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बुधवार, 7 जुलाई 2021

वरिष्ठ लघुकथाकार कान्ता रॉय जी की चुनिन्दा लघुकथाएं प्रस्तुति : वागर्थ

कान्ता रॉय देशभर में चर्चित लघुकथा साहित्य के क्षेत्र में एक चर्चित नाम है। कान्ता जी ने इस विधा को अपना सर्वश्रेष्ठ देकर पिछले कुछ वर्षों में 'लघुकथा के परिन्दे' फेसबुक समूह के माध्यम से दुनियाभर के लघुकथाकारों का ध्यान अपनी ओर खींचा है। 
          लघुकथा शोध केंद्र की देश भर में  इकाइयाँ स्थापित करने के साथ ही लघुकथाकारों को लघुकथा लेखन की दिशा में मोड़ने और शोध के लिए सकारात्मक वातावरण के निर्माण में कान्ता रॉय जी ने उल्लेखनीय काम किया है।
     प्रस्तुत हैं लघुकथा की आइकॉन कान्ता रॉय जी की चुनिन्दा लघुकथाएं। इन लघुकथाओं में कान्ता रॉय जी का काम बोलता है।

प्रस्तुति 
वागर्थ
______



1
विलुप्तता

"जोगनिया नदी वाले रास्ते से ही चलना। मुझे नदी देखते हुए जाना है।" रिक्शे पर बैठते ही कौतूहल जगा था।
"अरे,जोगनिया नदी ! कितनी साल बाद आई हो बीबी जी? ऊ तो, कब का मिट गई।"
"क्या? नदी कैसे मिट सकती है भला?" वो तड़प गई।
गाँव की कितनी यादें थी जोगनिया नदी से जुड़ी हुई। बचपन, स्कूल, कुसुमा और गणेशिया। नदी के हिलोर में खेलेने पहुँच जाते जब भी मौका मिलता और पानी के रेले में कागज की कश्ती चलाना। आखिरी बार खेलने तब गई थी जब गणेशिया को जोंक ने धर लिया था। मार भी बहुत पड़ी थी।
फिर तो माई ही स्कूल लेने और छोडने जाने लगी थी।
रिक्शा अचानक चरमरा कर रूक गया। तन्द्रा टूटी।
"हाँ,बहुत साल बाद अबकी लौटी हूँ। कैसी सूखी ये नदी,कुछ बताओगे?"
"अरे, का बताये, भराव होते-होते उथली तो पहले ही हो चुकी थी और फैक्ट्री वालों को भी वहीं बसना था। वो देखो, आपकी जोगनिया नदी पर से उठता धुँआ।"
चिमनी से उठता गहरा काला धुआँ उसकी छाती में आकर जैसे बैठ गया।
"गाँव तो बचा हैै ना?" घुट कर बस इतना ही पूछ पाई।

2
अस्तित्व की यात्रा

उसका अपना साथी जो उसके मुकाबले अब अधिक बलिष्ठ था, उसको शिकार करने के उद्देश्य से घूर रहा था। देखकर उसका हृदय काँप गया।
वह सहमती हुई उन दिनों को याद करने लगी जब दोनों एक साथ शिकार करते, साथ मिलकर लकड़ियाँ चुनकर लाते, आग सुलगाते, माँस पकाते, साथ मिल-बांटकर खाते। सहवास के दौरान एक दूसरे का बराबरी से सम्मान भी करते थे।
दरअसल तब वे दोनों असभ्य, अविकसित जीव थे, शिकारी होकर भी सम्बंधों को परिपूर्णता से जिया करते थे।
वह याद करती है उस दिन को जब उसके गर्भवती होते ही दूसरे ने उसके लिए घर बनाने का सोचा था। प्रसवित जीव को केन्द्र में रखकर दोनों ने उस वक्त अपने लिए कार्यक्षेत्र का विभाजन किया था। उसके बाद से वह प्रसवित जीव की देखभाल करने के लिए घर में रहने लगी और शनैः शनैः कोमल शरीर धारण करने लगी थी। उसे कहाँ मालूम था कि समय बीतने पर इन्हीं बातों के कारण वह स्त्री कहलाएगी।
उसके शिकार को उद्दत अपने साथी की बलिष्ठ भुजाओं की ओर उसने पनियाई आँखों से देखा, फिर अपनी कोमल और कमजोर शरीर पर नजर फेरी। वह ठिठकी, दूसरे ही क्षण उसकी आँखों में कठोरता उतर आयी थी।
वह प्रसवित जीव को अपने साथ ले, घर से बाहर शेरनी बनकर फिर से स्वयं के पोषण के लिए शिकार करने निकल पड़ी।
वह अब स्त्री नहीं कहलाना चाहती थी।

3

बैकग्राउंड
"ये कहाँ लेकर आये हो मुझे।"
"अपने गाँव, और कहाँ!"
"क्या, ये है तुम्हारा गाँव?"
"हाँ, यही है, ये देखो हमारी बकरी और वो मेरा भतीजा "
"ओह नो, तुम इस बस्ती से बिलाँग करते हो?"
"हाँ, तो?"
"सुनो, मुझे अभी वापिस लौटना है!"
"ऐसे कैसे वापस जाओगी? तुम इस घर की बहू हो, बस माँ अभी खेत से आती ही होगी"
"मै वापस जा रही हूँ! साॅरी, मुझसे भूल हो गई। तुम डाॅक्टर थे इसलिए ...."
"तो ....? इसलिए क्या?"
"इसलिए तुम्हारा बैकग्राउंड नहीं देखा मैने।"

4

चेहरा : कान्ता रॉय
आधी रात को रोज की तरह आज भी नशे में धुत घर की ओर बढ़ते हुए वह गली की तरफ मुड़ा। पोस्ट लाईट के मध्यम उजाले में सहमी-सी उस लड़की पर जैसे ही उसकी नजर पड़ी, वह ठिठक गया। लड़की उजाले की चाह में पोस्ट लाईट के खंभे से लगभग चिपकी हुई सी थी। करीब जाकर अकेले आधी रात में सड़क पर क्या कर रही है, पूछने ही वाला था कि उसने अंगुली से अपने दाहिने तरफ वाली सड़क की ओर इशारा किया। उसने नजर घुमाई। चार लड़के उस लड़की को घूर रहे थे। उनमें से एक को वह पहचानता था। नज़रें मिलते ही लड़का झेंप गया। अब चारों वहां से जा चुके थे। लड़की अब उसके प्रति भी सशंकित हो रही थी, लेकिन उसकी अधेड़ावस्था के कारण, विश्वास ....या अविश्वास ..... शायद...उसे कुछ सूझ नहीं रहा था कि अब क्या करे।
"तुम इतनी रात को यहाँ कैसे और क्यों?" उसने पूछा तो जवाब मिला,
"मै अनाथाश्रम से भाग आई हूँ। वे लोग मुझे आज रात के लिए कहीं बाहर भेजने वाले थे।" दबी जुबान से, मुश्किल से इतना कह पायी।
"क्या..... !" वह चौंका और तुरंत सवाल किया, "अब कहाँ जाओगी?"
"नहीं मालूम!"
"मेरे घर चलोगी?"
".........!"
"अब आखिरी बार पूछता हूँ, क्या मेरे घर चलोगी हमेशा के लिए?"
"जी!" ....मोतियों सी लड़ी उसके गालों पर ढुलक आयी। एक तरफ गहन कुप्प अंधेरा, दूसरी तरफ आशंकाओं का घेरा, लड़की घबराई हुई थी। उसने झट लड़की का हाथ कसकर थामा और तेज कदमों से लगभग उसे घसीटते हुए घर की तरफ बढ़ चला। नशा हिरण हो चुका था। कुंडी खड़काने की भी जरूरत नहीं पड़ीं। उसके आने भर की आहट से दरवाजा खुल चुका था। लड़की भौंचक्की खड़ी रही। उसने दरवाजा खोलने वाली स्त्री से कहा,
"ये लो, सम्भालो इसे! बेटी लेकर आया हूँ। अब हम बाँझ नहीं कहलायेंगे।"

5

कागज़ का गाँव
जीप में बैठते ही मन प्रसन्नता से भर गया। देश में वर्षों बाद अपने देश  में वापसी, बार-बार हाथों में पकडे पेपर को पढ़ रही थी, पढ़ क्या, बार -बार निहार रही थी। सरकार ने पिछले दस साल से इस प्रोजेक्ट पर काम करके रामपुरा की बंज़र भूमि को हरा-भरा बना दिया है। गाँव की फोटो कितनी सुन्दर है, मन आल्हादित हो रहा था। उसका गाँव मॉडल गाँव के तौर पर विदेशों में कौतुहल का विषय जो है!
बस अब कुछ देर में गाँव पहुँचने ही वाली थी। दशकों पहले सूखा और अकाल ने उसके पिता समेत गाँव वालो को विवश कर दिया था गाँव  छोड़ने के लिए।
"अरे, ये तो अपने  गाँव  का  रास्ता  नहीं  मालूम  पड़ता," -- मीलों निकल आने के बाद भी दूर -दूर तक सूखा ही सूखा!
"मैडम, आप के बताये रास्ते से ही जा रहे है, मुझे तो यहां आस-पास बस्ती दिखाई ही नहीं दे रही। सन्नाटा ही सन्नाटा है, इंसानो की तो क्या, लगता है चील-कौओं  की भी यहाँ  बस्ती नहीं है।"
"क्या! सामने जरा और आगे चलो, पेपर में तो बहुत तरक्की बताई है गाँव की, इसीलिए तो हम गावं देखने की चाहत लिए विदेश से आये है!"
"और कितना आगे लेकर जाएँगी मैडम, गाड़ी में पेट्रोल भी सीमित है"
"रुको गूगल सर्च करती हूँ!"- कहते हुए स्मार्टफोन निकाली, ओह! नेटवर्क ही नहीं ......... , बेचैन होकर फिर से गाँव को पेपर में तलाशने लगी।
"मैडम, कागज़ में गाँव था लगता है उड़ गया।"

