वागर्थ में आज की प्रस्तुति में प्रस्तुत है अनामिका सिंह 'अना' जी का एक नवगीत अना जी छंदानुसाशन की प्रमुख कवयित्री हैं।उनकी साधना में जहाँ,एक ओर पारम्परिक छन्द शामिल हैं,तो वहीं दूसरी ओर,वह नवगीत की भी सफल साधिका हैं।अनामिका जी लय और छन्द की कसौटी पर खरी उतरती हैं।
प्रस्तुत नवगीत हमें भौतिक अंधाधुंध प्रगति के खोखले राजनैतिक दावों में सांस्कृतिक विरासत के खोने और पाने के मध्य के चिंतन की ओर मंथन करने की प्रेरणा देता है।
'अना जी' अपने इस नवगीत में सिर्फ समस्याओं को ही नही उकेरती अपितु विगत में हुईं अपनी ही भूलों की उधड़ी हुई तुरपन को,बचे हुए समय में अपने सद्कर्मो से सिलने का समाधान भी देती हैं।
बहुत प्यारे नवगीत के रचाव के लिए
अनामिका सिंह अना जी को बहुत शुभकामनाएं
प्रस्तुति
समूह
~।।वागर्थ।।~
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क्या -क्या खोया पाया हमने
होकर अधुनातन ।
उन्नति के हित नित्य चढ़े हम
अवनति की सीढ़ी ।
संवादी स्वर मूक हु़ये हैं ,
पीढ़ी दर पीढ़ी ।
रिश्तों में अनवरत बढ़ा है
घातक विस्थापन ।
दादी नानी परी कहानी
सब बीते किस्से ।
चंपक नंदन सब चंपत , है
सूनापन हिस्से ।
बचपन में ही है बच्चों से
बचपन की अनबन ।
काट मूल मशगूल अर्थ का ,
तक्र बिलोने में ,
अनुभव के आकाश बिठाये
हमने कोने में ।
उधड़ गयी है जोड़ -गुणा में ,
रिश्तों की सीवन ।
चैन हमारा रहीं निरंतर ,
लिप्सायें पीती ।
निहित स्वार्थ में अपनेपन की ,
हर अँजुरी रीती ।
समाधान अब शेष समय में ,
सिल उधड़ी तुरपन ।
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