मंगलवार, 16 फ़रवरी 2021

आचार्य जानकीवल्लभ शास्त्री जी के नवगीत

कैसे इतनी कठिन रागनी कोमल सुर में गाई:


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                      आचार्य जानकीवल्लभ शास्त्री जी के गीत के बहाने आज  वागर्थ में प्रस्तुत है उनसे जुड़ा एक रोचक संस्मरण यह तो ठीक से तो याद नहीं कि मैंने इस संस्मरण को कब और कहाँ पढ़ा पर गीति सन्दर्भ पर बात करते हुए मुझे इस संस्मरण को यहाँ पाठकों के निमित्त जोड़ना जरूरी लगा एक बार की बात है जब कवि सुभद्रा कुमारी चौहान के कहने पर एक युवा कवि ने निराला की अमर रचना ’वर दे वीणावादिनी’ को राग भीमपलाशी में गा कर सुनाया। उसके बाद कवि हरिवंशराय बच्चन और कवि रामधारी सिंह दिनकर ने अपनी-अपनी कविताएँ पढ़ीं।फिर उसी युवा कवि ने अपनी एक कविता ’किसने बांसुरी बजाई’ को राग केदार में सुनाया तो महाकवि निराला ने ’मनोहरा स्वर्णपदक’, जो उनके लिए सुरक्षित था, उस युवा कवि को देने की घोषणा कर दी और बच्चन जी ने कहा - तुम्हारा गला काट लेने लायक है। वह कोई और नहीं, हिन्दी और संस्कृत के उद्भट विद्वान और रचनाकार आचार्य जानकीवल्लभ शास्त्री थे।    
               जानकीवल्लभ शास्त्री ने अपने घर में अपने पिता का मन्दिर बना रखा था, जिसमें अपने पिता की मूर्त्ति लगा रखी थी।अपनी मृत्यु से एक दिन पहले तक छियानवे वर्षीय आचार्य ने सुबह उठ कर सबसे पहले अपने पिता की वन्दना की थी।क्या आपने कहीं और पिता का मन्दिर देखा है?
          गीत की समृद्ध परम्परा से आचार्य जानकी वल्लभ शास्त्री जी का यह  किसने बांसुरी बजाई बेहद चर्चित गीत रहा है।आचार्य जानकी वल्लभशास्त्री जी गीतों को लेकर परम्परा और प्रयोग के सफल गीतकार रहे हैं।नवगीत के कँगूरों की चमक के पीछे सच कहा जाय तो नींव में पोषित गीत की परम्परा का ही योगदान है।एक भी नवगीतकार गीत का विरोधी नहीं है परन्तु अनेक टेकी परम्परापोषी मंचीय गीतकार नवगीत को आठ दशकों में भी नहीं समझ सके आज भी नवगीत के नाम पर उन्हें साँप सूँघ जाता है।जबकि इसके पीछे का सच तो यह है कि ये बेचारे अपनी कहिन में चाहकर भी रत्ती भर बदलाव नहीं ला सके।इस श्रेणी में अनेक हैं।कुछेक सम्पादक भी इसी मुहिम में अपनी ऊर्जा निरन्तर खपा रहे हैं।बजाय ऊर्जा के अपव्यय के,उन्हें चाहिये कि,वे नवगीत को नये सिरे से समझने का उपक्रम करते तो,ऐसा करने से नवगीत का नही उनका स्वयं का ही भला होता।
              मेरा संकेत सिर्फ मंचीय सम्पादकों से है जो गुटबाजी के तहत साजिशन काम करते आ रहे हैं। इन्हें बल मिलता है अपरिपक्व मानसिकता के रचनाकारों से जो इन सम्पादकों की गोद में आकर बैठ जाते हैं,जिन्हें छपास की बेहद कुलबुलाहट है।
                     याद रखें,यदि आपकी रचना में दम है तो अपने स्वाभिमान को जिंदा रखें,यक़ीनन एक नहीं पूरे सौ सम्पादकों की फौज आपकी रचना की प्रतीक्षा में पलक पाँवड़े बिछाकर बैठे हुए हैं!
           सम्पादकों की दृष्टि वैयत्तिक न होकर समष्टिगत होनी चाहिये।इस मामले में प्रदेश की राजधानी,भोपाल के वरिष्ठ और सर्वमान्य गीतकार मयंक श्रीवास्तव जी Mayank Shrivastava  जी,का नाम आदर्श सम्पादकों में लिया जा सकता है।
      जब वह 2006 से 2009 तक प्रेस मेन के साहित्य सम्पादक थे,तब उन्होंने अपनी पूरी ऊर्जा साहित्य के लिए झोंक दी,उन्होंने गीतकारों को खोज-खोज कर निकाला और उन्हें बिना किसी पूर्वाग्रह के उस समय के अत्यंत चर्चित पत्र 'प्रेस-मेन' में स्थान दिया,वह भी ऐसे समय में जब प्रिंट और सोशल मीडिया इतना सक्रिय नहीं था जितना हमें आज दिखाई देता है।
                                                     आज भी अनेक साहित्यकारों के पास 'प्रेस-मेन'के अंक सुरक्षित हैं जो निःसन्देह गीत नवगीत की धरोहर हैं।मयंक श्रीवास्तव जी की सम्पादन दृष्टि,ईमानदार सोच और गीत के प्रति सम्पूर्ण निष्ठा को प्रणाम करता हूँ।

