गुरुवार, 29 अप्रैल 2021

वागर्थ में आज भगवान स्वरूप सरस जी के नवगीत प्रस्तुति वागर्थ समूह

~ ।। वागर्थ ।।~

         इस कुसमय में विवश हो साथ छोड़ गए समस्त साथियों को स्मरण कर उन्हें श्रद्धांजलि अर्पित करता है । समय कैसा भी रहा हो साहित्य ने समाज को निरन्तर प्रेरित व आशान्वित किया है  । इसी निरन्तरता को बनाए रखते हुए वागर्थ अपनी सम्पूर्ण संवेदना के साथ अपने पाठकों , जिन्हें अगले नवगीतकार की प्रतीक्षा रहती है व जो वागर्थ का संबल भी हैं , के लिए .....
   ...आज प्रस्तुत करता है  १९३३ उत्तर प्रदेश के मैनपुरी जिले में जन्मे भगवान स्वरूप सरस जी के नवगीत ।
जिन्होंने नवगीतकार के रूप में शालीनता से अपनी उपस्थिति दर्ज की और डॉ शंभुनाथ सिंह जी के सम्पादन में नवगीत दशक १ का हिस्सा भी बने । जीवन के कटु यथार्थ से सामना करते हुए उनका व्यक्तिगत जीवन काफी  संघर्षमय रहा ।
  भगवान स्वरूप सरस जी अपने समय के चर्चित पत्र पत्रिकाओं में संपादन में समय समय पर छपते रहे किन्तु अपने समकालीनों द्वारा बराबर उपेक्षित बने रहे ।

  शलभ श्रीराम जी से उन्हें समय -समय पर प्रोत्साहन भी मिलता रहा ।  वह अपने सृजन के प्रकाशन को लेकर बेहद उदासीन रहे ,उनके नजदीकी मित्र रामसेंगर के निजी प्रयास से उनके गीतों की पाण्डुलिपि तैयार हुई । दैनिक 'देशबंधु' के संपादक मायाराम सुरजन जी के अथक प्रयासों से यह पांडुलिपि 'एक चेहरा आग का' नाम से हिंदी साहित्य सम्मेलन से प्रकाशित हुई ।   
नवगीत के शिल्प पर खरे इन नवगीतों में कवि ने छन्द के पुराने ढाँचे को न सिर्फ तोड़ा बल्कि छन्द के नवीन प्रयोग किये स्वयं का डिक्शन भी गढ़ा ।
    व्यवस्था पर कटाक्ष करते गीत 'आग से मत खेल बेटे ' में उस समय की तस्वीर पेश करते हैं जो आज भी उतनी ही बल्कि अधिक प्रासंगिक है ....

मत अलग कर दूध -पानी
भेद मत कर गीत हो या मर्सिया
पृष्ठ पूरे उन्हें दे
जिनके लिए हैं
पकड़ अपना हाशिया।
नहींsss रोटीsss नहींsss

चाँद तारे और सूरज माँग
काठ के ये खिलौने भी
मिल गये हैं
भाग से ।

      आज उनके कुछ गीतों से जुड़कर वागर्थ उनके कृतित्व को श्रद्धापूर्वक  स्मरण करता है ....

                                               प्रस्तुति 
                                         ~ ।। वागर्थ ।। ~
                                          सम्पादन मण्डल

________________________________________________

(१)

आग से मत खेल
------------------------
आग से मत खेल बेटे
आग से

हिल रही पूरी इमारत
सीढ़ियाँ टूटी हुईं
मत चढ़
खोल बस्ता खोल गिनती रट
पहाड़े पढ़

मत दिखा उभरी पसलियाँ
बैठ झुक कर बैठ
दर्द भी गा
राग से

मत अलग कर दूध -पानी
भेद मत कर गीत हो या मर्सिया
पृष्ठ पूरे उन्हें दे
जिनके लिए हैं
पकड़ अपना हाशिया।
नहींsss रोटीsss नहींsss

चाँद तारे और सूरज माँग
काठ के ये खिलौने भी
मिल गये हैं
भाग से

(२)
घूमता है आदमी
-------------------

खींच कर
परछाइयों के दायरे
आइनों पर घूमता है आदमी।

अथ--
फफूँदी पावरोटी
केतली-भर चाय।
इति--
घुने रिश्ते उदासी
भीड़ में असहाय।

साँप-सा
हर आदमी को
सूँघता है आदमी।

उगा आधा सूर्य 
आधा चाँद
हिस्सों में बँटा आकाश।

एक चेहरा आग का है
दूसरे से झर रहा है
राख का इतिहास।

आँधियों में
मोमबत्ती की तरह
ख़ुद को जलाता-फूँकता है आदमी।

(३)
 घर दलालों के
-------------
और ऊँचे
और ऊँचे हो गये हैं
घर दलालों के।
कौन उत्तर दे सवालों के

कौन बोले
हमीं केवल हमीं थे
उस सड़क पर
संग्राम के पहले सिपाही।

वक़्त पर बेवक़्त पर 
हमको बिछाती-
ओढ़ती थी बादशाही

अब हमीं
नेपथ्य से भी दूर
धकियाये गये हैं
बज रहे हैं मंच पर
घुँघरू छिनालों के

खौलते जलकुण्ड में डूबी
किसी की श्लोक-सी सुबहें
किसी की ग़ज़ल -सी शामें
जन्म से अंधी मकड़ियाँ
इंद्रधनुषी जाल बुनती हैं
समय की उँगलियाँ थामे

हाथ बदले हैं
नकाबों में ढँके
चेहरे वही हैं
बंध ढीले पड़ गये
ठंडी मशालों के

कौन उत्तर दे सवालों के

(४)
आँखें बन्द किये
-------------------
जब-जब भी 
भीतर होता हूँ
आँखें बन्द किये

लगता, जैसे
जलते हुए सवालों-
पर लेटा हूँ ज़हर पिये।

दबे हुए अहसास
सुलग उठते हैं सिरहाने।
प्रतिबन्धों के फन्दे
कसते जाते पैंताने।

लगता, जैसे
कुचली हुई देह पर कोई
चला गया हो लोहे के पहिये।

(५)
 
 इस नगर में
------------------

क्या किया आकर
तुम्हारे इस नगर में

हादसे-सा उगा दिन
काँपे इमारत-दर-इमारत
हाशियों-से खिंचे जीने
चीखते सैलाब में
धँस कर अकेली
थाहती है ज़िन्दगी
पल-क्षण-महीने

बाँह से जुड़ती न कोई बाँह
जैसे, आगये हों हम
किसी बंदी शिविर में
क्या किया आकर
तुम्हारे इस नगर में

रोशनी के इंद्रधनुषों
पर लटकते
प्लास्टिक के फ्यूज़ चेहरे
धुंधलकों में
चरमराती गंध के आखेट
हिचकियों पर हाँफते
संगीत ठहरे

सभ्यता रंगीन दस्ताने पहन
धकिया गयी मासूमियत
को चीरघर में
क्या किया आकर
तुम्हारे इस नगर में

(६)
अन्यथा हुआ 
------------------
अन्यथा हुआ 
सोचा सब अन्यथा हुआ 
व्यर्थ हुए हम तुम 
तुम हम 

आज तक किया गया सफर
कोरी चर्चाओं में बीता 
आंख से उतारकर मशाल 
भोगा कुछ स्वार्थ 
कुछ सुभीता
 बंजर विद्रोहों की भूमिका लिखी बंधा नहीं बांधे मौसम 

ऐसे भी लगता है बेहतर होगा चौतरफा बन्द रखूं  द्वार 
जो कभी न आवाजें दे 
मानूं बस उसका आभार 
सड़क का समुद्र लांघ लूं 
खिड़की पर खड़े खड़े 
गुमसुम!

मोड़ों पर जमी हुई रक्त की नदी में रुक-रुक कर चलती है
 कागज की नाव 
बियाबान में ठहरीं अजगर यात्राएं जल्दी मरुघाटी से पूछ रहीं
दूसरा पड़ाव 
अलगाना पुलों को तटों से 
एक यही काम रहा हरदम!

(७)

दिन पहाड़ से
-------------------

दिन पहाड़ -से
कल तक तिल थे
आज ताड़ -से

कितनी तेज धूप तो पहले
 कभी नहीं थी 
गर्द बहुत पहले भी थी 
पर इतनी गहरी 
जमी नहीं थी 

ऐसा क्या हो गया कि 
घर आंगन चौराहा 
अपने ,सपने 
सब उजाड़ से 

जीवन एक ग़ज़ल था 
अन्धा कुआं रह गया 
टूटे सभी रदीफ काफिये
 गया तरन्नुम
 धुआं रह गया 

आंख चुराकर 
फागुन के सम्बन्धों वाली
 हवा सो गई 
जड़ किवाड़  से


 फिर मुट्ठी भींच दी
----------------------

वैसे भी
क्या कम थे दायरे
एक और रेखा
अलगाव की
तुमने भी खींच दी ।

मुश्किल से
लौटी थी वंशी की टेर
अधरों के
कांँपते स्वरों पर
मुश्किल से
फूले थे प्यार के कनेर
बहुत दिनों बाद
आज पहनी थी
उजली पोशाक
बिलावजह तुमने ही
गरम राख
ढेर -सी उलीच दी ।

मुश्किल से रोपे थे 
कँकरीली
क्यारी के कोने में
नये-नये वायदे
तोड़े थे
आंँगन दहलीजों के
जंग लगे कायदे
मुश्किल से फैली थीं
काठ की अँगुलियाँ
फिर एक बार
तपा हुआ लोहू-पिण्ड
थमा दिया तुमने
फिर मुट्ठी भींच दी ।

 देश चढ़ रहा
---------------

औरों की
सीढ़ियांँ उधार ले
हाथी की पीठ पर
देश चढ़ रहा ।
आंँगन में भूखों का
वंश बढ़ रहा ।

मुट्ठी भर चावल की
किनकी
धूप मांँग लायी
कांँखती दुपहरी ने
ले-दे के
सिगड़ी सुलगायी
लक्ष्य तक
पहुंँचने के रास्ते
बहुत से हैं
परिवर्तित मौसम का
पांँव गलत पड़ रहा ।

छलनी-छलनी
लटका बाबा के
बाबा का
रेशमी अंँगरखा
कोने में पड़ा हुआ
वर्षों से
दादी के दादा का
दिया हुआ चरखा
झोली भर
झुर्रियांँ समेटे
बूढ़ा श्रम यायावर
रेती में गड़ रहा ।

निर्वासित मान्यता कुँआरी
बार-बार सीती है
फटी हुई अंँगिया
गली-गली चर्चे हैं
ऋतुकन्या मांँ बनी
दिन डूबे तक
पीसे घर-घर की चकिया
सूरज की हत्या का
पाप कौन झेलेगा
अंधा निर्णायक है
न्याय वृन्त उखड़ रहा ।

१०
इस तरह दिन कट रहे हैं
-----------------------------

इस तरह
दिन कट रहे हैं
भागवत के पृष्ठ से हम
महाभारत रट रहे हैं ।

सुबह की सोची कहानी
शाम को बदली
कण्ठ पर जो भैरवी थी
ओठ पर कजली
क्या शिकायत
और क्या अफसोस
आदत हो गई है
मातमी धुन पर
बताशे बँट रहे हैं ।

दूर से आता
हवन का धुआंँ, मंत्रोच्चार
बुझे चूल्हे पढ़ रहे हैं
धर्म का आचार
भीड़ से होकर
गुजरते हुए रिश्ते
मोड़ पर,
नीबू निचोड़े दूध जैसे 
फट रहे हैं ।

       ~ भगवान स्वरूप  'सरस '

________________________________________________

परिचय 
-----------

जन्म- जुलाई १९३३ को ग्राम -लाखनमऊ, जिला-मैनपुरी (उ.प्र.)
शिक्षा- आगरा विश्वविद्यालय से स्नातक

कार्यक्षेत्र-
दैनिक जीवन में भगवान स्वरुप श्रीवास्तव के नाम से १९५४ से ५९ तक अध्यापन। पुनः कई नौकरियों के बाद म.प्र. शासन ग्रामीण विकास अभिकरण में सेवा निवृत्त होने तक कार्यरत। लेखन १९५० से अपने अंतिम समय तक। नवगीत दशक - एक के प्रमुख कवि।

प्रकाशित कृतियाँ --
गीत संग्रह- माटी की परतें, एक चेहरा आग का।
छंदमुक्त संग्रह- डैनों से झाँकता सूरज

निधन --१२ मार्च १९८५ को रायपुर, म.प्र. में

रविवार, 25 अप्रैल 2021

राधेश्याम बन्धु जी के नवगीत प्रस्तुति समूह वागर्थ 25 अप्रैल 2021

भागो मत दुनिया को बदलो सूरज यही सिखाता :
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राधेश्याम बन्धु 
__________

