युगबोधसम्पन्न दोहे
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1
है अभाव महँगी बिके , अधरों की मुस्कान।
चलो शहर में खोल लें , चलकर एक दुकान।।
कॉफी में डूबी सुबह , थकी-थकी सी शाम ।
भूल गए हम शहर में , आकर अपना नाम।।
आँख सुपर बाजार में , रखे सड़क पर पाँव।
दफ्तर में सिर रख चले , हम सपनों के गाँव।।
'मर्डर' करके शील का , 'हवस' हुई स्वच्छंद।
सिर्फ 'जिस्म' ही नाचता , घर-बाहर निर्द्वन्द ।।
दिखा रहा है देश में, खुशहाली के चित्र।
दर्पण ने सच बोलना , छोड़ दिया क्या मित्र।।
है घायल पर प्राण में , क्रांति हुई आबाद।
दर्पण ने डटकर किया , पत्थर से संवाद।।
चेहरे पर चेहरे कई , उस पर पर्दे सात।
राजनीति ने मुकुर को बतला दी औकात।।
मन के दफ्तर में रहा , सदा दर्द आबाद।
हम बैठे करते रहे, आँसू का अनुवाद।।
मेरा मन चलकर गया , बाल दिवस के पास।
पथ में ढाबे पर मिला , सपना एक उदास।
उस दिन सत्ता ने दिया , घर त्यौहारी भोज।
झुका चरण में कलम का, स्वाभिमान जिस रोज।
ज्ञान , ध्यान , संयम भला , कैसे रहें स्वतंत्र।
अब फागुन पढ़ने लगा , सम्मोहन के मन्त्र।।
महाकाव्य सी दोपहर , गजल सरीखी प्रात।
मुक्तक जैसी शाम है, खण्ड काव्य सी रात।।
तपे दुपहरी सास सी , सुबह बहू सी मौन।
शाम ननद सी चुलबुली, गर्म जेठ की पौन।।
सावन - भादौं बरसकर , हरें हृदय का चैन।
ज्यों -ज्यों टपके झोंपड़ी , त्यों-त्यों टपके नैन।।
पथहारे को पथ मिला , विरहिन को प्रिय संग।
सूर्यकिरन दिन को मिली , खिले शरद के रंग।।
छूते मैली होरही , ऐसा उजला रूप।
फुदक श्वेत खरगोश सी , रही चंचला धूप।।
ठिठुरन , सिहरन , कम्प ले , और शीत का डंक।
अत्याचारी शिशिर ने, फैलाया आतंक।।
हम सरिता के तट खड़े , लिए पीठ पर भार।
हँसते--हँसते जिंदगी , निकल गयी उस पार।।
पाँव प्रीति के जल गए , झुलस गया अनुराग।
कौन सिरफिरा बो गया , घर-आँगन में आग।।
कुछ दोहे (व्यक्तिपरक)
1 कबीरदास
शेख , पुरोहित , मौलवी , सन्त , महंत , फकीर।
वहाँ न पहुँचा एक भी , पहुँचा जहाँ कबीर।।
2 कुम्भनदास
जिसने तुझको पा लिया , छोड़ दिया संसार।
क्या अकबर की सीकरी , क्या दिल्ली दरबार।।
3 राम
तन -निषाद टेरे तुम्हें , मन--सुतीक्ष्ण अविराम।
पल -पल यह शबरी-तृषा , रटे तुम्हारा नाम।।
4
साँसें सरयू सी बहें , तन-मन तट निष्काम।
प्राणों के साकेत में , अब तो आओ राम।।
5 जनक
भाव भक्ति-रस में सना , कर्म रहा निष्काम।
यों ही नहीं विदेह के, घर तक आये राम।।
6 भरत
चट्टानों। पर चाँदनी , लिखती थी उस शाम।
सदियाँ वीतीं अब पढा , लिखा भरत का नाम
7 कौशल्या
सूर्यवंश -वट बीज का , लिए उदर में भार।
भटके मेरी जानकी , राम! तुझे धिक्कार।।
8शूर्पणखा
विधवा करता एक है , दूजा अपयश धाम।
नारी को सब एक से , रावण हो या राम।।
9 रामसेतु
विनय न मानी सिंधु ने , रहा न अन्य विकल्प।
गरज उठा तब राम में , जन-जन का सनलप
10 रावण
सम्मोहन जब स्वर्ण का , कर देता उद्भ्रांत।
मन बनता है कुटिल तब , दशकंधर विभ्रान्त।।
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