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शनिवार, 26 जून 2021

विनम्र श्रद्धांजलि प्रस्तुति : वागर्थ

विनम्र श्रद्धांजलि
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कल की एक खबर हम सब को चौंकाने और स्तब्ध करने वाली थी।राजधानी के ख्यात कवि और कथाकार मध्यप्रदेश लेखक संघ के पूर्व प्रांताध्यक्ष और संरक्षक बटुक चतुर्वेदी जी हमारे बीच नहीं रहे उनका व्यक्तित्व और कृतित्व समान रूप से प्रभावशाली था।पूरे प्रदेश में लेखक संघ की जड़ें जमाने का काम बटुक जी ने ही किया था जो आज हरी भरी शाखाओं के रूप में लहकती  दिखाई दे रही हैं।लेखक संघ के साथ सबसे अच्छी बात यह रही की बटुक जी ने अपने जीते जी लेखक संघ को ईमानदार और समर्पित उत्तराधिकारियों की टीम और अध्यक्ष अपने जीते जी ढूँढ कर दे दिया और संघ की कमान उन्हें सौंपकर खुद निश्चिंत हो गए।
        जीते जी उन्हें खूब यश मिला वह हम सभी के चहेते थे।जैसा कि कल हम सबने सोशल मीडिया पर उनकी  वायरल पोस्टों के माध्यम से यह जाना और समझा अब वह हमारे साथ सशरीर नहीं हैं पर उनके  लिखे शब्द हमारे साथ सदैव रहेंगे।उन्हें राष्ट्र एवं प्रदेश व्यापी अनेक सम्मान मिले जिनमें प्रदेश का कबीर सम्मान भी शामिल है।विक्रम विश्वविद्यालय से उनके उपन्यास हेमन्तिया उर्फ क्लेक्टरनीबाई पर शोध कार्य सम्पन्न हुआ।ऐसा एक अन्य कार्य जीवाजी विश्वविद्यालय से भी संपन्न हुआ है।
उनके द्वारा रची "खूब भरो है जम कैं मेला" बुंदेली कविता ने एक समय में मंचों पर खूब धूम मचाई।देश भर में उन्होंने मंचों पर प्रस्तुतियाँ दीं बालकवि वैरागी जी और नीरज जी के निकट रहे।मैं उन्हें अपने श्रद्धासुमन अर्पित करता हूँ।ईश्वर उनकी आत्मा को शाँति दे।अमूमन लोग दिवंगत को याद करते समय अपने साथ वाला फ़ोटो खोज खोजकर लगाते हैं,पर ऐसा इस अवसर विशेष पर करना मुझे अनुचित लगता है।
मेरा आशय यह बिल्कुल नहीं है कि लोग जो करते हैं वह गलत है पर ऐसे मैं मुझे कवि को उसके कृतित्व के साथ याद करना ही श्रेयस्कर लगा।
     प्रस्तुत हैं उनके लिखे कुछ दोहे अवसर भी बिल्कुल वही है जिस माहौल विशेष पर कभी कवि ने अपनी कलम चलाई थी।बटुक जी ने जिन कवियों और रचनाकारों पर अपनी कलम चलाई थी,आज के समय इनमें से अनेक कवि हमारे साथ हैं और अधिसंख्य नहीं भी।पर,अफसोस इस पोस्ट को देखने या सुनने के लिए दादा बटुक जी हमारे मध्य नहीं हैं।