लखनऊ की प्रख्यात साहित्यकार एवम नवगीत की मर्मज्ञ डॉ रंजना गुप्ता जी बन्धु के वयक्तिव और कृतित्व पर एक विशेष टीप में अपनी बात कुछ इस तरह कहती है :--
                           "राधेश्याम बंधु जी का व्यक्तित्व और कृतित्व दोनों बहुश्रुत है वे लगातार नवगीतों पर कार्य कर रहे हैं उनका कार्य समय की तराज़ू पर सदा भारी रहेगा 
अवस्था और कार्य शक्ति का अद्भुत सामंजस्य बिठाया है उन्होंने अपने जीवन में सभी नवगीत सरल सुबोध और समय की विभाजक क्रूर रेखाओं को खींचते हैं उनका लेखन लोकोमुखी है वे रचनात्मकता को विनोद का कार्य नहीं मानते बल्कि समाज की पीड़ा का रेखांकन उनकी लेखनी द्वारा सदा होता रहे यही प्रयास उनका भरसक रहता है।"
                   भोपाल के चर्चित समीक्षक डॉ लक्ष्मी नारायण पयोधि बन्धु जी के समकालीन गीतों से गुजरते हुए अपनी बात को थोड़े से शब्दों में  अभिव्यक्त करते हैं:--दरष्टव्य है उनका  कथन 
        "बन्धु जी के प्रस्तुत नवगीत बदलते समय की चालों-कुचालों,आधुनिकता के नाम पर निर्मम होती संवेदना  और मनुष्य की प्रवत्तियों पर इन सबके प्रभाव को गहरी रेखाओं से चित्रित करते हैं।"
      समूह वागर्थ आज अनियतकालीन साहित्यिक पत्रिका समग्र चेतना के सम्पादक वरिष्ठ कवि राधेश्याम बन्धु जी के चुनिंदा दस नवगीत वागर्थ समूह सदस्यों को प्रस्तुत नवगीतों पर खुली चर्चा के लिए अच्छा मंच उपलब्ध कराता आया है। 
         आशा हैं आप सब चर्चा में भाग लेंगे और प्रस्तुत नवगीतों पर अपना महत्वपूर्ण मत रखेंगे! आपकी टिप्पणियाँ समूह के उन साथियों को भी सीखने और जुड़ने का अवसर देती हैं जो वागर्थ में नए जुड़े हैं और आप को पढ़कर आपसे जुड़ना चाहते हैं।
      आइए पढ़ते हैं वरिष्ठ कवि 
               राधेश्याम बन्धु के दस नवगीत

प्रस्तुति
समूह वागर्थ
सम्पादक मण्डल
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                   १
     
     अपना ही घर भूल गये
 
    हम   इतने आधुनिक  हो  गये 
      अपना  ही  घर  भूल  गये,
     ‘मोनालिसा’  के   आलिंगन  में,  
         ढाई   आखर   भूल   गये,
 
 शहरी   राधा   को   गांवों   की
 मुरली   नहीं  सुहाती  अब ,
 पीताम्बर  की जगह  'जीन्स’  की
 चंचल  चाल  लुभाती   अब, 
     दौलत  की   दारू   में  खोकर  
          घर  की  गागर  भूल गये 
 
 विश्वहाट   की   मंडी   में  भी
 खोटे  सिक्कों का शासन,
 रूप   नुमाइश  में  जिस्मों  का
 सौदा  करता   दु:शासन,
     खोटे  सिक्कों  के  तस्कर  बन, 
          सच  का  तेवर  भूल  गये,
 
 अर्धनग्न  तन  के  उत्सव  में
 देखे  कौन  पिता की प्यास ?
 नवकुबेर   बेटों    की   दादी
 घर  में  काट   रही  बनवास,
     नकली  हीरों   के  धन्धे   में  
           मां  का  जेवर  भूल  गये।

                   २

    घर में सौ-सौ ताने,
 
 दिन कट जाता है दफ्तर में, 
      घर  में  सौ-सौ  ताने,
     सूनापन   आता  रातों  में, 
          यादों  संग   बतियाने,
 
 रोज  चाय ले  गंध देह की
 सुबह जगाने आती,
 हाथों में दे टिफिन प्यार की
 दफ्तर रोज पठाती,
     भीड़ों  में  भी  एक उदासी, 
          चलती साथ निभाने, 
 
 दूर  हंसी  का  जलतरंग पर 
 गूंज  हृदय के पास,
 पुरवा  छेड़ - छेड़  जाती  है
 आलिंगन की प्यास,
 देहगंध  सजधज कर  आती, 
           संधिपत्र  लिखवाने, 
 
 फाइल ने कब  देखा  प्यासी
 आंखों  का उपवास?
 गली - गली में सपने भटकें
 काट  रहे  वनवास,
 दीवाली   भी  आती  अब, 
           आंसू के दिये जलाने,
 दिन कट जाता है दफ्तर में 
    घर में सौ-सौ ताने।

              ३

    बन्द घरों में
 बहुत  घुटन  है बंद  घरो में, 
     खुली  हवा तो आने  दो,
 संशय की खिड़कियां  खोल  दो, 
           किरनों  को  मुस्काने  दो,
 
 ऊंचे- ऊंचे  भवन  उठ  रहे
 पर आंगन का नाम नहीं,
 चमक - दमक  आपा- धापी  है
 पर जीवन का नाम नहीं ।
     लौट न जाये  सूर्य  द्वार  से, 
          नया  सबेरा लाने दो ।
 
 हर  मां  अपना  राम  जोहती
 कटता क्यों बनवास नहीं ?
 मेहनत  की  सीता  भी  भूखी
 कटता क्यों उपवास नहीं ?
     बाबा   की   सूनी  आंखों   में, 
          चुभता  तिमिर  भगाने  दो ।
 
 हर  उदास   राखी  गुहारती
 भाई  का वह प्यार कहां ?
 डरे- डरे   अब  रिश्ते  कहते
 खुशियों का त्योहार कहां ?
     गुमसुम गलियों में  ममता की 
         खुशबू  तो  बिखराने दो, 
 बहुत  घुटन  है  बन्द  घरों  में, 
      खुली  हवा  तो  आने दो ।

                  ४
घर में 
फिर-फिर  जेठ  तपेगा  आंगन,
हरियल  पेड लगाये रखना,    
सम्बन्धों   के   हरसिंगार   की  
शीतल  छांव बचाये रखना

दूर – दूर  तक   सन्नाटा  है
सड़कें   छायाहीन    हो    गयीं
बस्ती – बस्ती लू  से घायल
गलियां  भी  जनहीन  हो  गयीं
    बादल   पाहुन   लौट   न जाये 
    वन्दनवार  सजाये  रखना

रिश्तों  की बगिया  मुरझायी
संशय   की   यूं  उमस  बढ़ी  है
भूल  गयी  उड़ना    गौरैया
घर - - घर  में  यूं  तपन  बढ़ी  है
    थके   बटोही   की   खातिर   भी  
    तन की  जुही खिलाये रखना,

गुलमोहर  की  छाया  में  भी
गर्म   हवा   की  छुरियां   चलतीं
आंगन  की तुलसी भी अब तो
अम्मा   की  अरदास  न   सुनती,
    धवल   चांदनी   लौट   न   जायें  
    मन  का दिया जलाये रखना,
फिर-फिर  जेठ  तपेगा  आंगन,
हरियल  पेड लगाये रखना,    

               ५

एक शीतयुद्ध

    आदमकद  टूटन ने, दर्द  इस  तरह  दिये
    सतही समझौतों  के प्यार  के लिये  जिये,

तकिये को मसल – मसल
बालों  को  नोचते
अखबारों   में      प्रातः 
इन्क्लाब  खोजते,
    गुमसुम से  रिश्तों में एक शीतयुद्ध छिडा
    शिकनों  से  भरे  हुए  मस्तक के हाशिये,

फाइल   से   फरमाइश
की  दूरी बढ रही
सांसों  की   छेनी  नित
एक मूर्ति ग्ढ रही,
    जाने  कब  पूरा  हो चुकने का सिलसिला
    भूख  झुकी  मेजों पर एक तृप्ति के लिये, 

चूडी   की   खनक  खडी
द्वारे  पर  थक  गई
सूरज     की    मजदूरी
हाटों   में  चुक गयी,
    प्रश्न  हैं महाजन से दवार खटकटा रहे
    सुबह  के हलफनामें  शाम बने मर्शिये!

                   ६

          
    
    उनकी खातिर कौन लड़े ?
 
 उनकी  खातिर  कौन  लड़े 
     जो  खुद से डरे-डरे?
 बचपन को बंधुआ कर डाला, 
     कर्जा   कौन   भरे?
 
 जिनका दिन गुजरे भठठी में
 झुग्गी  में   रातें,
 कचरा से पलने वालों की
 कौन   सुने  बातें?
         बिन ब्याही मां बहन बन गयी, 
             किस पर दोष धरे ?
 
          चूड़ी  की  भठठी हो चाहे
 कल  खराद  वाले,
 छोटू  के मुखपर  ढावे ने
 डाल   दिये  ताले,
         पिता  जहां  लापता  पुत्र, 
             किससे फरियाद करे?
 
 आतिशबाजी के मरुथल में
 झुलस  रहा बचपन,
 भीख मांगता भटक रहा है
 सड़कों  पर जनगण,
         सौ-सौ घाव लगे बुधिया तन, 
             मरहम कौन धरे?
 
     उनकी  खातिर कौन  लड़े, 
     जो  खुद से डरे - डरे ?

             ७
              
            धान रोपते हाथ
      धान  रोपते  हाथ,अन्न 
         के  लिए तरसते हैं,
          पानी  में  दिनभर खटकर 
              भी प्यासे  रहते हैं,
 
         मुखिया के घर रोज दिवाली
     रातें मतवाली,
     क्रूर हवेली की हाकिम भी
     करता रखवाली,
         पर झुनिया की लुटी देह की
               रपट  न  लिखते हैं,
 
         जो भी शहर गया धनियां के
     आंसू  भूल  गया,
     सरपंचों   की  हमदर्दी  का
         कुंअना सूख  गया,
          होरी  के  सपने  गोबर को 
              खोजा  करते  हैं,
            
         त्योहारों में भी साड़ी का
     सपना  रूठ  गया,
     कर्जे की आंधी  से तन का
           बिरवा  सूख गया, 
          सबकी फसल कटी मुनियां 
              के फांके चलते हैं,
     धान  रोपते  हाथ, अन्न 
         के लिए तरसते हैं ।

                      ८
       
        

           शब्द बोलेंगे
 
     जो  अभी  तक मौन  थे,
         वे  शब्द  बोलेंगे,
        हर महाजन की  बही का, 
            भेद   खोलेंगे,
 
 पीढ़ियाँ  गिरवीं  फसल के
 बीज  की  खातिर,
 लिख रहा है भाग्य  मुखिया 
      गांव  का  शातिर,
          अब न पटवारी घरों  में 
              युद्ध  बोयेंगे,
 
 आ  गयी  खलिहान  तक
 चर्चा दलालों की,
 बिछ  गयी   चौपाल  में
 शतरंज चालों कीं,
         अब शहर के सांड फसलों
              को  न  रौंदेंगे,
 
 कौन  होली,  ईद  की
 खुशियां लड़ाता है?
 औ  हवेली   के   लिए
 झुग्गी जलाता है,
          हर  सियासी  मुखौटों का 
                 किला    तोडेंगे!
      जो  अभी  तक मौन  थे,
     वे  शब्द  बोलेंगे!
      
