गुरुवार, 24 जून 2021

गोकुल सोनी जी की दस लघुकथाएं :प्रस्तुति वागर्थ

                       धर्मबुद्धि  (1)  

     गुरुदेव...सादर दण्डवत...आज आपकी साधना में अशांति और व्यग्रता का भाव अधिक प्रतीत हो रहा है. यदि उचित समझें तो अपने इस अकिंचन शिष्य को अवगत कराने की कृपा करें.

     क्या करूं धर्मबुद्धि? कुछ समझ में नहीं आ रहा. इस ‘निंदक’ ने बहुत परेशान कर रखा है. जहां-जहां जाता है, झूठी और मनघडंत कहानिया सुनाकर मेरी निंदा करता है. लोग मुझे लोभी-लालची, पातकी, न जाने क्या-क्या समझ रहे हैं. चारों ओर मेरा अपयश फ़ैल रहा है. आज मैंने अत्यंत क्लांत होकर ईश्वर से माँगा है, कि हे ईश्वर- यदि मेरी साधना सच्ची है, तो इसकी झूठी जिव्हा लकवा ग्रस्त हो जाए. यह गूंगा और बहरा हो जाए. जिन पैरों से जगह-जगह जाकर यह मेरी निंदा करता है, वे पैर टूट जाएँ. गुरूजी आवेश में बोलते चले जा रहे थे.

     धर्मबुद्धि बड़े शांत स्वर में बोला- गुरुदेव आप ग्यानी हैं, विद्वान् हैं, इसलिए मैं आपको क्या कहूँ. हाँ इतना ही कह सकता हूँ, कि यदि मेरे साथ ऐसा होता, तो मैं इतना सब ईश्वर से मांगकर अपना तपोबल नष्ट नहीं  करता. मात्र इतनी प्रार्थना करता, कि हे ईश्वर- आप सर्व शक्तिमान हो, सब कुछ कर सकते हो. बस, निंदक की बुद्धि ऐसी निर्मल कर दो कि वह दूसरों की निंदा छोड़कर सत्कार्य और आत्मोत्थान में प्रवृत्त हो जाए. गुरूजी अवाक होकर अपने शिष्य धर्मबुद्धि को अपलक देखे जा रहे थे.

                      एरिया  (2)

     सुन्दर, पीली-पीली, स्वादिष्ट दूध से भरी 'खिरनी' का ठेला उसने लगाया ही था, कि एक आदमी रसीद कट्टा लेकर सामने खड़ा हो गया.  उसने पचास रूपये की रसीद काटते हुए कहा- "बैठकी फीस" हम नगर पालिका से हैं उसने कहा- भाई साहब अभी तो बोहनी भी नहीं हुई.  वो बोला- यह तो देना ही पड़ेगी. इस नगर-पालिका के 'एरिये' में जो भी दूकान लगाता है, उसे देना ही पड़ती है और रूपये लेकर, रसीद देकर चलता बना. तब तक काफी ग्राहक आ गए. सभी लोग जल्दी-जल्दी की रट लगा  रहे थे. अचानक एक पुलिस वाला ठेले पर डंडा मारकर बोला- क्यों रे कहाँ का रहने वाला है. उसने एक मुट्ठी खिरनी उठाई और खाते हुए बोला- निकाल सौ रूपये. वह कुछ न-नुकुर करता इसके पहले ही वह ठेले पर डंडा मारते हुए बोला- यह मेरे थाने का 'एरिया' है, निकाल जल्दी. घबराकर उसने सौ का नोट उसके हाथ पर रख दिया और ग्राहकों को खिरनी तौलने लगा. अंत में भीड़ छटने पर उसका ध्यान उस ग्राहक पर गया, जो बिलकुल शांत भाव से पीछे खडा था, गंभीरता से और धैर्य-पूर्वक. उसने भी मन ही मन उसकी प्रशंसा की, कि कितना शांत और अच्छा है यह आदमी. अपने से बाद में भी आये दूसरे ग्राहकों को फल लेने दे रहा है और कोई जल्दी नहीं कर रहा. जब सभी ग्राहक चले गये तो उसने बड़ी विनम्रता से पूछा आपको कितनी चाहिए? वह गुस्से से बोला ”खिरनी नहीं चाहिए मूर्ख, हफ्ता चाहिए हफ्ता, ला निकाल बिक्री का दस परसेंट, नहीं तो इतने जूते मारूंगा कि गिन भी नहीं पायेगा. मैं इस एरिये का गुंडा हूँ. ये “एरिया हमारा है”. बगैर मुझे हफ्ता दिए कोई यहाँ धंधा नहीं कर सकता, हफ्ता बसूली पर निकला हूँ. लगता है इस एरिये में तू नया है. फल वाला एक दम डर  गया और उसने मिमियाते हुए कमजोर सा प्रतिवाद किया- भाई साहब अभी थोड़ी देर पहले भी दो लोग यही कह रहे थे, कि “एरिया हमारा है” और रूपये भी ले गये थे? फिर घबराते हुए कुछ रूपये निकालकर उसके हाथ पर रख दिए और सोचने लगा- आखिर यह एरिया है किसका?
 

                  कार्मोरेंटस  (3)

     पुराने साहब गये, नये साहब आये, कुछ ही दिन हुए थे. आफिस केन्टीन मे चर्चाओं का बाजार गर्म था. यादव जी बोले- कुछ भी कहो, नये साहब राजा आदमी हैं. पद के अनुसार उनका आचरण भी है. पुराने साहब मे तो इतना टुच्चापन था, कि सौ-पचास वाले ग्राहक भी हमको न छोड़ते थे, हर मामला खुद ही डील कर लेते थे. हम तो सूखी तनखा मे काम चलाते-चलाते परेशान हो गये थे. नये साहब का ऐसा नहीं है. वो सिर्फ बड़े मामले ही डील करते हैं. वो भी हम लोगों के माध्यम से, हमको महत्व देते हुए. सौ-दो-सौ रुपयों पर तो धयान ही नहीं देते.

     बनर्जी साहब सिगरेट का कश लेते हुए दार्शनिक अंदाज मे बोले- भाइयो,  हम सब कार्मोरेंटस हैं.

     यादव जी बोले- भाई ये'कार्मोरेंटस' क्या होता है?

