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गुरुवार, 1 जुलाई 2021

नवगीत चर्चा में प्रस्तुत हैं मुकेश अनुरागी जी के नवगीत प्रस्तुति : वागर्थ सम्पादक मण्डल

बिटिया जब भी घर से निकलो बैग में चाकू रखना : मुकेश अनुरागी 
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वागर्थ प्रस्तुत करता है डॉ मुकेश अनुरागी जी के पाँच नवगीत

                         मुकेश अनुरागी जी लगातार पिछले दो दशकों से छंदोबद्ध रचनाएँ रचते आ रहे हैं नवगीत में भी इनका खासा रुझान हैं मुकेश जी डॉ विद्यानन्दन राजीव जी की शिष्य मण्डली से आते हैं और नवगीत लेखन की प्रेरणा का श्रेय भी वह राजीव जी को ही देते हैं।
                                                 मिलनसार,बहुमुखी प्रतिभा के धनी मित्रों के मित्र परम्परापोषी अनुरागी जी के नवगीतों में पीढ़ीगत अंतराल खुलकर आता है नए भारत के स्वरूप को भी स्वीकारते हैं और अपनी जड़ों को भी सींचना नहीं भूलते! 
          मुकेश जी ने कुछ नवगीत प्रकृति और पर्यावरण को केंद्र में रखकर भी रचे हैं। इन दिनों समीक्षाकर्म में निमग्न निरन्तर साधनारत मुकेश जी से और भी बेहतर की उम्मीद है। यदि वह इसी तरह टिककर लिखते रहे तो वह दिन दूर नहीं जब इनका अपना निजी नवगीत संग्रह मुकेश जी के तमाम पाठकों के हाथों में होगा।
शुभकामनाओं सहित
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प्रस्तुति वागर्थ
सम्पादक मण्डल

प्रस्तुत हैं 
कुछ नवगीत

बिटिया जब भी घर से निकलो बैग में चाकू रखना : मुकेश अनुरागी 
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1

जीवन भर भागा सुख पाने
इससे हांफ रहा। 
हुआ थकन से चूर, वृध्द 
दरवाजा कांप रहा। 

चहल-पहल न दालानों में
सूना तुलसी चौरा। 
गिल्ली-डंडा,सावन-झूले
भूले चकरी भौंरा। 

घर का जोगी छोड़ 
विदेशी मंतर जाप रहा। 
हुआ थकन से चूर
वृद्ध दरवाजा कांप रहा। 

आंगन का बंटवारा
कैसे हो ये सोच रहे। 
अपने मन की पूरी होवे
लेकिन बिना कहे। 

लेकर फीता हाथ लाड़ला
घर को नाप रहा। 
हुआ थकन से चूर
वृद्ध दरवाजा कांप रहा। 

घी से भरा दीप पूजा का
अब तो रीत रहा। 
खूब जला हर सुख- दुःख झेला
कोई न मीत रहा। 

कोई मुझको अपना कह दे
ये संताप रहा। 
हुआ थकन से चूर
वृध्द दरवाजा कांप रहा। 

2

सिंहासन पर बैठा बूढ़ा
आंखें बन्द किए। 

मदहोशी केआये झोंके
जब-जब नथुने में। 
कभी नहीं महसूसा
केवल उनके कहने में। 
 
दोनों कानों में उंगली,और
मुंह पाबंद किए। 

बदनामी की चली आंधियां
अपना तन ढांका। 
धूलधूसरित कक्ष हुए पर,
उनमें न झांका। 

आज कटा कल कट जायेगा
नीति बुलंद किए। 

बिगड़ गया जो ढर्रा भैया
कैसे होगा ठीक। 
तभी सुधर पायेगा "सिस्टम" 
जब छोड़ोगे लीक। 

खुद भी न बच पाओगे,गर
फिर छलछंद किए। 

3

खिड़की पर बैठा है बचपन
नजरें सड़कों पर।   
सुबह के निकले मम्मी-डैडी
लौटें सांझ पहर।  

ब्रेड-बटर का किया नाश्ता
बाई लंच बनाती। 
भूख लगे तो दूध रखा है
मम्मी कह कर जाती।  

सिर्फ रात को साथ बैठकर
करते संग डिनर। 

मोबाइल है साथी- भैया
टीवी संग रहना है।   
दिन भर आंसू आते-जाते
सबको ही सहना है। 

इकलौता है वारिस रहता घर पर
दिन-दिन भर। 

किड्स गार्डन बंद हो गये
भूले सभी पढ़ाई। 
बाबा दादी नानी को भी
मेरी याद न आई। 

बैठ अकेला मन की बातें
किससे कहे कुंअर। 

 4

किसको फुरसत 
कौन सुनेगा
कथा-व्यथा छप्पर की 

सूरज है अलमस्त बोलता 
मस्त भरी अवाज। 
बादल भी आवारा नित  नित
खोल रहा है राज

भोर उनींदी थका हौंसला
गौरैया पर-घर की 

चूल्हा ठण्डा द्वार अटपटा 
माटी नहीं पोतनी।  
खिड़की-दरवाजे हैं बेबस 
अनमन हुई  अरगनी। 

टूटा छप्पर रिसता पानी 
देहरी भी दरकी 

बूढ़ा बाप खाँसता द्वारे 
भीतर अम्मा लेटी। 
फटे बसन लज्जा तन ढांके
हुई सयानी बेटी। 

खाली बैठा सरजू बागी 
बात कहे हर-घर की

5

बिटिया जब भी घर से निकलो 
बैग में चाकू रखना 

पगडंडी अब सड़कें हो गईं 
बहुत फिसलनी हैं 
सूपों में अब छेद ढूँढ़तीं 
फिरती चलनी हैं 

बहुत कठिन 
हो गया 
व्यवस्थाओं पर काबू रखना 

पता नहीं कब कोई आकर 
झूठी आस बँधाये |
मन में पाले कैसी इच्छा 
तुम्हें समझ ना आये | 

नहीं भरोसा
करना बिल्कुल
नजरें आजू-बाजू रखना 

नजरें वहशी हो गईं 
तोड़ें उम्र के सारे बन्धन 
मानवता और 
सच्चाई की 
रहती मन से अनबन 

इसीलिये 
अब ना कुरते में
कोई खुशबू रखना 

6

अब न कभी उर झंकृत करते
मुख से निकले बोल
अब तो इन्हें सम्हारौ भइया 
मन की आंखें खोल

नीमतले न दद्दा दिखते ,
न घर में भौजाई
नहीं दीखती बैरिन रतिया
मूंज बुनी चारपाई

भोर कलेवा,संझा ब्यारू
गौरय्या भी गोल

जीने रिश्ते तार-तार हैं
बखिया बिन तुरपाई
अम्मा खांसें सूनी बाखर
बड़की हुई पराई

भइयू जिज्जी कक्का हुक्का
सभी बिके बेमोल

नहीं खनकती खनखन चूड़ी
नहीं जगाते प्रभाती 
नहीं बुलाने को अब बहुरी
दरवज्जा खटकाती 

आंगन भी सकरा सा लगता
बहू फिरे सिर खोल


7




आ गई धूप

बिना कहे
चुपचाप आ गई
दालानों में धूप
रंग सुनहरा
पतली काया
लिए गुनगुना रूप

ठिठुरे-ठिठुरे
हाथ पैर हैं
सांँसें भी हैं ठण्डी 
तेज हवा के 
झोंके मचलें
कुहरे की है मण्डी 

अंग-अंग में
सिहरन सरसे
नदी-किनारे कूप

नन्ही गौरेया 
जा दुबके
कोटर में पेड़ों के
डरकर पीले 
खेत हो गये
बदले रंँग मेड़ों के

थर-थर कांँपे
सरसों-गेंहू
बना बाजरा भूप

रोज तमकना
गुस्सा खाना भी
काफूर हुआ है
जल्दी घर को
लौट पड़े पर 
घर भी दूर हुआ है

कैसे फटके किरनें 
अम्मा
घर में टूटा सूप

मुकेश अनुरागी
___________

परिचय
_____

 मुकेश अनुरागी
(डॉ मुकेश श्रीवास्तव अनुरागी)
बी.एससी.एम.ए.(हिन्दी)पीएच.डी.(लोकसाहित्य)
छंदधर्मी नवगीतकार
१०-११-१९६६ 
प्रकाशित---
आस्था के गांव से (गीत कलश)
सुबह की धूप ( नवगीत कुंज)
सुर बांसुरी के (कवित्त, सवैया,घनाक्षरी) 
प्रकाशनाधीन----
हम समंदर हैं (ग़ज़ल गुलदस्ता)
लोकगीत-(आंचलिक भाषा के लोकगीतों का संग्रह)
प्रसारण__ आकाशवाणी शिवपुरी से समय-समय पर गीतों का प्रसारण
समवेत संकलन--
गीतायन, गीत अष्टक प्रथम,शब्दायन, गीत वसुधा, समकालीन गीतकोष, अंजुरी भर अनुराग, नवगीतों का लोकधर्मी सौंदर्य बोध, नवगीतों में मानवता वाद साथ ही साक्षात्कार,हरगंधा, उत्तरायण, साहित्य सागर, गीत गागर, आदि अनेक पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित
सम्मान--
सारस्वत सम्मान, साहित्य शलाका सम्मान,प्रज्ञाभारती समयमान, हिन्दी सेवी सम्मान, शब्दरत्नाकर सम्मान, उत्कृष्ट कर्मचारी सम्मान, साहित्यकार सम्मान ,श्रीहरिओमशरण चौबे स्मृति गीतकार सम्मान
आत्मकथ्य-- जब-जब मन की पीर घनीभूत होकर उद्वेलित करती है तो मन के भाव लेखनी के माध्यम से अभिव्यक्त हो जाते हैं,वर्ष १९८० से साहित्य पर का पथिक हूं, परन्तु सदैव साहित्य का विद्यार्थी ही रहा हूं,
संप्रति--
स्व श्रीमति इंदिरा गांधी शासकीय कन्या महाविद्यालय शिवपुरी में शासकीय सेवा में
चलित वार्ता-- ९९९३३८६०७८
सम्पर्क सूत्र--
एच २५फिजीकल रोड शिवपुरी म.प्र.४७५३३१

शुक्रवार, 25 जून 2021

नवगीत चर्चा में रमेश गौतम प्रस्तुति : वागर्थ

अपने समय की शिनाख्त करते नवगीतकार रमेश गौतम 
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 इस समय को क्या हुआ
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टिप्पणी
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मनोज जैन

