बिटिया जब भी घर से निकलो बैग में चाकू रखना : मुकेश अनुरागी
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वागर्थ प्रस्तुत करता है डॉ मुकेश अनुरागी जी के पाँच नवगीत
मुकेश अनुरागी जी लगातार पिछले दो दशकों से छंदोबद्ध रचनाएँ रचते आ रहे हैं नवगीत में भी इनका खासा रुझान हैं मुकेश जी डॉ विद्यानन्दन राजीव जी की शिष्य मण्डली से आते हैं और नवगीत लेखन की प्रेरणा का श्रेय भी वह राजीव जी को ही देते हैं।
मिलनसार,बहुमुखी प्रतिभा के धनी मित्रों के मित्र परम्परापोषी अनुरागी जी के नवगीतों में पीढ़ीगत अंतराल खुलकर आता है नए भारत के स्वरूप को भी स्वीकारते हैं और अपनी जड़ों को भी सींचना नहीं भूलते!
मुकेश जी ने कुछ नवगीत प्रकृति और पर्यावरण को केंद्र में रखकर भी रचे हैं। इन दिनों समीक्षाकर्म में निमग्न निरन्तर साधनारत मुकेश जी से और भी बेहतर की उम्मीद है। यदि वह इसी तरह टिककर लिखते रहे तो वह दिन दूर नहीं जब इनका अपना निजी नवगीत संग्रह मुकेश जी के तमाम पाठकों के हाथों में होगा।
शुभकामनाओं सहित
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प्रस्तुति वागर्थ
सम्पादक मण्डल
प्रस्तुत हैं
कुछ नवगीत
बिटिया जब भी घर से निकलो बैग में चाकू रखना : मुकेश अनुरागी
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1
जीवन भर भागा सुख पाने
इससे हांफ रहा।
हुआ थकन से चूर, वृध्द
दरवाजा कांप रहा।
चहल-पहल न दालानों में
सूना तुलसी चौरा।
गिल्ली-डंडा,सावन-झूले
भूले चकरी भौंरा।
घर का जोगी छोड़
विदेशी मंतर जाप रहा।
हुआ थकन से चूर
वृद्ध दरवाजा कांप रहा।
आंगन का बंटवारा
कैसे हो ये सोच रहे।
अपने मन की पूरी होवे
लेकिन बिना कहे।
लेकर फीता हाथ लाड़ला
घर को नाप रहा।
हुआ थकन से चूर
वृद्ध दरवाजा कांप रहा।
घी से भरा दीप पूजा का
अब तो रीत रहा।
खूब जला हर सुख- दुःख झेला
कोई न मीत रहा।
कोई मुझको अपना कह दे
ये संताप रहा।
हुआ थकन से चूर
वृध्द दरवाजा कांप रहा।
2
सिंहासन पर बैठा बूढ़ा
आंखें बन्द किए।
मदहोशी केआये झोंके
जब-जब नथुने में।
कभी नहीं महसूसा
केवल उनके कहने में।
दोनों कानों में उंगली,और
मुंह पाबंद किए।
बदनामी की चली आंधियां
अपना तन ढांका।
धूलधूसरित कक्ष हुए पर,
उनमें न झांका।
आज कटा कल कट जायेगा
नीति बुलंद किए।
बिगड़ गया जो ढर्रा भैया
कैसे होगा ठीक।
तभी सुधर पायेगा "सिस्टम"
जब छोड़ोगे लीक।
खुद भी न बच पाओगे,गर
फिर छलछंद किए।
3
खिड़की पर बैठा है बचपन
नजरें सड़कों पर।
सुबह के निकले मम्मी-डैडी
लौटें सांझ पहर।
ब्रेड-बटर का किया नाश्ता
बाई लंच बनाती।
भूख लगे तो दूध रखा है
मम्मी कह कर जाती।
सिर्फ रात को साथ बैठकर
करते संग डिनर।
मोबाइल है साथी- भैया
टीवी संग रहना है।
दिन भर आंसू आते-जाते
सबको ही सहना है।
इकलौता है वारिस रहता घर पर
दिन-दिन भर।
किड्स गार्डन बंद हो गये
भूले सभी पढ़ाई।
बाबा दादी नानी को भी
मेरी याद न आई।
बैठ अकेला मन की बातें
किससे कहे कुंअर।
4
किसको फुरसत
कौन सुनेगा
कथा-व्यथा छप्पर की
सूरज है अलमस्त बोलता
मस्त भरी अवाज।
बादल भी आवारा नित नित
खोल रहा है राज
भोर उनींदी थका हौंसला
गौरैया पर-घर की
चूल्हा ठण्डा द्वार अटपटा
माटी नहीं पोतनी।
खिड़की-दरवाजे हैं बेबस
अनमन हुई अरगनी।
टूटा छप्पर रिसता पानी
