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रविवार, 17 अगस्त 2025

कृति चर्चा शेफालिका श्रीवास्तव जी

पुस्तक समीक्षा

पुस्तक-     'बच्चे होते फूल से'
लेखक-     श्री मनोज जैन 'मधुर'
पृष्ठ संख्या-104 
मूल्य -       रु.200/- 
प्रकाशक-  विचार प्रकाशन ग्वालियर 
प्रथम संस्करण- 2025
आई.एस.बी.एन -        
978-81-975632
समीक्षक - शेफालिका श्रीवास्तव 


बाल साहित्य अर्थात् वह साहित्य जो बालकों के मानसिक स्तर को ध्यान में रखते हुए लिखा गया हो ,बालकों को मनोरंजन के साथ सार्थक प्रेरणा व सीख भी प्रदान करता हो, उन्‍हें आज के जीवन की सच्‍चाइयों से परिचित कराता हो । आज के बालक कल के भारत के नागरिक हैं ।वे जैसा पढ़ेगें उसी के अनुरुप उनका चरित्र निर्माण होगा।अतः बाल साहित्य का उद्देश्य बच्चों का मनोरंजन करना, उन्हें शिक्षित करना, अच्छे संस्कार डालकर उनके भावी संसार की नींव मजबूत करना है तथा उन्हें दुनिया के बारे में जानकारी देना , जागरूक बनाना है।
मनोज जैन “मधुर“ जी की पुस्तक ‘ बच्चे होते फूल से ‘ कुछ इसी तरह के उद्देश्य को समेटे हुए है । एकल परिवार, सोशल मीडिया, माता पिता दोनों का नौकरी करना  कुछ  ऐसे कारण हैं जिनकी वजह से बच्चों का बचपना कहीं खो रहा है। ऐसे में अभिभावकों को उचित बाल साहित्य उपलब्ध कराना चाहिए जिसके द्वारा बच्चों के समय का सदुपयोग हो व वे भारतीय संस्कृति, संस्कार, अपने आसपास के परिवेश से परिचित हों । 
इस दृष्टि से मनोज जैन जी की कविताएँ अपना अलग महत्व रखती हैं ।आपके नवीन बाल कविता संग्रह ‘काग़ज़ के फूल’ में, बाल जगत को आनंदित करती रचनाओं के साथ, बच्चों के लिए लोरी , प्रभाती, पहेली , बोधकथा का कविता रूप , इत्यादि विशेष रचनाएँ भी संग्रहित हैं ।पुस्तक की कविताएँ पढ़ कर महसूस हुआ कि आपको बाल मनोविज्ञान का पूरा ज्ञान व अनुभव है । आपके मन में आपका बचपन अभी जीवंत है। इसलिए बच्चे के मन की भावनाओं को समझते हुए आपने ये बाल कविताएँ रचीं हैं । 
प्रायः बाल साहित्यकार, बाल कविता का सृजन, बच्चों को देखते हुए या स्वयं अपना बचपन याद करते हुए या अपने अनुभवों व स्मृति के आधार पर करते हैं । मनोज जैन जी ने भी इसी को आधार मान कर बाल जगत के लिए अपनी प्रथम पुस्तक ‘ काग़ज़ के फूल ‘ में कविता को सुंदर रुप दिया है । 
वरिष्ठ गीतकार मनोज जैन 'मधुर' जी स्थापित गीतकार हैं, आपके पहले दो पुस्तकें आ चुकी हैं,, लेकिन बाल साहित्य में आपने पदार्पण “ बच्चे होते फूल से" बाल कविता संग्रह से ही किया है । इस संग्रह में आपकी फूल सदृश कोमल कुल जमा तिरयालिस कविताओं का गुलदस्ता सजा है । सभी कविताएँ अपने आप में विशेष हैं, अलग-अलग खुश्बू ये आप्लावित हैं । 
मनोज जी के काव्य संग्रह में कल्पना शक्ति को विस्तार देती हुई , रिश्तों को जीवंतता प्रदान करती , नैतिक मूल्यों को सिखाती,राष्ट्रीय प्रेम , पशु पक्षियों के प्रति प्रेम करने की शिक्षा देती हुई रचनाओं का संकलन है , जो विविध रंगों से सजी हुई हैं व विभिन्न वय के बच्चों के लिए लिखी गईं हैं । आपकी पुस्तक को पढ़ते समय पाठक भी अपने बचपन में पहुँच जाते हैं,यही पुस्तक की सफलता है । 
प्रथम रचना ही बालकों की जिज्ञासु प्रवृति को बढ़ावा देती हुई पाँच बाल पहेलियाँ हैं ।ये पहेलियों बच्चों के लिये ज्ञानवर्धक तो हैं ही, साथ ही बच्चों की तार्किक बुद्धि को तराशने का भी काम करतीं हैं । भारत, भोपाल, इंद्रधनुष, तिरंगा व नदी पर आधारित ये पहेलियाँ बच्चों के लिए रोचक जानकारी उपलब्ध कराती हैं । 
प्रतिनिधि रचना “ बच्चे होते फूल से” में बच्चों का वर्णन किया है, उनमें संस्कार को रोपित कर , भारत में फिर से गाँधी नेहरू की कल्पना की है । इतिहास बच्चों तक पहुँचाने का प्रयास है । 

रंग बिरंगी फुलवारी यह 
महके नव परिवेश मे 
गाँधी, नेहरू नित्य जन्म लें 
अपने भारत देश में 
जुड़े रहें संस्कारों से 
कटे न अपने मूल से 
बच्चे होते फूल से 

‘मातादीन’ ,’गिनती ‘ व ‘मोकलवाडा’ जैसी कविताएँ रोचक है व छोटे बच्चों को गिनती सिखाने के साथ-साथ जीवन की गूढ़ बातें भी बताती हैं जैसे - 

बात पते की मुन्ने सुन 
जो सीखा है उसको गुन
बोल मेरे मुन्ने 
एक दो तीन
नहीं किसी के 
हक को छीन 

ऐसे ही “उत्तर देना सच्चे “  “बैठ उड़न खटोले में” व “पानी है अनमोल “ कविताएँ प्रकृति व पर्यावरण के प्रति सचेत करती हैं , प्रकृति का महत्व समझाती व पशु-पक्षीसे प्रेम करना सिखाती प्रतीत होती हैं । 
पानी सच में अनमोल है , इसे संरक्षित रखने की शिक्षा देती सुंदर रचना । 

बूँद बूँद अनमोल व्यर्थ में 
पानी नहीं बहाना ।  
छत पर रखना एक सकोरा
भरना उसमें पानी ।
सुनो गौर से प्यारे बच्चों 
यह सीख सयानी । 

जानवरों पर आधारित कविताएँ बच्चे सामान्यतः पसंद करते हैं । संग्रह में संकलित जानवरों की कविताओं, जैसे 
‘चंट चतुर चालाक लोमड़ी,’ ‘प्यारी दोस्त गिलहरी’, ‘मेरा नाम जिराफ’, ‘मैं हूँ बिल्ली चतुर सयानी’ इत्यादि रचनाओं के द्वारा लेखक बच्चों को जानवरों से परिचित करवाने व दोस्त बनाने में सफल है । जैसे -  ‘ मेरा नाम जिराफ़ है ‘, कविता में 

दस फ़ीट लंबी और खड़ी 
मेरी गर्दन ख़ूब बड़ी 
पूरे दिन में शायद ही
सोता हूँ में एक घड़ी ।।

बोध कथा को कविता रूप में लिखना एक नया प्रयोग किया है आपने । बच्चों को लय-ताल से युक्त कविता के ज़रिए कुछ बताना या समझाना सरल होता है, आपने इन कविताओं के ज़रिए बच्चों में नैतिक मूल्यों को विकसित करने का प्रयास किया है । 
भाग एक में आपने आपस में एक दूसरे का ख़याल रखने व आपस में सहयोग करने की शिक्षा दी है -

बोला हमने फल खाए है 
साथ इसी के खेले 
यही हमारा धर्म पेड़ को 
छोड़े नहीं अकेले। 
प्रण के लिए प्राण दे देंगे 
पीछे नहीं मुड़ेंगे 
साथ जलेंगे इसी पेड़ के 
पर हम नहीं उड़ेंगे । 

बोधकथा के भाग दो में संकल्प शक्ति को तवज्जो दी है -
झुकती है संकल्प शक्ति के 
सम्मुख दुनिया सारी
वह होते आदर्श जिन्होंने 
हिम्मत कभी नहीं हारी । 

रिश्तों को महत्व देती कविता ‘प्यारी माँ,’
‘मम्मी-मम्मी सुम्मी आई,’ ‘बड़ी बुआ’ इत्यादि रचनाओं बहुत सुंदर बन पड़ी है । 

घर आईं हैं बड़ी बुआ 
आज बनेगा मालपुआ 

इस पूरी कविता में बुआ का इतना सुंदर वर्णन है कि लगता है बुआ जी सामने खड़ी है । 
ऐसे ही लगे ‘नाचने अपने नाना’ व पलकों पर बिठाओ पापा’ में घर के बुजुर्गों, नाना नानी , दादा-दादी की महत्व दर्शाया है , उनके प्रति प्यार, सम्मान की भावना को पनपाने का अद्भुत प्रयास है । आज जब घर में बच्चों के पास अभिभावकों के लिए समय नहीं है, ऐसे में पोते-पोति के मन में बुजुर्गों के प्रति आदर भाव जगाना आवश्यक प्रतीत होता है । इस तरह की रचनाओं के द्वारा बच्चों के मन में उत्तम संस्कार रोपित किए जाने की दिशा मे यह एक सराहनीय कदम है । 

कब आयेंगे दादा- दादी 
हमको ये समझाओ पापा 
हमसे नहीं छिपाओ कुछ भी 
सच्ची बात बताओ पापा । 

दादू है पर्याय खुशी के
दादी अपनी रानी है । 
हम बच्चों को उनसे मिलती 
हरदम सीख सयानी है । 

यह पूरी रचना में दादा-दादी पर केंद्रित है , मन को छू लेने वाले भाव हैं । 

इसी प्रकार ‘पॉली क्लिनिक’ ‘चूहों के सरदार’, ‘मेट्रो पकड़ी चिड़ियाघर की’ ‘नौ सौ चूहे खा कर’, ‘चूहों के सरदार ने’ , ऐसी कुछ कविताएँ जानवरों को आधार मान कर लिखी गई हैं , जिन्हें बच्चे अवश्य पसंद करेंगे । 
प्रायः बच्चों की प्रत्येक पुस्तक में बाल मेले पर कविता होती ही है , लेकिन मनोज जी ने ‘दिल्ली पुस्तक मेला’ पर कविता लिखी है । हमें ऐसा लगा की यह रचना हम जैसे पाठकों के लिए है , बच्चों के लिए नहीं है । इसमें आपने लेखक, पाठक,प्रकाशक , भ्रष्टाचार इन सब पर बात की है। हालाँकि ये बात सही है कि लेखक ज़्यादा है , पाठक नहीं मिल रहे हैं , साहित्य के क्षेत्र में भ्रष्टाचार भी व्याप्त है , लेकिन इन सब बातों के लिए यह वर्ग अभी छोटा है व इनसे अनभिज्ञ भी है ।
धर्म निरपेक्षता का पाठ पढ़ाती व ईश्वर में विश्वास जगाती ‘ईश वंदना’ बहुत बढ़िया रचना है । अंतिम पंक्ति में बच्चे के मन का कौतूहल दर्शाया है । 

राम तुम्हीं, रहमान तुम्हीं हो , 
बुद्ध वीर भगवान तुम्हीं हो । 
ब्रह्मा विष्णु महेश तुम्हीं हो
सबके शेष अशेष तुम्हीं हो 
अखिल विश्व के पालक हो 
क्या हम जैसे ही, 
बालक हो ..! 

इस रचना को पढ़ कर हम अपने बचपन में पहुँच गये , हमारी शिक्षिका ने एक कविता जो पूरी कक्षा के बच्चों को रटवाई थी वो याद आ गई- 

हे ईश्वर तू कैसा होगा! 
लड्डू जैसा गोल होगा,
या पेड़े सा चपटा होगा! 
हे ईश्वर तू कैसा होगा.,! 

इसी तरह हमारी धरोहर, हमारे त्योहार पर भी आपकी कलम बखूबी चली है - “ होली “ रचना में-

भेद भाव को 
मारे गोली 
हैप्पी होली 
हैप्पी होली

बच्चों को स्वास्थ्य के प्रति सचेत करती कविता हैं -‘मोबाइल से दूरी’ व ‘दो गज दूरी बहुत जरूरी ’ । ‘मोबाइल से दूरी’ कविता समय के परिप्रेक्ष्य में बहुत ही बेहतरीन रचना है ।मोबाइल से दूरी बनाना चाहिए , यह बच्चों की समझाना थोड़ा मुश्किल है ।क्योंकि वर्तमान में मोबाइल जीवन का अहम हिस्सा बन चुका है फिर भी बच्चों को जागरूक करना हमारा कर्तव्य है ।इस दृष्टि से बहुत अच्छी सीख देती रचना है । 
 । इस तरह करीब-करीब हर विषय को समेटते हुए आपने रचनाएं लिखी है । 

‘ प्यारी माँ ‘ रचना में छोटे बच्चे के मुँह से आभार जैसे भारी शब्द कहलवाए हैं , जो कि सामान्यत: मुमकिन नहीं है । कहीं कहीं टंकन त्रुटि है व कुछ शब्द बच्चों के हिसाब से कठिन हैं । जिन्हें याद रखना या उच्चारण करना मुश्किल हो सकता है । 
कुछ कविताओं में लाइक , रील , इंस्टाग्राम, सेल्फी इत्यादि का उल्लेख बच्चों को वर्तमान से जोड़ता हैं। जैसे - 

आठ सेल्फी दस तस्वीरें
चला सालभर नाटक । 
एवं 
मैं हूँ बिल्ली चतुर सयानी 
डी पी में लगती हूँ रानी।
रील बना  मैंने जोडी 
अभी इंस्टाग्राम पर छोड़ी 
लाइक बिना है जग सूना 
केअर करो जी 
जल्दी जल्दी शेयर करो जी । 

 कुल मिलाकर यह पुस्तक कविता रूपी सुंदर फूलों का गुलदस्ता है । इसमें हर उम्र के बच्चों के लिए कविताएँ हैं । इन कविताओं में अंग्रेज़ी के कुछ  शब्दों का प्रयोग है ,पर हमारे विचार से ये ऐसे शब्द हैं , जिन्हें हिन्दी भाषा ने अपने आप में आत्मसात् कर लिया है , जैसे - फीवर , लीवर , थर्मामीटर आदि । 
पुस्तक के कवर पृष्ठ की बात करें तो बहुत आकर्षक नहीं है । रंग संयोजन व मुखपृष्ठ पर बना चित्र बच्चों को आकर्षित करने वाला नहीं लगा , लेकिन ये लेखक की अपनी पसंद है ।
बच्चों व अभिभावकों में लोकप्रिय यह कविताएँ कुल मिला बाल साहित्य में एक नया मुकाम हासिल करेंगी । इसमें कोई संदेह नहीं कि, मनोज कुमार जी ने पहली पुस्तक के साथ धमाकेदार पदार्पण किया है । आप बहुत अच्छे, स्थापित गीतकार हैं, शीघ्र ही बच्चों के लिए तुकांत, लयबद्ध कविताओं के दूसरे संग्रह से बाल जगत को लाभान्वित करेंगे । आपको भविष्य के लिए बहुत-बहुत शुभकामनाएँ व बधाई । 
शेफालिका श्रीवास्तव 
HIG- 657 , अरविंद विहार 
बागमुगलिया , भोपाल

बुधवार, 13 अगस्त 2025

कृति चर्चा में आज "बच्चे होते फूल से" समीक्षक आ.गोकुल सोनी जी


बच्चे होते फूल से (बालगीत संग्रह)
गीतकार~ श्री मनोज जैन मधुर
प्रकाशक~ विचार प्रकाशन ग्वालियर
पृष्ठ संख्या~ 104
मूल्य~ ₹.200/~

