~ ।। वागर्थ ।। ~
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हिन्दी संस्थान लखनऊ द्वारा ' साहित्य भूषण ' से सम्मानित देवेन्द्र शर्मा ' इन्द्र 'जी का आज जन्म दिवस है , आगरा जनपद में जन्मे देवेन्द्र शर्मा ' इन्द्र ' जी को एकांत पीठ के महंत ,नवगीत के शिखर पुरुष ,नवगीत के प्रारंभिक पुरोधा आदि उपमाएँ समकालीन साथी नवगीतकारों द्वारा दी गईं । अदम्य जिजीविषा , स्वाभिमानी , उदार व प्रेरक व्यक्तित्व के धनी देवेन्द्र शर्मा ' इन्द्र ' जी यदि आज होते तो हम सभी उनका जन्म दिन उनकी उपस्थिति में मनाते किन्तु देवेंद्र शर्मा इन्द्र जी हमारे मध्य सशरीर नहीं हैं पर उनका कृतित्व उनका रचना संसार हमारे पास है अंग्रेजी कलेंडर के अनुसार आज दादा इन्द्र जी का जन्म दिवस है , समकालीन नवगीतकार तो सभी इस सहृदय आभामण्डल से परिचित हैं ही , आइए आज थोड़ा और नजदीक से पढ़ते हैं ताउम्र स्नेह के इस विशाल वट को मनोज जैन जी के एक आलेख जिसे यहाँ 'इदं इंद्राय' से साभार लिया है
साथ ही अन्य साथी नवगीतकारों के लेख भी वागर्थ में साभार प्रस्तुत हैं ।
प्रस्तुति
अनामिका सिंह
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एकांत पीठ के महंत -पण्डित देवेन्द्र शर्मा 'इन्द्र'
"हाँ मैं खुद संशय का समाधान हूँ /
उच्छल जल प्लावन में महायान हूँ /
बोधिवृक्ष पर लटका चीवर हूँ मैं/
पूजा का अंतिम इंदीवर हूँ मैं/
हिमगिरि के शिखरों पर यक्षगान हूँ/
गंगा की लहरों पर दीपदान हूँ/"
आखिर कौन है यह पूजा का अंतिम इंदीवर जो बड़ी बेबाकी से कहता है कि वह हर शंका का समाधान है, बोधिवृक्ष पर लटके इस चीवर पर जो समय के साथ -साथ विस्मृति के अतल गर्भ में सहेजी हुई धरोहर को आगंतुक पीढ़ी को सौंपने की मंगलकामना से सीढ़ी-दर- सीढ़ी उतरता चला जा रहा है , जो सुधा कलश ठुकराकर स्वाति नक्षत्र की बूँदों से ही तृप्त हो जाना चाहता है , और छतनार बनकर हम सब पर अपनी छत्रछाया दिल खोलकर लुटा देना चाहता है, जी हाँ वह कोई और नहीं वह हैं अपने एकांत पीठ में बैठे महंत ! हम सबके चहेते देवेन्द्र शर्मा 'इन्द्र'।सार संक्षेप में यदि इन्द्र जी के गीतों को परिभाषित किया जाए तो इन्द्र जी के गीतों में बिंब कुलाँचे भरते हैं , प्रतीक बोलते हैं , कथ्य संवाद करते हैं । शिल्प व छंद का सुसंयोग पाकर भाषा नर्तन कर उठती है और भावक मन कवि के रचाव से अंतरंग तादात्म्य स्थापित कर अपने को धन्य समझता है। संभवतः 'इन्द्र' जी के गीतों को मैंने पहली बार ख्यात साप्ताहिक 'प्रेसमैन' के माध्यम से पढ़ा था। 'प्रेसमैन' आज Lyrical poetry लिखने वालों के लिए नया नाम नहीं हैं । वर्षों से बिछड़े साथी रचनाकारों से मिलने का श्रेय भी प्रेसमैन को जाता है । कारण यह है कि इसमें रचनाकारों का पता मोबाइल नंबर सहित प्रकाशित होता था ।
