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शुक्रवार, 30 जून 2023
मंगलवार, 20 जून 2023
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गुरुवार, 15 जून 2023
सुबोध श्रीवास्तव : ताश के बावन पत्तों पर मजबूत पकड़ - आलेख मनोज जैन
हाँ, कभी कभार घटनाओं का क्रम आगे पीछे जरूर हो सकता है। हाल ही में, मैंने समान अभिरुचि के सन्दर्भ में वृंदावन स्थित केलिकुंज आश्रमवासी, पीले बाबा यानी प्रेमानन्द जी महाराज का उदाहरण दिया है। आजकल हमारे मित्र सुबोध जी पर, राधावल्लभ श्री हरिवंश जी की विशेष कृपा है ; जिसके चलते उन्होंने अपने मन को 'राधा' नाम पर अटका दिया है ; और पीले बाबा को करोड़ो लोगों की तरह अपने ह्र्दय में बसा लिया है। ऐसा नही है कि यह प्रभाव सिर्फ सुबोध जी पर ही है; बाबा की एक क्लिप जो मुझे कभी सुबोध जी ने ही मेरे इनबॉक्स में भेजी थी, उसका सीधा असर मुझ पर भी समानरूप से हुआ। फिर क्या अपना मन भी उसी धारा में बहने लगा।
सुबोध जी वैसे तो सभी के सन्देशों की परवाह करते हैं और उनका रिप्लाई भी। पर मेरे द्वारा भेजी गई एकान्तिक वार्ता की एक-एक कड़ी, उनके मैसेज बॉक्स में सुरक्षित है। यहाँ सुरक्षित से मेरा आशय इन कड़ियों को सुनकर गुनने,और मंथन के लिए संरक्षित किये जाने से है। बाबा के अघोषित शिष्य सुबोध जी को डॉ.अभिजीत देशमुख जी द्वारा दिए गये नाम से सम्बोधित करें तो "सुबोधानन्द जी" ने, ऐसा ही किया है। वे बाबा की एकान्तिक वार्ता की कड़ियों और इन कड़ियों में व्याप्त तत्वदर्शन पर मेरी गवेषणात्मक टिप्पणियों को अक्सर अपने चिंतन का विषय बनाते रहते हैं। सुबोध जी साधना के मामले में भले ही नित्य कर्मकाण्डी ना हों, पर उनके सरल और तरल मन में, संवेदनाओं की रसधार नदी सदैव बहती रहती है, जिसे हममें से कोई भी अपने मन की आँखों से देख सकता है ; और उनके संपर्क में आने वाला हर शख्स आसानी से महसूस कर सकता है।
इन दिनों सुबोध श्रीवास्तव जी डॉ.अभिजीत देशमुख जी के सेवा प्रकल्पों से जुड़कर समाज सेवा और राजनीति के क्षेत्र में अपना योगदान दे रहे हैं। हम दोनों का सोच कृतज्ञता और कृतज्ञभाव के मामले में आरम्भ से ही एक जैसा रहा है। हम लोग कणभर के बदले मनभर और मनभर के बदले टनभर लौटाने में भरोसा रखते हैं।
सोशल मीडिया के निर्मम समय की सबसे बड़ी विडम्बना आभासी रिश्तों के जुड़ने और सच्चे रिश्तों के टूटने की है। हम लोग बाहर से भले जुड़े दिखाई दें, लेकिन वास्तविकता तो यह है, कि यहाँ हर आदमी अपने हिस्से का बनवास काट रहा है। तकनीकी युग ने जहाँ एक ओर मनुष्य को सुविधाएँ मुहैया करायी है तो वहीं दूसरी ओर अकेलेपन का संत्रास भी हमें अभिशाप के रूप में भेंट किया है।
लोग अपनी दुनियाँ में गुम होते जा रहे हैं, लेकिन जिनके मित्र सुबोध श्रीवास्तव जी जैसे हों, वे कभी अकेले नहीं रह सकते। सुबोध जी अपने से जुड़े हर एक मित्र का ध्यान रखते हैं। वे सोशल मीडिया पर आभासी समूह नहीं बनाते; वह लोगों से सतत संवाद बनाए रखते हैं,और जीवंत लोगों का बड़ा संगठन खड़ा करते हैं।
