#याद_बहुत_आते_हैं_घर_के_परिचय_और_प्रणाम
~।।वागर्थ।।~
प्रस्तुत करता है शान्ति सुमन जी के नवगीत
________________________________________________
शान्ति सुमन जी एक ऐसा नाम जिसके तेवर में प्रतिरोध बचपन से ही था , दादी के अगाध स्नेह की छत्रछाया में पली बढ़ी बालिका शान्ति ने पाठशाला में अन्य सहपाठियों पर उठे शिक्षक के डण्डे का विरोध घर में यह कहकर दर्ज किया कि जब तक छड़ी वाले शिक्षक रहेंगे वह स्कूल नहीं जाएँ गी , फलतः शिक्षक को हटना पड़ा , किशोर वय ने हिंसा सहना तो दूर, देखना भी गंवारा नहीं किया ।
जब समाज में बेटों का मान बेटियों से कहीं अधिक था ,संयोगवश शान्ति जी का परिवार में मान मनौव्वल अपेक्षाकृत अधिक नहीं बहुत अधिक था और इस संयोग का निमित्त दादी का शांति जी के प्रति अतिरिक्त नेह में रचा पचा विशिष्ट किरदार था ।
शान्ति सुमन जी को शान्ति सुमन होने में बचपन का अनुदान अधिक रहा , सामाजिक सरोकार की संवेदना का अभ्युदय भी वहीं से हुआ । वह स्वयं कहती हैं कि वह " जिस वातावरण में पल रही थीं , उसमें कविता की अशेष संभावनाएँ भरी थीं। गरीबी, अशिक्षा, एक ओर और फूल, तितली, पोखर में खिलते उजले-लाल कमल और साथ में चलती मछलियाँ "
बलदेव लाल दास जी की नातिन और कुँवर भवनंदन लाल की इस धाकड़ पुत्री की पहली कविता जो गीत के शिल्प पर थी , रश्मि पत्रिका में छपी और यहीं से उनका साहित्य से सरोकार जुड़ा वह कविता कालांतर में एक छतनार वृक्ष बनी जिस पर समाज के शोषित दमित तबके , विभिन्न विसंगतियों पर विरोध दर्ज करते गीतों के कुछ मसृण तो कुछ कंटीले पुष्प उगे ।
वे जितनी सुविधाओं में पलीं , उनका मन असुविधाओं का उतना ही साक्षी रहा , ये असुविधाएँ थीं समाज की असंगत बुनावट की जो उनके कोमल मन को उद्वेलित करती थीं फलतः उनके गीतों में हम प्रतिरोध का सशक्त स्वर पाते हैं ।
जब भी हम उनसे बात करते हैं आश्चर्य से भर उठते हैं कि कोई इतना ममतामयी , इतना कोमल , इतना विनम्र गुरु होकर इतनी लघुता अपने व्यक्तित्व में कैसे समेट सकता है ! वह चलता -फिरता संस्मरणों का संस्थान हैं जो कभी गुदगुदाते हैं कभी भावुक भी कर देते हैं जिनसे कितना कुछ सीखा जा सकता है ।
शान्ति सुमन जी के गीत जीवन-जगत की समस्याओं से साक्षात्कार की प्रवृत्ति, विषय-वस्तु की विविधता, वस्तुपरक अनुभूति की संरचना, भाषा-शिल्प, लय-छंद, लोक-चेतना, जनपक्षधरता समसामयिक सामाजिक यथार्थ के अमानवीय पक्षों की उचित व प्रभावी पड़ताल करते हैं तथा शोषण और उत्पीड़न की कष्टकारी अमानुषिकता का, समयसापेक्ष, समाजसापेक्ष और युगसापेक्ष अवलोकन करते हैं, उनके विपुल रचना-संसार के समृद्ध परिसर के नवगीत संकाय से कुछ नवगीत पढ़ने से पहले कुछ समीक्षकों की उनकी गीत यात्रा पर प्रतिक्रिया पढ़ते हैं ।
शान्ति सुमन जी नवगीत की अनन्या कवयित्री एवं समकालीन लेखन की प्रणेत्री हैं । वे नवगीत और जनवादी गीत की मुख्य धारा में दूर तक स्वीकृत , समादृत उच्च स्तरीय रचना कार हैं ।
- राजेन्द्र प्रसाद सिंह
गीत , शांति सुमन की रचनाधर्मिता का स्व-भाव है ,जिसे उन्होंने काव्याभिव्यक्ति की दीगर तमाम भंगिमाओं के बीच शिद्दत से जिया और बचाए रखा है । यही नहीं समय के बदले और बदलते सन्दर्भों में अनुभव - संवेदनाओं की नई ऊष्मा और नया ताप भी उन्हें दिया है । इसी नाते उनका नाम प्रगतिशील आन्दोलन के साथ आरम्भ हुई जनगीतों की परम्परा को , नई सदी की दहलीज तक लाने वाले जन गीतकारों में पहली और अगली कतार का नाम है ।