     बनर्जी साहब ने समझाया- कार्मोरेंटस एक जापानी पक्षी होता है, जो ते़जी से मछ्ली पकड़कर एक बार मे ही सात-आठ मछ्ली मुँह मे भर लेता है. वहाँ के मछुआरे उसके गले मे रस्सी बाँधकर उससे मछलियों का शिकार करवाते हैं. गले मे रस्सी बंधी होने से वह सिर्फ छोटी  मछली ही निगल पाता है. मछुआरे शेष बड़ी मछलियाँ, उसके मुँह मे से निकाल लेते हैं.  

     लंच समाप्त हुआ, सभी कार्मोरेंटस अपनी कुर्सियों पर जम गये.


                       कैरियर  (4)

     आज मिसेज भल्ला के घर पार्टी थी, मोंटू को वे डांट भी रही थी, और समझा भी रही थी. देखो मोंटू, आज की किटी पार्टी विशेष है. आज की थीम है, "बच्चे और उनका कैरियर" तुमको तो पता ही है. आज सभी आंटियां आपने-अपने बच्चों को लेकर अपने घर आयेंगी. सभी बच्चों का स्केटिंग, डांसिंग, पेंटिंग, सिंगिंग, म्यूजिक, और पोएट्री काम्पिटीशन रखा गया है. उस में जो बच्चा ओवर आल विनर होगा, उस बच्चे और उसकी मम्मी को बड़ा सा प्राइज मिलेगा. तुम अपने कमरे में खिलौनों से खेलने में मस्त रहते हो, आज कोई खेल नहीं. दिन भर तैयारी करो. फिर हाथ पकड़कर, जोर से  भम्भोड़कर बोली- याद रखना, शाम को मुझे प्राइज चाहिए, समझे. देखो मेरी नाक मत कटवा देना. चिंटू डरा-डरा सा बोला जी मम्मी, पर मुझे नींद आ रही है. मम्मी बोली- कोई नींद नहीं जाओ, कमरे में और तैयारी करो.

     थोड़ी देर बाद जब मिसेज भल्ला चुपचाप चिंटू को देखने गईं तो चिंटू एक बन्दर के खिलौने के गले में रस्सी बाँध कर उसे खूब उछाल रहा था, उसको गुलाटी खिला रहा था और पटक रहा था पर उसके चेहरे पर सहज आनंद न होकर गुस्सा और तनाव था और कुछ बडबडा रहा था. उसने ध्यान से सुनने की कोशिश की तो वह बन्दर को रस्सी से उछाल कर गुलाटी खिलाते हुए डांट रहा था. ए बंदर...जल्दी नाच.. तुझे फर्स्ट आना है. देखो सो मत जाना. तुझे आर्टिस्ट बनना है, सिंगर बनना है, म्यूजीशियन बनना है, डांसर बनना है, और हाँ खिलाड़ी और पोएट भी बनना है. अभी.. इसी वक्त... सब कुछ बनना है और याद रखना, तुझे गणित, इंग्लिश, जी.के., ड्राइंग हिंदी, साइंस, सभी में 'ए प्लस' भी लाना है. नाच बन्दर नाच, नहीं तो बहुत मारूंगा.. बहुत मारूंगा और बन्दर को बार बार जमीन पर पटक कर सुबक-सुबक कर रोने लगा. मिसेज भल्ला किंकर्तव्य विमूढ़ सी खडी उसे देख रही थी. उनको कुछ भी  समझ में नहीं आ रहा था. वे चिंटू को गले से लगाकर खुद सुबक-सुबक कर रोने लगीं

      शांतिपूर्ण थाना क्षेत्र   (5)

     फरियादी- कल्लू खाँ की रिपोर्ट लिखाना है.
     थानेदार- वही कल्लू खाँ जो कसाई मोहल्ले में रह्ता है?

     पर देखो, मेरा थाना क्षेत्र“सर्वाधिक शांतिपूर्ण" थाना क्षेत्र कहलाता है. इस बात का मुझे पुरस्कार भी मिल चुका है. मेरे यहाँ सबसे कम रिपोर्ट्स आती हैं. छोटी-छोटी बात पर रिपोर्ट लिखाना अच्छी बात नहीं है।

     फरियादी- सर! छोटी बात नहीं है, पहले तो उसने मुझे बाइक से टक्कर मारी, मैं रोड पर गिर गया, मुझे काफी चोटें आई. फिर मैंने जब उस से पूछा, कि टक्कर क्यों मारी? तो सबके सामने दो चाँटे भी मार दिये. इस लिये रिपोर्ट तो जरूर लिखाऊंगा.

     थानेदार- अच्छा लिखता हूँ , थोड़ा समझ तो लूँ , कौन सा कल्लू खाँ है. वही कल्लू खाँ न, जिसके ऊपर चार मर्डर केस चल रहे हैं?

     जो दूकान से घर जाते समय, कई लोगों के लिये सूने रास्ते में छुरी मार चुका है,और जरा सी किसी से बुराई होने पर अपहरण, हत्या जैसे अपराध कर देता है।

     फरियादी- जी साहब.                                           
     थानेदार- अच्छा, समझ गया, वो तो बहुत बदमाश है. साला पुलिस के हत्थे भी नहीं आता, फिर कोई उसके विरुद्ध गवाही भी तो नहीं देता. कुछ दिनों पहले हफ्ता बसूली करते समय उस की एक दूकानदार से बहस हो गई थी, अगले ही दिन उसकी स्कूल जाती मासूम बच्ची का अपहरण कर लिया था.

     खैर छोड़ो. बोलो- रिपोर्ट में क्या लिखूँ?

     फरियादी- नहीं साहब,मुझे रिपोर्ट नहीं लिखाना.

     थानेदार- नहीं-नहीं आप रिपोर्ट लिखवाइये, वरना अपराध कैसे खतम होंगे.

     फरियादी- नहीं साहब,माफ कीजिये, मुझे रिपोर्ट नहीं लिखाना. 