मित्र, सुबोध जी की शाही टीम में इक्का, बादशाह, बेगम से लेकर दुरी, तिरी, चौका, पंजा, सत्ता, अट्ठा नहला, दहला यानि पूरे बावन पत्तें हैं; और उन्हें ताश के सभी पत्तों को खेलने में महारत हासिल है।
खेलने के सन्दर्भ में प्रयुक्त शब्द खेल शब्द का उपयोग मैंने व्यंजनात्मक नहीं किया है। यहाँ खेलने के अर्थ ध्वन्यात्मक हैं। वे ताश के पत्तों से खेलते हैं पर कभी किसी के जज्बातों से नहीं !हममें से लगभग सभी ने अपने बचपन में मूर्ति बनने का खेल देखा भी होगा और खेला भी।उनकी एक स्नेहिल पुकार मित्रों को अपनी ओर खींच लेती है। इस सन्दर्भ में मुझे लगता है सुबोध जी के जीवन में द राइम ऑफ़ द एन्शियंट मेरिनर अंग्रेज़ी कवि सैम्युअल टेलर कॉलरिज द्वारा रचित कविता ने गहरा प्रभाव डाला है अँग्रेजी साहित्य के विद्यार्थी होने के कारण यह सही है कि उन्होंने यह कविता पाठ्यपुस्तक या पाठ्यक्रम में पढ़ रखी है। और इसकी पंक्तियों को सिद्ध कर लिया है। उनके जीवन में सम्मोहन की जड़ यहीं से मिलती है।
He holds him with his glittering eye....
यही कारण है कि इन्हें सम्मोहित होना और सम्मोहित करना दोनों क्रियाएँ अच्छी लगती हैं। ग्रुप कमान्डर समूह के किसी भी बच्चे को मूर्ति बन जाने का आदेश देता और चिह्नित बालक तत्क्षण ही अगले कमांड तक मूर्ति बना रहता। सुबोध जी के सन्दर्भ में इसे क्या कहा जाय आत्मीयता या आदेश ! कोई भी इनकी बात को मानने से इनकार नहीं करता। अपने पारदर्शी व्यक्तित्व के चलते सुबोध भाई अपनी मित्र मण्डली में अत्यंत लोकप्रिय हैं। वह सबका और सब उनका बहुत ध्यान रखते हैं।
कोविड कालीन, लॉकडाउन के कठोर निर्देश भी सुबोध जी पर अपनी वन्दिशें नहीं लगा पाये। इस दौरान वह अपने सभी मित्रों के सम्पर्क में रहे उनकी खैर खबर ली, जो मिला ठीक! और जो नहीं मिल सका उससे मिलने वे स्वयं पहुँचे; भले ही यह भेंट बहुत संक्षिप्त क्यों न हो, वे उस दौरान भी मित्रों से उनका संवाद जारी रहा जिस दौरान घरों को और शहर की सड़कों को सन्नाटे ने अपनी गिरफ्त में ले रखा था।
माता-पिता के संस्कारों का प्रभाव कहें या फिर दैवयोग यह उनका अपना अर्जित कौशल भी हो सकता है। सुबोध जी के मित्रों की संख्या का ग्राफ दिन पर दिन बढ़ता जा रहा है। समय के पावन्द मित्र सुबोध न खुद खाली बैठते हैं और न ही अपने मित्रों को खाली बैठने देते हैं। सुबोध जी राजसी अंदाज़ में मित्रों का दरबार सजाने की आदत में है। बकौल सुबोध श्रीवास्तव "शो मस्ट गो ऑन विथ यू ओर विथाउट यू "। वह किसी राजा की तरह अपनी मण्डली में मित्रों से मंत्रणा करते हैं और उन्हें नवरत्न संज्ञा देते हैं।
प्रकारान्तर से कहें तो सुबोध जी अपने मित्रों के छिपे टैलेंट को पहचानकर उनकी प्रतिभा को निरन्तर निखारते है।
