~।। वागर्थ ।। ~
प्रस्तुत करता है नवगीत के सशक्त हस्ताक्षर विद्यानंदन राजीव के नवगीत
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https://m.facebook.com/story.php?story_fbid=355331712532846&id=100041680609166
विद्यानंदन राजीव जी के नवगीतोंं में मानवेतर प्रकृति का समन्वय और समकालीन बोध की संलग्नता व चिंतन है । अपने संकलन ' छीजता आकाश ' , जोकि उस समय खासा चर्चित रहा , की भूमिका में वह कहते हैं कि " आज के गीत में कथ्य के स्तर पर नयापन देखा जा सकता है । प्रकृति चित्रण , मानवीय प्रेम जैसे परम्परागत प्रसंगों में वायवी कल्पना के स्थान पर यथार्थ -अनुभूति देखी गई है । मध्यमवर्गीय संत्रास , निम्नवर्ग की रूढ़ियाँ और पीड़ा , जीवन के विभिन्न स्तरों पर बिखराव , परिवार का विघटन , समाज और मानव संबंधों जैसे अनेक विषयों को गीत ने जिस कुशलता और सहजता के साथ स्वीकार किया है वह अभूतपूर्व है , संक्षेप में कहें तो आज का गीत पूर्व की अपेक्षा , जीवन के अधिक निकट है , उसमें अनुभूति की व्यापकता और विविधता है । "
इस आधार पर भी यदि उनके गीतों पर दृष्टि डाली जाए तो वह आमजन की घनीभूत पीड़ाओं का तल स्पर्श करते हैं । बारिश जो कि कई लोगों के लिए अक्सर रूमानी अनुभूति का विषय हो सकता है किन्तु वह उसके स्याह पक्ष पर चिंतन करते हैं ...
टूटा छप्पर ओसारे का
छत में पड़ी दरार
फेंक गई गठरी भर चिन्ता
बारिश की बौछार
पहले -पहले काले बादल
लाये नहीं उमंग
काम काज के बिना
बहुत पहले से मुट्ठी तंग
किस्मत का छाजन रिसता है
क्या इसका उपचार ... ( बारिश की बौछार )
अफसोस कि विश्व की तमाम आबादी इस किस्मत की छाजन से बुरी तरह संक्रमित है ।
समय की कमजोर नब्ज पर हाथ रखते व ऐसी स्थितियों के उत्तरदायी किरदारों की संदिग्ध भूमिका पर वह प्रश्न चिन्ह लगाते हैं ...
उत्पीड़न
अपराध बोध से
कोई दिशा नहीं है खाली
रखवाले
पथ से भटके हैं
जन की कौन करे रखवाली ....( खूँखार हवाएँ )
' पाहुन गाम की कहो ' संवाद शैली के इस नवगीत में वह सवाल करते हैं कि जिस रामराज की दुहाई सत्ताएँ देती आईं हैं वह हक़ीक़त में मूल तक पहुँचा भी है या नहीं ..
वादे के साथ वहाँ पहुँचा है
कितना कुछ कहो राम राज .....(पाहुन गाम की कहो )
तंत्र की कुटिल , दोमुँही नीति जो लोकलुभावन वादे तो करती है किन्तु हकीकत के धरातल पर क्रियान्वयन उल्टा होता है ...ऐसी ही विद्रूप नीतियों तथा जुबान से गुलाटी मार जाने पर एक गीतांश ..
ऊँचे आसन बैठ मछेरे
घात लगाए हैं
जाल बिछे हैं , वंशी की
डोरी में चारा है
जालसाज हैं लहरें
जिनसे जीवन हारा है
जिस जल ने थी
कसम उठाई साथ निभाने की
उसने सीखी चाल नयी
कहकर फिर जाने की
देख हमें आवसन्न
सभी ने जश्न मनाए हैं .. (मछेरे घात लगाए )
और लगभग सूखे जैसी स्थितियों में वह किसानों व आमजन की व्यथा से व्यथित हो इन्दर राजा से सीधा संवाद भी साधते हैं , संवाद भी ऐसा कि जिसमें देशज शब्दों की उपस्थित से लोक जीवन व उसकी व्यथा जीवंत हो उठती है ..
जी भर कर न बरसे
हमरे छप्पर छानी
रेत उड़ी सूखी नदिया की
करुण कहानी
वृक्ष हो गए खंकड़
उजड़ी खेती बारी
शब्द -विहीन घरौंदे की
अपनी लाचारी
अचरज ! यह कैसी निठुराई ?
