मंगलवार, 11 अप्रैल 2023

छंदमुक्त कविता और नवगीत दोनों के पिता निराला हैं : केतन यादव

  नवगीत शोधसन्दर्भ ग्रन्थ "आलाप"
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कविता और नवगीत दोनों के पिता निराला हैं 
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‘आलाप’ नवगीत- समवेत संकलन गीतों का सुंदर गुलदस्ता है , विचारों की चिंगारियों की एकीकृत पूंजीभूत ज्योति है और साथ ही साथ शुष्क आहत मरुभूमि पर बूँदों की शीतल बौछार भी। जिसका संपादन अनामिका सिंह एवं मनोज जैन ने संयुक्त रूप से किया है। परंपरा से लेकर समकालीनता तक शंभुनाथ सिंह जी से शुरू होकर अनामिका सिंह तक गीतों की नवीनतम आकृतियाँ दर्ज हैं । धरोहर खंड में 11 एवं सहयात्री खंड में 32 नवगीतकारों के गीत संकलित हैं  । पुस्तक पर सुविधा के लिए बात रखने को दो भागों में बाँट लेते हैं । पहले नवगीतों पर चर्चा करते हैं और अंत में जो महत्वपूर्ण विमर्श हुए उस पर कुछ बात रखने की कोशिश करूँगा। इस संकलन के घोषणापत्र के रूप में मुझे यदि कोई पंक्ति चुननी हो तो मैं धरोहर खंड के कवि देवेंद्र शर्मा ‘ इंद्र ’ की “ हम जीवन के महाकाव्य हैं / केवल छंद प्रसंग नहीं हैं ” को कहूँगा। वास्तव में नवगीत केवल छांदस परंपरा का अनुसरण नहीं है वह जीवन का महाकाव्य है। उसमें मानव जीवन के आम सरोकार शामिल हैं । आम जीवन के चित्र उनकी विषमताएँ परस्पर विरोधाभास नवगीत में अंकित हैं कैलाश गौतम की इस पंक्ति की तरह -
 
“ जो कपास की खेती करते उसके पास लँगोटी है / उतना मँहगा ज़हर नहीं है, जितनी मँहगी रोटी है। ” 

               सहयात्री खंड में समय के प्रतिनिधि नवगीतकारों को शामिल करने की कोशिश की गयी है । जब नदी, बादल, बारिश , झरना, फूल , पत्ते , झील , याद , कलश आदि छायावाद से निकल कर प्रथम नवगीत दशक तक पहुँचते हैं तब वह माहेश्वर तिवारी के यहाँ अपना अगला पड़ाव पाते हैं । माहेश्वर तिवारी नवगीत के सुमित्रानंदन पंत हैं । इन्हें पढ़कर सहज ही छायावाद की परंपरा का विस्तार का एहसास हो जाता है- 

  “ लगता जैसे रीते घट से / कोई प्यास हरे। 
     याद तुम्हारी ... । ” 

नवगीत का अपना एक गहरा राजनीतिक बोध भी है । पॉलिटिकली करेक्शन नवगीत में भी पर्याप्त है । विचारों से भरे गीतबंध आक्रोश के साथ कला के सुंदरतम रूप में प्रस्तुत होते हैं । जनगीतकार रामकुमार कृषक का एक गीतबंध देखिए - 

 “ इस रियासत में/ हज़ारों दुर्ग-परकोटे/ बिछी-खोदी सुरंगें हैं । 
   बुर्ज़ियाँ हैं चार तो चौंसठ तिरंगे हैं / शक्ल बदले सब कहीं बैठी अदावत है ! / क्योंकि हर कुर्सी यहाँ अब भी रियासत है । ” 

राजनीति के कयी चरित्र नवगीतों में सामने उभर कर आते हैं । गीतकवि राजनीतिक षड्यंत्रों को गौर से देखता है। लोकतंत्र में भोली जनता को हथियार के रूप में इस्तेमाल करने वाले बारूदी राजनीतिज्ञों की ओर महेंद्र नेह इशारा करते हुए लिखते हैं - 