इन्हें, मित्रों की वीकनेस देखने की बजाय उनकी स्ट्रेंथ पर काम करना आता है। शायद मित्रों का प्यार पाने की बजह भी यही है। वे प्रकृति से प्रेम करते हैं, उन्हें प्रकृति की सुंदरता घण्टो को निहारना पसन्द है। पानी के साथ अठखेलियाँ करना, वृक्षों पर मंकी क्लाइम्बिंग सहित नेचर से जुड़ीं बहुत छोटी बड़ी बातें उनके व्यक्तित्व का अभिन्न हिस्सा है। वह अपने सर्किल में, अकेले ऐसे व्यक्ति हैं जो अपनी तरफ से दस गुना आशा का संचार करते हैं; लिव विथ नेचर का जरूरी सन्देश देने वाले परम मित्र जरूरत पड़ने पर निरपेक्ष भाव से अपने मित्रों की तन, मन और धन से मदद करते है, इन्हीं गुणों के चलते वह अपने सर्किल में सबके चहेते हैं।
मित्रों की मण्डली में जहाँ एक ओर सखाभाव वाले हैं तो वहीं दूसरी ओर सुबोध जी के यहाँ सखियों की भी मात्रा भरपूर है। सुबोध भाई को बिना किसी भेद-भाव से जितना प्रेम सखाओं का मिलता है उतना ही उनकी सखी सहेलियों का भी। पिपरिया, जबलपुर, बड़ौदा, बैरसिया के साथ भोपाल के मित्रों का जिक्र अक्सर वह स्नेह से किया करते हैं।
कुल मिलाकर सेवा भाव से सराबोर हमारे इन मित्र के पास अपने मित्रों पर, लुटाने के लिए बहुत कुछ है। यह बात और है कि मुझे कभी कुछ माँगने की जरूरत पड़ी ही नहीं। हम लोग एक-दूसरे के भावों को पिछले पैंतीस सालों से बिना कहे ही समझ लेते हैं।
मैं, सुबोध जी जैसा मित्र पाकर स्वयं को गौरवान्वित महसूस करता हूँ। बचपन के न सही पचपन के अपने इस मित्र से अभी मुझे बहुत कुछ सीखना है। मेरे स्नेहिल आलेख का सही मूल्यांकन तो तनु भाभी को करना है। देखता हूँ दस नम्बर के स्केल पर मुझे कितने अंक मिलते हैं। आज का अवसर तो उनकी खुशियों में चार चाँद लगाने का है।क्यों न हम सब उन्हें मिलकर बधाइयाँ दें !
"जन्मदिन की बहुत शुभकामनाएँ"
__________________________
लेखक परिचय
जन्म २५ दिसंबर १९७५ को शिवपुरी मध्य प्रदेश में।
शिक्षा- अँग्रेजी साहित्य में स्नातकोत्तर
प्रकाशित कृतियाँ- दो नवगीत संग्रह
1. एक बूंद हम (नवगीत संग्रह)
2. धूप भरकर मुठ्ठियों में (नवगीत संग्रह)
पत्र-पत्रिकाओं आकाशवाणी व दूरदर्शन पर रचनाएँ प्रकाशित प्रसारित। निर्मल शुक्ल द्वारा संपादित "नवगीत नई दस्तकें" तथा वीरेन्द्र जैन द्वारा संपादित "धार पर हम (दो)" में संकलित। एक कविता संग्रह
पुरस्कार सम्मान-
मध्यप्रदेश के महामहिम राज्यपाल द्वारा सार्वजनिक नागरिक सम्मान २००९, म.प्र.लेखक संघ का रामपूजन मिलक नवोदित गीतकार सम्मान 'प्रथम' २०१०,अ.भा.भाषा साहित्य सम्मेलन का सहित्यप्रेमी सम्मान-२०१०, साहित्य सागर का राष्ट्रीय नटवर गीतकार सम्मान- २०११ सहित अनेक सम्मान
संप्रति-
सीगल लैब इंडिया प्रा. लि. में मैनेजर
______________________________________
ईमेल- manojjainmadhur25@gmail.com
पता
मनोज जैन
106,
विट्ठलनगर, गुफामन्दिर रोड
भोपाल
9301337806
सुबोध श्रीवास्तव : ताश के बावन पत्तों पर मजबूत पकड़ - आलेख मनोज जैन