इंदर राजा ...... ( ये दिन भी बीते )
विषयवस्तु की विविधता व सहज कहन आपके नवगीतों का वैशिष्ट्य है जिनसे गुजरते हुए पाठक को कहीं भी एकरसता नहीं महसूस होती । आपके नवगीत न सिर्फ़ समस्या पर बात करते हैं बल्कि समाधान का अन्वेषण और अपेक्षित परिवर्तन हेतु आह्वान भी करते हैं ....
समय आ गया
लिखो नया इतिहास
पसीने का ।
जिसकी लगन ,
सदा माटी को
मुसकानें देती
जिसकी यश-गाथा
कहती है, हरी-भरी खेती
जिसका स्वर है मुखर
कुदाली की अविरल लय में
जो बूढ़ा दिखलाई देता है
चढ़ती वय में
उसे दिखाना होगा अवसर
जीवन जीने का !
.....(लिखो नया इतिहास )
स्त्री विमर्श पर वह खुलकर इस समाज , जोकि एक तरफ स्त्री को पूजने का ढोंग करता है वहीं अवसर पाने पर उसका दैहिक , मानसिक , आर्थिक शोषण करने से नहीं चूकता । ऐसी तल्ख हक़ीक़त को वह अपने नवगीत में बिना किसी लाग लपेट के ज्यों का त्यों रखते हैं और सोचने को विवश भी करते हैं कि समाज इतना असंवेदनशील क्यों है कि यहाँ विवशता भी बिकती है और खरीदार भी वही पुजारी हैं जो कंजक पूजन में शामिल होते हैं...
नारी के सम्मान परम-पद
का जो दम भरते
वे ही उन्मादी रातों में
चीर-हरण करते
कल्मष के हाथों
अभाव की
कालिख धो आई !..( होटल हो आई )
एक गीतकार के लिए उसके गीत से बढ़कर कुछ नहीं , गीत ही उसकी आस्था का केन्द्र व आत्मबल होता है और गीत ही विषम परिस्थितियों में वह प्रकाश स्तम्भ होता है जिससे अंधकार की सरणियों में भी उम्मीद की लौ जलती रहती है ..
जब अँधेरे का उठा सर
हो नहीं नत
रोशनी की हो जब कि बेहद
जरूरत
उस घड़ी ओ बंधु
मेरे गीत से संवाद करना ...(गीत से संवाद )
ऐसे प्रातिभ नवगीतकार की नवगीत दशक में अनुपस्थिति खलती तो है ही साथ ही यह भी सोचने पर विवश करती है कि आखिर किसी महत्वपूर्ण विधा के महत्वपूर्ण कार्य में सम्मिलित होने न होने के मापदंड क्या रहे होंगे / रहते हैं ....
सारे किन्तु - परन्तु से परे रहकर बात की जाए तो विद्यानंदन जी का नवगीत विधा के विकास में व्यापक योगदान रहा जिसको किसी भी सूरत में नजरअंदाज़ नहीं किया जा सकता ।
वागर्थ अपनी सम्पूर्ण निष्ठा के साथ उनको स्मरण कर नमन करता है ।
प्रस्तुति
~।। वागर्थ ।। ~
सम्पादक मण्डल
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(१)
बारिश की बौछार
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टूटा छप्पर ओसारे का
छत में पड़ी दरार ,
फैंक गई गठरी भर चिन्ता
बारिश की बौछार ।
पहले पहले काले बादल
लाये नहीं उमंग
काम काज के बिना
बहुत पहले से
मुट्ठी तंग
किस्मत का छाजन रिसता है
क्या इसका उपचार ।
कब से पड़ा कठौता खाली
दाना हुआ मुहाल
आँखों के आगे
मकड़ी का
घना घना सा जाल
नहीं मयस्सर थकी देह को
कोदों और सिवार ।
खुशियाँ लिखी गई हैं
अब तक भरे पेट के नाम
सपने देखे गए
मजूरी के
अब तक नाकाम
कैसे खो जाए ऋतु स्वर में
अंतर्मन लाचार ।
(२)
खूँख्वार हवाएँ
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बस्ती बस्ती
आ पहुँची है
जंगल की खूँख्वार हवाएँ !
उत्पीड़न
अपराध बोध से
कोई दिशा नहीं है खाली
रखवाले
पथ से भटके हैं
जन की कौन करे रखवाली
चल पड़ने की
मजबूरी में
पग पग उगती हैं शंकाएँ !
