~।।वागर्थ।। ~
प्रस्तुत करता है समर्थ नवगीतकार संध्या सिंह जी के नवगीत ।
संध्या सिंह एक ऐसा नाम जिसे सुनते ही अनगिन पाठकों के मन में एक दोहा कौंधता है ..
" नारी को उपमा मिली , सुविधा के अनुसार ।
कभी स्वर्ग की अप्सरा , कभी नर्क का द्वार ।।
बिना इस दोहे का जिक्र किए संध्या सिंह जी के रचना संसार की बात नहीं की जा सकती ।
संध्या सिंह जी के नवगीत भी उनके दोहों की ही तरह मारक व गम्भीर अर्थ लिए स्त्री विमर्श पर प्रमुखता से नितांत आवश्यक व उचित प्रश्न उठाते हैं । संध्या सिंह जी की विशेषता है वह जिस भी विधा में सृजन करती हैं वही उनकी मुख्य विधा प्रतीत होती है । उनकी अभिव्यक्ति की मुखरता नवगीत, दोहों व छंदमुक्त में समान रूप से प्रभावी है जो पाठक को ठिठक कर सोचने पर विवश कर देती है ।
आपके गीतों में सजीव बिम्ब , विशिष्ट कहन , विविध प्रतीकों के साथ शिल्प व कमाल की भाव संप्रेषणीयता की संलग्नता है जोकि पाठक को सम्मोहित करती है ...स्त्री जीवन का अजब द्वन्द हौसले सहित अपनी सम्पूर्ण तटस्थता के साथ उनके अनेक गीतों में उपस्थित है ...
नहीं खेलना अब ये नाटक ,
हे निर्देशक पर्दा डालो ,
पृष्ठभूमि में रंग भरो कुछ
या थोड़ा उजियार बढ़ाओ
या मेरे संवाद बदल दो
या फिर नए पात्र कुछ लाओ / ( हे निर्देशक पर्दा डालो )
तुम भले पतवार तोड़ो
नाव को मँझधार मोड़ो
हम भँवर से पार होकर
ढूँढ लेंगे खुद किनारे /
हो भले ही स्वर्ण पिंजरा
मगर इसमें कौन ज़िदा
मत डरो यदि पर खुले तो
छोड़ देगा घर परिंदा
पाँव धरती पर टिकाकर
ही छुएँगे हम सितारे // (ढूँढ लेंगे खुद किनारे )
भीतर पानी में कम्पन है ,
भले जमी हो काई
पिंजरे की चिड़िया सपने में
अम्बर तक हो आई
मन की अपनी मुक्त उड़ाने,
तन के सख्त नियम ।
फटे हुए अंत: वस्त्रों पर/
रोज़ नई पोशाकें/
आज़ादी का जश्न दासियाँ/
घूँघट में से ताकें/
जितना ऊपर तेज़ उजाला/
नीचे उतना तम /.......(मुक्त उड़ानें )
संध्या सिंह जी के गीत सिर्फ़ स्त्री जीवन के विकृत यथार्थ से ही रू -ब -रू नहीं कराते बल्कि उस विकृत जीवन से बंधनमुक्त होने हेतु जाग्रत भी करते हैं । संध्या सिंह के नवगीतों में चेतना अपने सम्पूर्ण वैभव के साथ उपस्थित है और यही चेतनता उन्हें विशिष्टता प्रदान करती है ।
जितने उनके गीत विशिष्ट हैं उतनी स्वयं वे , स्नेह व अपनत्व से लबरेज़ , उनकी सराहना का सानिध्य हमें अक्सर प्राप्त होता रहता है ।
वागर्थ उनको हार्दिक बधाई व शुभकामनाएँ प्रेषित करता है ।
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(१)
‘’ चौमासा ‘’
थोड़ी धूप छुपा कर रखना
सीलन का मौसम आना है
सागर से विकराल भयानक
कुछ काले दानव उभरेंगे
जहाँ प्रेम की लिखी इबारत
ठीक वहीं जा कर बरसेंगे
जम जाएगी काई मन पर
अपने पाँव जमा कर रखना
फिसलन का मौसम आना है
सन्नाटे में साँय-साँय कर
हवा डराने को निकलेगी
तेरा कुछ अनकहा चुरा कर
पत्ते-पत्ते पर लिख देगी
