साँसें 
लोग जो बड़े 

भूखे इन पेटों पर 
चढ़ गई बदी
कैसी है बंधु ! यह सदी

महापुरुष पेड़ों की
छाँव है कटी 
पौध नई बोनसाई
बाग में डटी 

उजड़ गया महुवा वन 
सूखती नदी
कैसी है बंधु ! यह सदी

हवा हुई जहरीली
प्राण भी डरे 
पंछी के स्वर्णमयी
पंख भी झरे 

आग हुए दिन वाली 
आज त्रासदी 
कैसी है बंधु ! यह सदी
      

(९)
सुनो साधुजन 
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सुनो साधुजन
सूखी नदियाँ फिर लहरायें 
        कुछ जतन करें 

बड़ा दु:ख है 
हम सबको भी
पशुओं और परिंदों को भी 
मंदिर दुखी 
मँजीरे दुख में 
दुखी पेंड़ दुख संतों को भी

सुनो साधुजन 
हिम पिघले, जल घन बरसायें
           कुछ जतन करें

नेह भरे पुल को हम सिरजें 
इधर उधर सब आयें जायें 
बंजर रिश्तों की यह खेती 
नदी जोग से फिर लहराये

सुनो साधुजन 
योगक्षेम के दिन हरियायें 
        कुछ जतन करें

                 ~ बृजनाथ श्रीवास्तव 

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परिचय
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 बृजनाथ श्रीवास्तव
जन्म एवं स्थान : 15 अप्रैल 1953
जन्म स्थल  :   ग्राम- भैनगाँव,जनपद- हरदोई (उ.प्र.) 
शिक्षा :  एम.ए.(भूगोल)
 सात नवगीत संग्रह प्रकाशित
अनेक पत्र पत्रिकाओं सहित समवेत समवेत संकलनों में नवगीत / प्रकाशित
 उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान , लखनऊ द्वारा ‘ निराला सम्मान-2017 ‘ से सम्मानित एवं पुरस्कृत एवं अन्य विभिन्न साहित्यिक , सामाजिक संस्थाओं द्वारा सम्मानित 
भारतीय रिजर्व बैंक के प्रबन्धक पद से सेवानिवृत्त
सम्प्रति  :  पठन,पाठन, लेखन एवं  पर्यटन
सम्पर्क :  21 चाणक्यपुरी, 
  ई-श्याम नगर,न्यू.पी.ए.सी.लाइंस , कानपुर- 208015  
   Email: sribnath@gmail.com

गुरुवार, 18 मार्च 2021

कीर्तिशेष रामप्यारे श्रीवास्तव नीलम जी के दस नवगीत प्रस्तुति वागर्थ

फेंकता है कौन शीशों से उजाला जानता हूँ धूप मेरे घर नहीं है:रामप्यारे श्रीवास्तव 'नीलम'
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                   वागर्थ में आज नवगीतों की एक और कड़ी जोड़ने का दिन इस श्रृंखला में आज हम जोड़ने जा रहे हैं कीर्तिशेष रामप्यारे श्रीवास्तव'नीलम'जी के दस नवगीत।यों तो 26 सितंबर 1935 को ग्राम मैदेमऊ,राय बरेली उत्तर प्रदेश में जन्में,रामप्यारे श्रीवास्तव नीलम जी अपने समय के चर्चित रचनाकार रहे हैं।उनके प्रस्तुत नवगीत लंबे अंतराल के बाद आज भी उतने ही प्रासंगिक हैं।उनके गीतों में भोगा हुआ यथार्थ बोलता है।जिये हुए समय की पदचापें अब भी जस की तस सुनाई देती हैं।अवधारणा के स्तर पर उनके गीत तल स्पर्शी और उच्चस्तरीय हैं।
            सार संक्षेप में कहें तो उनके नवगीत आन्तरिक और बाह्य  सौंदर्य के स्तर पर असली नवगीत हैं।वागर्थ इन नवगीतों को पाठकों के समक्ष प्रस्तुत कर स्वयं को गौरवान्वित महसूस कर रहा है।बहुत आभार Simantini Ramesh Veluskar जी का जिनके सहयोग से हमें यह सामग्री हमें उपलब्ध हो सकी।

प्रस्तुति
वागर्थ
सम्पादन मण्डल
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1. आधी उमर तो कट गई 

आधी उमर तो कट गई कुछ हाट में कुछ बाट में 
अब सोचता हूँ खिन्न मन बाकी उमर का क्या करूँ 

दायित्व के बोझे लिए 
उतरा समय की धार में 
गुण से अधिक दायित्व की 
बोली लगी बाज़ार में 
इसकी रसोई के लिए, उसकी तिजोरी के लिए 
बन कर रहा हूँ उपकरण, ऐसे हुनर का क्या करूँ 

हर पल वसंतोत्सव लगा 
ऐसे मिले कुछ ठाँव भी 
कोई शकुनि नेपथ्य से 
चलता रहा है दाँव भी 
हर साँस दुहराती रही है चक्रव्यूहों की कथा 
घावों भरा है हर चरण, बाकी समर का क्या करूँ 

मन को अनादृत छोड़कर 
इस देह का कर्ज़ा भरा 
वे भी कहाँ अपने हुए 
जिनके लिए जीया-मरा 
है सुख मिला बस स्वप्न में जोड़े गए परिवार का 
ऊबों भरा हर जागरण, अब घर-अघर का क्या करूँ 

2. अनचीन्हा अपना ही नाम लगा 

अनगिन आरोपित संज्ञाओं के बीच हमें 
अनचीन्हा अपना ही नाम लगा 

ऊबों से भरे हुए 
गंधहीन रिश्तों के 
पढ़ते हम ठंडे अनुवाद 
कहने-सुनने को तो 
रोज़ महाभारत है 
खोया बस 
मन का संवाद 
तस्वीरों की प्रगल्भ टोली में हतप्रभ सा 
गुमसुम बैठा बस, ख़ैयाम लगा 

सूरज तो एक रहा 
हम ही संग चल-चल कर 
घर से बाज़ार तक बँटे 
कर्ज़ों की मूल रकम 
ज्यों की त्यों खड़ी रही 
किश्तों में हम मगर कटे 
अपनी पहचानों को फेंककर अंधेरों में 
बेचा ख़ुद को जो भी दाम लगा 

3. सात रंग वाली बाँसुरी बजी 

फिर सूरज की 
सात रंग वाली बाँसुरी बजी 

घन परियों ने महारास के घुँघरू पहन लिए 
बहुत दिनों तक धूप-सास के बंधन सहन किये 
अम्बर से धरती तक नाचें 
अब जितनी मर्ज़ी 

मुरझाए बीमार वनों के चेहरे हुए हरे 
शापग्रस्त नदियों तालों के फिर से दिन बहुरे 
एक अमृत उत्सव की चर्चा 
खेत-खेत पँहुची 

आँख-आँख में हवा बो रही बासमती सपने 
राखी कजली के दिन गिनती हैं बेटी-बहनें 
मचल रही नइहर जाने को 
नई-नई भौजी 

4. भगत 

खुले नहीं दरवाजा 
तब तक बैठे रहो भगत 

समझाया दो टूक महल के 
पहरेदारों ने 
तुमको समय गलत बतलाया है 
अखबारों ने 
अभी तुम्हारी दीन दशा पर 
बहस अधूरी है 
जब तक हो फैसला 
भाग्य में जो है, सहो भगत 

तुमने अपने सपने सींचे 
जिनके वादों से 
उनके कुनबे भरे हुए 
लोभी शहज़ादों से 
शहज़ादों की मर्ज़ी से रुख 
हवा बदलती है 
जैसे बहे बयार समय की 
तुम भी बहो भगत 

सड़कों का आदमी 
यहाँ आकर खो जाता है 
लोककथा गाने वाला 
दसमुख हो जाता है 
हक़ की बातें नहीं सुहातीं 
दसमुख राजा को 
हाँ, कोई ऋण दान चाहते हो 
तो कहो भगत 

5. फसलें पकीं (शुभकामना) 

फसलें पकीं, तन गईं मूछें 
यूँ ही तनी रहें 
राम करें 'दीनू' की खुशियां 
यूँ ही बनी रहें 