कोलाहल
गलियों -गलियारे
जगह-जगह जैसे हो मेला
संकट के क्षण
हर कोई पाता
अपने को ज्यों निपट अकेला
अपराधों के
हाथ लगी हैं
रथ के अश्वों की वल्गाएँ ।
(३)
हिरना खोजे जल
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प्यासे होंठ नयन चिन्ताकुल
हिरना खोजे जल
आज हमारे भीतर-बाहर
मरुथल ही मरुथल !
गये सूखते
आशाओं के
जंगल हरे भरे
भाव-विहग
सूनी डालों पर
बैठे डरे-डरे
आशाओं का
आमुख है
आने वाला कल !
होते रहे अपशकुन
गगन में
उड़ती हैं चीलें
जाल दरारों के बुनती हैं
रीत गई झीलें
हिंसक मौसम है
नदिया की
निगल गया कलकल !
बादल बेईमान
वचन से
कैसा मुकर गया
हिलता नहीं घोंसला
कजरी गाती नहीं बया
कवलित हुई
काल से
असमय
पनघट की हलचल !
(४)
कई बिनोवा आए
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कई विनोबा आये
खाली हाथों
चले गए
मेहनत के मंसूबे
पहले जैसे
छले गए ।
पीड़ा गुमसुम रही
मंच से
गाई गई ग़ज़ल !
पकडे रहे लोग आँचल
छाया दीवानी का
हुआ नहीं आरम्भ
प्रगति की
अग्नि-कहानी का
बलिपथ पर
चलने कीकोई
करता नहीं पहल
(५)
अलख
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कलपेंगे मन-प्राण
अभी
महुआ के झरने तक !
जुगत कठिन होती है
एक समय
कुछ खाने की
कितनी मादक गंध
अन्न के
दाने-दाने की
जंगल-जंगल फिरना पड़ता है
दिन ढरने तक !
आँखें रहीं प्रतीक्षा में
कब
चूल्हा रोज़ जले
नन्हें छौने
अलख जगावें
मिलकर पेड़ तले
नींद न होगी अभी
क्षुधा का वेग
ठहरने तक !
व्यर्थ गए सब जतन
जागरण के
उजियारे के
फिरे नहीं दिन अब भी
बनवासी बेचारे के
शेष बचेगा क्या
आँधी का
वेग उतरने तक ।
(६)
नया इतिहास लिखो
------------------------
समय आ गया
लिखो नया इतिहास
पसीने का ।
जिसकी लगन
सदा माटी को
मुसकानें देती
जिसकी यश-गाथा
कहती है,
हरी-भरी खेती
जिसका स्वर है मुखर
कुदाली की अविरल लय में
जो बूढ़ा दिखलाई देता है
चढ़ती वय में
उसे दिखाना होगा अवसर
जीवन जीने का !
आज़ादी का सूरज जब
सिर के ऊपर चढ़ आया
तब भी इसकी बस्ती में
है, अंधकार छाया
अकर्मण्य चोरी कर लेते
हैं, इसके फल को
उचित मान मिल सका नहीं
है ,इस गंगा जल को
नहीं जौहरी आँक सके जो
मोल नगीने का ।
(७)
जनगण मेरा वंश
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सूर्य-पुत्र हूँ
बस औरों के लिए
जिया करता
अंधकार से डरने का
इतिहास नहीं मेरा !
पिता-सूर्य ने पहरा सौंपा
संध्या वेला में
इसीलिए तो महासमर यह
हँस-हँस खेला मैं
सारी रात उजाले की
संपदा लूटा डाली
अपनी झोली भरने का
इतिहास नहीं मेरा !
झोंके चले और लौ मेरी
सौ-सौ बार हिली
झांझा मिला, किसी के
फिर आँचल की ओट मिली
इतने बड़े विरोधों में भी
मन न कभी टूटा
संकट देख बिखरने का
इतिहास नहीं मेरा !
मेरी लौ पर राह खोजती
आँखें लगी रहीं
कितनी ही श्वासें
बस मेरी खातिर जगी रहीं
जनगण मेरा वंश
बस्तियाँ मेरा ठाँव सदा
निर्जन बीच विचरने का
इतिहास नहीं मेरा !
भोर देखकर सूर्य
लोग मन में ऐसे फूले
मेरी शौर्य-समर गाथा को
पलभर में भूले
मैं अनाम रहने में ही
सुख पाता रहा सदा
यश के साथ ठहरने का
इतिहास नहीं मेरा !
