नवगीत विधा छह दशक पुरानी हो चुकी है। पिछले कुछ दिनों से यह विधा चर्चा का विषय बनी हुई है। नवगीत की सीमाएं और संभावनाएं विमर्श के केन्द्र में हैं। लोग अपनी-अपनी मान्यताएं और अवधारणाएं प्रस्तुत कर रहे हैं। लेकिन कोई निश्चित स्वरूप सामने नहीं आ पा रहा।
नवगीत का संसार बहुत विशाल है। उसमें आज का युग यथार्थ, आम आदमी का संघर्ष, सामाजिक-सांस्कृतिक-राजनीतिक विसंगतियों-विडंबनाओं से लेकर प्रेम-प्रकृति-परंपरा-इतिहास-संस्कृति-उच्चतर मानव मूल्य... सब कुछ समाहित हो सकता है। नवगीत का फलक अपनी शुरुआत से ही व्यापक रहा है। इसके शुरुआती दौर में केदारनाथ अग्रवाल, शंभूनाथ सिंह, वीरेन्द्र मिश्र, नईम, देवेन्द्र शर्मा इंद्र, ठाकुर प्रसाद सिंह, उमाकांत मालवीय, विद्यानंदन राजीव, शिव बहादुर सिंह भदौरिया, माहेश्वर तिवारी, उमाशंकर तिवारी, गुलाब सिंह, ओम प्रभाकर, रमेश रंजक, नचिकेता, कुमार रवीन्द्र,शांति सुमन, राजकुमारी रश्मि, राम सेंगर, विनोद निगम आदि वरिष्ठ रचनाकारों का अपनी-अपनी तौर से योगदान रहा है।
ये सभी रचनाकार एक ही विचारधारा के नहीं थे, फिर भी सबने नवगीत को समृद्ध करने में अपना अमूल्य योगदान किया और महत्वपूर्ण बात यह है कि विचारधारा के स्तर पर किसी भी रचनाकार को किसी अन्य रचनाकार से किसी भी किस्म की कोई दिक्कत नहीं थी। इनमें से कुछ रचनाकार नवगीत के सांचे में स्वयं को सहज अनुभव नहीं कर पा रहे थे, तो उन्होंने जनगीत नाम से एक अलग काव्य विधा का आंदोलन खड़ा किया और उसके अंतर्गत रचनाएं प्रस्तुत करते रहे। हालांकि अंततः जनगीत भी नवगीत का ही हिस्सा बन गया।
नवगीत का फलक इतना व्यापक और विस्तृत है कि उसमें लगभग हर समकालीन संवेदना समा सकती है। ऐसे में किसी भी विषय को नवगीत के लिए हेय, त्याज्य, निषिद्ध ,अस्पृश्य अथवा अप्रासंगिक समझना उसके विस्तार को संकुचित करके उसके साथ अन्याय करना होगा। सौभाग्यवश नवगीत की शुरुआती पीढ़ी के कई रचनाकार अभी हमारे बीच मौजूद हैं और कई तो अभी भी सक्रिय हैं। इस संदर्भ में उनके विचारों से भी लाभान्वित हुआ जा सकता है।
नवगीत का मूल्यांकन करते समय उसकी व्यापकता वाले आयाम को ध्यान में रखने पर ही उसका समग्र मूल्यांकन उचित होगा। सीमाबद्ध होकर हम उसे समझ सकने में पूर्णतया सफल नहीं हो सकते। तब तो 'हाथी और चार अंधे' वाली कहानी ही चरितार्थ होगी। सीमित अथवा संकीर्ण दृष्टि से किया गया कोई भी समीक्षात्मक, समालोचनात्मक या मूल्यांकनपरक कार्य रचना ही नहीं, नवगीत विधा के प्रति भी अन्याय ही होगा।
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