नवगीत के भगीरथ अमरनाथ श्रीवास्तव जी के नवगीत
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वागर्थ में आज प्रस्तुत हैं नवगीत के भगीरथ अमरनाथ श्रीवास्तव जी के नवगीत चलिये इसी बहाने सही वह भी इस खास अवसर पर जब हम अमरनाथ श्रीवास्तव जी के नवगीतों में शिल्प की कसावट पर पाठकों का विशेष ध्यान आकर्षित कर रहे हैं ।और जब समूह वागर्थ अनेक मित्रों द्वारा सराहा और बार बार शेयर किया जा रहा हो! क्यों न दो बातें अपनी ओर से भी कर ली जाएं ! एक तो यह कि नवगीत अंतः अनुशाषित विधा है ; और गीत से बिल्कुल भी अलग नहीं है :और यह भी सही है कि हर गीत नवगीत भी नहीं है ।
उक्त निकष पर अपने ही मन की बात को कसें तो,निष्कर्षतः हम भी नवगीत के पूरे अनुशासन के पक्ष में ही हैं । शैल्पिक शिथिलताएँ हमारी अपनी कमजोरी भले हो पर समूह वागर्थ इन्हें मानक नहीं मानता और न ही इनका समर्थन करता है । हमने इससे पहले कुछ अंक नवगीत की भिन्न शैलियों और रूपाकारों पर एकाग्र किए हैं । जिन्हें आधार बनाकर कुछ वरिष्ठ नवगीतकारों ने हमारी कार्यशैली पर संदेह जाहिर किया और फतवा जारी किया कि यह समूह अपने उद्देश्य से भटक रहा है । हम बिल्कुल भी नहीं भटक रहे हैं बल्कि और भी मजबूती से और अच्छे चयन के साथ आपके समक्ष नए और पुराने नवगीतकारों के नवगीत प्रस्तुत कर रहे हैं । अब बात करते हैं एक और दूसरी और जरूरी आज की उत्सवमूर्ति की!
21,जून 1937 में गाजीपुर जिले में जन्मे अमरनाथ श्रीवास्तव जी नवगीत परम्परा के महत्वपूर्ण हस्ताक्षर रहे हैं । आपने अनेक पुस्तकें लिखीं जिनमें ‘ गेरु की लिपियाँ’, ‘दोपहर में गुलमोहर’, ‘आदमी को देखकर’ एवं ‘है बहुत मुमकिन’ प्रमुख रूप से शामिल हैं ।
आपकी रचना प्रक्रिया को लेकर यदि सार संक्षेप में कुछ कहना हो तो एक महत्वपूर्ण बात जो यहाँ जोड़ना चाहूँगा वह यह कि आप शब्दों के प्रयोग में हमेशा चौकन्ने मगर शालीन रहे , आपका काव्य शिल्प अनूठा और एकदम अलग किस्म का होता है। नवगीत के शिल्प पर गौर करें तो अमरनाथ श्रीवास्तव जी की रचना प्रक्रिया में एक और अन्यतम विशेषता देखने को मिलती है , आप गीतों की शास्त्रीय भूमि में यथार्थ भावों के सुंदर बीज इस निपुणता के साथ बोते थे कि अर्थपूर्ण शब्दों की फसल लहलहा उठती थी।लेखन और प्रकाशन के तमाम किन्तु परन्तु से अलग इस साहित्य मनीषी को उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान ने दो बार निराला सम्मान से नवाजा।
आइये पढ़ते हैं इस अनूठे काव्य शिल्पी के दस नवगीत
प्रस्तुति
वागर्थ
सम्पादक मण्डल
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कन्धे बैठी
रात पूस की
घुटने-घुटने
जल होता है
धोबी देख रहा है दीपक
आगे राजमहल होता है
ठकुरसुहाती
और चुटकुलों से
दरबाद
भरा रहता है
दीमक की
कुरसी उसको
जो दस्तावेज़
खरा रहता है
प्यादे से चालें वज़ीर की
नक़ली खेल असल होता है
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रक्तदान में जिनके
लहू काम आए
झेल रहे धमनी में
रेंगती हवाएँ
मौत सरक आई है
क्रमशः सिरहाने
धोखे भी बचे सिर्फ़
आने-दो आने
शोक-वस्त्र पहन रहीं
नर्तकी प्रथाएँ
’फ़्लैश गन’ चमकती हैं
तो चेहरे चमके
झूल रहीं दो बाँहें
झूल रहे तमगे
जिन पर उत्कीर्ण हैं
दधीची की कथाएँ
शतरंजी चालों के
तेवर हैं सादे
फ़रजी की चाल चलें
कल तक के प्यादे
बचे-खुचे गोट नियम
खेल के निभाएँ
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गोताख़ोर समय के आगे
याचक होकर जाना कैसा
अतल सिन्धु के मोती होकर
बैठे तो पछताना कैसा ?