(८)
पाहुन, गाम की कहो
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गुबरीले हाथों में
झाड़ू थामे सीता
भीगते पसीने में राम की कहो ।
पाहुन गाम की कहो ।।
वादे के साथ वहां पहुंचा है
कितना कुछ कहो राम - राज
अथवा जनसत्ता के भोले
राजा के सर
अब भी है कांटों का ताज
बहती है गर्म नदी
तेज दहकता सूरज
कहो तनिक उसी
तीरथधाम की कहो |
पाहुन गाम की कहो ||
पहुंच सकी है क्या कुछ
वहां गली-गलियारे
पारिजात की भीनी गंध
करता पीले-पपड़ाये
होठों का जुड़पाया
जीते छंदों से संबंध
काले चेहरों को
ढकती काली चादर से
उस गुमसुम
धुंधुवाती शाम की कहो |
पाहुन गाम की कहो ।
(९)
मछेरे घात लगाए
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ऊँचे आसन बैठ मछेरे
घात लगाए हैं ।
जाल बिछे हैं,वंशी की
डोरी में चारा है
जालसाज हैं लहरें
जिनसे जीवन हारा है
जिस जल ने थी
कसम उठाई साथ निभाने की
उसने सीखी चाल नयी
कह कर फिर जाने की
देख हमें अवसन्न
सभी ने जश्न मनाये हैं ।
जन का तंत्र किन्तु
बदनीयत अधिकारों की है
कितनों की ही जीने की
उम्मीद छीन ली है
अनुभव होती घुटन
टूटती-जुड़ती सांसों में
कितना बेचारा है प्राणी
इन संत्रासों में
जहां किया विश्वास
वहीं पर धोखे खाए हैं ।
(१०)
ये दिन भी बीते
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वाट जोहते मौसम के
ये दिन भी बीते
कैसे हमरी याद न आई
इन्दर राजा!
जी भर कर न बरसे
हमरे छप्पर जानी
रेत उड़ी सूखी नदिया की
करुण कहानी
वृक्ष हो गये खंकड़
उजड़ी खेती बारी
शब्द-विहीन घरोंदे की
अपनी लाचारी
अचरज यह कैसी निठुराई
इंदर राजा!
बगुले दिखे न नभ में
नहीं पपीहा बोले
नीम-गाछ की टहनी
सूनी, बिना हिंडोले
सूखे जल के स्रोत
हाथ में रीती गागर
चिंता व्याप रही है
बस्ती में, घर-बाहर
अब तो जीने पर बन आई
इंदर राजा ।
(११)
गीत से संवाद करना
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जब अंधेरे का उठा सर
हो नहीं नत
रोशनी की हो जब कि बेहद
जरूरत
उस घड़ी ओ बंधु
मेरे गीत से संवाद करना ।
नित्य दुमुहे आचरण को
पर लगेंगे
मधुमुखी हो संत जन
अक्सर ठगेंगे
चाटुकारों से सजे
दरबार होंगे
कलियुगी राजा
अधिक खूंखार होंगे
उस घड़ी ओ बंधु
मेरी साफगोई याद करना ।
वस्तुत: यह रास्ता
कांटों भरा है
किन्तु दृढ़ निश्चय
भला किससे डरा है
दंभियों के अहम्
तोड़े हैं इसी ने
आंधियों के पंथ
मोड़े हैं इसी ने
सामने हो समर, मेरे
धैर्य का आस्वाद करना ।
(१२)
अंतर्ध्यान हुए
------------------
और अचानक
जन - नायक जी
अंतर्ध्यान हुए!
द्वारे जनता का हुजूम था
वाट जोहता था
सभी सोच में
महाभाग के
दर्शन होंगे क्या?
खुलते ही कपाट ,धड़कन
हो जाती वेगवती
कौन जानता
विषम अवस्था
कितनी त्रासद थी
नायक जी
यों ओझल होकर
और महान हुए!