इन दिनों, हमारे परम मित्र आदरणीय सुबोध श्रीवास्तव जी, सोशल मीडिया पर अच्छे-खासे चर्चित अपने अघोषित गुरु प्रेमानन्द जी महाराज के गहरे प्रभाव में हैं। यह महज संयोग ही है, जिसे मैंने गुजरते हुए वक़्त के सिंहावलोकन से जाना। तुलनात्मक दृष्टि से, हम दोनों मित्रों के जीवन की घटनाएँ, स्थितियाँ और उन परिस्थितियों का पड़ने वाला असर और प्रभाव, रेल की दो पटरियों की तरह मेल खाता है।
हाँ, कभी कभार घटनाओं का क्रम आगे पीछे जरूर हो सकता है। हाल ही में, मैंने समान अभिरुचि के सन्दर्भ में वृंदावन स्थित केलिकुंज आश्रमवासी, पीले बाबा यानी प्रेमानन्द जी महाराज का उदाहरण दिया है, इन दिनों हमारे मित्र सुबोध जी पर, राधावल्लभ श्री हरिवंश जी की विशेष कृपा है ; जिसके चलते उन्होंने अपने मन को 'राधा' नाम पर अटका दिया है ; और पीले बाबा को करोड़ो लोगों की तरह अपने ह्र्दय में बसा लिया है। ऐसा नही है कि यह प्रभाव सिर्फ सुबोध जी पर ही है; बाबा की एक क्लिप जो मुझे कभी सबोध जी ने भेजी थी, उसका सीधा असर मुझ पर भी समानरूप से हुआ। अपना मन भी उसी धारा में बहने लगा।
मेरे आत्मीय मित्र सुबोध जी को दुनियाभर के सन्देशों की परवाह हो या ना हो यह मैं नहीं जानता , पर मेरे द्वारा भेजी गई एकान्तिक वार्ता की एक-एक कड़ी, उनके मैसेज बॉक्स में सुरक्षित है। यहाँ सुरक्षित से मेरा आशय इन कड़ियों को सुनकर गुनने, और मंथन के लिए संरक्षित किये जाने से है। बाबा के अघोषित शिष्य सुबोधानन्द जी ने, ऐसा ही किया है। वे बाबा की एकान्तिक वार्ता की कड़ियों और इन कड़ियों में व्याप्त तत्वदर्शन पर मेरी गवेषणात्मक टिप्पणियों को अक्सर अपने चिंतन का विषय बनाते रहते हैं।
सुबोध जी साधना के मामले में भले ही नित्य कर्मकाण्डी ना हों, पर उनके सरल और तरल मन में, संवेदनाओं की रसधार नदी सदैव बहती रहती है, जिसे हममें से कोई भी अपने मन की आँखों से देख सकता है ; और उनके संपर्क में आने वाला हर शख्स आसानी से महसूस कर सकता है।
सोशल मीडिया के निर्मम समय की सबसे बड़ी विडम्बना आभासी रिश्तों के जुड़ने और सच्चे रिश्तों के टूटने की है। हम लोग बाहर से भले जुड़े दिखाई दें, लेकिन वास्तविकता तो यह है, कि यहाँ हर आदमी अपने हिस्से का बनवास काट रहा है। तकनीकी युग ने जहाँ एक ओर मनुष्य को सुविधाएँ मुहैया करायी है तो वहीं दूसरी ओर अकेलेपन का संत्रास भी हमें अभिशाप के रूप में भेंट किया है।
लोग अपनी दुनियाँ में गुम होते जा रहे हैं, लेकिन जिनके मित्र सुबोध श्रीवास्तव जी जैसे हों, वे कभी अकेले नहीं रह सकते। सुबोध जी अपने से जुड़े हर एक मित्र का ध्यान रखते हैं। वे सोशल मीडिया पर आभासी समूह नहीं बनाते; वह लोगों से सतत संवाद बनाए रखते हैं,और जीवंत लोगों का बड़ा संगठन खड़ा करते हैं।
मित्र, सुबोध जी की टीम में इक्का, वादशाह, बेगम से लेकर दुरी, तिरी, चौका, पंजा, सत्ता, अट्ठा नहला, दहला यानि पूरे बावन पत्तें हैं; और उन्हें ताश के सभी पत्तों को बख़ूबी खेलना आता है।
खेलने के सन्दर्भ में प्रयुक्त शब्द खेल शब्द का उपयोग मैंने व्यंजनात्मक नहीं किया है। यहाँ खेलने के अर्थ ध्वन्यात्मक हैं वे ताश के पत्तों से खेलते हैं कभी किसी के जज्बातों से नहीं!