ख़ाली चौदह रत्नों के घर
सतत सिन्धु-मन्थन में जीना
दरकी सीपी की दीवारों से
रिसते खारे जल पीना
इतना अन्तर्ज्वार मिला तो
कोई और ठिकाना कैसा ?
बादल की आँखों में आए
तो बादल का दुख आधा है
लेकिन सीपी की पलकों में
स्वाति बून्द की मर्यादा है
कोई सीमा रेखा हो तो
आगे और बहाना कैसा ?
यह अर्जित परिवेश स्वयं का
अवरोधक हैं तरह-तरह के
भारी इतने हो, तुमको
क्या छू पाएँगे ज्वार सतह के
फिर निःसंग छूट जाने का
कोई डर बचकाना कैसा ?
यूँ तो हार नौलखा भी हैं
सागर छूट गए हैं जिनके
लेकिन चुभती है मंजूषा
भेद खुले जब उजले दिन के
जल-थल का संसार अलग है
दोनों को उलझाना कैसा ?
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कञ्चनमृग, आगे मत पूछना
पर्णकुटी छूटी, तो कैसे ?
सोचा था अपनी सीमा में भी
चन्दन का धर्म बहुत होता है
भूमि-शयन का भी अपना सुख है
कोई मृगचर्म बहुत होता है
जन-अरण्य, आगे मत पूछना
पञ्चवटी रूठी, तो कैसे ?
रत्नजड़े मुकुट ले गए मुझसे
सुखनिद्रा स्वप्न की, अभय की
सूख रहे होंठों तक आई है
एक और प्यास दिग्विजय की
अश्वमेध, आगे मत पूछना
सीता है झूठी, तो कैसे ?
बाहर का युद्ध जीतने पर भी
भीतर निष्प्राण हुए जाना
कितना खलता है पुष्पक रथ पर
दिशाहीन, वाण हुए जाना
सरयू-जल, आगे मत पूछना
प्रत्यञ्चा टूटी, तो कैसे ?
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कैसे हम काँच के
घरौन्दों में रहते
ठेस कहीं लगने का
भय कितना सहते
इतने थोड़े जल में
ऐसी रंगरलियाँ
हम न हुए शीशे के —
ज़ार की मछलियाँ
सबकी अपनी बोली
किससे क्या कहते
कैसे हम काँच के
घरौन्दों में रहते
लोगों को मिलती है —
नीन्द बिना माँगे
लेकिन आदत अपनी
जाए तो जागे
वरना हम भी
सीधी धारा में बहते
कैसे हम काँच के
घरौन्दों में रहते
कभी तो मिले होते
वृक्ष हम अभागे
सांसों की धूल बची
आँधी के आगे
ढहते भी तो —
केवल एक बार ढहते
कैसे हम काँच के
घरौन्दों में रहते
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प्रत्यञ्चित भौंहों के आगे
समझौते केवल समझौते ।
भीतर चुभन सुई की,
बाहर सन्धि-पत्र पढ़ती मुस्कानें ।
जिस पर मेरे हस्ताक्षर हैं,
कैसे हैं ईश्वर ही जाने ।
आँधी से आतंकित चेहरे
गर्दख़ोर रंगीन मुखौटे ।
जी होता आकाश-कुसुम को,
एक बार बाँहों में भर लें ।
जी होता एकान्त क्षणों में
अपने को सम्बोधित कर लें ।
लेकिन भीड़ भरी गलियाँ हैं
काग़ज़ के फूलों के न्योते ।
झेल रहा हूँ शोभा-यात्रा
में चलते हाथी का जीवन ।
जिसके ऊपर मोती की झालर
लेकिन अंकुश का शासन ।
अधजल घट से छलक रहे हैं
पीठ चढ़े जो सजे कठौते ।
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कितना खलता है
अपने में तिल-तिल घटना
तट की चट्टानों-सा
धीरे-धीरे कटना
बर्फ़ के पहाड़ों-सा
क्रमशः हलका होना
जल से आहत होने पर भी
जल का होना
आटे की गोली-सा
मछली-मछली बँटना
कितना खलता है
चुभते एहसासों से
बचने-कतराने में
झरबेरी-सी उलझी
सुबहें सुलझाने में
केले के पत्ते-सा
रेशे-रेशे फटना
कितना खलता है
छूट गई ट्रेनें जो —
उनकी धुन्धली कतार