                              यूँ ,तो मैंने प्रख्यात साहित्यकार आदरणीय रमेश गौतम जी को अनेक संकलनों में पढ़ा है।पर यहाँ मे उन सब पर चर्चा ना करते हुये,उन्हें श्रेष्ठ हिन्दी गीत संचयन के प्रमुख कवियों में से एक कवि के रूप में प्रस्तुत करना चाहूँगा कथन के विस्तार के लिये यदि मुझे अपनी ओर से एक और वाक्य जोड़ना हो तो मैं यह बात  दावे से कहना चाहूँगा कि सुकवि  रमेश गौतम जी हिंदी नवगीत की प्रथम पँक्ति के अग्रणी कवि हैं,और रहेंगे।
             गौतम जी मूल रूप से शुद्ध व्यंजना के कवि हैं अपनी बात संकेतों में कहते हैं। सांकेतिकता भी नवगीत का एक गुण हैं ।उनके संकेत गहन और तीर की तरह पैने होते हैं।आज के अधिसंख्य कवि अखबारी भाषा में कुछ भी ऊल -जलूल लिख कर,नया कीर्तिमान स्थापित करने की होड़ में प्राण प्रण से जुटे हुये हैं।
        इसमें भी कोई हर्ज नहीं आप अखबारी भाषा में ही रचें पर समय निकाल कर  गौतम जी जैसे मानक कवि को भी पढ़ें, इनका एक एक गीत पूरे का पूरा महाकाव्य है।इस समय मेरे हाथ में "इस हवा को क्या हुआ" नवगीत संग्रह है ।207 पृष्ठीय इस शानदार नवगीत संग्रह में, कवि ने 80 गीतों (इन्हें गीत ना कहकर नवगीत ही कहना श्रेयस्कर है)को जरूरी स्थान दिया है।संग्रह के सारे गीत सामाजिक राजनीतिक और व्यवस्थागत विद्रूपताओं के इर्द गिर्द घूमते हैं।
       दादा माहेश्वर तिवारी जी Maheshwar Tiwariजी की शानदार और जरूरी भूमिका गीतों के अर्थ खोलने में उपयोगी भूमिका का निर्वहन करती है।पूरे संग्रह को आपको कम से दो से तीन बार मनोयोग से पढ़ना ही होगा तब जाकर आप कवि के भाव-लोक की सैर कवि के साथ कर सकेंगे।
                  यही कारण है कि गौतम जी जैसे हिंदी के प्रमुख कवियों की उपस्थिति के कारण ही श्रेष्ठ हिंदी गीत संचयन अपने समय की श्रेष्ठ कृतियों में शुमार की गई।जिसका उद्धरण और सन्दर्भ आज भी दिया जाता है।आदरणीय गौतम जी ने अपने आत्मकथ्य में एक बात बड़े विनम्र भाव से कही  है कि "मैं स्वयं को बड़ा गीत कवि या नवगीतकार नहीं मानता और न हूँ,बस समाज के सुख-दुख के बीच अपनी रचनात्मक भूमिका का निर्वहन भर करता हूँ।जीवन के वास्तविक धरातल को छिटककर आकाशगामी होना कभी नहीं भाया।आज की भागदौड़ वाली जिंदगी में जहां तक और छल प्रपंच बिखरा पड़ा है। जीवन का अर्थ तलाशना सबसे दुष्कर कार्य किंतु रचनाकार इस तलाश में मुंह नहीं मोड़ सकता मैं मानता हूं जीवन जगत के तमाम अंतर्विरोधों, विसंगतियों के बीच भी रचनाकार की सार्थक प्रतिक्रिया किसी परिवर्तन की आशा जगाती है ।शब्द की सामर्थ्य और तेजस्विता कभी कम नहीं होती नवगीत में यह सामर्थ्य और तेजस्विता विद्यमान है। मेरे गीतों में मेरी अनुभूतियों का अस्तित्व है।अतः और अधिक कुछ ना कहकर समर्थन अब गीतकार और गीत समीक्षक दिनेश सिंह की समीक्षा दृष्टि का उल्लेख करना चाहूंगा कि हर रचना एक प्रयास है अपनी विधा का आखिरी सत्य नहीं"
                    कवि के इस कथन के आलोक में कवि की ईमानदार रचना धर्मिता को देखा जा सकता है।
                 यहाँ गौतम जी के दो चयनित गीत पाठकों के लिये प्रस्तुत हैं।उनके पहले गीत में सूखे पेड़ के प्रतीक और मेघ के बिम्ब में व्यवस्था के असमान वितरण से समाज  में व्याप्त असमानता  के साथ,शोषक,शोषण और शोषित वर्ग के दृश्य सहज ही हमारी आँखों के समक्ष उपस्थित हो जाते हैं।
          दूसरे गीत में कवि देवत्व की अपेक्षा मनुजत्व को महत्व देता है।
बेहतरीन नवगीतों के लिए कृतिकार को बहुत बधाइयाँ!!

प्रस्तुत हैं Ramesh Gautam जी के दो बहुत प्यारे नवगीत 
प्रस्तुति
मनोज जैन
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एक
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गुलमोहर के रंग वाले दिन 
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गुलमोहर 
के रंग वाले दिन 
कहाँ से ढूँढ लाएँ 

डूबता आकाश बाँधे
पत्थरों को पाँव में 
आ गए जब से शिकारी 
बुलबुलों के गाँव में

नीड़ के पंछी 
उड़ानों के लिए 
किस ओर जाएँ

बावली-सी खोजती-फिरतीं 
दिशाएँ शाम को 
लोग कितना भूल बैठे हैं
सुबह के नाम को 

मन्दिरों के द्वार पर 
ठिठकी
खड़ीं हैं अर्चनाएँ 

एक सूखा पेड़ 
अब तक 
हाथ जोड़े ही खड़ा 

मेघ फिर भी 
सिन्धु के घर की 
दिशा मेंचल पड़ा 

देखती ही रह गईं 
बस धूप में 
झुलसी हवाएँ
-----
दो
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यहाँ मत देवता होना
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व्यर्थ है रोना 
यहाँ मत 
देवता होना 

कुछ नहीं 
पाषाणधर्मी रूप पाओगे 
युद्ध में फिर दानवों से 
हार जाओगे 
देवता होना 
स्वयं 
अस्तित्व का खोना 

देह के हर व्याकरण में 
दोष निकलेंगे 
कपट- क्षण के क्या कभी 
संदर्भ बदलेंगे 
पाप है ढ़ोना 
किसी का 
शिला बन सोना 

देवता जीवन मरण से 
कब हुए परिचित 
बस भुजाओं में किए 
अमृत कलश संचित 
कल्पतरु बोना 
सुरक्षित ढूँढना कोना

नवगीत चर्चा में कवि उद्भ्रान्त के नवगीत प्रस्तुति : वागर्थ

एक और मैं मेरे भीतर से उभरा :कवि उद्भ्रान्त _
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वागर्थ में आज 
पूरी तरह नवगीत को समर्पित समूह वागर्थ अब इंटरनेट की सबसे ज्यादा चर्चित पत्रिका है हमारी प्रस्तुतियाँ भीड़ से अलग और स्तरीय होती हैं यही कारण है कि पाठकों को सूर्य की पहली किरण के साथ ही वागर्थ में प्रस्तुत सामग्री की प्रतीक्षा होती है। आज हम वागर्थ पत्रिका में कवि उद्भ्रान्त   के 5 नवगीत पहले पहल प्रकाशित कर रहे हैं।इस पोस्ट से पहले पूरे इंटरनेट पर उनके नवगीत कहीं भी नहीं थे।
                   यहाँ नवगीत को लेकर लोगों ने बड़ा काम किया मेरे पास अनेक संग्रह और शोध सन्दर्भग्रन्थ हैं पर किसी भी सम्पादक के संकलन में मुझे कवि उदभ्रान्त नहीं दिखे प्रकृति के अनूठे और टटके बिम्ब बुनते हुए कवि की रचनाएँ पाठक को एक अलग ही संसार की सैर कराती हैं।
समूह वागर्थ उनकी रचनाओं को पहले पहल यहाँ पाठकों  के समक्ष रखकर स्वयं में गौरवान्वित है।
प्रस्तुति
वागर्थ
सम्पादक मण्डल
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    उद्भ्रान्त के नवगीत 
. सृजन क्षण 

सूर्य ने पुकारा
कल मेरी आकृति को सूर्य ने पुकारा

उजली उजली किरणें
चेहरे से फूटीं
स्वर के बन्दीगृह की
दीवारें टूटीं

शब्द ने पुकारा
कल मेरी संस्कृति को शब्द ने पुकारा

एक और ’मैं’ मेरे
भीतर से उभरा
’मेरापन’ जीवन के
हर पल पर बिखरा

बिम्ब ने पुकारा
कल मेरी प्रतिकृति को बिम्ब ने पुकारा

धड़कन में रागों की
मदिर सृष्टि डोली
सांस-सांस में, सरगम
की माया बोली 

छन्द ने पुकारा
कल मेरी झंकृति को छन्द ने पुकारा 

2. पीले रंग की बुनाई

जाड़े की धूप उमड़ आई

ठिठुर रही
किरणों के पंख खुल गए
मौसम में
मतवाले शंख घुल गए
रजतवर्ण
होंठों से
सूरज ने सोने की बाँसुरी बजाई
जाड़े की धूप उमड़ आई

पसर गई
दूर तलक गुनगुनी हवा
गुनगुनी हवा
कि प्राण की मदिर दवा
चित्रपटी पर नभ की
उभरने लगी पीले रंग की बुनाई
जाड़े की धूप उमड़ आई

कुहरीली
चादर में आग लग गई
पूरब की
परी पलक खोल जग गई
इठलाकर बढ़ी, और 
सन्नाटे की उसने तोड़ दी कलाई
जाड़े के धूप उमड़ आई

3. गीत के दिन

आ गए
ये गीत के दिन आ गए

हिल रही हैं पत्तियाँ मन की
एक कविता रचें जीवन की
तम गया है बीत
उजली प्रीति के दिन आ गए
ये गीत के दिन आ गए

धड़कनों के राग बोले हैं
सिन्धु में फिर प्राण डोले हैं
झनझनाते
सृष्टि के संगीत के दिन आ गए
ये गीत के दिन आ गए

4. तुमने मुझे निहारा

एक अजूबा गन्ध
लग गई मन में आज महकने
ज्योंही तुमने मुझे निहारा

धूप-दीप जल उठे
प्राण के कोने-कोने में
पलक झपकते —
चितवन बदली
जादू-टोने में

एक अजूबा रंग
लग गया मन में आज दहकने
ज्योंही तुमने मुझे निहारा

सन्नाटे में लगी तैरने
एक मधुर हलचल
खटकाए, हौले से कोई
यादों की साँकल 

एक अजूबा छन्द
लग गया मन में आज चहकने
ज्योंही तुमने मुझे निहारा

5. मुर्दा साँझ का गीत 

मुर्दा यह शाम हुई !

उखड़े से लगते हैं लोग
टूटा-टूटा सा परिवेश 
बर्फ़ हुआ जाता आवेश 
हिचकी-सी लेते उपभोग

चौराहे पर अपनी
धड़कन नीलाम हुई !

बारूदी गन्ध अब झाँकती
खिड़की से, काँपती निशा
हाँफ़-हाँफ़ जाती दिशा
बेचैनी अम्बर को ताकती

जंग लगी चिन्तन में
यात्रा यह जाम हुई !

टूट-टूट शृंखला बिखरती
सीटी-सी बजती है कानों में
इन बीहड़ जंगल-मैदानों में
अस्त-व्यस्त भावना विचरती

चलती रहने वाली
ज़िन्दगी विराम हुई !
मुर्दा यह शाम हुई !

उद्‌भ्रान्त 

परिचय
______
उद्‌भ्रान्त की रचनाएँ
जन्मतिथि 4 सितम्बर, 1948 ई. नवलगढ़ (राज.) - कागजों में 6 मई, 1950 ई; कानपुर में शिक्षा-दीक्षा: वर्ष 1959 से रचनारंभ। प्रकाशित पुस्तकों की संख्या 120 से अधिक, प्रियदर्शनी अकादमी का ‘प्रियदर्शनी’ सम्मान (त्रेता), म. प्र. साहित्य अकादेमी का भवानीप्रसाद मिश्र पुरस्कार (अनाद्यसूक्त), हिंदी अकादमी का ‘साहित्यिक कृति पुरस्कार’ (लेकिन यह गीत नहीं), उ.प्र. हिंदी संस्थान के ‘जयशंकर प्रसाद पुरस्कार’ (स्वयंप्रभा) और ‘निराला पुरस्कार’ (देह चांदनी) उल्लेखनीय हैं। कानपुर में प्र.ले.स. के सचिव रहे; अनेक भारतीय भाषाओं में रचनाएँ अनूदित। सरकारी, निजी दर्जन भर संस्थानों में विभिन्न पदों पर कार्य के बाद भारतीय प्रसारण सेवा, ’90 के अंतर्गत चयन। मई 2010 में अवकाश-ग्रहण के समय उपमहानिदेशक।

प्रमुख पुस्तकें
अभिनव पांडव, अनाद्यसूक्त, त्रेता एवं प्रज्ञावेणु (महाकाव्य); राधामाधव (उड़िया में भी अनूदित), स्वयंप्रभा एवं वक्रतुण्ड (प्रबंधकाव्य); ब्लैकहोल (काव्य नाटक); देवदारू-सी लम्बी गहरी सागर-सी, अस्ति, शब्दकमल खिला है, हंसो बतर्ज़ रघुवीर सहाय एवं इस्तरी (समकालीन कविता); समय के अश्व पर (गीत-नवगीत), मैंने यह सोचा न था (ग़ज़लें)-रा.प्र. शर्मा ‘महर्षि’ द्वारा किया गया उर्दू लिप्यांतरण उ.प्र. सरकार से पुरस्कृत, डुगडुगी और मेरी प्रिय कथाएं (कहानी-संग्रह); कहानी का सातवाँ दशक (संस्मरणात्मक समीक्षा) तथा सदी का महाराग (चयन डॉ. रेवतीरमण); आलोचक के भेस में एवं मुठभेड़ (आलोचना), सृजन की भूमि (भूमिकाएं), आलोचना का वाचिक (वाचिक आलोचना), स्मृतियों के मील-पत्थर (संस्मरण)।

