गुरुवार, 14 नवंबर 2024

भूमिका

शतकानुभूति के सन्दर्भ में दो शब्द 
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भक्ति साहित्य अमूमन संत कवियों मनीषियों द्वारा रचित अपने आराध्य के प्रति प्रेम और भक्ति को अभिव्यक्त करने वाली रचनाओं का समूह है। ज्ञान परम्परा में इस श्रेणी में आने वाला साहित्य भारतीय संस्कृति का अहम हिस्सा है। भक्ति साहित्य सरल और सुलभ काव्य भाषा में लिखा होने सदैव लोकप्रिय रहा है। भक्ति साहित्य के मूल में सदाचार, नैतिकता या फिर आत्मोत्थान पर ज़ोर दिया जाता है। 
     जैन दर्शन में, भक्ति साहित्य की अपनी सुदीर्घ परम्परा रही है। जैन वाङ्गमय में रचे भक्ति साहित्य पर दृष्टिपात करें तो पूर्वाचार्य माघनन्दी जी से लेकर उच्चारणाचार्य विनम्र सागर जी महाराज तक जिन्होंने "जीवन है पानी की बूँद" महाकाव्य रचकर अपने आपमें एक नूतन कीर्तिमान रचा जिसका रिकॉर्ड उल्लेख गिनीज बुक में दर्ज है; जैन वाङ्गमय में भक्ति साहित्य पर एक से बढ़कर एक ग्रंथ हमें अपने आत्म कल्याण के लिए सौंपे हैं। भक्ति साहित्य की इसी कड़ी में एक उल्लेखनीय नाम की चर्चा और जुड़ रही है। मुनि विनुत सागर जी, जो उच्चारणाचार्य 108 विनम्र सागर जी के प्रखर शिष्य हैं। लालघाटी स्थित तीर्थधाम नन्दीश्वर जिनालय भोपाल 2024 के वर्षायोग में मुनि विनुत सागर जी से जुड़ने का सुअवसर मिला। मुनि श्री विनुत सागर जी महाराज ने भक्ति साहित्य की अद्भुद सर्जना में एक साथ दो शतकों और संकलित शतक की रचना की है। शतकों और संकलित शतक की विषय वस्तु को देख कर, इनकी प्रेरणा के स्रोत का पता स्वतः लगाया जा सकता है। कवि ह्रदय युवा मुनि विनुत सागर जी महाराज ने पूर्वाचार्यों की परम्परा और छंदों का अनुसरण करते हुए 120 छंदों में "प्रेमरूपा समाधि भक्ति" की रचना की है। ज्ञेयता और छान्दसिक दृष्टि लगभग सभी छंदों की बनाबट और बुनावट एक जैसी होते हुए भी भावों की भिन्न अर्थ छवियाँ हैं; अनूठी उपमाएँ हैं, जो पढ़ने और सुनने वाले का मन मोहने के साथ अंतस में पड़े सुसुप्त वैराग्य को जाग्रत करने में समर्थ हैं। दृष्टव्य हैं कुछ पंक्तियाँ :-
पुण्य-पाप को रोकूँ भगवन, 
निज आतम में लीन रहूँ।
दर्श ज्ञान में थिर होकर में,
निज-पर का नित भेद करूँ।
सुख अनन्त को प्रतिपल भोगूँ
नाथ कृपा इतनी करना।
अंत समय में हे जिनदेवा,
हमको दर्शन दे देना।
