शुक्रवार, 31 दिसंबर 2021

"धूप भरकर मुठ्ठियों में" की अनेक कोणों से देखने की कोशिश की है। आइए जानते हैं कृति पर उनका दृष्टिकोण

चर्चित कवयित्री और प्रख्यात समीक्षक प्रतिभा प्रभा जी नें कृति 
"धूप भरकर मुठ्ठियों में" की अनेक कोणों से देखने की कोशिश की है। आइए जानते हैं कृति पर उनका दृष्टिकोण 
समूह वागर्थ प्रतिभा प्रभा जी का कृतज्ञ मन से आभार व्यक्त करता है।
प्रस्तुति वागर्थ
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                               मित्रो, यह 'नवगीत संग्रह' मित्र मनोज जैन जी का है जो इसी वर्ष यानि सन् २०२१ में ही प्रकाशित हुआ। इनका पहला नवगीत संग्रह 'एक बूँद हम' २०११ में प्रकाशित हुआ था। और दूसरा नवगीत संग्रह 'धूप भरकर मुट्ठियों में' इस वर्ष प्रकाशित हुआ, जिसमें कुल 80 गीतों को एक तारतम्यता के साथ साधने का प्रयास किया गया है। गीतकार ने अपने गीतों की पृष्ठभूमि वर्तमान समय की समस्याओं को बनाने का प्रयास किया है इन गीतों में वंदना, प्रेम,वेदना,मन का ऊहापोह,राजनैतिक अस्थिरता,गाँव का सीधा - सरल व्यक्तित्व तो कहीं शहर के रहने वाले चतुर स्वभाव के लोग, व्यंग्य और कटाक्ष भी उभरकर सामने आये हैं जैसे - कौन यहाँ सच कहने/ सुनने का आदी/ पीटे जा राजपुरुष!/  जोर से मुनादी।
              वर्तमान राजनेताओं के नेतृत्व से असंतुष्ट गीतकार ने इसी क्रम में अगली कुछ पंक्तियाँ रच दीं जैसे - युग बीता अच्छा दिन/ एक नहीं आया/ ज्ञानी ने मूरख को/ स्वप्न फिर दिखाया। परजा को घी चुपड़े/ डाल रहा कौर। 
                          हालांकि अच्छे दिनों की सबकी अपनी-अपनी परिभाषा होती है परंतु जिस राजनीतिक और सामाजिक सुख की गीतकार ने कभी कल्पना की थी वह उसे प्राप्त नहीं हो पाई उक्त पंक्तियों से यह स्पष्ट हो जाता है हर रचनाकार अपने समय की समताओं और विषमताओं को पन्नों पर सहेजने का कार्य करता है जिसमें कई रूप उभर कर सामने आतें हैं। सुख-दुख के इस चादर पर प्रेम की कलियाँ यदि कभी मुस्कुराती हैं तो मन के नंगे पांव पर कांटे भी खूब चुभते हैं कुछ प्रेम सिक्त पंक्तियां देखें -    
                तुम प्रेम परस से, पाहन से/ जीवन को देती, मृदु तराश/ तुम प्रेम स्वरूपा मनभावन/ करुणा की सुन्दर मूरत हो। 
                                       जब तक लेखनी के उपवन में गुलाब के फूल खिलते रहेंगे यह सच मानिए कि फिर उनके डालो पर कांटे भी चुभते रहेंगे। और इन्हीं कांटों को इन पंक्तियों में आप देख सकते हैं जैसे 
            - पीर तन से खींच लेती/ रोज थोड़ी खाल/ बुन रही मकड़ी समय की/ वेदना की जाल। 
               इस नवगीत का शीर्षक है 'पूछकर तुम क्या करोगे' यह पुरा गीत ह्रदय की व्यथा का बहुत ही मार्मिक चित्रण प्रस्तुत करता है। इस नवगीत संग्रह में 'सोया है जो तन के अंदर' शीर्षक के अंतर्गत जो पंक्तियां रखी गई वह समाज को सामूहिक रूप से सामाजिक चेतना को जागृत करने में सक्षम जान पड़ते हैं। 
          जैसे - सोया है जो तन के अंदर/ उसे जगाओ जी/ अब चेहरे पर नया मुखौटा/ नहीं लगाओ जी/ खुद को चलते रहे बजाकर /एक हाथ से ताली/ कागज के फूलों से जीवन/ मत सरसाओ जी।
       लेखक राजनीति के छल प्रपंच से बहुत व्यथित है उसकी व्यथा उसकी रचनाओं में साफ झलकती है वह अपना द्वंद छुपाता नहीं अपितु पाठकों के समक्ष उकेर देना चाहता है गीतकार का द्वंद 'कुर्सी का आराधक नेता' में सहज ही सामने आ जाता है जब वह वर्जित शब्दों के प्रयोग को भी स्वीकार लेता है। जो पृष्ठ संख्या ७९ पंक्ति संख्या ०४ और पर उपलब्ध है। 
          हालांकि मुझे नहीं लगता कि इस शब्द को लिखे बिना लेखक अपनी बात नहीं कर सकता था अपनी भावनाओं को व्यक्त नहीं कर सकता था। 'सगुन पाँखी' लौट! आओ'  इस गीत में गीतकार ने प्रकृति के दोहन की ओर संकेत करते हुए मानव के पाशविकता का खुलकर विरोध किया है गीतकार को अपना गाँव, अपनी नदिया, गलियाँ, छप्पर पर सब बहुत प्यारे हैं। गीतकार सारी सृष्टि, अपनी सारी संस्कृति के साथ बचा लेने को आतुर है। उसका प्रकृति प्रेम बहुत आहत है। उसकी आँखें रक्तरंजित हो उठी हैं। वह सामाजिक विकृतियों से अकेले ही लड़ने को उद्धत औ उतावला हो उठा है; 
           जैसे - 'आदमी हँसकर नदी की लाज / खुल कर लूट लेता/ बेचकर जल - जीव - जंगल /धन असीमित कूट लेता। 'यह व्यथा तो है हमारी'...। 'टूट रहा जाड़े में / संयम का मौन' यह पंक्ति अपने आप में बहुत व्यापकता को समेटे हुए है।
          यह पंक्तियाँ काँप रहे  गांव के अंतर्गत आती हैं। मुझे ऐसा लगता है कि इसकी अंतिम पंक्तियाँ अधूरी हैं; जैसे - 'बोले मुंडेर पर/ कागा न काँव' के आगे भी बहुत कुछ लिखा जाना छूट गया है। और यह अपने आप में कोई पहली अधूरी रचना नहीं है और भी रचनाएँ हैं जिनमें मुझे अधूरेपन का अनुभव हुआ। 
            गीत में 'गेयात्मकता' का होना प्रथम प्राथमिकता होती है। जिसमें कि मुझे, इसमें अभाव का अनुभव कुछ स्थानों पर बहुत गहराई से हुआ। 
                  निसंदेह इस नवगीत संग्रह की सभी रचनाएँ मानव मन के विभिन्न रंगों तक अपनी पैठ बनाती हैं। इसके बाद भी सुधार की आवश्यकता कहीं न कहीं, कुछ न कुछ बची रह ही जाती है। जैसे - पृष्ठ संख्या 55 पर 'चुंबन के फूल' शीर्षक गीत 'पतंगे जो ठहरे' आदि मैं अनुभव किया जा सकता है। 'साथ कहाँ पाता हर कोई'  'दीप जलाता रहे'  फिर उत्फुल्ल हुआ'  'ज़िंदगी लिख दी तुम्हारे नाम'  'मेघ आए'  'बोल कबीरा बोल'  'सलीब को ढोना सीख लिया'  'भीम बेटका'  'आलोचक बोल'  'जय बोलो एक बार'  'यह पथ मेरा'  'काश! हम होते'  'घटते देख रहा हूँ'  'कैसा है भाई' और इस नवगीत संग्रह का सबसे पहला गीत "वाणी -  वंदना" यह सब मन को भाने वाली रचनाएँ हैं। 
                            परंतु "वाणी वंदना" तो अद्भुत ही बन पड़ा है। बहुत ही मधुर, बहुत ही पठनीय। और अंत में, यह नवगीत संग्रह नि:संदेह स्वागत के योग्य है। इस रचना के लिए गीतकार को ढेरों बधाइयाँ एवं शुभकामनाएँ । 