                अंधविश्वास (6)

     उनका एन.जी.ओ. गाँव-गाँव में जाकर लोगों को शिक्षित करता और डायन प्रथा, काला जादू तथा अंधविश्वास को दूर करने का कार्य करता है. सरकार से भी उनको इस कार्य के लिए काफी आर्थिक अनुदान मिलता है. वे “अंधविश्वास मिटाओ समिति” के अध्यक्ष भी हैं. उन्होंने आज शाम को इसी विषय पर कार्य-योजना बनाने हेतु अपने घर पर एक बैठक रखी है, ताकि गाँव-गाँव जाकर अंधविश्वास पर गहरी चोट की जा सके. मुझे उनका घर खोजने में असुविधा हो रही थी. एक पान की गुमटी वाले से मैंने उनके घर का पता पूछा तो उसने बताया- आप ये सामने वाले  रोड पर चले जाइए, आगे जाकर दायें मुड जाइयेगा. वहाँ ग्रीन कलर के नये, दो सुंदर आलीशान मकान बने हैं. उनमे से जिस मकान के उपर ‘काली हाँडी’ टंगी है और सामने की तरफ एक “फटा हुआ काला जूता” टंगा है वही मकान उनका है. सुनकर मैंने कुछ सोचा और वापस घर लौट आया.

 अवांछित  (7)

     सत्यांश का मन आज बेहद दुखी था. आज फिर बड़े साहब ने उसको डाँटा. वो भी पूरे स्टाफ के सामने. उसके समझ में नहीं आ रहा था, कि यहाँ इस आफिस मैं उसको स्थानांतरित हुए छ्ह महीने भी नहीं हुए थे. फिर भी पूरा स्टाफ दुश्मन क्यों बन गया?जबकि वह पूरी लगन, निष्ठा और ईमानदारी से अपना काम करता है.

     आफिस के सब लोग जा चुके थे. चपरासी ने डाक लाकर दी. उसने बड़े दुखी मन से सुखीराम से पूछा- अच्छा सुखीराम, तुम ही बताओ, मेरे काम मे क्या कमी है, जो आफिस का हर आदमी मुझसे नाराज है. बड़े साहब तो सदैव ही नाराज रह्ते हैं.

     सुखीराम बोला- बड़े बाबू,आप बहुत भोले हैं. जमाने का चलन नहीं समझ पाते. पिछ्ले बड़े बाबू सब को कमाई का परसेंटेज देते थे. सभी को पार्टियाँ भी दिया करते थे. इस आफिस में आये दिन पार्टियाँ हुआ करती थी, जो आपके आने के बाद बंद हो गई. आप  भी बिलों की हेराफेरी मे जब तक पारंगत नहीं बनेंगे,  तब तक कष्ट भोगते रहेंगे. वास्तव मे कोई नहीं चाह्ता कि आप इस आफिस में रहें.

     डाक को रजिस्टर में चढ़ाते समय जब उसने एक लिफाफा खोला तो अपना स्थानांतर आदेश देखकर दंग रह गया. उस में लिखा था, आपका आवेदन-पत्र स्वीकार करते हुए आपका स्थानांतर झाबुआ जिले में किया जाता है. उसे बहुत आश्चर्य हुआ. उसने तो आवेदन दिया ही नहीं था! आदेश के साथ आवेदन की फोटोकापी से पता चला. किसी  ने जाली हस्ताक्षर बनाकर उसकी ओर से स्थानांतर हेतु आवेदन भेज दिया था. 

चीटर  (8)

     सुमेधा हनुमान जी को चना-चिरोंजी का प्रसाद चढ़ा कर लौटी तो दालान की एक मात्र टूटी बेंच पर एक सूट-बूट पहने भद्र पुरुष को बैठे पाया. नमस्ते करके जैसे ही वह घर के अंदर जाने लगी, तो उन्होंने रोका, बेटी- ‘सुमेधा’ तुम्हारा ही नाम है? बोली- जी अंकल. वे तपाक से बोले- बेटा, बहुत बहुत बधाई, तुमने रिक्शा वाले की बेटी होकर भी हायर सेकेंडरी बोर्ड में राज्य में प्रथम स्थान प्राप्त किया है, यह तुमको ही नहीं हम सब को गौरव की बात है.

     बेटी, मैं “प्रतिभा कोचिंग इंस्टिट्यूट” से आया हूँ, तुम्हारी भलाई करने. सुमेधा को अचानक याद आया कि उसके पापा कितने गिडगिडाये थे कि मेरी बेटी को कोचिंग में एडमिशन दे दीजिये, वह अपने सपने पूरे करना चाहती है. जैसे तैसे बड़ी मेहनत से मैं आधी फीस ही जोड़ पाया हूँ, तब डायरेक्टर साहब ने कितने बुरे तरीके से डांटकर भगाया था, चलो भागो यहाँ से, हम लोग यहाँ कोई चैरिटी करने नहीं बैठे हैं. जब पूरी फीस हो तभी आना. पिताजी की बेइज्जती, आज भी वह भूली नहीं है. पिताजी की आँखों में आंसू भर आये थे, तब उसने पिताजी से वायदा किया था, कि आप दुखी ना हों, मैं आपको अच्छे नंबर लाकर दिखाउंगी. आज ये अचानक मेरी कौन सी भलाई करने आ गये?

     उसका ध्यान भंग करते हुए वे बोले- बेटी, मैं एक प्रस्ताव लेकर आया हूँ. हम तुम्हारी फोटो अखबार में देंगे और लिखेंगे कि तुमने अपनी परीक्षा की पूरी तैयारी हमारी "“प्रतिभा कोचिंग इंस्टिट्यूट”" की मदद से की है, तुम भी प्रेस वालों को यही बयान देना. इसके बदले में हम तुमको एक लाख रूपये देंगे. सुनकर अनपढ़ माँ खुश, पिता उदासीन पर किंकर्त्तव्य विमूढ़ थे, पर उसने दृढ़ता से कहा- नहीं अंकल, हम लोग गरीब जरूर हैं, पर झूठे और चीटर नहीं हैं.

