उदय प्रताप सिंह जी का एक प्रेम गीत
मैं धन से निर्धन हूँ पर मन का राजा हूँ
तुम जितना चाहो प्यार तुम्हें दे सकता हूँ
मन तो मेरा भी चाहा करता है अक्सर
बिखरा दूँ सारी ख़ुशी तुम्हारे आँगन में
यदि एक रात मैं नभ का राजा हो जाऊँ
रवि, चाँद, सितारे भरूँ तुम्हारे दामन में
जिसने मुझको नभ तक जाने में साथ दिया
वह माटी की दीवार तुम्हें दे सकता हूँ
तुम जितना चाहो प्यार तुम्हें दे सकता हूँ
मुझको गोकुल का कृष्ण बना रहने दो प्रिय!
मैं चीर चुराता रहूँ और शर्माओ तुम
वैभव की वह द्वारका अगर मिल गई मुझे
सन्देश पठाती ही न कहीं रह जाओ तुम
तुमको मेरा विश्वास सँजोना ही होगा
अंतर तक हृदय उधार तुम्हें दे सकता हूँ
तुम जितना चाहो प्यार तुम्हें दे सकता हूँ
मैं धन के चन्दन-वन में एक दिवस पहुँचा
मदभरी सुरभि में डूबे साँझ-सकारे थे
पर भूमि प्यार की जहाँ ज़हर से काली थी
हर ओर पाप के नाग कुंडली मारे थे
मेरा भी विषधर बनना यदि स्वीकार करो
वह सौरभ युक्त बयार तुम्हें दे सकता हूँ
तुम जितना चाहो प्यार तुम्हें दे सकता हूँ
काँटों के भाव बिके मेरे सब प्रीति-सुमन
फिर भी मैंने हँस-हँसकर है वेदना सही
वह प्यार नहीं कर सकता है, व्यापार करे
है जिसे प्यार में भी अपनी चेतना रही
तुम अपना होश डूबा दो मेरी बाँहों में
मैं अपने जन्म हज़ार तुम्हें दे सकता हूँ
तुम जितना चाहो प्यार तुम्हें दे सकता हूँ
द्रौपदी दाँव पर जहाँ लगा दी जाती है
सौगंध प्यार की, वहाँ स्वर्ण भी माटी है
कंचन के मृग के पीछे जब-जब राम गए
सीता ने सारी उम्र बिलखकर काटी है
उस स्वर्ण-सप्त लंका में कोई सुखी न था
श्रम-स्वेद जड़ित गलहार तुम्हें दे सकता हूँ
तुम जितना चाहो प्यार तुम्हें दे सकता हूँ
मैं अपराधी ही सही जगत के पनघट पर
आया ही क्यों मैं सोने की ज़ंजीर बिना
लेकिन तुम ही कुछ और न लौटा ले जाना
यह रूप-गगरिया कहीं प्यार के नीर बिना
इस पनघट पर तो धन-दौलत का पहरा है
निर्मल गंगा की धार तुम्हें दे सकता हूँ
तुम जितना चाहो प्यार तुम्हें दे सकता हूँ !
-उदयप्रताप सिंह