डूब रही नब्ज़ —
लौट आने का इन्तज़ार
बूढ़े तोते-सा
भूले सम्बोधन रटना
कितना खलता है
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हम तो दर्शक जैसे
पहले थे, अब भी हैं
चेहरे अख़बारों के
आते हैं, जाते हैं
प्यादे से फ़रज़ी हैं
फ़रज़ी से प्यादे हैं
खेल-खेल में बदली
चाल के इरादे हैं
हम तो पैदल मोहरे
पहले थे, अब भी हैं
लोग संगमरमरी —
बिसात पर बिछाते हैं
छोटी मछली जिसकी
पथराई सूरत है
बड़ी मछलियों के घर
सगुन है, मुहूरत है
हम तो गूँगे मुलजिम
पहले थे, अब भी हैं
लोग हमें देखकर
सलीबें चमकाते हैं
सधे-बधे चेहरे हैं
व्यापारी दूतों के
बेमानी हैं जंगल
मीठे शहतूतों के
रेशम के कीड़े हम
पहले थे, अब भी हैं
लोग हमें उलझाकर
धागे सुलझाते हैं
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कई बार टूटे हैं
एक बार और सही
यदि कोई मोहपाश
काम नहीं आए तो
रेशे-रेशे होकर
बिख़र-बिख़र जाए तो
बेवजह हवाओं में
गाले मन्दारों के
कई बार फूटे हैं
एक बार और सही
परिचय-आकर्षण की
स्नेह की, समर्पण की
कितनी मुद्राएँ हैं
छोटे से दर्पण की
निष्ठुर हैं चंचल छायाएँ
तो कई प्यार —
कई बार झूठे हैं
एक बार और सही
कुछ ट्रेनें ऐसी भी
द्रुतगामी होती हैं
जो शहरों से शहरों के
रिश्ते ढोती हैं
जिनके आगे हम हैं
स्टेशन छोटे तो
कई बार छूटे हैं
एक बार और सही
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जब अकेले तुम चले थे
तब तुम्हारे साथ क्या था
नर्मदा के जल बताओ
था तुम्हारे पास ऐसा क्या
कि अपना घर बसाओ
आदिवासी अमरकण्टक पिता
क्या देता बताओ
तुम्हें रचने में किसी
सम्भावना का हाथ क्या था
नर्मदा के जल बताओ
सतपुड़ा के जंगलों का
सो गया संसार जैसे
देखता आकाश भूखे भील
का परिवार जैसे
किन्तु ऐसी नीन्द पर
अविरल, अनन्त प्रपात क्या था
नर्मदा के जल बताओ
थकी-हारी देह टूटी
बँध गए तुम फ़ासलों में
एक लम्बी उम्र गुज़री
पत्थरों के काफ़िलों में
आँख भर आई जहाँ
जल का वहाँ अनुपात क्या था
नर्मदा के जल बताओ
इस तरह खुलकर
गले मिलती हुई नदियाँ कहाँ थीं
संगमरमर के कगारों की
मुखर छवियाँ कहाँ थीं
तब कहाँ तीरथ बने थे
और भेड़ाघाट क्या था
नर्मदा के जल बताओ
परिचय
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जन्म 21 जून 1937
निधन 15 नवम्बर 2009
जन्म स्थान ग्राम बौरवा, गाजीपुर, उत्तरप्रदेश, भारत
कुछ प्रमुख कृतियाँ
गेरू की लिपियाँ, दोपहर में गुलमोहर (दोनो नवगीत-संग्रह) आदमी को देखकर (ग़ज़ल-संग्रह) है बहुत मुमकिन(गीतों का एक चयन)
विविध
धर्मयुग, वागर्थ, आजकल, गगनांचल, मधुमति, दस्तावेज़ आदि पत्रिकाओं में कविताएँ प्रकाशित व आकाशवाणी, दूरदर्शन से प्रसारित। उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान का 'निराला' नामित पुरस्कार दो बार प्राप्त करने वाले पहले कवि। साहित्य भूषण पुरस्कार। तीन काव्य संकलन प्रकाशित।
विशेष
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डा० जगदीश गुप्त उन्हे नवगीत का भगीरथ कहा करते थे।
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