नवगीत संग्रह - धूप भरकर मुट्ठियों में 
गीतकार - मनोज जैन 
प्रकाशक - निहितार्थ प्रकाशन 
मूल्य -  ₹250 
प्रकाशन वर्ष - 2021 
पृष्ठ - 119

परिचय
नाम -    प्रतिभा प्रभा 
शिक्षा - परास्नातक (हिन्दी साहित्य) 
           एकल विषय संस्कृत से स्नातक
            एनटीटी।
संप्रति - हिन्दी अध्यापिका एवं 'नया साहित्य निबंध' पत्रिका के संपादक मंडल में शामिल।
प्रकाशित पुस्तक - "जो मैंने लिखा नहीं" (कविता संग्रह) 
प्रकाशित साझा संग्रह  - "कारवाँ" 
प्रकाशाधीन कविता संग्रह - "सखि री"
प्रतिष्ठित पत्र - पत्रिकाओं एवं ई - पत्रिकाओं में कविता एवं लेख का प्रकाशन। लोकानुरंजन संसार की संस्थापिका।
कार्यानुभव - आकाशवाणी ओबरा सोनभद्र एवं आकाशवाणी वाराणसी में उद्घोषिका। अखण्ड भारत त्रैमासिक पत्रिका में सह-सम्पादिका। लघु फिल्म 'विज़न' में अभिनय। बचपन एक्सप्रेस में पत्रकारिता। 
विशेष उपलब्धियाँ - वाराणसी सहोदया द्वारा "शिक्षा रत्न" सम्मान - 2018। हिन्दी सजल सर्जना समिति 'मथुरा' (उo प्रo) द्वारा अतिथि सम्मान। अखण्ड भारत एवं काव्य संगम के अंतर्गत "साहित्य सेवी" सम्मान - 2019। नैतिक शिक्षा संस्थान द्वारा "शिक्षा गौरव" सम्मान 2020। विश्व हिन्दी शोध संवर्धन अकादमी द्वारा "हिन्दी भाषा भूषण" सम्मान 2021। "काशी गौरव रत्न"‌ सम्मान 2021।

गुरुवार, 30 दिसंबर 2021

चेतना और भावनाओं का समावेशी संसार : धूप भरकर मुठ्ठियों में भुवनेश्वर उपाध्याय

कृति चर्चा में आज प्रस्तुत है
चर्चित उपन्यासकार और ख्यात समीक्षक भुवनेश्वर उपाध्याय जी का एक समीक्षात्मक आलेख
प्रस्तुति वागर्थ
चेतना और भावनाओं का समावेशी संसार : धूप भरकर मुठ्ठियों में