6

टी-20 अनवरत

वह क्रिकेट की दिवानी थी।जैसे ही क्रिकेट लीग व टूर्नामेंट शुरु होता कि दिन भर की धमाचौकड़ी बंद। फिर तो कहीं और नजर ही नहीं आती, बस बैठ जाती टी वी के आगे। महेंद्र सिंह धोनी ,विराट कोहली और गौतम गम्भीर ,बस ,दूसरा कुछ सूझता ही नहीं था उसे। सोफे पर चिप्स , कुरकुरे के ढेंरो पैकेट और दोस्तों की टोली, कहती क्रिकेट में दोस्तों के साथ हो तभी मजा आता है।
पिछली बार तो कितने सारे पॉपकार्न के पैकेट मंगा कर माँ को थमा दिया था। उफ्फ! यह लड़की भी ना! माँ के पल्ले ना तो क्रिकेट,ना ही इसके तामझाम समझ में आते।
जवानी की दहलीज पर पैर रखते ही बहुत अच्छे घर से रिश्ता आ जाना, वह भी बिना दहेज के, पिता तो मानों जी उठे थे।
"अजी, क्या इतनी सी उम्र में बिट्टो को व्याह दोगे? अभी तो बारहवीं भी पूरी नहीं हुई है। क्या वह पढ़ाई भी पूरी ना करें!" माँ लड़खड़ाती आवाज में कह उठी। अकुलाई-सी माँ बेटी के बचपने को शादी की बलि नहीं चढ़ाना चाहती थी।
"देखती नहीं भागवान, वक्त कितना बुरा चल रहा है, बेटी ब्याह कर, निश्चिंत हो, गंगा नहाऊँ।कल का क्या भरोसा फिर ऐसा रिश्ता मिले ना मिले।" एक क्षण रुक, कहते-कहते पिता के नयन भी भर आये थे। हर बात में लड़ने झगड़ने वाली ऐसी चुप हुई कि आज तक मुँह में सहमी उस जुबान का इस्तेमाल नहीं किया।
बाबुल के घर से विदा होकर आये पिछले एक महीनें में उसने एक बार भी मैच नहीं देखा है। उससे तीन साल बड़ी ननद देखती है क्रिकेट अपने भाईयों के साथ।
और वह क्या करती है? यहाँ तो उसकी जिंदगी क्रिकेट का मैच बनी हुई लग रही थी।
ससुराल का यह चार कमरों का घर बड़ा-सा क्रिकेट का मैदान दिखाई देता है उसे, जहाँ उसकी गलती पर कैच पकड़ने के लिये चारों ओर फिल्डिंग कर रहे परिवार के लोग।
विकेट कीपर जेठानी, सास अंपायर बनी उसके ईर्द गिर्द ही नजर गड़ाये रहती है। ननद, देवर,जेठ और ससुर जी सबके लिये वह बल्ला लेकर पोजिशन पर तैनात।
पति बॉलर की भूमिका में चौकस, और वह! बेबस, लाचार-सी बल्लेबाज की भूमिका में पिच पर, हर बॉल पर, रन बनाने को मजबूर। गलती होने पर कमजोर खिलाड़ी का तमगा और हूटिंग मिलती। आऊट होने पर भी बल्ला पकड़ कर पिच पर बैटिंग करने को मजबूर।
दूर-दूर तक कहीं कोई चीयर्स लीडर नहीं।
कई दफा आँखें रोते-रोते लाल हो जाती है। आज भी नजरें बार-बार पवेलियन (पिता के घर) की ओर उठ जाया करती है, काश इस मैच में भी पवेलियन में लौटना संभव होता!

7

खटर-पटर
ये दोनों पति-पत्नी जब भी बन-ठन कर घूमने निकलते तो कितने सुखी लगते हैं। एक-दूसरे से बेहद जुड़े हुए, बिना कहे एक दूसरे की मन को समझने वाले, फिर भी कभी-कभी इनके घर इतनी लड़ाई शुरू हो जाती है कि पूरे मोहल्ले में आवाज़ गूँजती है। जाने ये कैसे लोग है! अलगनी से सूखे कपड़े उतार, उसपर गीले कपड़े डालने लगी कि तभी सामने से आज वो अकेली आती दिखाई दी।कल रात भी खूब हंगामा मचा था उनके घर,  मन में क्या सूझा एकदम से पूछ बैठी, "नमस्ते शीलू जी, कैसी हैं?"
"अच्छी हूँ, आप सब कैसे हैं?"
आँखों में काजल लगाये उनके चेहरे पर रौनक छाई थी। झगड़े के वक्त कल भी इनकी आवाज़ सबसे अधिक थी।
"आप परेशान हैं क्या?" मन को जबर करके पूछा मैंने।
"नहीं तो! मैं तो कभी परेशान नहीं होती हूँ।"
"लेकिन मुझे लगा कि...!"
"क्या लगा, जरा खुलकर कहिए!"
"आप कहती हैं कि आपके पति बहुत अच्छे हैं, तो फिर आप दोनों की लड़ाई क्यों होती है?"
"अरे वो!" कहते-कहते वह जोर-जोर से हँसने लगी। मैं अकबकाई उसको पागलों जैसी हँसते देखती रही। मुझे लगा यह दुख की हँसी है...बस अब जरूर रोयेगी..! लेकिन वह हँसती हुई कह पड़ी, "हम पति-पत्नी कभी नहीं लड़ते हैं, हमारी बॉन्डिंग मजबूत है।"
"लेकिन वो चीख-चिल्लाहट से भरी झगड़े की आवाज़ तो अक्सर सुनती हूँ।
"हाँ, होती है। लेकिन हमारे घर लड़ाई हम पति-पत्नी की नहीं बल्कि मर्द और औरत में होती है।" कहते हुए महकती-सी गुज़र गयी। मेरे सूखे कपड़ों पर गीले कपड़े बिछ जाने की वजह से पूरे कपड़े गीले हो गये। मैंनें अलगनी पर सूखने के लिए सबको छोड़ दिया।
अब मुझे एक नया मेनिया हो गया है, अब जब किसी जोड़े से मिलती हूँ तो उस खुशहाल पति-पत्नी में छुपे मर्द-औरत को तलाशने लगती हूँ।

8

इंजीनियर बबुआ
शरबतिया बार बार चिंता से दरवाजे पर झाँक, दूर तक रास्ते को निहार उतरे हुए चेहरे लेकर कमरे में वापस लौट आती। कई घंटे हो गये रामदीन अभी तक नहीं लौटा है।
गाँव के पोस्ट ऑफिस में फोन है जहाँ से वह कभी कभार शहर में बेटे को फोन किया करता है। इतना वक्त तो कभी नहीं लगाया।
खिन्नहृदय लिए रामदीन जैसे ही अंदर आया कि शरबतिया के जान में जान आयी।
"आज इतना देर कहाँ लग गया, कैसे हैं बेटवा- बहू, सब ठीक तो है ना?"
"हाँ, ठीक ही है!"
"बुझे बुझे से क्यों कह रहें हैं?"
"अरे भागवान, ऊ को का होगा, सब ठीक ही है!"
"तुम रूपये भेजने को बोले ऊ से?"
"हाँ, बोले।"
"चलो अच्छा हुआ, बेटवा सब सम्भाल ही लेगा, अब कोई चिंता नहीं!"
"अरे भागवान, उसने मना कर दिया है ,बोला एक भी रूपया हाथ में नहीं है, हाथ खाली है उसका भी।"
"क्याss....! हाथ खाली...वो भला क्यों होगा, पिछली बार जब आय रहा तो बताय रहा कि डेढ़ लाख रूपया महीने की पगार है। विदेशी कम्पनी में बहुत बड़ा इंजीनियर है तो बड़ी पगार तो होना ही है ना!"
"बड़ी पगार है तो खर्चे भी बड़े हैं, कह रहा था कि मकान का लोन, गाड़ी का लोन और बाकि होटल,सिनेमा और कपड़ा-लत्ता की खरीददारी जो करता है ऊ क्रेडिट कॉर्ड से, उसका भी व्याज देना पड़ता है,इसलिए हाथ तंग ही रहता है।"
"बबुआ तो सच में तंगहाली में गुजारा करता है जी!"
"हाँ, भागवान, सुन कर तो मेरा दिल ही डूब गया। सोचे थे कि अपनी बेटी नहीं है तो भाँजी की शादी में मदद कर बेटी के कन्यादान का सुख ले लेंगे, बबुआ कन्यादान का खर्च उठा लेता जो जरा! लेकिन उसको तो खुद के खाने पर लाले हैं।"
"सुनिए, भाँजी के लिए हम कुछ और सोच लेंगे, पिछली साल गाय ने जो बछिया जना था उसको बेच कर व्याह में लगा देते हैं।"
"हाँ, सही कहा तुमने, क्या हुआ एक दो साल दूध-दही नहीं खाएँगे तो! बछिया बेच कर कन्यादान ले लेते हैं।"
"एक बात और है।"
"अब और क्या?"
"इस बार जो अरहर और चना की फसल आई है उसको बेच कर बेटवा को शहर दे आओ, उसका तंगी में रहना ठीक नहीं, हम दोनों का क्या है, इस साल चटनी- रोटी खाकर गुजारा कर लेंगे, फिर अगली फसल तो हाथ में रहेगी ही!"
"हाँ, सही कह रही हो, मैं अभी बनिया से बात करके आता हूँ, इंजीनियर बबुआ का तंगी में रहना ठीक नहीं है।"

9

माँ
नन्हीं-नन्हीं अँगुलियों में सुई -धागे थामे रंगीन नगों को मोतियों के साथ तारतम्य से उनको पिरोती जा रही थी।
भाव -विभोर हो बार -बार निहारती , मगन होकर परखती , कभी उधेड़ती , कभी गुंथती , फिर से कुंदन के रंगो का तालमेल बिठाती ।
धम्मम ......... से पीठ पर सुमी ने हाथ दिया तो एकदम से चौंक उठी । हाथ से छूटकर मोती ,नग ,कुंदन सब यहाँ -वहाँ बिखर गए।
" सुम्म्मी ........तुम ! देखो ना , तुम्हारे कारण सब बिखर गए , मुझे फिर से सबको गूंथना होगा। " हाथ में उलझी- सी बिखरी हार को देखते हुए वो निराश हो उठी।
" वाह ! कितना खूबसूरत है ये , अपने लिए बना रही हो ? " आधी - अधूरी बनी हार पर नज़र पड़ते ही उसके सौंदर्य से अभिभूत हुई ।
"नहीं "
"तो फिर किसके लिए इतना जतन कर रही हो ? "
"माँ के लिए, उनके लिए दुनिया का सबसे सुन्दर हार बनाना चाहती हूँ "
"क्याsss, माँ के लिए? उस सौतेली माँ के लिए जो बात-बात पर तुम्हें सताती रहती है ! "
"सताती रहती है तो क्या हुआ, वो मेरी माँ तो है!" प्रौढ़ होती बचपन की डबडबाई पनीली आँखों में सहसा हज़ारों नगों की रंगीनियाँ झिलमिला उठी।