हममें से लगभग सभी ने अपने बचपन में मूर्ति बनने का खेल देखा भी होगा और खेला भी।उनकी एक स्नेहिल पुकार मित्रों को अपनी ओर खींच लेती है। इस सन्दर्भ में मुझे लगता है सुबोध जी के जीवन में द राइम ऑफ़ द एन्शियंट मेरिनर अंग्रेज़ी कवि सैम्युअल टेलर कॉलरिज द्वारा रचित कविता ने गहरा प्रभाव डाला है अँग्रेजी साहित्य के विद्यार्थी होने के कारण यह सही है कि उन्होंने यह कविता पाठ्यपुस्तक या पाठ्यक्रम में पढ़ रखी है और इसकी पंक्तियों को सिद्ध कर लिया है। उनके जीवन में सम्मोहन की जड़ यहीं से मिलती है।
He holds him with his glittering eye - The Wedding-Guest stood still,And listens like a three years' child:The Mariner hath his will.
The Wedding-Guest sat on a stone:He cannot choose but hear;And thus spake on that ancient man,The bright-eyed Mariner.
यही कारण है कि इन्हें सम्मोहित होना और सम्मोहित करना दोनों क्रियाएँ अच्छी लगती हैं।
ग्रुप कमान्डर समूह के किसी भी बच्चे को मूर्ति बन जाने का आदेश देता और चिह्नित बालक तत्क्षण ही अगले कमांड तक मूर्ति बना रहता। सुबोध जी के सन्दर्भ में इसे क्या कहा जाय आत्मीयता या आदेश ! कोई भी इनकी बात को मानने से इनकार नहीं करता। अपने पारदर्शी व्यक्तित्व के चलते सुबोध भाई अपनी मित्र मण्डली में अत्यंत लोकप्रिय हैं। वह सबका और सब उनका बहुत ध्यान रखते हैं।
कोविड कालीन, लॉकडाउन के कठोर निर्देश भी सुबोध जी पर अपनी वन्दिशें नहीं लगा पाये। इस दौरान वह अपने सभी मित्रों के सम्पर्क में रहे उनकी खैर खबर ली, जो मिला ठीक! और जो नहीं मिल सका उससे मिलने वे स्वयं पहुँचे; भले ही यह भेंट बहुत संक्षिप्त क्यों न हो, वे उस दौरान भी मित्रों से उनका संवाद जारी रहा जिस दौरान घरों को और शहर की सड़कों को सन्नाटे ने अपनी गिरफ्त में ले रखा था।
माता-पिता के संस्कारों का प्रभाव कहें या फिर दैवयोग यह उनका अपना अर्जित कौशल भी हो सकता है। सुबोध जी के मित्रों की संख्या का ग्राफ दिन पर दिन बढ़ता जा रहा है। समय के पावन्द मित्र सुबोध न खुद खाली बैठते हैं और न ही अपने मित्रों को खाली बैठने देते हैं। अकबर की तरह उन्हें भी दरबार सजाने की आदत है।बकौल सुबोध श्रीवास्तव "शो मस्ट गो ऑन विथ यू ओर विथाउट यू "।
अकबर के दरबार में नवरत्न थे। अकबर की तर्ज पर सुबोध जी भी अपने मित्रों के टैलेंट को पहचानते हैं और उन्हें रत्न की संज्ञा से नवाजते हैं। और उनकी प्रतिभा को निखारते है।
इन्हें, मित्रों की वीकनेस देखने की बजाय उनकी स्ट्रेंथ पर काम करना आता है। शायद मित्रों का प्यार पाने की बजह भी यही है। वे प्रकृति से प्रेम करते हैं, सुंदरता को निहारते हैं। अपने पूरे सर्किल में अकेले अपनी तरफ से दस गुना आशा का संचार करते हैं; और जरूरत पड़ने पर निरपेक्ष भाव से मित्रों की तन, मन और धन से मदद करते है, इन्हीं गुणों के चलते वह अपने सर्किल में सबके चहेते हैं।।