          पूरे समाधि शतक में मुनि श्री के अंतस से निसृत वैराग्य वर्धक छन्द हैं जो चिंतन को विवस करते हैं। एक और शतक जिसको मुनि विनुत सागर जी ने अपने गुरुणामगुरु गणाचार्य परम पूज्य विराग सागर जी को समर्पित किया है, जिसका नाम "गुरु विराग का वैरागी शतक" है। मुनि विनुत सागर जी ने पथरिया के युगप्रतिक्रमण से प्रेरित होकर गुरु विराग का वैरागी शतक लिखना आरम्भ किया शतक के अस्सी छन्द ही पूरे हुए थे कि अचानक गणाचार्य विराग सागर जी की समाधि के समाचार ने विचलित अवश्य किया होगा। काश ! मुनि श्री स्वयं अपने कर कमलों से यह शतक गुरुणामगुरु गणाचार्य विराग सागर जी के कर कमलों में सौंप पाते पर नितयि को शायद यही मंजूर था। शतक पूरा होने से पहले ही आचार्य भगवन हमारे बीच नहीं रहे। भले ही गणाचार्य हमारे मध्य न हों पर मुनि विनुत सागर जी की श्रद्धा और भक्ति उन्हें हर छन्द में साकार करती है। गुरु विराग के वैरागी शतक में मुनि श्री विनुत सागर जी ने गणाचार्य विरागसागर जी के गुणों का भक्ति के अथाह सागर में गहरे उतरकर गुणगान किया है। कथन की पुष्टि के लिए प्रस्तुत है एक अंश;- 
नयन बने हैं आगम गुरु के,
ज्ञान में ख्याति पायी है।
आगम चक्खू साहू कृति जो,
क्रांति ज्ञान की लाई है।
आगम से नापें तोलें फिर,
चारों अनुयोगों के ज्ञाता
आगम सम्मत ही बोलें।
               तीसरा और अन्तिम "वर्धनाम शतक" मुनि विनुत सागर जी महाराज की स्वाध्यायी अध्यवसायी प्रवृत्ति का परिचायक है। मुनि श्री अपने समय का सम्यक उपयोग करते हैं, उन्हें जहाँ जो भाव ग्रहण करने मनन करने और चिंतन करने योग्य लगता है, वे उस भाव को संकलित कर लेते हैं। संकलित अंशों के सघन भाव और अनुभूतियों को कभी वह अपनी डायरी में, तो कभी कभी अन्तर में गहरे उतारते रहते हैं। वर्धमान शतक में मुनि श्री नें  130 से अधिक एक से बढ़कर एक श्रेष्ठ छंदों का संकलन एक जगह किया है। प्रकारान्तर से कहें तो स्वयं अपने सृजन के साथ अन्य कवियों की अच्छी रचनाओं अपने साथ स्थान देने का मतलब उनकी रचना धर्मिता को बहुमान देना है। प्रस्तुत है वर्धनाम शतक से संकलित रचना का एक अंश;-
"चाह नही धन वैभव की कुछ
एक भावना है मेरी।
निज के गुण निज में पा जाऊँ 
लगे नहीं कुछ अब देरी।
भटक चुका हूँ चारों गति में,
तुमसा हितकर न पाया।
और शरण नहीं मिला जगत में,
शरण आपकी हूँ आया।"
                      मुनि श्री विनुत सागर जी द्वारा रचित और संकलित शतक जनोपयोगी के साथ साथ ज्ञान और वैराग्य वर्धक हैं। शतकानुभूति के सन्दर्भ में सार संक्षेप में कहूँ तो मुनि श्री के द्वारा रचित इन  शतकों की स्थायी छाप ह्रदयपटल पर अधिक देर तक अंकित रहेगी ऐसा मेरा विश्वास है।
           मनोज जैन "मधुर"
          106, विठ्ठल नगर 
           लालघाटी 
           भोपाल 462030
मोबाइल 9301337806