10

मक्खन जैसा हाथ
नई-नवेली दुल्हन-सी आज भी लगती थी। आँखों में उसके जैसे शहद भरा हो,ऐसा सौन्दर्य। पिता की गरीबी नें उसे उम्रदराज़ की पत्नी होने का अभिशाप दिया था। उसका रूप उसके ऊपर लगी समस्त बंदिशों का कारण बना।
उम्रदराज और शक्की पति की पत्नी अब अपने जीवन में कई समझौते करने के कारण कुंठित मन जी रही थी।
आज चूड़ी वाले ने फिर से आवाज लगाई तो उसका दिल धक्क से धड़क गया। वह हमेशा की तरह पर्दे की ओट से धीरे-से उसे पुकार बैठी, "ओ, चूड़ी वाले!"
उसके मक्खन से हाथों की छुअन से होने वाले सिहरन का आभास देने वाले उस चूड़ी वाले का बडी़ शिद्दत से इंतजार किया करती थी। चुड़ीवाला  हमेशा की तरह वहीं बाहर बैठ, अपना साजों सामान पसार लिया। उसे मालूम था कि इन हाथों को सिर्फ हरे रंग की चूड़ियाँ ही अच्छी लगती है। पसारे हुए सभी चूडियों में धानी रंग की चूडियों पर पर्दे की ओट से अंगुलियों ने इशारा किया।
अगले ही पल मक्खन जैसे हाथ, चुड़ी वाले के खुरदरे से हाथों में सिमटी हुई बेचैनी और बेख्याली के पल को जी रही थी।

11

हड्डी
अशोक के गैरहाजिरी में वो अचानक से  कभी भी  सुनिता के  घर धमक पडते थे।
सुनिता को ना चाहते हुए भी उनकी खातिर करनी पडती थी। मजाक  के  रिश्ते का वास्ता देकर बदतमीजी भी कर जाते थे कई बार। बेटी के ससुर जो ठहरे।
अशोक को कई बार चाह कर भी बता नहीं पाती थी। बेटी की खुशियों का ख्याल आ जाता था।
दामाद जी अपने माता पिता के लिए श्रवण कुमार थे। बेटी से भी नहीं बाँट सकती थी अपनी परेशानी।  सुनिता के  गले में दिन रात हड्डी फँसी रहती थी।
आज जैसे ही दोपहर के नियत समय में घंटी बजी तो सुनिता ने बडे आराम से दरवाजा  खोला और उनको सप्रेम अंदर आने के लिए कहा।
घर के अंदर बहुत सारे बच्चे खेल रहे थे।  उसने अपने घर में झूला घर खोल लिया था।
सुनिता ने गले में फँसे हड्डी को निकाल फेंका था।

12

अनपेक्षित
सालों तक यह सिलसिला चलता ही रहा था।
कहीं कोई रिश्ते की बात चला देता और माँ  मेरे पीछे ही पड़ जाती। नहाने से पहले उबटन लगवाती थी मेरे गोरे होने के लिए।
कोई  कैसे  समझाये मेरी भोली सी माँ को कि उबटन लगा कर नहाने से कोई गोरा नहीं हो जाता है।
अब तो तीस साल की भी हो गई हूँ।
माँ को भी शायद  लगने लगा है कि अब मुश्किल है मेरी शादी।
मै  अपराध बोध से घिरी रहती हूँ। कई बार ईश्वर से भी मन ही मन लड लेती थी ।
माँ को बेटी बिदाई की इतनी चिंता थी कि पाई-पाई जोडने के चक्कर में मेरी पढ़ाई पर भी खर्च नहीं किया।
आज जोड़े हुए पैसे भी काम नहीं आये। कोई पसंद ही नहीं करता मुझे। जो देखने आते है नाक भौं  चढाते हुए जाते है।
इसी ऊहापोह में अब बत्तीस साल की हो गई। लोग कहते है कि मै मोटी हो रही हूँ।
मै क्या करूं? उम्र की निशानियों को रोकना क्या किसी के वश में है!
कभी मन में सोचती हूँ कि  शादी के लिए  पैसे  बचाने के बजाय माँ मेरी पढ़ाई ही करवा  देती!

13

सावन की झड़ी
"भाभी, निबंध लिखवा दो!" चीनू ने उसका ध्यान खींचा।
"किस विषय पर?" चीनू की स्कूल डायरी उठा, फिर से नजर बरामदे की ओर लग गयी।
जब से सुषमा बरामदे में खड़ी हुई है और उधर वो गुजराती लड़का, उसका ध्यान वहीं है।
कितनी बार मना कर चुकी थी इसे लेकिन.....!
बाऊजी नजीराबाद वाले से रिश्ता जोड़ना चाहतें हैं और ये है कि इस गुजराती में अटकी है!
ननद के चेहरे पर छाई मायूसी उसे बार-बार हिमाकत करने को उकसा जाती थी इसलिये कल रात आखिरी बार फिर से हिम्मत करी थी।
"बाऊजी, वो पड़ोस में गुजराती है ना....!"
"हाँ, सो?"
"अपनी सुषमा को पसंद करता है, उसकी नौकरी भी वेयर हाऊस में है।"
"वो....? शक्ल देखी है उसकी, काला-कलुटा, जानवर है पूरा का पूरा! उपर से दूसरी जात!" बाऊजी की आवाज़ इतनी सर्द ...., उसकी हड्डियों तक में सिहरन उठी थी।
पति ने उसकी ओर खा जाने वाली नजरों से देखा था।
चीनू ने हाथ से डायरी छीन ली,
वह लौटी, आँचल खींच फिर से पूछा, "बताओ ना, जानवरों की क्रिया कलापों पर क्या लिखूँ?"
सुषमा और चीनू के लिए वह भाभी कम माँ अधिक थी।
"भाभी, मोर क्यों नाचता है?" चीनू ने इस बार सबसे सरल प्रश्न पूछा था।
वैसे चीनू के प्रश्नों के जबाब उसे ढूँढ-ढूँढकर तलाशने होते हैं। आज कल के बच्चे कम्पयूटर से भी तेज, और चीनू, उन सबमें भी अव्वल!
"मोरनी को रिझाने के लिए ही मोर नाचता है।" उसने स्नेह से कहा।
"और जुगनू क्यों चमकता है?
"अपने साथी को आकर्षित करने के लिए।"
सुनते ही क्षण भर को वह चुप हो गया।
"आप हमारे भैया की साथी हो?"
"हाँ!" उसके ओर आँखें तरेरती हुई बोली।
"भैया ने आपको कल रात  मारा क्यों?"
"चीनू!" वह एकदम से सकपका गयी।
"क्योंकि  मैं उन पर ध्यान नहीं देती हूँ?" भर्राये स्वर में धीरे से कहा।
"तो उनको भी आपको रिझाने के लिए जुगनू की तरह चमकना चाहिये, मोर की तरह नाचना चाहिये था ना?"
"धत्! वे क्यों रिझायेंगे, जानवर थोड़ी ना हैं!"
"भैया जानवर नहीं हैं,लेकिन गुजराती तो जानवर है ना, इसलिये तो सुषमा जीजी को रिझाता रहता है।" कह कर  चीनू जोर-जोर से हँसता रहा लेकिन वह सुनकर सुन्न पड़ गयी।
"ये क्या ऊटपटाँग बातें कर रहा है तू?"
"भाभी, मैं खुद ही निबंध लिख लूँगा, बस सुषमा जीजी को उसका मोर दिला दो! फिर वो कभी आपकी तरह छुप-छुपकर नहीं रोयेगी।" कहते हुए चीनू की नजर भी बरामदे में जाकर टिक गयी।


परिचय
_______
कान्ता रॉय
पिता - स्व. श्री दशरथ झा
माता- श्रीमती सूर्यमुखी झा
जन्म दिनांक- 20 जूलाई, 1969
जन्म स्थान- कोलकाता 
शिक्षा- बी. ए., ग्राफिक्स डिजाइनर, डिप्लोमा इन डेस्कटॉप पब्लिशिंग (MS Office, qwark press, Page maker, Coral graphics)

लेखन की विधाएँ-लघुकथा, कहानी, गीत-गज़ल-कविता और आलोचना

सम्प्रति : प्रशासनिक अधिकारी, मध्यप्रदेश राष्ट्रभाषा प्रचार समिति, हिंदी भवन भोपाल।
सहयोगी सम्पादक : अक्षरा, (मध्यप्रदेश राष्ट्रभाषा प्रचार समिति, हिन्दी भवन भोपाल का प्रकाशन)

निदेशक : लघुकथा शोध-केंद्र भोपाल, मध्यप्रदेश 
हिंदी लेखिका संघ, मध्यप्रदेश (पूर्व, वेवसाईट विभाग की जिम्मेदारी)
ट्रस्टी एवं सचिव- श्री कृष्णकृपा मालती महावर बसंत परमार्थ न्यास।
पूर्व सामाचार सम्पादक: सत्य की मशाल (राष्ट्रीय मासिक पत्रिका)

प्रधान सम्पादक: लघुकथा वृत्त 
संस्थापक : अपना प्रकाशन
इंदौर ‘क्षितिज़’ संस्था की भोपाल प्रतिनिधी
कलामंदिर कला परिषद संस्थान में कार्यकारिणी सदस्य

पुस्तक प्रकाशन : 
घाट पर ठहराव कहाँ (एकल लघुकथा संग्रह), 
पथ का चुनाव (एकल लघुकथा संग्रह), 
अस्तित्व की यात्रा (एकल लघुकथा संग्रह)

 सम्पादन : 
चलें नीड़ की ओर (लघुकथा संकलन)
सहोदरी लघुकथा-(लघुकथा संकलन)
सीप में समुद्र-(लघुकथा संकलन)
बालमन की लघुकथा (लघुकथा संकलन)
दस्तावेज -2017-18 (लघुकथा एवम् विमर्श| 
समय की दस्तक (लघुकथा संकलन)
रजत श्रृंखला (लघुकथा संकलन)
भारत की प्रतिनिधि महिला लघुकथाकार (लघुकथा संकलन, प्रेस में)
लघुकथा-महासंकलन (पटियाला, साहित्य कलश का प्रकाशन)

अतिथि संपादक-दृष्टि(अर्धवार्षिक लघुकथा पत्रिका, महिला लघुकथाकारों का अंक), 
साहित्य कलश (पटियाला से प्रकाशित त्रैमासिक पत्रिका का लघुकथा विशेषांक)
 उर्वशी, (लघुकथा विशेषांक, मासिक पत्रिका, भोपाल) 

एकल लघुकथा-पाठ : निराला सृजन पीठ, भारत भवन, भोपाल।

आकाशवाणी भोपाल से कहानी, लघुकथाएँ प्रसारित, दूरदर्शन से कविताओं का प्रसारण. 
निर्णायक की भूमिका में :
1. सेतु हिंदी द्वारा प्रायोजित लघुकथा प्रतियोगिता में|
2.राज्य स्तरीय कहानी प्रतियोगिता, मध्यप्रदेश
3.स्टोरी मिरर,  कांटेस्ट में बतौर निर्णायक : लघुकथा प्रतियोगिता, कविता प्रतियोगिता, कहानी प्रतियोगिता   
लघुकथा कार्यशाला में प्रमुख वक्ता : 
1. ग्लोबल लिटरेरी फेस्टिवल फिल्म सिटी नोयडा, उ.प्र. में लघुकथा वर्कशॉप में |
2. लघुकथा कार्यशाला करवाया : हिन्दी लेखिका संघ मध्यप्रदेश भोपाल में 2016| 
3. दून फिल्म फेस्टिवल कहानी सत्र में अतिथि वक्ता के तौर पर सहभगिता।
4. अभिव्यक्ति विश्वम, लखनऊ के तहत ‘एक दिन कान्ता रॉय के साथ’ –2018(लघुकथा कार्यशाला)
5. विश्वरंग 2019 के तहत वनमाली सृजन पीठ के तत्वावधान में आयोजित लघुकथा शोध केंद्र भोपाल मध्यप्रदेश का वृहत आयोजन
6. हिन्दी भवन भोपाल द्वारा लघुकथा प्रसंग 2019 का आयोजन।
7. 12 फरवरी 2020 में लघुकथा पर कार्यशाला एवं वक्तत्व, भोपाल स्कूल ऑफ सोशल साइंसेज, भोपाल।