 “ डुबोया गया गर यूँ ही कश्तियों को / जलाया गया बेवजह बस्तियों को / तो बारूद की जगमगाहट तो होगी / बगावत तो होगी । ” 

                     युवा गीतकार अक्षय पांडेय बहुत सशक्त प्रतिपक्ष के कवि हैं । उनकी राजनीतिक समझ आश्चर्य चकित कर देती है। बहुत सूक्ष्मता से वे घटनाओं को पकड़ते हैं और छांदस शिल्प में दर्ज करते हैं। विश्व कल्याण के नाम पर अंतरराष्ट्रीय मंचों का दुहरे उपयोग का पर्दाफास देखिए - 

 “ नहीं रहा अब / पहले जैसा वक़्त हरा / रंगों पर खतरा है / फूलों पर ख़तरा / पंख-जली अधमरी तितलियाँ कहाँ गयीं ? 
 लोकतंत्र-जय लिखी तख्त़ियाँ / कहाँ गयीं/ वीटो वाली महाशक्तियाँ कहाँ गयीं । ” 

   संपादक मनोज जैन भी सत्ता की निरंकुशता एवं द्विअर्थी चरित्र पर प्रश्न उठाते हैं - 
 “ राष्ट्रप्रेम के देकर नारे/ दिखा रहे हैं दिन में तारे/ घर-घर नफ़रत बाँट रहे हैं / गाँधी के निर्मम हत्यारे / गड़े हुए / मुर्दे उखाड़कर / 
जड़ें देश की / काट रहे हैं / अभियोजन ...” 

           जनगीतकार यश मालवीय एक सफल रचनाकार हैं । इन अर्थों में कि उनके गीत नुक्कड़ , चौराहों से लेकर बड़े - बड़े आंदोलनों का स्वर बनते हैं । उन पर पहले भी विस्तार से लिख चुका हूँ । दैनिक जीवन के तमाम दृश्य तमाम बिंब उनसे छूट नहीं पाते हैं और गीतों में दर्ज हो जाते हैं । उन्हें पढ़कर उनके समय की तमाम बातों से परिचित हुआ जा सकेगा । जीवन में उन तमाम क्षणों पर वे खतरा मोलते हुए मुखरता से बोलते रहे हैं जब उनका बोलना उनके व्यक्तिगत हित को खतरे में डालता हो । बोलने की आजादी को लेकर वे अपनी लोकतांत्रिक माँग रखते रहे हैं- 

“ बोलना है बस वही / जो बोलने की / है इजाज़त / 
ले रहा है साँस / आक्सीजन बिना / अधमरा भारत / 
सोच में नफ़रत / मगर होठों सजी सद्भावना है। / 
ख़ुश्क पत्ते उड़ रहे हैं ...। ” 

    अजय पाठक अपने आप में अनूठे नवगीतकार हैं । उनके गीतों में व्यंग्य की गहरी समझ है । एक उदाहरण देखिए - 
“ खाँस-खाँस कर / समरसता की /  चादर बुनते हैं । / 
 × × × × × × × × × × × × × × × × × 
बूढ़े हुए कबीर / आजकल / ऊँचा सुनते हैं । 

 वहीं भारतेंदु मिश्र के गीतों को पढ़कर सुखद आश्चर्य की अनुभूति होती है। वे भिन्न तरह के रूपक गढ़ते हैं अपने बिंबों के सहारे । शब्दों में नया अर्थ भरने की चेष्टा इनमें अभूतपूर्व है । एक गीत देखें - 

“ मेघ का टुकड़ा झरा है / कल / फिर नदी के पाँव भारी हैं । 
 × × × × × × × × × × × × × × × × × 
डोंगियों , ताशे-तमाशे / जाल लेकर तीर पर । /
आँख वो करने लगे हैं/ नदी की तक़दीर पर । 
× × × × × × × × × × × × × × × × × 
और घाटों पर नदी के / देह का व्यापार है / 
बज रही है वक़्त की साँकल / त्रासदी के पाँव भारी हैं । 