जल से भरे कूप 
नाज से भरी बखारी हो 
नात-गोत संग खुले हाथ से 
तिथि-त्योहारी हो 
नेह-छोह की डोरें पुख्ता 
सौ-सौ गुनी रहें 

मीठी-मीठी नींद, स्वप्न 
उजले-उजले दिन के 
पीछे पड़ें न भुतहे साये 
किसी महाजन के 
ऋतुएं हों अनुकूल 
उमंगें धानी-धनी रहें 

परस पसीने का पारस 
माटी कंचन होती 
अन्नपूर्णा धरती 
गीतों का गुंजन होती 
यूँ ही सिरजें हाथ, बोलियाँ 
मधु से सनी रहें 

6. शाम बंगाल की 

सुआपंख झीलों में डूबा 
पीला रेशम-जाल 
चलो अब घर चलें 

नारंगी अम्बर में उड़ता है सारस का जोड़ा 
दसों रानियों ने सूरज की शाल जामुनी ओढ़ा 
ज्योति-कुसुम के छंद 
समेट चुका है जोगी ताल 
चलो अब घर चलें 

उपकृत धीवर जलतारे पर यश नदिया का गाता 
पवन थकी बाहों से बंसवट में मलखंभ हिलाता 
हानि-लाभ का लेखा सुनती 
सरपंचिनि चौपाल 
चलो अब घर चलें 

पंथ जोहती होगी भामिनि ईंगुर पाँव रचाये 
कहीं समर्पित वेणी की निशिगन्धा रूठ न जाये 
कोई याद रंग रही होगी 
मुख पर रंग गुलाल 
चलो अब घर चलें 

7. फागुनी निशा 

फागुनी निशा महके ज्यों हिना 

तारों के शिशु तकली कातते 
बैठे आकाशी कालीन पर 
किरणों की छात्राएं गा रहीं 
मालकौंस लहरों की बीन पर 
            करता है चंद्रमा मुआयना 

पत्रों के दोनों से झर रही 
दुधियल चरणामृत सी चाँदनी 
बौरों की गंध सुरा पी कोयल 
छेड़ रही स्वर कवि-सम्मेलनी 
          सारा उपवन देता दक्षिणा 

अल्हड़ नाइन-बयार बाँटती 
घर-घर में सौरभ का बायना 
ताशे फिर बज उठे सहालग के 
वरदेखी को आये पाहुना 
       फड़क रहा है अंग दाहिना 

7. सज गई ऋतुराज की इंदर सभा 

चित्रबीथी हो गई है हर दिशा 
फूल, रोली, रंग संयोजित हुए 
सज गई ऋतुराज की इंदर सभा 
आप, हम, सब लोग आमंत्रित हुए 

उम्र के अंतःपुरों की प्यास का 
फिर अनूदित भाव ओठों पर हुआ 
कुंकुमी गूढ़ार्थ वाली चिठ्ठियां 
बाँटता हर गेह हीरामन सुआ 
        दे रही खुलकर चुनौती कोकिला 
        हैं कहाँ वे लोग इन्द्रियजित हुए 

डगमगाते पाँव प्राकृत गंध से 
एक आदिम चाह के कंगन बजे 
टूटता है वर्जना का व्याकरण 
मुक्त मन जब प्यार-पद्मावत रचे 
         डालते हैं एक मादक मोहिनी 
         पुष्पधनु के बाण अभिमंत्रित हुए 

खोलता मणि-कोष राजा खेत का 
एक सपनों का महल बनने लगा 
फिर प्रतीक्षा में सुनहले वर्ष की 
कर रही हैं कामनाएं रतजगा 
          घोलती संजीवनी फगुआ-हवा 
           पी रहे हैं प्राण सम्मोहित हुए 

8. मन लुभाने लगा गुलमुहर

चिलचिलाती हुई धूप में 
सज संवर जोगिया रूप में 
गीत गाने लगा गुलमुहर 
मन लुभाने लगा गुलमुहर 

अंगवस्त्रम चटक रेशमी 
देह पर तोतई अंगरखा 
श्वेत चंदन तिलक भाल पर 
वक्ष पर हार है नौलखा 
लालमणि की सजी पंक्तियां 
जल उठीं सैकड़ों बत्तियां 
        जगमगाने लगा गुलमुहर 
         मन लुभाने लगा गुलमुहर 

झाड़ फानूस से सज गया 
दूधिया दर्पणों का महल 
धूप की झील में खिल गए 
रूप बदले हज़ारों कमल 
भव्य है चित्र की कल्पना 
बीच आकाश में अल्पना 
          है सजाने लगा गुलमुहर 
           मन लुभाने लगा गुलमुहर 

यह समारोह सौंदर्य का 
एक आभा घिरी मोहिनी 
दाह के पल पिघलने लगे 
बह चली एक मंदाकिनी  
ज़िंदगी मे कठिन ताप सह 
दर्द में भी जियें किस तरह 
            ये सिखाने लगा गुलमुहर 
              मन लुभाने लगा गुलमुहर 

9. बांध पाए सेतु लहरों पर 

फेंकता है कौन शीशों से उजाला 
जानता हूँ धूप मेरे घर नहीं है 

खुद न क्षण भर भी सुगंधों में जिये जो 
हाथ मे लेकर इतर वो घूमते हैं 
जो किरन का अर्थ तक बतला न पाए 
सूर्य का गौरव पहन कर झूमते हैं 
       हाथ कुछ चाहे समर्थन में उठें पर 
       प्राण में उनके लिए आदर नहीं है 

छोड़ आये जो अंधेरे जंगलों में 
आज फिर कम्पास लेकर वे खड़े हैं 
मारते पत्थर असहमति हो जहाँ भी 
जिस्म पर जिनके स्वंय शीशे जड़े हैं 
        बज रहे वे ही पुराने टेप जिनमें
        एक भी संभावना का स्वर नहीं है 

जो मरम्मत के लिए कसमें उठाता 
और कुछ सूराख कर देता तली में 
एक टूटी नाव पर जन्मा कबीला 
जूझता हर क्षण भंवर की कुंडली में 
          बांध पाए सेतु लहरों पर अभी तो 
           दीखता वह दक्ष कारीगर नहीं है 

मौसमों का नाम कुछ भी हो, गले में 
एक सी खुश्की, पुतलियों में नमी है 
प्राणगंगा की उमंगों को दबोचे 
बेबसी की बर्फ़ पत्थर सी जमी है 
            पढ़ रहे हैं मंत्र कब से शामियाने 
             छोड़ता पर राह जड़ अजगर नहीं है 

10. हो गए हैं आजकल कितने सयाने हम 

तप्त बालू पर अधर से लिख वरुण का नाम 
जी रहे हैं ज़िंदगी किस-किस बहाने हम 

एक लंबा सिलसिला है वंचनाओं का 
गूँजता है स्वर करामाती हवाओं का 
जी रहा नीरोगता का स्वप्न हर रोगी 
देखकर रंगीन विज्ञापन दवाओं का 
    द्वार तक स्वागत, निषेधादेश चौखट पर
    देख आये हैं कई ऐसे ठिकाने हम 

छेंकते हैं धूप चीलों के खुले डैने 
मोरपंखों के तले विषधर लगे रहने 
हर तरफ बाज़ार की ऐसी नज़रबंदी 
रूपसी डायन खड़ी ज्यों बघनखा पहने 
     चेहरों पर चेहरे, ऊंची दुकानों पर
     और सबकी आँख के सीधे निशाने हम 

बर्फ की दीवार जाने क्यों नहीं घुलती 
आँख की स्याही किसी जल से नहीं धुलती 
साथ हो इस सूर्य का या उस सितारे का 
कुछ कदम बस, फिर वही अंधी गली खुलती 
      दर्द के हक़ में नहीं कोई रतन-नीलम 
      देख आये हैं कुबेरों के खज़ाने हम 

हर सुबह सम्मन लिए आती अभावों के 
घेरते आतंक महंगाई, तनावों के 
काग़ज़ों पर व्योम छूती सीढ़ियां अनगिन 
पर हक़ीक़त में समंदर यातनाओं के 
      बच रहे हैं हम मुखौटों की हिफाज़त में 
      हो गए हैं आजकल कितने सयाने हम 