            ९

             भागो मत दुनिया को बदलो
 
       जीवन  केवल  गीत नहीं है, 
           गीता  की  है प्रत्याशा,
      पग-पग  जहां  महाभारत है, 
           लिखो पसीने की भाषा,
 
 हर आंसू को  जंग  न्याय की
 खुद ही लड़नी पड़ती,
 हर झुग्गी की ‘कुन्ती’ भी अब
 स्वयं भाग्य है लिखती,
         लड़ता है संकल्प युद्ध में, 
               गांडिव की झूठी आशा,
 
 'भागो मत दुनियां  को बदलो’
  सूरज  यही  सिखाता,
  हर  बेटा   है  भगतसिंह जब
  खुद मशाल बन जाता,
          सदा  सत्य  का पार्थ जीतता, 
                यही युद्ध की परिभाषा,
 
 अखबारों में रोज क्रान्ति की
 खबर खोजने  वालो,
 पर पड़ोस की  चीखें सुनकर
 छिपकर  सोने वालो.
         हर मानव खुद इन्क्लाब है, 
               हर झुग्गी की अभिलाषा,

                       १०
     
              
      
      खुशियों का डाकिया
 
      ओ   बयार   मधुऋतु  वाली 
 झुग्गी  में  भी  आना,
     शहर  गये   भैया  बसन्त  
          की चिठठी  भी  लाना, 
 
      महानगर  मे  हवा  बसन्ती
 भी आ बहक गयी,
 कैक्टस   की   बेरुखी  देख
 बेला भी सहम गयी,
     मुरझाये    छोटू  कनेर   की  
            प्यास  बुझा  जाना,
 
 गांवों    की    फुलमतिया
 कोठी  की सेवा करती,
 सुरसतिया भी  अब  किताब
 तज  पोछा  है  करती,
     मुनिया  की  बचपन बगिया भी 
          आकर      मंहकाना,
 
 खड़ा  मजूरी  की  लाइन में
 यौवन     अकुलाता,
 खुशियों  का डाकिया नहीं क्यों
 होरी    घर   आता?
      दादी  के   टूटे  चश्में   का 
             खत   भी   पहुंचाना,
 ओ   बयार  मधुऋतु   वाली 
       झुग्गी  में  भी  आना। 

    राधेश्याम बन्धु
________________   

परिचय
_______

जन्म : १० जुलाई १९४० को पडरौना उत्तर प्रदेश भारत में
लेखन : नवगीत, कविता, कहानी, उपन्यास, पटकथा, समीक्षा, निबंध
प्रकाशित कृतियाँ-
काव्य संग्रह : बरसो रे घन, प्यास के हिरन
खंडकाव्य : एक और तथागत
कथा संग्रह : शीतघर
पता : बी-३/१६३ यमुना विहार,दिल्ली ११००५३
सम्पर्क सूत्र: 9868444666

शुक्रवार, 23 अप्रैल 2021

गीत गाँव में एक गीत पर चर्चा टिप्पणी एडमिन गीत गाँव

काश शब्द की छाया में कवि नदी किनारे का वृक्ष होने की कामना करता है। यह गीत सुंदर से असाधारण तब हो उठता है जब आगे की पंक्तियों में यह भेद खुलता है कि कवि अपने चेतन अस्तित्व को लगभग नकारते हुए ऐसी जड़ अवस्था की इच्छा सिर्फ इसलिए रखता है कि वह इस स्थिति को प्रेम के अधिक अनुकूल पाता है लेकिन आगे की पंक्तियां हमें फिर चौंकाती हैं कि कवि का उद्देश्य सिर्फ अपना एकांगी प्रेमालाप नहीं बल्कि शाश्वतता से साक्षात्कार भी है। वह यह भी विश्वास रखता है कि उसके इस प्रयास का प्रतिउत्तर वह शाश्वत - सत्ता भी उसी अनुराग से देगी।
गीत की जीवन यात्रा एक सुबह जैसी इच्छा के उदय से चांदनी का पट निहारने तक की है। यह किसी व्यक्ति का अपने सम्पूर्ण अस्तित्व को तिरोहित कर अपनी बहुत सारी सुविधाओं को तजकर अपने बहुत सारे स्वार्थों से उठकर, महाविराट प्रकृति की सत्ता में अपना विनम्र स्थान पा जाने की इच्छा भर है जिसका उद्देश्य कोई महान उदाहरणीय संज्ञा हो जाने से भिन्न मैथिलीशरण गुप्त की नियति नटी का दर्शक भर हो जाना है।
यह शुद्ध प्रकृतिवाद है।

पढ़िए मनोज जैन मधुर का गीत।

काश,हम होते नदी के

काश हम होते नदी के
तीर वाले वट!

हम निरंतर भूमिका 
मिलने-मिलाने की रचाते
पाखियों के दल उतरकर 
नीड़ डालों पर सजाते

चहचहाहट सुन ह्रदय का
छलक जाता घट!
         
नयन अपने सदानीरा से मिला 
हँस -बोल लेते।
हम लहर का परस पाकर
खिलखिलाते ,डोल लेते

मन्द मृदु मुस्कान बिखराते 
नदी के तट!
       
साँझ घिरती ,सूर्य ढलता
थके पाखी लौट आते
पात -दल अपने हिलाकर
हम रूपहला गीत गाते

झुरमुटों से झाँकते हम 
चाँदनी के पट!
     
देह माटी की पकड़कर
ठाट से हम खड़े होते
जिन्दगी होती तनिक -सी
किन्तु कद में बड़े होते।

सन्तुलन हम साधते ज्यों
साधता है नट!

-मनोज जैन मधुर

गीत गाँव में एक गीत पर चर्चा टिप्पणी एडमिन गीत गाँव

काश शब्द की छाया में कवि नदी किनारे का वृक्ष होने की कामना करता है। यह गीत सुंदर से असाधारण तब हो उठता है जब आगे की पंक्तियों में यह भेद खुलता है कि कवि अपने चेतन अस्तित्व को लगभग नकारते हुए ऐसी जड़ अवस्था की इच्छा सिर्फ इसलिए रखता है कि वह इस स्थिति को प्रेम के अधिक अनुकूल पाता है लेकिन आगे की पंक्तियां हमें फिर चौंकाती हैं कि कवि का उद्देश्य सिर्फ अपना एकांगी प्रेमालाप नहीं बल्कि शाश्वतता से साक्षात्कार भी है। वह यह भी विश्वास रखता है कि उसके इस प्रयास का प्रतिउत्तर वह शाश्वत - सत्ता भी उसी अनुराग से देगी।
गीत की जीवन यात्रा एक सुबह जैसी इच्छा के उदय से चांदनी का पट निहारने तक की है। यह किसी व्यक्ति का अपने सम्पूर्ण अस्तित्व को तिरोहित कर अपनी बहुत सारी सुविधाओं को तजकर अपने बहुत सारे स्वार्थों से उठकर, महाविराट प्रकृति की सत्ता में अपना विनम्र स्थान पा जाने की इच्छा भर है जिसका उद्देश्य कोई महान उदाहरणीय संज्ञा हो जाने से भिन्न मैथिलीशरण गुप्त की नियति नटी का दर्शक भर हो जाना है।
यह शुद्ध प्रकृतिवाद है।

पढ़िए मनोज जैन मधुर का गीत।

काश,हम होते नदी के

काश हम होते नदी के
तीर वाले वट!

हम निरंतर भूमिका 
मिलने-मिलाने की रचाते
पाखियों के दल उतरकर 
नीड़ डालों पर सजाते

चहचहाहट सुन ह्रदय का
छलक जाता घट!
         
नयन अपने सदानीरा से मिला 
हँस -बोल लेते।
हम लहर का परस पाकर
खिलखिलाते ,डोल लेते

मन्द मृदु मुस्कान बिखराते 
नदी के तट!
       
साँझ घिरती ,सूर्य ढलता
थके पाखी लौट आते
पात -दल अपने हिलाकर
हम रूपहला गीत गाते

झुरमुटों से झाँकते हम 
चाँदनी के पट!
     
देह माटी की पकड़कर
ठाट से हम खड़े होते
जिन्दगी होती तनिक -सी
किन्तु कद में बड़े होते।

सन्तुलन हम साधते ज्यों
साधता है नट!

-मनोज जैन मधुर

गुरुवार, 22 अप्रैल 2021

उमाकान्त मालवीय जी के दस नवगीत प्रस्तुति वागर्थ समूह

वागर्थ में आज उमाकान्त मालवीय जी के दस नवगीत और
प्रस्तुति
वागर्थ 
सम्पादक मण्डल

_________________________________________

(१)
 
दिन बौने हो गये
_____________

रातें लम्बी हुईं
दिन बौने हो गयेT

ठिगने कद वाले दिन
लम्बी परछाइयाँ
धूप की इकाई पर 
तिमिर की दहाइयाँ

रातें पत्तल हुईं
दिन दौने हो गये

कुहरों पर लिखी गयी
बिष भरी कहानियाँ
नीली पड़ने लगी 
सुबह की जवानियाँ

रातें आँगन हुईं
दिन कौने हो गये

बर्फीले ओठों पर
शब्द ठिठुरने लगे
नाकाफी ओढ़ने 
बिछौने जुड़ने लगे

रातें अजगर हुईं
दिन छौने हो गये।

(२)

गीत एक अनवरत नदी है
--------------------------------

गीत एक अनवरत नदी है
कुठिला भर नेकी है 
सूप भर बदी है 

एक तीर तोतले घरौंदे 
खट्मिट्ठे गाल से करौंदे
नागिन की बीन
सुरसधी है ।

पत्थर के पिघलते मसौदे
पर्वत पर तुलसी के पौधे 
सावन की सुदी है
बदी है 

लहर -लहर किरण वलय कौंधे
मीनकेतु फिसलन के सौदे
अनलहक पुकार 
सरमदी है ।

(३)

हिरनी फेंके खून
---------------------

हिरनी फेंके खून
दसतपा आग न बरसा रे ।

दुबके हुए मेमने बैठे 
हाँफ रहे खरगोश
हरियाली का पता नहीं 
जा बैठी काले कोस
हन हन.पड़ती किरन
कि जैसे बरछी फरसा रे ।

प्यास डोलती दर -दर
पानी ने पाया बनवास 
अपनी प्यास पिए चल रे मन !
छाँड़ बिरानी आस 
रस्ता बिसर गए क्या बादल ?
बीते अरसा रे  !

दुपहरिया भर लू ठनके 
नाचै अगिया बैताल 
एक बेहया.झोंका 
नंगी टहनी गया उछाल 
उघरे कूल पुकारें
नदिया और न तरसा रे ।

(४)

भीड़ की जरूरत है
-------------------------
भीड़ , जो दीन हो ,हीन हो
सिर धुनती हो 
भीड़ , जो घूरे पर से 
दाना बिनती हो
भीड़ जो नायक का सगुन है , महूरत है ।

भीड़ जो जुलूस हो , पोस्टर हो ,
नारा हो 
भीड़ जो जुगाली हो ,
सींग दुम चारा हो 
भीड़ , जो बछिया के ताऊ की सूरत है

भीड़ , जो अंधी हो
गूँगी हो ,
बहरी हो
भीड़ , जो बँधे हुए 
पानी सी ठहरी हो 

भीड़ जो मिट्टी के माधो की मूरत है ।

(५)

ये कैसा देश है
-------------------

ये कैसा देश है
कैसे कैसे चलन
अंधों का कजरौटे करते अभिनंदन ।

तितली के पंखों पर
बने बहीखाते
खुशबू पर भी पहरे
बैठाए जाते
डरा हुआ रवि गया चमगादड़ की शरण ।

लिखे भोजपत्रों पर
झूठे हलफ़नामे
सारे आंदोलन हैं
केवल हंगामे
कुत्ते भी टुकड़ों का दे रहे प्रलोभन ।

चाटुकारिता से
सार्थक होती रसना
क्षुब्ध चेतना मेरी
उफ् गैरिक वसना
ज्वालामुखि बेच रहे कुल्फियाँ सरीहन 

(६)

गंगा मइया
---------------
गंगोत्री में पलना झूले
आगे चले बकइयाँ
भागीरथी घुटुरवन डोले
शैल-शिखर की छइयाँ
                       
छिन छिपती
छिन हौले किलके
छिन ता-झाँ वह बोले
अरबराय के गोड़ी काढ़े
ठमकत-ठमकत डोले                                 
घाटी-घाटी दही-दही कर
चहके सोनचिरैया
पाँवों पर पहुड़ाकर परबत
गाये खंता-खैयाँ   

पट्टी पूज रही है
वरणाव्रत की परिक्रमा कर
बालों में रूमाल फेन का
दौड़े गाये हर हर
चढ़ती उमर चौंकड़ी भरती
छूट गई लरिकइयाँ
भली लगे मुग्धा को
अपनी ही प्यारी परछइयाँ 

दिन-दिन अँगिया छोटी पड़ती
गदराये तरुणाई
पोर-पोर चटखे मादकता
लहराये अँगड़ाई
दोनों तट प्रियतम शान्तनु की
फेर रहीं दो बहियाँ
छूट गया मायका बर्फ का
बाबुल की अँगनइयाँ                   

भूखा कहीं देवव्रत टेरे
दूध भरी है छाती
दौड़ पड़ी ममता की मारी
तजकर सँग-संघाती
गंगा नित्य रँभाती
फिरती जैसे कपिला गइया
सारा देश क्षुधातुर बेटा
वत्सल गंगा मइया' 

(७)

आ गए फिर चारणों के दिन, 
लौट आए चारणों के दिन। 

सिर धुने चाहे गिरा पछताय 
फूल क्या, सौगंध भी असहाय 
तीर चुन तूणीर से गिन-गिन। 

‘मत्स्य भेदन’ तेल पर है दृष्टि 
एक फिसलन की अनोखी सृष्टि 
बीन पर लेती लहर नागिन। 

ध्वजाओं की कोर्निश दरबार 
क्रांतियाँ कर ज़ोर हाथ पसार 
दीन बन टेरें, नहीं मुमकिन। 

क़सीदे औ’ चमकदार प्रशस्ति 
सिर्फ़ एकोऽहं द्वितीयो नास्ति 
नहीं संभव, सिंह तोड़े तृण।

(८)

दिन यों ही बीत गया! 
अंजुरी में भरा-भरा जल जैसे रीत गया। 

सुबह हुई 
तो प्राची ने डाले डोरे 
शाम हुई पता चला 
थे वादे कोरे 
गोधूलि, लौटते पखेरू संगीत गया। 
दिन यों ही बीत गया! 

रौशन 
बुझती-बुझती शक्लों से ऊबा 
एक चाय का प्याला 
एक सूर्य डूबा 
साँझ को अँधेरा फिर एक बार जीत गया। 
दिन यों ही बीत गया! 

आज का अपेक्षित सब 
फिर कल पर टाला 
उदासियाँ मकड़ी-सी 
तान रहीं जाला 

तज कर नेपथ्य कहाँ, बाउल का गीत गया। 
दिन यों ही बीत गया!