                        भुवनेश्वर उपाध्याय       
                                                        
                             जब मैंने 'एक बूंद हम' की समीक्षा लिखी थी तब मनोज जैन मधुर मुझे एक ऐसे युवा संभावना शील रचनाकार लगे थे जो एक व्यक्ति के रूप में अभी पूरी तरह से खुले नहीं थे उनका अभी बहुत कुछ आना शेष था, परंतु एक नवगीतकार के रूप में जरूरी पैनापन उनकी रचनाओं में उतरने लगा था मतलब एक कवि के रूप में वो सनक जितनी नवता के लिए जरूरी है उतनी ही गलत को गलत कहने के लिए भी, तब उतनी नहीं थी जितनी कि अब है। 
                ये शायद 2011 से 2021 तक के अंतराल और परिवेशीय यथार्थ की बेहतर समझ से उत्पन्न हुई है। भीतर का आक्रोश यदि सकारात्मक है तो सही दिशा देता है और कुछ नये मार्ग भी खोलता है। कविता लिखते समय कवि दो तरह के यथार्थ से गुजरता है एक व्यवस्था का और दूसरा भावनाओं का, और दोनों ही एक दूसरे से बहुत भिन्न हैं, किंतु नवगीत में इन दोनों को एक साथ समेटने की सामर्थ्य है। इसीलिए इसमें जितनी भावनाओं की आवश्यकता है उतनी ही विचारों की भी।
                 किताबें विचारों के छोर भले ही पकड़ा दें परंतु नये विषय कहीं न कहीं नई सोच और नई दृष्टि का ही परिणाम है। जिसमें इतनी सामर्थ्य हो कि वह वर्तमान को सामान्य आँखों से कुछ दूर और अधिक स्पष्ट देख सके, ताकि भविष्य संभावनाशील हमेशा बना रहे और सीखने की वो ललक भी जो विकास के नये मार्ग प्रसस्त करे। ऐसी ही बहुत सारी बातें मनोज जैन को एक रचनाकार के रूप में गढ़तीं है।
              जब एक रचनाकार मुखर होता है तो वो तमाम स्वार्थों और अपनी कमजोरियों को भी उतार फेंकता, तभी वो अपने रचना कर्म को ईमानदारी से निभा सकता है। मधुर के गीतों में ऐसी ही ईमानदारी की झलक दिखती है। वो भी भावगत और शिल्पगत सहजता के साथ। एक बार फिर उनका नया नवगीत संग्रह 'धूप भरकर मुठ्ठियों में' मेरे हाथों में है।
                           कविता के लिए ये दौर बहुत कठिन है। एक ओर नवगीत कथ्य में नवीनता के संकट से जूझ रहा है दूसरी ओर आत्ममुग्धता ने इसके परिवेश को खेमों में बाँट दिया है। उस पर पाठकों और प्रकाशन की उपेक्षा नवगीत ही नहीं, बल्कि संपूर्ण कविता के लिए निराशाजनक है। ऐसे समय में यदि कवि का हृदय भी उदासीनता से भर जाये तो कोई बड़ी बात नहीं है। इसीलिए वर्तमान में कविता के लिए किया गया हर कार्य ये उम्मीद जगाता है कि सब ठीक है या हो जायेगा। 
                        गीत हृदय के कोमल भावों, शब्दों से भरे होने के कारण सदैव हृदय को छूते रहे हैं, किंतु नवगीत में भावों से कहीं अधिक वैचारिकता का समावेश हो जाता है जिससे कहीं आक्रोश झलक आता है तो कहीं घृणा, इससे भाषा में जो अकड़ आती है वो रचना में लयात्मकता के बाद भी उतना रस नहीं देती जितना सुनने पर गीत देते हैं। ये कमी है या नवगीत की सामर्थ्य ये रुचि का विषय है, किंतु विचार के लिए नवगीत अवश्य कुछ छोड़ जाते हैं फिर भी मंच पर नवगीत की उपेक्षा और सतही फूहड़पन की प्रस्तुतियाँ और उन पर बजती तालियाँ कवि को खटकती है। तब वह मंचीय छलछंदों को उजागर करते हुए लिखता है,
              "नकली कवि कविता पढ़कर जब
                  कविता-मंच लूटता है
               असमय लगता है धरती पर
                तब ही आकाश टूटता है।" 
(पेज -48)
कवि के हृदय में क्रोध और पीड़ा है, किंतु....?          
                                   किताब में नवगीतों के अतिरिक्त इस कृति पर समीक्षात्मक व वैचारिक विश्लेषण भी है जो पाठक को पढ़ने के लिए गीतों के कुछ सूत्र पकड़ा देते हैं, मगर एक समीक्षक के लिए ये चुनौती पेश करता है कि वह इसमें इनके अतिरिक्त क्या नया खोजे? पंकज परिमल नवगीतों के बहाने बहुत कुछ वास्तविक कह जाते है। इतना ही नहीं वो इस कृति में क्या है और क्या होना चाहिये था, इस पर भी प्रकाश डालते हैं। उनके अतिरिक्त प्रो. रामेश्वर मिश्र, राजेंद्र गौतम, कैलाश चंद्र पंत, कुमार रविंद्र और फ्लैप पर महेश्वर तिवारी इस संग्रह के नवगीतों की रचना प्रक्रिया, मनःस्थिति और विचारों की बानगी प्रस्तुत करने के साथ साथ भूमिका बनते हैं।
                        इस संग्रह की रचनाओं में आरंभिक उतावलापन नहीं है, बल्कि वैचारिक मुखरता है। मनोज जैन का कवि हृदय अनुभूतियों को रचने का प्रयत्न करता है, यथार्थ पर थोथेआदर्शवाद का मुखौटा नहीं लगाता। इसलिए रचनाओं में सहजता है।
                       "क्या सही, क्या है गलत
                        इस बात को छोड़ो
                         मौन तो तोड़ो" (पेज -60)
इन पंक्तियों में सहज ही कवि कितनी बड़ी बात कह जाता है कि जहाँ अपने है। जहाँ प्रेम है। जहाँ रिश्ते हैं। जहाँ हार, जीत अपने मायने खो देती है। वहाँ अनबन और फिर अनबोला क्यों? अंहकार छोड़कर झुको और जीवन में आगे बढ़ जाओ।
                इस संग्रह के नवगीत में कवि विषयगत विविधता लाने में सफल रहा है। मंच राजनीति का हो या कविता का, विसंगतियाँ समाज में हो या घर में, कवि को गलत चुभता है, खटकता है। रचना में क्रोध हो या प्रेम भाषा हर जगह सहज और भावानुकूल है। कुलमिलाकर कह सकते हैं कि कवि ने जो जिया है वही कहा है। कवि को शुभकामनाएं कि उनमें निहित संभावनाओं को आकार मिलता रहे।

            कृति : धूप भरकर मुठ्ठियों में
            कवि : मनोज जैन
            प्रकाशक : निहितार्थ प्रकाशन
            मूल्य : 250

   परिचय
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भुवनेश्वर उपाध्याय
जन्म तिथि  –  08/02/1979
शिक्षा – एम. ए. (हिंदी साहित्य)
लेखन – कविता, कहानी, उपन्यास, व्यंग्य, लेख आदि के साथ साथ आलोचनात्मक एवं समीक्ष लेखन 1999 से ....
प्रकाशन –  
◆कविता संग्रह – "दायरे में सिमटती धूप", "समझ के दायरे में"
◆व्यंग्य संग्रह –"बस फुँकारते रहिये"
◆कहानी संग्रह – "समय की टुकड़ियाँ", "फिर वहीं से...." 
◆उपन्यास – "एक कम सौ" , "हॉफमैन" , "महाभारत के बाद" , "जुआ गढ़" 
◆संपादित पुस्तक – "व्यंग्य-व्यंग्यकार और जो जरूरी है"
◆देश के विभिन्न स्तरीय समाचारपत्रों एवं पत्रिकाओं में कहानियों, कविताओं, व्यंग्यों, लेखों, साक्षात्कारों और समीक्षाओं का निरंतर प्रकाशन एवं विभिन्न महत्वपूर्ण साझा संकलनों में सहभागिता
◆“भुवनेश्वर उपाध्याय : समीक्षा के निकष पर (संपादक – डॉ. मुदस्सिर सय्यद)” कृतित्व पर पुस्तक प्रकाशित” 
◆शोध - पीएचडी के लिए शोध कार्य आरंभ
◆पाठ्यक्रम – स्वामी रामानंद तीर्थ मराठवाड़ा विश्वविद्यालय, नांदेड़ के बीए.द्वितीय वर्ष के पाठ्यक्रम में रचना शामिल
संप्रति – स्वतंत्र लेखन
सम्मान – श्रेष्ठ युवा रचनाकार सम्मान २०१२ ,  लखनऊ, मधुकर सृजन सम्मान 2018, दतिया (समझ के दायरे में) कृति को एवं अन्य सारस्वत सम्मान
पता –      डबल गंज सेवढ़ा, जिला-दतिया, मध्यप्रदेश - 475682
मोबाइल– 07509621374 , 8602478417
email - bhubneshwarupadhyay@gmail.com

रविवार, 19 दिसंबर 2021

आत्मबोध और संकल्पशाली कविताओं का नवगीत संग्रह - 'धूप भरकर मुट्ठियों में'