भारत में बाल साहित्य का इतिहास सब देशों से अधिक पुराना है। लगभग 338 ईसा पूर्व आचार्य विष्णु गुप्त ने बाल कहानियों के माध्यम से एक राजा के चार बिगड़ैल, गैर जिम्मेदार और लापरवाह राजकुमारों को जिम्मेदार और भविष्य के लिए अच्छे शासकों के रूप में ढाला। उनके द्वारा लिखे गए पंचतंत्र और हितोपदेश आज भी बाल साहित्य की सर्वश्रेष्ठ कृतियां मानी जाती हैं जिनपर कई सीरियल और फिल्में भी बन चुके हैं। 
     अन्य देशों की बात की जाए तो ऐसे देश जहां बच्चों को बहुत प्यार किया जाता है और बाल साहित्य बहुत जिम्मेदारी से लिखा जाता है तथा लोग लिखना और पढ़ना पसंद करते हैं, उनमें प्रमुखत: यूनाइटेड किंगडम, संयुक्त राज्य अमेरिका, स्कैंडिनेविया, चीन, स्पेन, और जर्मनी के अलावा, रूस, इटली, पोलैंड, दक्षिण अफ्रीका, फिनलैंड, ब्राजील, बेल्जियम, जापान, कनाडा और दक्षिण कोरिया जैसे देशों का भी नाम लिया जा सकता है। इन देशों में भी बाल साहित्य लोकप्रिय है।
    यूनाइटेड किंगडम में 19वीं सदी में लुईस कैरोल की 'ऐलिस इन वंडरलैंड' और 20वीं सदी में कला और शिल्प आंदोलन के साथ बच्चों की किताबों का एक नया युग शुरू हुआ जबकि स्वीडन, डेनमार्क में अठारहवीं सदी से ही बाल साहित्य प्रकाशित होने लगा था। जे के रोलिंग द्वारा बच्चों के लिए लिखी गई हैरी पॉटर सीरीज ने तो बिक्री के सारे रिकॉर्ड तोड़ दिए। इससे बल साहित्य की लोकप्रियता का आकलन सहज ही हो जाता है।
     भारत में बड़े बड़े साहित्यकारों ने भी बाल साहित्य को अनिवार्य मानते हुए अपनी कलम चलाई। मृदुला गर्ग, हरिकृष्ण देवसरे, रामवृक्ष बेनीपुरी, जैनेन्द्र यहां तक कि प्रेमचंद ने भी बच्चों को गुल्ली डंडा कहानी लिखकर बाल साहित्य के महत्व को स्वीकार किया।
     दरअसल बाल साहित्य बच्चों के मन मस्तिष्क में नैतिक सिद्धानों यथा सत्य संभाषण, बड़ों के प्रति आदर, दया, करुणा, ममत्व जैसे सिद्धांतों के बीजारोपण करने का सबसे सशक्त माध्यम है साथ ही यह सात्विक मनोरंजन भी है। 
      गीत विधा और बाल मनोविज्ञान जब एक साथ मिलते हैं तो बहुत सुंदर गेय बाल गीतों का सृजन होता है जो बच्चों की जुबान पर आसानी से चढ़ जाते हैं और जब इतने सुंदर गीत पढ़ने में आते हैं तो बच्चे क्या, बड़े भी अपने आप को गुनगुनाने से नहीं रोक पाते। देश के सुप्रसिद्ध गीतकार मनोज जैन मधुर ऐसे ही प्यारे गीतों का गुलदस्ता "बच्चे होते फूल से" के नाम से लेकर आए हैं जिसमें 43 बाल कविता पुष्प हैं जिनके विभिन्न रंग बड़े सलोने और मोहक हैं। 
     पहेलियां सदैव सभी को लुभाती हैं, खास तौर पर बच्चों को तो बहुत ही प्रिय होती हैं। पहेलियों से पुस्तक का आरंभ बताता है कि मनोज जी बाल मनोविज्ञान के अच्छे ज्ञाता हैं। इन पांच पहेलियों का उद्देश्य क्रमशः भारत, भोपाल, इंद्रधनुष, तिरंगा, और नदी की विशेषताओं से बच्चों का परिचय कराना है। शीर्षक गीत बच्चे होते फूल से भी सुंदर कविता है।

बच्चे होते फूल से 
आंख दिखाओ मुरझा जाते 
प्यार करो खिल जाते हैं 
मन के सारे भेद बुलाकर 
आपस में मिल जाते हैं 
मन होता है इनका कोमल 
इन्हें न डांटो भूल से बच्चे होते फूल से

मातादीन कविता दस तक गिनती सिखाती मनोरंजक कविता है जो

एक गांव में घर दो तीन
आकर ठहरे मातादीन
इनने पाले घोड़े चार
घूम लिया पूरा संसार

से आरंभ होकर मनोरंजक तरीके से दस तक पहुंचती है। इसी तरह जादूगर कविता भी चार का पहाड़ा खेल खेल में याद करा देती है। गिलहरी भी बहुत प्यारी कविता है। कविता "दिल्ली पुस्तक मेला" लाक्षणिक शैली में लिखी अदभुत कविता है जिसका प्रत्यक्ष उद्देश्य बच्चों को जानवरों के नामों और गुणों से परिचित कराना है परंतु बड़ी उम्र के साहित्यकार पाठकों को दिल्ली पुस्तक मेले की विषमताओं से परिचित कराना है। गजब का व्यंग्य है यह। लोरी आदि काल से नन्हें बच्चों को सुलाने के लिए माताएं गाती रही हैं। लोरी में अद्भुत मिठास और गेयता होती है। आजकल लोरियां बहुत कम लिखी जा रही हैं, परंतु  मनोज जी ने पांच लोरी गीत लिखकर इस बाल गीत को संपूर्णता प्रदान करने का प्रयास किया है। 

चंदा मामा आ जाना 
परियों को संग में लाना 
तब मुन्ना सो जाएगा 
सपनों में खो जाएगा 
आ जाना भाई आ जाना 
चंदा मामा आ जाना

     वह बाल कविता संग्रह ही क्या जिसमें चूहे बिल्ली पर कविता न हो। प्रत्येक परिवार के सदस्यों की तरह ही होते हैं ये। बच्चों के आमोद प्रमोद के केंद्र।
"चूहों के सरदार ने"  कविता इनपर बहुत मनोरम कविता है।

घर पर मीटिंग रखी अचानक 
चूहों के सरदार ने
सुनो साथियों क्या तुमने भी 
खबर पढ़ी अखबार में 
चाहे हज से लौटे बिल्ली 
या फिर तीरथ धाम से 
कितनी बार नमाज़ पढ़े या 
जुड़ी रहे वह राम से 
माना कंठी माला इसमें 
अभी गले में डाली है 
सुनो गौर से इसकी फितरत 
नहीं बदलने वाली है

कविताओं का सलौनापन देखिए कि कहीं भालू जी पॉली क्लीनिक चला रहे हैं, तो कहीं नौ सौ चूहे खाकर बिल्ली हज को जा रही है। कहीं जिराफ अपना परिचय खुद दे रहा है, तो कहीं ठंड से थरथर कांपता बंदर स्वेटर बनवाने के लिए भेड़ से ऊन मांग रहा है। चिड़ियाघर के तो ठाठ ही निराले हैं जहां
 
ताड़ासन में खड़ा हुआ है था 
मोटा काला हाथी 
अलग अलग आसन में बैठे 
देख हजारों साथी 
एक टांग पर खड़े हुए थे 
बकुल बने थे योगी 
भगवा पहने शेर महाशय 
बने हुए थे योगी 
प्राणायाम किया बकरी ने 
सबके मन को भाए
गोरिल्ला ने लटक डाल पर 
करतब नए दिखाए 

इस बाल कविता संग्रह में मात्र जानवरों पर ही कविताएं नहीं हैं वरन बच्चों को आत्मीय रिश्तों का महत्व समझाती कविताएं हैं। पापा, दादा, मम्मी, बुआ, नाना आदि के प्रति बच्चों के स्नेह की अभिव्यक्ति हैं ये कविताएं। बोध कथाएं, ईश वंदना, हमारा देश, मोबाइल, पानी अनमोल, होली जैसे कई विषयों को समेटने से संग्रह बहुउद्देशीय बन गया है और ऐसी जानकारियां देता चलता है जो बच्चों के व्यक्तित्व के समग्र विकास हेतु परमावश्यक होती हैं।  
     संग्रह बहुत सुंदर, पठनीय और बच्चों को बेहद पसंद आनेवाला है परंतु पॉलि क्लिनिक, परिश्रावक, अशेष, सर्वस्व, स्वमेव, अखिलविश्व, आराधक, आलोचक जैसे कठिन शब्द छोटे बच्चों की पुस्तकों में लिखने से बचा जा सके तो अच्छा है। 
सुंदर बाल कविता संग्रह हेतु मनोज भाई को हार्दिक बधाई। 

गोकुल सोनी
(कवि, कथाकार, व्यंग्यकार)
भोपाल मो. 7000855409

मंगलवार, 12 अगस्त 2025

समीक्षा : बच्चे होते फूल से प्रभुदयाल श्रीवास्तव


अपने समय के प्रमुख बाल साहित्यकार आदरणीय प्रभु दयाल श्रीवास्तव जी ने बच्चों के लिए मेरे द्वारा लिखी गई मेरी पहली कृति बच्चे होते फूल से की सविस्तार समीक्षा की है जिसे मैं जस की तस अपने पाठकों तक पहुँचा रहा हूँ।
           आभार व्यक्त करता हूँ प्रभु दयाल श्रीवास्तव जी का जिन्होंने अपने व्यस्ततम समय में से अनमोल पलों को चुराकर सँग्रह पढा और पढ़कर मुझे आशीर्वाद भी दिया।
  आप भी पढ़कर देखिएगा।
सादर
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बच्चे होते फूल से 
                                नवगीत और गीतों में महारत हासिल श्री मनोज जैन मधुर जी ने “बच्चे होते फूल से” शीर्षक से लिखा बाल गीतों का संग्रह मुझे प्रेषित किया है, दो शब्द लिखने के लिए। विचार प्रकाशन ग्वालियर से प्रकाशित यह संग्रह ४३ बाल कविताओं से सजा हुआ सुन्दर सा गुलदस्ता है। शुभ कामना सन्देश में साहित्य अकादमी के निदेशक डॉ विकास दवे ने लिखा है कि लेखन जब बाल मन के स्तर  पर जाकर लिखा जाता है तो बच्चे उसका स्वागत करते हैं।
बाल कल्याण एवं साहित्य शोध केंद्र भोपाल के निदेशक श्री महेश सक्सेना ने लिखा है ”बाल कविता, लोरी, प्रभाती पहेली बोधकथा की इंद्रा धनुषी छटा का संग्रह “बच्चे होते फूल से” बहुत विनम्र निश्छल, आत्मीय, कर्मठ स्वभाव के श्री  मनोज जैन मधुर का व्यक्तित्व मनोज सा ही आकर्षक है और स्वभाव भी उनके उपनाम मधुर जैसा ही है।
          मेरा मत है कि अच्छा बाल साहित्य लिखने के लिए लेखक का मन बच्चों जैसा भोला भाला होना चाहिए। भोले मन की कलम से निसृत भोली कवितायेँ/बाल गीत निश्चित बच्चों के मन में उतरकर उन कविताओं और गीतों का दीवाना बना देंती हैं। डॉ परशुराम शुक्ल,घनश्याम मैथिल के अतिरिक्त अन्य पाँच मनीषियों ने भी संग्रह पर अपना मंतव्य व्यक्त किया है।
                 मनोज जी के साथ विशेष बात यह है कि वे एक सिद्ध हस्त गीतकार हैं और बाल कवितायेँ /बाल गीत मनोज जी की की कलम से झरें तो फिर क्या बात है। मनोरंजन, मौज मस्ती, हो हल्ला धूम-धडाका और बच्चों की बेताज बादशाही अहसास जिसने अपनी बाल कविताओं में शामिल कर लिया समझो वह सफल बाल साहित्य कार हो गया। रचना पढ़ते ही बच्चे का चेहरा खिल उठे ओंठों पर मुस्कान खेलने लगे और वह  कविता गीत अथवा कहानी बार- बार पढने को उत्सुक होने लगे तो फिर क्या कहने। मनोज जी इस पर खरे उतरते दिखाई देते हैं। यह कहीं से भी नहीं लगता कि यह संग्रह उनका पहला बाल कविताओं/गीतों का संग्रह है। छंद लय प्रतिबिम्ब सबमें पूरी पक्की रचनाएँ, बचपन में बार-बार लौटते हुए हर रचना को रचा गया होगा ऐसा प्रतीत होता है। बच्चों के निश्छल स्वभाव और उनकी भोली भाव भंगिमा पर ये पंक्तियाँ कितनी सटीक लगती हैं “आँख दिखाओ मुरझा जाते,प्यार करो खिल जाते हैं। मन के सारे  भेद भुलाकर,आपस  में मिल जाते हैं। मन होता है इनका कोमल,इन्हें न डांटो भूल से। बच्चे होते फूल से। तन मन से कोमल बच्चे फूल सरीखे ही तो होते हैं। यह गीत अपने शीर्षक होने को लेकर कितना प्रसन्न होगा यह तो शीर्षक ही जानता  होगा। पंछियों को पानी पिलाना,चिड़ियों चीटियों को दाना/आटा डालना हमारे संस्कार हैं  और यह बात “सबके मंगल से जीवन में” बड़े सरल सहज ढंग से कही गई है यथा – रोज सकोरों में भरता है ,खट्टर उठकर पानी। और बाँध रखा गट्ठर में अपने ,पूरा एक खजाना ,चींटी को आटा थोडा सा ,है चिड़ियों को दाना |
       पुस्तक पढ़ते हुए मातादीन कविता से दो चार हुआ ,एक से लेकर दस तक की गिनती बड़े मनोरंजक ढंग से परोसी गई है। नर्सरी- प्रवेशिका के बच्चे इसे पढकर मजे से गाने लग जाएँगे, गिनती भी याद हो जाएगी।”गिनती गीत” भी इसी तरह की कविता है। ”जादूगर” कविता में तो चार का पहाडा ही बच्चों को रटा दिया है| उनके  के हाथ में किताब आये तो चार का पहाड़ा एक ही बैठक में याद कर डालें। गिनो कहीं से पूरी होती,थी बत्तीस गिलहरी। घोड़े थे छतीस तुर्क के जिनकी पूंछ सुनहरी |चार का पहाडा, अट्ठे- बत्तीस नामें- छत्तीस को बड़े मनोरंजक तरीके से बच्चों के सामने कवि ने रख दिया है। “दिल्ली पुस्तक मेला” आज के चाटुकार साहित्यकारों का मनो चित्रण है असली नकली पर कवि  का तंज “हंस चुगेगा दाना चुनका  कौआ  मोती खायेगा” मन में गूँजने लगा। पशु पक्षियों का मानवीकरण करके बहुत ही अनोखे और व्यंगात्मक ढंग से पुस्तक मेले का आज के सन्दर्भ में चित्रण किया गया है, बहुत ही मजेदार है।  डेढ़ दिमाग लगाकर बोली,किसको दिल्ली जाना। मिसफिट कोयल इस महफ़िल में,फिट है कौआ काना। हंसराज जी यहीं रहेंगे,भले गिद्ध को ले लो। आलोचक तुम बैठे-बैठे,पुस्तक-पुस्तक खेलो।पुस्तक मेलों में चापलूस नकली लेखकों का बाज़ार ही तो लगता है। लेखक की चिंता वाजिब है। पाँच छोटे-छोटे सुंदर से लोरी गीत भी हैं। ये गीत थोड़े बड़े होते तो अच्छा रहता। आजकल लोरी विधा आँखों से ओझल हो रही है। आज की दादी नानियाँ भी लोरियों से अनजान होती जा रहीं हैं। मोबाईल नामक झुनझुना लोरियों का स्थान ले रहा है |रचनाकारों को लोरियों पर काम करना होगा और शिशुओं -बच्चों की माताओं, दादियों, नानियों तक ये कैसे पहुंचे इस पर भी विचार करना होगा।
         “पलकों पर बैठाओ पापा“ बच्चों द्वारा बड़ों के लिए सीख है। बच्चे अक्सर अपने दादा दादी के लाडले होते हैं। कहते हैं न कि बच्चे मूलधन होते हैं और पोते पोतियाँ ब्याज।और मूलधन से ब्याज को अधिक प्यारा कहा जाता है। लेकिन आज की भाग दौड़ भरी जिन्दगी और नैतिक पतन की ओर जाते समाज में माता पिता अब उनके बच्चों को बोझ लगने लगे हैं और इसकी परिणिति वृद्धाश्रम होने लगी है। 
      बच्चा पापा से कह रहा है-दादू हैं पर्याय ख़ुशी के ,दादी अपनी रानी है। हम बच्चों को उनसे मिलती, हरदम सीख सयानी है। हैं अपने भगवान् उन्हें तुम,पलकों पर बैठाओ पापा।आखिर दादा दादी भगवान ही तो होते हैं और भगवानों की अवहेलना ! “एक बोध कथा का भावानुवाद”संकल्प से सिद्धि का दस्तावेज है।   झुकती है संकल्प शक्ति के,सम्मुख दुनिया सारी। वह होते आदर्श जिन्होंने, हिम्मत कभी न हारी।कविता में तोतों के माध्यम से रचनाकार ने सीख दी है। दृढ़ इच्छा शक्ति हो,परिश्रम किया जाये तो सफलता मिलती ही है। मित्रता में परस्पर व्यवहार ही काम आता है। स्वार्थी होती मित्रता फिर मित्रता नहीं रहती। “जाओ स्वेटर लेकर आओ” कविता भी ऐसी ही है। बन्दर ऊन मांगने भेड़ के यहाँ जाता है लेकिन भेड़ का जबाब -बन्दर भाई भूल गये क्या, दया न हमसे मांगों। मांगे जामुन तब तुम बोले,चलो यहाँ से भागो।एक तरफा दोस्ती का अंजाम ये ही होता है। ”मेट्रो पकड़ी चिड़िया घर की”,”विटामिन डी” भी मनोरंजक कवितायेँ हैं। ”बूझ रहा हूँ एक पहेली में” हाथी के डील-डौल, रंग रूप, स्वभाव इत्यादि बताते हुए अंत में एक खाली स्थान छोडकर पहेली का रूप बना दिया है, ठीक है बच्चे मनोरंजन और ज्ञानार्जन भी हो जायेगा। ”प्यारे बच्चो जागो” में समय का महत्व बताया गया है यथा - भाग रहा समय निरंतर इसकी गति से भागो। मुर्गा बांग लगाकर कहता,उठकर आलस त्यागो। सरल शब्दों में लिखा गया अच्छा बाल गीत। ”यह डलिया है उड़ने वाली” भी एक मजेदार बाल गीत है।  दूर गगन की सैर कराती,दुनिया भर से जुड़ने वाली।  यह डलिया है उड़ने वाली। बच्चों को खूब मजा आएगा इसे पढकर। एक बाल गीत “बैठें उड़न खटोले में” भी मन भावन गीत है। बच्चों को पसंद आएगा मनोरजन तो है ही एक सीख भी छुपी है।” हँसी ठिठोली में जो सुख है,क्या है वह अनबोले में”
सरल शब्दों में बड़ी बात। आज ऐसी रचनाओं की ही आवश्यकता है। “दाने लाल अनार के”अनार के रूप रंग, गुण और उसके उपयोग पर रचा गया सुंदर सा बाल गीत है। बच्चों को बहुत पसंद आएगा। ऐसे बाल गीत बच्चों तक स्कूली पाठ्यक्रम के माध्यम तक पहुंचें तो अच्छा हो। “बाकी सभी रचनाएँ मजेदार बच्चों के मन के अनुरूप हैं मजेदार है और मनोरंजक हैं। 
कई जगह वर्तनी की त्रुटियाँ हैं,अगले  संस्करण में सुधार जा सकता है। बहुत बड़े बाल गीत या बड़ी कवितायेँ बच्चों के लिए बोझिल होने लगते हैं लेकिन ये रचनाएँ मनोरंजक हैं तो निश्चित ही बच्चों को पसंद आएँगी। मनोज जैन मधुर जी को बधाई | 
             प्रभुदयाल श्रीवास्तव   
            १२ शिवम् सुन्दरम नगर छिंदवाडा 
            07 july 2025

