साकीबा के मंच पर प्रस्तुत नवगीतों पर प्राप्त टिप्पणियों का एक कोलाज
सुंदर एवं सधी-कसी कविताएं हैं। गीतों की लय में राजनीतिक बोध का मुखर होना बहुत जरूरी है और वह शुरूआती दो कविताओं में सटीक रूप से लक्षित हुआ है।
२. 'उठी भागवत' कविता तो दर्पण की भांति दिखाई देती है जिसमें सांस्कृतिक ह्रास का तेजहीन चेहरा स्पष्ट दिखाई देता है। हम सब जानते हैं भागवत कथाओं में 'कथा-तत्व' का क्या गज़ब पतन हुआ है और ऐसी कथाएं, एक बड़े स्तर पर, चंदा इकट्ठा करने और धर्म बेचने की क्रियाओं का अड्डा बन चुकी हैं। कवि ने इस नस को कसकर पकड़ लिया है और उसके स्पंदनों की अभिव्यक्ति अपनी इस कविता में दे दी है।
३. 'चमचों का दौर' में समकालीन राजनीतिक लोकव्यवहारों को निशाना बनाते हुए चमचागिरी का उद्घाटन किया गया। 'भूखों को घी चुपड़े कौर' डालना एक शानदार अभिव्यक्ति है।
४. मनोज जी की भाषा की सबसे अच्छी बात मुझे यह लगी की उसमें जबरदस्ती का काठिन्य नहीं है और वे सरल शब्दों के माध्यम से ही अपनी इच्छित भावभूमि का चित्र खींच दे रहे हैं। कविताओं को दो-तीन बार पढ़ा और पाया कि लय बनी रही। लय गीतों को अपने ऊपर से गुजारने वाला पुल है। मनोज जी ने मजबूत पुल बनाए हैं।
पुष्पेंद्र पाठक
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अच्छी कविताएं हैं। सशक्त अभिव्यक्ति है।
एक पाठक
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मनोज जी के गीतों में यह खास है कि उनमें एक ही विचार ने अपना विस्तार पाया है। समकालीन चिंताएं उनमें है
ब्रज श्रीवास्तव
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नव गीत के व्याकरण के बहुत अच्छी तरह वाकिफ नहीं हूं लेकिन भाव ने प्रभावित किया।नए बिम्ब के साथ ताज़े खयाल के अरास्ता सभी नवगीत अच्छे लगे।नवगीतों में राजनीति से ले कर आम आदमी की पीड़ा की झलक मिलती है जो गांव से जुड़ी है मनोज जी को बहुत बधाई।
गज़ाला तबस्सुम
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मस्त है ,खड़ी भाषा में कड़वा पिला दिया।
नीलिमा करैया
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साकीबा के माध्यम से मनोज जी के नवगीतों से रूबरू हुए।राजनैतिक परिदृश्य और सामाजिक उधेड़बुन की सरल शब्दों में अभिव्यक्ति दी है।
सोनू यशराज
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मनोज जैन मधुर जी की रचनाएं पटल पर रखने के लिए मधु दीदी का आभार
ये नवगीत साहित्य जगत के अनमोल मोती हैं।
पहली रचना
गंगा नहाते हैं की तंज भरी प्रेरणा ने जागृत कर दिया।
दूसरी रचना हर हर गंगे
समाज की विद्रूप मानसिकता को दर्शा रही है।
धर्मिक सभाओं की असलियत पर तीखी प्रतिक्रिया देती रचना उठी भागवत
समाज को आइना दिखा रही है।
दर्पण में झलकता है परायापन
इस कविता को पढ़ कर आंखे छलक आईं।
सुनीता पाठक
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आदरणीय सर जी के गीत बहुत ही प्रभावशाली तरीके से अपने भावों में पिरो व्यक्त किया है ....
आपको लेखन की बहुत-बहुत बधाई और शुभकामनाएं
प्रमोद कुमार चौहान
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गीत सुगढ़ बन पड़े हैं , सीखने के लिये काफी कुछ है ।
अजय कुमार श्रीवास्तव
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मनोज जैन मधुर जी के सभी नवगीत सहज, सरल तथा व्यंजनात्मक भाषा में सामाजिक विसंगति और विद्रूपता को उजागर करते हैं ।
बधाई
हरगोविन्द मैथिल
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मनोज जी मेरे प्रिय गीतकार हैं
शिल्प सौष्ठव और भाव की कसौटी पर शुद्ध खरे तीखे गीत l
आरंभ के दो गीत सिस्टम पर जबरदस्त कटाक्ष करते हैं l मनोज जी प्रतिरोध अलग अंदाज के लिए जाने जाते हैं l
"मंदिर के चंदे से पंडित जी की चुकी उधारी"
"जो भी पास तुम्हारे भक्तों करके जाना दान"
"सूख कर कांटा हुआ है झोंपडी का तन"
बड़े बर्छीले तेवर रहे हैं मनोज जी के मेरी ओर से साधुवाद इतने महत्वपूर्ण विषय उठाने के लिए l कसे शिल्प पर पुनः पुनः बधाई l
संध्या सिंह , लखनऊ
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मनोज जी का स्वागत ।
नवगीत के लिये यह नाम जाना माना है ।
धीरे धीरे चढ़े सभी के
फिर से उतरे चोले..