देखते ही देखते इस समाचार पत्र ने ,जो मूलतः शैक्षणिक पृष्ठभूमि से था , साहित्य जगत में इतिहास रच दिया जिसका श्रेय इसके संपादक व देश के ख्यात् गीतकार मयंक श्रीवास्तव जी को जाता है। भोपाल से मयंक श्रीवास्तव जी ऐसे गीतकार थे जिनका संबंध तमाम गीतधर्मी बंधुओं से हुआ करता था ।
कालांतर में 'इन्द्र' जी से मेरा संबंध आत्मीयता में बदल गया । उनसे दूरभाष के जरिए घंटों बातें होने लगीं, शीघ्र ही वे मेरे मार्गदर्शक बन गए और मैं भी उनका उतना ही आत्मीय और चहेता भी । हम लोगों का फोन पर अक्सर घण्टों संवाद होता देवेन्द्र जी बात भोपाल के सभी मित्रों की खैरियत से आरंभ करते और आशीर्वाद पर समापन। यों तो इन्द्र जी का व्यक्तित्व और कृतित्व तमाम ख़ूबियों से भरा पड़ा हैं पर मुझे उनका सर्वाधिक आकर्षित करने वाला पक्ष उनके स्वयं के स्वाभिमानी होना वाले ने ज्यादा प्रभावित किया। वे न तो शब्द से समझौता करते हैं और न ही विपरीत परिस्थितियों से।द्रष्टव्य हैं उन्हीं की कुछ पँक्तियों के अंश
"तोड़ दी हमने सभी बैसाखियाँ /अवसरों की पीठ पर हम कब चढ़े /
राजकीय सम्मान पाने के लिए / शाह के आगे कसीदे कब पढ़े । "
यही कहन भंगिमा देवेन्द्र शर्मा 'इन्द्र'जी को अन्य रचनाकारों से अलग करती है । उनकी कथन भंगिमा अनूठी और अद्भुत होने के साथ साथ स्पृहणीय भी है । अब तक मैंने 'इन्द्र' जी की लिखीं भूमिकाएँ , फ्लैप व समीक्षाएँ पढ़ी हैं । इस संबंध में मैं उनकी तुलना मानसर राजहंस से करता हूँ। वे अपने नीर -क्षीर काव्य विवेक से बड़ी आसानी से दूध का दूध और पानी का पानी कर देते हैं ।कोई भी प्रलोभन उन्हें आज तक डिगा नहीं पाया और न वे दूसरों की तरह सच बोलने में संबंधों में खटास की परवाह करते हैं । उनकी लिखी भूमिकाओं में रचनाकर्म का विश्लेषण किसी सुयोग्य ' सर्जन ' की तरह मिलता है जो सड़े-गले अंगों को निर्ममता से काटने में ज़रा सा भी संकोच नहीं करता ।
देवेन्द्र शर्मा इन्द्र जी मूलतः नवगीत के ही पक्षधर हैं । गीत, नवगीत के संबंध में उनका एक वाक्य का निकष बड़ी आसानी से गीत नवगीतकारों में विभाजन रेखा खींच देता है । वे कहते हैं कि " प्रत्येक नवगीत प्रथमत : गीत है , किंतु प्रत्येक गीत नवगीत नहीं होता । इस कथन को उनका ब्रह्मवाक्य भी कहा जाता है ।
यहाँ प्रसंगवश भोपाल में गतवर्ष संपन्न हुए स्मरण नईम नवगीत पर्व २०१३ को उद्धृत करना समीचीन ही होगा , जब श्री देवेन्द्र शर्मा को इसका आत्मीय आमंत्रण दिया गया , परिस्थितिवश वह कार्यक्रम में उपस्थित नहीं हुए परंतु उनका आशीर्वाद हमारे साथ रहा ।