                मनुष्य ने आज पृथ्वी का समुचित अवैध अतिक्रमण करते हुए सभी अन्य प्राणियों के जीवन-अधिकार  का समुचित हरण किया है । अन्य सभी प्रजातियों को वह उपभोग और विलासिता के लिए समझता है बस । ये मनावीय नृशंसता, प्रकृति के अंधे दोहन को लेकर चिंता वरिष्ठ नवगीतकार सुभाष वशिष्ठ जी में दिखाई देती  है - 
“ सहमते खरगोश का / आवाज़ से भी / प्राण लेकर भागना । / 
चीखते टुकड़े हवा के / शून्य की ऊँचाइयाँ तक / सागरों कुछ ना! 
× × × × × × × × × × × × × × × × × 
दूर तक फैले खुले आकाश में / फिर कबूतर झेलता है / 
पंख का नुचना । ” 

           हिंदी कविता की तरह नवगीत में भी विमर्श के लिए जगह  बनाई जा रही है । स्त्री गीतकवियों ने महिला हक़ के मुद्दे अपने गीतों में सुंदर लयात्मक ढंग से उकेरा है । ‘ मैं नीर भरी दुख की बदली ’ की क्रांति को मुखर लय दिया है । संग्रह में वरिष्ठ साहित्यकार शांति सुमन जी के गीतों में वह सामाजिक आंदोलन के रूप में उद्धृत है । 

“ मुड़े हुए नाखून / ईख-सी गाँठरदार उँगली / 
टूटी बेंट जंग से लथपथ / खुरपी सी पसली
× × × × × × × × × × × × × × × × × 
एक सूर्य रोटी पर औंधा / चाँद नून - सा गला। / 
कथरी ओढ़े तालमखाने / चुनती शकुंतला! ”

संध्या सिंह अपने गीतों में नारी विषयक सरोकारों को उठाती रही हैं । शाश्वत चलती परंपरा में उनका हस्तक्षेप महत्वपूर्ण है - 

“ दुविधाओं की पगडंडी पर / भटके जनम-जनम 
 जितने जीवन में चौराहे / उतने दिशा भरम । ” 

 परंपरा और प्रगतिशीलता का द्वंद्व , गृहणियों एवं कामकाजी महिलाओं की समस्याओं में तुलनात्मक अंतर और स्त्री जीवन से संबंधित क्रूर सच्चाइयों को भावना तिवारी अपनी कविता में सघन एवं सूक्ष्म तरीके से व्यक्त करती हैं। आज के उत्तर-आधुनिक समय में पुरानी मध्यवर्गीय पीढ़ी का संत्रास जब नयी पीढ़ी के खुले संबंधों से टकराता है तो कई घाव ताजा हो जाते हैं। झूठे रिश्तों के निर्वाह की विवशताएँ, आत्मनिर्वासन, हीनताबोध, परतंत्रता की यातना , दोहरे जीवन की घुटन, स्वप्न और यथार्द, चाहना और होना के बीच की यंत्रणा अकुलाहट भावना तिवारी के गीतों में देखा जा सकता है। 
एक नमूना देखें - 

“ सीले - सीले संबंधों को / निभा रहे हैं / आँखें मींचे। / 
हृदय नहीं मिलता है लेकिन / बाँहों में बाहों को भींचे / 
खेप नये रिश्तों की आयी / मटकाती कूल्हे ।
× × × × × × × × × × × × × × ×
शांत दुल्हनें / अपने-अपने / समझातीं दूल्हे।
× × × × × × × × × × × × × × × ×
एक अटा के नीचे जलते/ सिसक रहे चूल्हे । ” 

अनामिका सिंह के गीतों में लोक के देशज शब्दों के साथ ग्राम्य जीवन की महिलाओं की समस्याएँ दिखती हैं - 

“ रिक्त उदर में जले अँगीठी / आँत करे उत्पात / 
हर कातर स्वर करे अनसुना/ विकट पूस की रात ” 

