कविवर ईश्वर दयाल गोस्वामी जी हिन्दी पट्टी के चर्चित रचनाकार हैं।
आपका लेखन बहुआयामी है।
एक और जहाँ आपकी कलम खड़ी बोली में नवगीत सृजित करती है तो वहीं दूसरी ओर लोकभाषा बुन्देली में भी समकालीन कथ्य को नए-नए रूपाकारों में बाँधती है।
हाल ही में "भूरा कुमड़ा" शीर्षक से आपकी छन्दयुक्त विभिन्न रूपाकारों की पांडुलिपि पर सार संक्षेप में लिखने का संयोग बना। संकलित रचनाओं के मंथन को सार संक्षेप में कहा जाय तो, संकलन की रचनाएँ पाठक मन को बाँधनें और अर्थ की निष्पत्ति में पूरी तरह सफल प्रतीत होती हैं।
कविवर ने संकलन का शीषर्क बड़ी सूझबूझ से चुना है। बुन्देली से प्रेम रखने वाले पाठक 'कुमडा' शब्द से भली भाँति परिचित हैं।
'कुमड़ा' यानि कद्दू,
भूरा यानि सफेद।
यह तो सर्वविदित है ही कि सफेद कद्दू एक बहुउद्देश्यीय फल है।ठीक उसी प्रकार ईश्वर दयाल गोस्वामी जी की इस कृति में बुंदेली बोली के माधुर्य के साथ-साथ हिंदी के विकास में लोक के रस में रचे बसी बुंदेली बोली के योगदान के महत्व के रहस्योंद्घाटन की छवियाँ इस कृति में रचनाओं के माध्यम से पढ़ने मिलती हैं। कृति में सम्मिलित बुंदेली रचनाएँ अपने विविध रूपाकारों में हैं। जैसे, बुंदेली गीत, बुंदेली ग़ज़ल, नई कविता व बुंदेली दोहे इत्यादि सम्मिलित हैं।
एक प्रबुद्ध पाठक सजग रचनाकार से जो अपेक्षा करता है वह सब इन कविताओं में है।
सृजनात्मक स्तर पर लोकधर्मी सृजन की प्रचुरता इस कृति की अन्यतम विशेषताओं में से एक है।
मुझे आशा ही नहीं वरन पूर्ण विश्वास है कि कविवर ईश्वर दयाल गोस्वामी जी की इस कृति का साहित्य जगत में भरपूर स्वागत किया जाएगा। उनके शिल्प और कथ्य दोनों को सराहा जाएगा ।
शुभकामनाओं सहित
मनोज जैन "मधुर"
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