स्थायी पता: ‘अनहद’, बी-463, केन्द्रीय विहार, सेक्टर-51, नोएडा-201303, दूरभाष: 0120-2481530, 09818854678

ई.मेल: udbhrant AT gmail.com

नवगीत चर्चा में प्रस्तुत हैं कवि श्याम निर्मम प्रस्तुति : वागर्थ

भावनात्मक रिश्तों का स्थायी सेतु: - सन्दर्भ डॉ श्याम निर्मम के दो अनुत्तरित पत्र

     पोस्ट प्रेषण के ठीक पहले तक मेरे अवचेतन में यह विचार स्थायीरूप से अपनी जड़ें जमाने की पूरी कोशिश चुका था कि मेरी भेंट किसी न किसी अवसर पर और कहीं न कहीं श्याम निर्मम जी से जो,अब इस दुनिया में नही हैं,अवश्य हुई है।
               माथे पर बहुत सारे बल एक साथ डालने के बावजूद भी,मैं भूली स्मृतियों के सिरों को जोड़ नहीं पा रहा था।तभी मेरी निगाह दादी अम्मा के जमाने के उस पिटारे पर पड़ी,जिसमें मैंने पिछले दो दशकों की धरोहर के सन्दर्भों को स-सम्मान सम्हाल रखा है।
                                 बच्चों की नजरों में पोटली भले ही कबाड़ का हिस्सा हो,पर मेरे लिए किसी खजाने से कम नहीं।जब भी उलझता हूँ तब यह पोटली गुमें हुए सन्दर्भों के सिरों को जोड़ने के काम में मेरी शिद्धत से मदद करती है।इसी बहाने साल में औसतन दो एक बार स्मृतियों के संसार से गुजरने ने का सुनहरा अवसर मुझे मिल ही जाता है।
               पोटली के करण्ड में मुझे इस बार दो पत्रों के रत्न मिले,जो मुझे खुद श्याम निर्मम जी ने उन दिनों साहिबाबाद E-28,लाजपत नगर(गाजि.)उ.प्र.डाक के पते से भेजे थे।
             इन दोनों पत्रों की सबसे महत्वपूर्ण और उल्लेखनीय बात यह थी कि ये पत्र एक नामचीन साहित्यकार द्वारा अपनी ओर से,जनरेशन गैप को भुलाकर,एक अनचीन्हें,नौसिखिए को,जो उन दिनों कविता का बमुश्किल ककहरा ही सीख रहा था,को बड़ी आत्मीयता से लिखे गए थे।
                             दीपावली पर्व सन 2007 में प्रेषित पहले पत्र में उन्होंने उन दिनों चर्चित प्रेसमेन के गत अंक में प्रकाशित गीतों को पढ़कर दिल से बधाइयाँ दी थीं।
और नवगीत को लेकर किसी बड़े ग्रन्थ के प्रकाशन की योजना (जिसमें लगभग 500 रचनाकारों को समाहित करने का उनका मन था,जो उनके जीते जी नहीं आ सका) के लिए मेरे 5 गीत पूर्ण परिचय के साथ मुझसे अविलम्ब भेजने का जिक्र जिस प्रेम और आत्मीयता से किया गया था उसे मैं आज तक नहीं भुला पाया।
 साथ ही डीएमसी पालिका समाचार पत्रिका के लिए प्रकाशनार्थ कुछ सामग्री प्रेषित करने का निवेदन भी शामिल था।
               इसी तारतम्य में कविवर श्याम निर्मम जी का एक दूसरा और अंतिम पत्र,साहित्यसागर पत्रिका के नटवर गीत सम्मान की बधाई संदेश के रूप में 19,अक्टूवर 2011.की डाक से प्राप्त हुआ था।
इस पत्र में उन्होंने भोपाल राष्ट्रभाषा प्रचार प्रसार समिति के जाने माने मंत्री संचालक,श्री कैलाश चन्द्र पंत जी के अमृत महोत्सव में अपनी उपस्थिति का जिक्र,और समयाभाव के कारण भेंट न कर सकने पर अपनी ओर से अफसोस जाहिर किया था। 
              आंतरिक संवेदन की दृष्टि से देखा जाय तो यह महज पत्र नहीं  बल्कि भावनात्मक सेतु था,जिसकी नींव में निर्मम जी ने संवेदना का ऐसा जल सींचा जो उनके न रहने के बाद भी नहीं सूखा।
      उनके दोनों पत्रों में एक बात कॉमन थी उन्होंने मेरे गीत संग्रह को (जो उस समय आया ही नहीं था)पढ़ने की जिज्ञाषा व्यक्त की थी, साथ ही आगे बढ़कर अपनी तरफ से रिश्तों को सुदृढ़ करने की सार्थक पहल का अविस्मरणीय और अनुकरणीय  उदाहरण पेश किया था।
           जबकि मेरा संग्रह 13,सितंबर 2011को लोकार्पित हुआ। इस दौरान उनसे दूरभाष पर यदा कदा लंबी वार्ताएं तो हुई  पर अफसोस कि मैं उन्हें उनकी इच्छानुसार अपना संग्रह नहीं दे पाया और न ही उनके पत्र का उत्तर!
                        पत्रों के जिक्र के चलते न चाहते हुए भी मुझे संस्मरण के इर्द गिर्द आना पड़ा,यदि नहीं आता तो मेरे अवचेतन का विचार पक्की जड़ें जमा लेता,एक बार पुनः इस करण्ड उर्फ पिटारे का शुक्रिया जिसके पुख्ता  प्रमाण के चलते आज मुझे पता चला कि उनके भावनात्मक स्नेह के कारण मुझे आज तक पता ही नहीं चला की मैं उनसे कभी भौतिक रूप से मिला ही नहीं।
       काश!यह भ्रम जिंदगी भर यूँ ही बना रहता वैसे एक बात और बताता चलूँ,किसी को जानने के लिए जरूरी नहीं कि आप उससे मिलकर ही उसे जानें कई बार कृतित्व से भी व्यक्तित्व भी पहचानना पड़ता है और इस पहचान का रंग इतना पक्का होता है कि जीवन भर उतारे नहीं उतरता!

मनोज जैन

 आइये पढ़ते हैं अत्यंन्त लोकप्रिय कवि श्याम निर्मम जी के तीन नवगीत जो मुझे बेहद प्रिय हैं।

     

एक
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रोग बहुत हैं 
लेकिन उनका कहीं निदान नहीं 

ये कैसी अनहोनी 
जीवन विष पीते बीता 
उमर बढ़ें हर रोज 
मगर ये अश्रु-पात्र रीता 
चलते हुए 
सभी लगते पर हैं गतिमान नहीं !

आशा की नैया को 
मन के सागर ने लूटा 
बीच धार का नाविक 
थका, किनारे का टूटा 
संकल्पों की 
फसल उगाकर बने महान नहीं 

चेहरा-मोहरा देख 
रोटियाँ मुँह तक हैं आतीं, 
छोटा-सा है दीप 
आंधियां तेज बढ़ी जातीं
अगड़े-पिछड़े
हुए बराबर दिखे समान नहीं !

रहे किरायेदार सदा से 
हम तन के घर में 
जख्मी पंछी उड़ता है 
परवाज लिये पर में 
पूरा देश 
हमारा घर पर एक मकान नहीं!

दो
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जिन्दगी ,इंजन बिना ही रेल
ठेल,जितना ठेल सकता, ठेल!

पटरियाँ
बचपन-जवानी हैं
पास रहकर भी न मिल पातीं,
दूसरे का दुख समझती हैं पर 
किसी से कह नहीं पातीं

है समस्या विष-बुझे शर सी ,
झेल,जितना झेल सकता झेल!

है,गरीबी -
टूटने का नाम 
सुख लगाये कहकहों के दाम,
जब बिखरना ही नियति उसकी 
फ़र्क़ क्या तब,हो सुबह या शाम 

पापड़ों-सा हाल ख़स्ता है,
बेल,जितना बेल सकता,बेल! 

है कभी- 
जाना, कभी आना 
चिंतकों-सा इसे दुहराना,
आदमी है जन्म का प्यासा 
मौत से कब रहा अनजाना 

उम्र के अंतिम पड़ाव पर ,
खेल, जितना खेल सकता, खेल!

तीन
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अक्सर ही 
ऐसा क्यों होता 
जीते सपने बहुत बुरे आते हैं 
डर कर नींद उचट जाती है !
जिधर देखता भाग रहे सब 
चारों तरफ आग फैली है 
सागर में तूफान उठा है 
हर सूरत ही मटमैली है

अक्सर ही 
ऐसा क्यों जाना 
निर्बल सँभल-सँभल जाते हैं 
क्षमता रपट -रपट जाती है !

हर चेहरा है शकुनी सरीखा 
चौपड़ पर गोटिया सजी हैं
रणभेरी के शंख गूँजते 
मौन मुरलिया नहीं बजे हैं 
अक्सर ही 
ऐसा क्यों देखा 
जीते हुए हार जाते हैं 
बाजी उलट पलट जाती है 
प्रतिभाएँ हारी-सी बैठीं
अपराधी माला पहने हैं 
कुछ को सुख की मिली विरासत 
हम को दुख अपार सहने हैं 
अक्सर ही 
ऐसा क्यों समझे 
हर जीवन की कुछ उम्मीदें 
बन कर साँस सिमट जाती है।

डॉ श्याम निर्मम
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गुरुवार, 18 फ़रवरी 2021

रविशंकर पांडेय जी का एक नवगीत

नीचे से ऊपर तक खोटा सिक्का खनक रहा:
डॉ रविशंकर पाण्डेय 
__________________

                                           उत्तर प्रदेश सिविल सेवा के सदस्य से सेवा निवृत्त डॉ रविशंकर पाण्डेय जी के नवगीतों में प्रतिरोध के प्रबल मुखर स्वरों को स्पस्ट सुना जा सकता नवगीतों में वह अपनी संवेदना को,समकालीन यथार्थ के, ताने-बाने से,आम आदमी के पक्ष में,बड़े सलीके से बुनते हैं।जन पक्षधरता,इनके नवगीतों की अन्यतम विशेषताओं में से एक है।
                                   पढ़ते है अपने समय के प्रखर प्रतिभा सम्पन्न और सामयिक सरोकारों के बेहतरीन नवगीत कवि डॉ रविशंकर पाण्डेय जी को।
प्रस्तुति
मनोज जैन
संविधान रक्खा
सालों से सौ-सौ तालों में,

हम मक्खी में उलझ गये
                  मकड़ी के जालों में 

तेरा मेरा नहीं 
दर्द यह 
कई पीढ़ियों का,

चौपड़ का वह खेल
आज है
साँप-सीढ़ियों का,

भटक रहे हम 
भूल-भुलैया 
                         गड़बड़झालों में 

छल के आगे 
चल न सकी कुछ,
तीर कमानों की

एकलव्य के 
कटे अँगूठे 
कटी जबानों की 

द्रौणाचार्य फँसे हैं 
             अब भी इन्हीं सवालों में

            शीशे का 
यह महल देखकर 
   माथा ठनक रहा 

नीचे से ऊपर तक 
                 खोटा 
सिक्का खनक रहा 

है महज रोशनी का धोखा 
                  यह नीम उजालों में

एक पोस्ट दो नवगीत

तकरीबन डेढ़ दशक पहले लिखे गए इन तीन गीतों को आप सभी आत्मीय मित्रो के साथ साझा कर रहा हूँ।
               मेरे कुछ बहुत ही आत्मीय मित्रो ने तो इन रचनाओं को,फाड़कर पास ही की किसी नदी में,प्रवाहित करने की बहुत मासूम सी, प्यारी और न्यारी- सी सलाह मुझे दी थी,पर मैं आदतन काम थोड़े से उल्टे की करता हूँ।मित्रों के सुझाव को ठंडे बस्ते में डालते हुए मैंने इन गीति रचनाओं को ना तो जल में प्रवाहित किया और ना ही समूल नष्ट।
 हाँ,इन कविताओं को फेस बुक के ब्लैक होल के मुहाने खड़े होकर हवा में जरूर उड़ा रहा हूँ।
हो सकता पाठकों को पसन्द आएं।
कल की पोस्ट पर समकालीन गीत-नवगीत के प्रख्यात समालोचक आदरणीय इंदीवर पांडेय जी,का ध्यान मेरे गीतों पर गया उन्हें विशेष आभार 
निःसन्देह ,निंदनीय के सभी टैंकों के मुहाने पर होते हुए भी मैं अपने गीतों को आगे और भी धारदार भाषा में प्रस्तुत करूँगा।
आप सभी पाठकों की उत्साह वर्धक टिप्पणियों के बलबूते, तब से लेकर अब तक यहाँ,डटकर खड़ा हूँ ।
आपका बहुत आभार
आभार ,ख्यात गीतकार आदरणीय Ramesh Yadav जी का, जिनकी वॉल से मैंने यह बहुत मनभावन तस्वीर चुरा ली है।जो आप गीतों को पढ़ते समय देख रहे हैं।
नमस्कार
शुभदिन
टिप्पणी
मनोज जैन मधुर