रूपम झा के इस गीत में आदमी की खोज़ दरअसल आदमीयत की खोज है - 

“ घूम रही है/ दहशत ओढ़े क्यों बस्ती में लाश? /
चलो , आदमी की करते हैं/ फिर से आज तलाश ” 

   
                   यह तो चर्चा रही पुस्तक के नवगीतों पर । अब कुछ बात पुस्तक के अग्र भाग में उल्लिखित विमर्शों पर भी करते हैं ।  आरंभ में कुल चार नवगीत कवि - आलोचकों द्वारा नवगीत के संदर्भ में आलेखीय वक्तव्य हैं । शुरुआत वीरेंद्र आस्तिक जी से है । मुझे लगता है समस्या तब बड़ी हो जाती है जब हम अपनी अवधारणा को आग्रह के रूप में ले लेते हैं और दूसरे पक्ष को अनदेखा कर देते हैं। यदि नवगीत की विशेषताओं और सीमाओं पर समालोचनात्मक निष्पक्ष बात नहीं होगी तो उस विधा की बहुत ही बातें छिपी रह जाएँगी। पहली बात तो यह कि मैं नवगीत और कविता को उस हद तक स्वतंत्र अस्तित्व के रूप में देखता हूँ जिस हद तक उसमें निरपेक्षता का आग्रह है । हिंदी ग़ज़ल या नवगीत या गद्य कविता ये कविता के भाग हैं । कविता केवल लय , छंद , तुक , नहीं है तो केवल विचार भी नहीं है । वह केवल बिंब , प्रतीक , रूपक नहीं है और न ही गद्य या संगीत है । यह सब कविता में शामिल हो सकते हैं पर इसमें कोई एक अकेले कविता की परिभाषा नहीं है। कविता ने “ poetry is the spontaneous overflow of powerful feelings: it takes its origin from emotion recollected in tranquility: ” ( वर्ड्सवर्थ ) से “ poetry is the best word in best order ” ( कॉलरिज , 1827 में) तक सफर पहले ही तय कर लिया है और समय के साथ विभिन्न दृष्टियाँ अनेक विचार‘ कविता क्या है ’ के संदर्भ में आते रहे हैं । वीरेंद्र जी के इस विचार से तो सहमत हूँ कि संप्रेषणीयता कविता की अन्यतम कसौटी है पर इस बात से नहीं “ गद्यात्मक कविता की अभिव्यक्ति, संप्रेषण की कसौटी पर अपेक्षाकृत खरी नहीं उतरती। ” वास्तव में छंद के या गीतात्मक अनुशासन में विचार / भाव सीमित हो रहे थे और उसकी निर्बाध अभिव्यक्ति के लिए ही कविता मुक्त छंद और छंद मुक्त की शैली को अपनाती है। मुझे लगता है कि इस बात से किसी को आपत्ति नहीं होगी कि नयी कविता ( छंद मुक्त ) और छांदस परंपरा का नवगीत दोनों के पिता निराला हैं । निराला ने ही अभिव्यक्ति और संप्रेषणीयता की चुनौतियों के कारण अपने शिल्प में परिवर्तन किया । यह बात समीचीन है कि एक बड़ा कवि अपनी शैली में निरंतर तोड़ फोड़ और प्रयोग करता है निराला इसीलिए बड़े कवि हैं। पहले के संस्कृत आचार्य गद्य , पद्य दोनों के लिए काव्य शब्द प्रयोग करते थे । सामवेद से ऋचाओं को लयबद्धता दिखती है ऋग्वेद एवं यजुर्वेद गद्य काव्य के ही उदाहरण हैं । तो यह नहीं कहा जा सकता कि गद्यात्मक कविता उदाहरण भारतीय साहित्य में नहीं हैं । तुकांत की परंपरा संस्कृत काव्य में नहीं रही है । हर तुकबंदी या गीत कविता नहीं है वैसे ही हर गद्य भी कविता नहीं है। आलेख में रामकिशोर दहिया जी का उदाहरण लेना चाहूँगा। वे कहते हैं “ जिसे हम नवगीत कहते हैं उसमें कविता का होना अनिवार्य है। ” 
                   मैं फिर अपनी बात जोर देकर कहना चाहूँगा कि आग्रह गलत है । नवगीत के अस्तित्व को लेकर समय-समय पर प्रश्न उठते रहे हैं । वे किस हद तक सही हैं किस हद तक बेबुनियाद इस पर बहस होनी चाहिए लेकिन बहस अमूमन एक आग्रह के तहत नवगीत को विशेष एवं पृथक बनाने को लेकर चल पड़ता है। मैं पूछना चाहता हूँ कि यदि एक नवगीतकार केवल गीत नवगीत लिख रहा है तो उसे कवि क्यों कहा जाए उसे नवगीतकार कहे जाने से आपत्ति नहीं होनी चाहिए जैसे कि ग़ज़ल लिखने वाले लेखकों को हम शायर ही कहते हैं। यदि आप स्वतंत्र रूप से कवि हैं तो शैलीगत प्रयोग करिए और आपकी अभिव्यक्ति आपके विचार किस शिल्प में बेहतर आ सकते हैं इस पर सोचिए । लेकिन हम यह ठानकर बैठेंगे कि यह बात गीत में ही आए तो शायद उसके चक्कर में बात बहुत दूर छूट जाए। उसी तरह यदि गद्यात्मक कविता में लय भरी जा सकती है तो एक कवि को उसमें पर्याप्त लय की संभावनाएँ संप्रेषणीयता के उद्देश्य