चर्चित कवयित्री और प्रख्यात समीक्षक प्रतिभा प्रभा जी नें कृति
"धूप भरकर मुठ्ठियों में" की अनेक कोणों से देखने की कोशिश की है। आइए जानते हैं कृति पर उनका दृष्टिकोण
समूह वागर्थ प्रतिभा प्रभा जी का कृतज्ञ मन से आभार व्यक्त करता है।
प्रस्तुति वागर्थ
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मित्रो, यह 'नवगीत संग्रह' मित्र मनोज जैन जी का है जो इसी वर्ष यानि सन् २०२१ में ही प्रकाशित हुआ। इनका पहला नवगीत संग्रह 'एक बूँद हम' २०११ में प्रकाशित हुआ था। और दूसरा नवगीत संग्रह 'धूप भरकर मुट्ठियों में' इस वर्ष प्रकाशित हुआ, जिसमें कुल 80 गीतों को एक तारतम्यता के साथ साधने का प्रयास किया गया है। गीतकार ने अपने गीतों की पृष्ठभूमि वर्तमान समय की समस्याओं को बनाने का प्रयास किया है इन गीतों में वंदना, प्रेम,वेदना,मन का ऊहापोह,राजनैतिक अस्थिरता,गाँव का सीधा - सरल व्यक्तित्व तो कहीं शहर के रहने वाले चतुर स्वभाव के लोग, व्यंग्य और कटाक्ष भी उभरकर सामने आये हैं जैसे - कौन यहाँ सच कहने/ सुनने का आदी/ पीटे जा राजपुरुष!/ जोर से मुनादी।
वर्तमान राजनेताओं के नेतृत्व से असंतुष्ट गीतकार ने इसी क्रम में अगली कुछ पंक्तियाँ रच दीं जैसे - युग बीता अच्छा दिन/ एक नहीं आया/ ज्ञानी ने मूरख को/ स्वप्न फिर दिखाया। परजा को घी चुपड़े/ डाल रहा कौर।
हालांकि अच्छे दिनों की सबकी अपनी-अपनी परिभाषा होती है परंतु जिस राजनीतिक और सामाजिक सुख की गीतकार ने कभी कल्पना की थी वह उसे प्राप्त नहीं हो पाई उक्त पंक्तियों से यह स्पष्ट हो जाता है हर रचनाकार अपने समय की समताओं और विषमताओं को पन्नों पर सहेजने का कार्य करता है जिसमें कई रूप उभर कर सामने आतें हैं। सुख-दुख के इस चादर पर प्रेम की कलियाँ यदि कभी मुस्कुराती हैं तो मन के नंगे पांव पर कांटे भी खूब चुभते हैं कुछ प्रेम सिक्त पंक्तियां देखें -
तुम प्रेम परस से, पाहन से/ जीवन को देती, मृदु तराश/ तुम प्रेम स्वरूपा मनभावन/ करुणा की सुन्दर मूरत हो।
जब तक लेखनी के उपवन में गुलाब के फूल खिलते रहेंगे यह सच मानिए कि फिर उनके डालो पर कांटे भी चुभते रहेंगे। और इन्हीं कांटों को इन पंक्तियों में आप देख सकते हैं जैसे
- पीर तन से खींच लेती/ रोज थोड़ी खाल/ बुन रही मकड़ी समय की/ वेदना की जाल।
इस नवगीत का शीर्षक है 'पूछकर तुम क्या करोगे' यह पुरा गीत ह्रदय की व्यथा का बहुत ही मार्मिक चित्रण प्रस्तुत करता है। इस नवगीत संग्रह में 'सोया है जो तन के अंदर' शीर्षक के अंतर्गत जो पंक्तियां रखी गई वह समाज को सामूहिक रूप से सामाजिक चेतना को जागृत करने में सक्षम जान पड़ते हैं।
जैसे - सोया है जो तन के अंदर/ उसे जगाओ जी/ अब चेहरे पर नया मुखौटा/ नहीं लगाओ जी/ खुद को चलते रहे बजाकर /एक हाथ से ताली/ कागज के फूलों से जीवन/ मत सरसाओ जी।
लेखक राजनीति के छल प्रपंच से बहुत व्यथित है उसकी व्यथा उसकी रचनाओं में साफ झलकती है वह अपना द्वंद छुपाता नहीं अपितु पाठकों के समक्ष उकेर देना चाहता है गीतकार का द्वंद 'कुर्सी का आराधक नेता' में सहज ही सामने आ जाता है जब वह वर्जित शब्दों के प्रयोग को भी स्वीकार लेता है। जो पृष्ठ संख्या ७९ पंक्ति संख्या ०४ और पर उपलब्ध है।