- डा शिवकुमार मिश्र
शान्ति सुमन हिन्दी के स्त्री -गीतकारों ,खासकर नवगीत और जनगीत के क्षेत्र में सर्वोच्च शिखर पर विराजमान हैं ,जिन्होंने अपनी रचनात्मक पहलकदमी की बदौलत गीत -रचना का एक नया सौन्दर्य शास्त्र गढ़ा है ।
- नचिकेता
शांति सुमन हमारे समय के उन कुछ दुर्लभ गीतकारों में हैं जो शिल्पगत अथवा शैलीगत अलगाव के बावजूद , सोच और संवेदना के स्तर पर समकालीन कविता से गहरे जुड़े हैं ।
- मदन कश्यप
गीत के फलक पर शान्ति सुमन का आविर्भाव एक घटना
-सत्य नारायण
शान्ति सुमन का नाम लिए बिना नवगीत का इतिहास अधूरा और अपंग होगा । तमाम वैचारिक मतभेदों
एवम् प्रस्थान बिन्दुओं के बाद भी आलोचक ऐसा महसूस करता है कि नवगीत की पृष्ठभूमि एवं उसके विकास में शान्ति सुमन का महत्वपूर्ण योगदान है ।
स्वयं गीत के विषय पर वे कहती हैं " मैं मानती हूँ कि गीत जीवन की अनिवार्यता है । जब तक जीवन है , जीवन में रागात्मकता है -गीत की प्रासंगिकता अक्षुण्ण है । लौकिक जीवन में ऐसा कोई सामाजिक कार्य नहीं है जिसमें गीत की जगह नहीं हो । यह श्रम शक्ति को संघटित और गतिशील करता है और श्रम शक्ति के ह्रास से उत्पन्न तनाव और थकान को कम करने का सबसे कारगर हथियार है ।
नवगीत के विषय पर बात करते हुए वे कहतीं है कि नवगीत का इतिहास न लिखा जाना इसकी कमी रही । स्वयं कुछ वरीय नवगीतकारों से ही इसका अहित हुआ । छोटे -छोटे मतभेदों ने भी इसकी एक स्वस्थ्य संगठनात्मक छवि नहीं बनने दी , अन्यथा क्या कारण था कि इतनी सशक्त, जीवंत और दीर्घकालीन विधा जो आज भी लिखी जा रही है , का असमय बिखराव हो जाता ? जिस नवगीत ने सुखद भावों को जगाने , मोहक बिम्बों को रचने , सुप्त स्मृतियों को सहलाने का काम इतनी तन्मयता से किया , पाठकों श्रोताओं के सामने नए ताजे गीत के रूप में आने का अधिकार प्राप्त कर लिया , वह बाद के वर्षों में पूरी सघनता से क्यों नहीं आया । जीवन कितना भी कठिन हो जाए , कोमलता का पूरा निर्वासन नहीं होता । राग को जीवन में आँजे बिना जीवन कठिन है । यदि इतने भर के लिए नवगीत बचा रहे तो पूरा का पूरा नवगीत बच जाएगा । अलिखित होकर भी उसका इतिहास अमिट होगा ।
आप पर आपके गीतों पर पूर्व में ही लगभग सब कुछ कहा जा चुका है , अधिक कुछ न कहते हुए वागर्थ के माध्यम से आपको सम्मान व स्नेह प्रेषित करती हूँ और स्वस्थ्य व सुदीर्घ जीवन की कामना करती हूँ ।
________________________________________________
(१)
एक सूर्य रोटी पर
---------------------
यह भी हुआ भला
कथरी ओढ़े तालमखाने
चुनती शकुन्तला ।
कन्धे तक डूबी
सुजनी की देह गड़े काँटे ।
कोड़े से बरसे दिन
जमा करे किस-किस खाते
अँधियारी रतनार प्रतीक्षा
बुनती चन्द्रकला
मुड़े हुए नाखून
ईख -सी गाँठदार उँगली
टूटी बेंट जंग से लथपथ
खुरपी सी पसली
बलुआही मिट्टी पहने
केसर का बाग जला
बीड़ी धुकती ऊँघ रही
पथराई शीशम आँखें
लहठी-सना पसीना
मन में
चुभती गर्म सलाखें
एक सूर्य रोटी पर औंधा
चाँद नून-सा गला ।
कथरी ओढ़े तालमखाने
चुनती शकुन्तला !