आज का सच उजागर करती हुई ऐसी अनेक पंक्तियों से भरे आपके गीत प्रभावित करते हैं ।
आज के गांव राजनीति के अखाड़े बन चुके हैं । ऐसे में संवेदनशील मन अगर वहां जाने से मुकरता है तो क्या अजब है ।
भावपूर्ण गीत रचनाओं के लिए मनोज जी आपको बधाई ।
अधिवक्ता, चित्रलेखा
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सभी कविताएं कम शब्दों में गहरी बात कह रही हैं।
सीमा जैन
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१. लगता है चार्वाक दर्शन को आत्मसात करते हुए 'गंगा नहाते हुए' रची गई है।
२. राम-राम जपना पराया माल अपना जैसी कुछ भावनाएं हिलोरे ले रही है, लोगों को लगता है कोई देख नहीं रहा, कोई समझ नहीं रहा पर सच्चाई इसके विपरीत है बस कोई कहता नहीं है, बहुत अच्छा व्यंग्य, समस्या पर करारी चोट...
३. पता ही नहीं चला कब हम झूठी शान और दाल-भात के चक्कर में सुंदरवन के डेल्टा बन गए।
४. सबने अपने-अपने स्वार्थ सिद्ध किये, भागवत की आड़ में।
५. सामूहिक रूप से रचना रचकर, भावनाओं से खेलता हुआ, चपत लगाता हुआ 'विराजा गादी पर महाराज'
६. चमचों का ऐसा दौर चला कि भले लोग स्वाभाविक रूप से किनारे हो चले।
७. आज आभासी दुनिया, वास्तविक दुनिया से अधिक प्रिय लगने लगी है शायद यही हमारा दुर्भाग्य है।
मनोज जैन जी को जन्मदिवस की देर से ढेरों शुभकामनाएं, आपकी लेखनी यूं ही प्रहार करती रहे; बिना किसी लाग-लपेट के...
पंकज राठौर
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नवगीत के माध्यम से राजनीतिक उठापटक का जीवंत चित्रण, प्रत्येक पंक्ति अपने में भाव समेटे हुए है।
आदरणीय मनोज जी को शुभकामनाएं
डॉ रश्मि दीक्षित
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सर्वप्रथम मनोज जी को जन्मदिन की अनंत हार्दिक शुभकामनाएं। आपके नवगीत अद्भुत है। इनका कहन सरल किन्तु मारक है। आपकी रचनाशीलता को प्रणाम।
एक पाठक
आ.मनोज जैन मधुर जी के सभी नवगीत अच्छे बन पड़े है। अच्छे सृजन के लिए बधाई
रेखा दुबे
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मनोज जी का हमारे बीच अपने नवगीत रखने के लिए आभार, आपके गीतों व आपसे फेसबुक पर निरंतर दो सालों से परिचित हूँ । वागर्थ समूह में आपके गीत पढता रहा हूँ। आज साकीबा के अपने समूह में आप के गीतों पर बात रखते हुए सुखद अनुभव कर रहा हूँ। नवगीतकाराओं में आप एक जाना पहचाना नाम है। परम्परागत गीतों में जिस तरह कहन, भाषा बिंब, ली तुक बानगी में बदलाव कर नवगीतों का चलन चालू हुआ उसने गीत परम्परा को नया सा कर दिया। उसे प्रेम, करुणा, सामाजिक विषयों से आगे ले जाकर समसामयिक राजनीति, आर्थिक व सांस्कृतिक समस्याओं के लिए नई आवाज़ के रूप में रखा गया है। यह केवल सुखद ही नही वरन अनेक कारणों से महत्त्वपूर्ण कार्य भी साबित हुआ है। देश का बहुत बड़ा तबका जो गीत के पंक्तियों को ही दोहराकर अपने मन के भावों को आसानी से व्यक्त करता है। उसके लिए गीत बोध का बहुत सहज व सरल माध्यम है। अतः नवगीत में जिस तरह मनोज जी व और भी जो नवगीतकार हैं। नये प्रयोग करके आज के समय के सच को आम आदमी के बहुत पास तक पहचाने का सार्थक कार्य किया है।
मनोज जी के नवगीतों के अपने तेवर, अपने संदर्भ, व लय है जिसमें वे भावों को पिरोते हुए, पाठक को समय की मुख्यधारा में ले आते है। उसे अपडेट करते है। सूचना तथ्य से आज के समय की आर्थिक राजनीतिक, सामाजिक यथार्थ से, आप नवगीतों में दृष्टि का पैनापन व युगबोध का टटकापन मौजूद है। अतः इन नवगीतों को समझने के लिए कल्पना दुरूह शब्दावलियों, अबूझ प्रतीकों से होकर गुजरना नही पड़ रहा है। बल्कि आपकी रचना में आसानी से हम अपने आसपास को महसुसते है। एक विषय को कई कोणों से व्यक्त करना और उसमें समय के मर्म का उदघाटन करते चलना आपकी खास शैली है। यथा-