(९)

नाकाफ़ी लगती है हर ज़बान 
कोई अक्षर 
कोई शब्द किसी भाषा का 
पूरा-पूरा कैसे व्यक्त करे 
क्या कुछ कहता मन का बियाबान? 

एक रहा आने की, जाने की 
घिसे-पिटे पंगु कुछ मुहावरे 
दीमक की चाटी कुछ शक्लें हैं 
बदहवास कुछ, कुछ-कुछ बावरे। 
कोई कितना ज़हर पिए कहो 
नीला पड़ गया टँगा आसमान। 

बाबा आदम से गुम हुए सभी 
तोड़ते ज़मीन कुछ तलाशते। 
रूढ़ हो गईं सारी मुद्राएँ 
अर्थ जरा-जर्जर-से खाँसते। 
कितना यांत्रिक! आदत-सा लगता 
डूब रहा सूरज या हो विहान। 

चाहे जितना कह दो फिर भी तो 
रह जाता है कितना अनकहा। 
कितनी औपचारिक हैं सिसकियाँ 
कितना रस्मी लगता कहकहा। 
अगुआता घर-घर भुतहा भविष्य 
और अप्रस्तुत लगता वर्तमान।

(१०)

कभी-कभी बहुत भला लगता है— 
चुप-चुप सब कूछ सुनना 
और कुछ न बोलना। 

कमरे की छत को 
इकटक पड़े निहारना 
यादों पर जमी धूल को महज़ बुहारना 
कभी-कभी बहुत भला लगता है— 
केवल सपने बुनना 
और कुछ न बोलना। 

दीवारों के उखड़े 
प्लास्टर को घूरना 
पहर-पहर सँवराती धूप को बिसूरना 
कभी-कभी बहुत भला लगता है 
हरे बाँस का घुनना 
और कुछ न बोलना। 

काग़ज़ पर बेमानी 
सतरों का खींचना 
बिना मूल नभ छूती अमरबेल सींचना 
कभी-कभी बहुत भला लगता है 
केवल कलियाँ चुनना 
और कुछ न बोलना। 

अपने अंदर के 
अँधियारे में हेरना 
खोई कोई उजली रेखा को टेरना 
कभी-कभी बहुत भला लगता है 
गुम-सुम सब कुछ गुनना 
और कुछ न बोलना । 

       -उमाकान्त मालवीय

उमाकांत मालवीय ( जन्म: 2 अगस्त, 1931 - मृत्यु: 11 नवम्बर, 1982) हिंदी के प्रतिष्ठित कवि एवं गीतकार थे। पौराणिक सन्दर्भों की आधुनिक व्याख्या करते हुए उन्होंने अनेकानेक मिथकीय कहानियां और ललित निबंधों की रचना की है। उनकी बच्चों पर लिखी पुस्तकें भी बेजोड़ हैं। कवि सम्मेलनों का संचालन भी बड़ी संजीदगी से किया करते थे।

जीवन परिचय
उमाकांत मालवीय का जन्म 2 अगस्त 1931 को मुंबई में हुआ उनका निधन 11 नवम्बर 1982 को इलाहाबाद में हुआ। उमाकांत मालवीय की शिक्षा प्रयाग विश्वविद्यालय में हुई। इन्होंने कविता के अतिरिक्त खण्डकाव्य, निबंध तथा बालोपयोगी पुस्तकें भी लिखी हैं। काव्य-क्षेत्र में मालवीय जी ने नवगीत विधा को अपनाया। ‘नवगीत’ आंदोलन के वे एक प्रमुख उन्नायक थे। इनका मत है कि आज के युग में भावों की तीव्रता को संक्षेप में व्यक्त करने में नवगीत पूर्णतया सक्षम है। कई कवि सम्मेलनों में उनके ‘नवगीतों’ ने बड़ी धूम मचा दी थी। इन्होंने प्रयोगवाद और गीत-विद्या के समन्वय का प्रयत्न किया, जो एक ऐतिहासिक महत्व का कार्य था। उन पर एक स्मारिका भी निकाली है।

कविता संग्रह
मेहँदी और महावर, 'सुबह रक्त पलाश की', 'एक चावल नेह रींधा' जैसे नवगीत संग्रहों में उनकी रागात्मकता और जनसरोकारों को अलग से रेखांकित किया जा सकता है। डॉ. शम्भुनाथ सिंह उन्हें नवगीत का भागीरथ कहा करते थे। गीत-नवगीत के प्रस्थान बिंदु पर वह अलग से किनारे पर खड़े पेड़ नजर आते हैं। उमाकांत जी को निःसंकोच नवगीत का ट्रेंड सेटर रचनाकार कहा जा सकता है।

`मेहंदी और महावर'
`देवकी'
`रक्तपथ'
'एक चावल नेह रींधा'
'सुबह रक्तपलाश की'
निधन
51 वर्ष की अल्पायु में 19 नवम्बर 1982 को नवगीत का यह सूर्य अस्त हो गया।

उमाकान्त मालवीय जी के दस नवगीत प्रस्तुति समूह वागर्थ विशेष टीप अनामिका सिंह

इस दुष्कर समय में जो भी परिचित अपरिचित हमारा साथ छोड़ गए , उनके प्रति वागर्थ  अपनी गहरी संवेदनाएँ व्यक्त करता है ।  समय कितना भी कठिन रहा हो साहित्य की  विशेष भूमिका रही है , अतः वागर्थ का प्रयास है इस विषम समय में हम सभी की सकारात्मकता व निरन्तरता बनी रहे ..... 

      इसी क्रम में वागर्थ में आज उमाकांत मालवीय जी के गीत

#ज़िंदगी_नेपथ्य_में_गुजरी_मंच_पर_की_भूमिका_तो_सिर्फ़_अभिनय_है 

बम्बई में जन्मे उमाकांत मालवीय जी की शिक्षा प्रयाग विश्वविद्यालय में हुई। इन्होंने कविता के अतिरिक्त खण्डकाव्य, निबंध तथा बालोपयोगी पुस्तकें भी लिखी हैं। काव्य-क्षेत्र में उमाकांत मालवीय जी ने नवगीत विधा को अपनाया। उनका मत रहा कि आज के युग में भावों की तीव्रता को संक्षेप में व्यक्त करने में नवगीत पूर्णतया सक्षम है । उनके गीतों में उनके व्यक्तित्व का स्वाभिमानी पक्ष स्पष्ट दृष्टिगत है । इस तथ्य से कोई इन्कार नहीं कर सकता कि हर इन्सान की विशिष्ट कार्यशैली होती है जिसमें वह सहज रूप से अपना श्रेष्ठ प्रतिदान दे सकता है किसी अन्य की बनाई हुई लीक पर चलने में उसे असुविधा व असहजता का सामना करना पड़ेगा ।  उमाकांत मालवीय जी ने // मैं तुम्हारे चरण चिन्हों पर चलूँ , ऐसा दुराग्रह क्यों , ऐसी दुराशा क्यों //  किस मनोस्थिति में लिखा होगा किन्तु व्यक्तिगत अनुभवों से सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है कि उनकी भी समझ व कार्यशैली को हैक्ड करने के असफल प्रयास हुए होंगे ..
और उनका यह नवगीत आज भी उतना ही तरोताज़ा और प्रासंगिक है ।

" झण्डे रह जाएँगे आदमी नहीं " पढ़कर कोई भी उनकी दृष्टि का कायल हुए बिना नहीं रह सकता । लगता है कि यह गीत आज ही उन्होंने रचा हो ।
     उनके गीतों में आज के परिदृश्य का सटीक अंकन है । यही उनकी रचनाधर्मिता की विशेषता है कि उनके रचे गीत आज भी उतने ही प्रासंगिक हैं ।  
 
  भूख प्यास घर -घर रीते
  जूठे बासन खँगारती
  यात्राएँ दिशाहीन हैं
  बिके एक -एक सारथी 

  बदनीयत करों से भविष्य की 
  वल्गाएँ छूटें तो कैसे ।

       उमाकांत मालवीय जी की पावन स्मृतियों को वागर्थ नमन करता है .....

                                                    प्रस्तुति 
                                                ~।।वागर्थ ।।~
                                                संपादन मण्डल 

________________________________________________

(१)

मैं तुम्हारे चरण चिन्हों पर चलूँ
मैं तुम्हारे दिए साँचे में ढलूँ
ऐसा दुराग्रह क्यों 
ऐसी दुराशा क्यों 

अनुकरण अनुसरण से यदि दूर हूँ
यह न भ्रम हो दर्प मद से चूर हूँ
भीख में पाए उजाला सूर्य से 
मैं निकम्मे चन्दर्मा सा ही जलूँ

और कल की जूठनों पर ही पलूँ 
ऐसा दुराग्रह क्यों 
ऐसी दुराशा क्यों 

भूमिका कल की बड़ी थी मानता
आज को जो दाय वह भी जानता
दूँ दुहाई सदा स्वर्ण अतीत की
मूँग छाती पर दिवंगत की दलूँ

आज का दायित्व कंधों पर न लूँ
ऐसा दुराग्रह क्यों
ऐसी दुराशा क्यों

(२)

ज़िंदगी नेपथ्य में गुजरी
मंच पर की भूमिका 
तो सिर्फ़ अभिनय है 

मूल से कटकर रहे
परिशिष्ट में
एक अंधी व्यवस्था की दृष्टि में
ज़िंदगी तो कथ्य में गुजरी 
और करनी  ?
प्रश्न से आहत अनिश्चय है 

क्षेपकों के हाशियों के लिए हम 
दफ्न  होते कागजी ताजिए हम 
ज़िंदगी तो पथ्य में गुजरी 
और जन परहेज का बीमार संशय है ।

(३)

प्रतिश्रुत हूँ जीने को 
कुछ थोड़े आँसू को 
ढेर से पसीने को 

मीरा सुकरात और 
शंभु की विरासत
सादर सिर आँखोँ पर 
लेने की आदत 

अमृत मिले न मिले 
किन्तु जहर पीने को 

पत्थर पर घन प्रहार 
बड़ी अजब है सूरत
आघातों से उभरी
आती है मूरत 

चोट खा निखरने के 
सहज कटु 
करीने को

झेलूँगा जून के 
धूल भरे बवंडर
सह लूँगा आए जो
ठिठुरता दिसंबर 

कैसे भूलूँ सावन
फाग के महीने को

(४)

एक चाय की चुस्की
एक कहकहा
अपना तो इतना ही सामान रहा

चुभन और दर्शन 
पैने यथार्थ के 
पग- पग पर घेर रहे
प्रेत स्वार्थ के 

भीतर ही भीतर 
मैं बहुत ही दहा
किन्तु भूले से कुछ नहीं कहा

एक अदद गंध 
एक टेक गीत की 
बतरस भीगी संध्या 
बातचीत की 

इन्हीं के भरोसे क्या -क्या नहीं सहा
छू ली है एक नहीं सभी इन्तिहा

एक कसम जीने की 
ढेर उलझनें
दोनों गर नहीं रहे
बात क्या बने

देखता रहा सब कुछ सामने खड़ा
मगर किसी के कभी चरण नहीं पड़ा

(५)

झण्डे रह जाएँगे
आदमी नहीं
इसलिए हमें सहेज लो ममी सही

जीवित को तिरस्कार 
पूजें मकबरे 
रीति यह तुम्हारी है
कौन क्या करे 

ताजमहल , पितृपक्ष , श्राद्ध सिलसिले 
रीति यह अभी नहीं कभी थमी नहीं

शायद कल मानव की 
हों न मूरतें
शायद कल हमीं रह जाएँ सूरतें

आदम की शक्लों की यादगार हम 
इसलिए हमें सहेज लो डमी सही 

पिरामिड अजायबघर 
शान हैं हमीं
खूब देखभाल लो 
ज़रा कमी नहीं 

प्रतिनिधि हम गत आगत दोनों के हैं
पथराई आँखों में है नमी कहीं

(६)

बालू से तेल तुम निचोड़ेगे कब
शब्दवेधी वाण तुम छोड़ोगे कब तक 

दिशा दिशा से उठते
तैरते अँधेरों में
दिए और जुगनू की 
हत्या के घेरों में

दोपहरी में सूरज 
तोड़ोगे?  कब तक ?