(२)
आग बहुत है-
----------------
भीतर-भीतर आग बहुत है
बाहर तो सन्नाटा है ।
सड़कें सिकुड़ गई हैं भय से ,
देख ख़ून की छापें ।
दहशत में डूबे हैं पत्ते ,
अँधकार में काँपें ।
किसने है यह आग लगाई
जंगल किसने काटा है ।
घर तक पहुँचानेवाले वे ,
धमकाते राहों में ।
जाने कब सींगा बज जाए ,
तीर चुभें बाहों में ।
कहने को है तेज़ रोशनी ,
कालिख को ही बाँटा है ।
कभी धूप ने, कभी छाँव ने ,
छीनी है कोमलता ।
एक कराटेन वाला गमला ,
रहा सदा ही जलता ।
ख़ुशियों वाले दिन पर लगता ,
लगा किसी का चाँटा है।
(३)
गाँव नहीं छोड़ा
-------------------
दरवाजे का आम-आँवला
घर का तुलसी-चौरा ।
इसीलिए अम्मा ने अपना
गाँव नहीं छोड़ा ।
पैबन्दों को सिलते--
मन से उदास होती ।
भैया के आने की खुशबू-
भर से खुश होती ।
भाभी ने कितना समझाया
मान नहीं तोड़ा ।
कभी-कभी बजते घर में ,
घुंघरू से पोती-पोते ।
छोटे-छोटे बँटे बताशे ,
हाथों के सुख होते ।
घर की खातिर लुटा दिया सब
रखा न कुछ थोड़ा ।
गहना बननेवाले दिन में
खेत खरीद लिये ।
बाबूजी के कहे हुए ,
सपने संग लिए ।
सह न सकी जब खूँटे पर से
गया बैल जोड़ा ।
इसीलिए अम्मा ने अपना
गाँव नहीं छोड़ा ।
(४)
एक प्यार सब कुछ
_______________
मुझमें अपनापन बोता है ,
साँझ–सकारे यह मेरा घर ।
उगते ही सूरज के–
रोशनदान बाँटते ढेर उजाले ।
धूपों के परदे में -
खिल–खिल उठते हैं ,
खिड़की के जाले ।
चिड़ियों का जैसे खोता है ,
झिन–झिन बजता है कोई स्वर ।
एक हँसी आँगन से उठती ,
और फैल जाती तारों पर ।
मन की सारी बात लिखी हो ,
जैसे उजली दीवारों पर ।
एक प्यार सब कुछ होता है ,
जिससे डरते हैं सारे डर ।
दरवाज़े पर साँकल माँ की ,
आशीषों से भरी उँगलियाँ ।
पिता कि जैसे बाम–फूटती ,
एक स्वप्न में सौ–सौ कलियाँ ।
जहाँ परायापन रोता है ,
लुक–छिप खुशी बाँटती मन भर ।
(५)
गंध लिखी देहरी
---------------------
माँ की
परछाईं -सी लगती ,
गोरी-दुबली शाम ।
पिता-सरीखे
दिन के माथे
चूने लगता घाम ।
दरवाजे के
साँकल--
छाप अंगुलियों
की ठहरी ।
भुनी हुई सूजी
की मीठी
गंध लिखी देहरी ।
याद बहुत आते
हैं घर के ,
परिचय और प्रणाम ।
उजले-पीले
कई-कई
सन्दर्भ सलोने से ।
तुतली जिद पर
गुस्से लगते
काँच खिलौने के ।
नूपुर पहन बहन
का हँसना
फिरना सारा गाम ।
कहीं-कहीं दुखती
है घर की ,
छोटी आमदनी ।
धुआँ पहनते
चौके बुनते ,
केवल नागफनी ।
मिट्टी के प्याले
-सी दरकी ,
उमर हुई गुमनाम ।
(६)
बादल लौट आ -
______________
दुख रही है अब नदी की देह
बादल लौट आ ।
छू लिए हैं पाँय संझा के ,
सीपियों ने खोल अपने पंख ।