कर्ति चर्चा में आज समकालीन नवगीत समालोचक समीक्षक राजा अवस्थी जी का सविस्तार आलेख 
रचनाकार :
समीक्षक : राजा अवस्थी 

           परिचय : 
            समकालीन नवगीत समालोचक/ समीक्षक राजा अवस्थी जी कटनी मध्य प्रदेश से हैं। इन दिनों अवस्थी जी नवगीत कृतियों की जमकर ख़ोजखबर ले रहे हैं।     
                      ध्यातव्य है कि अवस्थी जी एक मात्र ऐसे नवगीतकार हैं जिन्होंने यूट्यूब पर शोधार्थियों के लिए नवगीत धारा यूट्यूब चैनल के माध्यम से विपुल और दुर्लभ कड़ियाँ उपलब्ध करा कर,नवगीत की दिशा और दशा पर, बेजोड़ काम के माध्यम से अपनी सार्थक उपस्थिति नवगीत साहित्यिक परिदृश्य में दर्ज की है। आप सोशल मीडिया के विभिन्न माध्यमों के साथ-साथ प्रिंट मीडिया पर भी लगातार सक्रिय उपस्थिति बनाये हुए हैं।
              हाल ही मैं आपका नवगीत संग्रह "जीवन का गुणा भाग" पाठकों के मध्य खासा चर्चा के केंद्र में है। सैकड़ों नवगीत कृतियों की समीक्षा कर चुके  राजा अवस्थी जी आज समालोचना कालम में "धूप भरकर मुठियों में" लेकर आपके मध्य प्रस्तुत हैं।
सर्वाधिक शेयर किया जाने और पढ़ा जाने वाला समूह वागर्थ आपके उज्ज्वल भविष्य की कामना करता है। 
प्रस्तुति
वागर्थ टीम
अवस्थी जी का आलेख

  आत्मबोध और संकल्पशाली कविताओं का 
        नवगीत संग्रह - 'धूप भरकर मुट्ठियों में' 
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धूप भरकर मुट्ठियों में मनोज जैन का दूसरा नवगीत संग्रह है। पहला नवगीत संग्रह सन् 2011 में आया था। उसके 10 वर्ष बाद सन् 2021 में 120 पृष्ठों की किताब में 80 गीतों का यह संग्रह प्रकाशित हुआ है। इन 10 वर्षों में मनोज जैन अपने कविता पाठ, तेवर और सक्रियता के लिए बहुत चर्चित भी हुए हैं। इन सब बातों को लिखने का अर्थ इतना है, कि मनोज जैन कविता में निरंतर बने रहने वाले कवि है, यानी कविता इनके भीतर बनी रहती है। ये कविता को जीते हैं। इनका कविता में बने रहना इनके भीतर कविता का बने रहना, इनकी विविधवर्णी नवगीत कविताओं में दिखाई भी पड़ता है।
                   नवगीत कविता की नवता ओढ़ी हुई नवता नहीं है। इस नवता में कवि के प्रयास के लिए बहुत अधिक स्थान नहीं है। बल्कि, यह नवता अपने समय को, समकालीनता को व्यापक दृष्टिकोण से देखते हुए, व्यक्त करते हुए स्वयमेव आती है। दरअसल संसार में आज सब कुछ है इतना तीव्रगाम हो गया है, कि कोई भी घटना, सोच या विचार बहुत कम समय में पूरे समाज में फैल सकता है। उसकी पहुंच भी संसार के, समाज के, मनुष्य के सभी क्षेत्रों में, सभी वर्गों में होती है। इसी अनुपात में वह प्रभाव भी छोड़ता है। ऐसी स्थिति में किसी कवि, लेखक या कलाकार का उत्तरदायित्व और बढ़ जाता है। किसी कवि, लेखक या कलाकार पर, उसके कृतित्व को भी उसकी पक्षधरता, उसकी निष्ठा के परिप्रेक्ष्य में ही देखा-परखा जाएगा। इस परख पर कवि, लेखक या कलाकार का भी कोई नियंत्रण नहीं रह जाता। इसीलिए कवि-लेखक या कलाकार को अतिरिक्त सजग-सावधान और उत्तरदायित्व से भरे रहने की आवश्यकता होती है। 
                    राजनीति एक ऐसा तथ्य है, जो आज सर्वव्यापी है। यह बड़े-बड़े सामाजिक सांस्कृतिक और साहित्यिक आयोजनों से लेकर नितांत घरेलू और व्यक्तिगत आयोजनों- मुंडन, विवाह-शादी तक में प्रवेश कर चुकी है। यही कारण है, कि आज यह देखना जरूरी हो जाता है, कि कवि की कविता क्या राजनीति की बात करती है। क्या उसके विकृति को अनावृत करती है। सामाजिक सरोकारों को सबसे अधिक प्रभावित करने वाली 'राजनीति' के प्रति कवि का अपना पक्ष क्या है? सामाजिक सरोकारों का आज यह भी एक पक्ष है। 'धूप भरकर मुट्ठियों में' और मनोज जैन की कविता के संदर्भ में बात करने के लिए उपरोक्त बातें करना जरूरी है। जरूरी इसलिए है, कि वे इसे नवगीत कविता संग्रह कहते हैं, तो आज की नवगीत कविता को हम उसके सामाजिक सरोकारों से अलग करके नहीं देख सकते। 
                    'धूप भरकर मुट्ठियों में' की कविताओं में मनोज जैन के कवि के दो रूप दिखाई पड़ते हैं। एक रूप वह है, जहाँ वे राजनीति के विद्रूप चेहरे को अनावृत करते हैं। तो, दूसरा रूप वह भी है, जहाँ वे एक अमूर्त सत्ता से, परमसत्ता से संचालित दिखते हैं। उससे मिलने को आतुर दिखाई देते हैं। सामाजिक-राजनीतिक घटनाओं से शीघ्र ही प्रभावित होने वाले कवि के लिए यह संभव है, कि वह इस तरह की आध्यात्मिक मनोभूमि के गीत उन्होंने अपनी धार्मिक स्थलों की यात्राओं के दौरान लिखे हों। ऐसा कहने का आधार यह है, कि मनोज जैन प्रखर बहिर्मुखी चेतना सम्पन्न कवि के रूप में ही ज्ञात कवि हैं। ऐसी स्थिति में उनकी अन्तर्मुखी होती हुई नितान्त निजी अनुभूतियों वाले कवि-व्यक्तित्व का निर्माण ऐसे किसी सानिध्य की स्थिति में ही उभरा होगा। उनके कवि के इस रूप को छोड़कर भी आगे नहीं बढ़ा जा सकता। मनोज जैन की कविताओं पर विचार करते हुए हमें इन नवगीत कविताओं को भी संज्ञान में रखना ही होगा, जो अमूर्तता से भरी हुई हैं और किसी अमूर्त परमसत्ता के विषय में बात करती हैं। 
                    'धूप भर कर मुट्ठियों में' को पढ़ते हुए पाठक मनोज जैन के कवि की मूल प्रवृत्ति और प्रखर सोच वाली नवगीत कविताओं से भी बचकर नहीं निकल सकता। उनकी कविताओं का तेवर ही ऐसा है। देखिए-
   "कैसा है भाई! बैठ गया आंगन में कुंडलियां मार/ गिरगिट से ले आया रंग सब उधार/ हक मांगो दिखलाता/ कुआँ कभी खाई। चूस रहा रिश्तों को बनकर तू जोंक/ जब चाहे बन जाता चाकू की नोंक/ घूरता हमें, जैसे अज को कसाई। "अपनी व्यञ्जना में यह गीत घर में घुस आए बाजार की नृशंस मन्शा को व्यक्त करता है। यहाँ व्यञ्जना ऐसी है  कि यह नवगीत कविता बाजार के साथ राजनीति को भी अपने निशाने पर रखती है। अपने निष्ठागत सरोकारों के साथ हुए सत्तातंत्र के नियंता को भी अपने निशाने पर लेते हैं। उसे आईना दिखाते हुए कहते हैं-
  " कुछ प्रश्नों को एक सिरे से/ हँसकर टिल गया। सुरसा जैसा मुँह फैलाया/ महँगाई ने अपना/ हुई सुदामा को हर सुविधा/ ज्यों अंधे को सपना/ शकुनि शरीखा नया सुशासन/ चलकर चाल गया। फिर बहेलिया अच्छे दिन के/ दाने डाल गया।" इस नवगीत कविता में, जहाँ वे बढ़ती महंगाई, कठिन होती स्थितियों और उत्तरदाई व्यक्तियों की अनदेखी को दिखाते हैं, वहीं अपनी एक नवगीत कविता में वे मनुष्य को अपनी मुश्किलों के लिए अपने भाग्य को उत्तरदाई मानने एवं भाग्य को ही कोसने की सर्वव्यापी प्रवृत्ति की प्रति आगाह करते हैं। वे लिखते हैं-  "नाहक किस्मत को क्यों कोसे/ रामभरोसे। वादे खाकर जीना मत/ आश्वासन को पीना मत/ खुशफहमी की डाल न आदत/ रामभरोसे। हक के लिए लड़ाई लड़/ शोषण जल से जाय उखड़ / सीधी-सच्ची यही इबादत/ रामभरोसे।" एक दूसरी नवगीत कविता में वे लिखते हैं- " मैं पूछूँ तू खड़ा निरुत्तर/ बोल, कबीरा! बोल। पाँव पटकते ही मगहर में/ हिल जाती क्यों काशी/ सबकी हिस्से का जल पीकर/ सत्ता है क्यों प्यासी/ कथनी-करनी में क्यों अंतर/ है बातों में झोल।........ ढुलमुल देखी मुई व्यवस्था/ फिर भी खून न खौल।..... शंख फूँक दे परिवर्तन का/ धरती जाए डोल। "
                  मनोज जैन का नवगीत कवि अपनी कविताओं में स्वयं की चेतना संपन्न संकल्पशीलता के उद्घोष के बहाने उसके दूसरे पक्ष में गर्वोन्नत खड़ी शक्तियों को चुनौती देता है। वह नियंत्रणकारी गर्वोन्नत शक्तियों के इशारे पर चलना अस्वीकार करता है। यह स्वीकार ही मनुष्य मात्र के आत्मबोध का संकेत है। संकेत इस बात का, कि वह जानता है, कि वह भी एक ठोस धरातल निर्मित कर चुका है। उसे उसके स्वयं के द्वारा निर्मित धरातल से उखाड़ा नहीं जा सकता। इस बात को उनकी कविता 'हम सुआ नहीं है पिंजरे के' में बहुत स्पष्ट देखा जा सकता है। 