रविवार, 3 नवंबर 2024

स्व जितेन्द्र बजाड़ के चार नवगीत प्रस्तुति : वागर्थ


स्व. जितेन्द्र शंकर 'बजाड़' जी के चार नवगीत
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    प्रस्तुति
~।।वागर्थ।।~
                              आप शिक्षा विभाग से सेवानिवृत्त अध्यापक थे। देश की प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में हिन्दी और राजस्थानी भाषा की सैंकड़ों रचनाएँ प्रकाशित हुई। बालकों के मनोविज्ञान से जुड़े साहित्य की आपको बहुत अच्छी समझ थी । 
            बालगीत, दोहे,छंद,कहानी,ललित निबंध, साहित्यिक गीत,साक्षरता, फिल्म लेख आदि आप निरंतर लिखते रहे। साहित्य की तकरीबन हर एक विधा में आपने लेखन किया और जन-जन के लोकप्रिय व्यक्ति बने। कुछ वर्षों तक मंचों पर भी काव्यपाठ किया ।    
                आकाशवाणी और दूरदर्शन के विभिन्न केन्द्रों से भी आपकी रचनाएँ समय-समय पर प्रसारित होती रही ।

1.

मैं कवि हूँ  मैं समय के पार देखूँगा 
अंधेरे में पल रहा उजियार देखूँगा 

रात चिड़िया चहकने पर 
जी नहीं सकती 
यह अमावस उजाले को 
पी नहीं सकती 

राह में कई खाइयाँ है
बढ़ती हुई परछाइयाँ है 
मगर फिर भी मैं सुबह का द्वार देखूँगा 

ऐ ! किरण के वंशधर को 
टोकने वाले 
है बता तू कौन मुझको
रोकने वाले 

दीपक नहीं मशाल हूँ मैं 
अंधेरे का काल हूँ मैं 
आज से हरपल मैं तेरी हार देखूँगा 

अरे दानव तू ऋषि की 
साधना मत भंग कर 
रोक कविता के कदम मत
राह यूँ न तंग कर 

भागीरथी सरिता है जैसे 
रश्मिरथी कविता है वैसे 
कलम की आंखों से नव संसार देखूँगा 

2.

तुम ने डाला रंग देह पर 
भीग गया भीतर तक मनुवा 

वासंती इठलाती अखियाँ
फगुना कर कुछ हँसी लजाई
सुधियों में अनगिन सतरंगी 
छवियाँ फिर से आ बौराई 

तुम ने गाया गीत गंध का
गूँजा सप्तम स्वर तक मनुवा 

आस लिए सपने उठ जागे 
काँप उठे फिर अधर कली से 
जब भी निकली फागुन गाती 
रंग खेलती भीड़ गली से 

तुमने चाहा चुप-चुप रहना 
बात पहुँच गई घर तक मनुवा

3.

आओ थोड़ी जंग खरोंचे 
कुन्द हो रही अपनी सोचें 

पाँच साल तक तू - तू मैं -मैं 
वाली एक राष्ट्रीय खिल्ली 
सुनने की आदी बन बैठी 
बरसों से बेचारी दिल्ली 

और आँकड़ों मे उलझे हम
अपने नाक कान मुँह नोचें 

ठुमक-ठुमक कर नाच रहे हैं 
कल तक जो थे लँगड़े लूले 
बन ठन कर बैठे सदनों में 
गलियारों मे फिरते फूले 

कुल्हे कमर मटकते सबके 
ठीक हुई टखनों की मोचें 

मन्दिर-मस्जिद-गिरिजाघर और
गुरुद्वारों की इस बस्ती में 
कौए चील गिद्ध बगुले हैं 
बैठे पेड़ों पर मस्ती में 

और ठूंठ से रगड़-रगड़ कर 
पैनी करते अपनी चोंचें 

4.

आओ कोई सपना साधें 
कोई गीत लिखें
व्यथा प्रीत की कथा गीत की 
आ मनमीत लिखें 

बाँचे ढाई अक्षर पलछिन-
दिनों-महीनों-बरसों
नागफनी भी ऐसे सींचें 
जैसे पीली सरसों 

बिसराये अधरों को आँखों 
से प्रीत लिखें 

सुख की दुख की जड़ चेतन की 
परिभाषाएँ हैं 
तेरी मेरी सबकी अनगिन 
अभिलाषाएँ हैं 

अपनी और पराई तजकर 
नूतन रीत लिखें 

हारे मन का हार परायो 
को पहना दें
बांधे उर के छोर भोर सी 
मीठी यादें 

हार सकल संसार 
पलभर की जीत लिखें

परिचय

स्व. जितेंद्र शंकर बजाड़

जन्म-2 नवंबर 1957
मंदसौर जिले के नारायणगढ़ गाँव में
मृत्यु-8 सितंबर 2020
चित्तौड़गढ़ जिले के बिछोर गाँव में 

माता-बरजी देवी
पिता-प्यारे लाल गुर्जर