होंठ तक पहुँचे हुए अनुबंध के ,
सौंप डाले कई उजले शंख ।
हो गया है इंतज़ार विदेह ,
बादल लौट आ ।
बह चली हैं बैंजनी नदियाँ ,
खोलकर कत्थई हवा के पाल ।
लिखे गेरू से नयन के गीत ,
छपे कोंपल पर सुरभि के हाल ।
खेल के पतले हुए हैं रेह ,
बादल लौट आ ।
फूलते पीले पलासों में ,
काँपते हैं ख़ुशबुओं के चाव ।
रुकी धारों में कई दिन से ,
हौसले से काग़ज़ों की नाव ।
उग रहा है मौसमी संदेह ,
बादल लौट आ ।
(७)
नागकेसर हवा
-------------------
मुट्ठियों में बंद कर ली ,
नागकेसर हवा ।
एक तिनका धूप लिखती ,
है भला सा नाम ।
देखना फिर अतिथि ,
आएगा तुम्हारे गाम ।
सर्दियों में नरम हाथों ,
से धरा कहवा ।
गेहुओ की पत्तियों पर ,
छपा सारा हाल ।
फुनगियो पर दूब की ,
मौसम चढ़ा इस साल ।
रंग हरे हो गए पीले ,
बात में मितवा ।
एक चिड़िया चोंच भर ,
लेकर उड़ी अनमन ।
भाभियों के खनकते ,
हाथों हिले कंगन ।
स्वागतम गूँथी हथेली ,
धो गई शिकवा ।
(८)
और कितने दिन
___________
हाथों में आ गए
पंख तितलियों के
रंग पहचानने लगी लड़की
उंगलियों पर गिन रही
दिन माह के सपने
और कितने दिन हैं
इस आग में तपने
एक टुकड़ा उजाला
दूध में धोया
कहाँ जो खोया
जैसे बिजली कड़की
तब तो आसान से थे
दुख ही बड़े अपने
अब आते पकड़ में ही
नहीं सुख ये इतने
दीखती है धूप
अटकी जालियों में
पास आई लगी दूर सरकी।
पाँवों के साथ चलते
रास्ते दूर कितने
दीखो तो अलग हम थे
पास जिनके उतने
बदलियाँ हों धूप वाली
द्वार पसरी जानते
तनों से बात जड़ की।
(९)
तुम मिले तो बोझ है कम ,
बहुत हल्की पीठ की गठरी ।
उस नदी में पाँव धोते ,
हिरनियों सी कुलाँचें भरती ।
गाँठें गिनती ईखों की ,
हवा को धूप सी करती ।
अँधेरे के हाथ हैं नम ,
फूलवाली आँख जो ठहरी।
फूटते धानों सरीखे ,
हम बढ़े , बढ़ते गये ।
फुनगियों से फसल की ,
सपने बहुत कढ़ते गये ।
दिनों की बारिश गयी थम ,
तुम हँसी से हो गयी दुहरी ।
हाथ के घट्ठे कभी जो ,
चैन पाकर लगे दुखने ।
प्यार वे पाकर तुम्हारे ,
करीने से लगे कमने ।
खेत में उतरा हुआ मौसम ,
हँसी की हंसिनी उतरी ।
(१०)
पूरी पृथ्वी माँ
_____________
रोटी सी सच तेरी बातों को फिर करना याद ।
फिर से हुई उदास सोचकर तेरे बारे में ।
तुम पूरी पृथ्वी हो माँ ,
सपनों में रोज सुलगती ।
ऊपर-ऊपर ठोस मगर ,
भीतर से बहुत धधकती ।
तेरे दुख जितने अपने थे चमकीले आजाद ।
कोई कह भी सका नहीं कुछ तेरे बारे मे ।
आटा-आटा हाथ तेरे ,
जब रोटी रचनेवाले ।
कहाँ पता था किसे मलिन हैं
होंठ ये हँसनेवाले ।
भीतर का भूकम्प आँख में बहुत दिनों के बाद ,
उतरा भी तो लोग सहज थे तेरे बारे में ।