देहरी भी दरकी
बूढ़ा बाप खाँसता द्वारे
भीतर अम्मा लेटी।
फटे बसन लज्जा तन ढांके
हुई सयानी बेटी।
खाली बैठा सरजू बागी
बात कहे हर-घर की
5
बिटिया जब भी घर से निकलो
बैग में चाकू रखना
पगडंडी अब सड़कें हो गईं
बहुत फिसलनी हैं
सूपों में अब छेद ढूँढ़तीं
फिरती चलनी हैं
बहुत कठिन
हो गया
व्यवस्थाओं पर काबू रखना
पता नहीं कब कोई आकर
झूठी आस बँधाये |
मन में पाले कैसी इच्छा
तुम्हें समझ ना आये |
नहीं भरोसा
करना बिल्कुल
नजरें आजू-बाजू रखना
नजरें वहशी हो गईं
तोड़ें उम्र के सारे बन्धन
मानवता और
सच्चाई की
रहती मन से अनबन
इसीलिये
अब ना कुरते में
कोई खुशबू रखना
6
अब न कभी उर झंकृत करते
मुख से निकले बोल
अब तो इन्हें सम्हारौ भइया
मन की आंखें खोल
नीमतले न दद्दा दिखते ,
न घर में भौजाई
नहीं दीखती बैरिन रतिया
मूंज बुनी चारपाई
भोर कलेवा,संझा ब्यारू
गौरय्या भी गोल
जीने रिश्ते तार-तार हैं
बखिया बिन तुरपाई
अम्मा खांसें सूनी बाखर
बड़की हुई पराई
भइयू जिज्जी कक्का हुक्का
सभी बिके बेमोल
नहीं खनकती खनखन चूड़ी
नहीं जगाते प्रभाती
नहीं बुलाने को अब बहुरी
दरवज्जा खटकाती
आंगन भी सकरा सा लगता
बहू फिरे सिर खोल
7
आ गई धूप
बिना कहे
चुपचाप आ गई
दालानों में धूप
रंग सुनहरा
पतली काया
लिए गुनगुना रूप
ठिठुरे-ठिठुरे
हाथ पैर हैं
सांँसें भी हैं ठण्डी
तेज हवा के
झोंके मचलें
कुहरे की है मण्डी
अंग-अंग में
सिहरन सरसे
नदी-किनारे कूप
नन्ही गौरेया
जा दुबके
कोटर में पेड़ों के
डरकर पीले
खेत हो गये
बदले रंँग मेड़ों के
थर-थर कांँपे
सरसों-गेंहू
बना बाजरा भूप
रोज तमकना
गुस्सा खाना भी
काफूर हुआ है
जल्दी घर को
लौट पड़े पर
घर भी दूर हुआ है
कैसे फटके किरनें
अम्मा
घर में टूटा सूप
मुकेश अनुरागी
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परिचय
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मुकेश अनुरागी
(डॉ मुकेश श्रीवास्तव अनुरागी)
बी.एससी.एम.ए.(हिन्दी)पीएच.डी.(लोकसाहित्य)
छंदधर्मी नवगीतकार
१०-११-१९६६
प्रकाशित---
आस्था के गांव से (गीत कलश)
सुबह की धूप ( नवगीत कुंज)
सुर बांसुरी के (कवित्त, सवैया,घनाक्षरी)
प्रकाशनाधीन----
हम समंदर हैं (ग़ज़ल गुलदस्ता)
लोकगीत-(आंचलिक भाषा के लोकगीतों का संग्रह)
प्रसारण__ आकाशवाणी शिवपुरी से समय-समय पर गीतों का प्रसारण
समवेत संकलन--
गीतायन, गीत अष्टक प्रथम,शब्दायन, गीत वसुधा, समकालीन गीतकोष, अंजुरी भर अनुराग, नवगीतों का लोकधर्मी सौंदर्य बोध, नवगीतों में मानवता वाद साथ ही साक्षात्कार,हरगंधा, उत्तरायण, साहित्य सागर, गीत गागर, आदि अनेक पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित
सम्मान--
सारस्वत सम्मान, साहित्य शलाका सम्मान,प्रज्ञाभारती समयमान, हिन्दी सेवी सम्मान, शब्दरत्नाकर सम्मान, उत्कृष्ट कर्मचारी सम्मान, साहित्यकार सम्मान ,श्रीहरिओमशरण चौबे स्मृति गीतकार सम्मान
आत्मकथ्य-- जब-जब मन की पीर घनीभूत होकर उद्वेलित करती है तो मन के भाव लेखनी के माध्यम से अभिव्यक्त हो जाते हैं,वर्ष १९८० से साहित्य पर का पथिक हूं, परन्तु सदैव साहित्य का विद्यार्थी ही रहा हूं,
संप्रति--
स्व श्रीमति इंदिरा गांधी शासकीय कन्या महाविद्यालय शिवपुरी में शासकीय सेवा में
चलित वार्ता-- ९९९३३८६०७८
सम्पर्क सूत्र--