इतिहासों को झुठलाती
हुई किताबों पर 
अचकन में टँके हुए 
ढीठ कुछ गुलाबों पर 

धधकते हुए सच को 
मरोड़ेगे कब तक 

बहलाओगे कोरे 
नारों से मंत्रों से 
परिचित हो चले सभी 
घिनहे षणयंत्रों से

बढ़ते सैलाबों को 
मोड़ोगे कब तक

(७)

सील गई धुधुआती आग में 
ज्वालाएँ फूटें तो कैैसे

घुटनों में सिर छिपे हुए
कुण्ठाओं के निदान है 
कुहरों में गर्क घर  हुए 
स्थगित हो गए विहान हैं

आस्था भक्षी अंधी मूरतें 
प्रतिमाएँ टूटे तो कैसे

भूख प्यास घर -घर रीते
जूठे बासन खँगीरती
यात्राएँ दिशाहीन हैं
बिके एक -एक सारथी

बदनीयत करों से भविष्य की 
वल्गाएँ छूटे तो कैसे 

पौरुषेय उद्बोधन भी 
प्रतिनिधि बन लौट चले हैं
ऐसे अस्तित्वों की
अनस्तित्व लाख भले हैं

कैद मुट्ठियों में जो हो गईं 
उल्काएँ छूटे तो कैसे

(८)

महुआ का मद
फिर पलाश की आँखों में उतरा ।

यह कैसा गुलाल 
वन - वन के
अँग अँग छितरा 

एक कुँवारी हवा
छिऊल के तन पर लहराती
छाँव , तने से हिरनी
अपना माथा खुजलाती

टेसू के ठसके 
क्या कहने
कैसा घम बदरा 

शोणभद्र के बीच धरी
तहियाई चट्टानें
अठखेलियाँ कर रहीं लहरें
भरती हैं तानें
अँगो की उभरन , सौ नखरे
चलती है इतरा 

काले कमल सरीखे पत्थर 
गोपद बीच खिले
फूलों से ज्यादा यह सुन्दर
पाहन मुझे मिले

फेनों की उजरौटी 
श्यामल पाहन चितकबरा

(९)

सूर्य कभी कौड़ी का तीन नहीं होगा 
--------------------------------------------

सूर्य , 
कभी कौड़ी का तीन नहीं होगा ,

जन्म से मिली जिसको 
कठिन अग्निदीक्षा
उसको क्या है
संकट ,चुनौती , परीक्षा 
सोना तो सोना है,
टीन नहीं होगा 

लपटों के पलने में
जनम से पला है
सुलगती सचाई 
की ध्वजा ले चला है 
तिल तिल कर ढले, मगर हीन नहीं होगा ।

दर्द , बड़े ,छोटे हों 
या कि हों मँझोले
विज्ञापित नहीं किए
टीसते फफोले 

ग्रहण लगेगा तो भी
दीन नहीं होगा ।

(१०)

गीत एक अनवरत नदी है
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गीत एक अनवरत नदी है
कुठिला भर नेकी है 
सूप भर बदी है 

एक तीर तोतले घरौंदे 
खट्मिट्ठे गाल से करौंदे
नागिन की बीन
सुरसधी है ।

पत्थर के पिघलते मसौदे
पर्वत पर तुलसी के पौधे 
सावन की सुदी है
बदी है 

लहर -लहर किरण वलय कौंधे
मीनकेतु फिसलन के सौदे
अनलहक पुकार 
सरमदी है ।

           ~ उमाकांत मालवीय
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परिचय 
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नाम - उमाकांत मालवीयजन्म २ अगस्त, १९३१जन्म मुंबई, महाराष्ट्रमृत्यु 
११नवम्बर, १९८२ मृत्यु स्थान इलाहाबाद, 
उत्तर प्रदेश कर्म-क्षेत्रकवि एवं गीतकार मुख्य रचनाएँ'मेहंदी और महावर', 'देवकी', 'रक्तपथ', 'एक चावल नेह रींधा', 'सुबह रक्तपलाश की'भाषा हिंदीनागरिकताभारतीयअन्य जानकारी‘ ।

ज़हीर कुरैशी जी के तीन नवगीत प्रस्तुति समूह वागर्थ

विनम्र श्रद्धांजलि
____________

प्रख्यात हिन्दी गजलकार ज़हीर कुरैशी जी का जाना मेरे लिए व्यक्तिगत क्षति है , कारण वह हमारे गाँव के पास के थे और वैसी ही आत्मीयता अपनापन मुझे अंत तक देते रहे , जैसा कि हम सब जानते हैं कि जहीर कुरैशी जी ने अपने साहित्यिक कैरियर का आगाज नवगीतों से किया था और उनकी इस प्रतिभा के चलते डॉ शंभुनाथ सिंह जी ने उन्हें नवगीत दशक -3 और अर्धशती में शामिल किया था , परन्तु नवगीत विधा की सीमाओं को देखते हुए जल्दी ही उनका नवगीत से मोहभंग हो गया तदुपरान्त उन्होंने हिन्दी गजल का दामन थाम लिया । हिन्दी गजल पर ज़हीर कुरैशी जी के शोधपरक और उल्लेखनीय कार्य ने उन्हें अंतराष्ट्रीय स्तर पर हिन्दी गजल का आइकॉन बना दिया। उन्होंने नवगीत,  दोहे , संस्मरण , कहानियां भी जमकर लिखे । हिन्दी की तमाम स्तरीय पत्रिकाओं में उन्हें भरपूर स्पेस मिला।
जैसा की समूह वागर्थ की अपनी अभिनव कार्यशैली यही रही है कि वह अपने प्रिय और आत्मीय रचनाकार को उनके कृतित्व पर चर्चा करके उन्हें अश्रुपूरित श्रद्धांजलि अर्पित करता आया है। 
आइए पढ़ते हैं 
ज़हीर कुरैशी जी के तीन नवगीत
साथ ही उन्हें विनम्र अश्रुपूरित श्रद्धांजलि
_______________________________

प्रस्तुति
वागर्थ
सम्पादक मण्डल

1
गलत पते का खत
______________
गलत पते का खत 
बंजारों से चले 
पीठ पर लादे अपना घर 

मीलों लंबा सफर 
योजनों लंबा जीवन है,
लेकिन, उसके साथ 
भ्रमित पंछी जैसा मन है 
गलत पते के खत- से
भटक रहे हैं इधर-उधर 

दूर तलक फैले मरुथल में
है असीम मृग -छल 
इसको पागल मृग क्या समझे 
क्या छल है क्या जल 
जहां प्यास है
 वहां समझ पर पड़ते हैं पत्थर 

जागी आंखों के सपनों से 
बचते रहे नयन
सोयी आंखों के सपनों में 
रमा हुआ है मन

पलकों को भाता है
तकिया नींद,नरम,बिस्तर

2

असली चेहरा याद नहीं
__________________

भीतर से तो हम श्मशान हैं
बाहर मेले हैं।

कपड़े पहने हुए
स्वयं को नंगे लगते हैं
दान दे रहे हैं
फिर भी भिखमंगे लगते हैं
ककड़ी के धोखे में
बिकते हुए करेले हैं

इतने चेहरे बदले 
असली चेहरा याद नहीं
जहां न हो अभिनय हो
ऐसा कोई संवाद नहीं 
हम द्वंदों के रंगमंच के 
पात्र अकेले हैं 

दलदल से बाहर आने की 
कोई राह नहीं 
इतने पाप हुए 
अब पापों की परवाह नहीं
हम आत्मा की नजरों में 
मिट्टी के ढेले हैं 

3

आत्म-परिचय का गीत

हम स्वयं से भी 
अपरिचित हो गए हैं 

रास्ते हैं 
और उनकी दूरियां हैं 
दूरियों की भी 
अलग मजबूरियां हैं 
हम भटकते रास्तों में 
खो गए हैं

वासनाएं
जिन्दगी से भी बड़ी हैं
प्यास बन कर 
उम्र की छत पर खड़ी हैं
तृप्ति के पथ पर 
मरुस्थल हो गए हैं

पांव पीछे 
लौट जाना चाहते हैं
लौटकर
धूनी रमाना चाहते हैं 
विगत पथ पर 
लोग कांटे बो गए हैं

जहीर कुरैशी
__________

परिचय
ज़हीर कुरैशी
जन्मतिथि-  05 अगस्त,1950
हिन्दी गजल पर उल्लेखनीय काम 
जन्मस्थान -चंदेरी( जिला अशोकनगर, म०प्र०)
निधन - 20 अप्रैल 2021

शनिवार, 17 अप्रैल 2021

वरिष्ठ नवगीतकार जय चक्रवर्ती जी के बारह नवगीत और एक टिप्पणी प्रस्तुति समूह वागर्थ

~।।वागर्थ ।। ~ 

      में आज प्रस्तुत हैं जन की पीड़ा के गायक नवगीतकार : जय चक्रवर्ती जी  के बारह नवगीत ।

_______________________________________________

     इसे महज संयोग ही कहूँगा कि जब मैं वरेण्य नवगीतकार जय चक्रवर्ती जी के नवगीतों से गुजर रहा था तभी  भोपाल के वरिष्ठ रचनाकार रमेश नन्द जी ने राग भोपाली के प्रमुख सम्पादक शैलेंद्र शैली जी की एक पोस्ट उस समय साझा की , जब मुझे इनके  नवगीतों पर कुछ अनूठे ढंग से लिखने के लिए अपने मानस को तैयार करना था ।  जय चक्रवर्ती जी के नवगीतों की रचना प्रक्रिया की पड़ताल करने में शैलेंद्र शैली जी की पोस्ट पाठक की मदद करती है और साथ ही हमें नूतन दृष्टि प्रदान करती है ।

पोस्ट का शीर्षक था..

 #अविस्मरणीय_सृजन_की_चुनौतियां"  
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जो यहाँ अविकल प्रस्तुत है । 

    " प्रत्येक रचनाकार के मन में यह इच्छा जरूर होती है कि वह कुछ ऐसा अवश्य ही लिख सके जो यादगार हो ,जो उसकी पहचान बने तथा जिसके लिए उस रचनाकार को सदैव याद किया जाए । इस तरह का अविस्मरणीय सृजन किसी भी रचनाकार के लिए सबसे बड़ी चुनौती होती है । इस चुनौती से जूझना आसान नहीं है । किसी भी अविस्मरणीय सृजन के लिए व्यापक मानवीय मूल्यों के प्रति गहरी प्रतिबद्धता से प्रेरित विश्व दृष्टि बेहद जरूरी है । इसके लिए साहित्य को मशाल की तरह थामना होता है । अभिव्यक्ति के खतरे उठाने होते हैं । सत्ता के प्रतिपक्ष की भूमिका का निर्वहन करना होता है ।मानवीय मूल्यों , मानव अधिकार ,सामाजिक न्याय और लोकतंत्र की रक्षा के लिए किए जा रहे जन आंदोलनों के प्रति अपनी पक्षधरता को अभिव्यक्त करना होता है । अंध विश्वासों ,प्रतिगामी प्रवृत्तियों और रूढ़ियों से जूझते हुए तर्क संगत विचारों को अर्जित करना होता है ।    
      धर्म ,जाति ,नस्ल ,भाषा और क्षेत्र से जुड़ी संकीर्णताओं का कड़ा प्रतिरोध करना होता है । युद्ध के उन्माद के खिलाफ विश्व शांति के प्रति अपनी प्रतिबद्धता को अभिव्यक्त करना होता है । इन कसौटियों पर खरा उतरने पर ही रचनाकार विश्व नागरिक बनकर ही अविस्मरणीय सृजन कर सकता है । "
       राग भोपाली के ख्यात सम्पादक शैलेन्द्र शैली जी की परिभाषा के निकष पर वरिष्ठ नवगीतकार जय चक्रवर्ती जी के प्रस्तुत नवगीत सौ फीसदी खरे उतरते हैं ।
                    जय चक्रवर्ती जी के प्रस्तुत नवगीत अपने समय की विडम्बनाओं और अन्यायों की तात्कालिकता या समकालिकता से आगे बढ़कर जीवन के मूलभूत आशयों की संवेदना के विस्तार को सघनता में व्यक्त करते हैं ।
   उनके पास सम्पन्न दृष्टि है साथ ही सुनिश्चित किया हुआ गन्तव्य भी इस आशय के आस्वाद का पता अन्यत्र कहीं और नहीं अपितु उनके एक नवगीत में ही मिलता है कथन की पुष्टि के लिए  द्रष्टव्य हैं उनके एक नवगीत से कुछ पँक्तियाँ.....

पथ मेरा रोको मत भाई!
मुझको-
बहुत दूर जाना है.

नदिया नाले वन पर्वत मरु
ये सब
मुझे पार करने हैं
और शाम होने से पहले
लक्ष्य-द्वार पर 
पग धरने हैं

अभी नहीं आना जम्हाई
मुझको
बहुत दूर जाना है ।

प्रस्तुत १२  नवगीत उन्हें अपने समय के अन्य नवगीतकारों से दृष्टि सम्पन्नता के चलते अलग पंक्ति में खड़ा करता है , जिन्होंने रचा तो बहुत पर सुस्पष्ट समझ विचारधारा और दृष्टि सम्पन्नता के अभाव के चलते अपनी कोई ठोस जमीन अभी तक तैयार नहीं कर सके। 
           समूह  वागर्थ इस अनूठे रचनाकार को प्रस्तुत कर प्रसन्नता का अनुभव करता है और उन्हें बधाइयाँ प्रेषित करता है ।

प्रस्तुति
वागर्थ
सम्पादक मण्डल
_________________

जय चक्रवर्ती के नवगीत
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(१) राजा के दुष्कर्मों का फल
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राजा के दुष्कर्मों का 
फल प्रजा भोगती है.

ओढ़े हुए मौत 
आती हैं नित-नित विपदाएं.
नुक्कड़-नुक्कड़ जश्न मनातीं
हिंसा-हत्याएं.
जयकारों के स्वर में डूबी
जन गण की चीखें-
खुद ही कहती-खुद ही सुनती
अपनी पीड़ाएं.