बिन शब्दों के अर्थ तुम्हारे ,
कितनी दूर तलक जाते थे ।
अपनों से मिलने की खातिर ,
अपने से ही हट जाते थे ।
घर के पौधे की खातिर तुम बनी स्वयं ही खाद ,
आँगन की परछाई कहती तेरे बारे में ।
(११)
गमला करोटन का
----------------------
बहुत खुश हूँ
खुश बहुत हूँ
हाल अपना लिखो
क्या हुआ कल रात आई
जोर की आँधी
नंबरों की पत्तियाँ फिर
रात भर जागी
समय कम है
कम समय है
हर मुहिम पर दिखो
एक गमला करोटन का
ले गया कोई
अंधेरे में पत्थरों को
बो गया कोई
तेज कर उड़ानों को
उड़ानों को तेज कर
धीरज रखो
अलग मत करना कभी
इस कठिन दिन को
छाँह में भी धूप के किस्से
कहो मन को
अलग मत करना कभी
इस कठिन दिन को
छाँह में भी धूप के किस्से
कहो मन को
खेत में फसलों सी
फसलों सी खेत में
दिन - दिन पको ।
(१२)
पैर की छाप
-----------------
नींद में भी सुनाई पड़े
एक हँसी खिलखिलाती हुई
कत्थई गोद के फूल सी
गंध भीनी नहाती हुई
आँख खुलते ही सूरज जगे
नील झीने चंदोवे तले
एक सुकुमार टहनी जुड़ी
लोरियों के सहारे हिले
एक नदी घर में उगने लगी
तोतली जिद बहाती हुई
पैर की छाप घर में लिखी
जलकमल ज्यों गिरे डाल से
दूधिया दाँत ऐसे लगे
दो सितारे ढंके जाल से
या हरसिंगार झरते हुए
दूर लौ झिलमिलाती हुई
सरसों की अंकुराती देह
गीत घुली दो मीन आँखें
नेह का बोल बोले , खुले
चिड़ियों सी बाँहों की पाँखें
इस तरह लोकधुन में पगी
नींद भी गुनगुनाती हुई ।
(१३)
हँसिया हाथ थमे
---------------------
धीरे -धीरे बहे पसीना ,
धीरे नदी बहे रे ।
ललना रे आधी रात गए ,
रनियां का मन कहरे ।
इधर गजर का बोल ,
उधर मुनिया जन्मे ।
ललना रे आँखों नचे सरुप ,
कि हसिया हाथ थमे ।
अगुआरे फूले गेन्दा फूल ,
बीच-बीच अड़हुल रे ।
ललना रे बेटी का भाग अमोल ,
बढ़े दो-दो कुल रे ।
सोते ही हो गई भोर ,
कि सपने आधे हुए ।
ललना रे देख न पाए रूप ,
कुँवर दम साधे हुए ।
ढह जाए ऊँची दीवार ,
जले यह जंगल रे ।
ललना रे जाए जहाँ ये राह ,
मिले अपना कल रे ।
~ शान्ति सुमन
________________________________________________
परिचय
----------
जन्म - अनंत चतुर्दशी - 1944
शिक्षा : एम ॰ ए॰, पीएच॰ डी॰
प्रकाशित रचनाएँ
----------------------
गीत संग्रह
-------------
ओ प्रतीक्षित - '70,
परछाईं टूटती - '78,
सुलगते पसीने - '79,
पसीने के रिश्ते - '80,
मौसम हुआ कबीर - '85,
तप रहे कचनार - '97,
भीतर-भीतर आग - '02,
पंख-पंख आसमान - '04 (चुने हुए एक सौ एक गीतों का संग्रह),
एक सूर्य रोटी पर - '06,
धूप रंगे दिन - '07,
नागकेसर हवा - '11,
मेघ इन्द्रनील - '91 (मैथिली गीतों का संग्रह),