लघुकथा शोध केंद्र भोपाल द्वारा आयोजित समारोह:-

लघुकथा पर्व-2019, हिन्दी भवन, भोपाल में।
दिल्ली लघुकथा अधिवेशन-2019, गांधी शांति प्रतिष्ठान, दिल्ली

लघुकथा शोध केंद्र भोपाल मध्यप्रदेश की 8 ईकाइयों का गठन : 

26 नवम्बर 2018 को लघुकथा शोध केंद्र लखनऊ, संयोजक, श्रीमती अपर्णा गुप्ता शाखा की स्थापना।

11 जनवरी 2019 को लघुकथा शोध केंद्र महेश्वर शाखा, संयोजक, श्री विजय जोशी की स्थापना।

3 मार्च 2019 को लघुकथा शोध केंद्र दिल्ली शाखा, संयोजक,  श्रीमती अंजू खरबंदा की स्थापना।

19 जनवरी 2020 को लघुकथा शोध केंद्र खंडवा, संयोजक, श्री गोविन्द शर्मा शाखा की स्थापना।

15 मार्च 2020 को लघुकथा शोध केंद्र जबलपुर शाखा, संयोजक, श्री पवन जैन की स्थापना।

लघुकथा शोध केंद्र बुरहानपुर शाखा, संयोजक, श्री संतोष परिहार की स्थापना 

लघुकथा शोध केंद्र, भोपाल, शाखा अहमदनगर, महाराष्ट्र, संयोजक-ऋचा शर्मा की स्थापना

लघुकथा शोध केंद्र, भोपाल, शाखा - रतलाम, संयोजक, डॉ. शोभना तिवारी, अध्यक्ष, शिवमंगल सिंह सुमन स्मृति शोध संस्थान,रतलाम की स्थापना(प्रस्तावित)
सम्मान

साहित्य शिरोमणि सम्मान, भोपाल 2015

इमिनेंट राईटर एंड सोशल एक्टिविस्ट, दिल्ली 2015 

श्रीमती धनवती देवी पूरनचन्द्र स्मृति सम्मान,भोपाल 2015

लघुकथा-सम्मान, अखिल भारतीय प्रगतिशील मंच,पटना 2016

क्षितिज लघुकथा सम्मान 2018

तथागत सृजन सम्मान, सिद्धार्थ नगर, उ.प्र. 2016

वागवाधीश सम्मान, अशोक नगर,गुना 2017

गणेश शंकर पत्रकारिता सम्मान.भोपाल 2016

शब्द-शक्ति सम्मान,भोपाल 2016

श्रीमती महादेवी कौशिक सम्मान (पथ का चुनाव, एकल लघुकथा संग्रह) प्रथम पुरस्कार सिरसा, 2017

राष्ट्रीय गौरव सम्मान चित्तौड़गढ़ 2018

श्री आशीष चन्द्र शुल्क (हिंदी मित्र) सम्मान, 2017 गहमर, 

तेजस्विनी सम्मान,गहमर.  2017 

डॉ.मनुमुक्त 'मानव' लघुकथा गौरव सम्मान 2018

साहित्य शिरोमणि पंजाब कला साहित्य अकादमी सम्मान, जालंधर 2018

क्षितिज लघुकथा समग्र सम्मान, इंदौर 2019

लघुकथा रत्न सम्मान (हेमंत फाउंडेशन, मुम्बई) 2020

सारस्वत सम्मान, श्रीकृष्ण सरल स्मृति सरल काव्यांजलि साहित्यिक संस्था, उज्जैन 2020
अभिनव कला शिल्पी सम्मान 2020
नारी उत्कृष्टता सम्मान 2021, रबीन्द्रनाथ टैगोर विश्वविद्यालय महिला विकास प्रकोष्ठ

डॉ. सूबेदार सिंह 'अवनिज' स्मृति' किस्सा कोताह 'लघुकथा' पुरस्कार 2020, ग्वालियर
वेबसाइट की संस्थापक : 

1. लघुकथा कोश डॉट कॉम, 
2. लघुकथा वृत्त डॉट पेज

'लघुकथा के परिंदे' फेसबुक मंच की संचालिका। 
पता –
कान्ता राय,
मकान नम्बर-21,
सेक्टर-सी, सुभाष कालोनी, 
नियर हाई टेंशन लाइन,
गोविंदपुरा, भोपाल- 462023, 
फोन - 9575465147
ई मेल - roy.kanta69@gmail.com


गुरुवार, 24 जून 2021

गोकुल सोनी जी की दस लघुकथाएं :प्रस्तुति वागर्थ

                       धर्मबुद्धि  (1)  

     गुरुदेव...सादर दण्डवत...आज आपकी साधना में अशांति और व्यग्रता का भाव अधिक प्रतीत हो रहा है. यदि उचित समझें तो अपने इस अकिंचन शिष्य को अवगत कराने की कृपा करें.

     क्या करूं धर्मबुद्धि? कुछ समझ में नहीं आ रहा. इस ‘निंदक’ ने बहुत परेशान कर रखा है. जहां-जहां जाता है, झूठी और मनघडंत कहानिया सुनाकर मेरी निंदा करता है. लोग मुझे लोभी-लालची, पातकी, न जाने क्या-क्या समझ रहे हैं. चारों ओर मेरा अपयश फ़ैल रहा है. आज मैंने अत्यंत क्लांत होकर ईश्वर से माँगा है, कि हे ईश्वर- यदि मेरी साधना सच्ची है, तो इसकी झूठी जिव्हा लकवा ग्रस्त हो जाए. यह गूंगा और बहरा हो जाए. जिन पैरों से जगह-जगह जाकर यह मेरी निंदा करता है, वे पैर टूट जाएँ. गुरूजी आवेश में बोलते चले जा रहे थे.

     धर्मबुद्धि बड़े शांत स्वर में बोला- गुरुदेव आप ग्यानी हैं, विद्वान् हैं, इसलिए मैं आपको क्या कहूँ. हाँ इतना ही कह सकता हूँ, कि यदि मेरे साथ ऐसा होता, तो मैं इतना सब ईश्वर से मांगकर अपना तपोबल नष्ट नहीं  करता. मात्र इतनी प्रार्थना करता, कि हे ईश्वर- आप सर्व शक्तिमान हो, सब कुछ कर सकते हो. बस, निंदक की बुद्धि ऐसी निर्मल कर दो कि वह दूसरों की निंदा छोड़कर सत्कार्य और आत्मोत्थान में प्रवृत्त हो जाए. गुरूजी अवाक होकर अपने शिष्य धर्मबुद्धि को अपलक देखे जा रहे थे.

                      एरिया  (2)

     सुन्दर, पीली-पीली, स्वादिष्ट दूध से भरी 'खिरनी' का ठेला उसने लगाया ही था, कि एक आदमी रसीद कट्टा लेकर सामने खड़ा हो गया.  उसने पचास रूपये की रसीद काटते हुए कहा- "बैठकी फीस" हम नगर पालिका से हैं उसने कहा- भाई साहब अभी तो बोहनी भी नहीं हुई.  वो बोला- यह तो देना ही पड़ेगी. इस नगर-पालिका के 'एरिये' में जो भी दूकान लगाता है, उसे देना ही पड़ती है और रूपये लेकर, रसीद देकर चलता बना. तब तक काफी ग्राहक आ गए. सभी लोग जल्दी-जल्दी की रट लगा  रहे थे. अचानक एक पुलिस वाला ठेले पर डंडा मारकर बोला- क्यों रे कहाँ का रहने वाला है. उसने एक मुट्ठी खिरनी उठाई और खाते हुए बोला- निकाल सौ रूपये. वह कुछ न-नुकुर करता इसके पहले ही वह ठेले पर डंडा मारते हुए बोला- यह मेरे थाने का 'एरिया' है, निकाल जल्दी. घबराकर उसने सौ का नोट उसके हाथ पर रख दिया और ग्राहकों को खिरनी तौलने लगा. अंत में भीड़ छटने पर उसका ध्यान उस ग्राहक पर गया, जो बिलकुल शांत भाव से पीछे खडा था, गंभीरता से और धैर्य-पूर्वक. उसने भी मन ही मन उसकी प्रशंसा की, कि कितना शांत और अच्छा है यह आदमी. अपने से बाद में भी आये दूसरे ग्राहकों को फल लेने दे रहा है और कोई जल्दी नहीं कर रहा. जब सभी ग्राहक चले गये तो उसने बड़ी विनम्रता से पूछा आपको कितनी चाहिए? वह गुस्से से बोला ”खिरनी नहीं चाहिए मूर्ख, हफ्ता चाहिए हफ्ता, ला निकाल बिक्री का दस परसेंट, नहीं तो इतने जूते मारूंगा कि गिन भी नहीं पायेगा. मैं इस एरिये का गुंडा हूँ. ये “एरिया हमारा है”. बगैर मुझे हफ्ता दिए कोई यहाँ धंधा नहीं कर सकता, हफ्ता बसूली पर निकला हूँ. लगता है इस एरिये में तू नया है. फल वाला एक दम डर  गया और उसने मिमियाते हुए कमजोर सा प्रतिवाद किया- भाई साहब अभी थोड़ी देर पहले भी दो लोग यही कह रहे थे, कि “एरिया हमारा है” और रूपये भी ले गये थे? फिर घबराते हुए कुछ रूपये निकालकर उसके हाथ पर रख दिए और सोचने लगा- आखिर यह एरिया है किसका?
 

                  कार्मोरेंटस  (3)

     पुराने साहब गये, नये साहब आये, कुछ ही दिन हुए थे. आफिस केन्टीन मे चर्चाओं का बाजार गर्म था. यादव जी बोले- कुछ भी कहो, नये साहब राजा आदमी हैं. पद के अनुसार उनका आचरण भी है. पुराने साहब मे तो इतना टुच्चापन था, कि सौ-पचास वाले ग्राहक भी हमको न छोड़ते थे, हर मामला खुद ही डील कर लेते थे. हम तो सूखी तनखा मे काम चलाते-चलाते परेशान हो गये थे. नये साहब का ऐसा नहीं है. वो सिर्फ बड़े मामले ही डील करते हैं. वो भी हम लोगों के माध्यम से, हमको महत्व देते हुए. सौ-दो-सौ रुपयों पर तो धयान ही नहीं देते.