मित्रों की मण्डली में जहाँ एक ओर सखाभाव वाले हैं तो वहीं दूसरी ओर सुबोध जी के यहाँ सखियों की भी मात्रा भरपूर है। सुबोध भाई को बिना किसी भेद-भाव से जितना प्रेम सखाओं का मिलता है उतना ही उनकी सखी सहेलियों का भी। पिपरिया, जबलपुर, बड़ौदा, बैरसिया के साथ भोपाल के मित्रों का जिक्र अक्सर वह स्नेह से किया करते हैं।
कुल मिलाकर सेवा भाव से सराबोर हमारे इन मित्र के पास अपने मित्रों पर, लुटाने के लिए बहुत कुछ है। यह बात और है कि मुझे कभी कुछ माँगने की जरूरत पड़ी ही नहीं। हम लोग एक-दूसरे के भावों को पिछले पैंतीस सालों से बिना कहे ही समझ लेते हैं।
मैं, सुबोध जी जैसा मित्र पाकर स्वयं को गौरवान्वित महसूस करता हूँ। बचपन के न सही पचपन के अपने इस मित्र से अभी मुझे बहुत कुछ सीखना है। मेरे स्नेहिल आलेख का सही मूल्यांकन तो तनु भाभी को करना है। देखता हूँ दस नम्बर के स्केल पर मुझे कितने अंक मिलते हैं। आज का अवसर तो उनकी खुशियों में चार चाँद लगाने का है।क्यों न हम सब उन्हें मिलकर बधाइयाँ दें !
"जन्मदिन की बहुत शुभकामनाएँ"
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मनोज जैन
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106,
विट्ठलनगर,
गुफामन्दिर रोड
भोपाल
9301337806
मंगलवार, 13 जून 2023
सुबोध श्रीवास्तव : ताश के बावन पत्तों पर मजबूत पकड़ - आलेख मनोज जैन
जन्मदिन पर विशेष
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सुबोध श्रीवास्तव : ताश के बावन पत्तों पर मजबूत पकड़
मनोज जैन
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इन दिनों, हमारे परम मित्र आदरणीय सुबोध श्रीवास्तव जी, सोशल मीडिया पर अच्छे-खासे चर्चित अपने अघोषित गुरु प्रेमानन्द जी महाराज के गहरे प्रभाव में हैं। यह महज संयोग ही है, जिसे मैंने गुजरते हुए वक़्त के सिंहावलोकन से जाना। तुलनात्मक दृष्टि से, हम दोनों मित्रों के जीवन की घटनाएँ, स्थितियाँ और उन परिस्थितियों का पड़ने वाला असर और प्रभाव, रेल की दो पटरियों की तरह मेल खाता है।
हाँ, कभी कभार घटनाओं का क्रम आगे पीछे जरूर हो सकता है। हाल ही में, मैंने समान अभिरुचि के सन्दर्भ में वृंदावन स्थित केलिकुंज आश्रमवासी, पीले बाबा यानी प्रेमानन्द जी महाराज का उदाहरण दिया है, इन दिनों हमारे मित्र सुबोध जी पर, राधावल्लभ श्री हरिवंश जी की विशेष कृपा है ; जिसके चलते उन्होंने अपने मन को 'राधा' नाम पर अटका दिया है ; और पीले बाबा को करोड़ो लोगों की तरह अपने ह्र्दय में बसा लिया है। ऐसा नही है कि यह प्रभाव सिर्फ सुबोध जी पर ही है; बाबा की एक क्लिप जो मुझे कभी सबोध जी ने भेजी थी, उसका सीधा असर मुझ पर भी समानरूप से हुआ। अपना मन भी उसी धारा में बहने लगा।