लय हरापन की - '14
कविता-संग्रह
-----------------
समय चेतावनी नहीं देता -'94,
सूखती नहीं वह नदी - '09
उपन्यास
-------------
जल झुका हिरन - '76
आलोचना
--------------
मध्यवर्गीय चेतना और हिंदी का आधुनिक काव्य - '93
सम्पादन
------------
'सर्जना', 'अन्यथा' (मुजफ्फरपुर), 'भारतीय साहित्य', 'कन्टेम्पररी इंडियन लिटरेचर' (दिल्ली), 'बीज' (पटना) ।
देश-विदेश की प्रमुख पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित | देश के विभिन्न आकाशवाणी एवं दूरदर्शन केन्द्रों से गीतों की रिकॉर्डिंग एवं प्रसारण | गणतंत्र की पूर्व संध्या पर सर्वभाषा कवि सम्मलेन (दिल्ली) में तमिल कविता का हिंदी अनुवाद-पाठ | गणतंत्र की पूर्व संध्या पर सर्वभाषा कवि सम्मलेन (दिल्ली) में संस्कृत कविता का हिंदी में गीतात्मक अनुवाद ।
'कामायनी' का मैथिली में अनुवाद-2013 (साहित्य अकादमी)
सम्मान और पुरष्कार ।
बिहार राष्ट्रभाषा परिषद् पटना से साहित्य-सेवा सम्मान से सम्मानित एवं पुरष्कृत, हिंदी साहित्य सम्मलेन, प्रयाग से कविरत्न सम्मान, बिहार सरकार के राजभाषा विभाग द्वारा महादेवी वर्मा सम्मान से सम्मानित एवं पुरष्कृत, अवंतिका (दिल्ली) द्वारा विशिष्ट साहित्य-सम्मान, मैथिली साहित्य परिषद् से विद्यावाचस्पति सम्मान, हिंदी प्रगति समिति द्वारा भारतेंदु सम्मान।| इनके अतिरिक्त नारी सशक्तिकरण के उपलक्ष्य में सुरंगमा सम्मान एवं विन्ध्य प्रदेश से साहित्यमणि सम्मान।हिंदी साहित्य सम्मलेन, प्रयाग से 'साहित्य भारती' का सम्मान (2005) तथा उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान द्वारा 'सौहार्द सम्मान' (2006) से सम्मानित एवं पुरष्कृत । मिथिला सांस्कृतिक परिषद्, जमशेदपुर, (झारखंड) से मिथिला विभूति सम्मान-2015।
आलोचकीय मूल्यांकन ।
शांति सुमन के गीत एवं उनकी गीतधर्मिता का अध्ययन-विश्लेषण करते हुए पाठकों, समीक्षकों एवं विद्वान आलोचकों के आलोखों की दो पुस्तकें प्रकाशित -
1. 'शांति सुमन की गीत-रचना और दृष्टि'-सम्पादक-दिनेश्वर प्रसाद सिंह 'दिनेश' - सुमन भारती प्रकाशन 1/26, काशीडीह, जमशेदपुर, झारखंड - 831001
2. 'शांति सुमन की गीत-रचना: सौंदर्य और शिल्प'-सम्पादक डॉ॰ चेतना वर्मा - ईशान प्रकाशन, मीठनपुरा, क्लब रोड, रमना, मुजफ्फरपुर - 842002 (बिहार)
विशेष
पूर्व अध्यक्ष, हिंदी विभाग, महन्त दर्शनदास महिला महाविद्यालय, मुजफ्फरपुर (बी. आर. ए. बिहार विश्वविद्यालय की अंगीभूत इकाई)
सम्प्रति
स्वतंत्र रचना-कर्म
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें