होली विशेषांक
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तन-मन में मस्ती भरे,ये फागुनी बयार।
अपने रँग रँगने लगा रंगों का त्योहार ।।
रंग चढ़ा है फागुनी गोरी है बेहाल ।
बाबा भी मदमस्त हैं, नाचें देकर ताल ।।
हँसता फागुन आ गया, बहके मन्द समीर।
निर्गुनियाँ को भूलकर
गावैं फाग कबीर ।।
जबसे फागुन आ गया, बढ़े नेह सम्बन्ध।
भौरों के होने लगे, कलियों से अनुबंध ।।
झाँझ-मंजीरे बज रहे
बढ़ती ढोलक थाप ।
फगुआ गाते लोग सब
भूले दुख- संताप ।।
ऊंच- नीच जग भूलता
सबका सम व्यवहार।
एक रंग में रँग गया,
सतरंगा त्योहार ।।
होलिकोत्सव- पर्व की सपरिवार हार्दिक बधाई , शुभकामनाएं ।
देवेन्द्र शुक्ल 'सफल'
कानपुर
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किसके साथ मनायें होली
किसके साथ मनायें होली,
रामू चाचा सोच रहे हैं !
इसी दिवस के लिए मरे थे ?
अपना माथा नोच रहे हैं !
बाँट -बाँट कर अलग हुए सब
बोलचाल सब बंद पड़ा है,
सबदिन तो जी लिये किसी विध,
दिवस आज का क्यों अखरा है !
हाय पड़ोसी की क्या सोंचे,
भाई सभी दबोच रहे हैं ।
भाईचारा रहा नहीं वो,
भौजाई अनजानी अब तो,
दीवारें अब ऊँची -ऊँची,
मिल्लत हुई कहानी अब तो,
अपने-अपने स्वार्थ सभी के,
बचे कहाँ संकोच रहे हैं ।
बेटे सब परदेश, बहू क्यों
घर आयेगी, क्या करना है,
होली और दिवाली में बस बुड्ढे को
कुढ़-कुढ़ मरना है।
आँगन-देहरी नीप रहे खुद,
दुखे कमर, जो मोच रहे हैं ।
गाने वाले होली को अब
नहीं बचे हैं,ना उमंग है,
किसी तरह दिन काट रहे हैं
बूढ़े -बूढ़ी, ना तरंग है ।
नवयुवकों में संस्कृति के प्रति
सोच अरे जो ओछ रहे हैं।
हुआ गाँव सुनसान भाग्य
इसका करिया है, यह विकास है,
अब गाँवों से शहरों में
होली बढ़िया है, यह विकास है ।
दरवाजे पर बैठे चाचा रह-रह
आँखें पोछ रहे हैं ।
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हरिनारायण सिंह 'हरि'
आई रे होली
रंग लगाने रंग जमाने,
आई रे होली ।
प्रीति लगाकर रीति निभाने,
आई रे होली ।
रंग लगाकर छिपे मनोहर,
ढूंढे जग सारा ।
देख श्याम को जले राधिका,
मन अपना मारा ।
बदला लेने और सताने,
आई रे होली ।।
ढोल-मंजीरे बजे नगाड़े,
सा-रा-रा होली ।
झूम झूम कर नाचें सारे,
सजे माथ रोली ।
मन के सारे भेद मिटाने,
आई रे होली ।।
गुजिया-पापड़ बनते हर घर,
दिखते दो-दो सब ।
गिरते-उठते फिर-फिर गिरते,
पी ली भंँगिया जब ।
मादक फागुन में इठलाने
आई रे होली ।।
आनंद सौरभ उपाध्याय
प्रीति की नव कल्पना ले
रामकिशोर मेहता