मेरे आत्मीय मित्र सुबोध जी को दुनियाभर के सन्देशों की परवाह हो या ना हो यह मैं नहीं जानता , पर मेरे द्वारा भेजी गई एकान्तिक वार्ता की एक-एक कड़ी, उनके मैसेज बॉक्स में सुरक्षित है। यहाँ सुरक्षित से मेरा आशय इन कड़ियों को सुनकर गुनने, और मंथन के लिए संरक्षित किये जाने से है। बाबा के अघोषित शिष्य सुबोधानन्द जी ने, ऐसा ही किया है। वे बाबा की एकान्तिक वार्ता की कड़ियों और इन कड़ियों में व्याप्त तत्वदर्शन पर मेरी गवेषणात्मक टिप्पणियों को अक्सर अपने चिंतन का विषय बनाते रहते हैं।
सुबोध जी साधना के मामले में भले ही नित्य कर्मकाण्डी ना हों, पर उनके सरल और तरल मन में, संवेदनाओं की रसधार नदी सदैव बहती रहती है, जिसे हममें से कोई भी अपने मन की आँखों से देख सकता है ; और उनके संपर्क में आने वाला हर शख्स आसानी से महसूस कर सकता है।
सोशल मीडिया के निर्मम समय की सबसे बड़ी विडम्बना आभासी रिश्तों के जुड़ने और सच्चे रिश्तों के टूटने की है। हम लोग बाहर से भले जुड़े दिखाई दें, लेकिन वास्तविकता तो यह है, कि यहाँ हर आदमी अपने हिस्से का बनवास काट रहा है। तकनीकी युग ने जहाँ एक ओर मनुष्य को सुविधाएँ मुहैया करायी है तो वहीं दूसरी ओर अकेलेपन का संत्रास भी हमें अभिशाप के रूप में भेंट किया है।
लोग अपनी दुनियाँ में गुम होते जा रहे हैं, लेकिन जिनके मित्र सुबोध श्रीवास्तव जी जैसे हों, वे कभी अकेले नहीं रह सकते। सुबोध जी अपने से जुड़े हर एक मित्र का ध्यान रखते हैं। वे सोशल मीडिया पर आभासी समूह नहीं बनाते; वह लोगों से सतत संवाद बनाए रखते हैं,और जीवंत लोगों का बड़ा संगठन खड़ा करते हैं।
मित्र, सुबोध जी की टीम में इक्का, वादशाह, बेगम से लेकर दुरी, तिरी, चौका, पंजा, सत्ता, अट्ठा नहला, दहला यानि पूरे बावन पत्तें हैं; और उन्हें ताश के सभी पत्तों को बख़ूबी खेलना आता है।
खेलने के सन्दर्भ में प्रयुक्त शब्द खेल शब्द का उपयोग मैंने व्यंजनात्मक नहीं किया है। यहाँ खेलने के अर्थ ध्वन्यात्मक हैं वे ताश के पत्तों से खेलते हैं कभी किसी के जज्बातों से नहीं!
हममें से लगभग सभी ने अपने बचपन में मूर्ति बनने का खेल देखा भी होगा और खेला भी।उनकी एक स्नेहिल पुकार मित्रों को अपनी ओर खींच लेती है। इस सन्दर्भ में मुझे लगता है सुबोध जी के जीवन में द राइम ऑफ़ द एन्शियंट मेरिनर अंग्रेज़ी कवि सैम्युअल टेलर कॉलरिज द्वारा रचित कविता ने गहरा प्रभाव डाला है अँग्रेजी साहित्य के विद्यार्थी होने के कारण यह सही है कि उन्होंने यह कविता पाठ्यपुस्तक या पाठ्यक्रम में पढ़ रखी है और इसकी पंक्तियों को सिद्ध कर लिया है। उनके जीवन में सम्मोहन की जड़ यहीं से मिलती है।
He holds him with his glittering eye....
