वागर्थ प्रस्तुत करता है वरिष्ठ साहित्यकार गिरीश पंकज जी के नवगीत
गिरीश पंकज एक ऐसे साहित्यकार का नाम है, जो किसी खास विधा में बंधकर लिखने के लिए बाध्य नहीं रहे। वैसे तो एक व्यंग्यकार के रूप में उनकी विशिष्ट पहचान है लेकिन उनकी रचनात्मकता को जानने वालों को पता है कि उन्होंने दस उपन्यास भी लिखे, तीस व्यंग्य संग्रह भी हैं उनके। चार कहानी संग्रह भी। बच्चों और नवसाक्षरों के लिए भी उनकी अनेक पुस्तकें छप चुकी हैं। लघुकथा लेखन में भी वे पारंगत हैं।उनके सात ग़ज़ल संग्रह और एक गीत संग्रह भी प्रकाशित हो चुके हैं।
अपने गीत लेखन के संबंध में वे कहते हैं कि "व्यंग्य मैं दिमाग से लिखता हूँ,तो गीत मेरी आत्मा से अपने आप निःसृत होते हैं । समकालीन समय का अवलोकन करते हुए अंतस के भाव कोमल गीतों के माध्यम से कब चुपचाप उतर आते हैं, पता ही नहीं चलता।
गीत नवगीत पर चर्चा करने पर गिरीश पंकज जी कहते हैं कि
"दरअसल गीत हृदय की विधा है। अंतरात्मा में निर्मम भावनाओं के विरुद्ध जब हस्तक्षेप होता है तो गीत नवगीत बन जाता है। मगर गीत का पारंपरिक आस्वादन भी जरूरी है। हाँ, बदलते हुए परिवेश की तल्ख़ सच्चाइयों को प्रस्तुत करने के लिए नवगीत भी जरूरी हैं।
इसलिए मेरे अंतर्मन में गीत और नवगीत समान रूप से प्रवहमान रहते हैं ।"
यहां प्रस्तुत हैं गिरीश पंकज के नवगीत
प्रस्तुति
वागर्थ संपादक मण्डल
गिरीश पंकज के नवगीत
1
अब बेकार हुए
------------------
बूढ़े क्या हो गए पिताजी,
अब बेकार हुए ।।
बचपन में जिन बच्चों को,
दिया हमेशा प्यार ।
वे बच्चे ही बड़े हुए तो,
आज रहे दुत्कार।
हतप्रभ है बूढ़ी काया,
ये क्यूँ मक्कार हुए।।
सारी खुशियाँ अपनी बाँटी,
बच्चे सुखी रहें।
जेब काटकर उन्हें दिया सब,
जीवन मस्त गहें।
अपने पैर खड़े हो कर सब,
अब तो भार हुए।।
वृद्ध आश्रम में बैठी माँ,
हरदम ही रोती।
काश कभी तो आ जाते,
अपने पोता-पोती ।
लेकिन नहीं कोई आया,
कित्ते त्यौहार हुए।।
2
दिन प्यारे प्यारे
---- - -----------
कैसे भूलें हम बचपन के,
दिन प्यारे -प्यारे।।
पतंग उड़ाना, गिल्ली-डंडा,
भौंरे और बाटी ।
जिस पर लोट-लोट हम खेले,
वह प्यारी माटी।
नदी हमारी माँ जिसमें हम,
तैरे भिनसारे।।
कौन जात है कौन धर्म है,
इसका पता नहीं ।
सबको गले लगाया हँसकर,
कोई खता नहीं।
खेल रहे मंदिर, मस्जिद में,
या फिर गुरुद्वारे।।
कभी किया जंगल में मंगल,
चढ़ गए कभी पहाड़।
मैले हो कर लौटे लेकिन
मिला हमेशा लाड़।
मनचाहा खा कर पहुँचे फिर,
सपनों के दवारे।।
3
याद रखो तुम गाँव
--------------------
याद रखो तुम गाँव
न भूलो
पाप कहाएगा ।
तुम आए क्या शहर
गाँव की मिट्टी