परिचय : रामप्यारे श्रीवास्तव 'नीलम' 
जन्मतिथि : 26 सितंबर 1935 
मृत्यु : 2 सितंबर 2002 
जन्मस्थान : ग्राम मैदेमऊ, पोस्ट बेहटा कलाँ 
                  रायबरेली उत्तरप्रदेश 
प्रकाशित साहित्य : 
1. विक्रांत, 
2. सन्नाटा चुप नहीं है 
3. सहयात्री 
4. एक सप्तक और 
5. अप्रस्तुत 
6. मुखौटे, सलीब और युद्ध 
7. कंदीलें 
8.नवगीत अर्धशती

संपादन : नवागत पाक्षिक, बिगुल- अनियतकालीन पत्रिका, घर गृहस्थी में कविता, कविता समावेश 

कहानियां, उपन्यास, निबंध, समीक्षाएं प्रकाशित

बुधवार, 17 मार्च 2021

युवा कविविवेक आस्तिक के नवगीत प्रस्तुति : वागार्थ समूह

~।।वागर्थ ।। ~
           में आज प्रस्तुत हैं युवा कवि विवेक आस्तिक जी के नवगीत ।
      काव्य साधना की बात करें तो विवेक आस्तिक छंद सृजन में भी प्रवीण हैं,इनकी फेसबुक वाल पर पड़े अनेक सवैया,पद आदि इसका प्रमाण हैं ।
      ग्रामीण पृष्ठभूमि से जुड़े विवेक आस्तिक जी ने कम समय में नवगीत विधा पर मजबूत पकड़ बनाई है।  जैसा कि महेश अनघ जी कहते हैं कि " कविता परोक्ष कथन और पारिवेशिक चित्रण के माध्यम से जन सामान्य को इस तरह आंदोलित अवश्य करती है कि पाठक स्वयं अपने रोग का कारण, लक्षण और निदान समझ लेता है। लेकिन यह होता तभी है, जब गीत में परोक्ष रूप से व्यंजित शिल्प में, बिंबों, प्रतीकों के माध्यम से ''कुछ'' कहा गया हो । "
         महेश अनघ जी के इस वक्तव्य के आलोक में परखा जाए तो विवेक आस्तिक जी के नवगीत बहुत कुछ कहते बोलते हैं ।
इस " कुछ "की एक बानगी , आधी आबादी के कटु यथार्थ पर रचे गए उनके एक नवगीत में दृष्टव्य है..ऐसे वीभत्स दृश्य पर संवेदनशील क़ल़म से एक अंतरा इस तरह  निःसृत होता है ...

हर तरफ काले मुखौटे 
घूरते हैं , है विवश
बढ़ रही आगे निरंतर 
मुट़ठियों में स्वप्न कस ।

मुस्कुराता खूब एसिड
एक स्त्री जल रही है ....

सभ्य समाज की सभ्यता की एक प्रमुख विसंगति , विकसित-स्थापित मानवीय मर्यादाओं के विघटन से उत्पन्न अमानवीय गतिविधियों की , है । वर्तमान परिदृश्य में करुणा , संवेदना आदि जीवन मूल्य लगभग पलायन कर गए हैं , सभ्यता के उतरोत्तर विकास के क्रम में हम अवनति  के सोपान चढ़ रहे हैं ।
   इस विपर्यय का बड़ा ही सटीक चित्रण ' सभ्य होते जा रहे हैं ' नवगीत में देखिए ..

तोड़ देना 
पुरुषवादी बेड़ियों को
चाहते हैं तन सभी को हम दिखाएँ
देश बाँटें, फिर कोई गाँधी मरे., फिर 
गोडसे के मुँह पे कालिख पोत आएँ

मुस्कुराकर खूब रोते जा रहे हैं
देखिए हम सभ्य होते जा रहे हैं ...

गाँव से महानगरों में आईं युवतियाँ नगरीय परिवेश में किस तरह से स्वयं को समायोजित कर रहीं हैं, भले ही यह समायोजन उन्हें आधुनिकता के निकष पर सिर्फ रहन- सहन में बदलाव भर ही समायोजित कर पाता है बाकी उनकी स्मृतियों के मूल से गाँव कटता नहीं ।

आ, नगर की धड़कनों में 
खो गई हैं 
बादलों की पीठ पर 
नव बीज बोने

रोलरों से देह अंकुर 
को बचाकर 
चाहती हैं दुधमुँहे 
सपने सँजोने

आँख से यादें ढुलककर 
आ गई हैं
जुड़ रहीं सँवेदनाएँ 
गाँव से

भारतीय कानून व्यवस्था का मूल भाव है कि सौ गुनहगार भले छूट जाएँ पर किसी निर्दोष को दण्ड नहीं मिलना चाहिए , किंतु विडंबना कि वस्तुस्थिति अधिकांशतः इसके उलट है अपराधियों की पौ बारह है और निर्दोष , सर्वहारा पिस रहा है ...उनके एक नवगीत में यह न्यायिक विसंगति उभर कर आती है ..

न्याय व्यवस्था चमगादड़ सी 
रही पेड़ पर झूल
काँटे ताली दे -दे हँसते
नज़र झुकाए फूल।

राम दुबककर बैठे जग में
रावण हों मशहूर

प्रेम में प्रियतम तक संदेश पहुँचाने की कविकुल की समस्याएँ खत्म ही न हुईं यह बात और है कि पहले वह कबूतर , बादल ,नदी को हरकारा बनाता था।( हमने भी बनाया है।)
किन्तु समय बदला है सारी उधेड़बुन मैसेज न आने की ,सीन होकर भी अनसीन , होने की है , हाँ बदलते परिदृश्य में बादलों कबूतरों , नदी आदि को राहत अवश्य मिली है , तकनीकी ने यह दृश्य बदल दिए ...

हो गया लंबा समय 
मैसेज न आया स्क्रीन पर
अब नहीं कोई रिएक्शन 
हो रहा है सीन पर 

गेट पर ताला लगा है 
सोचता हूँ आज विंडो खोल दूँ

व्यक्तिगत तौर पर हमें देशज शब्दों से बहुत लगाव है , हालाँकि हमारी इस बात से सभी लोग इत्तफ़ाक़ शायद न रखें किन्तु यदि सायास देशज शब्दों को रचनाकर्म से पृथक रखा गया तो इस तरह शनैः शनैः इनका अस्तित्व ही समाप्त हो जाएगा , यकीनन नवगीत में अधिकांशतः खुरदुरे कथ्य पर भी बात होती है ऐसे में यह देशज शब्द लोक की मिठास बनाए रखने में महती भूमिका निभा रहे हैं /निभाएँगे ...

साधो अपना झोरा ले लो
चलो गाँव की ओर ....

यहाँ शब्द विशेष झोरा की माटी से जुड़ी ध्वनि वह बेहतर महसूस कर सकेगा जिसकी जड़ें गँवई पृष्ठभूमि से जुड़ी होंगी ।

विभिन्न भावभूमि पर रचे गए युवा कवि के नवगीत निश्चित ही श्लाघनीय हैं ,  नवगीत की आप नवीन सँभावना हैं , समकालीन नवगीतकारों में आपके नवगीत विशिष्ट हैं जो निश्चित ही भविष्य में नवगीत की  दिशा दशा तय करेंगे । 
     विवेक आस्तिक जी पूरी शालीनता और पूरे विवेक से रचनाकर्म में रत हैं,थोड़े से समय में ही विवेक आस्तिक ने नवगीत के शिल्प को साध लिया है अनुभव और पठन पाठन की रुचि से उनके नवगीतों में आगे चलकर और परिपक्वता आएगी। हम यह आशा प्रस्तुत नवगीतों को पढ़कर  विवेक आस्तिक के कवि से बाँध सकते हैं।सँभावनाओं से युक्त इस युवा नवगीतकार को वागर्थ आत्मीय बधाई व शुभकामनाएँ प्रेषित करता है ।

                                   
                                    ~ अनामिका सिंह 
                                     ~ ।। वागर्थ ।।|~

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(१)

 हम अगर 
कुछ कह न पाए
जीभ के छाले कहेंगे ।

चीखकर दम तोड़ देंगी 
गाँव की पगडंडियाँ ,
हर मुहल्ले में मिलेंगी 
जमघटों  की झंडियाँ।

अब हमें 
स्वच्छंद रहना 
डाँटकर ताले कहेंगे ।

सर पटककर जब मरेंगी
प्यास से कुछ बदलियाँ,
पुष्प गुच्छों पर हँसेंगी 
खिलखिलाकर झाड़ियाँ ।

है नदी मुझमें 
समाई 
झूमकर नाले कहेंगे ।

जब सभी चलने लगेंगे
साथ लेकर छाँव को, 
शब्द-चित्रित व्याकरण खुद
बाँध देगा गाँव को।

मौत किसकी
हो रही है?
देखने वाले कहेंगे।...