से भरनी चाहिए। अरुण कमल की वह पंक्ति पूरी कविता में याद रह जाती है - “ अपना क्या है इस जीवन में, सब तो लिया उधार/ सारा लोहा उन लोगों का अपनी केवल धार । ” और धूमिल की सभी कविताओं में “ एक आदमी रोटी बेलता है...” है कविता अपनी लयात्मक अभिव्यक्ति के कारण ही याद रह जाती है। परंतु लय के कारण विचार का छूट जाना भी अनुचित है । बात यह भी है कि गीत या नवगीत को शैलीगत रूप में भावप्रवण कविता के रूप में ही माना जाता है पर ऐसा है नहीं । समय धीरे-धीरे विचारप्रधान हुआ है तो कविता में भी भावना कम हुई है और विचार अधिक । कवि समालोचक आशीष त्रिपाठी समकालीन कविता पर बोलते हुए कहते हैं कि समकालीन कविता धुले हुए कपड़े को गारकर निचोड़कर भावनारूपी पानी को निथारकर अलगनी पर टंगी है भावना उसमें नमी के रूप में । वह भाव एक धारा की तरह बहा कर न ले जाए बल्कि ठहरा दे इसलिए एक संतुलित वैचारिक सघनता है समकालीन कविता में। कविता और गीत शब्द को अलग-अलग रामकिशोर दहिया जी ने इस प्रकार इस लेख में परिभाषित किया ( शिल्पगत आधार पर ) - “ नवगीत अपने मुखड़े, बंध , टेक की आवृत्ति को बरकरार रखते हुए आगे बढ़ता है , जबकि कविता इस दिशा में पूर्णत: स्वतंत्र होती है। ” 
         इस पुस्तक पर सबसे महत्वपूर्ण समालोचनात्मक आलेख राजेंद्र गौतम जी का है । उन्होंने बहुत ही बारीक ढंग से उन बिंदुओं की ओर ध्यान आकर्षित किया है जिस कारण नवगीत की उपेक्षा हुई है तो साथ ही जमकर नवगीतकारों की ढिठाई और आग्रह पर चोट भी की है - “ यह सही है कि नवगीत में जातीय अस्मिता के चित्रण के संदर्भ में अकसर अतीत उभरा है, अकसर कवि नोस्टैल्जिक भी हुए हैं , अकसर इसमें पुरा बिंबों का प्रयोग हुआ है, अकसर भारतीय  मिथक वर्तमान के चित्रण के लिए आए हैं। × × × × × × × × × × 
नवगीत में ‘ पिछले दिन ’ हैं अर्थात् ‘ छूटे हुए अतीत की कचोट ’ कुछ ज्यादा ही है । × × × × × × × × × इसके बावजूद कुछ फार्मूलाबद्ध नवगीतकारों को नकली विलाप करते भी देखा जा सकता है। देश-काल की विभीषिका से आँख चुराकर अतीत-मोह की माँद में छिपा रहकर साहित्य को वरेण्य नहीं दे सकता। ” इस आलेख में नवगीत की विशेषताओं एवं वह कौन सा सशक्त पक्ष जिससे नवगीत अलग है उस पर भी सारगर्भित चर्चा है । एक जगह राजेंद्र जी ने लिखा है “ नवगीत की उपेक्षा का कारण उस युगबोध की अनुपस्थिति नहीं है, अपितु गीत एवं छंद के प्रति ‘ एलर्जिक ’ होना ही इसके मूल में है । ” राजेंद्र जी भी उसी आग्रह की ओर इशारा कर रहे हैं। इसी संग्रह के बहुत से वरिष्ठ नवगीतकार मुक्त छंद में भी कविताएँ लिखे हैं और कवि रूप में स्थापित हैं जैसे कि देवेंद्र आर्य, संध्या सिंह यहाँ तक की यश मालवीय ने भी नवगीत के अलावा मुक्त छंद में कविताएँ लिखी हैं । मैंने बातचीत में एक बार उनसे पूछा कि कविता की तीन पीढ़ी आपके यहाँ दिखाई देती है। आपके पिता उमाकांत मालवीय नवगीत के आरंभिक रचनाकारों में रहे हैं । आप स्वयं उस नवगीत परंपरा को बहुत विस्तार दिए हैं । आपके छोटे भाई अंशु मालवीय एवं पुत्र सौम्य मालवीय उस गीत परंपरा की लीक छोड़कर अगीत या छंदमुक्त कविता की राह पकड़ी आपको इससे आपत्ति नहीं रही या इस प्रश्न का सामाना आप किस प्रकार करेंगे । यश जी ने बहुत विनम्रता से कहा कि कैसे लिखना है क्या लिखना है मैंने यह कभी नहीं थोपा, हाँ कविता का संस्कार पीढ़ी-दर-पीढ़ी सफल रूप से आगे बढ़ा । यश मालवीय ने यह बताया कि उन्होंने भी बहुत सी छंद मुक्त कविताएँ लिखी हैं और उन्होंने यह भी कहा कि भविष्य में इनके संग्रह की सोच रहा हूँ। उन्होंने कहा कि छंद को लेकर मेरे मन में कोई आग्रह नहीं है , हाँ केवल गीत या छंद होने के कारण उसे खारिज़ किया जाए मैं इसका विरोधी हूँ। अंशु मालवीय के संग्रहों में छंदबद्व और छंदमुक्त दोनों कविताएँ देख सकते हैं। सौम्य मालवीय जिन्हें हाल ही में भारतभूषण अग्रवाल पुरस्कार मिला उनकी कविताओं में भी छंद की परंपरा एवं एक सुंदर लयात्मकता है । उनका पाठ भी काफी लयात्मक होता है। 