शायद तुझ पर गिरे बिजलियाँ
थोड़ा धीर बचा कर रखना
विचलन का मौसम आना है
क्रुद्ध दामिनी उतर गगन से
तुझ पर हंटर सी बरसेगी
एक विषैली गंध फ़ैल कर
सर से पैरों तक ढक लेगी
अधरों पर हुंकार बिछा कर
उस पर तर्क सजा कर रखना
गर्जन का मौसम आना है
(२)
" हे निर्देशक पर्दा डालो "
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नही खेलना
अब ये नाटक
हे निर्देशक पर्दा डालो
तुमने मुझे
केंद्र में रख कर
जितने भी किरदार लिखे हैं
सबकी
आँखों मे प्रताड़ना
अहंकार उपहास दिखे हैं
सभी गिराने
को आतुर हैं
नही एक भी है उद्धारक
हे निर्देशक पर्दा डालो
पृष्ठभूमि में
रंग भरो कुछ
या थोड़ा उजियार बढ़ाओ
या मेरे
संवाद बदल दो
या फिर नये पात्र कुछ लाओ
मिला न अब तक मुझे तुम्हारा
शब्द एक भी दर्द निवारक
हे निर्देशक पर्दा डालो
कभी बताओ
मेरी खातिर
क्या तुमने पटकथा मोड़ दी
या बस निर्णय
मृत्युदंड का
दे कर अपनी कलम तोड़ दी
सत्य कहूँ तो
इस जीवन के
सिर्फ़ तुम्ही असली खलनायक
हे निर्देशक पर्दा डालो
३
ढूँढ लेंगे खुद किनारे
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तुम भले
पतवार तोड़ो
नाव को मँझधार मोड़ो
हम भँवर
से पार हो कर
ढूँढ लेंगे खुद किनारे
त्याग देगें
गिड़गिड़ा कर
आँख से आँसू बहाना
छोड़ देंगे
वो लताओं
सा लचीलापन पुराना
रीढ़ पर
अपनी उठेंगे
अब उगेंगे बिन सहारे
हो भले ही
स्वर्ण पिंजरा
मगर इसमें कौन ज़िंदा
मत डरो
यदि पर खुले तो
छोड़ देगा घर परिंदा
पाँव धरती पर
टिका कर
ही छुएँगे हम सितारे
(४)
मुक्त उड़ानें
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दुविधाओं की पगडंडी पर
भटके जनम-जनम
जितने जीवन में चौराहे
उतने दिशा भरम
धीरज संयम और सबूरी
शब्द बहुत ही हल्के
अधरों से जो पीर छुपाओ
आँखों से क्यों छलके
ऊपर-ऊपर बर्फ भले हो
भीतर धरा गरम
फटे हुए अन्तः वस्त्रों पर
नित्य नयी पोशाकें
आज़ादी का जश्न दासियाँ
घूँघट में से ताकें
ऊपर जितना तेज़ उजाला
नीचे उतना तम
भीतर पानी में जीवन है
भले जमी हो काई
पिंजरे की चिड़िया सपने में
अम्बर तक हो आयी
मन की अपनी मुक्त उड़ाने
तन के सख्त नियम
(५)
यों हमने सोपान चढ़े
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कुछ अपनों को धक्का मारा
कुछ रिश्तों पर पाँव धरे
यों हमने सोपान चढ़े
कला हुनर सब धरे किनारे
खुशामदों का गुर अपनाया
किया परिश्रम को अनदेखा
पद के आगे शीश झुकाया
मैल कुटिलता के ऊपर से
सबंधों के झूठ गढ़े
यों हमने सोपान चढ़े
तिकड़म के डैनों पर बैठे
नैतिकता से पिंड छुड़ाया
आसमान के तारे पा कर
धरती को ठेंगा दिखलाया
कुछ बिल्ली से गुर्राहट ली
कुछ कछुवे के खोल मढ़े
यों हमने सोपान चढ़े
अपनों के दुश्मन से मिलकर
अपनों पर ही घात लगाई
रेस जीतने की लिप्सा में
अगल-बगल टंगड़ी अटकाई
कुछ पैनापन लिया गिद्ध से
कुछ गिरगिट से पाठ पढ़े
यों हमने सोपान चढ़े
(६)
बच्चे घर से निकल रहे हैं