भूख-गरीबी बूँद-बूँद 
खुद को निचोड़ती है.

अंहकार की सत्ता रहती है
आँखें मींचे.
न्याय नियम कानून सिसकते
बूटों के नीचे.
फूलों की हर तरफ़ 
झूठ पर बारिश होती है-
सच मरता- सड़ता है रोज 
सींखचों के पीछे.

संविधान की देवी लज्जित
साँस तोड़ती है.

सिंहासन की परिक्रमा में
सूरज रहता है.
बस्ती-बस्ती अँधियारों का 
दरिया बहता है.
सपनों का सौदागर
'बुलेट प्रूफ' के पीछे से-
मरघट की ज्वालाओं को
दीवाली कहता है.

सदियों-सदियों रात
प्रात की वाट जोहती है.

(२) क्यों नहीं अब टूटतीं
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क्यों नहीं अब टूटतीं
आखिर-
फ़िजा़ओं पर जड़ी ये चुप्पियाँ?

क्यों न जाने अब 
हमारा खून 
पानी हो गया है.
वक़्त का
हर पल सज़ा की 
इक कहानी  हो गया है.

क्यों नहीं उठतीं
शिखर के 
अमर्यादित आचरण पर उँगलियाँ ?

हो गए हैं -
देशद्रोही 
प्रश्नवाचक चिन्ह सारे.
व्याकरण संवाद का
कोई यहाँ
कैसे सँवारे.

और हिस्से में 
सवालों के कहाँ तक
रहेंगी पाबंदियाँ?

झपटते हैं 
एक सच पर झूठ के
सौ सौ शिकारी.
आचरण की संहिता के
रचयिता हैं
दुराचारी.

कहाँ तक ले जाएंगी
पाखण्ड को 
अब धर्म की बैसाखियाँ ?

(३) बंद करो ये लिखना-विखना
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सच लिखने से डर लगता है?
बंद करो, 
ये लिखना- विखना !

कब तक गाओगे -
' मुखड़ा है 
चाँद का टुकड़ा'
देखा है क्या 
मुखड़े के पीछे का 
दुखड़ा 

दरबारों में 
लोट लगाते रहना है तो-
छोड़ो ये कवि जैसा दिखना !

दुःख में, पीड़ा में, 
चिन्ता में
बोलो-कब-कब मुस्काये हो
जो औरों से कहते हो,
क्या-
खुद भी वह सब कर पाये हो

पहले तो अपने को बाँचो
फिर 
दुनिया पर कविता लिखना!

पैदा करो 
एक चिनगारी प्रतिरोधों की-
संवेदन की
और दहकने दो भट्ठी
पल-प्रतिपल
अपने अंतर्मन की 

सीखो कविवर ,
इस भट्ठी में सुबह-शाम
रोटी-सा सिंकना ।

(४)पथ मेरा रोको मत भाई
----------------------------------

पथ मेरा रोको मत भाई!
मुझको-
बहुत दूर जाना है.

नदिया नाले वन पर्वत मरु
ये सब
मुझे पार करने हैं
और शाम होने से पहले
लक्ष्य-द्वार पर 
पग धरने हैं

अभी नहीं आना जम्हाई
मुझको
बहुत दूर जाना है.

अग्नि परीक्षाओं में
दहतीं तिल-तिल कर
सच की सीताएं
पग-पग बाँट रहीं सम्मोहन
छल-छंदों की 
सूर्पनखाएं

साथ निभाना ओ सच्चाई!
मुझको
बहुत दूर जाना है.

सुख के सपनों की गलियों में
या फिर-
फूलों में-कलियों में
पाकर साथ मदिर-गंधों का
खो जाऊँ 
मैं रँगरलियों में

मत करना इतनी पहुनाई
मुझको
बहुत दूर जाना है.

(५) मैं दुःख का जश्न मनाऊँगा 
--------------------------------------

तुम दरबारों के गीत लिखो
मैं जन की पीड़ा गाऊँगा.

लड़ते-लड़ते तूफानों से
मेरे तो युग के युग बीते
वीभत्स अभावों का साया
आकर हर रोज डराता है.
मैं क्या जानूँ सोने-से दिन
क्या जानूँ चाँदी-सी रातें
जो भोग रहा हूँ रात-दिवस
मेरा तो उससे नाता है.

तुम सोने-मढ़ा अतीत लिखो
मैं अपना समय सुनाऊँगा.

जो भोगा पग-पग वही लिखा
जैसा हूँ मुझमें वही दिखा
मैं कंकड़-पत्थर-काँटों पर
हर मौसम चलने का आदी.
वातानुकूल कक्षों में शिखरों-
की प्रशस्ति के तुम गायक
है मिली हुई जन्मना तुम्हें
कुछ भी करने की आजादी.

तुम सुख-सुविधा को मीत चुनो
मैं दुःख का जश्न मनाऊँगा.

आजन्म रही मेरे हिस्से
निर्मम अँधियारों की सत्ता
मुझ पर न किसी पड़ी दृष्टि
मैं अनबाँचा अनलिखा रहा.
मुस्तैद रहे हैं मेरे होंठों पर 
सदियों- सदियों ताले
स्वर अट्ठहास के गूँज उठे
जब मैंने अपना दर्द कहा.

तुम किरन-किरन को क़ैद रखो
मैं सूरज नया उगाऊँगा .

(६) शर्तों पर मैं गा न सकूंगा
-----------------------------------

नहीं, तुम्हारी शर्तों पर
मैं गा न सकूंगा

मैं पंछी हूँ,
बादशाह हूँ अपने मन का
डर न किसी का
और न भूखा हूँ कंचन का

मैं दर्पन हूँ,
सच को मैं झुठला न सकूँगा.

रहा अभावों का
सिर पर जीवन-भर साया
दरबारों को मगर न मैंने
शीश झुकाया

मर जाऊँगा,
तलवे मैं सहला न सकूँगा.

गाता हूँ मैं गीत 
पसीने की बहार के
संघर्षों से, दुख से
पग पग अमर प्यार के

पीड़ा का स्वर हूँ,
मैं तुमको भा न सकूँगा.

रहा सर्जना के पथ पर
मैं निपट अकेला
रास न आया -
क्षण भर भी दुनिया का मेला

समझौतों के साथ
कभी मैं जा न सकूँगा ।

(७)
तुम अँग्रेजी बुलडॉग
और हम
पन्नी खाती गायें.

चरण चाट कर, पूँछ हिला कर
तुम 
महलों में सोते
हम दर-दर अपनी लाशें
अपने-
कंधों पर ढोते

तुम उड़ो हवा के संग
और हम
डग-डग डपटे जायें.

चाहे जिस पर भौंको,
काटो
दौड़ाओ, गुर्राओ
जहाँ मन करे छीनों-
झपटो,
लूटो, मारो, खाओ

तुम टूटो बन कर मौत
और हम
भागें दायें-बायें.

संविधान, कानून, कोर्ट
सब
फेल तुम्हारे आगे
करते  तुम हो, लेकिन-
हरदम
भरते हमीं अभागे

तुम खेलो अपने खेल
और हम
लाठी-गोली खायें ।

(८)
घिर गए हैं एक डर से
हम चतुर्दिक
समझ में आता नहीं है
अब किधर जाएं!

जा रहे हैं मीत अनगिन
छोड़कर 
असमय-अचानक
और हम 
अभिशप्त हैं-दुःख भोगने को 
यह भयानक

हैं फिज़ाओं में 
अहर्निश-
सिर्फ़ दहशत की कथाएं.

डोर जिनके हाथ है
 वे 
दरअसल बहुरूपिए हैं
आदमी की 
शक्ल ओढ़े कोबरा हैं-
भेड़िए हैं

फन निकाले-
हरी, नीली, 
लाल, केसरिया ध्वजाएं.

बताते थे जो
 प्रजा को कल तलक 
बिल्कुल निरापद
मंत्री,राजा, सिपाही
आज 
सबके सब नदारद

जल रही हैं
दृष्टि में हर ओर
सपनों की चिताएं ।

(९)
राजा तो राजा होता है

राजा दूध-धुला रहता है
बिल्कुल खुला-खुला रहता है
क़ातिल,डाकू,चोर, लुटेरे-
सबसे मिला-जुला रहता है.

प्रतिबंधों की दीवारों में
राजा दरवाज़ा होता है.

राजा जाल नये बुनता है
नहीं किसी की वह सुनता है
मुंसिफ,मजलिस,जाँच,मुकदमा
अपनी मर्ज़ी से चुनता है.

राजा को आने वाले हर पल का 
अंदाज़ा होता है.

राजा के हैं शौक निराले
साँप भेड़िए सब हैं पाले
बहुत बड़ा है मुँह राजा का-
जिसको जब चाहे तब खा ले.

सबको डर में रखकर -
राजा स्वयं तरोताज़ा होता है.

(१०)

भीड़ हैं हम
और हमारी ओर बंदूकें तनी हैं
जान दे दें या उठाकर हाथ
जयकारे लगायें !

हर तरफ़ से हर किसी की
मौत का ओढ़े कहर
गूँजता है फ़िज़ाओं में 
एक कोरस हर प्रहर

भूख से बेहाल -
कंधों पर बिठा कर दुधमुंहे को
चतुर्दिक खुशहालियों के
ढोल पीटें-गीत गायें .

राष्ट्रभक्ति के अहर्निश 
नए नाटक चल रहे
दृश्य में हैं नग्न-प्रहसन
श्रव्य में बस कहकहे

विदूषक की हर अदा पर
फिदा होकर
हैं जहाँ हम खड़े होकर वहीं से
ताली कभी थाली बजायें.

रास्तों को सौंप कर
कुछ आँधियाँ कुछ स्याहियाँ
बाँध दीं हैं नियति ने
हर पाँव में चिनगारियाँ

डालकर तेज़ाब आँखों में
ढकेले जा रहे हम
मौत के अंधे कुएं में
किस तरह खुद को बचायें।

(११)
हमें मालूम  है साहब 
___________________

तुम्हारी प्राथमिकताएं
हमें 
मालूम हैं साहब!

हमारा भूख से मरना
तुम्हें
विचलित नहीं करता
विवश,लाचार रूहों को
डराती है-
ये बर्बरता

तुम्हारी भग्न-चिन्ताएं
हमें
मालूम हैं साहब!

हकीकत देखना-सुनना
तुम्हें
कब रास आता है
घृणा, पाखंड
छल, षड्यंत्र से आद्यंत
नाता है

तुम्हारी व्यूह रचनाएं
हमें
मालूम हैं साहब!

नहीं इंसान से तुमको
मोहब्बत
पत्थरों से है
नदी से दुश्मनी है
दोस्ताना-
सागरों से है

तुम्हारी वास्तविकताएं
हमें
मालूम हैं साहब!

(१२)

वक़्त बुरा पहले भी था
पर-
इतना बुरा न था.

आसमान का 
षड्यंत्रों से गहरा
नाता है
धरती के दुःख पर
सूरज
कहकहे लगाता है

ऊँचाई का अर्थ
हमेशा-
इतना गिरा न था.

धर्मों की कारा में
बंदी
शब्द प्रार्थना के
गूँज रहे हैं
मंत्र परस्पर कुटिल-
कामना के

प्रेम-प्यार का राग
कभी-
इतना बेसुरा न था.