जीत का दुःख  (9)

     छोटी ‘त्वरा’ दादी माँ की बहुत लाडली थी. मात्र चौदह वर्ष की उम्र में ही वह एक सफल धाविका बन चुकी थी. कई मैडल उसने अपने नाम कर लिए थे. अब उसकी राष्ट्रीय प्रतिस्पर्द्धा की तैयारी चल रही थी. बस इसी बात की चिंता उसे खाए जा रही थी, कि अभी कुछ दिनों पूर्व से हमेशा द्वितीय स्थान पाने वाली रंजना उस से बेहतर परफार्मेंस में आ गई थी और प्रेक्टिस में वह आगे निकल जाती थी. उसको ख़तरा था, कि अखिल भारतीय प्रतियोगिता में रंजना प्रथम ना आ जाए. त्वरा की दादी भी बहुत बड़ी धाविका रह चुकी थी और एशियाई खेलों में उन्होंने खूब नाम कमाया था. त्वरा उन्ही के मार्गदर्शन में आगे बढ़ रही थी.

     रात में अपनी दादी के साथ सोते समय उसने दादी के गले में बाहें डालकर दादी से कहा- दादी-  यह प्रतिस्पर्द्धा मैं हर हाल में जीतना चाहती हूँ. मैं बिलकुल सहन नहीं कर पाउंगी, कि रंजना या अन्य कोई मुझसे आगे निकल जाए. दादी आप तो स्वयं खिलाड़ी रही हैं. जीत के मायने क्या होते हैं, ये तो आप अच्छी तरह से समझती हैं. जीत इंसान को कितनी ख़ुशी देती है.

     दादी ठंडी सांस लेते हुए बोली– बेटी जरूरी नहीं है, कि जीत हमेशा ख़ुशी ही दे. कभी-कभी जीत दुःख भी दे जाती है. ऐसा दुःख जिसकी काली  परछाईं जीवन भर पीछा नहीं छोडती. त्वरा आश्चर्य से दादी का मुंह देखते हुए बोली- ऐसा कैसे हो सकता है? फिर जिद करते हुए बोली- दादी आप मुझे जरूर बताएं, कि जीत दुःख कैसे देती है. दादी कुछ मिनट मौन रहने के बाद बोली- बेटी, मुझे गलत मत समझना, पर बचपन की उम्र ही ऐसी होती है कि इंसान कभी-कभी ऐसी भूल कर बैठता है जिसका पछतावा उसे उम्र भर रहता है. बेटी, तुम जो मेरा गोल्ड मैडल देखती हो वह ऐसा ही है. मैं जब-जब उसे देखती हूँ, आत्मग्लानि से भर जाती हूँ.

     मैं भी तुम्हारी तरह हर हाल में जीतना चाहती थी. परन्तु दूसरी धाविका मुझसे बहुत आगे रहती थी. हमारी टीम को एक बड़े हाल में ठहराया गया था. मैंने पहले से ही योजना बना ली थी. जब सब सो गए तो मैंने रात में चुपके से उठ कर उसकी पानी की बाटल में ‘स्टेराइड’ मिला दिया. सुबह सभी खिलाड़ियों के “डोप-टेस्ट” हुए जिसमे वह दोषी पाई गई और दौड़ में उसे भाग लेने से रोक दिया गया. जाहिर था, कि मैं प्रथम आ गई, पर आज भी उस लड़की का दहाड़ें मार-मार कर रोना और उसके माता-पिता तक के बहते आंसू, उस लड़की का डिप्रेशन में चले जाना, मुझे जब-जब याद आते हैं, मैं अपने आप को कभी माफ़ नहीं कर पाती. बेटी- ऐसी जीत से तो हार भली. त्वरा अवाक होकर दादी की स्वीकारोक्ति सुन रही थी.

     थोड़ी देर बाद जब दादी को नींद आ गई तब त्वरा चुपचाप उठी और अपने स्टडी-रूम में जाकर कम्पास में से दो पैनी लोहे की कीलें निकाली, जो वह मौक़ा पाते ही रंजना के जूतों में लगाने वाली थी. उन कीलों को हिकारत से देखा और नाली में फेंक दिया. अब उसके मष्तिष्क का सारा बोझ उतर चुका था और वह बहुत हल्का अनुभव कर रही थी.

     

 

                जिज्ञासा  (10)

     बेटा- अब्बू, बाजार में झगड़ा क्यों होता रहता है. आज तो तलवारें निकल आई थी. आप न समझाते तो मारकाट हो जाती.

     अब्बू- होता है बेटा. वो लोग हिन्दू हैं, हम लोग मुसलमान. धर्म में अंतर है न, इसीलिये.
     बेटा- धर्म में अंतर से क्या होता है? 
     अब्बू- बेटा, हम लोग अल्लाह की बताई राह पर चलते हैं, पर काफ़िर हिन्दू लोग बुतपरस्त होते हैं. वे राम को मानते हैं.
     बेटा- तो क्या अल्लाह और राम की भी लड़ाई होती है? 
     अब्बू- नहीं बेटा, ऐसी कोई लड़ाई नहीं होती.
     बेटा- फिर हम लोगों की क्यों होती है?
     अब्बू- होती है बेटा, हम लोगों के धर्म, रस्मो-रिवाज़ और खून में अंतर होता है. खून का भी गुण होता है. उसी से स्वभाव व आदतें बनती हैं.
     बेटा- अच्छा! अब समझ में आया। तभी अपनी आदत'अल्ला-अल्ला' कहने की है और पड़ौस के पंडित चाचा'राम-राम' कहते हैं.
     अब्बू- हाँ बेटा, यही बात है.
     बेटा- अम्मी राम-राम कब बोलेंगी?
     अब्बू- पागल तो नहीं हो गया? अम्मी राम राम क्यों बोलेंगी.
     बेटा- वाह अब्बू! भूल गए क्या? एक दिन अम्मी जब बीमार थी, तो अस्पताल में पंडित चाची ने उनको खून दिया था. पंडित चाची का खून भी है उनके अंदर. कितना मजा आएगा, जब वो कभी अल्ला अल्ला बोलेंगी,कभी राम राम बोलेंगी. 
     अब्बू- बेटा ऐसा दिन कभी नहीं आयेगा. 
     बेटा- (कुछ मायूस होकर) ऐसा होता तो कितना अच्छा होता? कम से कम झगड़े तो न होते और मैं भी बंटी के साथ अच्छी तरह खेल पाता.  

गोकुल सोनी


परिचय

                       धर्मबुद्धि  (1)  

     गुरुदेव...सादर दण्डवत...आज आपकी साधना में अशांति और व्यग्रता का भाव अधिक प्रतीत हो रहा है. यदि उचित समझें तो अपने इस अकिंचन शिष्य को अवगत कराने की कृपा करें.