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आँगन दे
अनगिनत दुआएँ
चौखट ले चुपचाप बलाएँ
सुन लो
गली सड़क चौराहों
बच्चे घर से निकल रहे हैं ।
लगा भाल पर
काला टीका
महकी रिक्शे में फुलवारी
इत्र घुला है
मुस्कानों में
फूलों सी हर एक सवारी
पड़ मत जाना
बुरी निगाहों
बच्चे घर से निकल रहे हैं
टहनी-टहनी
शीश झुकाए
किरण धरे मस्तक पर चुंबन
सूरज
हाथ फिराता सर पर
हवा करे कस कर आलिंगन
दूर हटो
दुख दर्द कराहों
बच्चे घर से निकल रहे हैं
बंधे हुए
टाई में सपने
जूते के फीतों में ममता
इंतज़ार में इनके
पल-पल
खिड़की का मुश्किल से कटता
साथ रहो
हर वक्त पनाहों
बच्चे घर से निकल रहे हैं
टिफिन बॉक्स में
अन्नपूर्णा
पानी की बोतल में अमरित
मन्नत ने
धागे में बाँधी
इनकी पूरी उम्र सुरक्षित
छूना मत
अपराध गुनाहों
बच्चे घर से निकल रहे हैं
(७)
'' ढाबे का छोटू "
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इस टेबल से उस टेबल तक
पकवानों के बीच दौड़ती
दो रोटी की आस
मालिक की अंगारा आँखें
सिहरन भरे बदन में
ज्यों चाबुक से अश्व दौड़ता
सरपट भरी थकन मे
भट्टी पर पकते व्यंजन की
गर्मी से सीने में उठती
ठंडी सी उच्छ्वास
आवभगत में तन्मय रहता
झाड़न पटक-पटक कर
दिन भर अपनी नींद भगाता
पलकें झपक-झपक कर
उत्सव जैसी चहल पहल में
हँसी ठहाकों बीच लिया है
बचपन ने सन्यास
जूठी थाली माँज-माँज कर
अपना बिम्ब निहारे
दर्द देह का भूल अभागा
तोड़े रोज़ सितारे
खुलते ढक्कन की खुशबू में
आँतों की ऐंठन करती है
संयम का अभ्यास
तीन फुटे छोटू के भीतर
छह फुट ज़िम्मेदारी
माँ बाबूजी और बहन हैं
खटने की लाचारी
सूखे होंठ पनीली आँखें
चेहरे का भूगोल बताता
कर्जे का इतिहास
(८)
ढूंढें नदी हिरन
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खंडहर जैसे जर्जर तन के
भीतर भव्य भवन
रेंग-रेंग चलने वालों के
मन में एक गगन
गहन दुखों की मावस में भी
भीतर जुगनू चमके
भले चाँदनी ढक लें मेघा
रह-रह बिजली दमके
अंधियारे का चीर समन्दर
तैरे एक किरन
रिश्तों में पतझड़ का मौसम
पेड़ हवा से लड़ते
पत्ते सूख-सूख वादों के
नित्य टूट कर झड़ते
मगर जिया जब एकाकीपन
खुद से हुआ मिलन
दुनियादारी के जंगल में
सहमी अभिलाषाएँ
कर्तव्यों का सूर्य दहकता
चिड़िया सी इच्छाएँ
जेठ दुपहरी ठूँठ वनों में
ढूंढें नदी हिरन
(९)
कान उगे दीवारों में
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तहखाने से राज निकल कर
आ पहुँचे बाज़ारों में
जब भी खुसफुस की अधरों ने
कान उगे दीवारो में
सागर तल की गहराई में
दबे हुए थे किस्से मन के
धरे छुपा कर बंद सीप में
मोती जैसे पल जीवन के
शातिर गोताखोर चुरा कर
बाँट रहे अखबारों में
तट पर एक रेत के घर में
दिल के दस्तावेज़ धरे थे
देख बुरी सागर की नीयत
लहर-लहर पर राज़ डरे थे
उड़ी गगन तक गुप्त कथाएँ
सरे आम गुब्बारों में
झाँके परदे हटा-हटा कर
चुगली बैठ पवन के काँधे