हालांकि मुझे नहीं लगता कि इस शब्द को लिखे बिना लेखक अपनी बात नहीं कर सकता था अपनी भावनाओं को व्यक्त नहीं कर सकता था। 'सगुन पाँखी' लौट! आओ' इस गीत में गीतकार ने प्रकृति के दोहन की ओर संकेत करते हुए मानव के पाशविकता का खुलकर विरोध किया है गीतकार को अपना गाँव, अपनी नदिया, गलियाँ, छप्पर पर सब बहुत प्यारे हैं। गीतकार सारी सृष्टि, अपनी सारी संस्कृति के साथ बचा लेने को आतुर है। उसका प्रकृति प्रेम बहुत आहत है। उसकी आँखें रक्तरंजित हो उठी हैं। वह सामाजिक विकृतियों से अकेले ही लड़ने को उद्धत औ उतावला हो उठा है;
जैसे - 'आदमी हँसकर नदी की लाज / खुल कर लूट लेता/ बेचकर जल - जीव - जंगल /धन असीमित कूट लेता। 'यह व्यथा तो है हमारी'...। 'टूट रहा जाड़े में / संयम का मौन' यह पंक्ति अपने आप में बहुत व्यापकता को समेटे हुए है।
यह पंक्तियाँ काँप रहे गांव के अंतर्गत आती हैं। मुझे ऐसा लगता है कि इसकी अंतिम पंक्तियाँ अधूरी हैं; जैसे - 'बोले मुंडेर पर/ कागा न काँव' के आगे भी बहुत कुछ लिखा जाना छूट गया है। और यह अपने आप में कोई पहली अधूरी रचना नहीं है और भी रचनाएँ हैं जिनमें मुझे अधूरेपन का अनुभव हुआ।
गीत में 'गेयात्मकता' का होना प्रथम प्राथमिकता होती है। जिसमें कि मुझे, इसमें अभाव का अनुभव कुछ स्थानों पर बहुत गहराई से हुआ।
निसंदेह इस नवगीत संग्रह की सभी रचनाएँ मानव मन के विभिन्न रंगों तक अपनी पैठ बनाती हैं। इसके बाद भी सुधार की आवश्यकता कहीं न कहीं, कुछ न कुछ बची रह ही जाती है। जैसे - पृष्ठ संख्या 55 पर 'चुंबन के फूल' शीर्षक गीत 'पतंगे जो ठहरे' आदि मैं अनुभव किया जा सकता है। 'साथ कहाँ पाता हर कोई' 'दीप जलाता रहे' फिर उत्फुल्ल हुआ' 'ज़िंदगी लिख दी तुम्हारे नाम' 'मेघ आए' 'बोल कबीरा बोल' 'सलीब को ढोना सीख लिया' 'भीम बेटका' 'आलोचक बोल' 'जय बोलो एक बार' 'यह पथ मेरा' 'काश! हम होते' 'घटते देख रहा हूँ' 'कैसा है भाई' और इस नवगीत संग्रह का सबसे पहला गीत "वाणी - वंदना" यह सब मन को भाने वाली रचनाएँ हैं।
परंतु "वाणी वंदना" तो अद्भुत ही बन पड़ा है। बहुत ही मधुर, बहुत ही पठनीय। और अंत में, यह नवगीत संग्रह नि:संदेह स्वागत के योग्य है। इस रचना के लिए गीतकार को ढेरों बधाइयाँ एवं शुभकामनाएँ ।
नवगीत संग्रह - धूप भरकर मुट्ठियों में
गीतकार - मनोज जैन
प्रकाशक - निहितार्थ प्रकाशन
मूल्य - ₹250
प्रकाशन वर्ष - 2021
पृष्ठ - 119
परिचय
नाम - प्रतिभा प्रभा
शिक्षा - परास्नातक (हिन्दी साहित्य)
एकल विषय संस्कृत से स्नातक
एनटीटी।
संप्रति - हिन्दी अध्यापिका एवं 'नया साहित्य निबंध' पत्रिका के संपादक मंडल में शामिल।
प्रकाशित पुस्तक - "जो मैंने लिखा नहीं" (कविता संग्रह)
प्रकाशित साझा संग्रह - "कारवाँ"
प्रकाशाधीन कविता संग्रह - "सखि री"
प्रतिष्ठित पत्र - पत्रिकाओं एवं ई - पत्रिकाओं में कविता एवं लेख का प्रकाशन। लोकानुरंजन संसार की संस्थापिका।
कार्यानुभव - आकाशवाणी ओबरा सोनभद्र एवं आकाशवाणी वाराणसी में उद्घोषिका। अखण्ड भारत त्रैमासिक पत्रिका में सह-सम्पादिका। लघु फिल्म 'विज़न' में अभिनय। बचपन एक्सप्रेस में पत्रकारिता।
विशेष उपलब्धियाँ - वाराणसी सहोदया द्वारा "शिक्षा रत्न" सम्मान - 2018। हिन्दी सजल सर्जना समिति 'मथुरा' (उo प्रo) द्वारा अतिथि सम्मान। अखण्ड भारत एवं काव्य संगम के अंतर्गत "साहित्य सेवी" सम्मान - 2019। नैतिक शिक्षा संस्थान द्वारा "शिक्षा गौरव" सम्मान 2020। विश्व हिन्दी शोध संवर्धन अकादमी द्वारा "हिन्दी भाषा भूषण" सम्मान 2021। "काशी गौरव रत्न" सम्मान 2021।