     क्या करूं धर्मबुद्धि? कुछ समझ में नहीं आ रहा. इस ‘निंदक’ ने बहुत परेशान कर रखा है. जहां-जहां जाता है, झूठी और मनघडंत कहानिया सुनाकर मेरी निंदा करता है. लोग मुझे लोभी-लालची, पातकी, न जाने क्या-क्या समझ रहे हैं. चारों ओर मेरा अपयश फ़ैल रहा है. आज मैंने अत्यंत क्लांत होकर ईश्वर से माँगा है, कि हे ईश्वर- यदि मेरी साधना सच्ची है, तो इसकी झूठी जिव्हा लकवा ग्रस्त हो जाए. यह गूंगा और बहरा हो जाए. जिन पैरों से जगह-जगह जाकर यह मेरी निंदा करता है, वे पैर टूट जाएँ. गुरूजी आवेश में बोलते चले जा रहे थे.

     धर्मबुद्धि बड़े शांत स्वर में बोला- गुरुदेव आप ग्यानी हैं, विद्वान् हैं, इसलिए मैं आपको क्या कहूँ. हाँ इतना ही कह सकता हूँ, कि यदि मेरे साथ ऐसा होता, तो मैं इतना सब ईश्वर से मांगकर अपना तपोबल नष्ट नहीं  करता. मात्र इतनी प्रार्थना करता, कि हे ईश्वर- आप सर्व शक्तिमान हो, सब कुछ कर सकते हो. बस, निंदक की बुद्धि ऐसी निर्मल कर दो कि वह दूसरों की निंदा छोड़कर सत्कार्य और आत्मोत्थान में प्रवृत्त हो जाए. गुरूजी अवाक होकर अपने शिष्य धर्मबुद्धि को अपलक देखे जा रहे थे.

                      एरिया  (2)

     सुन्दर, पीली-पीली, स्वादिष्ट दूध से भरी 'खिरनी' का ठेला उसने लगाया ही था, कि एक आदमी रसीद कट्टा लेकर सामने खड़ा हो गया.  उसने पचास रूपये की रसीद काटते हुए कहा- "बैठकी फीस" हम नगर पालिका से हैं उसने कहा- भाई साहब अभी तो बोहनी भी नहीं हुई.  वो बोला- यह तो देना ही पड़ेगी. इस नगर-पालिका के 'एरिये' में जो भी दूकान लगाता है, उसे देना ही पड़ती है और रूपये लेकर, रसीद देकर चलता बना. तब तक काफी ग्राहक आ गए. सभी लोग जल्दी-जल्दी की रट लगा  रहे थे. अचानक एक पुलिस वाला ठेले पर डंडा मारकर बोला- क्यों रे कहाँ का रहने वाला है. उसने एक मुट्ठी खिरनी उठाई और खाते हुए बोला- निकाल सौ रूपये. वह कुछ न-नुकुर करता इसके पहले ही वह ठेले पर डंडा मारते हुए बोला- यह मेरे थाने का 'एरिया' है, निकाल जल्दी. घबराकर उसने सौ का नोट उसके हाथ पर रख दिया और ग्राहकों को खिरनी तौलने लगा. अंत में भीड़ छटने पर उसका ध्यान उस ग्राहक पर गया, जो बिलकुल शांत भाव से पीछे खडा था, गंभीरता से और धैर्य-पूर्वक. उसने भी मन ही मन उसकी प्रशंसा की, कि कितना शांत और अच्छा है यह आदमी. अपने से बाद में भी आये दूसरे ग्राहकों को फल लेने दे रहा है और कोई जल्दी नहीं कर रहा. जब सभी ग्राहक चले गये तो उसने बड़ी विनम्रता से पूछा आपको कितनी चाहिए? वह गुस्से से बोला ”खिरनी नहीं चाहिए मूर्ख, हफ्ता चाहिए हफ्ता, ला निकाल बिक्री का दस परसेंट, नहीं तो इतने जूते मारूंगा कि गिन भी नहीं पायेगा. मैं इस एरिये का गुंडा हूँ. ये “एरिया हमारा है”. बगैर मुझे हफ्ता दिए कोई यहाँ धंधा नहीं कर सकता, हफ्ता बसूली पर निकला हूँ. लगता है इस एरिये में तू नया है. फल वाला एक दम डर  गया और उसने मिमियाते हुए कमजोर सा प्रतिवाद किया- भाई साहब अभी थोड़ी देर पहले भी दो लोग यही कह रहे थे, कि “एरिया हमारा है” और रूपये भी ले गये थे? फिर घबराते हुए कुछ रूपये निकालकर उसके हाथ पर रख दिए और सोचने लगा- आखिर यह एरिया है किसका?
 

                  कार्मोरेंटस  (3)

     पुराने साहब गये, नये साहब आये, कुछ ही दिन हुए थे. आफिस केन्टीन मे चर्चाओं का बाजार गर्म था. यादव जी बोले- कुछ भी कहो, नये साहब राजा आदमी हैं. पद के अनुसार उनका आचरण भी है. पुराने साहब मे तो इतना टुच्चापन था, कि सौ-पचास वाले ग्राहक भी हमको न छोड़ते थे, हर मामला खुद ही डील कर लेते थे. हम तो सूखी तनखा मे काम चलाते-चलाते परेशान हो गये थे. नये साहब का ऐसा नहीं है. वो सिर्फ बड़े मामले ही डील करते हैं. वो भी हम लोगों के माध्यम से, हमको महत्व देते हुए. सौ-दो-सौ रुपयों पर तो धयान ही नहीं देते.

     बनर्जी साहब सिगरेट का कश लेते हुए दार्शनिक अंदाज मे बोले- भाइयो,  हम सब कार्मोरेंटस हैं.

     यादव जी बोले- भाई ये'कार्मोरेंटस' क्या होता है?

     बनर्जी साहब ने समझाया- कार्मोरेंटस एक जापानी पक्षी होता है, जो ते़जी से मछ्ली पकड़कर एक बार मे ही सात-आठ मछ्ली मुँह मे भर लेता है. वहाँ के मछुआरे उसके गले मे रस्सी बाँधकर उससे मछलियों का शिकार करवाते हैं. गले मे रस्सी बंधी होने से वह सिर्फ छोटी  मछली ही निगल पाता है. मछुआरे शेष बड़ी मछलियाँ, उसके मुँह मे से निकाल लेते हैं.  

