समकालीन दोहा की नौवीं कड़ी
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बजा रहे हैं डूबकर अमजद अली सरोद : यश मालवीय
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समकालीन दोहा की नौवीं कड़ी में प्रस्तुत हैं यश मालवीय जी के समकालीन दोहे
यश मालवीय जी अपने समय की छान्दसिक हिन्दी कविता, खासतौर से नवगीत के चर्चित प्रमुख हस्ताक्षरों में से एक हैं, यदि इन्हें नवगीत का पर्याय कहा जाय तो भी यह बात अतिश्योक्ति की श्रेणी में नहीं गिनी जाएगी।
यश मालवीय जी के समकालीन दोहों पर चर्चा करते समय मुझे यह बिल्कुल भी जरूरी नहीं लगता कि यहाँ उन दोहाकारों का सन्दर्भ दिया जाय जिन्होंने हजारों की संख्या में दोहे लिखे हैं। हाँ, यह बात भी बिल्कुल सही है कि यश मालवीय जी के यहाँ दोहों की संख्या हजारों में भले ही न हो, पर जितने भी दोहे उनके खाते में दर्ज हैं, वे सब के सब मारक हैं,पैने हैं, नुकीले हैं। संग्रह के लगभग सभी दोहे अपने समय के प्रतिबिंम्ब हैं। हाल ही में मुझे उनकी एक कृति 'चिनगारीके बीज' से गुजरने का सौभाग्य मिला पूरी कृति में एक भी दोहा ऐसा नहीं मिला जिसे भरती की श्रेणी में डाला जाय।
किसी ने ठीक ही कहा है यदि आपको किसी भी देश की सच्ची तस्वीर देखना है तो वहाँ के कवियों से मित्रता करें ! कवि का चयन करते समय यह ध्यान रखें कि चयन कवि का करना है चारण का नहीं !
यश मालवीय जी के प्रस्तुत समकालीन दोहे युगीन सच्चाइयों का यथार्थ दस्तावेज हैं जिसमें अपने समय का सम्पूर्ण लेखा-जोखा बिना किसी पक्षपात के देखा जा सकता है। निःसन्देह समकालीन दोहे के सन्दर्भ में यश मालवीय जी का योगदान अविस्मरणीय है। प्रकारान्तर से कहें तो यश मालवीय समकालीन दोहा के महत्वपूर्ण दोहाकार हैं साथ ही समकालीन दोहा के वे प्रमुख आइकॉन हैं।
उन्हें बहुत बधाइयाँ
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प्रस्तुति
मनोज जैन
वागर्थ सम्पादक मण्डल
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ये कैसी बारीकियाँ, कैसा तंज महीन।
हम बोले मर जाएँगे,वो बोले आमीन ।।
दोहे तोड़ें रूढि की, तनी हुई सी रीढ़।
कबिरा है तनहा बहुत, आस पास है भीड़।।
जैसे अपना ही लहू ,पीता है इन्सान।
कुछ भी कर पाता नहीं, कण कण का भगवान ।।
बादल उड़ते राख के, फसल रही है सूख ।
छुपा रही मुँह जिन्दगी, चिढ़ा रही है भूख।।
धुँआ कटेगा आँख का, धधकेंगे अंगार ।
धारदार होंगे यही, जंग लगे हथियार।।
खून सने जबड़े लिए,बैठा आदमखोर ।
घर घर पर बारूद की, घटा घिरी घनघोर।।
सुबह-सुबह छत पर चढ़ी, बिटिया-जैसी धूप ।
गीले आंगन देखती,अपना ही प्रतिरूप ।।
हर हत्या पर दे रहे,हत्यारों को दाद।
दिल्ली में बैठे हुए,सरकारी नक्काद।।
राम काज कीन्हें बिना,उन्हें कहाँ विश्राम।
जो तुलसी के राम थे,अब कुर्सी के राम।।
केला बिस्कुट संतरा, गुड्डा गुड़िया गेंद।
सब कुछ ग़ायब हो गया,किसने मारी सेंध।।
कबिरा ने ऊँचा किया, झुका हुआ हर माथ।
रहा आग से खेलता, लिये लुकाठी हाथ।।
हवन कुण्ड सा देश है मुँह फैलाती आग।
किसे पड़ी है जो यहाँ छेड़े बादल राग ।।
चिनगारी के बीज से उगा आग का पेड़।
आँखें करती ही रहीं, सपनों से मुठभेड़ ।।
अवरोही बादल भरें,फिर घाटी की गोद।
बजा रहे हैं डूबकर,अमजद अली सरोद।।
कदम कदम पर जिंदगी,दर्द रही है झेल।
ज्यों सुरंग के बीच से,गुजर रही है रेल।।
आँखों में आसावरी, सांसो में कल्यान।
सहे किस तरह हैसियत,बूँदों वाले बान ।।
अँधियारे के पंख से, झरती काली रात ।
चलो यहाँ मिलकर करें,उजियारे की बात।।
कैलेण्डर उल्टा हुआ,पड़ी हवा की मार ।
अर्थहीन सी हो गयी, कील ठुकी दीवार ।।
नहीं सिपाही एक भी, बने हुए सब चोर ।
बच्चों के संसार में,बड़े मचाएँ शोर ।।
यह कैसी बरसात है, घिरा नहीं है मेह।
बना रहा है घोंसला, फिर कोई संदेह।।
उत्सव के दिन आ गए,हँसे खेत-खपरैल।
एक हँसी में धुल गया,मन का सारा मैल।।
लहर लहर में गा उठे,लय गति यति अनुभाव।
भरे गाल के ताल पर,चली होंठ की नाव।।
माँग भरी तो गिर पड़ा,दरपन पर सिंदूर।
सन्नाटे में बज उठा,सपनों का संतूर।।
धीरे धीरे खिल गई,तन पर मन की धूप।
याद तुम्हारी हो गई,साँची का स्तूप।।
जलता ख़ुद की आग में,राहत का सामान।
बादल भागे छोड़कर,जलता हुआ मकान।।
सबको आँचल में लिये,कौशल्या सी शाम।
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