   " हम सुआ नहीं है पिंजरे के/ जो बोलोगे रट जाएंगे। छू लेंगे शिखर न भ्रम पालो/ हम बिना चढ़े हट जाएँगे। उजियारा तुमने फैलाया/ तोड़े हमने सन्नाटे हैं/ प्रतिमान गढ़े हैं तूने तो/ हमने भी पर्वत काटे हैं/ हम ट्यूब नहीं है डनलप के /जो प्रेशर से फट जाएँगे।" इसी नवगीत में जब वह लिखते हैं" आराध्य हमारा वह ही /जिसके तुम भी नित गुण गाते हो/ हम भी दो रोटी खाते हैं/ तुम भी दो रोटी खाते हो/"(पृष्ठ संख्या 30), तो कविता की व्यञ्जना किसी अमूर्तता की ओर झुकने लगती है। अपनी कविताओं में कवि को ऐसी अमूर्तताओं की ओर जाने से बचना चाहिए। यदि हम उनके आध्यात्मिक बोध के गीतों को एक बार अलग करके देखें, तो मनोज जैन वहांँ भी परम्परा और लीक से हटकर चलने की बात करते हैं। वे कहते हैं-  " करना होगा सृजन बंधुवर! हमें लीक से हटकर। छंदों में हो आग समय की/ थोड़ा-सा हो पानी/ हँसती दुनिया संवेदन की/ अपनी बोलीबानी/ कथ्य आंँख में आलोचक की /रह-रहकर जो खटके। अंधकार जो करे तिरोहित/ बिम्ब रचें कुछ टटके।" कवि या कलाकार की यही इच्छा और संकल्पशीलता उससे लोक मंगलकारी सृजन करवाती है। यह परम्परा पूर्व से ही विद्यमान भी है। इस तरह देखें, तो एक तरह से वे भी परंपरा का पोषण ही करते हैं और यही श्रेयस्कर भी है। क्योंकि, संत साहित्य से लेकर अब तक की पूरी हिंदी कविता एक आग लेकर चलती है। हिंदी कविता ही नहीं, विश्व कविता भी सत्ता को आईना दिखाती रही है। शोषण का प्रतिरोध और समय का बोध कराने के साथ जीने की कला सिखाने वाली रही है। मनोज जैन भी इस प्रवाह को पुष्ट करते हैं। वह लिखते हैं-" शोषण, शोषण का विरोध जो /
करें निरंतर डट के। जीने की जो कला सिखाए/ बोध समय का जाने/ मानसरोवर के हंसों-सा/ नीर- क्षीर पहचाने/ अंधकार जो करें तिरोहित/ दिन भर से कुछ हटके।" कवि का यह पक्ष श्रेयस्कर है। 
                 'धूप भरकर मुट्ठियों में' की कविताओं में मनोज जैन मजदूर को, किसान को, आमजन को, उसकी चुपचाप सब कुछ सह लेने की प्रवृत्ति पर टोकता है। उसे शोषण व अन्याय के प्रतिरोध और अपने हक के लिए आवाज उठाने के लिए आमंत्रित भी करता है। वे लिखते हैं - "सोया है जो तन के अंदर/ उसे जगाओ जी/ गज भर लंबी चादर तानी/ मीलों पाँव पसारे/ पग-पग धोखा खाकर सारे/ सपने मरे कुँवारे/ गाल बजाने से क्या होगा/ बदलो जीवन सारा/ नए रूप में देख सकोगे संवेदन की धारा/ परिवर्तन का बीड़ा पहले/ स्वयं उठाओ जी।" (पृष्ठ 51) इसके साथ ही वे इन्हीं किसानों मजदूरों के प्रति अपनी संवेदना और कर्तव्य कुछ इस तरह व्यक्त करते हैं- " कृषक कर्म करता है/ खलिहानें भरता है/ रोटी की चाहत में/ तिल तिल जो मरता है/ आशाएँ बोता है/ चिंताएंँ ढोता है/ मुस्कानें गिरवी रख/ जीवन भर रोता है/ आरती उतारें हम/ भूखे भगवान की। वंचित हैं ज्ञान से/ युग के सम्मान से/ परिचित कब हो पाया/ अपनी मुस्कान से/ पहुंँचा दें किरणें हम/ घर-घर विज्ञान की। "(पृष्ठ 49) 
                 'धूप भरकर मुट्ठियों में' का कवि निरंतर अपने आत्मबोध को पकड़ने के लिए संघर्षरत दिखाई देता है। इन्हीं कोशिशों के क्रम में वह आध्यात्मिक गीत भी लिखता हैं, तो कहीं दैहिक और दैविक प्रेम के बीच झूलते हुए भी दिखाई पड़ता है। कहीं वह पूँजी और शासन की शक्तियों के शोषण, छद्म और मकड़जाल को भी अनावृत करता है। आत्मबोध को पकड़ने की कोशिश वाली नवगीत कविताओं में मनोज जैन आत्मसंकल्प और उच्चतम माननीय बोध की बातें करते हैं। देखें -   
   "काश! हम होते/ नदी के तीर वाले वट/ हम निरंतर भूमिका मिलने-मिलाने की रचाते/ पाखियों के दल उतरकर नीड़ डालों पर सजाते/  चहचाहट सुन/ छलक जाता हृदय घट।" (पृष्ठ 44) साथ ही, जब  वे "चांँद सरीखा मैं अपने को/ घटते देख रहा हूँ/ धीरे-धीरे सौ हिस्सों में/ बँटते देख रहा हूँ /...... नई सदी को परंपरा से कटते देख रहा हूँ......... घर- घर में ज्वालामुखियों को/ फटते देख रहा हूँ। "लिखते हैं, तो एक अलग ही व्यञ्जना संप्रेषित होती दिखती है। 
                   मनोज जैन की नवगीत कविताओं में पर्याप्त विषय वैविध्यता मिलती है। 'धूप भरकर मुट्ठियों में' संग्रह में जहाँ 'तू जीत गई मैं हार गया', 'याद रखना हमारी मुलाकात को', 'चुंबनों के फूल', 'देखकर श्रृंगार', 'मधुर मुस्कान', 'मंगल हुआ', 'फिर उत्फुल्ल हुआ' जैसे प्रेम भरे नवगीत हैं  तो एक व्यापक परिदृश्य को समेटती नवगीत कविता 'जिंदगी लिख दी तुम्हारे नाम' जैसी कई कविताएँ हैं। देखें--" चार दिन की जिंदगी लिख दी तुम्हारे नाम/ पी गए हमको समझ तुम चार कश सिगरेट/ आदमी हम आम ठहरे/ बस यही है रेट/ इस तरह दिन बीत जाता/ घेर लेती शाम/ चढ़ गया हमको समझ/ मजबूत-सा पाया/ इस कुटिलता पर मुकुर मन/खूब हर्साया/ नियति तो अपनी रही/ आना तुम्हारे काम।" (पृष्ठ 88)
                  इस किताब में प्राकृतिक सौंदर्य पर केंद्रित कई गीत हैं। ऐसे ही गीत 'मेघ आए' में प्रकृति सौंदर्य के साथ शिल्पगत सौंदर्य भी उल्लेख करने योग्य है। भारतीय मनुष्य समाज के श्रम, शोषण, सौंदर्य प्रियता, उत्सवधर्मिता, प्रेम, सत्ता जनित शोषण और अमूर्त आध्यात्मिकता, भ्रम आदि विविध विषयों पर लिखे नवगीत संकलित हैं। 
                    भाषा के स्तर पर मनोज जैन बहुत स्पष्ट भाषा के पक्षधर हैं। इनकी नवगीत कविताओं में भाषा पाठक को कहीं उलझाती नहीं है। गहन व्यञ्जना बोध भी ये सरल भाषा में करा जाते हैं। इनके नवगीतों की भाषा बहुत सरल और सहज है। बिल्कुल आम बोलचाल की भाषा का प्रयोग करते हुए भी कहीं भदेश भाषा यानी शब्दों के बहुत विकृत रूपों का प्रयोग नहीं करते। यह तत्सम शब्दों का भी प्रयोग करते हैं, किंतु इनकी तत्सम शब्दावली भी ऐसी नहीं है, जो कहीं भी अर्थबोध में कठिनाई पैदा करे। इनके नवगीतों की तत्सम शब्दावली में बहुत प्रचलित शब्दों को ही लिया गया है। 
                 मुट्ठियों में धूप भरकर' नवगीत कविता संग्रह को पढ़ते हुए एक प्रश्न लगातार उठता है, कि यहाँ संकलित आध्यात्मिक गीतों को क्या नवगीत कविता के भीतर रखा जाना चाहिए? क्या लय- प्रवाह, छंद में बिम्बधर्मी सृजन ही नवगीत कविता है? क्या गीत के भीतर नवगीत का पार्थक्य दिखाने में किसी तरह के कथ्य की भूमिका है। मुझे लगता है नवगीत कवि के साथ नवगीत कविता पर बात करने वालों को भी इस विषय पर विचार करने की आवश्यकता है। 
               विविध विषयों पर प्रभावी शिल्प में रचे 80 गीतों के संग्रह, जिसमें कवि की पक्षधरता, उसके राग, भावबोध, सौंदर्यबोध और भाषा बोध को पहचाना जा सकता है। इतना ही नहीं, इन नवगीत कविताओं में यह सभी चीजें पाठक को भीतर तक प्रभावित करने में सक्षम हैं। इस तरह 'धूप भरकर मुट्ठियों में' कवि मनोज जैन की अच्छी  नवगीत कविताओं का संग्रह है। मुझे विश्वास है, कि पाठक समाज, कवि समाज और आलोचकों के बीच भी यह प्रशंसित होगा और कवि के यशवृद्धि का कारण बनेगा। 
              हार्दिक शुभकामनाएँ। 
    