(२)

इस तरह स्वच्छंद 
बालाएँ हुईं हैं,
पायलें भी छिन गईं हैं
पाँव से ! 

आ , नगर की धड़कनों में
खो गई हैं
बादलों की पीठ पर
नव बीज बोने ,

रोलरों से देह-अंकुर 
को बचाकर
चाहती हैं दुधमुँहे 
सपने सँजोने ।

आँख से यादें ढुलककर
आ गईं हैं ,
जुड़ रहीं संवेदनाएँ 
गाँव से !

सूँघ आर्टीफीशियल अब
खुशबुओं को
घूमती दुर्गंध में 
वो जी रहीं हैं ,

मॉल, ऑफिस, साथियों की 
डोर से ही
रिस रहे जो घाव 
उनको सी रहीं हैं । 

सावनों के मस्त झूले
जीभ पर बस  ,
दूर  कोसों नीम, वट की 
छाँव से !

 (३)

पहले  वाले मूल्य सभी हैं , 
चलते-चलते
आज थक गए !

चौपालों के वक्षस्थल पर 
अद्धे -पौए झूम रहे हैं ,
मुखिया जी की चरण-पादुका
चमचे मिलकर चूम रहे हैं ।

सदियों से जो पड़े मुलम्मे ,
सोने जैसे 
अब  चमक गए!

किसके घर डाका पड़ना है
किसके घर चोरी होनी है ,
कल फिर किस महिला के सँग में
मिल  ज़ोराज़ोरी  होनी है ?

झाग फेंकती बातें सुन-सुन ,
दीवारों के
कान पक गए!

चिड़िया अपने पंख दबाकर 
हाँफ-हाँफ कर भाग रही है ,
सारा जग निर्दन्द्व सो रहा 
रात बिचारी जाग रही है।

जिन्हें बोलना वे सब चुप हैं ,
सदियों से चुप
आज बक गए!

(४)

देखो फिर से आज 
गगन ने छितराई है नील!

धूप उतरकर , ठुमक-ठुमककर 
लगी धरा पर चलने।
बूढ़ी सर्दी ,लगी खाट पर
धीरे-धीरे ढलने। 

कुहरा फिर से हाथ जोड़कर
करने लगा अपील!

हवा लहरियाँ लेकर झूमी
पत्ते हैं छन्नाए।
मेढ़क निकल तलैया बाहर
देह सेंकने आए।

फिर से देखो आज हँसी है 
खुलकर मौनी झील!

चिड़ियों ने भी चीं-चीं करके
अपने पंख पसारे।
टिड्डा , चूहे , सर्प , केचुएं
निकले घर से सारे।

देखो फिर से दिखी 
अचानक आसमान में चील!

(५) 

मुँह औंधाए
सपने घुट-घुट
मरने को मजबूर !

कानों को केंचुल कर बैठा 
मशीनरी का शोर ,
कलाबाज सी कला कर रही
इस जीवन की भोर ।

कुहू-कुहू
कोयलिया की अब
हम से कोसों दूर !

कृत्रिम हो गई बगिया के
हायब्रिड फूलों की गंध ,
राम-भरत से कहाँ रहे 
अब भाई के संबंध ।

ज़रा बात पर 
रिश्तों की 
नीवें हों चकनाचूर !

न्याय व्यवस्था चमगादड़ सी 
रही पेड़ पर झूल ,
काँटे ताली दे-दे हँसते 
नज़र झुकाए फूल ।

राम दुबककर 
बैठे, जग में
रावण हों मशहूर !

 (६)

हर सड़क पर कील बोते जा रहे हैं!
देखिए हम सभ्य होते जा रहे हैं!

तोड़ देना 
पुरुषवादी बेड़ियों को
चाहते हैं तन सभी को हम दिखाएं।
देश बाँटें, फिर 
कोई गाँधी मरे, फिर
गोड़से के मुँह पे कालिख पोत आएं।

मुस्कुराकर ख़ूब  रोते जा रहे हैं!
देखिए हम सभ्य होते जा रहे हैं!

दामिनी की चीख, 
चीखें मारती है 
न्याय का ऐसा तमाशा बन रहा है।
फिर कोई तितली 
फँसाई जा रही है 
फिर हमारा तंत्र लाशा बन रहा है।

जागकर भी आज सोते जा रहे हैं!
देखिए हम सभ्य होते जा रहे हैं!

(७)

एक लुटेरा सपना लेकर 
लुटता सालों-साल आदमी!

गाँव छोड़कर नगर ओढ़कर
दस गज घर में घुटता है।
चौराहों पर भूख दबाए 
कुछ नोटों में बिकता है।

आश्वासन की घुट्टी पीकर 
कुछ पल को ख़ुशहाल आदमी!

अँखुआई इच्छाओं के जड़
एक रहपटा, दर्द दबाए।
चेहरा कब्जे में मशीन के 
इनपुट पर रोए-मुस्काए।

कलपुर्जों की भन्नाहट में
ढूँढ रहा सुरताल आदमी!

कंपन सहकर धीरे-धीरे
सारे पुर्जे खोल रही है।
कील चुभाकर के पहियों में
जीवन-गाड़ी डोल रही है।

ऊबड़-खाबड़ रस्ता, फिर भी
बढ़ा रहा है चाल आदमी!

(८)

अब तलक तुमसे न बोला,
सोचता हूँ आज आकर बोल दूँ!

स्वप्न फिर से सुगबुगाकर 
आज जिंदा हो गए ।
भाव सारे तड़फड़ाकर
टीस गहरी बो गए ।

तन रहें हैं तार दिल के ,
सोचता हूँ आज थोड़ी झोल दूँ!

हो गया लंबा समय
मैसेज न आया स्क्रीन पर।
अब नहीं कोई रिएक्शन 
हो रहा है सीन पर  ।

गेट पर ताला लगा है ,
सोचता हूँ आज विंडो खोल दूँ!

प्रेम अपना मौन था 
बस मौन ही रहने दिया।
बाँध से बाँधा नहीं 
स्वच्छंद ही बहने दिया।

भाव की गहरी नदी में ,
सोचता हूँ शब्द सारे घोल दूँ!

(९)

गर्भ में इस सृष्टि के, छुप
एक स्त्री पल रही है!

क्या पता कब कौन आकर 
एक खंजर घोप दे?
काटकर उसकी जड़ों को
वृद्धि बिल्कुल रोक दे।

स्वयं कौ फौलाद कर के
एक स्त्री ढल रही है!

हर तरफ काले मुखौटे 
घूरते हैं , है विवश ।
बढ़ रही आगे निरंतर
मुट्टियों में स्वप्न कस।

मुस्कुराता ख़ूब एसिड
एक स्त्री जल रही है!

भूख उसकी या मनुज की
प्रश्न यह भी उठ रहा।
एक कमरा ,एक बिस्तर
एक सपना लुट रहा।

पेट खातिर इस तरह भी 
एक स्त्री छल रही है!

सात स्वर दे बज रही यूँ
इस प्रकृति की साज है।
शक्तियाँ  सारी  निहित 
ब्रह्मांड की आवाज है।

भार हम सब का उठाए
एक स्त्री चल रही है!

(१०)

साधो अपना झोरा ले लो
चलें गाँव की ओर!

करे शरारत ख़ुद औ लड़के को
कहती है 'नाटी'।
मेट्रो में अब खुल्लमखुल्ला 
होती चूमा-चाटी।

देख-देख मेरी आँखों की
सूखी जाती कोर!

किसको 'फ्लाइंग किस' किसको 'विश'
ये विचार उलझाए।
मछली हुई सशक्त कई
मछुआरे आज फँसाए।

सब का सब गड़बड़झाला है
कहाँ प्रेम की डोर!