उन्हें विनम्र श्रद्धांजलि और नमन 

मनोज जैन 
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 बटुक चतुर्वेदी जी के चंद होलियाना दुमदार दोहे साभार प्रस्तुत है 
 चंद दुमदार दोहे –
          डॉ. शिव मंगल सिंह “सुमन”
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हमें न पतझड़ जानिए, हम हैं ललित वसंत,
झांको अन्तर में तनिक, भूल जाओगे पंथ।
जाओगे कभी नहीं फिर अंत।।
         आचार्य रामेश्वर शुक्ल “अंचल”
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संस्मरणों में आपके, कसकन अति गंभीर,
कविताओं में खींचते, यौवन की तस्वीर।
समझता कोई न अपनी पीर।।
             श्री नरेश मेहता
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अपना मालव देश भी, कैसा गहन गंभीर,
घोर उपेक्षा झेलकर, छोड़ न पाता धीर।
बदलती घूड़े की तकदीर।।
            श्री गोपालदास ‘नीरज’
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नीरज धीरज धारिए, अब वैसे दिन नाहिं,
जिस द्वारे पर जा डटें, वह ही देय पनाह।
बुढ़ापे में जवानों सी आह।।
          श्री हरिशंकर परसाईँ
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परसाईं के व्यंग्य हैं, ज्यों भीलों के वाण,
ठीक निशाने पर लगें, हरे न लेकिन प्राण।
बन्द कमरे में सकल जहान।।
          श्री राजेन्द्र अवस्थी
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खूब बुझाई आपने, अपने मन की प्यास,
मगर न होती तृप्ति सो, मनवा रहे उदास।
बदलते रहे रोज गिलास।।
          श्रीमती मालती जोशी
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कथा कथा में भेद है, गीत गीत में भेद,
कभी नहीं भाता इन्हें, गिनें किसी के छेद।
आपका है इनसे मतभेद।।
          श्रीमती मेहरुन्निसा परवेज
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पाकर नित्य-प्रसाद को, है इनको परहेज,
इसीलिए क्या लिख रहीं, आत्मकथा परवेज?
डायरी में कुछ कोरे पेज।।
         डॉ. प्रभाकर श्रोत्रिय
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अपनों ने ही ठाठ से दिलवाया वनवास,
जड़ें काट दीं उन्हीं ने, जिन पर था विश्वास।
बुझाते कलकत्ते में प्यास।।
         श्री बालकवि बैरागी
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बैरागी के हो गये, यारों बाल सफेद,
फिर भी फिरते खोजते, हैं साहित्यिक छेद।
नहीं देते औरों को भेद।।
        श्री रमेश चन्द्र शाह
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क्या काव्य आलोचना, सबके है उस्ताद,
क्यारी हिन्दी की मगर, है अंग्रेजी खाद।
एक ही डिश में अनगिन स्वाद।।
         श्री माणिक वर्मा
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खींच रहे कविताई में, यह व्यंगों की खाल,
पर गजलों के साथ ये, देते दिखते ताल।
मगर आगे ठनठन गोपाल।।
        श्री अशोक वाजपेई
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जिधर देखिए आप हैं, आप और बस आप,
जिसको देखो कर रहा, सिर्फ आपका जाप।
यही कुर्सी का पुण्य प्रताप।।
         श्री हरि जोशी
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ऊबे लगते व्यंग्य से, फिक्शन में है व्यस्त,
हक्कानी यों हांकते, ज्यों हो जग से त्रस्त।
जमाना केवल नगद परस्त।।
         श्री यशवन्त व्यास
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खाल खींचना छोड़िये, व्यंगों की यशवन्त,
संपादन के काम में है अद्भुत आनन्द।
आपके लटके बड़े ज्वलंत।।
          डॉ. देवेन्द्र दीपक
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दीपक यदि जलता रहे, सार्थक उसका नाम,
बुझे दिये को बोलिए, कैसे होय प्रणाम।
पार लगाएगा हरि नाम।।
            श्री विजय वाते
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कहाँ पुलिस की ड्रेस है, कहाँ ग़ज़ल का फेस,
कहां गीत का फेस है, कहाँ कथा का शेष।
जवानी में खाई है ठेस।।
            डॉ. ज्ञान चतुर्वेदी
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व्यंगों के इंजैक्शन, हरदम हैं तैयार,
किसको कब ये ठूंस दें, कहना है बेकार।
पोंछते लिटरेचर की लार।।
           श्री वसंत निरगुणे
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इस निर्गुणी वसंत पर, न्यौछावर तन-प्राण,
एक मोहिनी रूप ही ले सकता है जान।
जानता इनको सकल जहान।।
           श्री लीलाधर मंडलोई
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लीलाएँ अद्भुत गजब, सभी आपके कृत्य,
मन मयूर बैठा करे, अद्भुत अद्भुत नृत्य।
आपके पौ बारह हैं नित्य।।
             प्रस्तुति 
           मनोज जैन
साभार –
छींटे रंग गुलाल के
कविता संग्रह से