यही कारण है कि इन्हें सम्मोहित होना और सम्मोहित करना दोनों क्रियाएँ अच्छी लगती हैं।
ग्रुप कमान्डर समूह के किसी भी बच्चे को मूर्ति बन जाने का आदेश देता और चिह्नित बालक तत्क्षण ही अगले कमांड तक मूर्ति बना रहता। सुबोध जी के सन्दर्भ में इसे क्या कहा जाय आत्मीयता या आदेश ! कोई भी इनकी बात को मानने से इनकार नहीं करता। अपने पारदर्शी व्यक्तित्व के चलते सुबोध भाई अपनी मित्र मण्डली में अत्यंत लोकप्रिय हैं। वह सबका और सब उनका बहुत ध्यान रखते हैं।
कोविड कालीन, लॉकडाउन के कठोर निर्देश भी सुबोध जी पर अपनी वन्दिशें नहीं लगा पाये। इस दौरान वह अपने सभी मित्रों के सम्पर्क में रहे उनकी खैर खबर ली, जो मिला ठीक! और जो नहीं मिल सका उससे मिलने वे स्वयं पहुँचे; भले ही यह भेंट बहुत संक्षिप्त क्यों न हो, वे उस दौरान भी मित्रों से उनका संवाद जारी रहा जिस दौरान घरों को और शहर की सड़कों को सन्नाटे ने अपनी गिरफ्त में ले रखा था।
माता-पिता के संस्कारों का प्रभाव कहें या फिर दैवयोग यह उनका अपना अर्जित कौशल भी हो सकता है। सुबोध जी के मित्रों की संख्या का ग्राफ दिन पर दिन बढ़ता जा रहा है। समय के पावन्द मित्र सुबोध न खुद खाली बैठते हैं और न ही अपने मित्रों को खाली बैठने देते हैं। सुबोध जी राजसी अंदाज़ में मित्रों का दरबार सजाने की आदत में है। बकौल सुबोध श्रीवास्तव "शो मस्ट गो ऑन विथ यू ओर विथाउट यू "। वह किसी राजा की तरह अपनी मण्डली में मित्रों से मंत्रणा करते हैं और उन्हें नवरत्न संज्ञा देते हैं।प्रकारान्तर से कहें तो सुबोध जी भी अपने मित्रों के टैलेंट को पहचानते हैं। उनकी प्रतिभा को निखारते है।
इन्हें, मित्रों की वीकनेस देखने की बजाय उनकी स्ट्रेंथ पर काम करना आता है। शायद मित्रों का प्यार पाने की बजह भी यही है। वे प्रकृति से प्रेम करते हैं, उन्हें प्रकृति की सुंदरता घण्टो को निहारना पसन्द है। पानी के साथ अठखेलियाँ करना, वृक्षों पर मंकी क्लाइम्बिंग सहित नेचर से जुड़ीं बहुत छोटी बड़ी बातें उनके व्यक्तित्व का अभिन्न हिस्सा है। वह अपने सर्किल में, अकेले ऐसे व्यक्ति हैं जो अपनी तरफ से दस गुना आशा का संचार करते हैं; लिव विथ नेचर का जरूरी सन्देश देने वाले परम मित्र जरूरत पड़ने पर निरपेक्ष भाव से अपने मित्रों की तन, मन और धन से मदद करते है, इन्हीं गुणों के चलते वह अपने सर्किल में सबके चहेते हैं।
मित्रों की मण्डली में जहाँ एक ओर सखाभाव वाले हैं तो वहीं दूसरी ओर सुबोध जी के यहाँ सखियों की भी मात्रा भरपूर है। सुबोध भाई को बिना किसी भेद-भाव से जितना प्रेम सखाओं का मिलता है उतना ही उनकी सखी सहेलियों का भी। पिपरिया, जबलपुर, बड़ौदा, बैरसिया के साथ भोपाल के मित्रों का जिक्र अक्सर वह स्नेह से किया करते हैं।
कुल मिलाकर सेवा भाव से सराबोर हमारे इन मित्र के पास अपने मित्रों पर, लुटाने के लिए बहुत कुछ है। यह बात और है कि मुझे कभी कुछ माँगने की जरूरत पड़ी ही नहीं। हम लोग एक-दूसरे के भावों को पिछले पैंतीस सालों से बिना कहे ही समझ लेते हैं।
मैं, सुबोध जी जैसा मित्र पाकर स्वयं को गौरवान्वित महसूस करता हूँ। बचपन के न सही पचपन के अपने इस मित्र से अभी मुझे बहुत कुछ सीखना है। मेरे स्नेहिल आलेख का सही मूल्यांकन तो तनु भाभी को करना है। देखता हूँ दस नम्बर के स्केल पर मुझे कितने अंक मिलते हैं। आज का अवसर तो उनकी खुशियों में चार चाँद लगाने का है।क्यों न हम सब उन्हें मिलकर बधाइयाँ दें !
"जन्मदिन की बहुत शुभकामनाएँ"
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मनोज जैन
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106,
विट्ठलनगर,
गुफामन्दिर रोड
भोपाल
9301337806