भूल गए।
चकाचौंध क्या देखी शहरी,
उसमें फूल गए ।
कौन हमारी खुशियां वापस
अब लौटाएगा।
याद न आई अमराई की
शीतल-प्यारी छाँव।
सबसे प्यारा लगता था जब
तुमको अपना गाँव ।
क्या अब भी मन का
वो कान्हा
गीत सुनाएगा।
परदूषण ही रास आ गया
हरियाली बिसरी।
खाँस-खाँस बीमार हो गई,
पीढ़ी अब शहरी ।
लौट प्रवासी सुंदर काया
सेहत पाएगा।
4
वो ही बचा रहा
---------------------
जो भी लोक- हृदय में था
बस
वो ही बचा रहा ।
रचने को रच जाओ ढेरों
पर वो सब बेकार।
वही रहा युग-युग तक जिसको
करें लोग स्वीकार।
अंदर की आभा सच्ची तू
बाहर सजा रहा।
जब तक मन निर्मल ना होगा
गीत नहीं बनता।
सर्जक माँ-सी पीड़ा सहकर
भाव को जनता ।
कविता उतरे है सहसा तू
बैठे 'बना' रहा ।
जो जन-जन की पीड़ा गाए
गीत वही पावन।
जग जिस में खुद को अवलोके
वो ही मनभावन ।
गीत वही, जो भूले जग को
रस्ता बता रहा।
5
उनके लिए अछूत रहे
--------------------------
हम जिनके दरबारी ना थे,
उनके लिए अछूत रहे।
लेकिन यह संतोष रहा हम,
जनमानस के दूत रहे ।।
हमें न भाये राजभवन के,
तरह- तरह के व्यंजन ।
रूखी-सूखी खा कर भी हम,
खुश रख पाए जीवन ।
याचक नहीं बने शिखरों के,
इतने हम मजबूत रहे ।।
भीड़ राग-दरबारी गाए,
हम आल्हा की तान ।
अपनी कुटिया में ही खुश हम,
ले कर निज सम्मान ।
चारण-भाट नहीं हो पाए,
हम कबीर के पूत रहे ।।
जो सर्जक होता है सच्चा,
दरबारी क्यों गाए ।
होंगे कुछ बन्दे ऐसे भी,
गा कर पैसे पाए।
हम अपनी खुद्दारी पर ही,
मगन रहे, अभिभूत रहे ।।
दुनियादारी में रह कर भी,
भायी सदा फकीरी।
कितनी दुखदायी है हमने,
देखी यहॉं अमीरी।
इसीलिए इस दुनिया में भी,
हम जैसे अवधूत रहे।।
गिरीश पंकज
__________
परिचय
गिरीश पंकज : जनवरी 1 नवंबर 1957
शिक्षा: एमए. (हिंदी) , बीजे ( प्रावीण्य सूची में प्रथम), लोक संगीत में डिप्लोमा।
प्रकाशन : दस उपन्यास, अट्ठाईस व्यंग्य संग्रह सहित विभिन्न विधाओं में सौ पुस्तकें प्रकाशित ।
सम्मान पुरस्कार : व्यंग्य साहित्य में अतुलनीय योगदान के लिए हिंदी भवन दिल्ली व्यंग्यश्री सम्मान, अट्टहास सम्मान, पंडित बृजलाल द्विवेदी सम्मान, संसद के केंद्रीय कक्ष में राष्ट्रभाषा गौरव सम्मान, त्रिनिडाड वेस्टइंडीज में हिंदी सेवाश्री सम्मान सहित अनेक पुरस्कार। अमरीका, ब्रिटेन सहित अनेक देशों की साहित्यिक यात्राएँ।
संपर्क : सेक्टर -3, एचआईजी- 2/ 2 ,
दीनदयाल उपाध्याय नगर,
रायपुर - 492010
मोबाइल- 8770969574
बहुत बहुत आभार