प्रस्तुत हैं छोटे-छोटे मीटर के तीन गीत 

डलिया भर सुख 
_____________

हमने कब माँगा है 
डलिया भर सुख 

चुटकी भर खुशबू जो 
बो लेते
थोड़ा-सा हँस लेते 
रो लेते
दर्पण को दिख लाते 
हम अपना मुख 

राहों में आँधी है 
कांटे हैं 
हिस्से में गालों पर 
चाँटे हैं 
फिर भी तो मोड़ा है 
तूँफां का रुख 

एक पंख पाखी का 
तोड़ा है 
उड़ने को दुनिया ने 
छोड़ा है 
हँस-हँस कर काटा है 
पर्वत -सा दुख

2
काँच के घट हम 
किसी दिन 
फूट जायेंगे 

देह-काठी, 
काटती 
दिन-रात आरी
काल के कर में
कि प्रत्यंचा 
हमारी 

प्राण के शर 
देह-धनु से 
छूट जाएंगे 

देह-नौका 
भव-जलधि 
से तारती है 

मोह,माया,
क्रोध को 
संहारती है 

उम्र के तट हम 
किसी दिन 
टूट जाएंगे 

पुण्य का भ्रम 
बेल मद 
की सींचता है 
पाप भव के 
जाल में 
मन खींचता है 

क्या पता है 
कब नटेश्वर 
लूट जाएंगे

3

नहीं जरूरत 
पड़ी बंधु रे 
हमें कहारों की 

मीत हमारे प्राण 
गीत के 
तन में रमते हैं 

पथ में मिलते 
गीत जहां 
पग अपने थमते हैं 

नहीं जरूरत 
समझी हमने 
श्रीफल हारों की 

हमें स्वयं के 
कीर्तिकरण की 
बिल्कुल चाह नहीं 

थोथे दम्भ 
छपास मंच की 
पकड़ी राह नहीं 

नहीं जरूरत 
पड़ी कभी रे 
कोरे नारों की

हमें हमारी 
निष्ठा ही 
परिभाषित करती है 

कवि को तो 
बस कविता ही 
प्रामाणिक 
करती है 

नहीं जरूरत 
हमें बंधु रे 
पर उपकारों की

मनोज जैन

गिरी मोहन गुरु के नवगीत भाग दो

वरिष्ठ साहित्यकार गिरिमोहन गुरू के रचना संसार की एक और संक्षिप्त झलक: नाव वाले हाथ में है जाल

प्रस्तुति और टिप्पणी
मनोज जैन

    इसमें कोई संदेह नहीं कि,कवि गिरिमोहन गुरू का लेखन उन तमाम बड़े नामचीन लोगों से अधिक श्रेष्ठ है जिन्हें हम महज विज्ञापनवाजी के चलते बिना पढ़े ही महान मानने का भरम पाल कर मन के अवचेतन में कपोलकल्पित अवधारणा बना लेते हैं।
           कल की पोस्ट पर मित्रों की प्राप्त प्रतिक्रियाओं के आधार पर आज उनके साहित्यिक विषय वैविध्य की एक मनोरम झाँकी यहाँ प्रस्तुत कर रहा हूँ।
एक श्रेष्ठ रचनाकार के रचनाकर्म पर चर्चा करना हर कविताप्रेमी का धर्म है।
         सुप्रीमकोर्ट पर प्रशांत भूषण के मामले को लेकर इन दिनों चर्चाएं जोरों पर हैं प्रख्यात पत्रकार और फ़िल्म निर्माता प्रतीश नंदी के एक कॉलम की हेडिंग पर नजर पड़ी उसे गीत नवगीत के सन्दर्भ से जोड़ने का लोभ संवरण नहीं कर पा रहा हूँ।वे कहते हैं कि
 "जब तक बहस,चर्चा,आलोचना नहीं होगी,तब तक इस मुश्किल दौर में कोई संस्थान नहीं बच पायेगा।"
        ऐसा नहीं है कि,यह बात सिर्फ संस्थानों पर ही लागू होती है रचनात्मक कार्यों पर हमारे और आपके मौन के सन्दर्भ में भी प्रतीश नंदी जी के निहितार्थों को समझना आवश्यक है।
     विचार करें,हम और आप दूसरे के लिखे साहित्य पर जितना हो सके,अपने स्तर पर ही सही पर चर्चा अवश्य करते रहें!
पढ़ते हैं,कविवर गिरिमोहन गुरूजी की बहुरंगी रचनाएँ
टिप्पणी
मनोज जैन
दर्द का आकाश
____________
आओ जिएँ
कुछ करें ऐसा कि 
गीले दृग हँसें
मुठ्ठियों में दर्द के 
नभ को कसें
अधर शिकवों के सिएँ।

उम्र की सौगन्ध 
सांसो में भरें
सूर्य को रजनीश का 
टीका करें 
सिन्धु अँजुरी से पिएँ।

पींजरा रंगीन
__________
तिमिर किरनों से मिलाकर हाथ 
मंच पर आसीन दिखता है।

स्वयं के अस्तित्व की रक्षा 
बिना वैशाखी नहीं संभव 
मूल्य बाजारू हुये सारे 
मूल्यांकन कर रहा अनुभव
शक-शकुनि की फिर कुटिल चालें 
मामला संगीन दिखता है।

चंद रुपयों की चकाचौंधी
मूंद देती है विवेकी आँख
धुली दिखती दूध से लेकिन 
पंक में डूबी हुई हर पाँख
आजकल हर एक पंछी को 
पींजरा रंगीन दिखता है।

रेत पर बन नाव
___________

हम रहे शीतल भले ही
आग के आगे रहे।

रेत पर बन नाव चलना ।
स्वयं को ही स्वयं छलना

वह मिला प्रतिपल कि जिससे ।
उम्र भरा भागे रहे।

कल्पना के सुमन चुनना।
शूल पाकर शीश धुनना।

दृग रहे स्वप्निल,भले ही 
रात भर जागे रहे।

कामना की बिजलियाँ
________________
अश्रु जल में तैरते हैं
स्वप्न के शैवाल।

सूर्य,सुख का दिख रहा 
बदला हुआ इतिहास।
वेदना के बादलों से,
त्रस्त हृदयाकाश।

कामना की बिजलियों के
लोचनों में ज्वाल।

लिये कुम्हलाए हुए
चेहरे,कमल,तालाब।
खोजते हैं तीर पर
विश्वास वाली नाव।

नाव वाले नाविकों के 
हाथ में है जाल।

बिलख रही महतारी
______________
खड़ी रँभाती गाय द्वार पर 
बछड़ा दिखा नहीं 

घर घर फैला रोग 
चिकित्सा रामभरोसे बारी ।
दूध नहीं मिलता बच्चों को ,
बिलख रही महतारी ।

भोजन भी भरपेट भाग्य में 
इनके लिखा नहीं।

हाड़ तोड़ मेहनत के बदले ,
रूखी सूखी पाते ।
फटे चींथड़े कपड़े लत्ते,
पहने दिवस बिताते।

बासा या उचिछष्ट  द्वार पर,
इनके फिंका नहीं।

गिरी मोहन गुरु के नवगीत

मन्त्रोच्चार आदि भारत को भार लगे होने:गिरी मोहन गुरू
के नवगीत का एक अंश                         
               विगत अनुभवों को,नये संयोजन के आकल्पन के मामले में,यदि अपना श्रेष्ठ देने के की बात हो,और यदि मुझे अब तक पढ़े नवगीतों में से किसी एक नवगीतकार के नाम को चुनने के लिए कहा जाय,तो मैं निर्विवाद रूप से एक नाम अवश्य चुनूँगा।
    और यह नाम है नर्मदापुरम होशंगाबाद मध्यप्रदेश के संत गिरिमोहन गुरू जी का जिन्हें हममें से अनेक मित्रों ने विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में नियमित पढ़ा है।
                     यह बात और है कि अब तक नवगीत पर हुए शोधपरक रचनात्मक कार्यों की पूरी श्रृंखला पर गौर करें तो किसी भी महत्वपूर्ण संकलन में कवि गिरिमोहन गुरू जी की रचनाएं मेरे देखने में नहीं आईं।बाबजूद इसके गिरिमोहन जी के काव्य पर अनेक विश्वविद्यालयों में शोधपरक कार्य जारी है।
                 कविवर गिरिमोहन गुरू जी की रचनाओं से गुजरते हुये पाठक को उनकी उच्चस्तरीय मानसिक रचना प्रक्रिया से गुजरना पड़ता है।
            उनके गीतों में अभिव्यक्ति की सहजता अनुभूति की तरलता बिंबो और प्रतीकों की बहुलता के साथ ही उनके टटकेपन और अनूठेपन का बोध होता है।
  प्रस्तुत हैं उनके तीन चित्रात्मक गीत 

प्रस्तुति
मनोज जैन
चाँदी के चेहरे
---------------- 

मंगल कलश दिया माटी के 
ढूँढ़ रहे कोंने।

हरे हरे पत्तों वाले मण्डप की छांव नहीं ।
यह सम्पन्न शहर है निर्धनता का गाँव नहीं।
प्लेटें चमक रही हैं,
निष्कासित पत्तल दोने।

गोबर के गणेश हल्दी,रोचन वाली थाली।
कोकिल बैनी वामाओं के गीत और गाली।
मंत्रोच्चार आदि भारत को,
भार लगे होने।

चांदी के ही चेहरों का स्वागत होता झुक झुक।
खड़ा-भोज ही बड़ा भोज कहलाने को उत्सुक।
फिर से हम पश्चिमी स्वप्न में,
स्यात् लगे खोने।

कामना की गाय
--------------------
सांझ के सूने कुएं  सा-मन 
काटने को दौड़ता है।

सूर्य घसियारा कटी अँगुली लिए,
काटता है फिर दिवस का घास।
भय अँधेरा-सा सिमिट कर शून्य में,
आ रहा है आहटों के पास।
चाह शिशु जैसे जननि स्तन,
दूध पीने को पकड़ता छोड़ता है।

लौटकर फिर आ रही निज थान पर ,
स्वयं बँधने कामना की गाय।
ह्रदय बछड़े-सा खड़ा है द्वार पर,
एक टक सा देखता निरूपाय।

