संजय शुक्ल की रचना धर्मिता पर चर्चा
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प्रस्तुति
मनोज जैन
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कृतिनामेकरूपा हि वृति: सम्पदसम्पदो:।न हि नादेयतोयेन तोयधेरस्ति विक्रियाः।।
आचार्य वादीभ सिंह कृत जीवंधर चरित्र "क्षत्रचूड़ामणि" के ग्यारहवें लम्ब के तीसरे श्लोक पर मेरा ध्यान ऐसा अटका कि लाख चाहने के बाद भी मन है कि बाहर आने का नाम ही नहीं लेना चाहता तब जाकर सोचा क्यों ना इसका उपयोग आज की सार्थक टिप्पणी में कर लिया जाय।सवाल यह भी उठता है कि आखिर ऐसा क्या है इस श्लोक में जिसका भाव मुझे एक बंधन में बाँध कर कुछ लिखने के लिये बाध्य कर रहा है।
नीतिकार ने उक्त श्लोक में सज्जन/बुद्धिमान पुरुषों की विशेषताओं को जिक्र किया है।नीतिकार कहते हैं कि सज्जन पुरुषों की वृत्ति (एकरूपा भवेत )एक सी रहती है। इस पोस्ट के आलोक में आज जिन सज्जन पुरुष की मैं बात कर रहा हूँ उनसे मेरा बहुत आत्मीय रिश्ता है और वह सिर्फ मेरे लिये ही सज्जन नहीं है अपितु उन से जुड़े हममें से हर एक का अनुभव निष्कर्षतः एकमत से यही है।
मैं, जिनकी बात कर रहा हूँ ,वह कोई और नही बल्कि,जानेमाने नवगीत कवि संजय शुक्ल जी हैं।
संजय शुक्ल जी से मेरे दो -एक और महत्वपूर्ण सम्बन्ध और जुड़ते हैं,एक तो हम लोग ख्यात नवगीत कवि डॉ. योगेन्द्र दत्त शर्मा जी dr Yogendra Datt Sharma जी के सम्पादन में आये अति महत्वपूर्ण और चर्चित नवगीय शोध सन्दर्भ ग्रन्थ "गीत सिंदूरी गंध कपूरी"(दो- भाग )में एक सहभागी रचनाकार होने के नाते साथ साथ हैं।दूसरा महत्वपूर्ण सम्बन्ध यह कि हम दोनों ही निराला जी की परम्परा के अंतिम स्तम्भ प्रख्यात नवगीतकार कीर्तिशेष दादा देवेंद्र शर्मा इन्द्र जी की शिष्य मंडली से आते हैं।और हम दोनों को ही इन्द्र जी का आशीर्वाद और मार्गदर्शन समय समय पर मिलता रहा है।
यह बात और है कि,मेरी अपेक्षा संजय शुक्ल जी को,दादा इन्द्र जी का ज्यादा सानिध्य प्राप्त हुआ,क्योंकि नवगीतकार संजय शुक्ल जी,जो सी -108,रजनीगंधा अपार्टमेंट, जी. टी. रोड़, साहिबाबाद,गाज़ियाबाद उत्तरप्रदेश से आते हैं,और यह स्थल इन्द्र जी के घर के आसपास ही है।संजय शुक्ल जी से मेरी पहली मुलाकात यहीं, इन्द्र जी के निवास पर ही हुई थी।तब से लेकर अब तक हमारे मध्य आत्मीयता सघन से और और सघनतर होती ही चली गई।
शुक्ल जी का पहला संग्रह अनुभव प्रकाशन से 2016 में आया,और खासा चर्चित भी रहा। उनके हस्ताक्षरों से सुशोभित इसी संग्रह की एक प्रति मुझे भी 5/10/16को मिली,जिस के दो गीतों पर,चार साल बाद चर्चा कर पा रहा हूँ।यूँ तो ,सञ्जय शुक्ल जी का गद्य भी बहुत रोचक है ,पर संजय शुक्ल जी की मूल विधा तो नवगीत ही है।विज्ञान के अध्धेयता होने के नाते शुक्ल जी की रचना प्रक्रिया में भी विज्ञानबोध के संकेत स्पष्ट तौर पर देखा जा सकते हैं।संजय शुक्ल जी के यहाँ उनकी अपनी अनंत ऊर्जा का विखराव नहीं है।
वे कॉन्वेक्स लेंस की तरह अपनी अनन्त ऊर्जा को ऑब्जेक्ट पर फोकस करना जानते हैं।यही कारण है कि उनका कथ्य और शिल्प एक दम सधा और कसा हुआ होता हैं।उनके गीत पाठकों को ना सिर्फ बाँधते हैं बल्कि देर तक ,और दूर तक, अपने पाठकों के साथ बने रहते हैं।