आज देश के तमाम रचनाकार अपना रचनात्मक योगदान नवगीत को दे रहे हैं लेकिन नवगीत दशक १,२,३ व अर्द्धशती जैसा स्तर सिरे से गायब दिखाई देता है । अधिसंख्य परोसा हुआ पिष्टपेषण ही है ।
मैं आज तक बहुत कम रचनाकारों से प्रभावित हुआ हूँ , उनमें श्री देवेन्द्र शर्मा ' इन्द्र ' , योगेन्द्र दत्त शर्मा , महेश ' अनघ ' विद्यानंदन राजीव जैसे गिने-चुने नाम ही आते हैं । कहना न होगा कि ' इन्द्र ' जी मेरे मंगलाचारण हैं। मैं उनकी छत्रछाया हर समय महसूस करता हूँ । मैं उनके संपादन में आए ' हरियल धान रुपहले चावल ' से जोकि अब तक आए संकलनों में श्रेष्ठ है , उनके ही गीत की पंक्तियाँ प्रस्तुत कर रहा हू्ँ । वे गीत की पक्षधरता में बिना कुछ कहे सब कुछ कह देते हैं -
मुखबिरी करते नहीं /ये गीत करते हैं इशारे
ये समय के साथ चलते हैं /ग्लेशियर बनकर पिघलते हैं
वज्र जैसे संघनित पल -पल /रूप बूँदों सा बदलते हैं
ये धुएँ के मेघ कोई /यक्ष क्यों इनको पुकारे ।
इन्द्र जी के गीतों में ऐसा कौन सा पक्ष है जो नहीं है ,जरूरत है ळ उनमें गहरे पैठने की । मैं सौभाग्यशाली हूँ कि ' इन्द्र ' जी मेरे आदर्श हैं ,इसलिए भी कि उनका चरित्र कवि सम्मेलनीय नहीं है । सच कहूँ तो मुझे अब तक न कवि सम्मेलनी गीतों ने प्रभावित किया और न ही गीतकारों ने । ' इन्द्र ' जी मंचीय कवियों को धता बताते हुए जो लिखते हैं वह मेरे लिए अनुकरणीय है । अनुशीलन करने लायक ये पंक्तियाँ -
"भीड़ से इनकी रही अनबन / भा गया ऐसा अकेलापन
साधना ही इष्ट है इनका /एक से हैं इन्हें वन आँगन
चाहते जब तोड़ लाते ये गगन से चाँद -तारे । "
अर्थ का विस्तार देखिए , यहाँ वन आँगन का ध्वन्यात्मक अर्थ हमें बहुत दूर तक ले जाता है ,चिंतन के उन पलों में जहाँ केवल एक संन्यासी ही जा सकता है , वह भी साधनावस्था में ।सामान्य गृहस्थ तो कल्पना भी नहीं कर सकता । मुझे यहाँ वैसे संतों के स्वभाव की एक सूक्ति याद आ रही है ।
देखिए कितनी समान स्थिति है - "अर्घावतारन असि प्रहारण में सदा समता धरन।"
अर्घ्य चढ़ाने या असि से प्रहार करने में अंतर्मन से समान व्यवहार करना हर किसी के वश की बात नहीं परन्तु यह भाव देवेन्द्र शर्मा जी के यहाँ बिना संन्यास धारण किये मिलता है ,वह भी संतों सरीखा । उम्र के इस पड़ाव में भी देवेन्द्र जी किसी से बिना किसी अपेक्षा के सब कुछ ,जो उनके पास है ,लुटा देना चाहते हैं। इसी मंगलकामना को सम्प्रेषित करती उनकी पंक्तियाँ कितनी सार्थक और सारगर्भित हैं, देखिए
"अस्तमित होते समय के सूर्य हैं हम /
जिसे जितनी चाहिए वह रोशनी ले ले /
स्वप्न श्यामल वीथियों के /ज्योति प्रतिकल्पी /
पाटलित प्रत्यूष क्षण के / गंध संकल्पी/
थे कभी नायक हमीं /आलोक पर्वों के /
हारकर हर आँख कैसा /खेल हम खेलें ?
कहा जा सकता है देवेन्द्र शर्मा ' इन्द्र ' जी के नवगीतों की एक -एक पंक्ति मीमांसा की माँग करती है । पंक्तियों के अर्थ खोलिए और गहरे उतरते चले जाइए अर्थ की गहराइयों में । इतना तो तय है अतल में उतरकर आप मोती लिए बिना वापस न आ सकेंगे ।
जिन परिस्थितियों में ' इन्द्र ' जी ने विपुल साहित्य की सर्जना की वह प्रणम्य है ।'इन्द्र' जी ने काँधों पर जीवन भर विंध्याचल लादे रहने के बावजूद गिरधर कहलवाने का मुगालता नहीं पाला ।
एक बार पुनः मैं सद्य प्रकाशित संवेत संकलन ' हरियर धान रुपहले चावल ' के बीज वक्तव्य की एक पंक्ति को उद्धृत करना चाहूँगा , जो ' इन्द्र ' जी ने संकलन के अन्य गीतकारों के लिए कही वह किसी और के गीतों पर खरी उतरे या न उतरे , ' इन्द्र ' जी के गीतों पर जरूर खरी उतरती है - " बिम्बों में झलाझल , महमहाती और रंगीन रोशनी में डहडहाती । " इन्द्र जी के गीतों की टहनियों को आप कहीं से भी हिलाएँ , झुकाएँ , झकझोर दें , आपको लगेगा कि ' इन्द्र ' जी के गीत नवगीत का सुरम्य निसर्ग क्या होता है ।
मैं उनकी साधना को नमन करता हूँ । वे शतायु हों ।
- मनोज जैन
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वागर्थ देवेन्द्र शर्मा 'इन्द्र ' जी के जन्म दिवस पर उनकी पावन स्मृतियों को सनेह स्मरण कर नमन करता है ।
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(१)
अब यहाँ कोई न आएगा
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राह में आँखें बिछाये
किसलिए बैठा
अब यहाँ कोई न आयेगा.
धूप का रथ
दूर आगे बढ़ गया
सिर्फ पहियों की
लकीरें रह गयी
थी इमारत एक
सागर तीर पर
नींव, छत, दीवार जिसकी
ढह गयी
पश्चिमी आकाश में
उड़ते पखेरु-सा
सूर्य थककर डूब जायेगा.
नील जल पर
एक टूटी नाव-सी
लाश लावारिस दिवस की
तिर रही
थम गया है
काफिला आवाज का
चुप्पियों पर
दीपबेला घिर रही
अश्रुकण सा रात भर अब
व्योम-पलकों में
शुक्रतारा झिलमिलायेगा
पारिजातों की
विलम्बित छाँव में
रोकती पलभर
सुरभि की किन्नरी
पर नियति में
सार्थवाहों के लिखी
रेत के पदचिह्न-सी
यायावरी
सब जहाँ अपनी सुनाते हों
विजय-गाथा
तू व्यथा किसको सुनायेगा
(२)
केवल छन्द प्रसंग नहीं हैं
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हम जीवन के महाकाव्य हैं
केवल छ्न्द प्रसंग नहीं हैं।
कंकड़-पत्थर की धरती है
अपने तो पाँवों के नीचे
हम कब कहते बन्धु! बिछाओ
स्वागत में मखमली गलीचे
रेती पर जो चित्र बनाती
ऐसी रंग-तरंग नहीं है।
तुमको रास नहीं आ पायी
क्यों अजातशत्रुता हमारी
छिप-छिपकर जो करते रहते
शीतयुद्ध की तुम तैयारी
हम भाड़े के सैनिक लेकर
लड़ते कोई जंग नहीं हैं।
कहते-कहते हमें मसीहा
तुम लटका देते सलीब पर
हँसें तुम्हारी कूटनीति पर
कुढ़ें या कि अपने नसीब पर
भीतर-भीतर से जो पोले
हम वे ढोल-मृदंग नहीं है।
तुम सामूहिक बहिष्कार की
मित्र! भले योजना बनाओ
जहाँ-जहाँ पर लिखा हुआ है
नाम हमारा, उसे मिटाओ