रुसवाई के तार बाँध कर
किस्से चौराहों पर बाँधें ।
(१०)
जूझ रहे हैं गीत
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सन्नाटे से घिरे हुए हैं
झनकारों के गीत
घूम रहे तपती सड़कों पर
बौछारों के गीत
ज़रा पूछना बिना हवा के
पत्तों का मन क्या कहता है
जमी हुई काई के नीचे
पानी कहाँ-कहाँ बहता है
सूखे तट पर खड़े हुए हैं
मँझधारों के गीत
जो भी रही ज़रुरत जिसकी
मिला नहीं वो उसको अक्सर
पंछी भीग रहे पानी में
मछली तड़प रही बालू पर
पर्वत पर्वत भटक रहे हैं
मछुवारों के गीत
कहीं बाँध ने नदिया रोकी
कहीं पंख पिंजरे में घायल
कहीं हवा झिर्री में अटकी
कहीं हिरन पहरे में पागल
खूँटे जैसे गाड दिए हैं
बंजारों के गीत
अधरों पर जब गहन मौन हो
मन में एक बवंडर होता
जब आँखों में दिखे मरुस्थल
भीतर एक समंदर होता
रुंधे कंठ में अटक गए हैं
त्योहारों के गीत
- संध्या सिंह
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परिचय -
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नाम ---- संध्या सिंह
जन्म स्थान – ग्राम लालवाला , तहसील देवबंद , जिला सहारनपुर
शिक्षा ---- स्नातक विज्ञान , मेरठ विश्वविद्यालय
सम्प्रति -- हिन्दी संस्थान , रेडिओ , दूरदर्शन , निजी चैनल, अनेक साहित्यिक कार्यक्रम में एवं व्यवसायिक समृद्ध मंचों पर भी काव्य पाठ , समय समय पर अनेक पत्र पत्रिकाओं एवं समाचार पत्रों में निरंतर रचनाएँ प्रकाशित , इसके अतिरिक्त स्वतन्त्र लेखन
प्रकाशित पुस्तकें -- ----
तीन प्रकाशित काव्य संग्रह ‘आखरों के शगुन पंछी ‘, "उनींदे द्वार पर दस्तक " एवं ‘मौन की झनकार’
पुरस्कार –
सम्मान एवं पुरस्कार
अपने प्रथम नवगीत संग्रह ‘’ मौन की झंकार ‘ पर दुबई की संस्था ‘’अभिव्यक्ति विश्वम ‘ की ओर से "अंकुर पुरस्कार २०१६ " से पुरस्कृत
अभिनव कला परिषद् भोपाल की और से शब्द शिल्पी २०१७ सम्मान से सम्मानित
हिंदुस्तानी अकादमी दिल्ली द्वारा आयोजित गीत प्रतियोगिता में प्रथम स्थान
राज्य कर्मचारी संस्थान द्वारा 2018 में स्री लेखन पर सम्मानित
आयाम संस्था पटना द्वारा स्त्री लेखन पर 2017 में सम्मानित
समन्वय संस्था सहारनपुर द्वारा सृजन सम्मान 2018
एक से बढ़कर एक गीत...!
जवाब देंहटाएंउनके गीतों से जी ही नही भरता..!
संध्या अपने आप में एक पूरा इंस्टीट्यूशन हैं। उन्हें पढ़कर नवगीत की विधा सीखना कितना सरल हो जाता है। बहुत ही सारगर्भित गीत..!
शुक्रिया सरस
हटाएंसंध्या सिंह को अक्सर पढ़ती रही हूँ और उनके दोहों की तो बेहद उत्सुकता से प्रतीक्षा रहती है। सभी गीत बहुत अच्छे हैं।
जवाब देंहटाएंकुछ अपनों को धक्का मारा
कुछ रिश्तों पर पाँव धरे
यों हमने सोपान चढ़े
संध्या जी ने दैनन्दिन जीवन की धक्कामुक्की को बेहद सरलता से व्यक्त कर दिया है।
ढाबे का छोटू की कविता हो या ये पंक्तियाँ
शातिर गोताखोर चुरा कर
बाँट रहे अखबारों में
मन को भेद जाती हैं।