देशी दारू कहाँ यहाँ तो
सब हैं वाइन वाले।
आधे नंगे घूम रहे हैं
वेलेंटाइन वाले।

चल अपनी कच्ची काढ़ेगें
रमकलिया सँग भोर!

(११)

सुनो सुकोमल! 
हँसो जोर से, अभी मस्तियाँ खुलकर कर लो ,
फिर तो तुमको,
वसुंधरा पर कदम-कदम पर जलना होगा!

भारी-भरकम अंग्रेज़ी के,
अनचाहे , अनब्याहे बस्ते।
कोलतार में छुपे मिलेंगे,
पत्थर दिल, खिसियाये रस्ते।

होशियार कहलाने 
ख़ातिर बचपन की गर्दन उमेठकर,

सुनो सुकोमल! 
पीर दबाकर खुद ही खुद को छलना होगा!

यौवन के खुरदुरे पृष्ठ पर,
मंथन , संयम , नियम छूटना।
इंटरनेटी  इश़्क-मुहब्बत, 
दिल का जुड़ना और टूटना।

नैतिकता की 
गोदी में क्या उलझा मस्तक टिका सकोगे ?

सुनो सुकोमल!
छोड़-छाड़ सब आगे तुम्हें निकलना होगा!

तेजाबी सब सुबहें होगीं, 
दुपहर और दहकती शामें।
गला फाड़ चिल्लाती रातें,
ब्रह्ममुहूर्त भी खंजर थामें।
किंतु खंजरों से बच 

तुमको चिंतन की मुँडेर पर आकर ,
सुनो सुकोमल!
गिर-गिरकर भी उठ-उठकर के चलना होगा!

(१२)

मीरा का पगलापन देखा
भीतर-भीतर नाचे!

मंदिर की ड्योढ़ी पर देखे
अगणित बँधें कलावे।
दौड़ रहे फिर भी सड़कों 
पर पिस्टल लिए छलावे।

सुनो बिहारी घूम रहे सब
ले अपने मन कांचे!

जूठे बेर खा गए भगवन
ज़रा नहीं सकुचाए।
भरत जले चौदह बर्षों तक
धूनी देह लगाए।

तुलसी की चौपाई लेकर 
अक्षर-अक्षर बांचे!

इस खोजी मनवा ने
कोरे नयन-ग्रंथ पढ़ डाले।
पगलाई बुद्धि पर 
फिर भी लगे पड़े हैं ताले ।

कबिरा तेरे अब लगते हैं
ढा़ई आखर सांचे!

(१३)

तुलसी    कोने   में  मुस्काई
जब से घर में 'फगुनी' आई!

धनिए की ख़ुशबू लपेटकर
सिलबट्टा अब महक उठा है।
'छुनुआ' टटिया से निहारकर
भौजी कह के चहक उठा है।

होली  के   रंगो में  डूबी
'फगुनी' आँगन में लहराई!

गौरेया   कूदी   डालों   पर 
पाकड़  के  पत्ते  हरषाने।
खीच ढुलकिया ली बब्बा ने
चले  गाँव  में  होरी   गाने।

'फगुनी' ने फिल्मी गानों की
अपनी कैसेट इधर चलाई!

साँझ ढले कुछ सोच रही, तब
मोबाइल   का  तन   झन्नाया।
'बैठ  लिए  हैं  हम दिल्ली से'
स्पीकर ने  ये वाक्य   सुनाया।

सरसो  जैसी  लहक उठी है
मुकुर देख 'फगुनी' फगुआई ।

(१४)

ओ महाशय! 
देख लेना, दो कदम पीछे हुए हो ,
क्या समय के साथ में तुम चल न पाए ?

ये समय है हाथियों के दाँत जैसा,
साथ देता इस समय है सिर्फ पैसा।
तार होते इस समय संबंध सारे,
जीतकर भी बाजियाँ सब लोग हारे।

ओ महाशय!
नेह से झरबेरियाँ सींचे हुए हो ,
क्या किसी कोमल हृदय को छल न पाए?

झूठ में सारे लपेटे मंजरों का ,
ये समय है पक्षपाती खंजरों का।
भीतरी फूटन , छुपे आतंकियों का ,
ये समय है मंच पर नौटंकियों का।

ओ महाशय!
बेवजह ही मुट्ठियाँ भींचे हुए हो ,
छातियों पर मूँग क्या तुम दल न पाए ?

ज्ञान की थूकी गई पिचकारियों का ,
सत्य पर चलती हजारों आरियों का।
चालबाजी , भ्रष्टता, मक्कारियों का ,
ये समय है मुँह-मिठाई यारियों का।

ओ महाशय!
भीड़ में अपने नयन मीचे हुए हो , 
क्या समय से तुम समय सँग ढल न पाए?

(१५)

जहाँ ज़रूरत
प्रश्न उठाओ?
वैमनस्य का विष मत घोलो
कदम मिलाओ ,
ऐसे 'नौ दो ग्यारह' होना ठीक नहीं है!

बढ़ते जाओ
गढ़ते जाओ
हमीं श्रेष्ठ ऐसा मत बोलो
आँखें खोलो ,
अहंकार को मन में बोना ठीक नहीं है!

कमी निकालो 
कीच उछालो
मगर आप ख़ुद को भी तोलो
मीठा बोलो , 
भाषाई स्तर को खोना ठीक नहीं है!

                             ~ विवेक आस्तिक
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परिचय-
विवेक आस्तिक

पिता का नाम – श्री राम आसरे शर्मा
माता का नाम - श्रीमती माया देवी
शिक्षा- डिप्लोमा इन मैकेनिकल इंजीनियरिंग, एमए हिंदी (नेट जेआरएफ हिंदी )।

संप्रति- सनबीम लाइटवेटिंग सोल्यूशन्स प्रा. लि. गुरुग्राम , हरियाणा में जूनियर इंजीनियर

पता – ग्राम- ताहरपुर , पोस्ट- चौहनापुर , जिला- शाहजहाँपुर ( उ.प्र. )

सम्पर्क - 9958017216

प्रकाशित पुस्तकें (साझा संग्रह) – विहग प्रीत के , अथ से इति वर्ण स्तंभ , उत्कर्ष काव्य-संग्रह , किसलय, काव्य -त्रिपथगा ।

साथ ही कुछ पत्र-पत्रिकाओं में रचनायें प्रकाशित ।

प्राप्त सम्मान/पुरस्कार – 
शीर्षक शिरोमणि सम्मान ,
दिव्यमान स्मृति सम्मान ,.श्री बालकृष्ण शर्मा ‘ बालेन्दु पुरस्कार 2016 ।
युवा उत्कर्ष साहित्यिक मंच द्वारा सर्वश्रेष्ठ पुरुष रचनाकार सम्मान 2017 ।
ट्रू मीडिया शिखर सम्मान , पर्पल पेन शब्दशिल्पी सम्मान , मेजर वीरेंद्र सिंह स्मृति सम्मान -2019

गुरुवार, 11 मार्च 2021

वागर्थ में आज कवि उदय सिंह अनुज के नवगीत प्रस्तुति वागर्थ सम्पादक मण्डल

~।।वागर्थ ।। ~

     में आज प्रस्तुत हैं उदय  सिंह'अनुज'जी के नवगीत          _______________________________________________