हौसला भी एक निर्मम ग्वाल बन
दूध दुहने  बांधता है,छोड़ता है।

शीत का ऐलान
---------------------

हिम नदी में कूद कर मौसम,
इन दिनों स्नान करता है।

हर किरण पर धुंध का है आवरण।
आग ने भी शान्ति-सी कर ली वरण।

सूर्य खुद मफलर गले में बाँध,
शीत का एलान करता है।

शाम होते ही जगे सोये सपन।
ढूंढ़ते हैं शयन शैया में तपन।

एक कोने में दुबक दीपक निबल
शीत का गुणगान करता है।

गिरिमोहन गुरू
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प्रस्तुति

मनोज जैन

योगेंद्रदत्त शर्मा भाग दो

भाग एक
लिंक

【https://m.facebook.com/story.php?story_fbid=388064229259594&id=100041680609166】
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भाग दो【क्रमशः】
______________
डॉ योगेन्द्रदत्त शर्मा जी की तीन दशक पहले की नवगीत यात्रा का सिंहावलोकन
टिप्प्णी
मनोज जैन
________
                                          वाङ्गमय में एक शब्द आता है सिंहावलोकन इसकी व्युत्पत्ति पर चर्चा फिर सही,फिलहाल इसका उपयोग वरेण्य नवगीतकार डॉ योगेन्द्रदत्त शर्मा जी की शब्द यात्रा के सम्बंध में मुझे लाजिमी लगा।शाब्दिक अर्थ पर जाएं तो एक बात जो स्पष्ट निकल कर सामने आती है वह यह कि विरले ही  सिंहावलोकन की प्रक्रिया से गुजरते हैं।सिंहावलोकन की इस प्रक्रिया से जो भी गुजरेगा,वह अन्यों की तुलना में निःसन्देह सफलता के नजदीक जरूर होगा।
                                       यह महज संयोग ही है कि, डॉ योगेन्द्रदत्त शर्मा जी के सन 1986 में यानी आज से पूरे 34 साल पहले प्रकाशित पहले नवगीत संग्रह "खुशबुओं के दंश" के आत्मकथ्य में स्वयं उन्होंने अपने और अपने समय को लेकर सिंहावलोकन शब्द का उपयोग बड़े सार्थक अर्थ में किया है!
                                            Dr Yogendra Datt Sharma जी डॉ योगेन्द्रदत्त शर्मा जी को मैं शम्भूनाथ सिंह जी द्वारा सम्पादित नवगीत दशक में सम्मिलित
 तथाकथित प्रामाणिक दस्तावेजी नवगीतकारों 
__________________________________
से,अलग मानता हूँ।अलग मानने का श्रेय उनकी सुदीर्घ साधना को जाता है,जिसके चलते डॉ योगेन्द्रदत्त शर्मा जी नवगीत के सृजनात्मकत अध्याय में,तब से लेकर अब तक निरन्तर नया जोड़ते चले आ रहे हैं।यही कारण है कि मैं और मेरे जैसे अनेक,उन्हें उनके हिस्से का आदर और सम्मान देते आ रहे हैं।
                      नवगीत दशक के रणांगन में तो रणछोड़ दास भी हैं जिन्होंने पाला बदलकर गजल का हाथ थाम लिया।अगर हम सिंहावलोकन करते तो उनसे नवगीत के मण्डप में ली जाने वाली उस गठबंधन की शपथ के वारे जरूर पूछते!जो उन्होंने नवगीत को व्याहते समय  स्वेच्छा ली थी!
                    और भी किस्से हैं,कहने सुनने को ऐसे ही दशक के अनेक पराजित योद्धा अपना-अपना ध्वज थामें,आज भी हारे हुए अश्वस्थामा की तरह मंचरूपी विक्रमों के कांधों पर बैठे मिल जायेंगे।
           आप सवाल उठा सकते हैं कि कोरोना काल में आयोजकों के पास तो मंचों का खासा टोटा हैं,फिर कैसा पाठ!
                         कौन कह रहा है कि पाठ नहीं हो रहा।अरे भाई वाचिक परम्परा तो अक्षय परम्परा है!भला यह कभी खत्म थोड़ी न होगी!खैर,गहन शोध के उपरान्त इस प्रश्न का उत्तर पहले से ही मेरे दिमाग में था।
             इन दिनों इन बेतालों की सर्वाधिक उपस्थिति कोविड 19 के चलते,असमय उग आये लोकेषणा के विक्रमी पेजों पर बनी हुई है।
                       जहाँ,सिर्फ ये लोग छंद कविता का बेड़ा गर्क करने पर तुले हुए हैं इसमें कोई शक नहीं इन तथाकथित दस्तावेजी नवगीतकारों ने सिर्फ़ नवगीत के नाम और बैनर को भुनाया भर है 'नवगीत के अवदान  के नाम पर किया कुछ भी नहीं!
                               अगर कुछ किया होता तो आज नवगीत के अस्त्तित्व पर संकट के बादल नहीं मंडरा रहे होते आज के समय पर दृष्टिपात करें तो गीत के अस्तित्व पर तो नहीं पर 
नवगीत के अस्तित्व पर खतरा जरूर मंडरा रहा है
_____________________________________
                     युवा नवगीतकारों को मेरे कथन को सकारात्मक अर्थ में लेने की जरूरत है और स्वयं के लेखन के सिंहावलोकन की!आइये सिंहावलोकन में आज पढ़ते हैं वरेण्य नवगीतकार डॉ योगेन्द्रदत्त शर्मा जी के 34 वर्ष पहले लिखे गए तीन नवगीत जिन्हें उनकी पुस्तक "खुशबुओं के दंश" से लिया गया है।
                                           पुस्तक की बेहद रोचक भूमिका नवगीत के शिखर पुरुष डॉ देवेंद्र शर्मा इन्द्र जी ने लिखी है।साथ ही स्वयं योगेन्द्रदत्त शर्मा जी का पुरोवाक 
"कुछ अपनी,कुछ अपने युग की" आज भी उतना ही प्रासंगिक है जितना चौतीस साल पहले था।सिंहावलोकन शब्द मैंने यहीं से उठाया है ।जिसने पूरी टिप्पणी लिखने के लिए मुझे प्रेरित किया
टिप्पणी
मनोज जैन
_______________________

टूटकर गिरने लगे कंधे
अरे यह बोझ!

बंट रही कहवाघरों में क्रांति 
रेस्तरा में 
मिट रही है भ्रांति
धुंध पीती हुई गलियों में 
कर रहे हैं आंख के अंधे 
सुखों की खोज !

साहबों की 
चमचमाती कार 
कर रही है 
धूप का व्यापार 
और ये नीले पड़े चेहरे 
मिल नहीं पाते इन्हें धंधे
चुका है ओज !

धौंकनी से 
गर्म निकली सांस 
चुभ रही
सूखे गले में फांस
पेड़ से लटके हुए झूले
गर्दनों पर कस रहे फंदे
नये हर रोज!
●●
तीर हाथों में लिये पैना
शिकारी आ गये!
नींड़ में सहमी मेरी हुई मैना
शिकारी आ गये!

आंख में 
भीगा हुआ क्रंदन
दृष्टियों में 
मूक संबोधन 
दर्द से चटका हुआ डेना
शिकारी आ गये!

गोद में 
सिमटे हुए चूजे 
जंगलों के 
शोर अनगूंजे 
स्याह गहरी हो गई रैना
शिकारी आ गये! 

हूक -सी 
उठने लगी दिल में 
आ गई है 
जान मुश्किल में 
कंठ में ही फंस गए बैना
शिकारी आ गये!

पहेली बूझने में
______
जूझने में!
कट गया 
कट गया दिन फिर पहेली बूझने में 
एक मछुआ 
डालता है जाल जल में 
किन्तु फंस पाती न मछली
सिर्फ कछुआ
युक्ति भी आती न कोई
सूझने में!
एक कुचला दर्प
बैठा है समय की कुंडली पर 
फन उठाये 
बन विषैला सर्प
सारी उम्र गुजरी, नागदह को 
पूजने में !
एक उन्मन मौन  घहराया हुआ
परिवेश से थक-ऊब 
तोड़े कौन
अब तो व्यसत हैं स्वर,
खंडहरों में गूँजने में!

योगेंददत्त शर्मा भाग एक प्रस्तुति : वागर्थ

भाग- 1.क्रमशः
_____
जाल में हमेशा सत्यव्रती फंसते:-डॉ योगेन्द्रदत्त शर्मा जी के एक नवगीत के बहाने 
के नवगीतों पर चर्चा की पूर्व पीठिका
_______________________________
प्रस्तुति और टीप
मनोज जैन
106 विट्ठल नगर
भोपाल
462030
मोबाइल
9301337806
____________
आत्मीय मित्रो 
आज आपके समक्ष सोशल मीडिया,खासतौर से फेसबुक पर अति सक्रिय नवगीतकार (साहित्यिक अभिरुचि के जिन मित्रों ने इनके संग्रहों को पढ़ा है,वह तो सब के सब समवेत स्वरों में इन्हें नवगीतकार ही कहेंगे,और जिन्होंने नहीं पढ़ा है या अपनी गीत विषयक 'ठाकुर की मूछ तो ऊँची ही रहेगी' की टेक के चलते जिनके नाक,कान, मुँह और सिर गीत के आगे जुड़े 'नव' शब्द देखकर ही भन्ना जाते हैं,उन दो एक सम्पादकों के साथ-साथ हाल ही में कुकुरमुत्तों के छत्तों की तरह उग आए पेजो के एडिटर्स में से एक,शेष को छोड़ दें तो)के नवगीतों पर अपनी श्रृंखलाबद्ध चर्चा केंद्रित करने से पहले इनके विचारों के आलोक में उनका एक नवगीत आपको पढ़वाना चाहता हूँ।
        किसी भी रचनाकार को समझने के लिए बहुत जरूरी है उस रचनाकार की रचना-प्रक्रिया को अनेक कोणों से समझा जाय,इस प्रक्रिया से गुजरे बगैर आप रचना के मर्म तक शायद ही पहुँचें, और पहुँच भी गए तो जो आपका स्पर्श होगा वह सतह का ही होगा तल का तो बिल्कुल भी नहीं !
     आइये पढ़ते हैं गाज़ियाबाद के वरेण्य कवि डॉ योगेन्द्र दत्त शर्मा जी का एक नवगीत उन्हीं के नवगीत विषयक कथ्य के साथ बकौल योगेन्द्र दत्त शर्मा जी:-
                "नवगीत पर आजकल अजीब संकट मंडराया हुआ है। एक विचित्र अराजकता इस समय दिखाई दे रही है। फेसबुक पर त्वरित टिप्पणियों के इस दौर में सोचने-समझने और चिन्तन करने का अवसर ही नहीं मिल रहा है।
                                       पारंपरिक गीत लिखने वाले आत्ममुग्ध गीतकार नवगीत के अस्तित्व को ही नकार रहे हैं। मजेदार बात यह है कि वे ही अपने घिसे-पिटे कथ्य और शिल्प पर आधारित गीतों को नवगीत मानने-मनवाने का आग्रह भी पालते दिखाई दे जाते हैं।
             इधर नवगीत रचने में प्रवृत्त कुछ नये-पुराने रचनाकार अतिरिक्त उत्साह से स्फूर्त होकर कुछ भी रचने, अपने रचे हुए पर ठप्पा लगाने-लगवाने के लिए उत्सुक रहते हैं। इस क्रम में वे 'तोड़ने ही होंगे पुराने मठ' की झोंक में नये हठ के साथ नये मठ गढ़ने का उपक्रम करने की कोशिश में लगे हुए प्रतीत होते हैं।
       ऐसा लगता है जैसे इस समय समझ, सृजन और समीक्षा.... सब अधकचरेपन का शिकार हैं। ऐसी स्थिति में विमर्श भी अधकचरेपन से बच नहीं सकता। इस सबसे नवगीत का भला नहीं होने वाला।
             नवगीत को पहले 'गीत'  होने की शर्त तो पूरी करनी होगी।कवित्वहीनता, मात्रा-पतन, छंद-स्खलन, कथ्य को सीधे सड़क से उठाकर सपाट ढंग से प्रस्तुत करना गीत-रचना नहीं कही जा सकती। 
        नवगीत के सामने छंदहीन कविता की ही चुनौती नहीं है, छंदोबद्ध गद्य भी उसकी परेशानी बढ़ा रहा है।डा. शंभूनाथ सिंह, वीरेन्द्र मिश्र, ठाकुर प्रसाद सिंह उमाकांत मालवीय, देवेन्द्र शर्मा 'इंद्र', ओम प्रभाकर , माहेश्वर तिवारी, उमाशंकर तिवारी, गुलाब सिंह जैसे वरिष्ठ नवगीतकारों के मार्गदर्शन के अभाव में नवगीत अपनी दशा-दिशा से भटकता जा रहा है। 
       बहुत-से रचनाकारों को तो सीखने-समझने या मार्गदर्शन में ही कोई रुचि नहीं दिखाई देती। बिना किसी रहनुमाई के, 'नवगीतनुमाई' तो हो सकती है, नवगीतधर्मिता नहीं।यों वितंडावाद के लिए तो कुछ भी दरकार नहीं है।"

टिप्पणी
मनोज जैन

अंतस् में दुरभिसंधि
छद्म, कपट बसते
किन्तु अधर पर अंकित
सत्यमेव जयते !