     बनर्जी साहब सिगरेट का कश लेते हुए दार्शनिक अंदाज मे बोले- भाइयो,  हम सब कार्मोरेंटस हैं.

     यादव जी बोले- भाई ये'कार्मोरेंटस' क्या होता है?

     बनर्जी साहब ने समझाया- कार्मोरेंटस एक जापानी पक्षी होता है, जो ते़जी से मछ्ली पकड़कर एक बार मे ही सात-आठ मछ्ली मुँह मे भर लेता है. वहाँ के मछुआरे उसके गले मे रस्सी बाँधकर उससे मछलियों का शिकार करवाते हैं. गले मे रस्सी बंधी होने से वह सिर्फ छोटी  मछली ही निगल पाता है. मछुआरे शेष बड़ी मछलियाँ, उसके मुँह मे से निकाल लेते हैं.  

     लंच समाप्त हुआ, सभी कार्मोरेंटस अपनी कुर्सियों पर जम गये.


                       कैरियर  (4)

     आज मिसेज भल्ला के घर पार्टी थी, मोंटू को वे डांट भी रही थी, और समझा भी रही थी. देखो मोंटू, आज की किटी पार्टी विशेष है. आज की थीम है, "बच्चे और उनका कैरियर" तुमको तो पता ही है. आज सभी आंटियां आपने-अपने बच्चों को लेकर अपने घर आयेंगी. सभी बच्चों का स्केटिंग, डांसिंग, पेंटिंग, सिंगिंग, म्यूजिक, और पोएट्री काम्पिटीशन रखा गया है. उस में जो बच्चा ओवर आल विनर होगा, उस बच्चे और उसकी मम्मी को बड़ा सा प्राइज मिलेगा. तुम अपने कमरे में खिलौनों से खेलने में मस्त रहते हो, आज कोई खेल नहीं. दिन भर तैयारी करो. फिर हाथ पकड़कर, जोर से  भम्भोड़कर बोली- याद रखना, शाम को मुझे प्राइज चाहिए, समझे. देखो मेरी नाक मत कटवा देना. चिंटू डरा-डरा सा बोला जी मम्मी, पर मुझे नींद आ रही है. मम्मी बोली- कोई नींद नहीं जाओ, कमरे में और तैयारी करो.

     थोड़ी देर बाद जब मिसेज भल्ला चुपचाप चिंटू को देखने गईं तो चिंटू एक बन्दर के खिलौने के गले में रस्सी बाँध कर उसे खूब उछाल रहा था, उसको गुलाटी खिला रहा था और पटक रहा था पर उसके चेहरे पर सहज आनंद न होकर गुस्सा और तनाव था और कुछ बडबडा रहा था. उसने ध्यान से सुनने की कोशिश की तो वह बन्दर को रस्सी से उछाल कर गुलाटी खिलाते हुए डांट रहा था. ए बंदर...जल्दी नाच.. तुझे फर्स्ट आना है. देखो सो मत जाना. तुझे आर्टिस्ट बनना है, सिंगर बनना है, म्यूजीशियन बनना है, डांसर बनना है, और हाँ खिलाड़ी और पोएट भी बनना है. अभी.. इसी वक्त... सब कुछ बनना है और याद रखना, तुझे गणित, इंग्लिश, जी.के., ड्राइंग हिंदी, साइंस, सभी में 'ए प्लस' भी लाना है. नाच बन्दर नाच, नहीं तो बहुत मारूंगा.. बहुत मारूंगा और बन्दर को बार बार जमीन पर पटक कर सुबक-सुबक कर रोने लगा. मिसेज भल्ला किंकर्तव्य विमूढ़ सी खडी उसे देख रही थी. उनको कुछ भी  समझ में नहीं आ रहा था. वे चिंटू को गले से लगाकर खुद सुबक-सुबक कर रोने लगीं

      शांतिपूर्ण थाना क्षेत्र   (5)

     फरियादी- कल्लू खाँ की रिपोर्ट लिखाना है.
     थानेदार- वही कल्लू खाँ जो कसाई मोहल्ले में रह्ता है?

     पर देखो, मेरा थाना क्षेत्र“सर्वाधिक शांतिपूर्ण" थाना क्षेत्र कहलाता है. इस बात का मुझे पुरस्कार भी मिल चुका है. मेरे यहाँ सबसे कम रिपोर्ट्स आती हैं. छोटी-छोटी बात पर रिपोर्ट लिखाना अच्छी बात नहीं है।

     फरियादी- सर! छोटी बात नहीं है, पहले तो उसने मुझे बाइक से टक्कर मारी, मैं रोड पर गिर गया, मुझे काफी चोटें आई. फिर मैंने जब उस से पूछा, कि टक्कर क्यों मारी? तो सबके सामने दो चाँटे भी मार दिये. इस लिये रिपोर्ट तो जरूर लिखाऊंगा.

     थानेदार- अच्छा लिखता हूँ , थोड़ा समझ तो लूँ , कौन सा कल्लू खाँ है. वही कल्लू खाँ न, जिसके ऊपर चार मर्डर केस चल रहे हैं?

     जो दूकान से घर जाते समय, कई लोगों के लिये सूने रास्ते में छुरी मार चुका है,और जरा सी किसी से बुराई होने पर अपहरण, हत्या जैसे अपराध कर देता है।

     फरियादी- जी साहब.                                           
     थानेदार- अच्छा, समझ गया, वो तो बहुत बदमाश है. साला पुलिस के हत्थे भी नहीं आता, फिर कोई उसके विरुद्ध गवाही भी तो नहीं देता. कुछ दिनों पहले हफ्ता बसूली करते समय उस की एक दूकानदार से बहस हो गई थी, अगले ही दिन उसकी स्कूल जाती मासूम बच्ची का अपहरण कर लिया था.

     खैर छोड़ो. बोलो- रिपोर्ट में क्या लिखूँ?

     फरियादी- नहीं साहब,मुझे रिपोर्ट नहीं लिखाना.

     थानेदार- नहीं-नहीं आप रिपोर्ट लिखवाइये, वरना अपराध कैसे खतम होंगे.

     फरियादी- नहीं साहब,माफ कीजिये, मुझे रिपोर्ट नहीं लिखाना. 

                अंधविश्वास (6)

     उनका एन.जी.ओ. गाँव-गाँव में जाकर लोगों को शिक्षित करता और डायन प्रथा, काला जादू तथा अंधविश्वास को दूर करने का कार्य करता है. सरकार से भी उनको इस कार्य के लिए काफी आर्थिक अनुदान मिलता है. वे “अंधविश्वास मिटाओ समिति” के अध्यक्ष भी हैं. उन्होंने आज शाम को इसी विषय पर कार्य-योजना बनाने हेतु अपने घर पर एक बैठक रखी है, ताकि गाँव-गाँव जाकर अंधविश्वास पर गहरी चोट की जा सके. मुझे उनका घर खोजने में असुविधा हो रही थी. एक पान की गुमटी वाले से मैंने उनके घर का पता पूछा तो उसने बताया- आप ये सामने वाले  रोड पर चले जाइए, आगे जाकर दायें मुड जाइयेगा. वहाँ ग्रीन कलर के नये, दो सुंदर आलीशान मकान बने हैं. उनमे से जिस मकान के उपर ‘काली हाँडी’ टंगी है और सामने की तरफ एक “फटा हुआ काला जूता” टंगा है वही मकान उनका है. सुनकर मैंने कुछ सोचा और वापस घर लौट आया.

 अवांछित  (7)

     सत्यांश का मन आज बेहद दुखी था. आज फिर बड़े साहब ने उसको डाँटा. वो भी पूरे स्टाफ के सामने. उसके समझ में नहीं आ रहा था, कि यहाँ इस आफिस मैं उसको स्थानांतरित हुए छ्ह महीने भी नहीं हुए थे. फिर भी पूरा स्टाफ दुश्मन क्यों बन गया?जबकि वह पूरी लगन, निष्ठा और ईमानदारी से अपना काम करता है.

     आफिस के सब लोग जा चुके थे. चपरासी ने डाक लाकर दी. उसने बड़े दुखी मन से सुखीराम से पूछा- अच्छा सुखीराम, तुम ही बताओ, मेरे काम मे क्या कमी है, जो आफिस का हर आदमी मुझसे नाराज है. बड़े साहब तो सदैव ही नाराज रह्ते हैं.

     सुखीराम बोला- बड़े बाबू,आप बहुत भोले हैं. जमाने का चलन नहीं समझ पाते. पिछ्ले बड़े बाबू सब को कमाई का परसेंटेज देते थे. सभी को पार्टियाँ भी दिया करते थे. इस आफिस में आये दिन पार्टियाँ हुआ करती थी, जो आपके आने के बाद बंद हो गई. आप  भी बिलों की हेराफेरी मे जब तक पारंगत नहीं बनेंगे,  तब तक कष्ट भोगते रहेंगे. वास्तव मे कोई नहीं चाह्ता कि आप इस आफिस में रहें.

     डाक को रजिस्टर में चढ़ाते समय जब उसने एक लिफाफा खोला तो अपना स्थानांतर आदेश देखकर दंग रह गया. उस में लिखा था, आपका आवेदन-पत्र स्वीकार करते हुए आपका स्थानांतर झाबुआ जिले में किया जाता है. उसे बहुत आश्चर्य हुआ. उसने तो आवेदन दिया ही नहीं था! आदेश के साथ आवेदन की फोटोकापी से पता चला. किसी  ने जाली हस्ताक्षर बनाकर उसकी ओर से स्थानांतर हेतु आवेदन भेज दिया था. 

चीटर  (8)

     सुमेधा हनुमान जी को चना-चिरोंजी का प्रसाद चढ़ा कर लौटी तो दालान की एक मात्र टूटी बेंच पर एक सूट-बूट पहने भद्र पुरुष को बैठे पाया. नमस्ते करके जैसे ही वह घर के अंदर जाने लगी, तो उन्होंने रोका, बेटी- ‘सुमेधा’ तुम्हारा ही नाम है? बोली- जी अंकल. वे तपाक से बोले- बेटा, बहुत बहुत बधाई, तुमने रिक्शा वाले की बेटी होकर भी हायर सेकेंडरी बोर्ड में राज्य में प्रथम स्थान प्राप्त किया है, यह तुमको ही नहीं हम सब को गौरव की बात है.