     जितना अब तक हमने सोशल मीडिया के मंच या विभिन्न पत्र पत्रिकाओं के माध्यम से उदय सिंह अनुज जी के रचनाकार को जाना उदय सिंह अनुज जी की पहचान एक समर्थ दोहाकार के रूप में उभरकर आती है ।.उदय सिंह अनुज जी लोकभाषा निमाड़ी के भी समर्थ रचनाकार हैं व फेसबुक  पर साथी रचनाकारों की वॉल पर  सार्थक सटीक और उत्साहित करने वाली  प्रतिक्रियाएँ देते हैं।
   इसी मीडिया पर उपस्थित रहकर इनका नवगीतकार मन तमाम नवगीतकारों को पढ़ता रहा और स्वयं भी सृजित करता रहा, आश्चर्य है कि अत्यल्प अवधि में उदय सिंह अनुज जी ने अनेक प्रासंगिक नवगीत रचे तो जरूर पर यह बात और है कि संकोची स्वभाव के चलते उन्हें अब तक किसी मंच यहाँ तक कि अधिकतर अपनी वॉल पर भी प्रस्तुत नहीं किया।नवगीतों पर एक पाठक के तौर पर गौर करें तो एक तथ्य जो मेरे जेहन में उभर कर आता है वह यह कि वागर्थ में जोड़े गए सारे नवगीत निश्चित रूप से श्लाघनीय हैं।
       लोक मन के संवेदी रचनाकार के व्यक्तित्व पर  संक्षिप्त में प्रकाश डालें तो एक औपचारिक वार्ता में पाया कि वे आयु  में वरिष्ठ होकर भी अतिशय विनम्र तो हैं ही, कुछ संकोची भी। मगर इनकी क़ल़म कतई संकोची नहीं है और हर उस आवश्यक विषय पर चली है जो समाज में व्याप्त व्यापक विसंगतियों पर प्रश्न उठाती है और विचार करने पर विवश भी करती है। 
         इनके नवगीतों में जीवन विषयक प्रत्येक पहलू पर गंभीर चिंतन दृष्टिगत  होता है । वह चाहे  घर के बँटवारे से उपजे असहज करते दृष्य ,विदेश में बेटे के वाशिंदा होने पर दादा पोते के मध्य का विछोह ,माँ की सघन स्मृतियों के साथ बचपन में लौट -लौट जाना , लोकतंत्र में ज़िदगी की जद्दोजहद में घिसटता -हाँफता गण ,स्त्री की वस्तुस्थिति की वास्तविक पड़ताल , बदलते सामाजिक परिदृश्य में स्वयं को न ढाल पाने व उपेक्षित किये जाने की टीस , हर विषय पर सशक्त क़ल़म ने अपना पक्ष मजबूती के साथ रखा है ।
    कवि मन ने सिर्फ सामाजिक पिरामिड के स्याह पहलुओं को ही नहीं स्पर्श किया अपितु प्रेम जैसी कोमल अनुभूति को जिया व उसकी मसृण स्मृतियों को नवगीत माला में यह मोहक पहलू पिरोया भी ।
     मानव मन का लोभ अभिभावकों की मृत्यु पर भी कितना घिनौना दृष्य उपस्थित करता है , भले ही वह कितना संपन्न हो किन्तु बँटवारे के समय उसकी मानसिक दरिद्रता अति संपन्न होकर मनुष्यता को शर्मसार करती है ।ऐसा नहीं है कि कवि ने अपनी बात हवा में कह भर दी है, ऐसे दृष्य बहुत आम हैं , यह छींट आधी आबादी पर बेवजह नहीं आई है , इसी अर्ध आबादी के प्रतिनिधि के तौर पर हमारा हमसे ही अनुरोध है यदि हम आर्थिक तौर पर अपेक्षाकृत कुछ संपन्न हैं तो द्रव्य और अर्थ का यह  मोह , पारिवारिक रिश्तों को प्रगाढ़ बने रहने हेतु त्यागा जा सकता है ।

जोड़ लगाया उँगली पर फिर
बहुओं ने सबको टोका
सासू के मरने पर सोना
जो है वह किसका होगा

प्रश्न बड़ा था भाई उलझे
फेंके गए इशारे में ।

आज कितने ही पिताओं के पुत्र विदेश जाकर बस गये और वापस आने की उम्मीदें भी क्षीण , बेबस पिता की वेदना सूरदास की पंक्तियों पर विरोधाभास प्रकट करती है । ऐसा ही एक दृष्य इस गीत में उपस्थित होता है ।

झूठी साबित बात हुई यह 
सूरदास जो गाये
अब जहाज का पंछी उड़कर 
कभी न वापस आये

ऐसा लगता काम न आई 
दान -धरम पुण्याई ।

जैसा कि वरिष्ठ नवगीतकार Virendra Aastik जी कहते  हैं " दरअसल गीत -नवगीत की रचना प्रक्रिया वह "रेसिपी " है जिसके द्वारा आदमी की सोयी हुई चेतना को जगाया जा सकता है । रचना में कुछ मार्मिक या सूक्ष्म कह लेना अंततःभाषा की ही श्रेष्ठता होती है । संवेदनहीन समाज को संवेदित कर पाना कोई साधारण बात नहीं है "। उपरोक्त के आधार पर बात की जाये तो उदय सिंह जी के नवगीतों ने बतौर पाठक हमारी संवेदना को झंकृत किया और प्रभावित भी ।
       उदय सिंह जी की दोहे की पुस्तक की भूमिका में  प्रख्यात समालोचक विजय बहादुर सिंह जी उनके दोहा संग्रह 'यह मुकाम कुछ और 'की भूमिका में यकीनन सच कहते हैं कि " उदय सिंह अनुज जी ने काव्य चिंता को जिस व्यथा व्याकुलता से परोसा है उसकी ईमानदारी का इम्तिहान उस लोक यथार्थ में ही सँभव है जो हमारा अपना ही चेहरा इस मार्फत हमारी हथेली पर रख देने के जज्बे से भरा हुआ है "
       वसन्त निरगुणे जी के इस कथन से हम भी पूरा इत्तिफ़ाक़ रखते हैं कि " मात्राओं की गिनती करके कविता तो कोई भी बना सकता है पर प्रश्न यह है कि उसमें कविता कितनी है , कविता की गहराई कितनी है , उदय सिंह अनुज जी की कविता मन की कविता है "    
      सहज सरल बोधगम्य भाषा में रचे गये यह नवगीत वागर्थ के सुधी सदस्यों व पाठकों को भी अवश्य रुचेंगे ,ऐसा विश्वास है हमें ।
वागर्थ  उदय सिंह अनुज जी के १५गीत रखकर गौरवान्वित है । वागर्थ की सुकामना है कि उदय सिंह अनुज जी को नवगीतकार के रूप में सम्यक पहचान मिले ।
       अपार सँभावनाओं से युक्त उदय सिंह जी को वागर्थ आत्मीय बधाई व शुभकामनाएँ प्रेषित करता है।

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(१)

आँगन के बँटवारे में-
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अब तो मन भी बँट जाते हैं,
आँगन के बँटवारे में। 

बड़े पुत्र सँग पिता रहेंगे, 
मझले के सँग माताजी। 
और फजीहत आई उनकी, 
जो हैं छोटे भ्राताजी। 
कोई न जोड़े तार नेह के, 
इस टूटे इकतारे में। 

सींचे थे जो आम पिता ने, 
सबकी हिस्सेदारी है।
बीमारी में पैसा खरचे
आपस में इन्कारी है। 
कोई भी अब नहीं सोचता 
है बहनों के बारे में। 

जोड़ लगाया उँगली पर फिर, 
बहुओं ने सबको टोका। 
सासू के मरने पर सोना, 
जो है वह किसका होगा। 
प्रश्न बड़ा था भाई उलझे 
फेंके गये इशारे में। 

शकुनी के पासों - सा घर में, 
अब छल ने डेरा डाला। 
और स्वार्थ के लाक्षागृह में
कौन बनेगा रखवाला। 
ईर्ष्या की गांधारी खींचे, 
इंद्रप्रस्थ मझधारे में। 
      
(२)

दशरथ काका ढूँढ रहे हैं,
पोते की परछाई।

पढ़ा - लिखा है बेटा डाॅक्टर,
जाब करे अमरीका।
उनकी दाल यहाँ है पतली,
सत्तू खाएँ फीका।
जीवन काटा रूखा - सूखा,
जोड़ी पाई-पाई।

पेड़ लगाया सींचा पाला,
फल खाती पटरानी।
गरम रोटियाँ बहू हाथ की,
फिरा सोच पर पानी।
अपने ही हाथों से खोदी,
इनने अपनी खाई।

झूठी साबित बात हुई यह, 
सूरदास जो गाये। 
अब जहाज का पंछी उड़कर, 
कभी न वापस आये। 
ऐसा लगता काम न आई, 
दान-धरम पुण्याई। 

गीले उसकी माई सोई, 
सूखे उसे सुलाया। 
नजर उतारी माथे उसके, 
काला चाँद लगाया। 
सोच-सोच आँखों ने सावन-
भादौ झड़ी लगाई। 
       
