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सोमवार, 28 फ़रवरी 2022
शीला पाण्डेय जी के नवगीत
रविवार, 27 फ़रवरी 2022
।।वागर्थ।।~ प्रस्तुत करता है बाबा नागार्जुन के दो गीत।
मंगलवार, 22 फ़रवरी 2022
समीक्षा
शुक्रवार, 4 फ़रवरी 2022
जगदीश श्रीवास्तव जी के नवगीत प्रस्तुति : वागर्थ
वागर्थ प्रस्तुत करता है वरेण्य कवि जगदीश श्रीवास्तव जी के आठ नवगीत
आज की पूरी प्रस्तुति का सौजन्य एवं श्रेय वरेण्य कवि दादा मयंक श्रीवास्तव जी को जाता है। इन नवगीतों को पढ़कर एक बात ही जहन में आती हैं नवगीत कथ्य और शिल्प के स्तर पर 1984 में कितना समृद्ध और दमदार था।
जगदीश श्रीवास्तव जी के नवगीत आज भी उतने ही प्रासंगिक हैं।
प्रस्तुति
वागर्थ
_______
एक
गंध रोटी की
______________
जिन्दगी
चलती रही है
बैलगाड़ी में
हर तरफ
फैली हुई है
गंध रोटी की !
लिख रही
है जो व्यथा
केवल लंगोटी की
जिन्दगी
छलती रही है
रेलगाड़ी में
चरमरा कर
रह गई
काँधा लगाए हैं
हम सदी के
बोझ को
सर पर उठाए हैं
डूबने से
बच गई है
उम्र खाड़ी में
चीमटा-
खुरपी कुदाली
जो बनाते हैं
खून-भट्टी में वही
हर दिन जलाते हैं
जिन्दगी
गिरवी रखी है
एक झाड़ी में
मंजिलों
से बेखबर
दिन रात चलती है
जब अलावों-सी
दिलों में
आग जलती है
बोझ ढ़ोते
उम्र गुजरी है -
तगाड़ी में
दो
सफ़ीलों पर
_____________
एक मोटी
पर्त काई की छा गई
बेजान
झीलों पर !
लोग कद को
ढूंढते हैं-
आज बौनों में
और
बहलाते हैं फिर
झूठे खिलौनों में
एक आदमखोर
सी दहशत
घूमती
सारे कबीलों पर
द्वार चौखट-
खिड़कियां
टूटी सलाखें हैं
सुलगती
चिनगारियों- सी
आज आँखें हैं
उतरती है
रोशनी-
छत से
सफीलों पर!
तीन
___
आख़री कन्दील
__________________
बुझ
रही है
रात की
अब-
आख़री
कन्दील!
पर्वतों के
हाथ पर
ठहरा हुआ आकाश
झूलता -सा
दीखता
जिसमें नया विश्वास
धूप में
तन को
सुखाती घाटियों में
झील!
चार
धूप की किरचें
_________________
आँख में
चुभने
लगी हैं
धूप की किरचें
घूमता है दिन-
किसी
हारे जुआरी -सा
धूप ने मारे
लहर को
शब्द-भेदी बाण
दूर है जल
सिसकते हैं
घाट के पत्थर
रेत में टूटे
घरौंदे
जल रहे हैं प्राण
हवा तक की
आँख में
अब
भर गईं मिरचें
पाँच
सड़कों पर
____________
शहरों में
मिला नहीं काम
अंधियारा
काटते रहे
अंधापन
बाँटते रहे
पगडंडी
पूछ रही नाम
भीतर से
टूटते रहे
दोस्त मगर
लूटते रहे
कहाँ कहाँ
हुए इंतक़ाम
सूनापन
फैलता रहा
सड़कों पर
खेलता रहा
बोझ सदा
ढोती है शाम!
छह
बजरों में फूल
________________
इस तरह से
बाजुओं को तान
जो बना दे भीड़ में पहचान
बात में
वो बात पैदाकर
पत्थरों में
आग पैदाकर
नीव महलों की
हिला दे तू
जोश अपना फिर
दिखा दे तू
तोड़ दे गतिरोध की चट्टान
मत उलझ
बेकार बातों में
बिषभरी-
रंगीन रातों में
पोथियाँ इनकी
जला दे तू
हस्तियॉं इनकी
मिटा दे तू
करवटें ले देह में दिनमान
जिन्दगी
जिसका करे विश्वास
तू बना ऐसा
नया इतिहास
आज फिर दुहरा
न पिछली भूल
बजरों में फिर
खिला दे फूल
पीढ़ियाँ जिसका करें सम्मान
सात
_____
धार के
विपरीत
बहना है
जो खिलाफत में
खड़ा होगा
ज़ुल्म से
वो ही
लड़ा होगा
लहर से यह
बात कहना है
अब न
हम पर
कहर टूटेगा
आँधियों में
तीर छूटेगा
अहम का
हर किला
ढहना है।
आठ
लिख पसीने से
__________________
गीत अपना
पत्थरों पर
लिख पसीने से
तोड़ दे ऐसी व्यवस्था
जिसमें आदनखोर
आदमी को आदमी
पूरा निगलते हैं।
तू सुखा दे खून लेकिन
कुछ नहीं होगा
रक्तरंजित हाथ जब
शोले उगलते हैं।
सोख सागर
मत उलझ
ज्यादा सफीने से
कब तलक आवाज़
रक्खोगे तिज़ोरी में
जहन में अंगार
हाथों में मशालें हैं
मुल्क बातों से कभी
आगे नहीं बढ़ता
वो खिलौना समझकर
हमको उछाले हैं।
आग निकले
पीठ, गर्दन
रीढ़ सीने से
जगदीश श्रीवास्तव
______________________
परिचय
जन्म- १५ नवंबर १९३७
शिक्षा- एम.ए. हिंदी एवं भूगोल, बीएड, साहित्यरत्न।
कार्यक्षेत्र- लेखन एवं अध्यापन। विदिशा के जगदीश श्रीवास्तव अपने गीतों की लय, उनके सामाजिक सरोकार तथा छंद सौंदर्य के कारण जाने जाते हैं।
प्रकाशित कृतियाँ-
गजल एवं गीत संग्रह- तारीखें 1978
मुक्तक संग्रह- बूँद 2005
नवगीत संग्रह- शहादत के हस्ताक्षर 1982, जलते हे सवाल 2005
सम्मान व पुरस्कार-
नटवर गीत सम्मान सहित अनेक सम्मानों व पुरस्कारों से सम्मानित।
संप्रति- सेवानिवृत्त व्याख्याता, शिक्षा विभाग, मध्य प्रदेश।
सम्पर्क
गुप्तेश्वर मन्दिर विदिशा मध्यप्रदेश