     बेटी, मैं “प्रतिभा कोचिंग इंस्टिट्यूट” से आया हूँ, तुम्हारी भलाई करने. सुमेधा को अचानक याद आया कि उसके पापा कितने गिडगिडाये थे कि मेरी बेटी को कोचिंग में एडमिशन दे दीजिये, वह अपने सपने पूरे करना चाहती है. जैसे तैसे बड़ी मेहनत से मैं आधी फीस ही जोड़ पाया हूँ, तब डायरेक्टर साहब ने कितने बुरे तरीके से डांटकर भगाया था, चलो भागो यहाँ से, हम लोग यहाँ कोई चैरिटी करने नहीं बैठे हैं. जब पूरी फीस हो तभी आना. पिताजी की बेइज्जती, आज भी वह भूली नहीं है. पिताजी की आँखों में आंसू भर आये थे, तब उसने पिताजी से वायदा किया था, कि आप दुखी ना हों, मैं आपको अच्छे नंबर लाकर दिखाउंगी. आज ये अचानक मेरी कौन सी भलाई करने आ गये?

     उसका ध्यान भंग करते हुए वे बोले- बेटी, मैं एक प्रस्ताव लेकर आया हूँ. हम तुम्हारी फोटो अखबार में देंगे और लिखेंगे कि तुमने अपनी परीक्षा की पूरी तैयारी हमारी "“प्रतिभा कोचिंग इंस्टिट्यूट”" की मदद से की है, तुम भी प्रेस वालों को यही बयान देना. इसके बदले में हम तुमको एक लाख रूपये देंगे. सुनकर अनपढ़ माँ खुश, पिता उदासीन पर किंकर्त्तव्य विमूढ़ थे, पर उसने दृढ़ता से कहा- नहीं अंकल, हम लोग गरीब जरूर हैं, पर झूठे और चीटर नहीं हैं.

जीत का दुःख  (9)

     छोटी ‘त्वरा’ दादी माँ की बहुत लाडली थी. मात्र चौदह वर्ष की उम्र में ही वह एक सफल धाविका बन चुकी थी. कई मैडल उसने अपने नाम कर लिए थे. अब उसकी राष्ट्रीय प्रतिस्पर्द्धा की तैयारी चल रही थी. बस इसी बात की चिंता उसे खाए जा रही थी, कि अभी कुछ दिनों पूर्व से हमेशा द्वितीय स्थान पाने वाली रंजना उस से बेहतर परफार्मेंस में आ गई थी और प्रेक्टिस में वह आगे निकल जाती थी. उसको ख़तरा था, कि अखिल भारतीय प्रतियोगिता में रंजना प्रथम ना आ जाए. त्वरा की दादी भी बहुत बड़ी धाविका रह चुकी थी और एशियाई खेलों में उन्होंने खूब नाम कमाया था. त्वरा उन्ही के मार्गदर्शन में आगे बढ़ रही थी.

     रात में अपनी दादी के साथ सोते समय उसने दादी के गले में बाहें डालकर दादी से कहा- दादी-  यह प्रतिस्पर्द्धा मैं हर हाल में जीतना चाहती हूँ. मैं बिलकुल सहन नहीं कर पाउंगी, कि रंजना या अन्य कोई मुझसे आगे निकल जाए. दादी आप तो स्वयं खिलाड़ी रही हैं. जीत के मायने क्या होते हैं, ये तो आप अच्छी तरह से समझती हैं. जीत इंसान को कितनी ख़ुशी देती है.

     दादी ठंडी सांस लेते हुए बोली– बेटी जरूरी नहीं है, कि जीत हमेशा ख़ुशी ही दे. कभी-कभी जीत दुःख भी दे जाती है. ऐसा दुःख जिसकी काली  परछाईं जीवन भर पीछा नहीं छोडती. त्वरा आश्चर्य से दादी का मुंह देखते हुए बोली- ऐसा कैसे हो सकता है? फिर जिद करते हुए बोली- दादी आप मुझे जरूर बताएं, कि जीत दुःख कैसे देती है. दादी कुछ मिनट मौन रहने के बाद बोली- बेटी, मुझे गलत मत समझना, पर बचपन की उम्र ही ऐसी होती है कि इंसान कभी-कभी ऐसी भूल कर बैठता है जिसका पछतावा उसे उम्र भर रहता है. बेटी, तुम जो मेरा गोल्ड मैडल देखती हो वह ऐसा ही है. मैं जब-जब उसे देखती हूँ, आत्मग्लानि से भर जाती हूँ.

     मैं भी तुम्हारी तरह हर हाल में जीतना चाहती थी. परन्तु दूसरी धाविका मुझसे बहुत आगे रहती थी. हमारी टीम को एक बड़े हाल में ठहराया गया था. मैंने पहले से ही योजना बना ली थी. जब सब सो गए तो मैंने रात में चुपके से उठ कर उसकी पानी की बाटल में ‘स्टेराइड’ मिला दिया. सुबह सभी खिलाड़ियों के “डोप-टेस्ट” हुए जिसमे वह दोषी पाई गई और दौड़ में उसे भाग लेने से रोक दिया गया. जाहिर था, कि मैं प्रथम आ गई, पर आज भी उस लड़की का दहाड़ें मार-मार कर रोना और उसके माता-पिता तक के बहते आंसू, उस लड़की का डिप्रेशन में चले जाना, मुझे जब-जब याद आते हैं, मैं अपने आप को कभी माफ़ नहीं कर पाती. बेटी- ऐसी जीत से तो हार भली. त्वरा अवाक होकर दादी की स्वीकारोक्ति सुन रही थी.

     थोड़ी देर बाद जब दादी को नींद आ गई तब त्वरा चुपचाप उठी और अपने स्टडी-रूम में जाकर कम्पास में से दो पैनी लोहे की कीलें निकाली, जो वह मौक़ा पाते ही रंजना के जूतों में लगाने वाली थी. उन कीलों को हिकारत से देखा और नाली में फेंक दिया. अब उसके मष्तिष्क का सारा बोझ उतर चुका था और वह बहुत हल्का अनुभव कर रही थी.

     

 

                जिज्ञासा  (10)

     बेटा- अब्बू, बाजार में झगड़ा क्यों होता रहता है. आज तो तलवारें निकल आई थी. आप न समझाते तो मारकाट हो जाती.

     अब्बू- होता है बेटा. वो लोग हिन्दू हैं, हम लोग मुसलमान. धर्म में अंतर है न, इसीलिये.
     बेटा- धर्म में अंतर से क्या होता है? 
     अब्बू- बेटा, हम लोग अल्लाह की बताई राह पर चलते हैं, पर काफ़िर हिन्दू लोग बुतपरस्त होते हैं. वे राम को मानते हैं.
     बेटा- तो क्या अल्लाह और राम की भी लड़ाई होती है? 
     अब्बू- नहीं बेटा, ऐसी कोई लड़ाई नहीं होती.
     बेटा- फिर हम लोगों की क्यों होती है?
     अब्बू- होती है बेटा, हम लोगों के धर्म, रस्मो-रिवाज़ और खून में अंतर होता है. खून का भी गुण होता है. उसी से स्वभाव व आदतें बनती हैं.
     बेटा- अच्छा! अब समझ में आया। तभी अपनी आदत'अल्ला-अल्ला' कहने की है और पड़ौस के पंडित चाचा'राम-राम' कहते हैं.
     अब्बू- हाँ बेटा, यही बात है.
     बेटा- अम्मी राम-राम कब बोलेंगी?
     अब्बू- पागल तो नहीं हो गया? अम्मी राम राम क्यों बोलेंगी.
     बेटा- वाह अब्बू! भूल गए क्या? एक दिन अम्मी जब बीमार थी, तो अस्पताल में पंडित चाची ने उनको खून दिया था. पंडित चाची का खून भी है उनके अंदर. कितना मजा आएगा, जब वो कभी अल्ला अल्ला बोलेंगी,कभी राम राम बोलेंगी. 
     अब्बू- बेटा ऐसा दिन कभी नहीं आयेगा. 
     बेटा- (कुछ मायूस होकर) ऐसा होता तो कितना अच्छा होता? कम से कम झगड़े तो न होते और मैं भी बंटी के साथ अच्छी तरह खेल पाता.  

गोकुल सोनी


परिचय

                       धर्मबुद्धि  (1)  

     गुरुदेव...सादर दण्डवत...आज आपकी साधना में अशांति और व्यग्रता का भाव अधिक प्रतीत हो रहा है. यदि उचित समझें तो अपने इस अकिंचन शिष्य को अवगत कराने की कृपा करें.

     क्या करूं धर्मबुद्धि? कुछ समझ में नहीं आ रहा. इस ‘निंदक’ ने बहुत परेशान कर रखा है. जहां-जहां जाता है, झूठी और मनघडंत कहानिया सुनाकर मेरी निंदा करता है. लोग मुझे लोभी-लालची, पातकी, न जाने क्या-क्या समझ रहे हैं. चारों ओर मेरा अपयश फ़ैल रहा है. आज मैंने अत्यंत क्लांत होकर ईश्वर से माँगा है, कि हे ईश्वर- यदि मेरी साधना सच्ची है, तो इसकी झूठी जिव्हा लकवा ग्रस्त हो जाए. यह गूंगा और बहरा हो जाए. जिन पैरों से जगह-जगह जाकर यह मेरी निंदा करता है, वे पैर टूट जाएँ. गुरूजी आवेश में बोलते चले जा रहे थे.

     धर्मबुद्धि बड़े शांत स्वर में बोला- गुरुदेव आप ग्यानी हैं, विद्वान् हैं, इसलिए मैं आपको क्या कहूँ. हाँ इतना ही कह सकता हूँ, कि यदि मेरे साथ ऐसा होता, तो मैं इतना सब ईश्वर से मांगकर अपना तपोबल नष्ट नहीं  करता. मात्र इतनी प्रार्थना करता, कि हे ईश्वर- आप सर्व शक्तिमान हो, सब कुछ कर सकते हो. बस, निंदक की बुद्धि ऐसी निर्मल कर दो कि वह दूसरों की निंदा छोड़कर सत्कार्य और आत्मोत्थान में प्रवृत्त हो जाए. गुरूजी अवाक होकर अपने शिष्य धर्मबुद्धि को अपलक देखे जा रहे थे.