दिनांक - 15/12/2021
                                      राजा अवस्थी
                       गाटरघाट रोड, आजाद चौक 
                        कटनी-483501 (मध्य प्रदेश)

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गुरुवार, 16 दिसंबर 2021

रघुवीर शर्मा जी का एक गीत



वागर्थ के अनन्य शुभ चिंतक 
कविवर रघुवीर शर्मा जी Raghuvir Sharma जी का एक सारवान नवगीत
                      कविवर रघुवीर शर्मा जी इन दिनों सेवा निवृति के उपरान्त खण्डवा में एक जगह टिककर, हरसूद की पीड़ा से उबरने के लिए जमकर नवगीत लिख रहे हैं। 
                          शर्मा जी के समग्र लेखन में विस्थापन की पीड़ा रह रहकर उभरती है।आपका लिखा इन दिनों खूब पढ़ा और सराहा जा रहा है।
   प्रस्तुत है

रघुवीर शर्मा जी का एक गीत
शुभचिंतक का बाना
_______________

पहने हुए शिकारी सारे
शुभचिंतक का बाना ।

दाने ऊपर जाल बिछाकर.
भूखे पेटों को भरमाकर।
फिर मुट्ठी में कैद करेंगे 
आसमान के ख्वाब दिखाकर।
अच्छी तरह समझते हैं वे 
कैसे किसे फँसाना।

जंगल के चप्पे-चप्पे पर
काब़िज हैं,जागीर समझकर।
रुकी हुई है सभी उड़ाने 
धुआँ-धुआँ मौसम के तेवर।
मुश्किल में इस वन के पाखी
बनते रहे निशाना ।
पहने हुए शिकारी सारे 
शुभचिंतक का बाना ।

         रघुवीर शर्मा
         खंडवा म.प्र.

सीमा अग्रवाल जी के नवगीत


#मत_सुलग_नम_लकड़ियों_सी_आग_बनकर_डोल_कमली_आग_बन_कर_डोल
~।।वागर्थ।। ~
 प्रस्तुत करता है सीमा अग्रवाल जी के नवगीत 
            सीमा अग्रवाल जी के नवगीत कहन में विशिष्ट हैं ,यह विशिष्टता गीतो में संवाद शैली अपनाने की या कहें कि स्वयमेव गीत की रचनाप्रक्रिया संवादमय हो जाने की वजह से है ।
आपके नवगीतों में दृश्य किसी चलचित्र की भाँति उपस्थित होते हैं जिनसे पाठक साँस बाँधकर आबद्ध हो जाता है । आपके विविधवर्णी गीतों में संयत स्वर में व्यंग्य , फटकार , प्रश्न एवम् चेतना जाग्रत करने का आह्वान है तो कहीं विषय की आवश्यकतानुसार बेहद जहीन तरीके से चिकोटी भी ली गई है  साथ ही सचेत भी किया गया है । स्त्री विमर्श व अन्य विषयों पर रचे गए आपके गीत आपको एक विशिष्ट आयाम पर ले जाते हैं । आपके गीतों का एक विशिष्ट किरदार 'कमली '  जिस पर केन्द्रित आपके गीतों के तमाम पाठक मुरीद हैं ।कहा जाता है कि लेखन की चर्चा हो लेखक की नहीं किन्तु व्यक्तित्व जब विशिष्ट हो तो बिन कहे रहा भी नहीं जाता ।
     कोकिलकंठी सीमा जी के गीत जितने धारदार हैं उतनी ही वे शालीन व मधुर । 
          वागर्थ आपके स्वस्थ्य सानंद व उन्नत साहित्यिक जीवन की शुभकामनाएँ प्रेषित करता है ।
        

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(१)

आग बन कर डोल
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मत सुलग नम  लकड़ियों सी ,
आग  बन कर डोल , कमली !
आग बन कर डोल ।

फुसफुसाते शब्द  कब तक 
सह सकेगी ।
हाँ-नहीं के बीच कब तक 
बह सकेगी ।
अपहरित कर स्वयं की ध्वनियाँ
स्वयं ही ,
चैन से क्या एक पल भी 
रह सकेगी ।

तोड़ घेरा चुप्पियों का ,
बोल खुल कर बोल , कमली !
बोल खुल कर बोल ।

सोच ही डर, सोच ही मुँहजोर
होगी ।
आँख  खोलेगी तभी बस 
भोर होगी ।
प्रार्थनाओं को बदल  हुंकार में,
 फिर 
हाथ में तेरे समय की 
डोर  होगी ।

स्याह पड़ती चेतना में 
रंग उजले घोल , कमली !
रंग उजले घोल ।

(२)
सुनो सांता
--------------

सुनो सांता, 
इस क्रिसमस पर 
जो हम बोलें 
देखो, बस तुम वो ही लाना ।

सुनो सांता
टाफी बिस्कुट भले न हों पर 
आशा हो कल की रोटी की ।
तनिक-मनिक सी हँसी साथ में 
और दवाई भी छोटी की ।

लगे ज़रा भी 
यदि तुमको यह गठरी भारी ,
सोच-समझ कर 
खुद तुम ही फेहरिस्त घटाना ।

सुनो सांता !
गुम दीवारों के इस घर में 
ठण्ड बहुत दंगा करती है ।
बिना रजाई कम्बल स्वेटर 
बरछी के जैसी चुभती हैं ।

अगर बहुत महँगा हो यह सब 
छोडो, लेकिन,
बेढब सर्द हवाओं को 
आ धमका जाना ।

सुनो सांता
चलो ठीक है खेल-खिलौने 
लाओगे ही, ले आना पर, 
छोटा सा बस्ता भी लाना 
जिसमे रख लेना कुछ अक्षर ।

जिंगल-विंगल सीख-साख कर 
गाकर -वाकर ।
है हमको भी
तुमको अपने साथ नचाना ।

(३)

शोर
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हम महज़ इक शोर 
होते जा रहे हैं ।

शोर जिसमें 
शब्द होते ही नहीं हैं ।
शोर जिसकी 
सब दिशाएँ दिग्भ्रमित हैं ।
शोर जिसमें
अनियमितता के नियम हैं ।
शोर जिसके 
विखंडन ही संगठित हैं ।

जो हमारा कुछ नहीं है
आँख मींचे ,
हम उसी की ओर 
होते जा रहे हैं ।

शोर दलदल
है कि जिसमें अर्थ सारे ,
संकुचित हो 
मौन साधे डूबते हैं ।
शोर में उद्देश्य 
सत्ता को स्वयं की 
अनमने 
मन से निरंतर ढूंढ़ते हैं ।