निकल गये जब दबे
पांव,श्रीमन् पिछवारे से
मिला दुखद संदेश
खड़े ड्योड़ी हरकारे से
हारे- थके उदास जनों के
चेहरे उतर गये
सभी क्षोभ के सागर में
ज्यों गहरे उतर गये
प्रजातंत्र के स्वप्न
इस तरह
लहूलुहान हुए ।
(१३)
ये फणी
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ये फणी अब
आदमी के वेश में
संवेदना को डस रहे हैं।
इन दिनों अक्सर
धवल पोशाक में हैं
कब उचित अवसर मिले,
इस ताक में हैं
द्रोहियों का ले सहारा
कोटरों में बस रहे हैं।
वे जहाँ भी, जि़न्दगी उस
जगह अति असहाय होती
क्रूरता ऐसी, कि जिसमें
भावना मृतप्राय होती,
लोग इन का लक्ष्य बन कर
त्रस्त और विवश रहे हैं।
बढ़ रहे इंसानियत की ओर
पग को रोकते हैं
अमन के उद्भूत होते
मधु स्वरों को टोकते हैं,
निगलते मासूमियत को
ये भयावह अजदहे हैं ।
(१४)
होटल हो आई
-------------------
महानगर की बेटी
कल ही/होटल हो आई !
लेकर गई वहाँ उसको
पैसे की मजबूरी
लाज-शरम से कर ली
इसने कोसों की दूरी
भूख पेट की
शील-सुधा की
पूँजी खो आई !
नारी के सम्मान परम-पद
का जो दम भरते
वे ही उन्मादी रातों में
चीर-हरण करते
कल्मष के हाथों
आभाव की
कालिख धो आई !
इस कीचड़ में पाँव न
उसने ख़ुशी-ख़ुशी मोड़े
जीने की खातिर
मर्यादा के बंधन तोड़े
इस समाज के
अधःपतन की
खेती बो आई !
महानगर की बेटी
कल ही होटल हो आई !
- विद्यानंदन राजीव
________________________________________________
परिचय
,----------
नाम: विद्यानन्दन राजीव
जन्म : 04 जुलाई 1931
ग्राम कठहरा अलीगढ़ उ.प्र.
शिक्षा : एम.ए.हिन्दी स्वर्णपदक,एल.टी.विशारद सिद्धान्त रत्न
पिता : स्व.पं.गोकुल चंद शर्मा आयुर्वेदिक होम्यो चिकित्सक।
माँ:स्व.श्रीमती वसुमती देवी।
पत्नी : श्रीमती उर्मिला शर्मा।
व्यवसाय : पूर्व प्रोफेसर एवं अध्यक्ष स्नातकोत्तर हिन्दी विभाग,म.प्र.उच्च शिक्षा विभाग।
प्रकाशन :-गीत संग्रह-
(1)पंछी और पवन
(2 )पथ के गीत
(3)गीत गंध।
नवगीत संग्रह :-
(1)छीजता आकाश
(2) हिरना खोजे जल
(3) हरियल पंखी धान
(4) हमने शब्द तराशे।
समवेत गीत संग्रह में रचनाएँ :-
(1) संगम पर मिलती धाराएँ।
(2) नवगीत अर्द्धशती।
(3) नवगीत: नई सदी के
(4)शब्दपदी।
(5) हरियर धान रुपहरे चावल।
संकलित :-
नवगीत सन्दर्भ और सार्थकता, अनेक शोध ग्रंथों में, हिन्दी के स्नातक और स्नातकोत्तर पाठ्यक्रमों में।
पी-एच.डी. : सम्पन्न शोधकार्य :
(1) आगरा विश्वविद्यालय 2007 विषय "नवगीत की अवधारणा के संदर्भ में विद्यानन्दन राजीव के गीतों का अनुशीलन।"
(2) ग्वालियर विश्वविद्यालय 2011 विषय-विद्यानन्दन राजीव के नवगीतों में युग चेतना।"
सम्मान:-
मध्यप्रदेश लेखक संघ-भोपाल के प्रतिष्ठित सम्मान "आदित्य अक्षर"साहित्य तीन दर्जन सम्मान और पुरस्कार।
गद्य लेखन :-
भूमिकाओं समालोचनात्मक निबन्ध, समीक्षाएँ, वार्ता,फीचर साक्षात्कार आदि से सम्बन्धित लगभग पचास आलेख।
प्रसारण :- देश की प्रतिष्ठित साहित्यिक पत्रिकाओं में विगत 50 वर्षों से प्रकाशन।
आकाशवाणी और दूरदर्शन की गीत गोष्ठियों, चर्चाओं में सहभागिता।
विमर्श : नई ग़ज़ल (त्रैमासिक) सं.डॉ.महेंद्र अग्रवाल का कवि के नवगीतों पर केंद्रित विमर्शपरख विशेषांक।
संपादन : "संकल्परथ" मसिकी निराला विशेषांक के अतिथि संपादक के रूप में संपादन।
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