जवाब देंहटाएंआज वागार्थ पटल पर एक स्थापित व्यंग्यकार और अपनी लेखनी से हिंदी साहित्य की श्रीवृध्दि करने के मिस विभिन्न विधाओं यथा, कहानी, उपन्यास, ग़ज़ल, गीत, नवगीत और लघुकथा पर सार्थक सृजन रत आदरणीय गिरीश पंकज जी के नवगीतों की सुगंध बिखरी हुई है। पंकज जी के स्वकथन से ही यह स्पष्ट हो जाता है कि वे दिमाग से व्यंग्य लिखते हैं और उनकी आत्मा से अपने आप गीत निसृत होते हैं अर्थात गीत कभी लिखे नहीं जाते अपितु झरते हैं।
जवाब देंहटाएंप्रस्तुत सभी गीत मानव-मन की घनीभूत अनुभूति की अभिव्यक्ति करते हैं। जीवन के उत्तरार्ध में जब संतान अपने पैरों पर खड़ी हो जाती है तो मां-बाप को बेकार 'आऊट डेटेड' कहकर तिरस्कृत सा कर देती है उस समय की पीर को स्वर देता प्रथम गीत अत्यंत मार्मिक और हृदय को झकझोरने वाला बन पड़ा है -"बूढ़े क्या हो गये पिता जी,अब बेकार हुए। " इसी गीत का अंतिम बंध-" वृध्द आश्रम में मां बैठी,हरदम ही रोती। काश कभी तो आ जाते,अपने पोता पोती"। हर उस संवेदनशील अन्तस के आंसू निकालने में समर्थ है जिसने ये पीड़ा भोगी है। यही गीत का "साधारणीकरण" है। बचपन की यादों को पुनर्जीवित करता दूसरा गीत हमें उसी दुनिया में ले जाता है जहां समरसता थी, जात-पात का भेद न था, मंदिर मस्जिद की दीवार न थी और सबसे बड़ी बात कि " मैले होकर लौटे लेकिन मिला हमेशा लाड़" कहकर गीतकार वह सब कुछ कह देता है जो गीत की आत्मा है। लेखनी की शक्ति, सामर्थ्य और सपनों के दरवाजे पहुंचाने की व्यवस्था गीतकार को जन-जन का मीत बना देती है। तीसरे गीत में ग्राम्यसौंदर्य और अपनी माटी की महक संजोये कवि वापिस लौटने की बात बहुत ही शालीनता से कह देता है- परदूषण ही रास आ गया, हरियाली बिसरी। खांस खांस बीमार हो गयी,अब पीढ़ी शहरी। लौट प्रवासी, सुंदर काया,सेहत पायेगा। ये उसका समय बोध और आगन्तुक विभीषिका की चेतावनी भी है,जिसे देने में पंकज जी सफल रहे हैं। अंतिम गीत अध्यात्मिक दर्शन से प्रभावित होकर,सीख देने वाला है, जो लोक चेतना के विकास और आभ्यांतरिक ऐक्य का प्रतिपादन करता है। आंतरिक निर्मलता का पक्षधर कवि जन-जन की पीड़ा का का गायक होना जरूरी समझता है,और ऐसे ही गीत समसामयिक होकर सर्वतोभावेन रहते हैं। "जो जन की पीड़ा गाये, गीत वही पावन। गीत वही जो भूले जग को रस्ता बता रहा। " कहकर गीतकार अपने गीत सृजन का उद्देश्य जगजाहिर कर देता है। गीतों की भाषा कथ्य के अनुरूप है, यद्यपि कहीं कहीं छंद के निर्वहन में,टूटन महसूस हुई है तथापि लयात्मकता के प्रभाव से गीत बेमिसाल हुए हैं। आदरणीय गिरीश पंकज जी की लेखनी को सादर नमन करते हुए मधुर जी को साधुवाद देता हूं कि एक व्यंगकार के नवगीतों से परिचित कराने में अहम भूमिका निभाई है।
डॉ मुकेश अनुरागी शिवपुरी
शिवपुरी जी आपने अद्भुत टिप्पणी दी।
जवाब देंहटाएं