मनोज जैन

बुधवार, 21 अप्रैल 2021

ज़हीर कुरैशी जी के तीन नवगीत प्रस्तुति समूह वागर्थ

विनम्र श्रद्धांजलि
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प्रख्यात हिन्दी गजलकार ज़हीर कुरैशी जी का जाना मेरे लिए व्यक्तिगत क्षति है , कारण वह हमारे गाँव के पास के थे और वैसी ही आत्मीयता अपनापन मुझे अंत तक देते रहे , जैसा कि हम सब जानते हैं कि जहीर कुरैशी जी ने अपने साहित्यिक कैरियर का आगाज नवगीतों से किया था और उनकी इस प्रतिभा के चलते डॉ शंभुनाथ सिंह जी ने उन्हें नवगीत दशक -3 और अर्धशती में शामिल किया था , परन्तु नवगीत विधा की सीमाओं को देखते हुए जल्दी ही उनका नवगीत से मोहभंग हो गया तदुपरान्त उन्होंने हिन्दी गजल का दामन थाम लिया । हिन्दी गजल पर ज़हीर कुरैशी जी के शोधपरक और उल्लेखनीय कार्य ने उन्हें अंतराष्ट्रीय स्तर पर हिन्दी गजल का आइकॉन बना दिया। उन्होंने नवगीत,  दोहे , संस्मरण , कहानियां भी जमकर लिखे । हिन्दी की तमाम स्तरीय पत्रिकाओं में उन्हें भरपूर स्पेस मिला।
जैसा की समूह वागर्थ की अपनी अभिनव कार्यशैली यही रही है कि वह अपने प्रिय और आत्मीय रचनाकार को उनके कृतित्व पर चर्चा करके उन्हें अश्रुपूरित श्रद्धांजलि अर्पित करता आया है। 
आइए पढ़ते हैं 
ज़हीर कुरैशी जी के तीन नवगीत
साथ ही उन्हें विनम्र अश्रुपूरित श्रद्धांजलि
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प्रस्तुति
वागर्थ
सम्पादक मण्डल

1
गलत पते का खत
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गलत पते का खत 
बंजारों से चले 
पीठ पर लादे अपना घर 

मीलों लंबा सफर 
योजनों लंबा जीवन है,
लेकिन, उसके साथ 
भ्रमित पंछी जैसा मन है 
गलत पते के खत- से
भटक रहे हैं इधर-उधर 

दूर तलक फैले मरुथल में
है असीम मृग -छल 
इसको पागल मृग क्या समझे 
क्या छल है क्या जल 
जहां प्यास है
 वहां समझ पर पड़ते हैं पत्थर 

जागी आंखों के सपनों से 
बचते रहे नयन
सोयी आंखों के सपनों में 
रमा हुआ है मन

पलकों को भाता है
तकिया नींद,नरम,बिस्तर

2

असली चेहरा याद नहीं
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भीतर से तो हम श्मशान हैं
बाहर मेले हैं।

कपड़े पहने हुए
स्वयं को नंगे लगते हैं
दान दे रहे हैं
फिर भी भिखमंगे लगते हैं
ककड़ी के धोखे में
बिकते हुए करेले हैं

इतने चेहरे बदले 
असली चेहरा याद नहीं
जहां न हो अभिनय हो
ऐसा कोई संवाद नहीं 
हम द्वंदों के रंगमंच के 
पात्र अकेले हैं 

दलदल से बाहर आने की 
कोई राह नहीं 
इतने पाप हुए 
अब पापों की परवाह नहीं
हम आत्मा की नजरों में 
मिट्टी के ढेले हैं 

3

आत्म-परिचय का गीत

हम स्वयं से भी 
अपरिचित हो गए हैं 

रास्ते हैं 
और उनकी दूरियां हैं 
दूरियों की भी 
अलग मजबूरियां हैं 
हम भटकते रास्तों में 
खो गए हैं

वासनाएं
जिन्दगी से भी बड़ी हैं
प्यास बन कर 
उम्र की छत पर खड़ी हैं
तृप्ति के पथ पर 
मरुस्थल हो गए हैं

पांव पीछे 
लौट जाना चाहते हैं
लौटकर
धूनी रमाना चाहते हैं 
विगत पथ पर 
लोग कांटे बो गए हैं

जहीर कुरैशी
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परिचय
ज़हीर कुरैशी
जन्मतिथि-  05 अगस्त,1950
हिन्दी गजल पर उल्लेखनीय काम 
जन्मस्थान -चंदेरी( जिला अशोकनगर, म०प्र०)
निधन - 20 अप्रैल 2021