टिप्पणी
मनोज जैन

वागर्थ
सम्पादन मण्डल
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      आइये
   पढ़ते हैं,अपनी समृद्ध परम्परा को।
प्रस्तुति
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1

किसने बाँसुरी बजाई ?
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जनम जनम की पहचानी 
वह तान कहाँ से आई?
अंग अंग फूले कदंब-सम
साँझ सकारे झूले,
सूखी आँखों में यमुना की
लोल लहर लहराई !

किसने बाँसुरी बजाई ?

जटिल कर्म-पथ पर,थर-थर काँप,
लगे रुकने पग
कूक सुना सोए सोए-से 
हिय में हूक जगाई

किसने बाँसुरी बजाई? 

मसक मसक रहता मर्म-स्थल 
मर्मर करते प्राण,
कैसे इतनी कठिन रागिनी 
कोमल सुर में गाई

 किसने बाँसुरी बजाई ?

उतर गगन से एक बार-फिर 
पी कर विष का प्याला 
निर्मोही मोहन से रूठी
मीरा मृदु मुसकाई

किसने बाँसुरी बजाई?

2
जिन्दगी की कहानी

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ज़िन्दगी की कहानी रही अनकही,
दिन गुज़रते रहे, सांस चलती रही।

अर्थ क्या? शब्द ही अनमने रह गए,
कोष से जो खिंचे तो तने रह गए,
वेदना अश्रु, पानी बनी, बह गई,
धूप ढलती रही, छाँह छलती रही।

जो जला सो जला, ख़ाक खोदे बला,
मन न कुन्दन बना, तन तपा, तन गला,
कब झुका आसमाँ, कब रुका कारवाँ,
द्वन्द्व दलता रहा, पीर पलती रही।

बात ईमान की या कहो मान की,
चाहता गान में मैं झलक प्राण की,
साज सजता नहीं, बीन बजती नहीं,
ऊँगलियाँ तार पर क्यों मचलती रहीं।

और तो और, वह भी अपना बना,
आँख मून्द रहा, वह न सपना बना।
चान्द मदहोश प्याला लिए व्योम का,
रात ढलती रही, रात ढलती रही।

यह नहीं जानता मैं किनारा नहीं,
यह नहीं, थम गई वारिधारा कहीं।
जुस्तजु में किसी मौज की, सिन्धु के
थाहने की घड़ी किन्तु टलती रही।

3

चाँद का फूल
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चाँद का फूल खिला ताल में गगन के।

दर्द की सर्द हवा ग़म की नमी में डूबी,
कसमसाहट की क़सम, है ज़मीं ऊबी ऊबी,
रक्त का रंग लिए सांस की सुगन्ध पिए,
प्राण का फूल खिला ताल में मरण के।

सुर्ख़ धागे में कसा, किन्तु तड़फड़ाता-सा,
सख़्त डण्ठल में बन्धा, किन्तु सर उठाता-सा।
सब्ज़ कोंपल में छुपा नर्म किरन में सिहरा,
प्यार का फूल खिला ताल में विजन के।

एक सुर कौन्ध गया, एक घटा-सी घुमड़ी,
आँखों-आँखों में लरज अजनबी व्यथा उमड़।
कुछ की धड़कन से कढ़ा, कुछ चढ़ा उसांसों पर,
गान का फूल खिला ताल में गगन के।

लक्ष्य गढ़ते रहे, रात कहीं और गई,
दिल गया और कहीं, आह कहीं और गई।
पंक के अंक पला, पर पड़ा न दलदल में,
ज्ञान का फूल खिला, ताल में लगन के।

4

...तो जाँनू
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तीखे काँटों को
फूलों का शृंगार बना दो तो जानूँ।

वीरान ज़िन्दगी की ख़ातिर
कोई न कभी मरता होगा,
तपती सांसों के लिए नहीं
यौवन-मरु तप करता होगा,
फैली-फैली यह रेत ।
ज़िन्दगी है या निर्मल उज्ज्वलता?
निर्जल उज्ज्वलता को जलधर,
जलधार बना दो तॊ जानूँ।