रविवार, 3 अगस्त 2025

कृति चर्चा समीक्षा सुनीता यादव जी

कृति चर्चा में आज "बच्चे होते फूल से" का मूल्यांकन समीक्षक Sunita Yadav जी 
कृतिकार मनोज जैन 

निराला सृजन पीठ के पुस्तक लोकार्पण और पाठ कार्यक्रम में सुनीता यादव जी ने कृति की समीक्षा में जिस सूक्ष्मता, गहराई और संतुलन का समावेश है, वह अत्यंत सराहनीय है। 
    उन्होंने न केवल कृति के विषय-वस्तु को गहनता से समझा है, बल्कि उसकी आत्मा को भी शब्दों में बड़ी सहजता से बाँधा है। उनके विश्लेषण में भाषा की शुद्धता, दृष्टि- कोण की स्पष्टता और आलोचना की विनम्रता,तीनों का सुंदर संतुलन देखने को मिलता है।  
         सुनीता यादव जी की यह प्रस्तुति पाठकों को कृति की ओर आकृष्ट करने वाली है और रचनाकार यानि स्वयं मेरे के श्रम को सार्थकता प्रदान करती है।

       बड़े आदर के साथ उनके द्वारा की गई समीक्षा पाठकों के लिए साभार प्रस्तुत है।
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सारतत्व
कृति - बच्चे होते फूल से
कृतिकार - श्री मनोज जैन 'मधुर'
प्रकाशक - विचार प्रकाशन (ग्वालियर)
2007
समर्पण
बाल कल्याण एवं बाल साहित्य शोध केन्द्र भोपाल।

कहते हैं न कि - "सरल लिखना कठिन है, सरल दिखना व होना और कठिन, पर कठिन लिखना आसान होता है। बाल साहित्य लेखन कठिन से सरल की ओर लिखना है।

बाल साहित्य तीन आयामों पर लिखा जाता है, एक यह कि रचनाकार स्वयं बालक बनकर बच्चों की बातें लिखते हैं, जिसे परकाया प्रवेश कहते हैं।

दूसरा, जब रचनाकार अपनी बाल्यावस्था का वर्णन लिखता है, तो संस्मरण के रूप में बाल साहित्य लिखता है। तीसरा है - किसी अन्य का बचपन अपनी भाषा में लिखना।

वास्तव में बाल साहित्य बचपन का प्रतिरूप ही है, जीवन की सबसे मीठी व सरल अवस्था। बच्चा हर काल में बच्चा रहा है और रहेगा। बचपन को चाहिए उसका अपना स्वर, अपना भावबोध, अपनी उत्फुल्ल चंचल अनुभूतियाँ, अपना वास्तविक और काल्पनिक विराट संसार। बाल साहित्य की रचनाएँ एक जीवंत बच्चा हैं, जो कभी चुलबुला, कभी हठीला, कभी प्रश्नातुर तो कभी जिज्ञासु दिखाई देता है। हर बार स्थना में एक अलग रंग, एक अलग छवि।

वरिष्ठ गीतकार मनोज जैन 'मधुर' जी की कृति "बच्चे होते फूल से" मधुरिम सुबास लिए बाल साहित्य में प्रतिष्ठित होने जा रही है। तिरतालीस फूलों का यह गुलदस्ता अनेक रंगों के फूलों से सजा है। पाँच बाल पहेलियों व प्रतिनिधि रचना "बच्चे होते फूल से" उड़कर भीनी-भीनी खुशबू, मतादीन, गिनती गीत, प्यारी माँ, पाँच लोरी गीत, पलकों पर बैठाओ पापा, बूझ रहा हूँ एक पहेली से बाल मनोभाव लेकर बोलूँ मीठी वाणी तक पहुँचते हुए शुद्ध बाल कविताएँ रहती हैं। पहेलियों में भारत, भोपाल, इंद्रधनुष व तिरंगा पर गीतात्मक प्रश्न हैं, जो बच्चों में रोचकता व जिज्ञासा बढ़ाते हैं। मतादीन व गिनती गीत, अंक ज्ञान करवाने के उत्कृष्ट उदाहरण हैं।

बोल मेरे मुन्ना एक दो तीन, नहीं किसी के हक को छीन लोरी गीत में ना रे निन ना रो ना न ना का प्रयोग लय को साधने का अनूठा प्रयोग है।

आज बचपन एकाकी और पुस्तकों के बोझ से लदा-लदा लगता है। परिवार में बच्चों की संख्या कम होने से माता-पिता के साथ बच्चों के बीच दादा-दादी व मामा, बुआ, नाना-नानी, मौसी, चाचा, चाची का साथ होना भी अतिआवश्यक है। इसी बानगी की कुछ रचनाएँ मनोज जी के इस बाल संग्रह में हैं। पलकों पर बैठाओ पापा में एक बच्चा दादा-दादी का सान्निध्य पाने की मनुहार कर रहा है। बहन और भाई के बीच मम्मी मम्मी। सुम्मी आई जैसी रचना गहन प्रेम व प्रगाढ़ आत्मीयता की प्रतीक है, जहाँ सकोरे में पानी, पक्षियों को दाना खाते हुए देख नाना नाचने लगते हैं, वहीं जब घर में बड़ी बुआ आती है तो मालपुआ बनता है।

घर आई है बड़ी बुआ
आज बनेगा मालपुआ।

बचपन में बच्चों को रिश्तों का ककहरा परिवार में सिखा देने से जब अक्षरों की वर्णमाला तैयार होती है और शब्दों से सम्मान व अपनापन फलीभूत होते हैं, तो सारे वृद्धाश्रम बौने हो जाते हैं। इसीलिए अपनेपन को बचाए रखने के संस्कार देती ये रचनाएँ बाल साहित्य में मील का पत्थर साबित होंगी।

बोली में मिठास, चित्त में देशभक्ति, पर्यावरण संरक्षण हेतु पौधे लगाना, पानी बचाना, अनारदाने का उपयोग, विटामिन-डी और सुबह की सैर सिखाती रचनाएँ बच्चों के मानसिक व शारीरिक स्वास्थ्य के लिए अनूठे शिल्प में गढ़ी गई हैं, इनमें से कुछ तो बच्चों के पाठ्यक्रम में भी होनी ही चाहिए। हमारा प्यारा भारत देश बोधकथा का भावानुवाद अनूठे शिल्प में है, जो बच्चों को किस्सागो की तरह सुनाई जा सकती है। कुछ बच्चे कविता से जल्दी सीखते हैं, कुछ बच्चे कहानी से तो कुछ किस्सागोई से। बस बात रोचकता लिए होनी चाहिए, जो मनोज जी की रचनाओं में है। बच्चों को व्यंग्य से कोई लेना-देना नहीं है, उन्हें तो बस हास्य समझ आता है, जो मेट्रो पकड़ी चिड़ियाघर की रचना में भरपूर है।

जब घर पूरे का पूरा मोबाइल ज़ोन बन जाए, तब एक बाल साहित्यकार को लिखना ही चाहिए मोबाइल से दूरी। बच्चों के ही नहीं, माता-पिता को भी बनानी पड़ेगी।

बच्चे जब कल्पना में विचरते हैं, तब जादूगर और यह डलिया है उड़ने वाली जैसी रचनाएँ ज्ञान चक्षु को परत दर परत खोलती हैं, सिखाती हैं और बच्चों को जिज्ञासु बनाती हैं।

बाल रचना-लेखन में यदि जीव-जन्तु हों और उनका रचनाओं में वर्णन हो, तो बच्चों को पढ़ने में व समझने में सरलता रहती है। कृति की कुछ रचनाओं में बंदर-बंदरिया, जिराफ, हाथी, हिरण, चूहे, कौआ, गिलहरी व बिल्ली भी कुदाछें लेते हैं।

पुस्तक में - बाल साहित्य की रचना शैली का निर्वहन तो हुआ है, पर कुछ जगह व्याकरण छूटा-सा लगता है।

हँसती को हंसती, रंगीला को रंगीला संग संग अनुस्वार में विभेद अस्पष्ट है।

परिश्रावक का शब्द प्रयोग अच्छा है, पर उसी पंक्ति में नीचे थर्मामीटर को तापमापी लिखा जा सकता है।

चूना नहीं लगाना रचना में तम्बाकू, गुटखा का प्रयोग बताना और ग्राहक मनुहार करना, और फिर पान खिलाना फिर टालना न होकर बिना पान मसाला दिए ही टालना था कि पान-मसाला बच्चों के साथ-साथ बड़ों को भी नहीं खाना चाहिए।

दो गज दूरी बहुत जरूरी है - पर चार पंक्ति की यह रचना पूरे दो पृष्ठ पर पसरी है। और हम पर्यावरण व कागज़ बचाने की बात करते हैं।

होली में "बोलो जी मेरे हमजोली", चूनर रंग दूँ रंग दूँ चोली एवं दिल्ली पुस्तक मेला कविता में प्रकाशक, लेखक व आलोचक से बच्चों का क्या लेना-देना - मेला ही घुमाना था, तो झूले व खिलौनों के गीत लिख देते। ये रचनाएँ तो लेखक के व्यंग्य गीत हैं।

पुस्तक के २५ पृष्ठ तक केवल पुरोवाक व शुभकामनाएँ हैं, जो लेखन को प्रोत्साहित तो करती ही हैं, पर अन्य बाल रचनाओं की जगह का अतिक्रमण कर लेती हैं।

नौ सौ चूहे खाकर रचना में बिल्ली का हज यात्रा के बाद बिल्ले का व्यंग्य करना बच्चों में चिढ़ाने व मज़ाक उड़ाने वाली आदतों को बढ़ावा देना जैसा ही है। यह रचना किसी और संदर्भ को लेकर लिखी जा सकती है, जिसमें हज यात्रा को न जोड़ा जाए।

अस्तु, फूल से मुस्काते बच्चों के लिए यह बालगीत संग्रह पठनीय व संग्रहणीय है। आदरणीय मनोज जी को कुछ संशोधन के साथ आगामी बाल कविताओं के प्रकाशन हेतु बहुत-बहुत बधाई, शुभकामनाएँ।

शेष शुभ
पुस्तक पर एक दृष्टि
शिक्षक
श्रीमती सुनीता यादव
रचनाकार
03/08/25

बुधवार, 30 जुलाई 2025

समीक्षा : बच्चे होते फूल से मधुश्री के द्वारा


बाल साहित्य रचना संसार में एक अनूठा प्रयोग...

 'बच्चे होते फूल से' श्री मनोज जैन  'मधुर' जी द्वारा  रचित  हाल ही में प्रकाशित कविता संग्रह को पढ़ कर ऐसा अनुभव हुआ कि बाल साहित्य प्रेमी बच्चों के लिए यह पुस्तक अत्यंत रोचक और अनूठा उपहार है l
मनोज जी एक संवेदनशील एवं सिद्धहस्त कवि हैं ये उनके पिछले दो नवगीत संग्रह ' एक बूंद हम ' और 
'धूप भर कर मुट्ठियों में ' को पढ़ कर पाठक वर्ग को समझ आ गया था और अब बच्चों के लिए सुन्दर कविताओं का संसार रच कर उन्होंने आज के बच्चे और  आने वाले कल की युवा पीढ़ी के लिए प्रेरक और बाल मनोवैज्ञानिक मनोभावों को शब्द रूप देकर साहित्य को और अधिक समृद्ध किया है l आज इस यांत्रिकी युग में बच्चे अपना सहज भोलापन खोते जा रहे हैं l मोबाइल आदि के कृत्रिम और नाटकीय मनोरंजन में डूब कर वे अपनी निजता के साथ खिलवाड़ कर रहे हैं जिसका उन्हें तनिक भी एहसास नहीं है इसमे थोड़ा बहुत दोष उनके ioमाता पिता का भी है l बच्चों को पढ़ने के लिए अच्छी सामग्री जुटाना ,उनका सही मार्गदर्शन करना ये साहित्य और समाज दोनों का उत्तरदायित्व है l
इसके लिए मनोज जी का कवि धर्म प्रशंसा का पात्र है l उन्होंने बच्चों के लिए सामयिक विषयों पर रोचक और ज्ञानवर्धक कविताएं रची हैं उस पुस्तक का नाम है ' बच्चे होते फूल से ' l
सभी कविताएं अपने विषय की मौलिकता में परिपूर्ण हैं l
आज बच्चे अपनी संस्कृति और संस्कारों को भूलते जारहे हैं और संस्कारों के इस संक्रमण काल में ऐसी पुस्तक का आना शुभ संकेत और शुभ पहल है l
पाँच पहेलियों के माध्यम से बच्चों को मर्यादा और पर्यावरण संरक्षण का पाठ पढ़ाना बहुत अच्छा प्रयोग है..
' मर्यादा का पाठ पढ़ाया 
जहाँ राम ने आकर....
बच्चों अब तो हमें बतादो 
कौन हमारा देश है ' ( भारत)
सभी पहेलियां बहुत रोचक ढंग से पूछी गई हैं जो कि मनोरंजक  होने के साथ- साथ ज्ञानवर्धक भी हैं l
 'मातादीन ' कविता के माध्यम से बच्चों को गिनती सिखाना एक प्रशंसनीय रचना कर्म है..
' एक गाँव में घर 'दो'- 'तीन '
आ कर ठहरे मातादीन l
इनने पाले घोड़े चार 
घूम लिया पूरा संसार...'
मनोरंजन के साथ नैतिकता के पाठ के बहाने गिनती और 8पहाड़ों का प्रयोग अद्भुत है एक बानगी......(गिनती गीत)

बात पते की,
मुन्ने सुन l
जो सीखा है,
उसको गुन l

बोल मेरे मुन्ने,
एक दो तीन l
नहीं किसी के,
हक़ को छीन l

बोल मेरे लल्ला,
चार-पाँच-छह l
सुख-दुख अपनी 
माँ से कह l......

(जादूगर)

जादूगर आया बस्ती में 
अपना,
खेल दिखाने l
भालू -बंदर कुत्ता- बिल्ली ,
'चार' नेवले पाले l
'आठ'-कबूतर,'बारह'-'मुर्गे,
' सोलह '-चूहे काले l......
 
'प्यारी माँ ' कविता में अपनी माँ के प्रति आदर
और अनुग्रह भाव का मर्म  बच्चों  को मधुर अनुभूति प्रदान करेगा l
 'दिल्ली पुस्तक मेला '  कविता में आज के परिवेश में  पुस्तक मेले का महत्व बताना और उसकी प्रासंगिकता को व्यंगात्मक लहजे में (जो कि मनोज जी की खूबी है) प्रस्तुत करना कविता को अधिक मनोरंजक और विशेष बनाता हैl 
पुस्तक में मीठे -मीठे लोरी गीत बच्चों के भोले हृदय में प्रेम की मिठास और वात्सल्य जनित संस्कार को सम्मान देने में सक्षम हैं l
'सैर सुबह की','पॉली क्लिनिक ','नौ सौ चूहे खाकर '
'चूना नहीं लगाना ' 'देश हमारा ' आदि सभी कविताएँ बाल मनोविज्ञान से अभिव्यंजित सरल, मनोरंजक और मुहावरों के माध्यम से ज्ञानवर्धन करने वालीं हैं l
बाल गीत संग्रह का शीर्षक ' बच्चे होते फूल से ' मानो कवि के कोमल- सम्वेदनशील हृदय का ही प्रतिबिंब है और उनकी रचनाएं इस शीर्षक को सार्थक करती हैं l
आपका यह बाल गीत संग्रह आज की और आने वाले कल की पीढ़ी के लिए एक अनुपम उपहार है lआशा है साहित्य जगत आपकी इस कृति का स्वागत करेगा और आपके द्वारा रचित इन कविताओं को पढ़ कर बच्चे खिलते रहेंगे और महकते रहेंगे मेरी हार्दिक शुभकामना है l

मधुश्री के.