           मुझे लगता है कि अब गीत-अगीत , छंदबद्व - छंदमुक्त दोनों तरह के कवियों को कट्टी छोड़कर दोस्ती कर लेनी चाहिए क्यों कि यह कविता के अस्तित्व के संकट का समय है । यह बात शत-प्रतिशत सत्य है कि लय के अभाव में कविता सीमित भी हुई है । दूसरी बात मैं यह कहना चाहता हूँ कि बीसवीं सदी तक हमनें “ कविता क्या है” पर  विचार किया अब आज इक्कीसवीं सदी में इसपर विचार करने की आवश्यकता है कि कविता क्यों है । कविता आम जनजीवन से इतनी दूर क्यों  हो रही है। क्यों एक आम गैर साहित्यिक पाठक गद्य की विधाओं को निकट अधिक पा  रहा है। कविता कैसे लोगों को भेद जाए, कैसे उनके भीतर अटक जाए, ठहर जाए। कैसे कविता पाठक को  आंदोलित करे उन्हें परिवर्तित करे उन्हें पहले से बेहतर मनुष्य बनाए । निराला , नागार्जुन, त्रिलोचन, अष्टभुजा शुक्ल सभी कवि छंद में लिखे । छंद से परहेज नहीं है पर छंद या गीत का आग्रह भी नहीं है। एक कविता के संग्रह में कुछ-कुछ सभी शैलियाँ क्यों  न हों । छंद और गीत के आग्रह को मैंने भी खुद से दूर किया है । कुछ-कुछ ऐसा ही कवि देवेंद्र आर्य कहते हैं। उनके इस गीतबंध से मैं अपनी बात यहीं विश्राम देता हूँ - 