जिसकी डोर हाथ तुम्हारे
हम वह कटी पतंग नहीं है।
(३)
उसे कितना उठाओगे
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उसे कितना.उठाओगे अभी तुम
जो अपनी दृष्टि में ही गिर गया हो
युगों पहले यहाँ पर
जो किला था
वो कब का हो चुका है
एक खण्डहर
यहाँ खोजो न खुश्बू
मालती की
यहाँ दिन रात आते
हैं बवंडर
वो बादल जल न तुमको
दे सकेगा
स्वयं जो बिजलियों से घिर गया हो
ये नीला जो
समंदर हरहराता
यहाँ पर ज्वार ही उठते रहे हैं
यहाँ पर दीप हैं
जल दस्युओं के
यहाँ पर काफिले लुटते रहे हैं
ये आवश्यक नहीं तट पर लगेगा
वो बेड़ा जो भँवर से तिर गया हो
कभी एकान्त
जलनिधि के किनारे
यहाँ थी ऐतिहासिक राजधानी
जहाँ पर सत्यभामा
रुक्मिणी की
अभी तक गूँजती वैभव कहानी
ये सँभव है कि राधा का सुमन.रथ
मिले बिन द्वारिका से फिर गया हो ।
बढ़ाया चीर था
कौरव सभा में
कभी जिसने रुदन्ती द्रौपदी का
उठा हो छोड़ वह
मड़ जटित आसन
परसने छोर ब्रज की कौमुदी का
चुभा तब प्राण घातक शर वधिक का
कि जिससे चरण कनु का चिर गया हो
(४)
लौट कर शायद कभी अब मैं न आ पाऊँ इधर
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लौट कर शायद कभी अब मैं न आ पाऊँ इधर,
इसलिए इस गाँव के बाहर कहीं जाता नहीं ।
खुली अँजुरी में लिए
आलोक की वैश्वानरी
प्रस्तरित होकर थमी
मेरी सतत यायावरी
इस अनन्तिम रात का अन्तिम नखत हूँ, देख लो
उग रहे प्रत्यूष के स्तुति-मन्त्र मैं गाता नहीं ।
ध्वान्त धूसर गोपथों की
पद-विमर्दित पाँखुरी
अश्रु कण से सींचता
जलती हुई अलकापुरी
शैल-शिखरों पर विलम्बित साँझ का श्यामल जलद
दूब कण जैसा बिछा हूँ मेघ-सा छाता नहीं ।
कल्प वट की शाख पर
लटका भुजग निर्मोक हूँ
मैं विजन की भग्न वेदी का
अपूजित श्लोक हूँ
हाथ में लेकर कमण्डलु ओढ़ चीवर मैं खड़ा
अब तुम्हारे द्वार पर का भिक्खु हूँ, दाता नहीं ।
आ बसा हूँ मैं जहाँ
मेरा न वह वास्तव्य है
स्वप्न में जो कह रहा
उसका न कुछ मन्तव्य है
देश औ' परिवेश कृत्रिम भ्रान्ति है, आभास है
हूँ सभी अज्ञेय कोई सत्य का ज्ञाता नहीं ।
(५)
मैं विस्मृति के अतल गर्भ में
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मैं विस्मृति के अतल गर्भ में
उतर रहा हूँ सीढ़ी-सीढ़ी
जाने अब आगंतुक पीढ़ी
मैंने क्या कुछ नहीं किया है
उज्जयिनी, धारा,विदिशा की
बसी हुई मुझमें यात्राएँ
पाटलिपुत्र,मगध,वैशाली
ताम्रलिप्ति की स्वर्णाभाएँ
हर उत्सव में ,समारोह में
पहुँचूँ अब कैसे संभव हो
घर से बाहर गए बिना ही
मैंने सब कुछ देख लिया है
पारिजात था एक स्वर्ग में
मैं उसको भू पर ले आया
नूतन ताल छन्द स्वर लय से
अभिनव गीत-वितान सजाया
धरती का आँचल रीता था
सूना-सूना नील गगन था
गिरि,वन,सर,रवि,शशि,उडुगन दे
उनको मैंने क्या न दिया है
नभ पर कभी-कभी ही घिरती
स्वाति-नखत की छवि बदरीली
सुधा कलश से बुझे नहीं जो
ऐसी मेरी प्यास हठीली
जनम-जनम से बहती मुझमें
पल-पल पतित पावनी गंगा
बदल-बदल कर घाट-घाट का
पानी मैंने नहीं पिया है
