पण्डित सुधाकर शर्मा जी के एक गीत के बहाने गीत में प्रयुक्त भाषा पर चर्चार्थ एक संक्षिप्त टीप
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टिप्पणी
मनोज जैन
यह गीत उन गीतों से सौ गुना अच्छा है जिनमें सिर्फ लच्छेदार शब्दों या चिकनी भाषा के अलावा कुछ भी नहीं
होता भाषा के घुमावदार वर्तुलों में घूमते घूमते पाठक कहीं भी नहीं पहुँचता।
प्रस्तुत गीत में प्रभावी कथ्य के साथ भाषा के तीखे तेवर भी हैं,प्रतिरोध है,आक्रोश है,अन्याय के खिलाफ दो -दो हाथ करने का साहस भी।
गीत की भाषा,सृजित गीत की भाव भूमि पर निर्भर करती है,कि वह फूल की तरह प्रयोग में लाई जाय या फिर शूल की तरह!
सार संक्षेप में कहें तो,हमें कवि से सिर्फ टाइप्ड पैटर्न के रचना कर्म की ही उम्मीद नहीं करनी चाहिये।अपितु विषय वैविध्य की भाव भूमि में प्रवेश कर,कवि के रचनाकर्म के मर्म को पकड़ने की कोशिश करना चाहिए।
प्रस्तुत है मीठे सुधाकर शर्मा जी के कड़वे बोल!
प्रस्तुति
मनोज जैन
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ऐसी तेंसी का गीत
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मान मिट्टी का रखो साहिब !
गुंडई शोभा नहीं देती !
नाक के नीचे तुम्हारे
क्या नहीं होता ?
उस पै तुम खुद को
बताते दूध का धोया!
भोंथड़ी संवेदनाऍ
हो गयीं सारी!
तुमको मालुम भूख से
कब कौन क्यों रोया?
माफियाओं को लगाते तेल
भाव सोने के बिकी रेती !!
मान मिट्टी का रखो साहिब!
गुंडई शोभा नहीं देती !!
कौन नोंचेगा तुम्हारे पंख?
क्या उखाड़ेगा तुम्हारा कौन ?
गर्व में डूबे रहो मत यूॅ !
काल सिर पर ही खड़ा है मौन !
ये व्यवस्था ही हमारी है,
बाप की समझो न तुम खेती !!
मान मिट्टी का रखो साहिब!
गुंडई शोभा नहीं देती !!
Sudhakar Sharma
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