“ अपने बूते पर खड़ी हो 
जो ज़माने से लड़ी हो 
ऐसी भाषा 
जैसी भाषा भीड़ के पल्ले पड़ी हो । 
× × × × × × × × × × × × × ×
इस तरह तू लिख
कि लिख के कवि नहीं, कविता बड़ी हो । ” 

                              - केतन यादव ( पाठक के नोट्स भर) 
                                   परास्नातक छात्र 
                                   10 अप्रैल 2023

पुस्तक - आलाप ( नवगीत समवेत संकलन ) 2023
संपादन - अनामिका सिंह एवं मनोज जैन 
प्रकाशन - शुभदा बुक्स 
मूल्य -  450₹

लेखक परिचय
समीक्षक: केतन यादव जी

गुरुवार, 6 अप्रैल 2023

पुस्तक समीक्षा ; ज़िन्दा है अभी सम्भावनाएं जय चक्रवर्ती का नवगीत संग्रह

पुस्तक समीक्षा ; ज़िन्दा है अभी सम्भावनाएं जय चक्रवर्ती का नवगीत संग्रह
 

पुस्तक समीक्षा ; ज़िन्दा है अभी सम्भावनाएं

जय चक्रवर्ती का नवगीत संग्रह
वीरेन्द्र जैन

किसी ऐसे नवगीत संग्रह पर लिखने की गुंजाइश ही कहाँ बचती है जिसकी भूमिका नवगीत के प्रमुख कवि यश मालवीय ने लिखी हो, कवर पर नचिकेता, इन्दीवर, डा, ओम प्रकाश सिंह, डा. अनिल कुमार की टिप्पणी हो, तथा प्राक्थन में गीतकार ने अपनी रचना प्रक्रिया पर विस्तार से अपनी बात कही हो। जय चक्रवर्ती का संग्रह ‘ज़िन्दा हैं अभी सम्भावनाएं ‘ पाकर अच्छा लगा और समीक्षा के आग्रह पर कृष्ण बिहारी नूर की वह पंक्ति याद आ गयी “ मेरे हिस्से में कुछ बचा ही नही “ ।

साथी जय चक्रवर्ती पत्र पत्रिकाओं में खूब छपते हैं और पढे जाते हैं, क्योंकि वे अपने समय को लिखते हैं। नवगीत इसी आधार पर अपने को गीत से अलगाता है कि वह अतीत को नहीं वर्तमान को गाता है। नचिकेता जी उसे समकालीन गीत कहते हैं। वे एक गीत में खुद ही अपने संकल्प को घोषित करते हुए कहते हैं कि –

लिखूं कि मेरे लिखे हुए में

गति हो यति हो लय हो

पर सबसे ऊपर मेरे हिस्से का लिखा समय हो

प्रस्तुत संग्रह में उन्होंने अपने समय की दशा को बहुत साफ साफ चित्रित किया है और ऐसा करते हुए उन्होंने प्रकट किया है कि लेखक सदैव विपक्ष में खड़े होकर देखता है जिससे उसे व्यवस्था की कमियां कमजोरियां नजर आ जाती हैं। जूलियस फ्यूचक ने कहा है कि लेखक तो जनता का जासूस होता है।