सोमवार, 28 जुलाई 2025

समीक्षा : संजय सुजय बासल

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पुस्तक समीक्षा
“बच्चे होते फूल से”

आज के बहुचर्चित गीत एवं नवगीतकार, मेरे अनुज, साहित्य सृजन में मेरे मार्गदर्शक, और देश के प्रतिष्ठित गीत-नवगीत-बालगीत साहित्यकार आदरणीय मनोज जैन 'मधुर' जी की बहुप्रतीक्षित बालगीत कृति “बच्चे होते फूल से” डाक से प्राप्त हुई।

पुस्तक के हाथ में आते ही मनमोहक कवर पृष्ठ ने प्रथम दृष्टि में ही मन जीत लिया। सुन्दर पुष्पों के साथ दो बच्चों का वह चित्र—जैसे किसी नदी के घाट पर बैठकर जल तरंगों से अठखेलियाँ कर रहे हों—बाल मन को आकर्षित करता है।

मुखपृष्ठ के पश्चात लेखक, प्रकाशक व मुद्रक की जानकारी प्राप्त होती है। अगले पृष्ठ पर मनोज जी ने इस कृति में लगे मानसिक व शारीरिक परिश्रम को विख्यात बाल साहित्य कल्याण केंद्र को समर्पित किया है, जो उनके साहित्य के प्रति समर्पण और उदार मनोवृत्ति को दर्शाता है।

शुभकामना संदेश अनुभाग में आदरणीय डॉ. विकास दवे (निदेशक, साहित्य अकादमी, म.प्र. शासन), आदरणीय महेश सक्सेना (सचिव/निदेशक, बाल कल्याण एवं साहित्य शोध केंद्र, भोपाल), सुप्रसिद्ध बालगीतकार डॉ. परशुराम शुक्ल, सुनील चतुर्वेदी, घनश्याम मैथिल, डॉ. अभिजीत देशमुख (लेप्रोस्कोपिक सर्जन), मनोज जी के साहित्यिक मित्र श्री सुबोध श्रीवास्तव, रचनाकार कविता सक्सेना एवं कुँवर उदयसिंह ‘अनुज’ जैसे विद्वानों ने मनोज जी को इस नवप्रयोग पर अपनी हार्दिक शुभकामनाएँ दी हैं।

आत्मकथ्य में लेखक ने बाल साहित्य सृजन की अपनी यात्रा को अत्यंत आत्मीयता से साझा करते हुए अपने शुभचिंतकों के सहयोग और संबल के लिए आभार व्यक्त किया है।

इस कृति में कुल 103 कविताएँ संकलित हैं। प्रथम पृष्ठ पर पाँच बाल पहेलियाँ हैं—यह एक सराहनीय प्रयोग है जो बच्चों के जिज्ञासु मन को विशेष रूप से आकर्षित करता है।

शीर्षक कविता "बच्चे होते फूल से" बच्चों के कोमल स्वभाव, नटखटपन, ममता, दया और करुणा जैसे भावों को अत्यंत सरस ढंग से प्रस्तुत करती है।

तीसरी कविता में माली काका के माध्यम से पर्यावरण-संवेदनशीलता, पशु-पक्षियों के प्रति करुणा और हरियाली के महत्व को रेखांकित किया गया है।

"चंट चतुर लोमड़ी", "मातादीन", "गिनती गीत", "प्यारी माँ", "जादूगर", "मेरी प्यारी दोस्त गिलहरी", "दिल्ली पुस्तक मेला" सहित सभी कविताएँ रोचक, सरस और सुरुचिपूर्ण हैं।

"हमारा प्यारा देश भारत" कविता भारत की विविधता में एकता और उसकी महिमा को बहुत सुंदर रूप में चित्रित करती है।

लोरी गीत, चूहों के सरदार, सैर सुबह की, पॉली क्लिनिक, पलकों पर बैठाओ पापा जैसी रचनाएँ बच्चों की मानसिक दुनिया को स्पर्श करती हैं।

इन सभी कविताओं में बाल मनोविज्ञान, मनोरंजन और नैतिक संदेश का समन्वय है। कई कविताओं को पढ़ते हुए ऐसा अनुभव हुआ जैसे लेखक अपने बचपन की स्मृतियों में डूबकर उन्हें शब्द दे रहे हों।

यह आदरणीय मनोज जैन 'मधुर' जी की तीसरी कृति है। पूर्व की दोनों रचनाएँ भी गीत-नवगीत की श्रेष्ठ कृतियों में सम्मिलित रही हैं।

मैं मनोज जी को न केवल साहित्य के क्षेत्र में निकट से जानता हूँ, बल्कि उन्हें एक सच्चे साहित्य-साधक और पथ-प्रदर्शक के रूप में मानता हूँ। उनकी प्रतिभा, अनुशासन और साहित्य के प्रति समर्पण उन्हें आज देशभर में विशिष्ट स्थान दिला चुका है।

मैं उनके उज्जवल भविष्य की कामना करता हूँ और इस अद्भुत कृति के लिए उन्हें हार्दिक बधाई देता हूँ।

संजय सुजय बासल
बरेली, जिला रायसेन, मध्यप्रदेश
मो. 9617541519


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समीक्षा

कृति: बच्चे होते फूल से कृतिकार मनोज जैन  समीक्षक श्री अरविंद शर्मा जी



पुस्तक समीक्षा
बच्चे होते फूल से : एक गीतकार की कलम से निकलीं बालमन की कविताएँ

कोई बाल साहित्यकार गीतकार बने तो हम साहित्यिक जगत की व्यवस्था के आधार पर रचनाकार की प्रौढ़ता की यात्रा कह सकते हैं, लेकिन जब कोई गीतकार बाल साहित्य का सृजन करे तो हम उसे पूर्णता की प्राप्ति कहें तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। ऐसी ही पूर्णता की प्राप्ति का मार्ग प्रशस्त हुआ सदीय गीतकार मनोज जैन 'मधुर' जी का।

यह बात मैं इसलिए कह सकता हूँ कि मैंने साहित्यिक धरातल पर उन्हें गीतकार के रूप में ही जाना और सुना, लेकिन जब उनकी नवीन कृति ‘बच्चे होते फूल से’ मुझे प्राप्त हुई तो एक सकारात्मक अनुभूति हुई। यह अनुभूति इसलिए नहीं हुई कि मनोज जी एक ख्यात गीतकार हैं, बल्कि इसलिए हुई कि उन जैसे गीतकार ने बाल साहित्य को अपनी सृजनात्मक अभिव्यक्ति के लिए चुना।

बाल साहित्य के शुभचिंतक आदरणीय डॉ. विकास दवे जी ने अपने संदेश में कहा भी है—
“मनोज जी का मधुर भाव तो है ही, उस पर सोने पर सुहागा यह कि वे गीत रचना में भी सिद्धहस्त हैं।” (पृष्ठ 06)

एक बाल साहित्यकार होने के नाते मेरा व्यक्तिगत अनुभव है कि जब हम बच्चों के साहित्य का सृजन करते हैं तो हमें अपने अनुभवी होने, ज्ञानी होने और प्रकांड विद्वान होने के दंभ को सर्वदा त्यागना पड़ता है। हमें अपनी कल्पनाशीलता को कई गुना विस्तार देना पड़ता है और मनोज जी ने वाकई इसे सिद्ध किया है।

इसका सबसे बड़ा उदाहरण बाल साहित्य के प्रेरणास्रोत आदरणीय श्री महेश सक्सेना के उन विचारों से प्राप्त होता है, जिसमें उन्होंने कहा है—
‘बच्चे होते फूल से’ संग्रह की कविताओं को पढ़ने पर मुझे यकीन हुआ कि मनोज को बच्चों की मासूमियत, नज़ाकत, हिम्मत और कोमल मनोविज्ञान का पूरा ज्ञान है।”* (पृष्ठ 07)

इन्हीं सब मानदंडों को स्वीकारते हुए मैं मनोज जैन 'मधुर' जी की बाल कविताओं की कृति ‘बच्चे होते फूल से’ की पाठकीय समीक्षा कर रहा हूँ, जिसमें मैं सिर्फ उन्हीं बिन्दुओं को रेखांकित करूंगा जो मुझे एक पाठक होने के नाते प्रभावित कर पाये या नहीं कर पाये।

समीक्षा की दृष्टि से अवलोकन

प्रस्तावना और भाषा प्रयोग
बाल कल्याण एवं बाल साहित्य शोध केन्द्र को समर्पित ‘बच्चे होते फूल से’ में शुभकामना संदेशों और भूमिकाओं से ज्ञात होता है कि मनोज जी की कृति प्रकाशित होने से पूर्व ही बाल साहित्य के पुरोधाओं, साहित्य जगत के सशक्त स्तंभों और व्यावसायिक पृष्ठभूमि से आये साहित्य प्रेमियों की चहेती बन गई। इस प्रकार का शुभारंभ बाल साहित्य के लिए शुभ है और हमें आशा है कि मनोज जी की कलम से बाल साहित्य की विभिन्न विधाओं में भी नव सृजन होगा।

मनोज जी की कविताओं की बात करें तो आपकी रचनाओं को पढ़ने के बाद यही स्पष्ट होता है कि वो रचनाकार जो पहले गीतकार हो और उसके बाद बाल साहित्य की रचना करे—खासतौर से कविताओं की—तो उसमें लयात्मकता आना स्वाभाविक है।

मनोज जी की कविताओं में भी ऐसा ही हुआ। उन्होंने सिर्फ लय में लाने के लिए जानबूझ कर तुकांत शब्दों का प्रयोग नहीं किया, जैसा कि आमतौर पर बाल साहित्यकार अपने प्रारंभिक कविता लेखन में कर देते हैं, बल्कि कविताओं में ऐसे सार्थक शब्दों का प्रयोग किया गया जो बोलियों या अन्य भाषाओं के शब्द भी रहे। ये शब्द टाट में पैबंद की तरह नहीं, वरन् मलमल में गोटे की भांति अपनी भूमिका निभाते हैं।

जहाँ तक भाषा की बात है तो हिन्दी के अलावा बुन्देली और कहीं-कहीं अंग्रेज़ी का प्रयोग भी सफल रहा। इसका उल्लेख समीक्षक एवं गुणी साहित्यकार घनश्याम मैथिल 'अमृत' जी ने अपनी भूमिका में किया है, जैसे ‘स्टेथोस्कोप’ को ‘परिश्रावक यंत्र’, धूप को ‘घाम’। इसी प्रकार पहली रचना ‘पाँच पहेलियाँ’ में 'हेरे' शब्द का प्रयोग किया गया है, जो एक बुंदेली शब्द है। यहाँ ‘हेरे’ का अर्थ ‘देखे’ है—

“फहराया जाता हूँ नभ में
तीन रंग हैं मेरे।
नहीं किसी में हिम्मत इतनी
आँख उठाकर हेरे।”
(पृष्ठ 29)

एक पाठक होने के नाते मुझे लगता है कि इन पहेलियों का उत्तर यदि अंतिम पृष्ठ पर दिया जाता तो उत्सुकता बनी रहती।

रचनात्मकता और विषय वैविध्य
शीर्षक कविता ‘बच्चे होते फूल से’ में एक ओर जहाँ आपने बच्चों की कोमलता की बात की, वहीं दूसरी ओर उनकी हिम्मत की भी। कविता में स्पष्ट होता है कि बालमन निश्छल होता है, वह संवेदनशील भी होता है। इस कारण उनसे ऐसा व्यवहार न करें जो उनके बालमन को आहत करे।

‘मातादीन’ कविता में बुंदेली सभ्यता की झलक दिखाई देती है। यह मुझे इसलिए महसूस हुई क्योंकि मैंने अपनी नानी से राजा-रानी और वैद्य की इसी प्रकार की गिनती की कविता सुनी थी। इसके अलावा ‘जादूगर’, ‘गिनती गीत’, ‘गिलहरी’ कविताएँ भी संख्याओं और गिनती से परिचय कराती हैं। यह हँसते-गाते बच्चों को सहजता से शिक्षा पाने का मार्ग प्रशस्त करती हैं।

‘दिल्ली-पुस्तक-मेला’ कविता के माध्यम से छपास के रोग से ग्रसित लेखकों की अच्छी पोल खोली गई है। यह कविता शाब्दिक रूप से तो बाल साहित्य प्रतीत होती है, लेकिन भावार्थ में हास्य-व्यंग्य कविता के रूप में भी पढ़ी जा सकती है। इसी प्रकार ‘चूना नहीं लगाना’ में भी यही प्रयोग हुआ है।

वैसे तो इन्हें किशोर साहित्य में रखा जा सकता है, फिर भी मेरा अनुरोध रहेगा कि मनोज जी भविष्य में इस प्रकार की रचना करते हुए यह विशेष ध्यान रखें कि ऐसे संग्रहों में सिर्फ बाल कविता का ही समावेश हो—जो बालमन को प्रफुल्लित कर सकें।

प्रयोगशीलता और ध्वन्यात्मक प्रयोग
‘चूहों के सरदार ने’ कविता में चूहों की आवाज़ को शब्दों में ढालना—

“चीं चीं चिक चिक कर चूहों ने,
आपस में कुछ बातें की।”
(पृष्ठ 50)

और ‘जाओ स्वेटर लेकर आओ’ कविता में—

“खौं खौं खें खें करते रहते,
फिक्र नहीं है मेरी।”
(पृष्ठ 68)

—इस तरह के ध्वन्यात्मक प्रयोगों से कविताओं में जीवंतता आती है।

‘बूझ रहा हूँ एक पहेली’, ‘दो गज दूरी बहुत ज़रूरी’, ‘मोबाइल से दूरी’ जैसी कविताओं में हुए प्रयोगों ने मुझे आनंदित किया। ‘बूझ रहा हूँ एक पहेली’ में मनोज जी ने जो खाली स्थान छोड़ा है, उसमें मैंने पेंसिल से ‘हाथी’ लिखा। इस प्रकार के प्रयोग पाठकों को व्यक्तिगत रूप से कवि की रचना से जोड़ते हैं।

‘दो गज दूरी’ कविता संभवतः कोविड काल में रची गई, लेकिन यह कविता हमें हमेशा याद दिलाती रहेगी कि स्वस्थ जीवन कितना बहुमूल्य है।

सांस्कृतिक और सामाजिक सरोकार
‘यह डलिया है उड़ऩे वाली’ कविता में ‘धक्का प्लेट’ शब्द का प्रयोग मुझे अतीत में ले गया—

“धक्का प्लेट नहीं यह गाड़ी,
ना है पीछे मुड़ने वाली।”
(पृष्ठ 85)

बाल कविताओं में यह नयापन सराहनीय है।

‘अल्मोड़ा’ कविता में घोड़े को केन्द्र में रखकर जहाँ एक ओर कसौली और अल्मोड़ा की सैर करा दी, वहीं ‘निगोड़ा’ शब्द से मूक जानवर के प्रति प्रेम भी झलकता है।

‘दाने लाल अनार के’ कविता में अनार को ‘शहजादा’ कहकर एक नया दृष्टिकोण प्रस्तुत किया गया है—

“आम फलों का है यदि राजा,
तो अनार भी है शहजादा।”
(पृष्ठ 94)

समकालीनता और आभासी दुनिया की झलक
‘मैं हूँ बिल्ली चतुर सियानी’ कविता में सोशल मीडिया की दुनिया की झलक है—

“बिल से बाहर आओ जानी,
मैं हूँ बिल्ली चतुर सियानी।”
(पृष्ठ 99)

यहाँ ‘जानी’ शब्द ने मुझे अभिनेता राजकुमार की याद दिला दी।

शब्द वैविध्य और अंत की उपलब्धि
मनोज जी के शब्द भंडार को देखकर लगता है कि हमें आने वाले समय में उनके बाल साहित्य से कई प्यारे-प्यारे शब्द मिलेंगे। इन्हीं में एक शब्द ‘शहदीली’ का प्रयोग ‘बड़ी बुआ’ कविता में देखने को मिला—

“बात बुआ की शहदीली,
हम सब का दिल बहुत छुआ।”
(पृष्ठ 102)

अंतिम कविता ‘मोकलवाड़ा’ में जिस प्रकार आपने उसका प्राकृतिक वर्णन किया है, उसने मुझे गूगल करने पर बाध्य कर दिया। मुझे खुशी है कि मैं जान पाया कि ‘मोकलवाड़ा’ मध्यप्रदेश के रायसेन जिले में स्थित प्राकृतिक सौंदर्य से भरपूर एक पर्यटन स्थल है।

निष्कर्ष
सभी कविताओं का उल्लेख करना संभव तो नहीं है, लेकिन यह अवश्य कह सकता हूँ कि मनोज जी द्वारा रचित सभी बाल कविताएँ पठनीय हैं। इस संग्रह में कुल 43 कविताएँ संग्रहीत हैं। इनमें मनोरंजन, नवाचार, संस्कार, आधुनिकता जैसे सभी विषय समाहित हैं।

इक्का-दुक्का जगह टंकण की त्रुटियाँ अवश्य हैं, जो नज़रबट्टू की तरह महसूस होती हैं।

अंततः, मनोज जैन 'मधुर' जी को इस नई कृति के लिए मंगल कामनाएँ। भविष्य में बाल साहित्य की अन्य विधाओं में भी आपकी लेखनी की प्रतीक्षा रहेगी।

मैं एक पाठक और बाल साहित्यकार के रूप में मनोज जी का आभारी हूँ कि उन्होंने ‘बच्चे होते फूल से’ पर विचार व्यक्त करने का अवसर प्रदान कर अपनी बाल साहित्य की यात्रा में सहयात्री बनाया।