भीतर छल-छंद-द्वेष
बाहर मुस्कानें
इस कुचक्र को आखिर
कैसे पहचानें
     लोग वार कर जाते
     बस हंसते-हंसते !

इस मायानगरी में
कुछ न पारदर्शी
चेहरे मासूम लिये
स्वर मर्मस्पर्शी
     देखकर हवा का रुख
     पैंतरा बदलते !

दूध-धुली, गंध-पगी
सौम्यता, सरलता
शब्दों का सम्मोहन
भाव की तरलता
     लगता है डर, इनके 
     पास से गुजरते !

नेह, प्यार, आलिंगन
आतुर गलबहियां
आसपास मंडरातीं
आकृतियां, छवियां
     रहना है सकुशल, तो
     दूर से नमस्ते !

करते ही रहते जो
हर पल सच का वध
उनके ही हाथों में
हर दुख की औषध
     जाल में हमेशा ही
     सत्यव्रती फंसते !

यह कैसा युग, जिसमें
लोग जी रहे हैं
हर समय हताशा की
घूंट पी रहे हैं
     किसके जाते करीब
     किस-किससे बचते !  

                                    © योगेन्द्रदत्त शर्मा

दो प्रेम गीत प्रस्तुति: वागर्थ


रूठी तो भाव अबोला-सा आ धीरे से पुचकार गया
पैच-अप और ब्रेक-अप पर दो प्रेम गीत: 
________________________________________
मनोज जैन

ठीक से तो याद नहीं है पर हाँ बहुत पहले किसी पत्रिका में प्रेम प्रसंग पर आधारित एक कहानी पढ़ी थी।कहानी किसकी और किस पत्रिका में थी यह भी नहीं पता। पर पैच-अप और ब्रेक-अप की अवचेतन में धुँधली छवियाँ जरूर रहीं उन्हीं छवियों को भावों की स्याही से कल्पना की तूलिका का सहारा लेकर शब्दों के रंग से गीतों के अंतरों को सुसज्जित किया है।
बहुत से मित्र विचारधारा के चलते प्रेम को लेखन का या गीत रचने का विषय नहीं स्वीकारते उन्हें ज्वलंत मुद्दे जैसे भूख बेरोजगारी या अन्य सामाजिक सरोकारों पर लिखना ही भाता है।
सवाल उठता है कि क्या यह तमाम मित्र प्रेम नहीं करते यदि करते हैं तो छिपाना कैसा?
       ऐसा नहीं है कि यह लोग प्रेम नहीं करते! और ऐसा भी नही कि इन्होंने अखण्ड वृह्मचर्य के पालन का व्रत लिया है? प्रेम का प्राकट्य तो अनन्त रूपों में होता है!लोग प्रेम तो करते हैं लेकिन प्रेम को लेकर इनके मापदण्ड जरूर दोहरे हैं!
      खैर,जो भी हो प्रेम जीवन का अभिन्न हिस्सा है फिर चाहे संयोग हो या वियोग दोनों ही स्थितियाँ गीत रचने के लिए बेहतरीन भाव भूमि सृजित करती हैं और एक संवेदनशील मन इन मनः स्थितियों से अप्रभावित नहीं रह सकता!
पढ़ते हैं दो गीत

टिप्पणी
मनोज जैन
●●
एक
____
तू,जीत गई,मैं,हार गया,
कैसा सम्मोहन बातों में
आकर्षण बाँधे,बंधन में
तू बिखरी दसों दिशाओं में
रहती भी,मन के स्पंदन में
चितवन के एक छलावे में
मेरा अपना संसार गया।
तू,जीत गई मैं,हार गया 

तू,कुहुक रही है कोयल-सी
मेरे मन की अमराई में 
तू,अन्तर्लय है छंदों की,
तू,ही दिल की गहराई में 
मैं,मुक्त हँसी पर रीझ गया 
अंतर्मन अपना वार गया 
तू,जीत गई,मैं,हार गया

तुझसे ही यह दिन सोने-से
तुझसे ही चांदी-सी रातें 
तेरे होने से जीवन में 
मिलती रहती हैं,सौगातें
रूठी तो भाव अबोला-सा
धीरे से आ पुचकार गया 
तू जीत गई,मैं हार गया
●●
दो
__
क्या सोचा था,क्या
तुम निकले
ममता की मूरत क्यों देखी
हमने इस भोली सूरत में
सपनो की दुनिया क्यों रोपी
हमने इस निष्ठुर मूरत में
जब असली चेहरा देखा तो
श्रद्धा की क्यों न
ज़मीन हिले
क्या सोचा था,क्या
तुम निकले!

बिन बंधन के क्यों बाँध बने
क्यों टूट गई लक्ष्मण रेखा।
पगले!मन को क्या समझाना,
देखा,उसको कर अनदेखा।
तुम सुखी रहो अपने जग में
तुमसे हमको
शिकवे न गिले!
क्या सोचा था,क्या
तुम निकले!

हमको आमंत्रण मत देना,
हम पार क्षितिज के जाएँगे
हम तो पर्यायी पीड़ा के
पीड़ा को गले लगाएंगे
हम शामिल हैं उन यादों में
जिनके सन्दर्भ 
मिले,न मिले!
क्या सोचा था,क्या 
तुम निकले!
●●

सुधाकर शर्मा जी का एक गीत और टिप्पणी


पण्डित सुधाकर शर्मा जी के एक गीत के बहाने गीत में प्रयुक्त भाषा पर चर्चार्थ एक संक्षिप्त टीप
____________________________
टिप्पणी
मनोज जैन
यह गीत उन गीतों से सौ गुना अच्छा है जिनमें सिर्फ लच्छेदार शब्दों या चिकनी भाषा के अलावा कुछ भी नहीं 
होता भाषा के घुमावदार वर्तुलों में घूमते घूमते पाठक कहीं भी नहीं पहुँचता।
प्रस्तुत गीत में प्रभावी कथ्य के साथ भाषा के तीखे तेवर भी हैं,प्रतिरोध है,आक्रोश है,अन्याय के खिलाफ दो -दो हाथ करने का साहस भी।
 गीत की भाषा,सृजित गीत की भाव भूमि पर निर्भर करती है,कि वह फूल की तरह प्रयोग में लाई जाय या फिर शूल की तरह!
सार संक्षेप में कहें तो,हमें कवि से सिर्फ टाइप्ड पैटर्न के रचना कर्म की ही उम्मीद नहीं करनी चाहिये।अपितु विषय वैविध्य की भाव भूमि में प्रवेश कर,कवि के रचनाकर्म के मर्म को पकड़ने की कोशिश करना चाहिए।
प्रस्तुत है मीठे सुधाकर शर्मा जी के कड़वे बोल!
प्रस्तुति
मनोज जैन
_________
ऐसी तेंसी का गीत
-----------------
 मान मिट्टी का रखो साहिब !
 गुंडई शोभा नहीं देती !

नाक के नीचे तुम्हारे
क्या नहीं होता ?
उस पै तुम खुद को 
बताते दूध का धोया!
भोंथड़ी संवेदनाऍ
हो गयीं सारी!
तुमको मालुम भूख से
कब कौन क्यों रोया?

माफियाओं को लगाते तेल
भाव सोने के बिकी रेती !!
मान मिट्टी का रखो साहिब!
गुंडई शोभा नहीं देती !!

कौन नोंचेगा तुम्हारे पंख?
क्या उखाड़ेगा तुम्हारा कौन ?
गर्व में डूबे रहो मत यूॅ !
काल सिर पर ही खड़ा है मौन !
ये व्यवस्था ही हमारी है,
बाप की समझो न तुम खेती !!
मान मिट्टी का रखो साहिब!
गुंडई शोभा नहीं देती !!
             Sudhakar Sharma

रघुवीर शर्मा जी की कृति पर चर्चा प्रस्तुति : वागर्थ

हुकुम करें सरकार के बहाने रघुवीर शर्मा जी के गीतों पर एक चर्चा और वरेण्य रचनाकारों से कुछ प्रश्न

मनोज जैन

इस समय मेरे हाथ में 
धारूखेड़ी तह. हरसूद जिला खण्डवा के वरिष्ठ रचनाकार आदरणीय रघुवीर शर्मा जी की पुस्तक "चारों ओर कुहासा है" की एक प्रति है और जिस पर मैं अलग ढंग से बात करने का मन बना रहा हूँ।
 पुस्तक में चार बड़े रचनाकारों ने शर्मा जी की रचनाओं पर अपने-अपने ढंग और दृष्टिकोण से अपनी बात की है।चार में से दो से इसलिए सहमत हुआ जा सकता है कि इन दोनों का दूर-दूर तक गीत-नवगीत से कोई लेना देना नहीं है।
अब चलते है दो उन रचनाकारों के पास जिनके यहाँ गीत नवगीत की व्यापक समझ और सूझबूझ है पर उनके अर्थातों में सत्य वैसा प्रकट होता दिखाई नही देता जैसा प्रकट होना चाहिये था।
द्रष्टव्य है एक वरेण्य कवि गीतकार के आलेख का अंश जो कवि ने शर्मा जी की रचनाओं पर बात करते हुए लिखा हैं।वे कहते हैं कि 
                   "सब कुछ इन छोटे-छोटे गीतों में सहेज कर रख दिया है रघुवीर शर्मा जी ने।वे नहीं जानते हैं कि उनके ये गीत किस श्रेणी में रखे जाएँगे गीत, नवगीत,जनगीत या और कुछ।सत्य है कि हर गीत पहले गीत है फिर और कुछ।देवेंद्र शर्मा इन्द्र के अनुसार हर नवगीत पहले गीत होता है पर हर गीत,नवनीत नहीं होता।गीत में गेयता,लय और रस उसके अनिवार्यता है।
                                                 लय,रस हीन कोई गीत-गीत नहीं होता।विडंबना यह है कि नवगीत के नाम पर अखबारी कतरन,सपाट बयानी छन्द,लयभग्न गीतों के माथे पर नवगीत का टीका चन्दन लगाकर नवगीत के थोक बाजार ने गीत का स्तर गिराया ही है।आज के कई खेमे और अखाड़े यही कर रहे हैं एक दूसरे की प्रशंसा और वाह-वाह नवगीत संग्रह के नाम से रोज नए संग्रह आ रहे हैं।बेहतर हो वे पहले गीत को समझने का प्रयास करें।सहज आए बिम्ब प्रतीकों से रचे बसे इन सहज गीतों को यदि नवगीत कहा जाए तो अतिशयोक्ति पूर्ण नहीं होगा"
                 यह महज संयोग ही है कि गीत की पुस्तक पढ़ते वक़्त मेरे लिए कथा सम्राट मुंशी प्रेमचंद याद आये जिन्होंने अपने मन की बात को कहानी पंच परमेश्वर के एक पात्र खाला से कहलवाने में अभूतपूर्व सफलता हासिल की थी।दरअसल ऐसी ही असंगतियों को देखकर जब कथाकार का मन टूटा होगा तभी उन्होंने क्लास की बजाय मास को सन्देश देने के लिये पंच परमेश्वर का आकल्पन रचा होगा और खाला के मुँह से निकले यह शब्द किसी और के नहीं बल्कि खुद प्रेमचंद के ही रहे होंगे।
     "क्या बिगाड़ के डर से न्याय की बात न कहोगे"
                    कहने का आशय यह है कि बिगाड़ के डर से न्याय की बात तो लोग आज भी नहीं करते।
            निःसन्देह कविवर रघुवीर शर्मा जी का कथ्य धारदार है पर उनके यहाँ लय और छन्द की वह पकड़ जो छोटे मीटर में इशाक अश्क जी के यहां थी मुझे कम ही दिखाई देती है।
                                  छोटे मीटर के दो या तीन अंतरों वाली रचनाओं पर अभी बहुत काम होना था पर यह भी सम्भव है कि यह बात बिगाग के डर से हमारे आत्मीय शर्मा जी से उनके किसी मित्र ने नहीं कही। जबकि शर्मा जी बहुत सरल और सुलझे हुए व्यक्तित्व के धनी हैं।
           संग्रह की रचनाओं पर वरेण्य कवि का उक्त सन्दर्भित स्टेमेन्ट जिसका पूरा पैरा यहाँ अवलोकनार्थ दिया गया है कम  मेल खाता है।
                                     गत दिनों फेसबुक पर मेरी नजर एक पोस्ट पर पड़ी एक बड़े कवि ने अपना एक गीत अपनी वॉल पर चस्पा किया था गीत की तकनीकी के हिसाब से गीत के तुकान्त एक दम फिट नही थे कहीं कहीं क्रिया पद भी गड़बड़ था बाबजूद इसके उनके तमाम मित्रों ने जो उनकी विचारधारा से जुड़े थे इन गलतियों को बताने की जरूरत नहीं समझी जबकि टिप्पणियों वाले अनेक कवि अपने स्तर पर एक दम निर्दोष रचते हैं।
                                  यदि कोई संकोचवश बताने का दुस्साहस करे तो कथ्य का रक्षा कवच ओढ़ने में देरी नही करते मेरे कहने का आशय व्यवहारिक जीवन में डबल स्टेंडर्ड क्यों?
  हाल ही में नवगीतकार Yogendra Datt Sharmaजी की इन पंक्तियों से गुजरना हुआ सोचा रघुवीर शर्मा जी पर अपनी बात समाप्त करते हुए आपको पढ़वाता चलूँ!