" मन मुआफ़िक चल रहा सब
दिन दहाड़े तंत्र हमको
लूट लेता है।
खड़ा है तैनात रक्षा में
कौन उसको लूटने की
छूट देता है।
आप अपने नवगीत में अपने नए मुहावरा गढ़ते है। और वस्तुस्तिथि को गहरे से हमारे सामने रखते है। जैसे आप कहते है।
" मान लो यह ऐश -ट्रे
अपनी कठौती है
और हम
गंगा नहाते है।
आज के छल प्रपंच, पाखंड, लोभ लालच पर में करारा तंज कसते हुए अपने इन नवगीतों में हमारे विवेक को समझ की नई रौशनी देते है ।
" लाज को घूँघट दिखाया
पेट को थाली ।
आप तो भरते रहे पर
हम हुए खाली,
आप अपने नवगीत में भाषाई प्रयोग को लेकर भी कॉफी खुले,व प्रयोगधर्मी है। म्यूज़िक, डिस्को ऐश ट्रे आदि शब्दों को अपने ही अंदाज में वे बड़े सटीक तरीके से अर्थ व भावों के साथ समेट लेते है।
आपकी शैली भाषा, कथ्य, विषय सभी कुछ बहुत प्रभावित करते है। आपका व साकीबा का बहुत आभार।
मिथिलेश राय
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मनोज जैन जी के गीत अर्थवान है, अपने समय को शब्दबद्ध करते हैं। इन गीतों में जो याद रह जाएंगे वे हैं,
द्वार-दर्पण में झलकता है परायापन
और हम बहुत कायल हुए हैं
आभार।
राजेश्वर वशिष्ठ
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गीतकार मनोज जैन के नवगीत भोपाल मंच पर सुनने का का अवसर मिला था मुझे दो साल पहले। सुनकर यही लगा था कि कवि मनोज जैन आधुनिक भावबोध के गीतकार हैं। हालांकि उनका शिल्प पूर्ववर्ती गीतकारों से बहुत ज्यादा भिन्न नहीं है। उनके सभी गीत लगभग उसी फार्म है, जिसके लिए कुंवर बेचैन, रामावतार राही, भारत भूषण, दिनेश सिंह आदि गीतकार जाने गए। सिर्फ उनकी संवेदना के भिन्न पहलुओं और समयबोध ने उनके गीतों के आकर्षण को कम नहीं होने दिया। गीतकार मनोज जैन के सभी गीतों ने मुझे गहरे तक प्रभावित किया। उनके गीतों में शिल्प का सहज सौंदर्य है तो वर्तमान भावबोध की अप्रतिम छविया। गीत गंगा नहाते हैं, हो या बोल रहे हैं हर हर गंगे - इनमें भारतीय समाज की विडम्बनाएं साफ-साफ उभर आती हैं।
हम बहुत कायल हुये" गीत को ही देखिए। 'आंख को सपने दिखाये/प्यास को पानी। इस तरह होती रही रोज मनमानी। शब्द भर टपका दिये दो, होठ के आभार के।'
राजनीति और समाजनीति में पिछले दस वर्षों से क्या हो रहा है देख ही रहे हैं आप। इसकी तनी हुई प्रत्यंचा-सी अभिव्यक्ति गीत संख्या तीन और चार में स्पष्ट देखी जा सकती है। ' खड़े जुगत में घात लगाकर, चारों ओर शिकारी। गीत 'उठी भागवत' को ही देखें । गीतकार ने समाज के अंतर्विरोधों और विसंगतियों की रीढ़ पर प्रहार किया है। 'विराजा गादी पर महाराज' कवि का एक अन्यंतम गीत है। इस पर लंबी बातचीत हो सकती है। अपने युगबोध को बहुत गहरे से पकड़ा है कवि ने। मंच को आनंदित करनेवाला गीत है- 'चमचों का दौर' । इसमें सब कुछ है जो एक मंचीय गीत में होना चाहिए।
गीतकार मनोज जैन के गीतों को पढ़ने की व्यग्रता बहुत दिनों से थी। साकीबा ने आकर पूरी की। इन शानदार गीतों के लिए गीतकार भाई मनोज जैन 'मधुर' को बहुत बधाई और मधु सक्सेना जी बहुत आभार।
हीरालाल नागर
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मनोज जी को जन्मदिन की शुभकामनाएं पटल पर प्रस्तुत
व्यवस्था और पाखंड पर लिखे गीत प्रभावित करते हैं , गीत विधा में उनका मजबूत दखल है
बधाई
वनिता बाजपेयी
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आदरणीय मनोज सर ,जन्मदिन की हार्दिक बधाई...
