।। गद्य का पद्यांतरण ही नहीं करता नवगीत।।
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नवगीत को जो कहना होता है, उसे प्रतीकों में कहता है। प्रतीक को बुनने में बिंब उसकी सहायता करते हैं। बिंब प्रायः अभिधेयात्मक होते हैं, वे चाक्षुष ही अधिक होते हैं, चाक्षुष नहीं होते तो श्रौत होते हैं। अर्थात, जिस बिंब को हमारी आँखों ने नहीं भी देखा, पर हमारे कानों ने सुना। हमारी चेतना को जिसकी मर्मस्पर्शिता ने महसूस किया.... ये सब इंद्रिय सापेक्ष बिंब हैं। कुछ घटनाएँ अख़बारों से, दृश्य-श्रव्य माध्यमों से हमारी चेतना तक पहुँचते हैं। हम वो वाल्मीकि नहीं हैं जिन्होंने क्रौंच का व्याध द्वारा वध किए जाते हुए देखा तो चेतना द्रवित हुई।हमने तो क्रौंच-वध का समाचार ही पढ़ा, ज़्यादा से ज़्यादा उसकी रिकोर्डिड वीडियो-क्लिप देखी। क्या हमारी चेतना समान ही ऊष्मा से द्रवित होगी? क्या हमारी संवेदना का स्तर समान ही रह पाएगा? या हम ऐसे दृश्यों के अब आदी हो चले हैं! ये संवेदना के स्तर को लेकर रूखे और जटिल प्रश्न हैं।
इसी क्रम में, हमारी चेतना को यह भी तय करना है कि किस सीमा तक वह व्याध को अपने शाप से बाँधेगी और किस सीमा तक क्रौंच के विलाप में शामिल होगी! घायल हंस के बच्चे को बालक सिद्धार्थ संरक्षित करते हैं, उसकी प्राणरक्षा करते हैं, वाल्मीकि ऐसा नहीं कर पाते। वे व्याध को द्रवित करने का वाचिक उपक्रम ही करते हैं। या तो उन्हें इस सत्य का ज्ञान है कि अब क्रौंच पक्षी पुनर्जीवित नहीं होगा। उनका द्रवित होना उनका मुनि-स्वभाव है तो अटल सत्य के आगे मौन होना उनका ऋषि-स्वभाव। खैर, इस घटना से संसार को एक महान कवि अवश्य प्राप्त होता है।
तो, हम वाल्मीकि की परंपरा के कवि बनें,भले ही क्रौंच की रक्षा न कर पाएँ, पर संवेदना का स्तर ग्रावाहृदयविद्रावण हो, पत्थर को भी पिघला देने वाला हो। मुझे नहीं पता कि पहले और दूसरे विश्वयुद्ध में कितने लोग राष्ट्रों के युद्धोन्माद के चलते मारे गए। मुझे नहीं पता कि कोरोना के विश्वव्यापी संक्रमण के चलते किंतने लाख लोग मारे गए।मुझे सही तौर पर यह भी नहीं पता कि ऑस्ट्रेलिया के जंगलों में फैली भीषण दावाग्नि में कितनी प्रजातियों के लाखों कि करोड़ों वन्य जीव जल कर स्वाहा हो गए। लेकिन, इस सृष्टि के अधिपतियों की ही नहीं, साधारण जनों की भी संवेदना का अर्थापन इस बात से होता है कि वह कितना आभ्यंतर से द्रवित हो पाते हैं। और, कम-से-कम एक कवि को तो इसकी महती आवश्यकता है। एक राजा का उसकी संरक्षित प्रजा के रक्षण और भरण-पोषण का नैतिक दाय होता ही है, इसमें नया क्या! मुझे रामचरितमानस के सुंदरकांड की वह पंक्ति हठात स्मरण हो आई है जो समुद्री जीवों के राम के बाण से व्यथित होने पर समुद्र की अंतर्व्यथा का अंकन करती है--
मकर उरग झष गन अकुलाने। जरत जंतु जलनिधि जब जाने।।
यह एक राजा के देखने योग्य नहीं है कि संहारक बाण किसका है। वह जगन्नियंता राम का ही अमोघ बाण क्यों न हो, यह किसी प्राकृतिक आपदा का ही संहारक बाण क्यों न हो, अपनी प्रजा की रक्षा इस बाण के घात से करना उसका नैतिक और परम दायित्व है।...