मसनद 
जिनकी है मजलूमों के
कंकालों पर
जड़े उन्होंने कदम-कदम
प्रतिबंध
सवालों पर

सिंहासन का शीश
कभी-
इतना सिरफिरा न था।

   ~ जय चक्रवर्ती
________________________________________________

परिचय 
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जय चक्रवर्ती
-----------------
जन्म: १५ नवंबर, १९५८
कन्नौज, उत्तर प्रदेश
शिक्षा :  
-हिन्दी साहित्य में परास्नातक
-मैकेनिकल इंजीनियरिंग में डिप्लोमा

प्रकाशित कृतियां:

  (१)  संदर्भों की आग
  (२)  ज़िन्दा हैं आँखें अभी

  ( दोनों दोहा संग्रह)

(३)थोड़ा लिखा समझना ज़्यादा
(४)ये अँधेरों का समय है

( दोनों नवगीत संग्रह)

(५)हमारे शब्द बोलेंगे
  ( मुक्तक संग्रह)

- वर्ष २००० के बाद के राष्ट्रीय स्तर पर प्रकाशित लगभग सभी प्रतिष्ठित दोहा एवं नवगीत संकलनों में रचनाएं संकलित.
दैनिक जागरण, राष्ट्रीय सहारा,अमर उजाला, हिन्दुस्तान, अक्षर पर्व, साहित्य अमृत, राष्ट्र धर्म, साक्षात्कार, समकालीन भारतीय साहित्य ,अलाव, मंतव्य, साहित्य भारती,आजकल  सहित अनेक पत्र-पत्रिकाओं में रचनाओं का नियमित प्रकाशन.
आकाशवाणी के लखनऊ एवं जमशेदपुर केन्द्रों से काव्यपाठ अखिल भारतीय कवि सम्मेलनों में काव्य पाठ एवं मंच संचालन.अनेक साहित्यिक संस्थाओं से पुरस्कृत एवं सम्मानित.
संप्रति : भारत सरकार के सार्वजनिक प्रतिष्ठान आई टी आई लिमिटेड , रायबरेली में वरिष्ठ राजभाषा अधिकारी के पद से स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति के पश्चात स्वतंत्र लेखन.
संपर्क : एम.1/149, जवाहर विहार, रायबरेली -10

रविवार, 11 अप्रैल 2021

मनोज जैन का एक बाल गीत

एक और बाल गीत
______________

 बात हमारी
       पूरी हो
 मोबाइल से 
       दूरी हो

             साध्य नहीं 
          यह साधन है
               न ही यह 
              नारायन है
           क्या है इसमें
                 ऐसा जी
               जो इतना
            मनभावन है

     देखें इसको
      जी भरकर
 जब जब बहुत
       जरूरी हो

              यह भी एक
                  महामारी
               मजबूरी या
                    लाचारी
                चस्का बुरा 
                 इसे छोड़ो
           समझा समझा 
                    माँ हारी

  सजा दिलाए 
     इसकी जो
      ऐसी कोई
         जूरी हो

                  रिश्ते कभी 
                    अटूट रहे
              वे सब के सब 
                       छूट रहे
                  नेट कम्पनी 
                     वाले सब 
                      मिलकर 
               चाँदी कूट रहे

    झाँको बाहर 
         भाई जी
     सन्ध्या जब 
        सिंदूरी हो

                    हमसे बचपन
                         छीन रहा
                          बना हमें 
                     यह दीन रहा 
                      जड़ से जुड़े
                           हुए दादू
                       उनका यही 
                       यकीन रहा

     
        चलो चलें
   उस झरने पर
    जिसकी धुन 
       सन्तूरी हो

    ©मनोज जैन

डॉ शंभुनाथ सिंह जी के नवगीतप्रस्तुति : वागर्थ समूह

#सोनहँसी_हँसते_हैं_लोग_हँस_हँसकर_डसते_हैं_लोग

~।। वागर्थ ।। ~

    में आज प्रस्तुत हैं नवगीत के उन्नायक शंभुनाथ सिंह जी के नवगीत 

शंभुनाथ सिंह जी का जन्म  १७ जून १९१६  को गाँव रावतपुर  जिला देवरिया, उत्तर प्रदेश में हुआ । वे नवगीत के प्रतिष्ठापक और प्रगतिशील कवि माने जाते हैं । उनका नवगीत पर अविस्मरणीय योगदान नवगीत दशक १,२,३ व ’नवगीत अर्द्धशती’ का सम्पादन  है। 
     शंभुनाथ जी का शंभुनाथ हो जाने का  आधार उनका नवगीत विधा पर किया गया कार्य रहा । उनका नवगीत पर किया गया कार्य मानक बना । 
   .डॉ शंभुनाथ सिंह जी के बारे में यह बात जग जाहिर है कि चयन के मामले में वह दुविधा के शिकार रहे , शंभुनाथ जी को उपनाम से कुछ असहजता थी  हो सकता यह उनकी अपनी रणनीति एवम सूझबूझ का हिस्सा ही हो, अतः कुछ नवगीतकारों के नाम में उपनाम होना भी  नवगीत दशक में शामिल न हो पाने का कारण  एक बड़ा कारण बना और उनकी इस ज़िद के चलते उस समय के अनेक प्रतिभाशाली नवगीतकार या तो छोड़ दिये गए या वे स्वयं शामिल नहीं हुए ।
   वैसे भी संपादक का कार्य आसान नहीं होता , उसकी अपनी दुश्वारियाँ होती हैं , ऐसा लगभग हर संपादन में होता है कि कुछ वांछित क़लमें रह जाती हैं ,कारण वैयक्तिक से लेकर वैचारिक कुछ भी रहें ।

      जैसा कि शंभुनाथ जी नवगीत दशक १ की भूमिका में लिखते हैं " कि नवगीत आन्दोलन नहीं है , इसी कारण वह उत्तरोत्तर विकसित होता गया है , नई कविता और नवगीत दोनों में ही एक समान प्रवृत्ति है जिसने कभी दोनों को जोड़ा था वह है आधुनिकता की प्रवृत्ति , जो तब तक नहीं मरेगी जब तक आधुनिकता का बोध मानव के भीतर रहेगा ...नवगीत ही नहीं प्रत्येक काव्य विधा के दो रूप सदा से रहते आए हैं पारंपरिक और रूढ़ रूप तथा नवता एवं मौलिकता वाला रूप " 

उनके ही कथन के निकष पर कहूँ तो उनके नवगीत बौद्धिक चेतना से संपृक्त मौलिकता से लबरेज़ हैं , उनका गीतकार  मानव जीवन की अधुनातन विसंगतियों पर  प्रभावशाली चित्र अंकित करने में सर्वथा समर्थ है । 
   
   यदि सारे किन्तु परन्तु परे रखकर बात की जाए तो उनके पास नवगीत को लेकर समग्र दृष्टि थी , उनके नवगीत का शिल्प , विषयवस्तु व प्रासंगिकता इसकी पुष्टि करते हैं ।
       
          शंभुनाथ जी युगांतरकारी कवि हुए , नवगीत को स्थापित करने हेतु वह अपने अवदान से  एक बड़ी लकीर खींच गए , उनके साहित्य व साहित्यिक योगदान को कुछ शब्दों में समेटा नहीं जा सकता । 
क्या चिन्हित किया जाए क्या छोड़ दिया जाए ....

  वैसे तो हमारी दृष्टि के सामने से उनके जितने  गीत गुजरे सभी चित्त बाँध लेने वाले थे , वागर्थ हेतु चयन करते समय निर्ममता से कुछ गीत हटाने पड़े । पोस्ट संपादित करने के क्रम में सातवें गीत से फिर गुजरी और सोचने को विवश हुई कि सच ही कहा गया है कि निर्माण में समय लगता है विध्वंस पलक झपकते होता है , फिर वह चाहे मानवीय संबंध हों , भूखण्ड हों , सभ्यता हो या रियासतें ।  इसी दृष्टि का शंभुनाथ जी का एक गीत का गीतांश अचानक सचेत कर जाता है कि हम कर क्या रहे हैं और हमें करना क्या है ...

उत्खनन किया है मैंने 
 गहराई तक अतीत का ।

कब्रों में ठठरियाँ मिलीं
टूटे उजड़े भवन मिले
मिट्टी में ब्याज मिल गए
पर न कहीं मूलधन मिले

     आदमी मिला कहीं नहीं
     जीवित साक्षी व्यतीत का ।

मिट्टी के खिलौने मिले
विचित्र मृतभाण्ड भी मिले
सड़कों -चौराहों के बीच
हुए युद्ध-काण्ड भी मिले

      कोई ध्वनि -खण्ड पर नहीं
      मिला किसी बातचीत का ।

           आज आवश्यकता इस बात की है कि हम सब अपने आपसी मतभेदों व मनभेदों  को भुलाकर विगत पीढ़ी के बेहतर किए हुए को आत्मसात करें व आगत पीढ़ी के लिए स्वस्थ्य वातावरण का निर्माण करें ।

                                            प्रस्तुति
                                       ~।।वागर्थ ।।~
                                      सम्पादक मण्डल

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(१)

सोनहँसी हँसते हैं लोग
        हँस-हँस कर डसते हैं लोग ।

रस की धारा झरती है
विष पिए हुए अधरों से,
बिंध जाती भोली आँखें
विषकन्या-सी नज़रों से ।

        नागफनी को बाहों में
        हँस-हँस कर कसते हैं लोग ।

जलते जंगल जैसे देश
और क़त्लगाह से नगर,
पाग़लख़ानों-सी बस्ती
चीरफाड़घर जैसे घर ।

        अपने ही बुने जाल में
        हँस-हँस कर फँसते हैं लोग ।

चुन दिए गए हैं जो लोग
नगरों की दीवारों में,
खोज रहे हैं अपने को
वे ताज़ा अख़बारों में ।

        भूतों के इन महलों में
        हँस-हँस कर बसते हैं लोग ।

भाग रहे हैं पानी की ओर
आगजनी में जलते से,
रौंद रहे हैं अपनों को
सोए-सोए चलते से ।

        भीड़ों के इस दलदल में
        हँस-हँस कर धँसते हैं लोग ।

वे, हम, तुम और ये सभी
लगते कितने प्यारे लोग,
पर कितने तीखे नाख़ून
रखते हैं ये सारे लोग ।

        अपनी ख़ूनी दाढ़ों में
        हँस-हँस कर ग्रसते हैं लोग ।

(२)

देश हैं हम
        महज राजधानी नहीं ।

हम नगर थे कभी
खण्डहर हो गए,
जनपदों में बिखर
गाँव, घर हो गए,
हम ज़मीं पर लिखे
आसमाँ के तले

        एक इतिहास जीवित,
        कहानी नहीं ।

हम बदलते हुए भी
न बदले कभी
लड़खड़ाए कभी
और सँभले कभी
हम हज़ारों बरस से
जिसे जी रहे

        ज़िन्दगी वह नई
        या पुरानी नहीं ।

हम न जड़-बन्धनों को
सहन कर सके,
दास बनकर नहीं
अनुकरण कर सके,
बह रहा जो हमारी
रगों में अभी

        वह ग़रम ख़ून है
        लाल पानी नहीं ।

मोड़ सकती मगर
तोड़ सकती नहीं
हो सदी बीसवीं
या कि इक्कीसवीं
राह हमको दिखाती
परा वाक् है

        दूरदर्शन कि
        आकाशवाणी नहीं ।

(३)

समय की शिला पर
-----------------------

समय की शिला पर मधुर चित्र कितने
किसी ने बनाए, किसी ने मिटाए।

किसी ने लिखी आँसुओं से कहानी
किसी ने पढ़ा किन्तु दो बूँद पानी
इसी में गए बीत दिन ज़िन्दगी के
गई घुल जवानी, गई मिट निशानी।
विकल सिन्धु के साध के मेघ कितने
धरा ने उठाए, गगन ने गिराए।

शलभ ने शिखा को सदा ध्येय माना,
किसी को लगा यह मरण का बहाना
शलभ जल न पाया, शलभ मिट न पाया
तिमिर में उसे पर मिला क्या ठिकाना?
प्रणय-पंथ पर प्राण के दीप कितने
मिलन ने जलाए, विरह ने बुझाए।

भटकती हुई राह में वंचना की
रुकी श्रांत हो जब लहर चेतना की
तिमिर-आवरण ज्योति का वर बना तब
कि टूटी तभी श्रृंखला साधना की।
नयन-प्राण में रूप के स्वप्न कितने
निशा ने जगाए, उषा ने सुलाए।

सुरभि की अनिल-पंख पर मोर भाषा
उड़ी, वंदना की जगी सुप्त आशा
तुहिन-बिन्दु बनकर बिखर पर गए स्वर
नहीं बुझ सकी अर्चना की पिपासा।
किसी के चरण पर वरण-फूल कितने
लता ने चढ़ाए, लहर ने बहाए।

(४)

      यों अँधेरा अभी पी रहा हूँ,
        रोशनी के लिए जी रहा हूँ ।

एक अँधे कुएँ में पड़ा हूँ
पाँव पर किन्तु अपने खड़ा हूँ,
कह रहा मन कि क़द से कुएँ के
मैं यक़ीनन बहुत ही बड़ा हूँ ।

        मौत के बाहुओं में बँधा भी
        ज़िन्दगी के लिए जी रहा हूँ ।

ख़ौफ़ की एक दुनिया यहाँ है,
क़ैद की काँपती-सी हवा है,
सरसराहट भरी सनसनी का
ख़त्म होता नहीं सिलसिला है ।

        साँप औ' बिच्छुओं से घिरा भी
        आदमी के लिए जी रहा हूँ ।

तेज़ बदबू, सड़न और मैं हूँ,
हर तरफ़ है घुटन और मैं हूँ ।
हड्डियों, पसलियों, चीथड़ों का
सर्द वातावरण और मैं हूँ ।

        यों अकेला नरक भोगता भी
        मैं सभी के लिए जी रहा हूँ ।

सिर उठा धूल मैं झाड़ता हूँ
और जाले तने फाड़ता हूँ,
फिर दरारों भरे इस कुएँ में
दर्द की खूँटियाँ गाड़ता हूँ ।

        चाँद के झूठ को जानता भी
        चाँदनी के लिए जी रहा हूँ ।

(५)

      एक मीनार उठती रही
        एक मीनार ढहती रही
        अनरुकी अनथकी सामने
        यह नदी किन्तु बहती रही

पर्वतों में उतरती हुई
घाटियाँ पार करती हुई,
तोड़ती पत्थरों के क़िले
बीहड़ों से गुज़रती हुई,

        चाँद से बात करती रही
        सूर्य के घात सहती रही ।

धूप में झलमलाती हुई
छाँव में गुनगुनाती हुई,
पास सबको बुलाती हुई
प्यास सबकी बुझाती हुई,

