आलोचक किसी की रचना की परख पड़ताल के लिए कुछ मानक मानदंड निर्धारित करता है,जिन पर रचना का मूल्यांकन कर कुछ निष्कर्ष पाठक को देता है.कयी बार पाठक की अपनी दृष्टि से पढ़ी समझी गयी रचना कुछ अलग अभिमत देती है. नवगीत के आलोचकों की अपनी समझ और मानक हैं.राजा अवस्थी के नज़रिए से जो रचना मुझे पठनीय लगती है, वह अन्य के नज़रिए से शायद न लगे. किसी पाठक की अपनी मांग होती है किसी विधा विशेष से.....जैसा कि पिछली सदी में हुआ.कुछेक मठाधीशों ने गद्य से बोझिल कविता को महान जरूरी और समकालीन बनाकर मूल कविता की धारा को ही नजरअंदाज किया. आज नवगीत में बिम्ब प्रतिकादि का आग्रह किसी ऐसे नवगीत को नकार ही दें,जो अभिधात्मक हो.राम सेंगर की रचनाओं की परख के लिए निश्चय कोई चित्र कला का पारखी न हुआ तो .... आलोचक की थानेदारी कोई माने नहीं रखती. वे लोचन ही नहीं,जो किसी रचना के मर्म को देख पाते.आलोचक होना इतना ही आसान होता तो छान्दसिक कविता भी ग़ैरछान्दसिक कविता की तरह समयधार पर उतराती....... आलोचक होने के कुछ खतरे भी हैं,इसीलिये मैंने बीस साल पहले यह सत्कर्म त्याग दिया.कौन नाराज़गी भुगते किसी महान कवि की.....बच-बचा के सम्बन्धों को निभाना मुमकिन नहीं.अपना स्वानुभूत लिखो बस ,कोई सराहे न सराहे.आखिरी बात,
" जानता है आसमां हर पेड़ का क़द,
जड़ों की गहराई धरती जानती. आईना होकर भी हम दिखलायें क्या,मूंदकर बैठे जो अपनी आंख भी." इस दौरे वक़्त ने हर किसी का कच्चा चिट्ठा खोल दिया है. साहित्य की दुनिया अब वैसी नहीं रही जैसी कभी हुआ करती थी.यहां भी बहुत खन्दक खाइयां है.हम जैसों की यहां न पहुंच है,न जरूरत,हाशिये के बाहर ही भले हैं......