है नहीं दिनमान 
जिसमें हम उसी दिन
की अजूबी भोर 
होते जा रहे हैं ।

शोर कुछ 
देता नहीं लेता नहीं है ।
भाव कोई 
शोर में होता नहीं है ।
निस्पृही 
नादों- निनादों से विनिर्मित ,
ये किसी 
सम्वेग को ढोता नहीं है ।

शक्ति की अभिकल्पना 
धारे हुए हम 
दिन ब दिन कमज़ोर 
होते जा रहे हैं ।

(४)
हम चिंताओं में उतरेंगे
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तुम पन्नों पर सजे रहो
हम अधरों अधरों बिखरेंगे ।

तुम बन-ठन कर घर में बैठो ,
हम सडकों से बात करें ।
तुम मुट्ठी में कसे रहो 
हम पोर-पोर खैरात करें ।
इतराओ गुलदानों में तुम 
हम मिट्टी में निखरेंगे ।
 
कलफ लगे कपडे़
सी अकड़ी
गर्दन के तुम  हो स्वामी 
दाएँ-बाएँ आगे-पीछे
हर  दिक् के 
हम सहगामी ।
 
हठयोगी से
सधे रहो तुम 
हम हर दिल से गुजरेंगे ।

तुम अनुशासित 
झीलों जैसे
हल्का-हल्का मुस्काते ।
हम अल्हड़ नदियों 
सा हँसते
हर पत्थर से बतियाते ।

तुम चिंतन के 
शिखर चढ़ो 
हम चिंताओं में उतरेंगे

(५)
 चुप रहे तुम
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चुप रहे तुम 
वक़्त था जब बोलने का 
अब तुम्हारी 
चीख का हम क्या करेंगे ?

कल तुम्हारे स्वार्थ सारे 
सध रहे थे चुप्पियों से ।
थे ज़रूरी प्रश्न जितने 
लग रहे थे चुटकियों से ।
आज जब तुम स्वयं ही 
बन प्रश्न नत मस्तक खड़े हो 
उत्तरों की देह दागी 
जा चुकी है बरछियों से ।
 
चाहते हो लौट आएँ 
फिर वही दिन पर बताओ
आज के संदर्भ में अब 
उस गयी तारीख़ का हम क्या करेंगे ?

झूठ मंचों पर सजे थे 
सत्य केवल थे उपेक्षित ।
दोष मढ़ कर हर सही पर 
ग़लत सारे थे समर्थित ।
तब अपेक्षित था नहीं
निर्लिप्त रहना, पर रहे तुम 
कर लिया था स्यात्  तुमने 
मौन रह ख़ुद को सुरक्षित ।

सुन्न कर सम्वेदनाएँ 
हो गए अभ्यस्त कड़वे घूँट के अब 
हम क़सम से 
फिर रसीली ईख का हम क्या करेंगे ।

जान कर अनभिज्ञ रहना 
शब्द हों पर कुछ न कहना ।
आँख हो कर भी स्वयं के 
लिए ख़ुद अंधत्व गहना ।
दोष है यह, दोष को भी 
दोष कहने से बचे यदि
है ज़रूरी तो नही प्रत्यक्ष 
हिस्सेदार रहना ।

यह घड़ी परिणाम की है 
व्यर्थ होगा हर जतन ही 
संभलने या बदलने का 
अब सयानी सीख का हम क्या करेंगे ?

               - सीमा अग्रवाल

परिचय
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रचनाकार -सीमा अग्रवाल
माता -श्रीमती प्रभा गुप्ता
पिता-आयुर्वेदाचार्य बनारसीदास गुप्ता
जन्म तिथि- ८अक्टूबर, १९६२

मूल पैतृक स्थान कानपुर, उत्तर प्रदेश है l संगीत से स्नातक एवं मनोविज्ञान से परास्नातक करने के पश्चात पुस्तकालय विज्ञान से डिप्लोमा प्राप्त किया l आकाशवाणी कानपुर में कई वर्ष तक आकस्मिक उद्घोषिका के रूप में कार्य किया l विवाह पश्चात पूर्णरूप से घर गृहस्थी में संलग्न रहीं l पिछले कुछ वर्षों से लेखन कार्य में सक्रिय हैं l इन्ही कुछ वर्षों में काव्य की विभिन्न विधाओं में लिखने के साथ ही कुछ कहानियाँऔर आलेख भी लिखे ।

लेखन क्षेत्र- गीत एवं छंद, लघु कथा

प्रकाशित  गीत संग्रह 
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१- खुशबू सीली गलियों की 
२-नदी ने बतकही की पत्थरों से 
३- आहटों के अर्थ (सद्य प्रकाशित )
एवं अन्य कई साझा संकलन 

पता -
सीमा अग्रवाल
C-12 सिल्वर एंक्लेट 
यारी रोड, वर्सोवा,
अंधेरी पश्चिम
मुम्बई 400061
981029051

मंगलवार, 14 दिसंबर 2021

दोहे दिसम्बर के : यश मालवीय

दोहे दिसम्बर के : यश मालवीय

खिला दिसम्बर खिल गए,भाप भरे सम्वाद 

ठिठुर रहे जनतंत्र में,प्रजातंत्र असहाय
भाप छोड़ती केतली,ठंडी होती चाय।।

दिशा-दिशा में घुल रहा,रोली और गुलाल
कुहरे में छूटा कहीं, सूरज का रूमाल।।

उछल-उछलकर डोलती,सर्दी रस्सी कूद
चख-चखकर है फेंकती, बेर और अमरूद।।

खिला दिसम्बर खिल गए, भाप भरे सम्वाद
यादों का होने लगा,छवियों में अनुवाद।।

सूरज आँखें मल रहा,भूला अपनी धाक
ठंड पार्क में खेलती,पहन धूप की फ्रॉक।।

एक आग सिगड़ी जली,एक हृदय के बीच
दोनों हाथों प्यार को,मौसम रहा उलीच।।

धूप काटती मौन हो,सर्दी के नाख़ून
हुआ इलाहाबाद भी,जैसे देहरादून।।

धूप दिसम्बर की लगे,जैसे उबटन देह
जस-जस किरनें छू रहीं, तस-तस दमके नेह।।

ये जाड़े की धूप तो,लगती अपरम्पार
जैसे ताज़ा नज़्म से,झाँक रहे गुलज़ार।।

खिड़की परदे रोशनी, सब लगते जासूस
बात प्रिया से कर रहे,कातिक अगहन पूस।।

आँगन में बैठी हुई,फटक रही है सूप
आज कैजुअल लीव पर,घर अगोरती धूप।।

शनिवार, 11 दिसंबर 2021

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