        ताप सबका मिटाती हुई
        रेत में आप दहती रही ।

बारिशों में उबलती हुई
बस्तियों को निगलती हुई,
छोड़ती राह में केंचुलें
साँप की चाल चलती हुई ।

        हर तरफ़ तोड़ती सरहदें,
        सरहदों बीच रहती रही ।

सभ्यताएँ बनाती हुई
सभ्यताएँ मिटाती हुई,
इस किनारे रुकी ज़िंदगी
उस किनारे लगाती हुई ।

        कान में हर सदी के नदी
        अनकही बात कहती रही ।

(६)

पर्वत से छन कर झरता है पानी,
जी भर कर पियो
और पियो ।

घाटी-दर-घाटी ऊपर को जाना,
धारण कर लेना शिखरों का बाना,
देता अक्षय जीवन हिमगिरी दानी,
हिमगिरी को जियो
और जियो ।

अतिथि बने बादल के घर में रहना
हिम-वर्षा-आतप हँस-हँस कर सहना
अरुणाचल-धरती परियों की रानी
सुन्दरता पियो
और पियो ।

किन्नर-किन्नरियों के साथ नाचना
स्वर-लय की अनलिखी क़िताब बाँचना,
उर्वशियाँ घर-घर करती अगवानी,
गीतों को जियो
और जियो ।

देना कुछ नहीं और सब कुछ पाना,
ले जाना हो तो घर लेते जाना,
यह सुख है और कहाँ ओ अभिमानी !
इस सुख को पियो
और पियो ।

(७)

उत्खनन किया है मैंने
        गहराई तक अतीत का ।

सिन्धु-सभ्यता से अब तक
मुझको एक ही स्तर मिला,
ईंट-पत्थरों के घर थे
सोने का नहीं घर मिला,

        युद्धों के अस्त्र मिले पर
        वृत्त नहीं हार-जीत का ।

यज्ञकुण्ड अग्निहोत्र के
मिले नाम गोत्र प्रवर भी
सरस्वती की दिशा मिली
पणियों के ग्राम-नगर भी

        कोई अभिलेख पर नहीं
        सामगान के प्रगीत का ।

क़ब्रों में ठठरियाँ मिलीं
टूटे उजड़े भवन मिले,
मिट्टी में ब्याज मिल गए
पर न कहीं मूल-धन मिले,

        आदमी मिला कहीं नहीं
        जीवित साक्षी व्यतीत का ।

मिट्टी के खिलौने मिले
चित्रित मृतभाण्ड भी मिले ।
सड़कों-चौराहों के बीच
हुए युद्ध-काण्ड भी मिले,

        कोई ध्वनि-खण्ड पर नहीं
        मिला किसी बातचीत का ।

मन्दिर गोपुर शिखर मिले
देवता सभी मरे मिले
उकरे युगनद्ध युग्म भी
दीवारों पर भरे मिले ।

        सहते आए हैं अब तक
        जो संकट ताप-शीत का ।

(८)

विषम भूमि नीचे, निठुर व्योम ऊपर!

यहाँ राह अपनी बनाने चले हम,
यहाँ प्यास अपनी बुझाने चले हम,
जहाँ हाथ और पाँव की ज़िन्दगी हो
नई एक दुनिया बसाने चले हम;
विषम भूमि को सम बनाना हमें है
निठुर व्योम को भी झुकाना हमें है;
न अपने लिये, विश्वभर के लिये ही
धरा व्योम को हम रखेंगे उलटकर!

विषम भूमि नीचे, निठुर व्योम ऊपर!
अगम सिंधु नीचे, प्रलय मेघ ऊपर!

लहर गिरि-शिखर सी उठी आ रही है,
हमें घेर झंझा चली आ रही है,
गरजकर, तड़पकर, बरसकर घटा भी
तरी को हमारे ड़रा जा रही है
नहीं हम ड़रेंगे, नहीं हम रुकेंगे,
न मानव कभी भी प्रलय से झुकेंगे
न लंगर गिरेगा, न नौका रुकेगी
रहे तो रहे सिन्धु बन आज अनुचर!

अगम सिंधु नीचे, प्रलय मेघ ऊपर!
कठिन पंथ नीचे, दुसह अग्नि ऊपर!

बना रक्त से कंटकों पर निशानी
रहे पंथ पर लिख चरण ये कहानी
,
बरसती चली जा रही व्योम ज्वाला
तपाते चले जा रहे हम जवानी;
नहीं पर मरेंगे, नहीं पर मिटेंगे
न जब तक यहाँ विश्व नूतन रचेंगे
यही भूख तन में, यही प्यास मन में
करें विश्व सुन्दर, बने विश्व सुन्दर!

कठिन पंथ नीचे, दुसह अग्नि ऊपर ।

(९)

तुम्हारे साथ हूँ
हर मोड़ पर संग-संग मुड़ा हूँ।

        तुम जहाँ भी हो वहीं मैं,
       जंगलों में या पहाड़ों में,
       मंदिरों में, खंडहरों में,
       सिन्धु लहरों की पछाड़ों में,

मैं तुम्हारे पाँव से
परछाइयाँ बनकर जुड़ा हूँ।

        शाल-वन की छाँव में
        चलता हुआ टहनी झुकाता हूँ,
       स्वर मिला स्वर में तुम्हारे
        पास मृगछौने बुलाता हूँ,

पंख पर बैठा तितलियों के
तुम्हारे संग उड़ा हूँ।

        रेत में सूखी नदी की
        मैं अजन्ताएँ बनाता हूँ,
       द्वार पर बैठा गुफ़ा के
        मैं तथागत गीत गाता हूँ,

बोढ के वे क्षण, मुझे लगता
कि मैं ख़ुद से बड़ा हूँ।

        इन झरोखों से लुटाता
        उम्र का अनमोल सरतमाया,
       मैं दिनों की सीढ़ियाँ
        चढ़ता हुआ ऊपर चला आया,

हाथ पकड़े वक़्त की
मीनार पर संग-संग खड़ा हूँ।

(१०) 
आदमी का जहर 
---------------------
एक जलता शहर
हो गई ज़िन्दगी !
आग का गुलमोहर
हो गई ज़िन्दगी !

हर तरफ हैं अंधेरी
सुरंगें यहां
है भटकती हुई
सिर्फ! रूहें यहां
जादुई तलघरों से
गुजरती हुई

है तिलिस्मी सफर
हो गई ज़िन्दगी।

भागकर जायें भी
तो कहाँ जायें हम
कब तलक यह मिथक
और दुहरायें हम
है दवा ही न जिसकी
अभी तक बनी

आदमी का जहर 
हो गई ज़िन्दगी !

जंगलों में सुखी
और खुशहाल था
आदमी नग्न था
पर न कंगाल था
बदबुओं का न
अहसास अब रह गया

सभ्यता का गटर
हो गई ज़िन्दगी !

चाँद तारे सभी
आज झूठे हुए
हर तरफ घिर उठे
हैं ज़हर के धुएँ
आंख की रोशनी को 
बुझाती हुई

रोशनी की लहर
हो गई ज़िन्दगी 

(११)
पास आना मना 
-------------------------
पास आना मना
दूर जाना मना,
जिन्दगी का सफर
कैदखाना बना।

चुप्पियों की परत
चीरती जा रही
चीख–चीत्कार
बेइंतिहा दूर तक,
पत्थरों के बुतों में
बदलने लगे
साँस लेते हुए
सब मकां दूर तक।

भाग कर आ गये
हम जहाँ,
उस जगह
तड़फड़ाना मना
सोचना और आँसू
बहाना मना।

पट्टियों की तरह
जो बँधी ज़खम पर
रोशनी मौत
की लोरियाँ गा रही,
आ दबे पाँव
तीखी हवा जिस्म पर
आग का सुर्ख
मरहम लगा जा रही,

इस बिना नाम के
अजनबी देश में
सर उठाना मना
सर झुकाना मना
देखना और आँखें
मिलाना मना।
 
आँख अंधी हुई
धूल से, धुंध से
शोर में डूबकर
कान बहरे हुए,
कोयले के हुए
पेड़ जो ये हरे
राख के फूल
पीले सुनहरे हुए,

हुक्मरां वक़्त की
यह मुनादी फिरी
मुसकराना मना
खिलखिलाना मना,
धूप में, चाँदनी में
नहाना मना।
 
भूमि के गर्भ में
आग जो थी लगी
अब लपट बन
उभर सामने आ गयी,
घाटियों में उठीं
गैस की आँधियाँ
पर्वतों की
धुएँ की घटा छा गयी,

हर तरफ़ दीखती हैं
टंगी तख्तियाँ –
'आग का क्षेत्र है
घर बनाना मना,
बाँसुरी और
मादल बजाना मना।’
      
(१२)

अभिशप्त 
 -------------------
पर्वत न हुआ, निर्झर न हुआ
सरिता न हुआ, सागर न हुआ,
किस्मत कैसी ! लेकार आया
जंगल न हुआ, पातर न हुआ।

जब-जब नीले नभ की नीचे
उजले ये सारस के जोड़े,
जल बीच खड़े खुजलाते हैं
पाँखें अपनी गर्दन मोड़े।

तब-तब आकुल हो उठता मन
किस अर्थ मिला ऐसा जीवन,
जलचर न हुआ, जलखर न हुआ,
पुरइन न हुआ, पोखर न हुआ।

जब–जब साखू-वन में उठते
करमा की धुन के हिलकोरे,
मादल की थापों के सम पर
भांवर देते आँचल कोरे।
 
तब–तब रो उठता है यह मन
कितना अभिशप्त मिला जीवन,
पायल न हुआ, झांझर न हुआ,
गुदना न हुआ, काजर न हुआ।

(१३)
रबर के खिलौने 
--------------------
हम  रबर  के  खिलौने
बिकते हैं सुबहोशाम,
लिख गयी अपनी किस्मत
शाहजादों के नाम।

कुछ नहीं पास अपने
है नहीं  कोई  घर,
रहते शो-केस में हम
या कि फुटपाथ पर।

होने  का नाम  भर है
मिटना है अपना काम।

छपते हम पोस्टरों में
बनते हैं हम खबर,
बन दरी या गलीचे
बिछते है फर्श पर।

कुर्सियों में दबी ही
उम्र  होती  तमाम।
 
दूर तक चलने वाला
है नहीं कोई  साथ,
ताश के हम हैं पत्ते
घूमते हाथों–हाथ।

हम तो हैं इक्के–दुक्के,
साहब  बीबी  गुलाम।

रेल के हैं हम डब्बे
खीचता  कोई  और
छोड़कर ये पटरियाँ
है कहाँ  हमको ठौर।

बंद  सब  रास्ते  हैं
सारे चक्के हैं जाम।
           
(१४)
            
खो गया है गाँव मेरा
-------------------------
खो गया है गांव मेरा
देश की इस राजधानी में।

बन गईं पगडंडियाँ
गलियाँ यहाँ सड़कें
बगीचे पार्क में बदले
हो गये हैं अब
विहार नगर पुरम
टोले मुहल्ले
जो रहे अपने
बंट गये
बहुमंजिले आवास
ब्लॉकों, फेज, पॉकिट में।

हो गये गुम
व्यक्तियों के नाम
अंकों की निशानी में।

बन गये वे खेत
गोंयड़ लहलहाते
यहाँ पर जंगल मकानों के
फार्म हाउस मार्केट
इंडस्ट्रियल काम्प्लेक्स
बने ऊसर शिवानों के
गांव के गन्दे पनाले और गड्ढे
राजधानी में बने यमुना।

सूर्य पुत्री यहाँ
आकर बनी वैतरणी
प्रदूषण की कहानी में।

आसमाँ के हो गये
टुकड़े हजारों
दिशाएँ भी नाम खो बैठीं
चाँद तारों को
न कोई पूछता है
हवाएँ गुमनाम हो बैठीं
हो गईं हैं शून्य
सब संवेदनाएँ
गाँव के रिश्ते सभी भूले।

है न इस वातानुकूलित
कक्ष में वह सुख रहा जो
फूस की टूटी पलानी में।

खो गया है गाँव मेरा
देश की इस राजधानी में।
           
           ~ डॉ.शंभुनाथ सिंह
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जन्म 17 जून 1916
 निधन 03 सितम्बर 1991
 जन्म स्थान गाँव अमेठिया, रावतपार, जिला देवरिया, उत्तर प्रदेश
 कुछ प्रमुख कृतियाँ
रूप रश्मि (1941) ,माता भूमिः, छायालोक (1945), उदयाचल (1946), मनवन्तर (1948), समय की शिला पर (1968) दिवालोक, जहाँ दर्द नीला है(1977) , वक़्त की मीनार पर (1986), माता भूमि: पुत्रोहं पृथिव्या: (1991) -- (सभी गीत संग्रह), दो कहानी संग्रह -- ‘रातरानी’ (1946) और ‘विद्रोह’ (1948), नव नाटक ‘धरती और आकाश’ (1950) और ‘अकेला शहर’ (1975)।
 विविध
नवगीत के प्रतिष्ठापक और प्रगतिशील कवि। नवगीत के तीन ’दशकों’ का सम्पादन, ’नवगीत अर्द्धशती’ का सम्पादन तथा 'नवगीत सप्तक' का सम्पादन।