मलयज किसलय धूम्रवलयमय
मन का संवेदन पथराया
तक्षशिला से नालन्दा तक
दुरभिसन्धिनी फैली छाया
तुम्हें चाहिए छाँव घनेरी
मीठे फल फूलों की ढेरी
इसे नीर दो,इसे खाद दो
पौधा मैंने रोप दिया है
(६)
मौलिक हूँ अनुकरण नहीं हूँ
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जो कुछ हूँ , जैसा हूँ, प्रस्तुत हूँ
मौलिक हूँ , अनुकरण नहीं हूँ
इस जीवित क्षण का मैं साक्षी हूँ
मैं कल का संस्मरण नहीं हूँ
मुझसे यह आपको शिकायत है
धारा के संग मैं न बह पाया
भले नहीं डूबा उतराया हूँ
किन्तु नहीं मैं तटस्थ रह पाया
संभव है ,चलने में भटका हूँ
अनुगामी आचरण नहीं हूँ
सम्पर्कों के कंधों पर चढ़कर
विजय केतु सा मैं कब लहराया
दरवाज़े पर दस्तक दी मैंने
खिड़की की राह से नहीं आया
भाषातीत, भावों का स्पंदन हूँ
सूत्रबद्ध व्याकरण नहीं हूँ
ऊसर में बहता गंगाजल हूँ
पोखर के पानी सा टिका नहीं
स्वीकृति के पीछे कब ललचाया
कॉफी के प्यालों पर बिका नहीं
टके टके, फुटपाथों पर बिकता
मैं सस्ता संस्करण नहीं हूँ
जो कुछ हूँ , जैसा हूँ ,प्रस्तुत हूँ
मौलिक हूँ , अनुकरण नहीं हूँ
(७)
एक दीपक तुम जलाओ
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देहरी पर
एक दीपक तुम जलाओ
एक दीपक हम जलाएँ
घिर रहा जो हर दिशा में
उस अँधेरे को मिटाएँ
साँझ होने से प्रथम ही बादलों में रवि ढला है
ज्योति-पन्थी के पगों में बँधी तम की शृंखला है
यह मधुर दीपक अकिंचन
करे क्षण-क्षण ज्योति सिंचन
भूमि से नभ तक बिखेरे
चन्द्रमा की सौ कलाएँ
स्वर्ण-लिपियों में निवेदित
मोम की छन्दित ऋचाएँ
भग्न स्वप्नों के चषक से ढाल तन्द्रिल श्याम हाला
नील-अम्बर में विमूर्च्छित -सी विकल नक्षत्र-माला
दृष्टियों में गरल भरती
सुधा-,घट-सन्धान करती
चलो, मिलकर तोड़ दें ये
धूम-कुहरिल मेखलाएँ
अक्षतों के अक्षरों में
रचें मंगल रोचनाएँ !
(८)
'समय-सन्दर्भ '
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यह समय कितना कड़ा है
सामना जिससे पड़ा है।
स्तब्ध सन्नाटा
हवा में
खंख पीपल खड़खड़ाता
सुन रहा हूँ
नींद में कोई
निरंतर बड़बड़ाता
दृश्य उफ़ कितना भयावह
कील-सा मन में गड़ा है।
बाल बिखरे
रक्त-रंजित
पीठ कुबड़ी, छिले काँधे
पेट पिचका
नील-लोहित
साँकलों ने हाथ बाँधे
रेत पर जल आँकता यह
देश संसद से बड़ा है।
यह हलाकू की
सवारी
राजपथ से जा रही है
काट डाली
जीभ इसने
बात इतनी-सी कही है
आप सेनापति महज थे
युद्ध तो हमने लड़ा है।
(९)
मैं नवांतर
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मैं न कोई पथ-प्रदर्शक
मैं न अनुचर हूँ!
साथ रहकर भी, सभी के
मैं समांतर हूँ!
नाद हूँ मैं, प्रणव हूँ मैं
शून्य हूँ मैं, मैं न चुकता
कालयात्री हूँ, स्थविर हूँ
मैं न चलता, मैं न रुकता
आदि-अंत-विहीन हूँ मैं
मैं निरंतर हूँ!
मैं सृजन का हूँ अनुष्टुप
लय-प्रलय के गान मुझे में
रत्न-मणि मुक्ता धरे
डूबे हुए जलयान मुझमें
ज्वार-भाटों से भरा
अतलांत प्रांतर हूँ!