                      एरिया  (2)

     सुन्दर, पीली-पीली, स्वादिष्ट दूध से भरी 'खिरनी' का ठेला उसने लगाया ही था, कि एक आदमी रसीद कट्टा लेकर सामने खड़ा हो गया.  उसने पचास रूपये की रसीद काटते हुए कहा- "बैठकी फीस" हम नगर पालिका से हैं उसने कहा- भाई साहब अभी तो बोहनी भी नहीं हुई.  वो बोला- यह तो देना ही पड़ेगी. इस नगर-पालिका के 'एरिये' में जो भी दूकान लगाता है, उसे देना ही पड़ती है और रूपये लेकर, रसीद देकर चलता बना. तब तक काफी ग्राहक आ गए. सभी लोग जल्दी-जल्दी की रट लगा  रहे थे. अचानक एक पुलिस वाला ठेले पर डंडा मारकर बोला- क्यों रे कहाँ का रहने वाला है. उसने एक मुट्ठी खिरनी उठाई और खाते हुए बोला- निकाल सौ रूपये. वह कुछ न-नुकुर करता इसके पहले ही वह ठेले पर डंडा मारते हुए बोला- यह मेरे थाने का 'एरिया' है, निकाल जल्दी. घबराकर उसने सौ का नोट उसके हाथ पर रख दिया और ग्राहकों को खिरनी तौलने लगा. अंत में भीड़ छटने पर उसका ध्यान उस ग्राहक पर गया, जो बिलकुल शांत भाव से पीछे खडा था, गंभीरता से और धैर्य-पूर्वक. उसने भी मन ही मन उसकी प्रशंसा की, कि कितना शांत और अच्छा है यह आदमी. अपने से बाद में भी आये दूसरे ग्राहकों को फल लेने दे रहा है और कोई जल्दी नहीं कर रहा. जब सभी ग्राहक चले गये तो उसने बड़ी विनम्रता से पूछा आपको कितनी चाहिए? वह गुस्से से बोला ”खिरनी नहीं चाहिए मूर्ख, हफ्ता चाहिए हफ्ता, ला निकाल बिक्री का दस परसेंट, नहीं तो इतने जूते मारूंगा कि गिन भी नहीं पायेगा. मैं इस एरिये का गुंडा हूँ. ये “एरिया हमारा है”. बगैर मुझे हफ्ता दिए कोई यहाँ धंधा नहीं कर सकता, हफ्ता बसूली पर निकला हूँ. लगता है इस एरिये में तू नया है. फल वाला एक दम डर  गया और उसने मिमियाते हुए कमजोर सा प्रतिवाद किया- भाई साहब अभी थोड़ी देर पहले भी दो लोग यही कह रहे थे, कि “एरिया हमारा है” और रूपये भी ले गये थे? फिर घबराते हुए कुछ रूपये निकालकर उसके हाथ पर रख दिए और सोचने लगा- आखिर यह एरिया है किसका?
 

                  कार्मोरेंटस  (3)

     पुराने साहब गये, नये साहब आये, कुछ ही दिन हुए थे. आफिस केन्टीन मे चर्चाओं का बाजार गर्म था. यादव जी बोले- कुछ भी कहो, नये साहब राजा आदमी हैं. पद के अनुसार उनका आचरण भी है. पुराने साहब मे तो इतना टुच्चापन था, कि सौ-पचास वाले ग्राहक भी हमको न छोड़ते थे, हर मामला खुद ही डील कर लेते थे. हम तो सूखी तनखा मे काम चलाते-चलाते परेशान हो गये थे. नये साहब का ऐसा नहीं है. वो सिर्फ बड़े मामले ही डील करते हैं. वो भी हम लोगों के माध्यम से, हमको महत्व देते हुए. सौ-दो-सौ रुपयों पर तो धयान ही नहीं देते.

     बनर्जी साहब सिगरेट का कश लेते हुए दार्शनिक अंदाज मे बोले- भाइयो,  हम सब कार्मोरेंटस हैं.

     यादव जी बोले- भाई ये'कार्मोरेंटस' क्या होता है?

     बनर्जी साहब ने समझाया- कार्मोरेंटस एक जापानी पक्षी होता है, जो ते़जी से मछ्ली पकड़कर एक बार मे ही सात-आठ मछ्ली मुँह मे भर लेता है. वहाँ के मछुआरे उसके गले मे रस्सी बाँधकर उससे मछलियों का शिकार करवाते हैं. गले मे रस्सी बंधी होने से वह सिर्फ छोटी  मछली ही निगल पाता है. मछुआरे शेष बड़ी मछलियाँ, उसके मुँह मे से निकाल लेते हैं.  

     लंच समाप्त हुआ, सभी कार्मोरेंटस अपनी कुर्सियों पर जम गये.


                       कैरियर  (4)

     आज मिसेज भल्ला के घर पार्टी थी, मोंटू को वे डांट भी रही थी, और समझा भी रही थी. देखो मोंटू, आज की किटी पार्टी विशेष है. आज की थीम है, "बच्चे और उनका कैरियर" तुमको तो पता ही है. आज सभी आंटियां आपने-अपने बच्चों को लेकर अपने घर आयेंगी. सभी बच्चों का स्केटिंग, डांसिंग, पेंटिंग, सिंगिंग, म्यूजिक, और पोएट्री काम्पिटीशन रखा गया है. उस में जो बच्चा ओवर आल विनर होगा, उस बच्चे और उसकी मम्मी को बड़ा सा प्राइज मिलेगा. तुम अपने कमरे में खिलौनों से खेलने में मस्त रहते हो, आज कोई खेल नहीं. दिन भर तैयारी करो. फिर हाथ पकड़कर, जोर से  भम्भोड़कर बोली- याद रखना, शाम को मुझे प्राइज चाहिए, समझे. देखो मेरी नाक मत कटवा देना. चिंटू डरा-डरा सा बोला जी मम्मी, पर मुझे नींद आ रही है. मम्मी बोली- कोई नींद नहीं जाओ, कमरे में और तैयारी करो.

     थोड़ी देर बाद जब मिसेज भल्ला चुपचाप चिंटू को देखने गईं तो चिंटू एक बन्दर के खिलौने के गले में रस्सी बाँध कर उसे खूब उछाल रहा था, उसको गुलाटी खिला रहा था और पटक रहा था पर उसके चेहरे पर सहज आनंद न होकर गुस्सा और तनाव था और कुछ बडबडा रहा था. उसने ध्यान से सुनने की कोशिश की तो वह बन्दर को रस्सी से उछाल कर गुलाटी खिलाते हुए डांट रहा था. ए बंदर...जल्दी नाच.. तुझे फर्स्ट आना है. देखो सो मत जाना. तुझे आर्टिस्ट बनना है, सिंगर बनना है, म्यूजीशियन बनना है, डांसर बनना है, और हाँ खिलाड़ी और पोएट भी बनना है. अभी.. इसी वक्त... सब कुछ बनना है और याद रखना, तुझे गणित, इंग्लिश, जी.के., ड्राइंग हिंदी, साइंस, सभी में 'ए प्लस' भी लाना है. नाच बन्दर नाच, नहीं तो बहुत मारूंगा.. बहुत मारूंगा और बन्दर को बार बार जमीन पर पटक कर सुबक-सुबक कर रोने लगा. मिसेज भल्ला किंकर्तव्य विमूढ़ सी खडी उसे देख रही थी. उनको कुछ भी  समझ में नहीं आ रहा था. वे चिंटू को गले से लगाकर खुद सुबक-सुबक कर रोने लगीं

      शांतिपूर्ण थाना क्षेत्र   (5)

     फरियादी- कल्लू खाँ की रिपोर्ट लिखाना है.
     थानेदार- वही कल्लू खाँ जो कसाई मोहल्ले में रह्ता है?

     पर देखो, मेरा थाना क्षेत्र“सर्वाधिक शांतिपूर्ण" थाना क्षेत्र कहलाता है. इस बात का मुझे पुरस्कार भी मिल चुका है. मेरे यहाँ सबसे कम रिपोर्ट्स आती हैं. छोटी-छोटी बात पर रिपोर्ट लिखाना अच्छी बात नहीं है।

     फरियादी- सर! छोटी बात नहीं है, पहले तो उसने मुझे बाइक से टक्कर मारी, मैं रोड पर गिर गया, मुझे काफी चोटें आई. फिर मैंने जब उस से पूछा, कि टक्कर क्यों मारी? तो सबके सामने दो चाँटे भी मार दिये. इस लिये रिपोर्ट तो जरूर लिखाऊंगा.

     थानेदार- अच्छा लिखता हूँ , थोड़ा समझ तो लूँ , कौन सा कल्लू खाँ है. वही कल्लू खाँ न, जिसके ऊपर चार मर्डर केस चल रहे हैं?

     जो दूकान से घर जाते समय, कई लोगों के लिये सूने रास्ते में छुरी मार चुका है,और जरा सी किसी से बुराई होने पर अपहरण, हत्या जैसे अपराध कर देता है।

     फरियादी- जी साहब.                                           
     थानेदार- अच्छा, समझ गया, वो तो बहुत बदमाश है. साला पुलिस के हत्थे भी नहीं आता, फिर कोई उसके विरुद्ध गवाही भी तो नहीं देता. कुछ दिनों पहले हफ्ता बसूली करते समय उस की एक दूकानदार से बहस हो गई थी, अगले ही दिन उसकी स्कूल जाती मासूम बच्ची का अपहरण कर लिया था.

     खैर छोड़ो. बोलो- रिपोर्ट में क्या लिखूँ?

     फरियादी- नहीं साहब,मुझे रिपोर्ट नहीं लिखाना.

     थानेदार- नहीं-नहीं आप रिपोर्ट लिखवाइये, वरना अपराध कैसे खतम होंगे.

     फरियादी- नहीं साहब,माफ कीजिये, मुझे रिपोर्ट नहीं लिखाना. 

                अंधविश्वास (6)

     उनका एन.जी.ओ. गाँव-गाँव में जाकर लोगों को शिक्षित करता और डायन प्रथा, काला जादू तथा अंधविश्वास को दूर करने का कार्य करता है. सरकार से भी उनको इस कार्य के लिए काफी आर्थिक अनुदान मिलता है. वे “अंधविश्वास मिटाओ समिति” के अध्यक्ष भी हैं. उन्होंने आज शाम को इसी विषय पर कार्य-योजना बनाने हेतु अपने घर पर एक बैठक रखी है, ताकि गाँव-गाँव जाकर अंधविश्वास पर गहरी चोट की जा सके. मुझे उनका घर खोजने में असुविधा हो रही थी. एक पान की गुमटी वाले से मैंने उनके घर का पता पूछा तो उसने बताया- आप ये सामने वाले  रोड पर चले जाइए, आगे जाकर दायें मुड जाइयेगा. वहाँ ग्रीन कलर के नये, दो सुंदर आलीशान मकान बने हैं. उनमे से जिस मकान के उपर ‘काली हाँडी’ टंगी है और सामने की तरफ एक “फटा हुआ काला जूता” टंगा है वही मकान उनका है. सुनकर मैंने कुछ सोचा और वापस घर लौट आया.

 अवांछित  (7)

     सत्यांश का मन आज बेहद दुखी था. आज फिर बड़े साहब ने उसको डाँटा. वो भी पूरे स्टाफ के सामने. उसके समझ में नहीं आ रहा था, कि यहाँ इस आफिस मैं उसको स्थानांतरित हुए छ्ह महीने भी नहीं हुए थे. फिर भी पूरा स्टाफ दुश्मन क्यों बन गया?जबकि वह पूरी लगन, निष्ठा और ईमानदारी से अपना काम करता है.