मान जायें बुरालोग
तो मान लें
शत्रु अपना तुझ वे 
भला मान लें
ध्यान उन पर न दे
मूल मुद्दा पकड़
     आशा है Raghuvir Sharmaजी मेरी बातों पर गौर करेंगे।
आइये पढ़ते हैं संग्रह 
चारों ओर कुहासा है से कुछ चयनित गीत
टीप और प्रस्तुति
मनोज जैन

हुकुम करें सरकार
-----------------------
हुकुम करें सरकार
और हमें अब 
क्या क्या करना है !

सपने गिरवी रख आए हैं 
राजघरानों में ।
अपने साथ नहीं है कोई 
इन वीरानों में 

एक घोंसला बचा 
इसे क्या 
तिनका तिनका करना है ।

फिकर नहीं करना मालिक 
हम तो बंजारे हैं।
दुखड़े सहते,जाते कितने 
बरस गुजारे हैं ।
माफ करें सरकार 
दर्द यह किसने छीना है ।

नये-नये सामन्तआपकी
 नई-नई मुद्राएं 
नये-नये सिंहासन हैं
नई राज सभाएँ में 
मौज करें सरकार
हमें ऐसे ही जीना है।
आओ 
कुछ पल बैठें 
अपने मन की बात करें ।

क्या क्या किसके 
साथ घटा है 
बेमन कैसे 
समय कटा है 

ठकुर सुहाती छोड़ें 
अपने मन की 
बात करें ।

जुड़ते जुड़ते कब 
घर बिखरा 
कब टूटा 
संयम का पहरा ।

गूंगी भाषा को 
जोड़ें बचपन की 
बात करें।
नई सुबह
--------------
नई सुबह की
नई किरण
तुम ऐसेआना

सत्य आज है कैद
द्वार पर ताले जड़े हुए हैं।
बौने कद के लोग 
यहाँ शिखरों पर चढ़े हुए हैं।

मौन तोड़कर 
अधरों पर 
मुस्कानें लाना। 

ऐसा उजियारा फैले,
हर कोना आलोकित हो।
सभी दिशाओं में,
दिनकर के हस्ताक्षर अंकित हो।

नये वर्ष में 
नई सदी का 
गूँजे नया तराना।

राजेन्द्र शर्मा अक्षर भाग दो टिप्पणी प्रस्तुति : वागर्थ


भाग 2
समापन किश्त
--------------------
एक बार में पूरा-पूरा जुड़ न सकेगा मन:राजेन्द्र शर्मा अक्षर के नए नौ नवगीत 
________________________________________
             राजेन्द्र शर्मा अक्षर मध्य प्रदेश की राजधानी भोपाल से आते हैं और उनकी गिनती अब तक स्थानीय स्तर पर एक अच्छे इंसान और साहित्यकार के रूप में होती है।इस बात के संकेत पिछली कड़ी में भी थे।
                     उनके एक गीत से उन्हें देश भर के साहित्यकारों ने हाँड़ी के एक चावल की तरह पहचान लिया और उनकी एक पोस्ट,जिसे हाल ही में मैंने अपनी वॉल से सोशल मीडिया पर वायरल किया था।जिसे पाठकों ने भरपूर सराहा और राजेंद्र शर्मा अक्षर जी के वारे में जानने की जिज्ञाषा व्यक्त की।
                                          किसी भी रचनाकार को जानने से मेरा आशय और निवेदन सिर्फ इतना भर रहता है कि रचनाकार को उसके रचनाकर्म से जाना जाय।कवि की रचना प्रक्रिया रचनाकार के मनन और चिंतन के सारे भेदों को खोल देती है।यही कारण है की आज अपनी तरफ से बहुत ज्यादा न लिखकर सिर्फ राजेन्द्र शर्मा अक्षर जी के नए नौ नवगीत यहाँ प्रस्तुत कर रहा हूँ।और इस बात का फैसला आप जैसे सुधी पाठकों पर छोड़ता हूँ कि अक्षर जी गिनती स्थानीय स्तर के चर्चित कवियों में की जाय या फिर नवगीत की प्रमुख धारा के प्रथम पाँक्तेय रचनाकारों में?
               और इस फैसले पर अपना मत या पक्ष रखने के लिए उनके नौ नवगीतों से कम से कम एक बार तो गुजरना ही होगा !!प्रस्तुत नवगीतों में उनके चिंतन की बानगी को खुलकर देखा जा सकता है।सबसे बड़ी बात वय के पचहत्तरवें सोपान पर आते आते जहाँ लोग पारम्परिक गीत और नवगीत में ही भेद करतर करते करते थक हार कर बैठ जाते हैं,वहीं अक्षर जी ने अपनी अनवरत साधना से नवगीत सृजन के नये आयामों को छूकर सिद्ध कर दिया की साधना के तप से असाध्य को भी साधा जा सकता है।
              बहुत कम लोगों को पता होगा कि राजेन्द्र शर्मा अक्षर जी अच्छे निबंधकार भी हैं और इनकी एक पुस्तक "शब्द वैभव" जिसमें एक पूरा चैप्टर नवगीत और उसके छंद विधान पर केंद्रित भी है।उनकी इस बौद्धिक संपदा का लाभ साहित्य समाज को जरूर उठाना चाहिए।
          जैसा कि कवि स्वयं कहता है
"एक बार में जुड़ न सकेगा पूरा पूरा मन" 
______________________________
           आइये कविवर राजेन्द्र शर्मा अक्षर जी को जानने और उनसे पूरा पूरा मन जोड़ने के लिए क्यो न उन्हें बार- बार पढ़ा जाय!!

टिप्पणी

मनोज जैन

एक

पाहुन बदरा 

यह पावस का 
पहला दिन,ईश्वर ।
जीवन में भर दे 
ढाई आखर  ।।

पाहुन बदरा भूले आज डगर ।
बहुत दिनों के बाद पधारे घर ।।
बरसेगा जीवन 
रस अम्बर से ,

फूटेंगे माटी में नव अंकुर ।
बाढ़ हृदय-सरिता में आएगी,
टूटेंगे तटबन्ध  
हजारों फिर ।।

नाच उठेगा मन का मोर कहीं,
और कहीं पर होगा दर्द मुखर ।
शूल कहीं उपजेगा छाती में ,
और बहेगा नैनों से 
झर-झर ।।

बाढ़ नदी में आएगी फिर से, 
बह जाएगा सरसुतिया का घर ।
फिर चौमासा काटेगा हरिया ,
बेच बेचकर 
धनिया के जेवर ।।

नाव कागजी बच्चों की फिर से,
तैरेगी पानी में तिर तिर तिर ।
बैठ जाएंगे लिखने फिर लेखक ,
पावस पर 
बूंदोंवाले  अक्षर  ।।

यह पावस का पहला दिन ईश्वर।
जीवन में भर दे 
ढाई आखर  ।।

दो
___
बहुत कही,
फिर भी कहने को
बाक़ी बहुत रही !!

सिर्फ़ धुआं ही रही उगलती
शब्दों की लकड़ी ।
अर्थ प्रकाशित होता कैसे,
आग नहीं पकड़ी !!
बीत गई वय,आंखें मलते,
फूत्कार में ही ।।

एक वृक्ष के फल मीठे,
वह ही तो खायेगा ।
थोड़ा सा जो जोर लगाकर
शाख हिलायेगा ।।
खड़ा हुआ जिस तट पर,
माटी उसकी 
सभी ढही !!!!!

बात सरल है, 
किन्तु लिखावट है मेरी ढीली।
कांप रहे हैं हाथ 
और भी,आंखें हैं गीली ।।
सच पूछो तो
राह आंख की
स्याही स्वयं बही ।।

तीन
___
पर्वत की ऊंचाई को तो
देख लिया तुमने
किंतु दर्द की 
उसकी गहरी नदी नहीं देखी !!

आग लगाती इंसानों की
टुकड़ी फिरती है ।
संकट की बदली
शिखरों पर 
जब तब गिरती है ।
धीरज की चट्टान 
टूटकर बालू बन जाती,
पीड़ा बनकर बूंद- बूंद
निर्झर बन झरती है ।

देख लिए उपकार
आपने पर्वत के लेकिन ,
नेकी के बदले
इस युग की
बदी नहीं देखी !!

पर्वत की ऊंचाई को तो 
देख लिया तुमने
किन्तु दर्द की
उसकी गहरी नदी नहीं देखी !!

चिंताओं के 
ऊंचे ऊंचे शिखर नहीं देखे ।
और निराशाओं के
गहरे गह्वर नहीं देखे ।
घुटन भरी 
घनघोर अंधेरी गुफा नहीं देखी, 
देखे केवल शैल चित्र 
खण्डहर नहीं देखे ।
सिर्फ कामदी देखी।

तुमने सुखद वादियों की ,
पर युग की बर्बादी की 
त्रासदी नहीं देखी !!!

पर्वत की ऊंचाई को तो 
देख लिया तुमने ,
किंतु दर्द की 
उसकी गहरी
नदी नहीं देखी !!!

लिए कुल्हाड़ी 
दो पायों का 
राम राम रटना।
हरे भरे पेड़ों पौधों का 
रात दिवस कटना ।
बारूदी विस्फोटों से 
चट्टानों का फटना ,
जहर हवा में बढ़ते जाना 
प्राणवायु घटना ।
सपने सुखद 
विकास -खुशी के
देख लिए तुमने,
पर अपने 
भावी विनाश की
सदी नहीं देखी  !!

पर्वत की ऊंचाई को तो 
देख लिया तुमने 
किन्तु दर्द की 
उसकी गहरी 
नदी नहीं देखी !!
चार
____
एक बार में 
पूरा पूरा
जुड़ न सकेगा मन !
जोड़ बावरी 
पल-पल ,छिन -छिन 
बूंद-बूंद,कन-कन ।।

सुलझाने की चाह
किंतु 
आदत उलझन की है ।
पचपन की है उम्र 
समझ 
लेकिन बचपन की है।
पहले जख्मों को उधेड़ती
फिर करती तुरपन !!!!
जोड़ बावरी 
पल पल छिन छिन 
बूंद बूंद कन कन ।।

बोती -पहले स्नेह बीज 
जो होता बहुत सड़ा ,
फिर कुरेदकर
रोज देखती 
कितना हुआ बड़ा ,
छोर बिना जाने 
धागे की
सुलझाती उलझन  !!
जोड़ बावरी 
पल पल छिन छिन 
बूंद बूंद कन कन ।।

खेल बुरा
अच्छी टीमें भी 
खेला करती हैं ,
और 
देखने वालों को भी 
झेला करती हैं ,
फूट बहुत है 
फिर भी मिलकर 
गातीं जन गण मन  !!!

जोड़ बावरी 
पल पल छिन छिन
बूंद बूंद कन कन ।।

एक बार में 
पूरा पूरा 
जुड़ न सकेगा मन ।
जोड़ बावरी 
पल पल छिन छिन 
बूंद बूंद कन कन ।।

पाँच
___
श्रम नागरी
लिये तसला-कुदाली
धूल-माटी से सजी-संवरी ,
रुपहली देह
अम्बर से
ढंकी कुछ
और कुछ उघरी  ,
प्रगति-पथ का 
नवल निर्माण करने
इक परी उतरी  !!