मैं नहीं हूँ दिव्यधन्वा
निष्कवच सैनिक विरथ हूँ
व्यूह-वलयित समर-जेता
मैं किसी इति का न अथ हूँ
मैं न सत्तापक्ष में हूँ
मैं समांतर हूँ!
मैं अंधेरे की शिला पर
ज्योति के अक्षर बनाता
मुझे परिभाषित करो मत
मैं स्वयं अपना प्रमाता
गीत हूँ, नवगीत हूँ मैं
मैं नवांतर हूँ!
(१०)
रीढ़ जब से झुकी मेरी
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रीढ़ जब से झुकी मेरी
और तनकर चल रहा हूं !
हूँ सनातन सर्वहारा
रात का अंतिम सितारा
स्नेह, बाती के बिना भी
दीप जैसा जल रहा हूं !
एक बेड़ा अगर भटका
जब भंवर में, हुआ तट का
सिंधु पर मैं बहा तृण-सा
डूबतों का बल रहा हूं !
जानता मुझको न कोई
भीड़ में पहचान खोई
विश्व का विश्वास पाने
मैं स्वयं को छल रहा हूं !
आर्त्त जन ने जब पुकारा
मैं बना उसका सहारा
जन्म से हूं सूर्यवंशी
हिम-शिला-सा गल रहा हूं !
अब प्रहारक हैं न पैने
घिस चुके नख-दंत, डैने
एक वृद्ध जटायु-सा मैं
युद्घरत हर पल रहा हूं !
लक्षणा हूं, व्यंजना हूं
अर्थगत छवि-रंजना हूं
मूलतः अभिधेय होकर
रंग-रूप बदल रहा हूं !
(११)
काशी के पंडित हम हो लेंगे कल
आज बना रहने दो मगहर का संत
क्या होता पित्रोचित संरक्षण
क्या होता माता का रसभीना स्नेह
हमको तो अर्थहीन लगते सब
सखा, स्वजन, बंधु, द्वार, गेह
हम हैं अज्ञात वंश निर्गुणिये आज
खोजेंगे हममे गुण कल के श्रीमंत
वृंतछिन्न आँधी के पारिजात हैं
बह आये हम तट पर धार से
महकेंगे उसके ही आँचल में
उठा लिया जिसने भी प्यार से
धूल भरे गलियारे सिर्फ आज हैं
हो जायेंगे कल हम भीड़ों के पंथ
रचे नहीं पिंगल या अलंकार
चहके हम बन कर बन के पांखी
जाने कब लोगों ने नाम दिए
दोहरा, रमैनी, सबदी, साखी
पढ़े कहाँ हम पुराण निगमागम
गढ़े कहाँ कालजयी कविता के ग्रन्थ
मसि, कागद, कलम कभी गहे नहीं
वाणी ने अटपटा वही कहा
जो कुछ देखा अपने आस-पास
वह सब, जो हमने भोगा , सहा
साधारण अर्थों के गायक हैं हम
बने नहीं शब्दों के सिद्ध या महंत
अपना घर फूंक कर तमाशा अब
देख रहे हैं हम चौराहे पर
बड़े जतन से जिसको ओढ़ा था
ज्यों की त्यों धर दी लो वह चादर
जली हुयी हाथ में, लुकाठी लेकर
अनहद से मिला रहे आदि और अंत ।
(१२)
गीत सत्यमवद हुए
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स्वप्नजीवी गीत सत्यमवद हुए
आत्मनेपद थे, परस्मैपद हुए
दूसरों का भार हम ढोते रहे
शब्द होकर भी रहे बस अर्थ के
हर सफ़र में आदि से अवसान तक
हम सबल कंधे बने असमर्थ के
ध्वंस क्षण में भी ऋचाएँ ही रचीं
प्रलय-पारावार में बरगद हुए
हमीं ब्रह्मा के कमण्डलु का सलिल
विष्णु पद-क्षालन कभी हमने किया
हमीं ने शिव की जटाओं से उलझ
चन्द्र किरणों से स्रवित अमृत पिया
भगीरथ की साधना के ताप से
द्रवित होकर शिखर से हिमनद हुए
हम किसी की तर्जनी से भी नहीं
कब उठे बैठे किसी संकेत पर
दूसरों की नाव भी तट से लगे
धार बन बहते रहे हम रेत पर
राम के बल पर भरोसा था हमें
सभा में दशकंध की अंगद हुए
तोड़ दीं हमने सभी बैसाखियाँ
अवसरों की पीठ पर हम कब चढ़े
राजसी सम्मान पाने के लिए
शाह के आगे कसीदे कब पढ़े
हम हदों से भी बंधे अनहद रहे
जो सड़क थे वे सभी संसद हुए
१३
नये संदर्भ का नवगीत हूँ मैं
समय की नब़्ज मेरे हाथ में है !