—अरविन्द शर्मा
लेखक/प्रकाशक, भोपाल


पूर्णिमा मित्रा

रविवार, 14 जुलाई 2024

" नीलकंठी प्रार्थनाएं " गीत-नवगीत संग्रहरचनाकार : रघुवीर शर्मा प्रकाशक : शिवना पेपरबैक्स समीक्षक : डॉ आलोक गुप्ता



" नीलकंठी प्रार्थनाएं " गीत-नवगीत संग्रह
रचनाकार : रघुवीर शर्मा 
प्रकाशक : शिवना पेपरबैक्स  

-वृहत समीक्षा-
समीक्षक : डॉ आलोक गुप्ता 

मैंने श्री रघुवीर शर्मा को इससे पहले नवगीत कुटुंब के पटल पर ही पढ़ा था। जब उनकी पुस्तक को पूरा पढ़ लिया तो पाया कि यह ऐसा नवगीत-संग्रह है जो निरंतर प्रेरणा और मार्गदर्शन प्रदान करता रहेगा। "नीलकंठी प्रार्थनाएं" की समीक्षा करते हुए, मैंने एक पाठक के स्तर पर न केवल साहित्यिक कौशल में वृद्धि की बल्कि जीवन और मानवता के विभिन्न पहलुओं को भी गहराई से समझा। 

इस पुस्तक की समीक्षा करते हुए, मेरा उद्देश्य रचनाकार की प्रतिष्ठा को बढ़ाने का नहीं है। बल्कि, मेरा प्रयास है कि मैं उनकी इस पुस्तक की *सभी 67 रचनाओं* की ईमानदार और निष्पक्ष समीक्षा प्रस्तुत कर सकूं। मेरी समीक्षा का लक्ष्य है कि पाठक को पुस्तक की वास्तविकता से अवगत कराया जाए, जिससे वे इस पुस्तक को सही परिप्रेक्ष्य में देख सकें

1.*"नीलकंठी प्रार्थनाएं"* इस  गीत-नवगीत संग्रह का सबसे पहला नवगीत है। यह  समाज के उन पहलुओं को उजागर करता है जहां आम आदमी की प्रार्थनाएँ और आशाएँ अनसुनी रह जाती हैं। कवि के सपने और योजनाएँ कठोर और जड़ नियमों के कारण पूरे नहीं हो पा रहे हैं।

“नियम की अँधी गुफा में कैद है सब योजनाएँ
कागजों में स्वप्न अपने और कुछ विश्वास लिखकर
सौंप आए थे हमारे दर्द फिर कुछ खास लिखकर”

कवि ने सामाजिक और राजनीतिक व्यवस्था की आलोचना की है, जहां केवल दिखावा किया जाता है और वास्तविक समस्याओं को हाशिये पर रखा जाता है। 

2.*“शुभचिंतक का बाना”* नवगीत में कवि ने समाज के उन लोगों को उजागर किया है जो शुभचिंतक का बाना पहनकर भोले-भाले लोगों का शोषण करते हैं। यह गीत प्रतीकात्मक रूप से समाज के उन दुष्ट व्यक्तियों और व्यवस्थाओं की ओर संकेत करता है जो दूसरों को धोखा देकर अपना स्वार्थ सिद्ध करते हैं।

दाने ऊपर जाल बिछाकर
भूखे पेटों को भरमाकर
फिर मुट्ठी में कैद करेंगे
आसमान के ख्वाब दिखाकर

3.*“कैसे गाएँ गीत”* इस नवगीत में कवि ने समाज के शोर-शराबे, रिश्तों की निस्सारता और सच्चाई की कमी को उजागर किया है। यह गीत समाज की उन बुराइयों और परेशानियों को उजागर करता है जो सृजनात्मकता, सच्चाई और प्रेम के अभाव के कारण उत्पन्न हो रही हैं। यह गीत एक सशक्त सामाजिक टिप्पणी है, जिसमें कवि ने समाज की वर्तमान स्थिति पर गहरा चिंतन किया है।

“शर्तों पर अवलंबित रिश्ते किसे बनाएँ मीत
इस बढ़ते कोलाहल में हम कैसे गाएँ गीत”

4.*“गूंगी पीड़ा”* यह गीत समाज की उन गहरी समस्याओं की ओर ध्यान आकर्षित करता है, जो हमारी रोजमर्रा की जिंदगी को प्रभावित करती हैं। कवि ने कटे वृक्ष और सूखी नदियों की पीड़ा को व्यक्त किया है, जो पर्यावरणीय समस्याओं का संकेत है। 

“कटे वृक्ष की गूंगी पीड़ा तपते जलते पाँव कहेंगे सूखी नदियों की जल गाथा बरसों प्यासे गाँव कहेंगे”

झुलसती उम्मीदों और राजनीतिक प्रक्रियाओं की मजबूरी की बात कही गई है। वहीं विज्ञापनों की खुशहाली को सत्ता की ओर से प्रचारित बताया गया है। गीत में सामाजिक असमानता और मेहनत की कम कीमत की ओरभी  संकेत किया गया है। संविधान की अच्छी बातों और उनकी वास्तविकता में पालन न होने की बात कही गई है। कवि ने आगे उम्मीद और बदलाव की संभावनाओं की ओर संकेत किया गया है। अंत में  दिशाहीन नेतृत्व और जनता के भटकाव की बात कही है।

5.*“नई जीवन शैलियाँ”*: इस नवगीत में कवि ने समाज में हो रहे परिवर्तनों और नई जीवन शैलियों को उजागर किया है, जो सतही और छलपूर्ण हैं। यह गीत समाज की उन बुराइयों और समस्याओं को रेखांकित करता है, जो आज की नई जीवन शैलियों में उभरकर सामने आई हैं। कवि ने नई जीवन शैलियों के चलन में आने की बात कही है। धनवान लोगों के मसीहा बनने की बात कही है, जो पैसे के बल पर समाज में प्रतिष्ठा प्राप्त कर रहे हैं। धूर्त और झूठे लोगों की ओर इशारा किया है, जो बिना किसी कठिनाई के प्रभावशाली बन जाते हैं। अंत में, कवि ने ढोंग और पाखंड की स्थिति को उजागर किया है, जहाँ लोग वैराग्य का मुखौटा ओढ़कर मज़े कर रहे हैं।

“धूप से जो दूर हैं वे पसीने के प्रवक्ता
शब्द जिनके छल भरे बन गए वे प्रखर वक्ता
अब चलन में आ गई हैं, नई जीवन शैलियाँ
आवरण वैराग्य का हो रही रंगरेलियाँ”

6.*“समय कठिन है”* इस नवगीत में कवि ने कठिन समय की पीड़ा और संघर्षों को मार्मिक ढंग से व्यक्त किया है। यह गीत जीवन की उन परिस्थितियों को उजागर करता है, जहाँ हर दिन और हर रात एक नई चुनौती और कठिनाई के साथ आता है।

“समय कठिन है रात सुलगती तपता दिन है”

कवि ने कठिन समय की बात की है, जहाँ रातें और दिन दोनों ही कष्टदायक हैं। अफवाहों की तरह गर्म हवाओं का जिक्र किया गया है, जो हर सीमा को लांघ रही हैं। धूप को सुई की तरह चुभता हुआ बताया गया है, जो कठिन परिस्थितियों का प्रतीक है। रोटी की चिंता और दहशतपूर्ण दोपहर का जिक्र किया गया है। संध्याओं को भी संन्यासिन बताया गया है, जो बताता है कि शाम का समय भी कठिनाइयों से भरा हुआ है। उमस लिपटी विचलित रातों का जिक्र है, जो बेचैन और कष्टदायक हैं। अंत में, कवि ने कठिन समय के बावजूद उम्मीद को सुहागिन की तरह बताया है, जो आशा और भविष्य की संभावनाओं को जीवित रखती है।

7.*“हमने भी गरल पिया है”* नवगीत में कवि ने सरल और प्रतीकात्मक भाषा का उपयोग करके जीवन की कठिनाइयों और संघर्षों को बहुत ही मार्मिक तरीके से व्यक्त किया है कवि ने विषपान करने वाले नीलकंठ के प्रतीक का उपयोग किया है, जो यह दर्शाता है कि केवल एक व्यक्ति ही नहीं, बल्कि हर कोई अपने हिस्से का विष झेलता है। अच्छे और बुरे दिनों के मंथन की बात की गई है, जिससे उम्मीदों और इच्छाओं की कठिनाइयों को दर्शाया गया है। समय की उलझन और सरलता की कोशिशों की बात की गई है, जो जीवन की कठिनाइयों और संघर्षों को दर्शाता है। जीवन की अनिश्चितता और निरंतरता का जिक्र किया गया है, जिससे यह पता चलता है कि हमें भविष्य का पता नहीं होता। राहों के काँटों को फूल में बदलने की बात की गई है, जिससे हमारी मेहनत और प्रयासों का परिणाम बताया गया है।

“तुम ही नहीं हो नीलकंठ 
हमने भी गरल पिया है
उलझा रहा समय उतना ही 
जितना इसको सरल किया है”

8.*“खनक उठी साँकल”* नवगीत एक प्रेरणादायक और सकारात्मक संदेश देता है कि कठिनाइयों के बीच भी हमें आशा और खुशी के छोटे-छोटे क्षणों को पहचानना और संजोना चाहिए। 

“बर्फीली देहरी पर ठिठकी हो क्षण भर 
थकी हुई साँसों को मिला एक अवसर”

इसमें धूप के आँगन में उतरने और बादल के सावन में बरसने की बात की गई है, जो खुशी और आशा के आगमन का प्रतीक है। ठंडी सीमा पर क्षणिक राहत और अवसर का जिक्र है। अनमनी धड़कन में सरगम की लहर आने की बात है, जो अचानक आई खुशी और उमंग का प्रतीक है। वनवासी मन का घर लौटने की बात है, जो शांति और सुकून का प्रतीक है। संकल्प और समर्थन में साँकल की खनक का जिक्र है, जो नए अवसरों और खुशियों के आगमन का प्रतीक है।

“धीरे से उतर आई धूप घर आँगन में 
चुपके से बरसी हो बदरी ज्यों सावन में”

9.*“हँसते गाते लोग”* नवगीत में कवि ने समाज में बदलते मूल्यों और रिश्तों की स्थिति को बहुत ही मार्मिक और प्रभावी ढंग से प्रस्तुत किया है। यह गीत हमें उन सरल और खुशमिजाज लोगों की याद दिलाता है, जो अपने जीवन की सरलता और सकारात्मकता से दूसरों को भी खुश रखते थे।

“जिनकी बतरस से अंसुआई आँखें हँसती थी
बिना साज के अनुभव की स्वर लहरी बजती थी”

कवि ने कबीरा जैसे हँसते-गाते लोगों की याद दिलाई है, जो जीवन की सरलता और आनंद को जीते थे। उनकी बातचीत और अनुभवों की स्वर लहरी का जिक्र किया गया है, जिससे लोग खुश हो जाते थे। उनके नित नए प्रयोगों से खुशियाँ बाँटने की बात की गई है। वर्तमान स्थिति का वर्णन किया गया है, जहाँ चौराहे सूने और चौपाल चुप है, और घर की बैठक अकेलापन और उदासी से बेहाल है। संवेदनशील रिश्तों पर स्वार्थ के रोग का जिक्र किया गया है, जो समाज के बदलते मूल्यों और रिश्तों की स्थिति को उजागर करता है।

10.*“छोटी-छोटी खुशियाँ”* गीत हमें याद दिलाता है कि जीवन में छोटी-छोटी बातों और क्षणों का कितना महत्व है, और कैसे ये छोटे-छोटे पल हमारे जीवन को सुंदर और आनंदमय बना सकते हैं।

छोटे-छोटे सपनों और खुशियों की बात की गई है, जो हमारे दैनिक जीवन की महत्वपूर्ण बातें हैं। सोन चिरैया और मीठी धूप का जिक्र है, जो छोटे-छोटे आनंदमय पलों को दर्शाता है। थकी शाम और इंद्रधनुषी छवियों की बात है, जो संघर्ष के बाद के सुकून को दर्शाता है। पतझर के मौसम के बदलने और गीतों की स्वर लहरी में मन की बातें करने का जिक्र है, जो संगीत और बातचीत के माध्यम से खुशी पाने का प्रतीक है। पैरों में रुनझुन की बात है, जो छोटे-छोटे आनंदमय क्षणों को दर्शाता है।

“खुश हो
सोन चिरैया कुछ पल 
आंगन में ठहरे 
मीठी-मीठी धूप
 मुंडेरों से नीचे उतरे
थकी शाम घर दिख जाए कुछ इंद्रधनुषी छवियाँ”

11.*“लुप्त हुई जीवन रेखाएँ”* गीत मानव-निर्मित पर्यावरणीय असंतुलन और प्राकृतिक संसाधनों के दुरुपयोग के गंभीर परिणामों को व्यक्त करता है। है। कवि ने ऊँचे बाँधों के निर्माण से लेकर पानी की कमी से उत्पन्न समस्याओं का मार्मिक चित्रण किया है। नदी की हरियाली मुरझाना, पक्षियों का गाना बंद होना, तालाबों में मछलियों का मरना और खेतों की फसलों का बर्बाद होना जैसे चित्रण पाठक के मन को गहराई से छूते हैं। गीत में नदी की स्थिति को मानवीकरण के माध्यम से प्रस्तुत किया गया है, जिससे उसकी दयनीयता और असहायता स्पष्ट होती है। कवि ने प्राकृतिक आपदाओं और मानव निर्मित समस्याओं के कारण बस्तियों के जीवन पर पड़े प्रभाव को भी दर्शाया है। यह नवगीत जल संकट और पर्यावरणीय समस्याओं का संवेदनशील और प्रभावशाली वर्णन करता है। 

“शापित है खेतों की फसलें
बादल रूठे
मौसम बदले
खोज रही है 
बस्ती इसमें
लुप्त हुई जीवन रेखाएँ।”

12.*“कृष्ण पक्ष अपने हिस्से है”*: यह गीत सामाजिक विषमताओं और असमानताओं पर एक कड़ा प्रहार है। कवि ने बहुत ही स्पष्टता और गहराई से सत्ता और आम जनता के बीच की दूरी, मीडिया की पक्षपाती दृष्टि, और आम लोगों के दुखों को चित्रित किया है। 'कृष्ण पक्ष' और 'धवल चाँदनी' के प्रतीकों का प्रयोग कर कवि ने सत्ताधारी और आम जनता के बीच की असमानता को बहुत ही प्रभावी तरीके से व्यक्त किया है।

“हम दुक्खों के बियाबान में उनके हाथों शकुनी पासा
सुख सुविधाएँ दासी उनकी अपने हक में महज दिलासा”

13.*“पारदर्शी आईने”* में कवि ने समाज में व्याप्त भौतिकवादी सोच पर टिप्पणी की है। आजकल श्रृंगार और सुंदरता का ध्यान केवल देह तक सीमित हो गया है, मन की सुंदरता का कोई महत्व नहीं रह गया। साथ ही, सद्भाव पर भी संदेह किया जाता है।

कवि ने स्वार्थ, धर्म, सत्य, सौंदर्य, और मूल्यों के बदलते मायनों को प्रभावशाली तरीके से उकेरा है। 'स्वार्थ के परिधान', 'धर्म का आवरण', 'पारदर्शी आईने', और 'मूल्य सजकर बाजार बिकने' जैसे प्रतीकों का इस्तेमाल कर कवि ने समाज की वर्तमान स्थिति का सजीव चित्रण किया है। 

“धर्म का आशय नहीं अब आचरण है 
सियासत का महज यह आवरण
झूठ सच में भी रहा अंतर नहीं 
भग्न है सब पारदर्शी आईने”
“स्वार्थ के नित नए परिधान पहने 
खो रहे हैं शब्द अपने मायने”

14.*“अनघोषित संग्राम”* गीत समाज में मौनता और निष्क्रियता के खिलाफ एक कड़ा संदेश देता है। कवि ने निष्क्रियता को छोड़कर सच बोलने, झूठ को उजागर करने और सच्चाई के लिए लड़ने का संदेश दिया है। गंगाराम नामक प्रतीकात्मक पात्र के माध्यम से समाज के उन सभी लोगों को संबोधित किया है जो मौन और निष्क्रिय हैं। 'पत्थर के शालिग्राम', 'बाजीगर मौसम', और 'अनघोषित संग्राम' जैसे प्रतीकों का प्रभावी उपयोग किया गया है जो समाज की वास्तविक स्थिति को उजागर करते हैं।

“कब तक मौन रहोगे इस बाजीगर मौसम में 
ठोकर खाते रहे सदा खुशहाली के भ्रम में
बने रहोगे कब तक पत्थर के शालिग्राम”
“कुछ ना कुछ तो कहना होगा तुमको गंगाराम”

15.*“बचा रहना चाहिए”* में कवि ने उन सभी चीजों का उल्लेख किया है जो अभी भी लोक जीवन में बची हुई हैं और जिनका बचा रहना बहुत महत्वपूर्ण है। हरापन (प्रकृति का सौंदर्य), अमराईयों (आम के पेड़ों) में बने घोंसले, नीम की ठंडी हवाएँ, और कोयल की मधुर आवाज़ - ये सभी प्राकृतिक और सांस्कृतिक धरोहरें हैं जिन्हें हमें संजोना चाहिए। कोयल की आवाज़ सुनना और उसकी मधुरता का आनंद लेना, यह दर्शाता है कि हमें प्रकृति की सुंदरता और लोक संस्कृति को महत्व देना चाहिए।

