गीत अँजुरी: नैराश्य में आशा का संचरण
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कवियत्री: सीमा हरिशर्मा
प्रकाशक पहले पहल
प्रकाशन वर्ष :2018
मूल्य 300/-
गीत अँजुरी
56 गीतों का खूबसूरत गुलदस्ता
पठनीय और संग्रहनीय कृति
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सब विजय के गीत गाते हों/
तू वहाँ अपनी /
व्यथा सबको सुना कर /
करेगा क्या/
कीर्तिशेष पंडित देवेंद्र शर्मा इंद्र जी की यह पंक्तियाँ लखनऊ से प्रकाशित होने वाली पत्रिका उत्तरायण में जो निर्मल शुक्ल जी के सम्पादन में अस्थाई रूप से प्रकाशित होती है ,में पहली बार पढ़ी थीं और तभी से उनके नवगीतों का मुरीद हो गया था।सम्भवतः मेरा इन्द्र जी से मेरे परिचय का आरम्भ बिंदु यही से जुड़ा प्रसंगवश
जब मैं भोपाल की सुप्रसिद्ध कवियत्री सीमा हरि शर्मा जी के गीत संग्रह "गीत अँजुरी" से एक गीत "हम सभी हल ढूँढ" लेंगे शीर्षक से गीत पढ़ रहा था। गीत में एक शब्द आता है व्यथा और व्यथा शब्द की व्यंजना मैंने इन्द्र जी के गीत में पहली बार बृहद रूप में देखी थी। आज जब में सीमा जी के इस खूबसूरत गीत को जब पढ़ रहा हूँ तो मेरा ध्यान फिर से व्यथा शब्द पर अटक गया।
यद्धपि दोनों गीतों में सीधा- सीधा कोई अन्तःसम्बन्ध भले ही न हो पर दोनों गीतों में व्यथा शब्द कॉमन है ।
दोनों गीतों में व्यथा की अपनी अंतर्ध्वनियाँ हैं। इन्द्र जी के नवगीत में व्यथा स्वयं को ढांढस बंधाने के उपक्रम के रूप में प्रयुक्त है है तो वहीं सीमा हरि शर्मा जी के गीत की व्यथा का प्रयोग उत्प्रेरक बनकर ,प्रेरणा का काम करता है। धीरज का काम करती है।
अमूमन आजकल एक ही ढर्रे के नवगीत देखने को मिलते जिनमे पिष्ट पेषण या अरण्य रोदन के अलावा नया कुछ कम ही होता है
किसी एक सामयिक परिस्थिति/ घटना को पकड़कर रोना धोना पर यह गीत इस मामले में अलग भूमिका का निर्वहन करता है गीत में अंर्तसंवाद है जो कवियत्री का स्वयं से भी हो सकता है परिवार से ,समाज से , देश से यहाँ तक कि इस अन्तर्सम्बन्ध की रेंज बहुत दूर तक भी हो सकती है।
हम सब निर्मम समय में जीने के विवश हैं आदमी की सोच का दायरा बहुत संकुचित होता जा रहा है यहाँ अन्य के सुख दुख से किसी को कुछ लेना देना नही होता ऐसे में कवियत्री की संवेदना का धरातल मन को छू लेता जब वह अपने से जुड़ों की व्यथा जानकर उसका हल ढूढने का सद्प्रयास करती है ऐसे प्रेरणादायक गीत गायक के मन का स्वागत किया जाना चाहिए।
सीमा जी अपने गीत में घोर नैराश्य से उपजे मौन को तोड़ने का आह्वान करती हैं तो वहीं जर्जर परम्परा का को जड़ से उखाड़ फेंकने का ओजस्वी तेजस्वी तेवर भी
उनके यहाँ देखे जा सकते हैं वे भाग्य की अपेक्षा पौरुष के शंख को फूँकने में ज्यादा भरोषा रखतीं है सार संक्षेप में कहें तो गीत वही जो मन को प्रेरणा से भर दे
मैथिली शरण गुप्त जी की के गीत की एक पँक्ति
"नर हो न निराश करो मन को"
से अपनी बात को विराम देकर पढ़ते हैं
सीमा हरिशर्मा जी का एक मोहक और प्रेरक गीत।
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तुम व्यथा अपनी कहो तो /
हम सभी हल ढूंढ लेंगे/
तप रहे इन मरुथलों में/
हम कहीं जल ढूँढ लेंगे/
चुप्पियाँ अभिशप्त हैं/
यह जानता इतिहास है /
भीष्म की उन चुप्पियों का /
आज तक परिहास है/
तोड़ दो यह मौन तुम तो /
हम मुखर पल ढूंढ लेंगे /
चांद तारे सूर्य सबके/
हैं सभी का नभ खुला /
धूप का क्यों ,एक भी टुकड़ा/
नहीं तुमको मिला /
तोड़ दो बेड़ी पुरातन/
हम नया कल ढूंढ लेंगे /
जो भरोसे भाग के बैठा /
उसे कब क्या मिला /
शंख फूंका पांडवों ने/
न्याय तव ही था मिला/
थाम लो कर में मशालें /
नीति उज्जवल ढूंढ लेंगे/
सीमा हरि शर्मा
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टिप्पणी
मनोज जैन मधुर
भोपाल
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व्यथा शब्द को लेकर इतनी चिंतनपरक समीक्षा,,,आपकी श्रम साध्य प्रयास अभिनंदनीय है मनोज भाई,,, सीमा जी का सृजन तो श्रेष्ठ होता ही है ,,, बधाई आप दोनों को ।।
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