नहीं पहने हुए मैं आवरण हूँ
फिसलती रेशमी शब्दावली का
सहज अभिव्यक्ति का ही पक्षधर हूँ
मुझे आता न शैली का सलीका
न मैं अपनी व्यथा ही गा रहा हूँ
सभी का दर्द मेरे साथ में है !
न केवल गाँव या कि महानगर का
सकल ब्रह्माण्ड का मैं नागरिक हूँ
नदी का, शैल का, आकाश का हूँ
मरुस्थल का सगा हूँ, सागरिक हूँ
विजय- रथ हूँ नहीं मैं राजपथ का
मेरी पहचान तो फुटपाथ में है !
गतागत औ ' भविष्यत् का सनातन
सतत गतिमान चक्राकार हूँ मैं
परात्पर पंचतत्वों से बना हूँ
स्वयं- भू, शून्य का विस्तार हूँ मैं
उसी को गढ़ रहा हूँ, पढ़ रहा हूँ
लिखी जो कुछ मनुज के माथ में है !
१४
हाथ में लीला-कमल हैं
पैर कीचड़ में सने हैं !
हम विदुर बन कर जिये हैं
कौरवों में, पाण्डवों में
क्या हमारी अस्मिता है
जानते हम, उत्सवों में
हम ग़लीचों-से बिछे हैं
शामियानों-से तने हैं !
अन्तरिक्षों तक उड़ेंगे
एक सपना था हमारा
पंख पर सहसा गिरा क्यों
टूट कर नभ से सितारा
क्यों हमारी वेदना से
आप होते अनमने हैं !
बन्धु ! हम से सज न पायी
आपकी यह रंगशाला
रूप-रेखाकार-वर्जित
है हमारी बिम्ब-माला
एलबम में आपकी हम
चित्र धूमिल अधबने हैं !
नाविकों की बस्तियों पर
घिर रहे काले अँधेरे
क्या पता आयें-न-आयें
लौट कर वापस मछेरे
अभी द्वीपों से जलधि तक
सेतु हम को बाँधने हैं !
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~ देवेन्द्र शर्मा 'इन्द्र '
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परिचय -
जन्म तिथि -१अप्रैल १९३४
नवगीत संग्रह -पथरीले शोर में , पंखकटी महराबें , कुहरे की प्रत्यंचा , चुप्पियों की पैंजनी , दिन पाटलिपुत्र हुए , आँखों में रेत प्यास , पहनी हैं चूड़ियाँ नदी ने , अनन्तिमा , घाटी में उतरेगा कौन , हम शहर में लापता हैं , गन्धमादन के अहेरी , एक दीपक देहरी पर , मैं शिखर पर हूँ , परस्मैपद , उत्तरा फाल्गुनी
खण्डकाव्य - कालजयी
मेघदूत का अनुवाद , चार दोहा संग्रह , छह ग़ज़ल संग्रह ।
नवगीत दशक -१ , नवगीत अर्द्धशती , यात्रा में साथ - साथ तथा हरियर धान रुपहले चावल , जैसे प्रतिष्ठित नवगीत संकलनों के सहयोगी रचनाकार ।
संपादन -यात्रा में साथ -साथ , नवगीत शिखर , हरियर धान : रुपहले चावल
विशेष -नवगीत और नये दोहे के प्रवर्तन और उन्नयन में विशेष भूमिका ।
निधन -१७/०४/२०१९
बहुत ख़ूब !
जवाब देंहटाएंगीत ऋषि की रचनात्मकता को नमन
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