खैर, इस समय सारी मानवता व्यथित है। उसे गहरे अनिष्ट की छाया सर पर मंडराती हुई दिखाई दे रही है। वह कहीं-कहीं किंकर्तव्यविमूढ़ भी है, तो कहीं रचनात्मक, रक्षात्मक और सर्जनात्मक ऊर्जा से भी भरी हुई। उसे साधुवाद। कोटि-कोटि अंतरतम के धन्यवाद।
और, ऐसे क्रूर समय में हमारा कवि क्या कर रहा है? वह अखबारों की कतरनें बटोर रहा है। वह मीडिया पर आँख-कान लगाए हुए है। वह अफवाहों को मनोयोगपूर्वक गुन रहा है। वह उनमें अपनी कविता की सम्भावना तलाश रहा है। वह, जो बात गद्य में सहजता से कही जा रही है, उसे राग-रागिनी में ढाल रहा है, पद्यबद्ध कर रहा है। समाचारपत्रों में छपवाकर अपनी रचनात्मकता के विस्तार-प्रसार से खुश है। क्या यह पद्यबद्ध गायन ही आज की कविता का चेहरा है? लगता तो यही है। यह जनमानस को द्रवित न करने वाली कविता की लोकव्याप्ति का चेहरा है। यह मीडिया का कविता-संस्करण है। उस कवि को लग रहा है कि कोरोना शब्द का कविता में उल्लेख न करूँ तो यह कोरोनाकाल की कविता नहीं होगी। उसे चमगादड़ों, चीन, वुहान के उल्लेख से अपनी कविता को प्रामाणिक बनाना ही है। यही उसका कविता-विषय है। वह हाय कोरोना, मर कोरोना, भाग कोरोना, डूब कोरोना, प्रभृति तुकबन्दियाँ लिखकर गद्गदमन है। इस कृत्रिम किन्तु वृहत आपदा के त्रास की स्थितियों पर जिन बहुत कम कवियों का ध्यान गया है, उनमें नवगीतकार शामिल हैं। इनके उल्लेख द्रवित करने वाले हैं। हृदय की गहराई को, संवेदना को छूने वाले हैं। 2-4 दिन पूर्व, मेरा एक कर्मचारी, जो कोविद-19 की ड्यूटी में तैनात है, अपने साथ घटी एक घटना का ब्यौरा दे रहा था। वह रात्रि दस बजे की ड्यूटी के लिए जब बाइक से जा रहा था, तो कुत्तों के एक उग्र दल ने उसे दौड़ा लिया। यह साधारण तौर पर कुत्तों का गाड़ी के पीछे भागना नहीं था।इसमें पर्याप्त उग्रता थी। कुछ आगे फिर ऐसा हुआ। उसका निष्कर्ष था कि कुत्ते कई दिनों के भूखे हैं। उनके भरण-पोषण के साधनों पर वज्र-सा पड़ गया है। जिन हलवाइयों की दुकानों पर उनका अड्डा था, जहाँ वे आगन्तुकों के उच्छिष्ट से पोषित होते थे, वह साधन जाता रहा। धर्मपारायण लोग, जो कुत्तों, चींटियों और आवारा पशुओं को ब्रेड, रोटी, बिस्किट, गुड़-आटे से तृप्त करते हुए घूमते थे, उनकी आवाजाही बंद है। धर्म कहता है कि क्षुधा से बड़ा कोई पाप नहीं है--बुभुक्षितं किं न करोति पापं। कल मेरे आवास पर एक घटना हुई। कई दिनों से एक बीमार बंदर यहाँ चक्कर काट रहा था। घण्टों अशक्त होकर लोट जाता। कल बंदरों के एक बड़े समूह ने घर को घेर लिया, भान हुआ कि कदाचित वह बन्दर या तो मर गया या अधिक गंभीर है। इसके साथ ही हमने देखा कि दीवार की रंग की परत जहाँ-जहाँ से उखड़ रही थी, वहाँ-वहाँ कुछ बंदर जीभ लगाकर रेह चाट रहे थे। फूलों को तो उन्होंने छोड़ा नहीं। तो, अनुमान यही हुआ कि वे अपने साथी की व्यथा से तो व्यथित थे ही, भूखे भी थे। जो फल-सब्जी वाले गले-सड़े फल छोड़कर उठ जाया करते या उनकी अनवधानता में बंदरों का दाँव चल जाता, वह सब अब बन्द है। मैं लॉक-डाउन खुलने की हिमायत नही कर रहा, इस पक्ष पर भी आपकी दृष्टि का एक छोटा निक्षेप चाह रहा हूँ।
हमारा कवि क्या लिख रहा है अधिकांश में, वही जो गद्य में कहा जा रहा है, उसे पद्य में ढालकर। सामाजिक दूरी बनाओ। हाथ न मिलाकर अभिवादन करो, हाथ धोओ, सफाई रखो, वगैरह.. क्या गद्य का पद्य-रूपांतरण करना ही कविता है? इसीलिए, नवगीत की ओर और नवगीतकारों की ओर मैं अतिरिक्त आशा से देखता हूँ। मुझे, अधिक तो नहीं पर कुछ तो आशा है कि वे अपनी कलम से हमारी संवेदनाओं को गहराई तक छुएँगे। आशा रखने में मेरी क्या हानि है?
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