“हैं कहीं कायम अभी तक लोक-स्वर, लोक-भाषाएँ
आधुनिकता के हवन में जल न पाई जो कलाएँ
टिमटिमाते इन दीयों को जगमगाना चाहिए।”

नवगीत की भाषा सरल, सजीव और प्रभावी है। कवि ने हरियाली, अमराईयों के घोंसले, नीम की ठंडी हवाएँ, कोयल के गीत, लोक-स्वर, लोक-भाषाएँ, और टिमटिमाते दीयों जैसे प्रतीकों का बहुत ही सजीव और अर्थपूर्ण उपयोग किया है। यह प्रतीक हमारी सांस्कृतिक और प्राकृतिक धरोहर की सजीवता और सुंदरता को दर्शाते हैं।

16.*“अर्थ खोजते रहे”* गीत समाज की भाषा, विचारधारा, और उसकी जटिलताओं पर एक महत्वपूर्ण टिप्पणी है। हम शब्दों के पीछे छिपे अर्थों को खोजते रहते हैं, लेकिन असली मंतव्य (उद्देश्य) और बात को समझना कठिन हो जाता है। 

“क्या है असली मंतव्य और जाने क्या कहा गया है
वही अबूझी मीठी भाषा बस संदर्भ नया-नया है”

 हम यह सोचते रहते हैं कि इसमें जनहित जैसा कुछ है, लेकिन यह सोच अक्सर व्यर्थ साबित होती है। कवि ने बहुत ही संवेदनशीलता के साथ बताया है कि कैसे भाषा और संदर्भ की जटिलता हमारे लिए असली मंतव्य को समझना मुश्किल बना देती है । लोग अक्सर शब्दों के सतही अर्थ से परे जाकर गहरे अर्थ की खोज में रहते हैं। यह हमारी मानसिकता को दर्शाता है जो सतही बातों से संतुष्ट नहीं होती और हमेशा गहरे अर्थ को समझने का प्रयास करती है।  यह समाज की विचारशीलता की कमी और अनुकरणीयता को उजागर करता है।

“ज्ञानपीठ से व्याख्यानों में शब्दों का ताना-बाना
सत्य, धर्म और नीति-न्याय को राग-द्वेष में उलझाना
इस आयोजन में शामिल हम
जय बोलते रहे।”

17.*“उलझे समीकरण”* में कवि ने जीवन की कठिनाइयों और उनकी तुलना जटिल समीकरणों से की है। उन्होंने बताया कि कैसे खुशियों को जोड़ने की कोशिश में उम्मीदें घटती जाती हैं, और विषम दिनों की बढ़ती संख्या के कारण जीवन की संध्याएँ (शांतिपूर्ण समय) कम हो जाती हैं। कवि ने गणितीय चिंतन का उल्लेख किया है, जिसमें गुणा-भाग के बावजूद परिणाम हमेशा शून्य रहता है। सच्चे कार्यों का महत्व हाशिए पर ही रहता है और उनका महत्व नगण्य होता है। संतुलन के चिन्ह और जीवन की अज्ञात पहेली की बात की है, जो हमेशा हमें चुनौती देती रहती है। चर और अचर प्रथाओं के बीच संतुलन बनाए रखना भी एक कठिन कार्य है।

“चिन्ह संतुलन का बराबर (=) देख हमें हँस देता है
यह अज्ञात पहेली जैसा खूब परीक्षा लेता है
चर और अचर प्रथाओं के कोष्टक बंद चरण”

18.*“समय नहीं बदला”* में कवि ने बताया है कि दिन-प्रतिदिन तारीखें बदलती रहती हैं, लेकिन लोगों की स्थिति और समय की कठिनाइयाँ नहीं बदलतीं। पेट की धधकती आग (भूख) वही रहती है और हाथ हमेशा खाली रहते हैं। डाली पर सपनों की बाली (फसल) मुरझाई रहती है और संभावित फसलों पर मौसम का हमला होता रहता है, जिससे उनकी उम्मीदें धूमिल हो जाती हैं। 

यह गीत हमें यह सोचने पर मजबूर करता है कि कैसे हम अपने जीवन की कठिनाइयों का सामना करते हैं और कैसे सरकारी वादों और छद्म व्यवस्थाओं से धोखा खा जाते हैं। गीत की भाषा सरल और प्रभावशाली है, जो सीधे दिल और दिमाग पर असर डालती है। 

“आधार पत्र की संख्या भर परिचय है अपना
मतदाता सूची में केवल नाम लिखा रहना
प्रजातंत्र का पारस, चिकना पत्थर ही निकला ।।”

19.*“कोमल आशाएँ”* में कवि ने किसानों की कोमल आशाओं का वर्णन किया है, जो उनके पसीने के साथ बह जाती हैं। फसलों के साथ बोए गए सपने फलते-फूलते नहीं हैं। श्रम से पोषित खेतों को हरियल (उपजाऊ) मौसम नहीं मिलता। बाजार की मनमानी (अनुचित मूल्य निर्धारण) के कारण किसानों की चिंताएँ और भी गहरी हो जाती हैं। 

“संग पसीने के बह जाती हैं, कोमल आशाएँ
फसलों के संग बोए सपने फूले- फले नहीं
श्रम-पोषित खेतों को, हरियल मौसम मिले नहीं
बाजारों की मनमानी से गहराती चिंताएँ”

“कोमल आशाएँ” गीत किसानों की संघर्षपूर्ण जीवन की स्थिति का प्रभावी चित्रण है। यह गीत किसानों की कोमल आशाओं और उनकी वास्तविकताओं को सामने लाता है। 

20.*“बूढ़े पेड़ पुराने”* में कवि ने बूढ़े पेड़ों की स्थिति का वर्णन किया है, जो अपनी पुरानी यादों में खोए रहते हैं। पहले ये पेड़ हरे-भरे थे और फूलों और फलों से लदे रहते थे। ये पेड़ जड़ों से जुड़े होने के कारण पतझड़ के हमलों से सुरक्षित रहते थे। अब वे पेड़ रातों में जागते हैं और पुराने दिनों को याद करते हुए सिरहाने रखते हैं। यह नवगीत बताता है कि पुराने समय की खुशहाल यादें अब उनके लिए केवल एक सपना बन गई हैं।

“यादों में खोए रहते हैं बूढ़े पेड़ पुराने
हरे-भरे थे, खूब लदे थे फूलों और फलों से
रहे सुरक्षित जड़ से जुड़कर पतझड़ के हमलों से
जाग रहे हैं अब रातों में वे दिन रख सिरहाने”

“बूढ़े पेड़ पुराने” गीत पुराने पेड़ों की स्थिति और उनकी यादों का सजीव चित्रण है। यह गीत हमें यह सोचने पर मजबूर करता है कि कैसे समय और परिस्थिति ने पेड़ों को अकेला और खाली कर दिया है, और वे पुराने दिनों की सुंदरता को याद करते हैं। 

21.*“आई नहीं हवाएँ”* नवगीत में दर्शाने का प्रयास किया गया है कि  आधुनिकता ने हमारे पारंपरिक जीवन के निशान मिटा दिए हैं। गाँव की पगडंडियों पर चलने वाली सभ्यता, चौपालों पर होने वाली चर्चाएं और हमारे पारंपरिक उत्सव सबकुछ बदल गया है। अब तिथि-उत्सव की जगह, केवल तारीखें बची हैं, जो समय की गणना भर रह गई हैं। 

“ना पगडंडी की छाप, रही ना चौपालों की सीख तिथि-उत्सव के ऊपर आकर बैठ गई तारीख:
हमारी लोक कलाएँ और संगीत, जैसे बाँसुरी और मांदल के स्वर, अब कहीं खो गए हैं। पहले कच्चे मकान और घास-फूस के छप्पर थे, लेकिन रिश्ते बहुत मजबूत थे। 
लाभ-हानि की सुबह-दोपहर मतलब की संध्याएँ”

आजकल हर किसी का जीवन लाभ और हानि, स्वार्थ और मतलब पर केंद्रित हो गया है। सुबह से शाम तक लोग अपने स्वार्थ और फायदे के लिए जीते हैं, जिससे मानवीय और भावनात्मक संबंधों की अहमियत कम हो गई है।

22.*“खुरदरा जीवन”* गीत जीवन की सच्चाई, संघर्ष और दर्द को सजीवता से व्यक्त करता है। इसमें कवि ने अपने जीए और सहे हुए अनुभवों को गीत के माध्यम से कहा है। खुरदरे जीवन की वास्तविकता को और लोकधर्मी चेतना की उधड़ती सीवन को दर्शाया है। समय के साथ जुड़े सच को अपने कथ्य में बयां किया है। समय के साथ प्रतिरोध का भाव व्यक्त किया है और अपने अनुभवों को झूमकर गाया है। कवि ने अपने दर्द को व्यक्त किया है, जो उसकी आँखों से बहा है।  गीत की भाषा सरल और प्रभावशाली है। 

“जो जिया है, जो सहा है 
गीत में हमनें कहा है”
“टूट कर बिखरे नहीं हैं झूमकर गाया
शब्द में प्रतिरोध करना वक्त से पाया”

23.*“आसान नहीं है”* गीत जीवन की कठिनाइयों और संघर्षों का चित्रण है। जीवन की राहें आसान नहीं हैं, खासकर सुख से जीने की। हमारी यात्राएँ सूरज के साथ ही शुरू होती हैं और दिनभर की मेहनत और संघर्ष के बाद हम  रात में टूटे हुए सपनों को जोड़ने का प्रयास करते हैं। कवि ने खुशियों के आँगन में भी काँटों (नागफनी) की उपस्थिति और आश्वासनों की चौसर पर उम्मीदों के सौदों की बात की है। सभी कठिनाइयों के बावजूद हम खुश हैं, संघर्षों में बड़े हुए हैं और समय को बदलने की कोशिशें जारी रखे हुए हैं।

“सूरज के ही संग शुरू होती है यात्राएँ
परावलंबी सुबह
दोपहर नीरस संध्याएं
रातें होती हैं उधड़े सब सपने सीने की”

24.*“प्रश्न सड़क पर बिखरें हैं”* गीत सामाजिक और राजनीतिक स्थिति की कड़ी आलोचना करता है। इसमें कवि ने नेताओं और अधिकारियों की असंवेदनशीलता, स्वार्थपरता और आम जनता की समस्याओं को सजीवता से चित्रित किया है। 

“उत्तर बैठे हैं महलों में
प्रश्न सड़क पर बिखरे हैं”

कवि ने उत्तर और प्रश्न के बीच की दूरी को दिखाया है, जो कि समाज में व्याप्त असमानता को दर्शाता है।  सरकारी आयोजनों और आम जनता की समस्याओं के बीच का अंतर दिखाया है। नेताओं की स्वार्थपरता और असंवेदनशीलता को उजागर किया है। समाज में धर्म और जाति की बेड़ियों और सच के नाम पर फैलाए जा रहे भ्रम की चर्चा हुई है। सच्चाई बोलने वालों की आवाज़ को दबाने की कोशिशों को चित्रित किया है।

25.*“पानी में कैसे रहना है”* गीत एक गहरी जीवन दर्शन की व्याख्या करता है जिसमें छोटी मछली के माध्यम से जीवन के संघर्षों और चुनौतियों का प्रतीकात्मक चित्रण किया गया है। 

“छोटी मछली समझ रही है
पानी में कैसे रहना है”

यह गीत बताता है कि कैसे हमें अपने जीवन में संतुलन बनाए रखना चाहिए, कठिनाइयों का सामना करना चाहिए, और सतर्क रहना चाहिए ताकि हम सुरक्षित और खुश रह सकें।

“मछुआरों के जाल परखती
काँटे से भी बचकर रहती
मगरमच्छ की नजरों में,
पर उसकी खुशियाँ रही खटकती”

26.*“मीठी नदिया हो जाती है”* गीत एक नारी के जीवन के विभिन्न पहलुओं का सुंदर और संवेदनशील चित्रण करता है। यह गीत नारी की संघर्षशीलता, त्याग, और सहनशीलता को दर्शाता है। 

“मन का मौन सुने समझे हम  
आँखों की अनबूझी भाषा  
तपकर गल कर जिसने अपना  
सुंदर घर संसार तराशा”

गीत में नारी के दुखों और संघर्षों के बावजूद उसके हँसते हुए चेहरे को दिखाया गया है। बेटी के बचपन से लेकर उसके शादी के बाद के जीवन तक की यात्रा का वर्णन है। उसके त्याग और नए रिश्तों में बँधने की बात की गई है और उसे पराया धन माने जाने की पीड़ा व्यक्त की गई है। उसकी सीमाओं और मर्यादा में बँधने का जिक्र है। उसकी अनकही भावनाओं और संघर्ष को समझने की आवश्यकता पर बल दिया गया है। उसके सम्मान और सुरक्षा की महत्व को रेखांकित किया गया है। इस प्रकार, यह गीत नारी के जीवन के विभिन्न पहलुओं को संवेदनशीलता और समझदारी के साथ प्रस्तुत करता है। यह समाज को नारी की भावनाओं, त्याग, और संघर्ष को समझने और उसे सम्मान देने का संदेश देता है।

27.*“यह गेह तुम्हारा है”* गीत गौरैया (चिड़िया) के माध्यम से प्रकृति और मानव के बीच के संबंध को संवेदनशीलता से दर्शाता है। गीत में गौरैया को घर का हिस्सा माना गया है। उसकी चहचहाहट से आने वाले अपनापन और मिठास को सराहा गया है।

“चीं-चीं-चीं कर शब्दों में मीठापन ले आना  
कोलाहल में भूल गए हम अपनापन गाना”

उसके आंगन में होने को विशेष बताया गया है। हरियाली की कमी के बावजूद उससे न दूर जाने का आग्रह किया गया है। उसकी उपस्थिति को सूखेपन से लड़ने का उपाय बताया गया है।
यह गीत सरलता और गहनता से प्रकृति के महत्व और मानव के साथ उसके संबंध को प्रस्तुत करता है। 

28.*“पौधा खुशियों का”* नवगीत में माता-पिता के स्नेह और मार्गदर्शन की याद दिलाई गई है।  जीवन की व्यस्तताओं के कारण उस स्नेह और सुख का आनंद न ले पाने की  चर्चा की गई है और सपनों की खोज में घर छोड़ने और जीवन की कठिनाइयों का सामना करने की बात की गई है। सफर में दूर निकल जाने और वापस न लौटने का वर्णन हुआ है। जीवन के संघर्षों और कठिनाइयों का सामना करने का जिक्र किया गया है। अपने विचारों और भावनाओं को व्यक्त करने की असमर्थता को दर्शाया गया है। 

“नट जैसे रस्सी पर अब दम साधे चलते हैं  
कठिन समय के समीकरण भी खुद हल करते हैं”

यह गीत हमें यह संदेश देता है कि जीवन में कितनी भी कठिनाइयां और संघर्ष क्यों न हों, हमें अपने प्रयासों को जारी रखना चाहिए और समय के समीकरणों को हल करने का प्रयास करना चाहिए।

29.*“सच अभय कहना है”* गीत में समय के साथ चलने और सत्य को निर्भय होकर कहने की प्रतिबद्धता को व्यक्त किया गया है। आधे-अधूरे उपायों से सच्चाई का सामना न करने की बात कही गई है। स्वयं दीप बनकर जलने की आवश्यकता को स्वीकार किया गया है। समाज की अव्यवस्था और असत्य के फैलाव का वर्णन किया गया है। इस विकल दौर में सुरीला गीत रचने की इच्छा व्यक्त की गई है, जो समाज को सच्चाई और प्रेरणा का संदेश दे।

“भंग लय है, बेसुरा-सा स्वर उभरता है  
पार्श्व में फिर छद्म देशी राग बजता है
विकल इस दौर में कोई सुरीला गीत रचना है”

यह गीत संदेश देता है कि सत्य और सच्चाई को निर्भय होकर कहना हमारी जिम्मेदारी है, चाहे समय कितना भी कठिन क्यों न हो। हमें खुद में प्रकाश और साहस पैदा करना होगा, ताकि हम सच्चाई की राह दिखा सकें और समाज को एक नई दिशा दे सकें।

30.*“दीपक मिट्टी के”* गीत में कवि ने समाज की वर्तमान स्थिति और लोगों की उम्मीदों की टूटन को बखूबी व्यक्त किया है। इस गीत में रामराज्य की प्रतीक्षा में मिट्टी के दीपकों का वर्णन है, जो साधारण लोगों की आशाओं का प्रतीक हैं। दिखावे और छद्म रोशनी की आलोचना की गई है, जिससे सच्चाई और धार्मिकता दम तोड़ रही है। 

“चकाचौंध है, छद्म रोशनी घर आंगन में पसरी  
पूजा घर की ज्योति मद्धिम सांस ले रही गहरी”

झोपड़पट्टी के लोगों की निराशा को व्यक्त किया गया है। आदर्श और सपनों की खोई हुई स्थिति और राजनीति की चालबाजियों का वर्णन है। लोगों के सपनों की टूटन और उनकी निराशा को दर्शाया गया है।
यह गीत समाज की सच्चाई, दिखावे, राजनीति की चालबाजियों और साधारण लोगों की निराशा को उजागर करता है। कवि ने बहुत ही सुंदरता से यह दिखाया है कि कैसे सच्चाई और उम्मीदें छद्म रोशनी और झूठे वादों के बीच दम तोड़ रही हैं।