     लंच समाप्त हुआ, सभी कार्मोरेंटस अपनी कुर्सियों पर जम गये.


                       कैरियर  (4)

     आज मिसेज भल्ला के घर पार्टी थी, मोंटू को वे डांट भी रही थी, और समझा भी रही थी. देखो मोंटू, आज की किटी पार्टी विशेष है. आज की थीम है, "बच्चे और उनका कैरियर" तुमको तो पता ही है. आज सभी आंटियां आपने-अपने बच्चों को लेकर अपने घर आयेंगी. सभी बच्चों का स्केटिंग, डांसिंग, पेंटिंग, सिंगिंग, म्यूजिक, और पोएट्री काम्पिटीशन रखा गया है. उस में जो बच्चा ओवर आल विनर होगा, उस बच्चे और उसकी मम्मी को बड़ा सा प्राइज मिलेगा. तुम अपने कमरे में खिलौनों से खेलने में मस्त रहते हो, आज कोई खेल नहीं. दिन भर तैयारी करो. फिर हाथ पकड़कर, जोर से  भम्भोड़कर बोली- याद रखना, शाम को मुझे प्राइज चाहिए, समझे. देखो मेरी नाक मत कटवा देना. चिंटू डरा-डरा सा बोला जी मम्मी, पर मुझे नींद आ रही है. मम्मी बोली- कोई नींद नहीं जाओ, कमरे में और तैयारी करो.

     थोड़ी देर बाद जब मिसेज भल्ला चुपचाप चिंटू को देखने गईं तो चिंटू एक बन्दर के खिलौने के गले में रस्सी बाँध कर उसे खूब उछाल रहा था, उसको गुलाटी खिला रहा था और पटक रहा था पर उसके चेहरे पर सहज आनंद न होकर गुस्सा और तनाव था और कुछ बडबडा रहा था. उसने ध्यान से सुनने की कोशिश की तो वह बन्दर को रस्सी से उछाल कर गुलाटी खिलाते हुए डांट रहा था. ए बंदर...जल्दी नाच.. तुझे फर्स्ट आना है. देखो सो मत जाना. तुझे आर्टिस्ट बनना है, सिंगर बनना है, म्यूजीशियन बनना है, डांसर बनना है, और हाँ खिलाड़ी और पोएट भी बनना है. अभी.. इसी वक्त... सब कुछ बनना है और याद रखना, तुझे गणित, इंग्लिश, जी.के., ड्राइंग हिंदी, साइंस, सभी में 'ए प्लस' भी लाना है. नाच बन्दर नाच, नहीं तो बहुत मारूंगा.. बहुत मारूंगा और बन्दर को बार बार जमीन पर पटक कर सुबक-सुबक कर रोने लगा. मिसेज भल्ला किंकर्तव्य विमूढ़ सी खडी उसे देख रही थी. उनको कुछ भी  समझ में नहीं आ रहा था. वे चिंटू को गले से लगाकर खुद सुबक-सुबक कर रोने लगीं

      शांतिपूर्ण थाना क्षेत्र   (5)

     फरियादी- कल्लू खाँ की रिपोर्ट लिखाना है.
     थानेदार- वही कल्लू खाँ जो कसाई मोहल्ले में रह्ता है?

     पर देखो, मेरा थाना क्षेत्र“सर्वाधिक शांतिपूर्ण" थाना क्षेत्र कहलाता है. इस बात का मुझे पुरस्कार भी मिल चुका है. मेरे यहाँ सबसे कम रिपोर्ट्स आती हैं. छोटी-छोटी बात पर रिपोर्ट लिखाना अच्छी बात नहीं है।

     फरियादी- सर! छोटी बात नहीं है, पहले तो उसने मुझे बाइक से टक्कर मारी, मैं रोड पर गिर गया, मुझे काफी चोटें आई. फिर मैंने जब उस से पूछा, कि टक्कर क्यों मारी? तो सबके सामने दो चाँटे भी मार दिये. इस लिये रिपोर्ट तो जरूर लिखाऊंगा.

     थानेदार- अच्छा लिखता हूँ , थोड़ा समझ तो लूँ , कौन सा कल्लू खाँ है. वही कल्लू खाँ न, जिसके ऊपर चार मर्डर केस चल रहे हैं?

     जो दूकान से घर जाते समय, कई लोगों के लिये सूने रास्ते में छुरी मार चुका है,और जरा सी किसी से बुराई होने पर अपहरण, हत्या जैसे अपराध कर देता है।

     फरियादी- जी साहब.                                           
     थानेदार- अच्छा, समझ गया, वो तो बहुत बदमाश है. साला पुलिस के हत्थे भी नहीं आता, फिर कोई उसके विरुद्ध गवाही भी तो नहीं देता. कुछ दिनों पहले हफ्ता बसूली करते समय उस की एक दूकानदार से बहस हो गई थी, अगले ही दिन उसकी स्कूल जाती मासूम बच्ची का अपहरण कर लिया था.

     खैर छोड़ो. बोलो- रिपोर्ट में क्या लिखूँ?

     फरियादी- नहीं साहब,मुझे रिपोर्ट नहीं लिखाना.

     थानेदार- नहीं-नहीं आप रिपोर्ट लिखवाइये, वरना अपराध कैसे खतम होंगे.

     फरियादी- नहीं साहब,माफ कीजिये, मुझे रिपोर्ट नहीं लिखाना. 

                अंधविश्वास (6)

     उनका एन.जी.ओ. गाँव-गाँव में जाकर लोगों को शिक्षित करता और डायन प्रथा, काला जादू तथा अंधविश्वास को दूर करने का कार्य करता है. सरकार से भी उनको इस कार्य के लिए काफी आर्थिक अनुदान मिलता है. वे “अंधविश्वास मिटाओ समिति” के अध्यक्ष भी हैं. उन्होंने आज शाम को इसी विषय पर कार्य-योजना बनाने हेतु अपने घर पर एक बैठक रखी है, ताकि गाँव-गाँव जाकर अंधविश्वास पर गहरी चोट की जा सके. मुझे उनका घर खोजने में असुविधा हो रही थी. एक पान की गुमटी वाले से मैंने उनके घर का पता पूछा तो उसने बताया- आप ये सामने वाले  रोड पर चले जाइए, आगे जाकर दायें मुड जाइयेगा. वहाँ ग्रीन कलर के नये, दो सुंदर आलीशान मकान बने हैं. उनमे से जिस मकान के उपर ‘काली हाँडी’ टंगी है और सामने की तरफ एक “फटा हुआ काला जूता” टंगा है वही मकान उनका है. सुनकर मैंने कुछ सोचा और वापस घर लौट आया.