     आफिस के सब लोग जा चुके थे. चपरासी ने डाक लाकर दी. उसने बड़े दुखी मन से सुखीराम से पूछा- अच्छा सुखीराम, तुम ही बताओ, मेरे काम मे क्या कमी है, जो आफिस का हर आदमी मुझसे नाराज है. बड़े साहब तो सदैव ही नाराज रह्ते हैं.

     सुखीराम बोला- बड़े बाबू,आप बहुत भोले हैं. जमाने का चलन नहीं समझ पाते. पिछ्ले बड़े बाबू सब को कमाई का परसेंटेज देते थे. सभी को पार्टियाँ भी दिया करते थे. इस आफिस में आये दिन पार्टियाँ हुआ करती थी, जो आपके आने के बाद बंद हो गई. आप  भी बिलों की हेराफेरी मे जब तक पारंगत नहीं बनेंगे,  तब तक कष्ट भोगते रहेंगे. वास्तव मे कोई नहीं चाह्ता कि आप इस आफिस में रहें.

     डाक को रजिस्टर में चढ़ाते समय जब उसने एक लिफाफा खोला तो अपना स्थानांतर आदेश देखकर दंग रह गया. उस में लिखा था, आपका आवेदन-पत्र स्वीकार करते हुए आपका स्थानांतर झाबुआ जिले में किया जाता है. उसे बहुत आश्चर्य हुआ. उसने तो आवेदन दिया ही नहीं था! आदेश के साथ आवेदन की फोटोकापी से पता चला. किसी  ने जाली हस्ताक्षर बनाकर उसकी ओर से स्थानांतर हेतु आवेदन भेज दिया था. 

चीटर  (8)

     सुमेधा हनुमान जी को चना-चिरोंजी का प्रसाद चढ़ा कर लौटी तो दालान की एक मात्र टूटी बेंच पर एक सूट-बूट पहने भद्र पुरुष को बैठे पाया. नमस्ते करके जैसे ही वह घर के अंदर जाने लगी, तो उन्होंने रोका, बेटी- ‘सुमेधा’ तुम्हारा ही नाम है? बोली- जी अंकल. वे तपाक से बोले- बेटा, बहुत बहुत बधाई, तुमने रिक्शा वाले की बेटी होकर भी हायर सेकेंडरी बोर्ड में राज्य में प्रथम स्थान प्राप्त किया है, यह तुमको ही नहीं हम सब को गौरव की बात है.

     बेटी, मैं “प्रतिभा कोचिंग इंस्टिट्यूट” से आया हूँ, तुम्हारी भलाई करने. सुमेधा को अचानक याद आया कि उसके पापा कितने गिडगिडाये थे कि मेरी बेटी को कोचिंग में एडमिशन दे दीजिये, वह अपने सपने पूरे करना चाहती है. जैसे तैसे बड़ी मेहनत से मैं आधी फीस ही जोड़ पाया हूँ, तब डायरेक्टर साहब ने कितने बुरे तरीके से डांटकर भगाया था, चलो भागो यहाँ से, हम लोग यहाँ कोई चैरिटी करने नहीं बैठे हैं. जब पूरी फीस हो तभी आना. पिताजी की बेइज्जती, आज भी वह भूली नहीं है. पिताजी की आँखों में आंसू भर आये थे, तब उसने पिताजी से वायदा किया था, कि आप दुखी ना हों, मैं आपको अच्छे नंबर लाकर दिखाउंगी. आज ये अचानक मेरी कौन सी भलाई करने आ गये?

     उसका ध्यान भंग करते हुए वे बोले- बेटी, मैं एक प्रस्ताव लेकर आया हूँ. हम तुम्हारी फोटो अखबार में देंगे और लिखेंगे कि तुमने अपनी परीक्षा की पूरी तैयारी हमारी "“प्रतिभा कोचिंग इंस्टिट्यूट”" की मदद से की है, तुम भी प्रेस वालों को यही बयान देना. इसके बदले में हम तुमको एक लाख रूपये देंगे. सुनकर अनपढ़ माँ खुश, पिता उदासीन पर किंकर्त्तव्य विमूढ़ थे, पर उसने दृढ़ता से कहा- नहीं अंकल, हम लोग गरीब जरूर हैं, पर झूठे और चीटर नहीं हैं.

जीत का दुःख  (9)

     छोटी ‘त्वरा’ दादी माँ की बहुत लाडली थी. मात्र चौदह वर्ष की उम्र में ही वह एक सफल धाविका बन चुकी थी. कई मैडल उसने अपने नाम कर लिए थे. अब उसकी राष्ट्रीय प्रतिस्पर्द्धा की तैयारी चल रही थी. बस इसी बात की चिंता उसे खाए जा रही थी, कि अभी कुछ दिनों पूर्व से हमेशा द्वितीय स्थान पाने वाली रंजना उस से बेहतर परफार्मेंस में आ गई थी और प्रेक्टिस में वह आगे निकल जाती थी. उसको ख़तरा था, कि अखिल भारतीय प्रतियोगिता में रंजना प्रथम ना आ जाए. त्वरा की दादी भी बहुत बड़ी धाविका रह चुकी थी और एशियाई खेलों में उन्होंने खूब नाम कमाया था. त्वरा उन्ही के मार्गदर्शन में आगे बढ़ रही थी.

     रात में अपनी दादी के साथ सोते समय उसने दादी के गले में बाहें डालकर दादी से कहा- दादी-  यह प्रतिस्पर्द्धा मैं हर हाल में जीतना चाहती हूँ. मैं बिलकुल सहन नहीं कर पाउंगी, कि रंजना या अन्य कोई मुझसे आगे निकल जाए. दादी आप तो स्वयं खिलाड़ी रही हैं. जीत के मायने क्या होते हैं, ये तो आप अच्छी तरह से समझती हैं. जीत इंसान को कितनी ख़ुशी देती है.

     दादी ठंडी सांस लेते हुए बोली– बेटी जरूरी नहीं है, कि जीत हमेशा ख़ुशी ही दे. कभी-कभी जीत दुःख भी दे जाती है. ऐसा दुःख जिसकी काली  परछाईं जीवन भर पीछा नहीं छोडती. त्वरा आश्चर्य से दादी का मुंह देखते हुए बोली- ऐसा कैसे हो सकता है? फिर जिद करते हुए बोली- दादी आप मुझे जरूर बताएं, कि जीत दुःख कैसे देती है. दादी कुछ मिनट मौन रहने के बाद बोली- बेटी, मुझे गलत मत समझना, पर बचपन की उम्र ही ऐसी होती है कि इंसान कभी-कभी ऐसी भूल कर बैठता है जिसका पछतावा उसे उम्र भर रहता है. बेटी, तुम जो मेरा गोल्ड मैडल देखती हो वह ऐसा ही है. मैं जब-जब उसे देखती हूँ, आत्मग्लानि से भर जाती हूँ.

     मैं भी तुम्हारी तरह हर हाल में जीतना चाहती थी. परन्तु दूसरी धाविका मुझसे बहुत आगे रहती थी. हमारी टीम को एक बड़े हाल में ठहराया गया था. मैंने पहले से ही योजना बना ली थी. जब सब सो गए तो मैंने रात में चुपके से उठ कर उसकी पानी की बाटल में ‘स्टेराइड’ मिला दिया. सुबह सभी खिलाड़ियों के “डोप-टेस्ट” हुए जिसमे वह दोषी पाई गई और दौड़ में उसे भाग लेने से रोक दिया गया. जाहिर था, कि मैं प्रथम आ गई, पर आज भी उस लड़की का दहाड़ें मार-मार कर रोना और उसके माता-पिता तक के बहते आंसू, उस लड़की का डिप्रेशन में चले जाना, मुझे जब-जब याद आते हैं, मैं अपने आप को कभी माफ़ नहीं कर पाती. बेटी- ऐसी जीत से तो हार भली. त्वरा अवाक होकर दादी की स्वीकारोक्ति सुन रही थी.

     थोड़ी देर बाद जब दादी को नींद आ गई तब त्वरा चुपचाप उठी और अपने स्टडी-रूम में जाकर कम्पास में से दो पैनी लोहे की कीलें निकाली, जो वह मौक़ा पाते ही रंजना के जूतों में लगाने वाली थी. उन कीलों को हिकारत से देखा और नाली में फेंक दिया. अब उसके मष्तिष्क का सारा बोझ उतर चुका था और वह बहुत हल्का अनुभव कर रही थी.

     

 

                जिज्ञासा  (10)

     बेटा- अब्बू, बाजार में झगड़ा क्यों होता रहता है. आज तो तलवारें निकल आई थी. आप न समझाते तो मारकाट हो जाती.

     अब्बू- होता है बेटा. वो लोग हिन्दू हैं, हम लोग मुसलमान. धर्म में अंतर है न, इसीलिये.
     बेटा- धर्म में अंतर से क्या होता है? 
     अब्बू- बेटा, हम लोग अल्लाह की बताई राह पर चलते हैं, पर काफ़िर हिन्दू लोग बुतपरस्त होते हैं. वे राम को मानते हैं.
     बेटा- तो क्या अल्लाह और राम की भी लड़ाई होती है? 
     अब्बू- नहीं बेटा, ऐसी कोई लड़ाई नहीं होती.
     बेटा- फिर हम लोगों की क्यों होती है?
     अब्बू- होती है बेटा, हम लोगों के धर्म, रस्मो-रिवाज़ और खून में अंतर होता है. खून का भी गुण होता है. उसी से स्वभाव व आदतें बनती हैं.
     बेटा- अच्छा! अब समझ में आया। तभी अपनी आदत'अल्ला-अल्ला' कहने की है और पड़ौस के पंडित चाचा'राम-राम' कहते हैं.
     अब्बू- हाँ बेटा, यही बात है.
     बेटा- अम्मी राम-राम कब बोलेंगी?
     अब्बू- पागल तो नहीं हो गया? अम्मी राम राम क्यों बोलेंगी.
     बेटा- वाह अब्बू! भूल गए क्या? एक दिन अम्मी जब बीमार थी, तो अस्पताल में पंडित चाची ने उनको खून दिया था. पंडित चाची का खून भी है उनके अंदर. कितना मजा आएगा, जब वो कभी अल्ला अल्ला बोलेंगी,कभी राम राम बोलेंगी. 
     अब्बू- बेटा ऐसा दिन कभी नहीं आयेगा. 
     बेटा- (कुछ मायूस होकर) ऐसा होता तो कितना अच्छा होता? कम से कम झगड़े तो न होते और मैं भी बंटी के साथ अच्छी तरह खेल पाता.  

गोकुल सोनी

(कवि, कथाकार, व्यंग्यकार)

प्रबंध संपादक "सत्य की मशाल" पत्रिका 
८२/१, सी-सेक्टर, साईंनाथ नगर
कोलार रोड- भोपाल (म.प्र.), पिन-४६२०४२

मोबाइल-७०००८५५४०९




  

गोकुल सोनी 

(कवि, कथाकार, व्यंग्यकार)