31.*“रामचरितमानस पढ़ते हैं”* गीत में कवि ने तुलसीदास जी  की  रामचरितमानस के  महत्व, समाजिक और राजनीतिक स्थिति की समीक्षा, धार्मिक आदर्शों के महत्त्व और असली बदलाव की आवश्यकता पर गंभीरता से बात की है। गीत में प्रत्येक छंद का उपयोग उस विशेष समय की स्थिति और समस्याओं को समझाने में किया गया है, जो सामाजिक और धार्मिक संकटों का सच्चा चित्रण करता है।

“केवल पुतलों के जलने से असली रावण कब मरते हैं।“

32.*“दुम हिलाओ”* गीत में व्यापक समाजिक और राष्ट्रीय मुद्दों पर ध्यान केंद्रित किया गया है। आम लोगों को बस चुपचाप समर्थन करने और कोई सवाल न उठाने के लिए कहा जा रहा है। उनसे कहा जाता है कि वे अपनी भूख और अन्य समस्याओं को नजरअंदाज करें क्योंकि नेताओं और अधिकारियों के पास अपनी छवि सुधारने और अपनी कुर्सी बचाने का काम अधिक महत्वपूर्ण है। कुल मिलाकर, यह कविता उस विडंबना और ढोंग की ओर इशारा करती है जिसमें जनता की वास्तविक समस्याओं को नजरअंदाज कर दिया जाता है और उन्हें केवल समर्थन करने और सवाल न उठाने के लिए कहा जाता है।

“क्यों तुम्हारे पास फिर इतनी शिकायत है महज कर्त्तव्य की जब तुमको हिदायत है”

33.*“पुरानी डायरी”* गीत अपनी पुरानी डायरी के माध्यम से व्यक्ति के अंतर्निहित भावनाओं को उजागर करता है और उसके अनुभवों को ताजगी से भरता है। गीत अपने अलंकरण से भरपूर है और व्यक्तिगत अनुभवों को सुंदर ढंग से प्रस्तुत करता है। प्रत्येक छंद व्यक्ति की भावनाओं और अनुभवों को समझाने में मदद करता है और उसकी भावनाओं को साहित्यिक रूप में उकेरता है।

“पृष्ठ से कुछ महक आती है, पसीने से भरी

34.*“पसीना आ रहा है”* यह गीत समाज में हो रहे बदलाव को, खुशियों और दुःख के विपरीत स्थितियों को दर्शाता है और उनके माध्यम से व्यक्ति की अंतर्निहित भावनाओं को बयान करता है। समाज में बदलाव का वर्णन है, जहां पुरानी खुशियाँ और स्थानिकता की कमी महसूस हो रही है।

“बिक रही बाजार, खुशियाँ सजी दुकानों में अब नहीं मिलती, पुरातन ठौर-ठिकानों में”

35.*“बटन पर आश्रित उजाले”*  गीत में आधुनिक जीवनशैली और परिवर्तन के प्रति एक व्यक्ति की चिंताओं का विवेचन किया गया है। व्यक्ति के मन की स्थिति और उसके अंतर्निहित भावनाएं की बात की गई है, जो आधुनिकीकरण और परिवर्तन के कारण उसके मन को प्रभावित कर रहे हैं। समाज के आधुनिक उत्सवों की बात की गई है, जो व्यक्ति के जीवन में एक परिवर्तन लाते हैं। समाज में बदलाव के संदर्भ में बात की गई है, जो परंपराओं और अनुसरणीय सेतुओं को ढहा देता है।

“मन हुलसता ही नहीं, फिर कौन किस पर रंग डाले दीप माटी के कहाँ, अब बटन पर आश्रित उजाले”

36.*“आँधियों का शोर है”* गीत में प्राकृतिक तत्वों की बदलती हुई स्थिति और उनके संवाद का विवरण है, जो समाज और मानवता के साथ कवि के गहरे संवाद में हैं। नवगीत में जहाँ आँधियां एक ध्वनि की तरह हैं और हवाएं शांत हैं, वहीँ  पेड़ अपनी अस्थिरता को दर्शाते हैं और धूल के चक्रवात में दिशाएँ ओझल हो जाती हैं। आकाश में गरजन और बादलों की दौड़ को दर्शाते हुए, प्राकृतिक आपदाओं की ओर भावनात्मक रूप से इशारा किया गया है और वनों में पंछियों की अप्राप्तता का वर्णन है।

“पेड़ है बेचैन सारे टहनियां टकरा रही हैं और हाहाकार में स्वर कोकिला घबरा रही है”

37.*“हमें पता है”* गीत में व्यक्ति की आत्म-समझ, स्वाधीनता, और साहस का वर्णन किया गया है। रचनाकार  ने अपनी उलझन को समझने और हल करने की बात की है, जो स्वाधीनता और स्वायत्तता को दर्शाता है।  व्यक्ति की निर्णायकता और स्वतंत्रता का वर्णन है, जो अपने मार्ग को अपनी मातृभूमि के अनुसार चुनता है।
अपनी मुश्किल अपने दुखड़े अपने तक रखते हैं अगर मुखर हो कह दें, तो वे सौदा ही करते हैं

38.*“जुगनू देख रहे हैं”*  गीत में सूर्योदय, जुगनू, भोर के सितारे, और आसमान की तिर्यक रेखाएं जैसे प्राकृतिक तत्वों का उपयोग भावनाओं को व्यक्त करने के लिए किया गया है। गीत में सूर्योदय की आशा को जुगनू के दृष्टिकोण से व्याख्यानित किया है जहाँ जुगनू रात के अंधेरे में चमकते हैं, और उनके द्वारा सूर्योदय की आस दिखाई दी है। भोर के सितारों के बारे में बात की है, जो बादलों की साजिश को भ्रमित करते हैं। आसमान की तिर्यक रेखाओं का जिक्र है, जो अनियमितता और अस्थिरता का प्रतीक हैं।

“देख रहे हैं खूब प्रचारित
बिना अर्थ के उजियारों को
पीले बादल की साजिश को
भरमाते भोर सितारों को”

39.*“लाठी हाथ लिए”* एक नवगीत है जो समाजिक और राजनीतिक व्यवस्था के विषयों पर ध्यान केंद्रित करता है। भेड़ों की चाल के माध्यम से व्यक्ति के नियंत्रण के बारे में बात की गई है, जिसमें उन्हें मालिक की मर्जी के अनुसार जीना पड़ता है। , जो उनकी लाचारी को दर्शाता है। व्यक्ति की अवस्था के बारे में बात की गई है, जब उन्हें अपने तन का ऊन देना पड़ता है, जो उनकी मजबूती का प्रतीक होता है।

“भेड़ चाल लाचारी उसकी पेट सभी को भरना है
गुजर नहीं होगी, बिन अपने तन का ऊन दिए”

40.*“बेसुध हैं हम लोग”* में समाज की स्थिति को व्यक्ति और समूह के स्तर पर व्याख्यात किया है, जिसमें सत्ता, धर्म, जाति और धन-संपत्ति के प्रभाव को दिखाया गया है। गीत में व्यक्ति या समूह की स्थिति का वर्णन है, जिसे सियासत के द्वारा बेहोश बना दिया गया है। समाज को धर्म, जाति और समृद्धि के नशे में डूबा दिया गया है। समाज में व्यक्ति की अवस्था ऐसी हो गई है कि मानो वह षड़यंत्रों (चालाकी) के बवंडर से बेहोश हो चुका है।

“भांग सियासत की पीकर बेसुध हैं हम लोग
सत्ता भर हथियाने के आयुध हैं हम लोग”

41.*“उत्तरों की आस में”* गीत में व्यक्ति की प्रार्थनाएँ फाइलों में बंद हो रही हैं । वह प्रश्नों के उत्तर की आशा में हैं, लेकिन प्रश्न अभी तक खारिज हैं। सामाजिक या राजनीतिक स्थिति में कुछ ऐसा हो रहा है जो लोगों के विश्वास को गंभीर रूप से प्रभावित कर रहा है।

“प्रश्न खारिज, और हम हैं उत्तरों की आस में
मूल प्रश्नों पर कहाँ होती है चर्चाएँ 
शोर करती और फिर स्थगित होती सभाएँ
है अनुत्तरित मुद्दे हर किसी के पास में”

42.*“पथ पर नहीं रुके हैं हम”* एक गीत है जो यह बताता है कि आम जनता ने नेताओं और उनके वादों की असलियत को समझ लिया है। उन्होंने अपने संघर्षों में हार नहीं मानी है और न ही कभी झुके हैं। यह कविता उन नेताओं की आलोचना करती है जो सत्ता में आकर अपने वादों को भूल जाते हैं और केवल अपने स्वार्थ की पूर्ति में लगे रहते हैं।

“जान गए हैं विकास की गंगा किस तट थमी हुई है 
खुशहाली भी कहाँ-कहाँ किस-किस ठौर रमी हुई है
मन पर बोझ लिए चलते हैं पथ पर नहीं रूके हैं हम ।।“

43.*“छलिया खेले खेल”* का सार यह है कि राजनीति में छल-कपट और चापलूसी का बोलबाला है। नेता मीठी-मीठी बातें करके जनता को धोखा देते हैं और सत्ता का दुरुपयोग करते हैं। जनता भूखी-प्यासी रह जाती है और उनके नारे भी उनके पेट नहीं भरते। लोकतंत्र के चारों स्तम्भ (संविधान, न्यायपालिका, कार्यपालिका, मीडिया) नेताओं के सामने नतमस्तक हैं और उनके कृत्यों पर अंकुश लगाने में विफल हैं। गाँवों और नगरों में भी चापलूसी का माहौल है और नेता गुस्से में रहते हैं।

“भूखे प्यासे झंडा लेकर 
पेट भर रहे नारे खाकर
डाले कौन नकेल”

44.*“उपवन बहुत उदास है”* नवगीत का मुख्य भावार्थ यह है कि समाज में अव्यवस्था और पीड़ा फैली हुई है। समाज (उपवन) उदास और भयभीत है, नए और मासूम लोग (खिलती कलियाँ) डरे हुए हैं। माली (प्रशासन) अपने कर्तव्यों से बेखबर है, और हर व्यक्ति दर्द सह रहा है। समाज की शुद्धता नष्ट हो चुकी है, और बड़े-बड़े लोग भी लाचार हो गए हैं। नियम और कायदे भी व्यापार का हिस्सा बन गए हैं, और सब लोग उस व्यापार के दास हो गए हैं। यह कविता समाज की स्थिति पर गहरा कटाक्ष करती है और उसकी वास्तविकता को उजागर करती है।

“उपवन बहुत उदास है
आतंकित है खिलती कलियाँ / सिहराती है चहल कदमियाँ
काँटे भी आसपास हैं”

45.गीत *“वसंत आया है”* में वसंत ऋतु का आगमन तो हुआ है, लेकिन यह केवल बाहरी दिखावे तक सीमित है। अखबारों में रंग-बिरंगे चित्र हैं, लेकिन मन में खुशी नहीं है। समाज में गमले के पौधे (लोग) उदास और निढाल हैं, और उपवन (समाज) मुरझाया हुआ है। वन टेसू का मुस्कराना इस बात का प्रतीक है कि कहीं न कहीं थोड़ी बहुत खुशी है, लेकिन संपूर्ण समाज में वह खुशी महसूस नहीं हो रही है। गीत समाज की आंतरिक उदासी और बाहरी दिखावे के बीच के विरोधाभास को उजागर करता है।

“यह कैसा वसंत आया है
अखबारों के पृष्ठ रंगे हैं अमराई के चित्र टंगे हैं
मन मगर कहाँ हुलसाया है”

46.*“बरसो बादल”* नवगीत में समाज और उसकी व्यथा को उपवन (बगीचे) के रूपक के माध्यम से व्यक्त किया गया है। समाज में अव्यवस्था और पीड़ा फैली हुई है। समाज (उपवन) उदास और भयभीत है, नए और मासूम लोग (खिलती कलियाँ) डरे हुए हैं। माली (प्रशासन) अपने कर्तव्यों से बेखबर है, और हर व्यक्ति दर्द सह रहा है। समाज की शुद्धता नष्ट हो चुकी है, और बड़े-बड़े लोग भी लाचार हो गए हैं। नियम और कायदे भी व्यापार का हिस्सा बन गए हैं, और सब लोग उस व्यापार के दास हो गए हैं। 

“नन्हीं कलियों के सपने पेड़ों के भी दुख अपने 
भंग हुई है लय नदियों की ठिठक खड़े हुए हैं झरने
अब तक केवल शेष रहा है हलधर की आँखों का जल ।।“

47.*“बादल आए हैं”* इस नवगीत में कवि ने वर्षा के आगमन से उत्पन्न होने वाली खुशियों और उत्सव का सुंदर वर्णन किया है। प्रकृति का मानवीकरण करते हुए, उन्होंने बादलों को समुद्र का संदेशवाहक, बारिश की आवाज़ को शहनाई और बूंदों को शुभ संदेश वाहक के रूप में प्रस्तुत किया है। गीत में नदियों, खेतों, वन-क्षेत्र, घर-आँगन, और गली-गली का चित्रण कर पूरे वातावरण में उत्सव और खुशी का माहौल बनाया है। 

“अँकुराई आशाएँ नदियों की आँखें भर आई 
छत पर अविरल गूँज रही है बूंदों की शहनाई
घट भर दौड़ दौड़ कर दल के दल आए हैं”

48.*“क्यों कर बदल गए”* यह गीत गाँव के बदलते स्वरूप और उसकी पुरानी सादगी के खो जाने पर चिंता व्यक्त करता है। गीत की भाषा सरल और प्रभावशाली है, जो सीधे दिल को छू जाती है।  नदियों, अमराइयों, खेतों और लोक पर्वों का उल्लेख करते हुए गीत गाँव की पुरानी जीवनशैली और उसकी सादगी को याद दिलाता है। इसके साथ ही, गीत में आधुनिकता के प्रभाव और गाँव के लोगों के बदलते मूल्यों पर भी ध्यान आकर्षित किया गया है। बाजार की चकाचौंध और टी.वी. की नकली मुस्कानों के पीछे भागते हुए गाँव ने अपनी पुरानी परंपराओं और सादगी को खो दिया है।

49.*“हे! नववर्ष”* : यह गीत नववर्ष के स्वागत और उससे जुड़ी उम्मीदों और प्रार्थनाओं को बेहद संवेदनशील और भावपूर्ण तरीके से प्रस्तुत करता है। गीत में नववर्ष से न्याय, समानता, और समृद्धि की प्रार्थना की गई है। यह उन लोगों के लिए भी खुशहाली की कामना करता है जो संघर्षरत हैं और जिनकी आँखों में नमी है। गीत आत्म-निरीक्षण का भी संदेश देता है, जिसमें बीते हुए वर्षों की भूलों और चूकों पर विचार किया गया है।

“गत वर्षों में भूले क्या? चूक कहाँ पर हुई 
जगमग जीवनमूल्यों की चमक कहाँ खो गई
मानवता के हित में हो सार्थक कोई विमर्श।।“

50.*“अपना देश”* यह गीत भारत के प्रति गहरी प्रेम और सम्मान की भावना को व्यक्त करता है। गीत में देश की प्राकृतिक सुंदरता, धार्मिक और सांस्कृतिक धरोहर, और महान संतों और कवियों की विरासत का उल्लेख है।  गीत में प्रेम, श्रद्धा, और सम्मान की भावना स्पष्ट रूप से झलकती है, जो हर भारतीय के दिल में बसे देशभक्ति के जज्बे को प्रकट करती है।

“मुझको प्यारा लगता, अपना देश है 
अपनी माटी है, अपना परिवेश है
गंगा, यमुना, कावेरी 
रेवा का निर्मल नीर है 
विंध्याचल, सतपुड़ा मेखला हिमगिरि दृढ़ गंभीर है”

51.*“माँ- बाबूजी ही दिखते हैं”* यह गीत हमें हमारे माता-पिता के प्रति सम्मान और प्रेम की गहरी भावना से भर देता है। यह हमें याद दिलाता है कि हमारे माता-पिता का योगदान हमारे जीवन में कितना महत्वपूर्ण है और उनकी यादें हमें हमेशा प्रेरित करती हैं। यह गीत उन सभी के लिए एक प्रेरणा है जो अपने माता-पिता की यादों को संजोकर रखते हैं और उनकी शिक्षाओं को अपने जीवन में अपनाते हैं।

“गए नहीं है माँ- बाबूजी हर पल घर में ही रहते हैं
माँ के स्वर में बहन-बेटियाँ उच्च नीच समझाती हैं 
बाबूजी की सीखें मेरी हर उलझन सुलझाती हैं”

52.*“याद की खुशबू”* यह गीत हमें यादों की महक, प्रेम की सुंदरता और उसकी ताजगी को अनुभव कराता है। गीत के माध्यम से यह संदेश मिलता है कि प्रेम की यादें हमेशा ताजगी और जीवन की खुशबू के साथ हमारे साथ रहती हैं। यह गीत न केवल प्रेमियों के लिए, बल्कि हर उस व्यक्ति के लिए है, जिसने कभी प्रेम किया है और उसकी यादों को संजोकर रखा है।

“लिपटकर फिर फूल से ज्यों 
हुलसकर बतिया रही हो तितलियाँ
आरोह से अवरोह तक स्वांस स्वर में धुन उतरती है 
मौन आधारों पर कोई मृदु गीत की पंक्ति उभरती है”