सत्ता के झूठ और पाखंडों को कवि अपनी पैनी दृष्टि से भेद कर देखता है-

ढोंग और पाखंड घुला सबकी रग रग में

आडम्बर की सत्ता, ओढे धर्म-दुशाले

पूर रही सबकी आँखों में भ्रम के जाले

पसरा है तम ज्ञान- भक्ति के हर मारग में

धूर्त छली कपटी बतलाते, खुद को ईश्वर

बिना किये कुछ बैठे हैं, श्रम की छाती पर

बचा नहीं है अंतर अब साधू में, ठग में

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धर्म गुरुओं के साथ साथ यही काम राजनेता भी कर रहा है-

झांकता है हर समय हर पृष्ठ से, बस एक मायावी मुखौटा

बेचता सपने, हकीकत पर मगर,  हरगिज न लौटा

निर्वसन बाज़ार, आडम्बर पहिन कर रोज हमको चूमता है

थाहता जेबें हमारी, फिर कुटिल मुस्कान के संग झूमता है

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नगर में विज्ञापनों के घूमने का अब हमारा मन नहीं करता

आजकल अखबार पढने को हमारा मन नहीं करता 
*************                                                                                                                                                                       

व्यंजना में लिखे कुछ गीत , खुद के बहाने सामाजिक दुष्प्रवृतियों पर चोट करते हैं-

झूठ हम आपादमस्तक, झूठ के अवतार हैं हम            

झूठ दिल्ली, झूठ पटना, झूठ रोना झूठ हँसना

बेचते हैं रोज हम जो झूठ है हर एक अपना

आवरण जनतंत्र का ओढे हुए अय्यार हैं हम

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बात बात पर करते यूं तो मन की बातें

मगर जरूरी जहाँ, वहाँ हम चुप रहते हैं

मरते हैं, मरने दो, बच्चे हों किसान हों, या जवान हों

ये पैदा होते ही हैं मरने को, हम क्यों परेशान हों

दुनिया चिल्लाती है, हम कब कुछ कहते हैं

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भागते रहते सदा हम, चैन से सोते न खाते

रात दिन आयोजकों के द्वार पर चक्कर लगाते

छोड़ कर कविता हमारे पास है हर एक कविता

भात जोकर भी, हमारे कारनामों से लजाते

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तुमने जैसे दिखलाए हैं, क्या बिल्कुल वैसे होते हैं

अच्छे दिन कैसे होते हैं?  

तब भी क्या कायम रहती है अँधियारों की सत्ता

क्रूर साजिशों में शामिल रहता, बगिया का पत्ता पत्ता

याकि परिन्दे हर डाली पर आतंकित भय से होते हैं?  

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वर्तमान की समीक्षा करते हुए हमारे पास भविष्य की वैकल्पिक योजनाएं होनी चाहिए किंतु कभी कभी हम वर्तमान की आलोचना में अतीत में राहत देखने लगते हैं, या नगर की कठिनाइयों से दो चार होते हुए उस गाँव वापिसी में हल ढूंढने लगते हैं जहाँ से भाग कर हमने नगर की ओर रुख किया था। गाँव लौटे लोगों को जिन समस्याओं से सामना करना पड़ता है उसके लिए भाई कैलाश गौतम का गीत ‘ गाँव गया था, गाँव से भागा” सही चित्रण करता है। जय चक्रवर्ती के गीतों में ऐसा पलायन कम ही देखने को मिलता है, पर कहीं कहीं मिल जाता है। वर्तमान राजनीति और उससे पैदा हुयी समस्याओं पर भी वे भरपूर लिखते हैं और ऐसा करते हुए वे रचना को अखबार की कतरन या नेता का बयान नहीं बनने देते, उसमें गीत कविता को बनाये रखते हैं। इस संकलन में उनके बहुत सारे गीत इस बात पर भी केन्द्रित हैं कि इस फिसलन भरे समय में वे अपने कदम दृढता से जमा कर संघर्षरत हैं। ऐसे संकल्प का अभिनन्दन होना ही चाहिए।     

वीरेन्द्र जैन

2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड

अप्सरा टाकीज के पास भोपाल [म.प्र.] 462023