मैं छाँह-छाँह चलता आया
अकलुष प्रकाश की आशा में,
गुमसुम-गुमसुम जलता आया :
उजलूँ तो लौ की भाषा में।
औंधा आकाश टँगा सर पर,
डाला पड़ाव सन्नाटे ने,
ठहरे गहरे सन्नाटे को
झंकार बना दो तो जानूँ।

5

और कसो तार 
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और कसो तार, तार सप्तक मैं गाऊँ।

ऐसी ठोकर दो मिजराब की अदा से
गूँज उठे सन्नाटा सुरों की सबा से
ठण्डे साँचों में मैं ज्वाल ढाल पाऊँ।

खूँटियाँ न तड़कें अब मीड़ों में ऐठूँ
मंज़िल नियराय, जब पांव तोड़ बैठूँ
मून्दी-मून्दी रातों को धूप में उगाऊँ।

नभ बाहर-भीतर के द्वन्द्वों का मारा,
चिपकाए शनि चेहरे पे मंगलतारा।
क्या बरसा ? मरती धरती निहार आऊँ।

ढीले सम्बन्धों को आपस में कस दूँ,
सूखे तर्कों को मैं श्रद्धा का रस दूँ
पथरीले पन्थों पर दूब मैं उगाऊँ।

6

चौरास्ते की ज़िन्दगी 
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मैली-मैली चान्दनी, चन्दा मुखड़ा फीका,
ऐसा काग़ज़ फैला जैसे हो कलंक-टीका।

आंसुओं टँके सपने तोरण उजड़े नीड़ के,
झेल अकेलापन मन ठिठका सम्मुख भीड़ के,
छुट्टे हाथ, कहाँ पर, इससे - छुटकारा जी का,

दिल पर पड़ती चोट ठनकता माथा मिट्टी का।
मैली-मैली चान्दनी, चन्दा मुखड़ा फीका,
ऐसा काग़ज़ फैला जैसे हो कलंक-टीका।

चौरस्ते की ज़िन्दगी कुछ धूल-पसीने की,
साधों की सुध सांसों में जकड़न-सी सीने की,
फूल भटकटैया का, पात कँटीली डाली का,

ज्यों मसान में मगन, नहीं हमसाया माली का।
मैली-मैली चान्दनी, चन्दा मुखड़ा फीका,
ऐसा काग़ज़ फैला जैसे हो कलंक-टीका।

7

देश हमारा 
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टुसिआए पाकड़ पर बैठकर भुजंगा
बोल रहा ठाकुर जी, देख रहा दंगा।

भावों की मार-काट मिली-जुली भाषा
तंगदिली, संगदिली, पट्टी और झाँसा।
स्रोत सियासी कि गीत नहा रहे गंगा।

टकटकी अपरिचय की, लिजलिजी उदासी,
कुछ खुमार अँगड़ाई, नीन्द-सी छमासी।
अनसुनी सदा, गुणी लगा रहा अड़ंगा।

कलमल करते नथुने गन्ध सड़ायन्ध,
ख़ून गुनगुनाता क्यों खूँटे, क्यों बन्ध ?
टूँग-खुटक तिनका किनका न बैल चंगा।

नक़्शे में फ़स्ल-भरे, हरे खेत खींचो,
ख़ून-पसीने का क्या, रंगों से सींचो,
देश हमारा न दिखे भूखा या नंगा।

परिचय
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जानकीवल्लभ शास्त्री
जन्म : 9 जनवरी 1916
देहान्त : 7 अप्रैल 2011

हिन्दी में कविता-संग्रह : रूप-अरूप, तीन तरंग, मेघगीत, शिप्रा, अवन्तिका, गाथा, राधा, संगम, अत्पलदल, हंसकिंकणी, धूप-तरी, उत्तम पुरुष।

संस्कृत रचनाएँ : काकली, वन्दीमन्दिरम्, नीनापदमम्, प्राच्यसाहित्यम्।

कहानी-संग्रह : कानन, अपर्णा, नीला कमल, बांसों का झुरमुट, चलन्तिका।

उपन्यास : एक किरण : सौ झाइयाँ, दो तिनकों का घोंसला,  अश्वबुद्ध, कालिदास।

नाटक : अशोकवन, सत्यकाम, ज़िन्दगी।

निबन्ध-संग्रह : साहित्य दर्पण, चिन्ताधारा, त्रयी, प्राच्य साहित्य, मन की बात।

संस्मरणों के संग्रह : स्मृति के वातायन, हंस बलाका, कर्मक्षेत्रे मरुक्षेत्रे, एक असाहित्यिक की डायरी, अष्टपदी, नाट्यसम्राट पृथ्वीराज, अनकहा निराला।

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