53.*“प्रिये तुम्हारी प्रीत”* यह गीत प्रेम, समर्पण, और धैर्य का उत्कृष्ट चित्रण करता है। प्रेयसी का प्रेम और उसका जीवन के प्रति समर्पण इस गीत में बखूबी व्यक्त किया गया है। यह गीत उनके संघर्षों, कठिनाइयों, और धैर्य को सजीव रूप में प्रस्तुत करता है। 

“माथे पर श्रम-सीकर फिर भी अधरों पर मुस्कान कई अभावों को जी कर भी आँखों में सम्मान
ताने, सिकवों में भी मीठा बजता है संगीत”

गीत की भाषा सरल और भावपूर्ण है, जो दिल को छू लेने वाली है। हर छंद में प्रेयसी के समर्पण और उसकी निस्वार्थ प्रेम को व्यक्त किया गया है। गीत सावित्री-सत्यवान की पौराणिक कथा का संदर्भ देकर प्रेम और समर्पण की गहराई को और भी प्रभावी बनाता है।  यह गीत न केवल प्रेयसी के प्रति प्रेम को दर्शाता है, बल्कि यह भी बताता है कि सच्चा प्रेम किस प्रकार हर कठिनाई को पार कर सकता है। यह गीत उन सभी को प्रेरित करता है जो अपने जीवन में प्रेम और समर्पण की तलाश में हैं।

54.*“यह समय कितना कड़ा है”*
यह गीत कोरोना महामारी के दौरान उत्पन्न हुई कठिनाइयों, अनिश्चितताओं, और भय को प्रभावी ढंग से प्रस्तुत करता है। गीत की पंक्तियाँ दर्शाती हैं कि यह समय कितना कठिन है और सभी को इस संकट का सामना करना पड़ रहा है। यह महामारी ने समाज की व्यवस्थाओं की कमजोरियों को उजागर किया है और बताया है कि कैसे एक 

“छोटा सा वायरस पूरी दुनिया के लिए बड़ा संकट बन गया है।
यह समय कितना कड़ा है। सामना जिससे पड़ा है।
इस भयावह दौर की हैं अनकही सब की कहानी। 
है धरातल पर अपाहिज व्यवस्थाएँ आसमानी।
एक छोटा वायरस भी हो गया कितना बड़ा है।“

55.*“भूखा पेट गरीब का (कोरोना प्रसंग)”* यह गीत कोरोना महामारी के दौरान गरीब मजदूरों की स्थिति को प्रभावी ढंग से प्रस्तुत करता है। गीत में उनकी उम्मीदों और वास्तविकता के बीच के अंतर को भी दर्शाया गया है। यह बताया गया है कि कैसे वे मेहनत और हौसले के साथ अपने सपनों को साकार करने की उम्मीद में थे, लेकिन महामारी के तूफान ने उनकी सारी उम्मीदों को तोड़ दिया। उनके सामाजिक अनुभवों का वर्णन करते हुए गीत ने यह भी बताया कि उन्हें केवल डाँट-डपट और झिड़कियाँ मिलीं, लेकिन कोई भी उनके साथ खड़ा नहीं हुआ।

“लौट कर घर आ रहे हैं छोड़कर सब नसीब का
हौसला तो था किनारे पहुँच जाएंगे 
था न पता माझधार में तूफान आएंगे
डाँट-डपट झिड़की मिली 
मिला न कोई करीब का।“

56.*“प्रश्न समय के”* यह गीत कोरोना महामारी के दौरान उत्पन्न अनिश्चितताओं, षडयंत्रों, और लोगों के टूटते विश्वास को दर्शाता है। इसमें कहा गया है कि कैसे महामारी ने समाज की तहजीब को खंड-खंड कर दिया है और लोग भय और संशय के दिनों में जी रहे हैं। गीत का केंद्रीय संदेश यह है कि महामारी ने न केवल भौतिक बल्कि मानसिक और सांस्कृतिक स्तर पर भी गहरा प्रभाव डाला है। 

“जहरीले अणुओं की लुका-छुपी जारी है
 मेहनत पर आदमखोर आंकड़े भारी है
छंद बिखर गए जीवन लय के”

57.*“डर बाहर भीतर”* यह गीत कोरोना महामारी के दौरान उत्पन्न भय और चिंताओं को दर्शाता है। गीत की पंक्तियाँ सजीव चित्रण करती हैं कि कैसे सड़के और गलियाँ सूनी हो गई हैं और लोग अपने-अपने घरों में कैद हो गए हैं। गीत का अंत सकारात्मक और आशावादी है, जो हमें यह विश्वास दिलाता है कि यह कठिन समय भी हमारे दृढ़ संकल्प और सही उपायों से हार जाएगा। 

“धीरे धीरे फैल गया है डर बाहर भीतर
सड़के सूनी गलियाँ सूनी सूने आंगन द्वार 
कैद हो गए अपने घर में भय शापित परिवार
शंकाओं का बीजारोपण है मन के अंदर”

58.*“ऊँचे आसन से”*: यह गीत अयोध्या प्रकरण पर सर्वोच्च न्यायालय के फैसले के बाद उत्पन्न हुए सकारात्मक परिवर्तन और भावनाओं को दर्शाता है। कवि ने बड़े ही संवेदनशील और प्रभावशाली तरीके से इस फैसले के बाद समाज में उत्पन्न हुए प्रेम, एकता और भाईचारे की भावना को व्यक्त किया है। यह गीत हमें यह संदेश देता है कि कैसे न्याय और समझदारी से लिए गए फैसले समाज में प्रेम और एकता का वातावरण बना सकते हैं। यह एक प्रेरणादायक गीत है जो हमें सिखाता है कि नफरत को कैसे प्रेम और समझदारी से मिटाया जा सकता है।

“कुछ किरणें आई हैं सूरज के ऊँचे आसन से
मतभेदों की जमी बर्फ फिर धीरे-धीरे पिघली
साफ हुई मन की मैली काई, सब अगली पिछली
धुली नफरतें धरती की अनुराग भरे सावन से”

59.*“लोकतंत्र का उत्सव”*
यह गीत हमें आत्ममंथन करने के लिए प्रेरित करता है कि क्या हम वाकई अपने लोकतंत्र और उसके मूल्य को समझते हैं, या केवल प्रतीकात्मकता तक ही सीमित हैं। कुल मिलाकर, यह गीत एक गंभीर संदेश देता है और पाठकों को विचार करने पर मजबूर करता है कि वे कैसे अपने देश और उसके संविधान का सम्मान कर सकते हैं और असली बदलाव ला सकते हैं।

“आओ आज मनाएँ फिर लोकतंत्र का उत्सव
देशभक्त बन कर कुछ बोलें संविधान की पुस्तक खोलें
गणतंत्र का मंत्र जपें और भीड़तंत्र का हिस्सा हो लें

60. *“प्रतिफल”*
यह गीत आजादी के असली अर्थ और उसकी वर्तमान स्थिति पर एक गंभीर टिप्पणी है। कवि ने सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक असमानताओं को उजागर किया है और यह दिखाया है कि कैसे आजादी के जश्न मनाए जा रहे हैं, लेकिन उनके ठोस परिणाम नहीं दिखाई दे रहे हैं।

“आजादी के जश्न बहुत हैं गुम है सब प्रतिफल
झोपड़ पट्टी में अंधियारा राजमहल रोशन
दृश्यहीन है कोहरे में संसद के अधिवेशन
अपनी-अपनी जयकारों का बढ़ता कोलाहल”

61.*“सपने बोए जाएँगे”* नवगीत आजादी के असली अर्थ और उसकी वर्तमान स्थिति पर एक गंभीर टिप्पणी है। कवि ने सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक असमानताओं को उजागर किया है और यह दिखाया है कि कैसे आजादी के जश्न मनाए जा रहे हैं, लेकिन उनके ठोस परिणाम नहीं दिखाई दे रहे हैं। गीत में खेती और व्यापार में हो रही गतिविधियों और व्यापारियों की प्रलोभनकारी प्रवृत्ति को दिखाया गया है। बाजार की मांग और मूल्य आधारित चयन को दर्शाया गया है।

“मंत्रमुग्ध होकर मेड़ों से लहराती फसलें देखेंगे
 सौदा करती, वादा करती व्यापारी नस्लें देखेंगे
फिर लोक-समर्थन मूल्यों की उत्पादें छांटी जाएंगी।“

62. *“बसा हुआ है गाँव”* 
नवगीत में  कवि कहते हैं कि धारूखेड़ी गाँव अब भी उनके मन के एक कोने में बसा हुआ है। यह उनकी गहरी यादों और भावनाओं का प्रतीक है जो गाँव से जुड़ी हैं।

“मन के एक कोने में अब भी बसा हुआ है गाँव
कल-कल छल-छल हँसती गाती रूप-रेल नदी
हर सुख-दुख में साथ निभाती बीती कई सदी
तट की मनभावन हरियाली 'औं' अमराई छांव”

गीत की भाषा सरल और प्रभावी है। कवि ने गाँव की प्राकृतिक सौंदर्य, फसलों, खेल-कूद और सामाजिक गतिविधियों को सजीव रूप में प्रस्तुत किया है। यह गीत सांस्कृतिक धरोहर और सामूहिकता की भावना को दर्शाता है। गाँव की चौपालों में होने वाली चर्चाएँ और रामायण की कथाएँ गाँव की सामूहिकता और सामाजिक जुड़ाव को उजागर करती हैं। कुल मिलाकर, यह गीत गाँव की सादगी, सुंदरता और सांस्कृतिक समृद्धि को सुंदरता और संवेदनशीलता से प्रस्तुत करता है। पाठक इसे पढ़कर गाँव के जीवन की मिठास और उसकी अनमोल यादों में खो जाते हैं।

63.*“चश्मे अलग-अलग”* यह गीत व्यक्तियों के अलग-अलग दृष्टिकोण, विचारधारा, और दृष्टिकोण की विविधता को गहराई से प्रकट करता है। कवि ने चश्मे और दृष्टि के प्रतीकों का उपयोग करके यह दिखाया है कि हर व्यक्ति की सोच और दृष्टि कैसे भिन्न हो सकती है।

“सब के चश्मे अलग-अलग हैं नम्बर अलग-अलग
देख रहा है कोई सावन की हरियाली
और किसी को दिखती पूरी बगिया खाली”

यह गीत न केवल दृष्टिकोण की विविधता को दर्शाता है, बल्कि यह भी बताता है कि कैसे पूर्वाग्रह और स्वार्थी दृष्टिकोण व्यक्ति की दृष्टि को प्रभावित कर सकते हैं। 

64.*“नाव है मझधार में”* यह गीत एक कठिन और अनिश्चित स्थिति का चित्रण करता है। कवि ने अपनी स्थिति को एक मझधार में फंसी नाव के रूप में वर्णित किया है, जहाँ पतवार जर्जर हो चुकी है और दिशाएँ अस्पष्ट हैं। विभिन्न प्रतीकों का उपयोग किया है, जैसे कि पतवार, मझधार, दिशा सूचक यंत्र, और आंधियाँ। 

“है उपेक्षा दिशा सूचक यंत्र के व्यवहार में
आंधियों की सुन रहे हैं गूँज भी उस पार से
है खिवैया आंख मूंदे लहर से जलधार से
ध्वस्त उम्मीदें हुई हैं इसी सोच विचार में।“

यह गीत असहायता, निराशा और अनिश्चितता की भावनाओं को गहराई से प्रकट करता है। कवि ने अपने भावनात्मक और मानसिक संघर्ष को प्रभावी रूप से चित्रित किया है, जिससे पाठक उनकी स्थिति को समझ सकते हैं और उनके दर्द को महसूस कर सकते हैं।

65. *“अटूट रिश्ता है”*
इस नवगीत में कवि बताते हैं कि जब वे अकेले होते हैं, तो अक्सर उनके सामने हरसूद के दृश्य उभरते हैं। स्टेशन से घोसी मोहल्ला तक के दृश्य उनकी स्मृतियों में ताज़ा रहते हैं। यह गीत कवि की हरसूद के प्रति गहरी भावनाओं और अटूट रिश्ते को दर्शाता है। हरसूद की स्मृतियाँ कवि के मन में गहरी जड़ें जमा चुकी हैं और वे उन्हें कभी नहीं भूल पाएंगे। 

“यादों में हरसूद आज भी वैसा ही लगता है
मेन रोड की चहल-पहल और मधुर शोर
विद्यालय का कठिन समस्याओं को सुलझता तहसील कार्यालय का
मन फिर घायल होकर इनकी डूब व्यथा सहता है”

यह गीत सांस्कृतिक धरोहर और अटूट संबंधों की गहराई को दर्शाता है। हरसूद के विभिन्न मोहल्लों, धार्मिक स्थलों, और सामाजिक जीवन का वर्णन कवि ने अत्यंत संवेदनशीलता और प्रेम के साथ किया है। पाठक इसे पढ़कर अपने अतीत की यादों में खो जाते हैं और कवि की भावनाओं को गहराई से महसूस कर सकते हैं।

66. *“बरस कई बीते”*
नवगीत में कवि कहते हैं कि उनकी यादों का घट (घड़ा) भरा हुआ है, लेकिन खुशियों से खाली है। हरसूद को छोड़े हुए कई बरस बीत गए हैं, और इस समय के दौरान उनकी यादें तो हैं, लेकिन खुशियां नहीं रही।

“सुधियों के भरे घट खुशियों से रीते
छोड़ें हरसूद को बरस कई बीते
खूँटे पर लाकर बाँध दिया गाय-सा
दौड़ता हाँफता समय असहाय सा
गुजर गई एक उमर दिवा स्वप्न जीते”

यह गीत मनुष्य के आंतरिक संघर्ष, अतीत की यादों और वर्तमान की कठिनाइयों को चित्रित करता है। कवि ने अपनी भावनाओं और पीड़ा को गहराई से व्यक्त किया है। हरसूद को छोड़े हुए समय के साथ, कवि ने अपने जीवन की विभिन्न कठिनाइयों और संघर्षों का वर्णन किया है।

67. *“हरसूद दिखा था”*
यह गीत अतीत की यादों को संजोए हुए है। कवि ने अपने जीवन के एक महत्वपूर्ण स्थान हरसूद को याद करते हुए अपनी भावनाओं को प्रकट किया है। हरसूद उनके जीवन का एक अभिन्न हिस्सा था, जहाँ उनकी कई सुनहरी यादें बसी हुई थीं। 

“इक उम्र का हिस्सा यहीं पर रखा था कुछ सुनहरी याद की आधार शिलाएँ पास उसके लिखी हुई थी जो कथाएँ धुल गए अक्षर सभी बस 'डूब' लिखा था”

'डूब' शब्द का अर्थ हो सकता है कि उनकी सारी यादें और अनुभूतियाँ समय की धारा में बह गई हैं, जैसे कि हरसूद अब केवल एक खोई हुई याद बनकर रह गया है।

श्री रघुवीर शर्मा का गीत-नवगीत संग्रह *"नीलकंठी प्रार्थनाएं"* एक समृद्ध और विविधता से भरा काव्य संग्रह है, जिसमें जीवन के विभिन्न पहलुओं को गहराई से प्रस्तुत किया गया है। श्री रघुवीर शर्मा की कविताओं में भावनाओं की गहराई और संवेदनशीलता स्पष्ट रूप से दिखाई देती है। उनकी रचनाएँ पाठकों को जीवन की जटिलताओं और मानवीय भावनाओं की गहराइयों तक ले जाती हैं। 

*“नीलकंठी प्रार्थनाएं”* में प्राकृतिक सौंदर्य और दृश्यावलियों का वर्णन अद्वितीय है। कविताओं में प्रकृति के तत्वों का प्रभावशाली उपयोग किया गया है, जो पाठकों को एक अद्भुत अनुभूति प्रदान करता है। इस संग्रह में समाज और संस्कृति के विभिन्न पहलुओं का विवेचन किया गया है। कविताएँ समाज की समस्याओं, संघर्षों और संस्कृतिक विविधताओं को चित्रित करती हैं। संग्रह की कविताओं में आध्यात्मिकता और प्रार्थना की भावना भी विद्यमान है, जो पाठकों को आत्मनिरीक्षण और आत्मचिंतन के लिए प्रेरित करती हैं।

*श्री रघुवीर शर्मा* की लेखन शैली सरल, स्पष्ट और प्रभावशाली है। भाषा का प्रयोग सरलता से किया गया है, जिससे कविताएँ सीधे पाठकों के हृदय तक पहुँचती हैं।

इस प्रकार, मैंने प्रत्येक रचना को अलग-अलग पढ़ा और समझा, और उनकी समग्र समीक्षा प्रस्तुत की है, जोकि न केवल रचनाकार के लिए महत्वपूर्ण हो सकती है, बल्कि पाठकों के लिए भी उपयोगी साबित हो सकती है। इस प्रयास में, मैंने किसी भी प्रकार की पूर्वाग्रह या पक्षपात से बचने का पूरा प्रयास किया है, ताकि मेरी समीक्षा वस्तुनिष्ठ और सच्ची हो सके।

आशा है कि "नीलकंठी प्रार्थनाएं" साहित्य जगत में अपार प्रतिष्ठा पाएगी और इसे पाठकों का भरपूर स्नेह मिलेगा। 

सादर।

#डॉ आलोक गुप्ता
पेटेंट अटॉर्नी, आलोक गुप्ता एंड एसोसिएट्स 
-“आशीर्वाद”, 626 , जवाहर कॉलोनी, नई मंडी, मुज़फ्फरनगर 
मो. 9319279551
ईमेल. ashirwad626@gmail.com
14 जुलाई ,2024