 अवांछित  (7)

     सत्यांश का मन आज बेहद दुखी था. आज फिर बड़े साहब ने उसको डाँटा. वो भी पूरे स्टाफ के सामने. उसके समझ में नहीं आ रहा था, कि यहाँ इस आफिस मैं उसको स्थानांतरित हुए छ्ह महीने भी नहीं हुए थे. फिर भी पूरा स्टाफ दुश्मन क्यों बन गया?जबकि वह पूरी लगन, निष्ठा और ईमानदारी से अपना काम करता है.

     आफिस के सब लोग जा चुके थे. चपरासी ने डाक लाकर दी. उसने बड़े दुखी मन से सुखीराम से पूछा- अच्छा सुखीराम, तुम ही बताओ, मेरे काम मे क्या कमी है, जो आफिस का हर आदमी मुझसे नाराज है. बड़े साहब तो सदैव ही नाराज रह्ते हैं.

     सुखीराम बोला- बड़े बाबू,आप बहुत भोले हैं. जमाने का चलन नहीं समझ पाते. पिछ्ले बड़े बाबू सब को कमाई का परसेंटेज देते थे. सभी को पार्टियाँ भी दिया करते थे. इस आफिस में आये दिन पार्टियाँ हुआ करती थी, जो आपके आने के बाद बंद हो गई. आप  भी बिलों की हेराफेरी मे जब तक पारंगत नहीं बनेंगे,  तब तक कष्ट भोगते रहेंगे. वास्तव मे कोई नहीं चाह्ता कि आप इस आफिस में रहें.

     डाक को रजिस्टर में चढ़ाते समय जब उसने एक लिफाफा खोला तो अपना स्थानांतर आदेश देखकर दंग रह गया. उस में लिखा था, आपका आवेदन-पत्र स्वीकार करते हुए आपका स्थानांतर झाबुआ जिले में किया जाता है. उसे बहुत आश्चर्य हुआ. उसने तो आवेदन दिया ही नहीं था! आदेश के साथ आवेदन की फोटोकापी से पता चला. किसी  ने जाली हस्ताक्षर बनाकर उसकी ओर से स्थानांतर हेतु आवेदन भेज दिया था. 

चीटर  (8)

     सुमेधा हनुमान जी को चना-चिरोंजी का प्रसाद चढ़ा कर लौटी तो दालान की एक मात्र टूटी बेंच पर एक सूट-बूट पहने भद्र पुरुष को बैठे पाया. नमस्ते करके जैसे ही वह घर के अंदर जाने लगी, तो उन्होंने रोका, बेटी- ‘सुमेधा’ तुम्हारा ही नाम है? बोली- जी अंकल. वे तपाक से बोले- बेटा, बहुत बहुत बधाई, तुमने रिक्शा वाले की बेटी होकर भी हायर सेकेंडरी बोर्ड में राज्य में प्रथम स्थान प्राप्त किया है, यह तुमको ही नहीं हम सब को गौरव की बात है.

     बेटी, मैं “प्रतिभा कोचिंग इंस्टिट्यूट” से आया हूँ, तुम्हारी भलाई करने. सुमेधा को अचानक याद आया कि उसके पापा कितने गिडगिडाये थे कि मेरी बेटी को कोचिंग में एडमिशन दे दीजिये, वह अपने सपने पूरे करना चाहती है. जैसे तैसे बड़ी मेहनत से मैं आधी फीस ही जोड़ पाया हूँ, तब डायरेक्टर साहब ने कितने बुरे तरीके से डांटकर भगाया था, चलो भागो यहाँ से, हम लोग यहाँ कोई चैरिटी करने नहीं बैठे हैं. जब पूरी फीस हो तभी आना. पिताजी की बेइज्जती, आज भी वह भूली नहीं है. पिताजी की आँखों में आंसू भर आये थे, तब उसने पिताजी से वायदा किया था, कि आप दुखी ना हों, मैं आपको अच्छे नंबर लाकर दिखाउंगी. आज ये अचानक मेरी कौन सी भलाई करने आ गये?

     उसका ध्यान भंग करते हुए वे बोले- बेटी, मैं एक प्रस्ताव लेकर आया हूँ. हम तुम्हारी फोटो अखबार में देंगे और लिखेंगे कि तुमने अपनी परीक्षा की पूरी तैयारी हमारी "“प्रतिभा कोचिंग इंस्टिट्यूट”" की मदद से की है, तुम भी प्रेस वालों को यही बयान देना. इसके बदले में हम तुमको एक लाख रूपये देंगे. सुनकर अनपढ़ माँ खुश, पिता उदासीन पर किंकर्त्तव्य विमूढ़ थे, पर उसने दृढ़ता से कहा- नहीं अंकल, हम लोग गरीब जरूर हैं, पर झूठे और चीटर नहीं हैं.

जीत का दुःख  (9)

     छोटी ‘त्वरा’ दादी माँ की बहुत लाडली थी. मात्र चौदह वर्ष की उम्र में ही वह एक सफल धाविका बन चुकी थी. कई मैडल उसने अपने नाम कर लिए थे. अब उसकी राष्ट्रीय प्रतिस्पर्द्धा की तैयारी चल रही थी. बस इसी बात की चिंता उसे खाए जा रही थी, कि अभी कुछ दिनों पूर्व से हमेशा द्वितीय स्थान पाने वाली रंजना उस से बेहतर परफार्मेंस में आ गई थी और प्रेक्टिस में वह आगे निकल जाती थी. उसको ख़तरा था, कि अखिल भारतीय प्रतियोगिता में रंजना प्रथम ना आ जाए. त्वरा की दादी भी बहुत बड़ी धाविका रह चुकी थी और एशियाई खेलों में उन्होंने खूब नाम कमाया था. त्वरा उन्ही के मार्गदर्शन में आगे बढ़ रही थी.

