दूसरे पड़ाव की पहली किस्त
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ग्यारहवीं कड़ी
भारतेन्दु मिश्र
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समकालीन दोहा की ग्यारहवीं कड़ी में प्रस्तुत हैं भारतेन्दु मिश्र जी के दोहे
डॉ भारतेन्दु मिश्र जी अपने समय के चर्चित रचनाकार हैं। मिश्र जी बहुआयामी व्यक्तित्व के धनी हैं और उनका लेखन कभी भी किसी एक विधा से बंधकर नही रहा कविता, कहानी, उपन्यास, ललित निबंध,गीत, नवगीत दोहा,नाटक और समालोचना में उनकी गहरी पैठ रही है। मिश्र जी भले ही महानगर में निवास करते हों परन्तु महानगर की संस्कृति उन पर हावी नहीं हुई वह आज भी अपनी जड़ों से जुड़े हैं,और अपनी जड़ों को खाद पानी देकर सींचते हैं इसका प्रमाण उनकी उनकी निरन्तर अवधी में प्रकाशित होने वाली डायरी से मिलता है, जिसका एक नियमित पाठक मैं भी हूँ।
1998 में प्रकाशित भारतेन्दु मिश्र जी के समकालीन दोहों की पुस्तक 'कालाय तस्मै नमः' की भूमिका में डॉ बाबूलाल गोस्वामी जी दो एक बातें बड़े मार्के की कही हैं जिन्हें यहाँ पाठकों के समक्ष रखता हूँ।
वे कहते हैं कि "कवि भारतेन्दु दार्शनिक न होकर कवि हैं और कवि न तो शुद्ध वेदान्ती होता है और न प्रज्ञा पारमिता से संपन्न सन्यासी बुद्ध। अतः भिन्न-भिन्न क्षणों में उसे अनंत शक्तियों का साक्षात्कार होता है कवि भारतेंदु की इस सतसई में करुणा और संघर्ष का ज्वार भाटा देखने को मिलता है तो प्रेम और भक्ति का पवित्र तादात्म्य भी। भारतेन्दु मिश्र के दोहे, दोहे नहीं अर्जुन के वाण हैं,जो कालदेवता के चरणों मे श्रद्धा सहित चला दिए गए हैं।।"
आइए पढ़ते हैं
भारतेन्दु मिश्र जी के समकालीन दोहे
प्रस्तुति
मनोज जैन
वागर्थ
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हम हैं यह सौभाग्य है,समय बड़ा ही ढीठ।
चार चाम की चाबुकें,एक अश्व की पीठ।।
आँखों में कटने लगी, रोते -रोते रात ।
जहर पी रहा रोज़ ही,अब भूखा सुकरात।।
टकराती हैं खुशबुएँ, जहाँ जाम पर जाम ।
तड़प -तड़प कर मर रहा, यहाँ उमर खैयाम।।
धुआँ उठा ज्वाला जली, पिघल बहा नवनीत।
सूखे- सूखे शब्द हैं, झुलसे-झुलसे गीत।
यह अंधों का राज है ,सफल पाप के मंत्र।
दुर्योधन फूला फिरे, फला आज षड़यंत्र।।
खुद से खुद को काटकर, रख शब्दों पर धार।
जंग न खा जाए कहीं, सर्जन की तलवार।।
आग पेट की कर रही, दो रोटी की माँग।
किसी तरह रचते रहें,हम जीने का स्वाँग।।
मुझ सा जाहिल है कहाँ,तुम सा कहाँ अदीब।
अब तो आप सिखाइए ,कुछ तिकड़म तरकीब।।
मन के मंजुल चित्र पर,जमी समय की गर्द।
दर्द दे रहा रात दिन, अपना ही हमदर्द।।
विधि-निषेध की लाठियाँ, खानी हैं सरकार।
हम सेवक हम पशु सदृश,क्या जानें अधिकार।।
दस्तक दे कहने लगा ,सुबह -सुबह ईमान।
कविता में जीवित रखो, भाई मेरे प्राण।।
लगा हारने सूर्य भी,अँधियारे से रोज।
अब कुहरा देने लगा,उनको दुहरा डोज़।।
सरजू तट पर घोटकर राजनीति की भंग।
समय बजाता शंख अब,धर्म बजाता चंग।।
इंद्र कपट के वेश में,माँगे रति की भीख।
कौन सुनेगा अब यहाँ, पाषाणी की चीख।।
रो मत पागल!सँभल चल,भरकर नई उमंग।
कुछ टूटा कुछ जुड़ गया, यही प्रगति का ढंग।।
अब बगुले हैं मुद्दई, कौवे बने वकील।
उम्र क़ैद हो हंस को , निर्णय देती चील।।
डंक मारती रूपसी,गला काटते मित्र।
बेहद गंदे लोग ही ,लेपा करते इत्र।।
उधर तीर अन्याय के, इधर सत्य की ढाल।
बचना है अभिमन्यु तो, देख समय की चाल।।
उल्टे मुझपर ही पड़े, मेरे चर्चित दाँव।
सड़क काटकर खा गयी, मेरे दोनों पाँव।।
पोर -पोर कटुता बसी ,रोम रोम में चीख।
अब संस्कृति की रस भरी ,नहीं रही वह ईख।।
भारतेन्दु मिश्र
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