(३)
माँ सीखी नहीं ककहरा -
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रह - रह कर आँखों में तैरे,
माँ का प्यारा चेहरा।

चपल चकोरी सुघड़ सलोनी,
रहती थी चौकन्नी।
रखती थी संदूक, छुपाकर,
आना पाई  अठन्नी।
चाँदी के सिक्कों पर होता,
उसका चौकस पहरा।

दिन भर घर में चम्पा जैसी,
लचक - लचक कर महके।
थोड़ी भी मिल जाय खुशी तो,
चिड़िया जैसी चहके।
उसके सँग जब सूरज जागे,
होता और सुनहरा। 

भिनसारे जब दही बिलोती, 
भँवरी जैसी घूमें। 
रख मेरे हाथों पर माखन, 
मेरा माथा चूमें। 
खुशियाँ उसकी दुगनी होतीं,
 लख मेरा खुश चेहरा। 

छींक मुझे जो आ जाए तो, 
वह चिंतित हो जाती। 
अदरक वाली चाय पिलाती, 
माथे बाम लगाती। 
ताप ज़रा सा चढ़ जाता तो, 
दुख हो जाता गहरा। 

खेती-बाड़ी पर वह रखती, 
बहुत कड़ी निगरानी। 
हाथ बँटाती काम पिता के, 
दे फसलों को पानी। 
कभी न देखी शाला उसने, 
सीखी नहीं ककहरा। 
       
(४)

उल्लू सीधा करते रहबर -
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आप यहाँ से चले गये हो,
बापू! खाकर गोली।

कितनी गोली खाकर जीता,
अपना जन-गण प्यारा।
रक्त सने कपड़ों में लँगड़ा,
फिरता मारा - मारा।
बेटों ने ही माँ के जीवन, 
में यह विपदा घोली।

भारतवासी आज हो गये,
हरियाणी पंजाबी।
सभी चाहते उनके कब्जे,
हो दिल्ली की चाबी।
यही ठानकर खेल रहे हैं,
सब नफ़रत की होली।

भाषाओं में प्रांत बँटे हैं,
जात-पात में वासी। 
उल्लू सीधा करते रहबर,
पूज मदीना-कासी।
पढ़ कुरान रामायण सबने,
अपनी पोथी खोली।

सोच रहा हूँ कैसा होगा,
नयी सदी का मुखड़ा।
लिख देगा उपचार चिकित्सक,
या परची पर दुखड़ा।
रोज़ - रोज़ ही बदरँग होती,
आँगन की राँगोली।
 
(५)

आजादी है बाँदी -
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बीमारी औ भूख भाग में,
रहे बँधाते गंडे।

रहा काँपता सर्द हवा में, 
ढिबरी का उजियारा।
लोकतंत्र की झोपड़पट्टी,
रही लगाती नारा।
चूल्हे में धुँधुआया जीवन,
जैसे गोबर-कंडे।

खलिहानों की रात पूस में,
गुज़रे ठिठुरी-ठिठुरी।
और सींचता खेती हलकू,
बना मेड़ पर गठरी।
जिनको समझे हम उद्धारक, 
निकले बनिये-पंडे।

रहा भागता सभा - जुलुस में,
बन उनका पिछलग्गू।
सुना मगन हो भाषण उनका,
बैठा बनकर घुग्घू।
हेलीकॉप्टर चिकने चेहरे,
रहे लुभाते झंडे।

बोल चाशनी डूबे उनके,
जोड़ें रिश्ते-नाते।
उल्लू सीधा होते ही वे,
अपनी पर आ जाते।
माँगा कुछ अधिकार जिन्होंने,
मिले भेंट में डंडे।

आज़ादी है बाँदी उनकी, 
हँसती सजी दुकानें।
रँग कब पाईं अधर हमारे,
थोड़ी भी मुस्कानें।
यहाँ चवन्नी अपने बटुवे, 
वहाँ उफनते हंडे।

(६)

फेरी खूब सुमरनी -
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हार गई तुलसी के फेरे 
लेकर रामदुलारी। 

भाग नहीं खुल पाये उसके, 
फेरी खूब सुमरनी। 
कहती है वह आड़े आई, 
गये जनम की करनी। 
हे मैया! यह ईश्वर है या, 
गुणा-भाग  व्यापारी। 

सारे तीरथ धाम घूम ली, 
रहा नतीजा अंडा। 
अधिक सुखी है रामेश्वर का, 
दुष्ट लुटेरा पंडा। 
पिछला जीवन मिला धूल में, 
यह जीवन भी हारी। 
         
कितने व्रत उपवास किये औ,
कितने ही उद्यापन।
रही  सदा ही देवों से उस, 
दुखियारी की अनबन। 
नाव फँसी संकट में उसकी, 
नहीं किसी ने तारी। 
        
(७)

खूँटी पर ही रहे टँगे हम -
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खूँटी पर ही रहे टँगे हम,
किसी पुराने कुरते से।

कौन परखता हमें भला इस 
सूट-बूट की दुनिया में।
 कब हो पाए फिट हम उनके,                                       नाप-तौल की गुनिया में।
रहे कबाड़ी की दुकान के, 
जंग लगे इक पुरजे से।

कौन हटाता धूल जमी औ, 
कौन हमें फिर चमकाता? 
दिल्ली वाला राजमार्ग ये, 
कौन यहाँ पर दिखलाता ? 
सारा जीवन भुने धूप में 
हम बैंगन के भुरते से। 
      
राजाजी की अपनी दुनिया,
रंग-बिरंगा है घेरा।
कौन चमारों के टोले में, 
चौकस होकर दे फेरा। 
 दिन ये बिगड़े नहीं हमें अब, 
लगते कभी सुधरते से। 
 
(८)

छुअन तुम्हारी भूलूँ कैसे -
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छुवन तुम्हारी कैसे भूलूँ, 
पंख छुए ज्यों तितली के।

रंग अभी तक लगा हुआ है,
उँगली पर उन पंखों का।
नाद हवा में गूँज रहा है,
दो हृदयों के शंखों का।
अब तक मधुऋतु करती फेरे
इन आँखों की पुतली के।

उलझ गया मन जाने कैसे,
पुरवा की अँगड़ाई में।
दिन वासंती बीते सारे,
नयनन की कुड़माई में। 
मन-अभिलेखागारों अंकित,
हैं पल फागुन - चुगली के।

ताल-तलैया-नदियाँ-झरने, 
वन-प्रांतर, उत्तुंग शिखर। 
मंगल डोरे वसन्त बाँधे, 
बिना बुलाये जा घर-घर। 
फेर रहा है सूरज जिसको, 
जादू हैं उस तकली के। 
      

(९)

मेरे हक में यह कोरट कब
बोलेगी ओ बाबूजी?

खेत बिके दो दौड़ कचहरी,
नहीं फैसला आया है।
मुनसिफ और वकीलों ने मिल
चूना खूब लगाया है।
तुला न्याय की  पट्टी बाँधे, 
तोलेगी ओ बाबूजी?

चार साल से रामदुलारी,
मैके में ही बैठ गई।
एल. ओ. सी. पर चाइना-सी
वह भी मुझसे ऐंठ गई।
क्या फिर दिल वह पहले जैसा,
खोलेगी ओ बाबूजी?

एक लाड़ला बेटा है पर,
उसने भी मुँह फेरा है।
लगता जैसे बिन बिजली के, 
घर में बहुत अँधेरा है।
बहू जानकी प्रेम दुबारा, 
घोलेगी ओ बाबूजी?

समय बुरा तो समीकरण सब,
मिलकर हमको ठगते हैं।
कर्णभुजा-समकोण-त्रिभुज सब,
उलझे - उलझे लगते हैं।
अपने घर की यह  प्रमेय क्या
हल हो लेगी बाबूजी?