     रात में अपनी दादी के साथ सोते समय उसने दादी के गले में बाहें डालकर दादी से कहा- दादी-  यह प्रतिस्पर्द्धा मैं हर हाल में जीतना चाहती हूँ. मैं बिलकुल सहन नहीं कर पाउंगी, कि रंजना या अन्य कोई मुझसे आगे निकल जाए. दादी आप तो स्वयं खिलाड़ी रही हैं. जीत के मायने क्या होते हैं, ये तो आप अच्छी तरह से समझती हैं. जीत इंसान को कितनी ख़ुशी देती है.

     दादी ठंडी सांस लेते हुए बोली– बेटी जरूरी नहीं है, कि जीत हमेशा ख़ुशी ही दे. कभी-कभी जीत दुःख भी दे जाती है. ऐसा दुःख जिसकी काली  परछाईं जीवन भर पीछा नहीं छोडती. त्वरा आश्चर्य से दादी का मुंह देखते हुए बोली- ऐसा कैसे हो सकता है? फिर जिद करते हुए बोली- दादी आप मुझे जरूर बताएं, कि जीत दुःख कैसे देती है. दादी कुछ मिनट मौन रहने के बाद बोली- बेटी, मुझे गलत मत समझना, पर बचपन की उम्र ही ऐसी होती है कि इंसान कभी-कभी ऐसी भूल कर बैठता है जिसका पछतावा उसे उम्र भर रहता है. बेटी, तुम जो मेरा गोल्ड मैडल देखती हो वह ऐसा ही है. मैं जब-जब उसे देखती हूँ, आत्मग्लानि से भर जाती हूँ.

     मैं भी तुम्हारी तरह हर हाल में जीतना चाहती थी. परन्तु दूसरी धाविका मुझसे बहुत आगे रहती थी. हमारी टीम को एक बड़े हाल में ठहराया गया था. मैंने पहले से ही योजना बना ली थी. जब सब सो गए तो मैंने रात में चुपके से उठ कर उसकी पानी की बाटल में ‘स्टेराइड’ मिला दिया. सुबह सभी खिलाड़ियों के “डोप-टेस्ट” हुए जिसमे वह दोषी पाई गई और दौड़ में उसे भाग लेने से रोक दिया गया. जाहिर था, कि मैं प्रथम आ गई, पर आज भी उस लड़की का दहाड़ें मार-मार कर रोना और उसके माता-पिता तक के बहते आंसू, उस लड़की का डिप्रेशन में चले जाना, मुझे जब-जब याद आते हैं, मैं अपने आप को कभी माफ़ नहीं कर पाती. बेटी- ऐसी जीत से तो हार भली. त्वरा अवाक होकर दादी की स्वीकारोक्ति सुन रही थी.

     थोड़ी देर बाद जब दादी को नींद आ गई तब त्वरा चुपचाप उठी और अपने स्टडी-रूम में जाकर कम्पास में से दो पैनी लोहे की कीलें निकाली, जो वह मौक़ा पाते ही रंजना के जूतों में लगाने वाली थी. उन कीलों को हिकारत से देखा और नाली में फेंक दिया. अब उसके मष्तिष्क का सारा बोझ उतर चुका था और वह बहुत हल्का अनुभव कर रही थी.

     

 

                जिज्ञासा  (10)

     बेटा- अब्बू, बाजार में झगड़ा क्यों होता रहता है. आज तो तलवारें निकल आई थी. आप न समझाते तो मारकाट हो जाती.

     अब्बू- होता है बेटा. वो लोग हिन्दू हैं, हम लोग मुसलमान. धर्म में अंतर है न, इसीलिये.
     बेटा- धर्म में अंतर से क्या होता है? 
     अब्बू- बेटा, हम लोग अल्लाह की बताई राह पर चलते हैं, पर काफ़िर हिन्दू लोग बुतपरस्त होते हैं. वे राम को मानते हैं.
     बेटा- तो क्या अल्लाह और राम की भी लड़ाई होती है? 
     अब्बू- नहीं बेटा, ऐसी कोई लड़ाई नहीं होती.
     बेटा- फिर हम लोगों की क्यों होती है?
     अब्बू- होती है बेटा, हम लोगों के धर्म, रस्मो-रिवाज़ और खून में अंतर होता है. खून का भी गुण होता है. उसी से स्वभाव व आदतें बनती हैं.
     बेटा- अच्छा! अब समझ में आया। तभी अपनी आदत'अल्ला-अल्ला' कहने की है और पड़ौस के पंडित चाचा'राम-राम' कहते हैं.
     अब्बू- हाँ बेटा, यही बात है.
     बेटा- अम्मी राम-राम कब बोलेंगी?
     अब्बू- पागल तो नहीं हो गया? अम्मी राम राम क्यों बोलेंगी.
     बेटा- वाह अब्बू! भूल गए क्या? एक दिन अम्मी जब बीमार थी, तो अस्पताल में पंडित चाची ने उनको खून दिया था. पंडित चाची का खून भी है उनके अंदर. कितना मजा आएगा, जब वो कभी अल्ला अल्ला बोलेंगी,कभी राम राम बोलेंगी. 
     अब्बू- बेटा ऐसा दिन कभी नहीं आयेगा. 
     बेटा- (कुछ मायूस होकर) ऐसा होता तो कितना अच्छा होता? कम से कम झगड़े तो न होते और मैं भी बंटी के साथ अच्छी तरह खेल पाता.  

गोकुल सोनी

(कवि, कथाकार, व्यंग्यकार)

प्रबंध संपादक "सत्य की मशाल" पत्रिका 
८२/१, सी-सेक्टर, साईंनाथ नगर
कोलार रोड- भोपाल (म.प्र.), पिन-४६२०४२

मोबाइल-७०००८५५४०९




  

गोकुल सोनी 

(कवि, कथाकार, व्यंग्यकार)






  

1 टिप्पणी:

  1. विविध आयामी रचनाएँ प्रस्तुत कर आप साहित्य की सच्ची और निस्वार्थ सेवा कर रहे हैं। बहुत बहुत आभार

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