किये जाती निनादित 
राष्ट्र का जय गान,
हथौड़ा ले
तराशे जा रही चट्टान,
चरम उत्कर्ष के पथ पर
बनाती जा रही
संकल्प के सोपान ,

नया भारत बनाने को
नयी गंगा बहाने को
पहन कंगना
मिरे अंगना
कोई' श्रम नागरी उतरी !

पसीने से भरी कोई
सुनहरी गागरी उतरी !!!

छह
____
प्यारी वंशी को तो पहले
तोड़ दिया तुमने 
बार बार फिर उसे बजाने 
मुझे मनाते हो !
दोस्त,क्या खूब बनाते हो !!!

कहते हो
सूखी लकड़ी की
है ही क्या कीमत,
जो जन्मा है 
मृत्यु एक दिन
है उसकी निश्चित,
द्वैत,त्रैत,अद्वैत ब्रह्म का 
ज्ञान सिखाते हो !!
दोस्त,क्या खूब बनाते हो !!!

स्वर निकालते हो 
तब
स्वर में खुद मिल जाते हो ,
रस निचोड़ते हो 
तब
रस में खुद घुल जाते हो ,
नाद ब्रह्म में डूब 
ब्रह्म खुद ही बन जाते हो !!
दोस्त ,क्या खुद बनाते हो !!!

सूख गया है बांस
श्वास का लेकिन रस इसमें ,
अगर नहीं है इस वंशी में 
तो फिर है किस में ,
सांसों का यह खेल 
कभी तुम समझ न पाते हो !!
दोस्त, क्या खूब बनाते हो !!!

प्यारी वंशी को तो पहले 
तोड़ दिया तुमने ,
बार बार फिर उसे बजाने 
मुझे मनाते हो !!
 दोस्त ! क्या खूब बनाते हो !!!

सात
----
यह ऊंचा सोपान
और मैं 
गिरा हुआ इंसान !

रोप दिए कांटे पथ में
गिरने खोदी खाई ,
शर्म किसी भी गलत काम पर
मुझे नहीं आई ,

निंदा चुगली के खाता हूं
रोज नए पकवान !!
यह ऊंचा सोपान 
और मैं
गिरा हुआ इंसान !!!

रोज बदलता रहा 
मुखौटे 
बनकर  सभ्य जिया,
हंसी उड़ाने 
हंसों की 
कौओं का साथ दिया ,

पानी पानी हुआ शर्म से
देख मुझे शैतान !

यह ऊंचा सोपान 
और मैं 
गिरा हुआ इंसान !!

मर्यादा को 
दकियानूसी कहकर 
तोड़ दिया,
और धर्म का 
तिरस्कार कर 
मैंने छोड़ दिया,

इतना आगे बढ़ा 
कि पीछे 
छूट गया भगवान !!!!

यह ऊंचा सोपान 
और मैं
गिरा हुआ इंसान !!!!!

आठ
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एक सी 
सबकी कहानी है।
बात यह 
सबको बतानी है ।।

जन्म क्षण से ही
रुदन लय बद्ध  !

और यौवन में-
कहीं आबद्ध !

आयु में -
समृद्ध होकर वृद्ध !

भूमि में -
विश्राम करने की,
अन्त  में
आदत पुरानी है !

देह के ही साथ 
देहरी' भी,
सब यहीं पर
छूट जानी है !! 

एक सी 
सबकी कहानी है !

बात यह
सबको बतानी है ।।
नौ
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रूचियां

किस-किस का लिखियेगा 
नाम !
रुचियों के लोग सब  
गुलाम  !!!

विविध दृष्टिकोण 
और दर्शन हैं ,

अपने अपने 
सबके  रावण हैं  ,

अपने अपने 
सबके राम। ।।

घर के भी बरतन 
सब टकराते 

मन से सब 
एक कहां हो पाते  ,

मन में भी 
चलता  संग्राम  ।।

शक्लअक्ल 
अलग-अलग 
सपने हैं ,

सत्य सभी के 
अपने अपने हैं ,

अपने हैं   
झूठ भी  तमाम  ।।

Rajendra Sharma Akshar

राजेन्द्र शर्मा अक्षर भाग एक


लक्ष्य पर ही ध्यान देकर बाण,छोड़ो पार्थ:-राजेंद्रशर्मा अक्षर की एक गीति रचना
__●__
प्रस्तुति
मनोज जैन
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              राजेन्द्र शर्मा अक्षर जी की गिनती राजधानी के वरिष्ठ साहित्यकारों में होती हैं।उनके लेखन का एक मात्र उद्देश्य 'स्वान्तःसुखाय' ही रहा।निजी जीवन में लोकेषणा और विज्ञापन वाजी से दूर ही रहे।साहित्य,संगीत,कला और विज्ञान पर अक्षर जी की पकड़ फैवीकौल के मजबूत जोड की तरह है।
                अक्षर जी अनेक संस्थाओं में पदाधिकारी रहे हैं।उन्होंने किसी भी संस्था से अन्य सयाने अध्यक्षों की तरह संस्था से कभी कोई लाभ नहीं उठाया बल्कि अपने आपको संस्थागत उद्देश्यों की पूर्ति के लिए उन संस्थानों में खुद को झौंक कर होम जरूर कर दिया।
                    अपनी पारखी दृष्टि से प्रतिभा को पहचानने वाले अक्षर जी के लेखन का फलक बड़ा व्यापक है।यह बात उनकी अभिरुचियों और उनके विपुल साहित्य को पढ़ ,सुन,कर ही लिखी जा सकती है।गद्य और पद्य की लगभग सभी विधाओं में अक्षर जी निष्णात हैं ।
                फिर भी,
 यह बात भी उतनी ही सही है ,कि अक्षर जी को वह यश नहीं मिला जो उनके हिस्से में आना चाहिए था।
          आइये पढ़ते हैं कर्म पथ पर निरन्तर चलते रहने की प्रेरणा प्रदान करने वाले राजेन्द्र शर्मा अक्षर जी के सृजनात्मकत अवदान की एक गीतिरचना !
प्रस्तुति
मनोज जैन 

कर्म-पथ
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कर्म पथ पर
ताज भी है, 
धूल भी है !!

कभी है सहमति-असहमति
जय-पराजय,
प्रगति-अवनति,
कंटकों से मिलन पल-पल,
संकटों के घोर बादल,
तालियां हैं,गालियां हैं,
फूल भी है,
शूल भी है ।
कर्म पथ पर 
ताज भी है,
धूल भी है !!

रोकता भय का महीधर ,
तोड़ता है धैर्य सागर,
डोलती है नाव जर्जर,
हर लहर पर-मन्द,,सत्वर,
और झंझा की दिशा -
अनुकूल भी,
प्रतिकूल भी है !!!
कर्म पथ पर 
ताज भी है,धूल भी है!!

लड़ रहा मानव बराबर,
इक महाभारत उमर भर,
इसलिए निष्काम होकर,
लक्ष्य पर ही ध्यान देकर,
बाण छोड़ो,पार्थ  !
तरु में-शाख,पंछी,फल, 
सुकोमल -पत्र भी है,
फूल भी है ।
कर्म पथ पर
ताज भी है,
धूल भी है ।।‌

 (राजेन्द्र शर्मा 'अक्षर '  )
Rajendra Sharma Akshar
मो.-9893416360

महेश अनघ जी के एक नवगीत पर टीप





इस तरह निर्वाह लो तुम जिंदगी को फूल जैसे शूल को निर्वाहता है:महेश अनघ

पता नहीं क्यों,
कीर्ति शेष महेश अनघ जी के गीत की यह पंक्तियाँ "फूल जैसे शूल को निर्वाहता है"पढ़ते ही मेरे जेहन में गहरे धस गईं।अवसाद के कारकों और कारणों पर यदि हम गौर करें तो पाश्चात्य सँस्कृति काअंधानुकरण भी बड़े कारणों में से एक कारण है दरअसल,हम अपनी जड़ों से कटे हुए लोग हैं,अपनी बोली,बानी,परिवेश,देश यहाँ तक की अपना घर और घर में भी एक ही छत के नीचे रहने वाले लोग ,हमारी अपनी सांस्कृतिक रीति,रिवाज ,इत्यादि को छोड़कर वाकी जो बचता है,
वह सब हमें भाता है।
             यहाँ तक कि हम अपने उद्धरणों में  सिर्फ झूठा आभामंडल और अपनी फेक आइडेंटिटी बनाने के चलते उद्धरणों में विदेशी विद्वानों को कोट करनें में अपनी शान समझते हैं।इसका मत यह कतई नहीं कि मैं उनके दर्शन या ज्ञान का का विरोध कर रहा हूँ ।मेरा आशय सिर्फ यह कि,आँगन की तुलसी के पास कम से कम कैक्टस को किसी भी कीमत पर ना रोपें!
विश्व के किसी भी दर्शन में आत्म हत्या को कहीं कोई मान्यता नहीं मिली काशी करवट जैसी कुप्रथाओं के मूल में अज्ञान था।बहरहाल,यहाँ कुछ लोक में प्रचलित सूक्तियों का उल्लेख करना चाहता हूँ जो,हममें हमारी जिजीविषा को अन्तिम सांस तक बनाए रखने में हमारी मदद करती हैं।
यह हमारी जिजीविषा ही है जो,तिनके में भी सहारा ढूँढ लेती है।यह भारतीय चिंतन दृष्टि ही है,जो कहती ही नहीं बल्कि हमें यह सिखाती भी है,जीने की हो ना इच्छा मरने की हो ना वांछा।
"नर हो न निराश करो मन को"
पँक्ति के रचेयता राष्ट्रकवि दादा मैथली शरण गुप्त मुझे यह टिप्पणी लिखते समय विशेष रूप से याद आए, उन्होंने नर शब्द का प्रयोग किया क्योंकि आत्म हत्या की यह प्रवर्ति सिर्फ मनुष्यों में ही पायी जाती है। जैन आगम को यदि यहाँ आधिकारिक सन्दर्भ मानकर कहूँ,तो देवताओं और नारकियों के यहाँ आआत्म हत्या या आपघात जैसा भाव नहीं पाया जाता।बुद्धि और विवेक की सापेक्षता से पशु पक्षी भले ही मनुष्य से कमतर हों पर सन्दर्भित विषय के परिपेक्ष्य में देखा जाय तो,पशु-पक्षी कभी भी आत्म हत्या नहीं करते।
प्रकृति में आज तक कोई भी उदाहरण नहीं है जिसका उल्लेख इस सन्दर्भ में किया जा सके !
है न चिंतनीय विषय!!
खुदकुशी,अपघात,आत्महत्या करने से पहले उनके वारे में भी एक बार सोच लें जिनका अधिकार आपकी जिंदगी पर आपसे कहीं ज्यादा है!
पढ़ते हैं कीर्तिशेष महेश अनघ जी का एक गीत जिंदगी जिंदा दिली का नाम है।

टिप्पणी
मनोज जैन
106
विट्ठल नगर
गुफामन्दिर रोड़
लालघाटी
भोपाल
462030

एक गीत
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खुदकुशी से ठीक पहले सोच लेना
कहीं कोई है तुम्हें 
जो चाहता है

जिंदगी आखिर तुम्हारी व्याहता है 
ये निराशा मौत की दस्तक नहीं है 
आदमी खुद उम्र का चालक नहीं है 
पंछियों के नीड़ हैं जिन्हें डालियों पर 
टूटने का उन्हें कोई हक नहीं है

इस तरह निर्वाह लो विपरीत को भी
फूल जैसे शूल को 
निर्वाहता है 

खेल बाकी है अभी क्यों हारते हो 
कहीं तो रस है जिसे स्वीकारते हो 
गलतियां हैं तो सुधर भी जाएंगी 
जिंदगी को इस तरह क्यों मारते हो 

संगिनी उसकी सगी होती नहीं है 
पालता भी नहीं 
जो न सराहता  है 

जब सरसता सूख जाए तो बिखरना 
कामना को गोद में लेकर न मरना 
आग चारों ओर से जब घेर ही ले 
तब जरा-सा बच बचाकर सब्र करना 

दर्द तो सैलाब है दो-चार पल का 
आपकी जिंदादिली 
को थाहता है