(१०)

कक्का किक्की सीख सके बस, 
टूटी - फूटी शाला में।

बैल हुए बैलों के पीछे, 
गेहूँ-चना कटाई में।
और रहे खुश सारा जीवन, 
अपनी एक लुगाई में।
कभी नहीं यह मन जुड़ पाया, 
वेलेंटाइन बाला में।

नहीं बाँधना आई टाई, 
नहीं बोलना अँगरेजी।
सीधे - साधे रहे गावदी, 
सीख न पाए रँगरेजी।
भूल गये हम अपने सब गम, 
कच्ची महुआ - हाला में। 
        
कभी न संसद तक जा पाए,
बैलों वाली गाड़ी में।
कैसे भरते कार किराया, 
अपनी पेट जुगाड़ी में। 
बीड़ी पीते कल की सोचें, 
अपनी टप्परमाला में।

(११)
      
झूम रही तुम मेरे भीतर,
जैसे गेहूँ की बाली।

सरसों खिलती  है खेतों में, 
पर तुम मेरे अंतर में।
बहती फागुन आहट जैसी,
मन के जंतर-मंतर में।
खड़ा मेड़ पर मन का बच्चा, 
कूद-कूद देता ताली। 

चितवन के वासंती कोने, 
लुकते - छिपते ताक रहे। 
बहुत दूर है फिर भी देखो, 
भीतर तक हैं झाँक रहे। 
सावधान हैं चोर सरीखे, 
देख न ले कोई माली। 

उतरा कोरे काग़ज़ पर यह , 
नये गीत का चाव यहाँ।
ज्यों गुलाब से निथर इत्र-सा, 
महके मन का भाव यहाँ। 
जैसे परती धरती जोते, 
नया - नया कोई हाली। 

(१२)

दगड़ू को दी जिम्मेवारी,
केवल दरी उठाने की।

उसके हाथों रही यहाँ पर,
तख़्ती नारों वाली।
झंडे-पोस्टर उसके जिम्मे, 
थाली हारों वाली। 
कब लग पाई उसके हाथों,
चाबी यहाँ खजाने की। 

काम चलाऊ पुरजा दगड़ू, 
चलते पुरजे हाथों का। 
और सहायक मुखियाजी की, 
रंग-बिरंगी रातों का। 
गुदड़ी के लालों के हिस्से, 
टूटी खाट बिछाने की। 

घास खेत में काटे दगड़ू 
पर मुखिया चाँदी काटे। 
सत्ता की सेठानी खा-खा, 
भरे यहाँ पर खर्राटे। 
उसकी किस्मत सूखे टिक्कड़, 
काँदा-चटनी पाने की। 
      
(१३)

सूरज तो उगता है लेकिन,
घर में नहीं उजाले हैं।

उन लोगों के नहीं फिरे दिन,
रहे लगाते जो नारे।
चूल्हा बुझा-बुझा है गुमसुम,
जले पेट में अंगारे।
जलते हुए सवालों पर क्यों,
लगे मुँहों पर ताले हैं।

पाँव दबाती है अब कुरसी,
गुंडों के धनवालों के।
अब कब कोई कारण जाने 
छीने गये निवालों के। 
दिखते हैं जो उजले चेहरे, 
वे असली में काले हैं। 

उनका डाॅगी डनलप पर है, 
 रामू की खटिया टूटी। 
उनको मिली जमानत जिनने, 
चौराहे अस्मत  लूटी। 
अपच उन्हें रहती हलकू के, 
सुबह-शाम के लाले हैं। 

खाकी उनको आदर देती
जो हैं दर्ज फरारी में। 
रोज शाम को खुलती बोतल, 
दिन भर की रँगदारी में। 
बँधा महीना जिनका यारो, 
बने हुए रखवाले हैं। 
         

(१४)
राजमार्ग से मत आना -
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मुझ तक अगर पहुँचना चाहो,
राजमार्ग से मत आना।

यह पगडंडी खेतों की जो,
मेरे मन तक जाती है।
अरहर-मक्का-सँग कपास के
हँस-हँस कर बतियाती है।
उस पर अपने पग रखकर तुम,
निर्मल मन से मुस्काना।

ज्वार-बाजरा-मूँग-उड़द भी, 
खेतों में लहराते हैं। 
गेहूँ - सरसों इक दूजे को,
जमकर धौल जमाते हैं।
हाँक मारकर चना बुलाये,
कहे भूनकर खा जाना।

सेमल भी टेसू के ऊपर, 
खेतों रौब जमाता है। 
होड़ सँवरने की लगती जब, 
फागुन पास बुलाता है। 
इक हुरियारा अपने भीतर, 
पकड़ शहर से तुम लाना। 

खेत मेड़ पर पेड़ों के यह
बया घोंसला बुनती है। 
इंजीनीयर बिना डिग्री की, 
जंगल तिनके चुनती है। 
मुलाकात उससे करना हो, 
ज्ञान उसे मत दिखलाना। 

महुआ मूँछें ऐंठ-ऐंठ कर, 
अपना रंग जमाता है। 
वाइन-व्हिस्की-बीयर सबको, 
ठेंगा यहाँ दिखाता है। 
उससे करना हो याराना, 
ठसक वहीं पर रख आना। 
        
(१५)

सीमित पहचान रही -
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चूल्हा - चौका कपड़े - झाड़ू,
तक सीमित पहचान रही।

कहने को तो पहिया थीं तुम,
अपने घर की गाड़ी का।
लेकिन दर्जा रहा हमेशा,
टूटी साइकिल ताड़ी का।
दारू पीकर जो लतियाये, 
उसमें तेरी जान रही।

पड़ी जरूरत तुम्हें सजाया,
अगरु धूप-सा पूजन में।
शेष रहे दिन बीते तेरे, 
धक्के खाते क्रंदन में। 
फिर भी बिन्दी लाल भाल पर, 
सदा तुम्हारी आन रही। 

पूत जने तो गिनती तेरी, 
घर के चाँदी-सोने में। 
बेटी जायी रही सिसकती, 
अपने घर इक कोने में। 
तोल-तराजू दहेज लोभी, 
सस्ती तेरी जान रही। 

खेतों में तुम खटी-खपी या, 
ईंटें ढोयीं शहरों में। 
राजमहल मे भी रहकर तुम, 
कैद रही हो पहरों में। 
सती बनी जब जली मरी हो, 
तब तुम उनकी शान रही। 

      
       ~ उदय सिंह अनुज

परिचय ~
कुँअर उदयसिंह अनुज
जन्म तिथि - १५ जुलाई १९५०
शिक्षा - हिन्दी साहित्य में एम. ए., विक्रम विश्वविद्यालय उज्जैन (मप्र) 

जन्म स्थान /स्थाई पता--
ठिकाना पोस्ट - धरगाँव (मंड़लेश्वर) 
जिला - खरगोन (मध्यप्रदेश) 
पिन. 451-221 

प्रकाशित पुस्तकें-
1- लुच्चो छे यो जमानों दाजी! 
निमाड़ी लोकभाषा ग़ज़ल संग्रह - 2007 में प्रकाशित 
2- अभिजित का सपना - बाल साहित्य हिन्दी कविताएँ - 2011 में प्रकाशित 
3- यह मुक़ाम कुछ और - - दोहा संग्रह (600 दोहे) - 2 017 मे प्रकाशित 

पत्रिकाओं में प्रकाशन-- हंस, समकालीन भारतीय साहित्य, पाखी, हरिगंधा, अभिनव प्रयास, समावर्तन, अक्षर पर्व, हिन्दी विवेक, सरस्वती सुमन, अनन्तिम, शेषामृत, शब्द प्रवाह, अर्बाबे क़लम, शिखर वार्ता, मेकलसुता, यशधारा पत्रिकाओं में दोहे व गीत प्रकाशित। 
समाचार पत्र--नईदुनिया, नवभारत टाइम्स, दैनिक ट्रिब्यून, में रचनाएँ प्रकाशित। 
सम्मान-- सौमित्र सम्मान इंदौर 2004,
वयम सम्मान खरगोन 2007,
कस्तूरीदेवी लोकभाषा सम्मान भोपाल - 2012
गणगौर सम्मान खंडवा - 2012
लोक सृजन सम्मान मंड़लेश्वर - 2014
लोक साहित्य सम्मान खरगोन - 2015 
सम्प्रति - सहकारी कृषि और ग्रामीण विकास बैंक मर्यादित खरगोन से 2008 में वरिष्ठ शाखा प्रबंधक पद से सेवा निवृत्त 
मोबाइल - 96694-07634 
  Email - uday.anuj2012@gmail.com