शुक्ल जी की विनम्रता मोहती है। मुझे अपने निकटतम युवा मित्रों को यदि अपनी पसन्द के नवगीतकारों में से चयनित नामों में से एक नवगीतकार को समग्र पढ़ने की सलाह देनी हो,तो मेरी जुबान पर एक नाम मानवीय गुणों के समुच्चय पुंज सञ्जय शुक्ल जी का भी होगा जो निःसन्देह डूबकर धारदार नवगीत निरन्तर लिख रहे हैं।
अब आते हैं,श्लोक के भावार्थ पर,दो शब्द कहूँ तो,जिस प्रकार हजारों नदियों के जल को,ग्रहण करके भी समुद्र अपनी मर्यादा का उल्लंघन नहीं करता है,उसी प्रकार बुद्धिमान सज्जन पुरुष भी महान संपत्ति और विपत्ति के आने पर भी,प्रसन्न या खेद- खिन्न नहीं होते हैं।वे तो समता भाव ही धारण किए रहते हैं।
कुल मिलाकर संजय शुक्ला जी के व्यक्तित्व और कृतित्व पर यह श्लोक एक दम खरा उतरता है।
उनका अपना का स्वयं का लेखन श्रेष्ठ होने के बाबजूद भी,उन्हें इस बात का रत्ती भर भी अभिमान नहीं है।मैंने उन्हें सदा एक फलदार वृक्ष की भाँति अपनी जड़ों की ओर ही झुकते हुए ही पाया!
सञ्जय शुक्ल जी फेसबुक पर सक्रिय हैं और बिना किसी पूर्वाग्रह के अच्छी रचनाओं पर अपनी ओर से निष्पक्ष पाठकीय प्रतिक्रिया देते हैं।
उन्हें बधाई
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प्रस्तुत हैं उनके दो नवगीत
प्रस्तुति
मनोज जैन
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एक
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*आलापें विवश राग*
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हम वहाँ चले आए
जहाँ नहीं आना था !
अनहद स्वर डूब गया
शोर करें प्रखर द्वंद्व
बाहर है चकाचौंध
भीतर की ज्योति मंद
वे न टिमटिमाए भी
जिन्हें जगमगाना था !
बंद हुए छिद्रों की
बाँसुरी बजाते हैं
रंगों में रमे नहीं
ईसुरी न गाते हैं
आलापें विवश-राग
भूले जो गाना था !
जैसे हैं वैसे ही
यहाँ रह नहीं सकते
शुद्ध-बुद्ध-चिदानंद
स्वयम् को न कह सकते
ढूँढ नहीं पाएंगे
उसे, जिसे पाना था !
दिन-दिन होता विरूप
अपना परिवेश यहाँ
बदल-बदल दृष्टिकोण
दृष्टि शून्य शेष यहाँ
कहाँ अब निगाहें हैं
कहाँ तब निशाना था !
दो
*रेत गिरा पानी*
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'फोन' किया कर सोच समझकर
कितना समझाया
रे मन ! तू भी ढीठ बहुत है, बात नहीं मानी !
सुनकर तू आवाज न जिनकी
कभी अघाया था
उनके स्वर की तत्परता भी
समझ न पाया था
वे न चाहते सुनना तेरी, अब बोझिल बानी !
'बिजी' बहुत हैं कैसे तेरी
'काल रिसीव' करें
संदेशे में कारण देकर
कृपा अतीव करें
आशय समझ न पाती फिर भी, तेरी नादानी !
तेरी सुधियों में जो रह- रह
आते-जाते हैं
तेरा 'नंबर' देख 'फोन' पर
वे झुँझलाते हैं
रे प्रेमी ! निर्मोही कहते, तुझको अज्ञानी !
समय कीमती है उनका
खाली दिन-रात नहीं
तू संवाद करे उनसे
तेरी औकात नहीं
रे नाचीज़ ! न तूने सच यह, बात कभी जानी !
बुद्धिजीवियों से 'हिरदय' के
तार जोड़ता है
रस धारा को रूखे मरु की
ओर मोड़ता है
भाप बनेगा, उड़ जाएगा, रेत गिरा पानी !
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सञ्जय शुक्ल//8130438474//
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