संवेदनपरक... गहरे शाब्दिक अर्थ लिए उद्गार ...अनुभूतियों की यथार्थपरक व्यंजना...
सामाजिक, धार्मिक, राजनीतिक विद्रूपताओं से गहरी छटपटाहट.. उथलपुथल मन की आवाज पाठकों तक पहुँचाने नवगीत सृजन...
पवित्र गंगा मैया के लिए भटकती युवा पीढ़ी के क्रियाकलापों व भावनाओं प्रति आक्रोश... पाश्चात्य रूझान से क्षीण होती संस्कृति
धार्मिक आडंबर ..भागवत पुराण वांचन की आधुनिक भावभंगिमाएं...पाखंडपन उजागर करता... हरे मुरारी के नाम पर हरते दान..
चमचों की राजनीति... व्यवस्थाओं की पोल खोलती..
अपने अंतर्मन को खंगालती पंक्तियाँ.. दर्पण में झलकता परायापन ..
शानदार..सघन शाब्दिक अर्थ लिए सौन्दर्यपरक लयात्मक नवगीतों से समृद्ध पटल..
बहुत-बहुत बधाई, आदरणीय मनोज सर
बहुत-बहुत आभार, मधुदीदी
एक पाठक
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अच्छाई आपके भीतर है जोकि आपकी रचनाधर्मिता में स्पष्ट दिख भी रही है, लोगों ने सिर्फ सराहा ही नहीं बल्कि आपसे प्रेरणा भी ली है और अपनी लेखनी में धार भी दी है..
पंकज राठौर
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आदरणीय मनोज जी को जन्मदिन दिन की हार्दिक बधाई
आपके नवगीतों से पहली बार परिचय हुआ, पढ़कर सुखद अनुभूति हुई | अलग अलग विषयों पर लिखी गई
गीतों की भाषा और भाव बड़े सघन व आकर्षित करने वाले हैं .... आपको शुभ कामनाएं !
भावना सिन्हा
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आदरणीय मनोज जी, गिने-चुने उन सर्जकों में से हैं, जो नवगीत की नैया को मँझधार से किनारे पर लाने का जतन कर रहे हैं। नवगीत के निकष पर संतुष्ट करते आपके नवगीत में समाहित गहन अर्थ और आशय भी आसानी से अपनी अभिव्यक्ति दे जाते हैं।
नवगीत की माँग अनुरूप अभिधा या व्यंजना का सहारा लेकर जन सरोकार समाज के सामने ले आते हैं। मुखर स्वर में अपनी बात कहते नवगीत पाठक को सचेत करते हैं, उद्देलित करते हैं, समाधान की छटपटाहट जगा देते हैं। मुहावरे, लोकोक्तियाँ, बिम्ब और विमर्श, शिल्प विधान पाठक को चमत्कृत करते हैं।
आज आपके नवगीत पढ़कर स्वयं को समृद्ध अनुभूत कर रहा हूँ।
हार्दिक बधाई।
साकीबा साधुवाद।
राजेन्द्र श्रीवास्तव
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छोड़ो छोड़ो काम रोज के।पढ़ो गीत तुम भी मनोज के।
ब्रज श्रीवास्तव
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मनोज जैन प्रतिबद्ध गीतकार हैं। धारदार भाव व भाषा में अपनी बात को कहते हुए कब समय को सामने लाकर खड़ा कर देते हैं पता ही नहीं चलता। बधाई इन नवगीतों और जन्मदिन के लिए
गीता पण्डित
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आदरणीय मनोज जी
नमस्ते ।
जन्मदिन तो निकल चुका पर बधाइयाँ जाती दी जाएँ कम हैं । सो बहुत-बहुत बधाइयाँ पुनः । आप स्वस्थ रहें ऐसा ही अच्छा-अच्छा लिखते रहें और हम सब पढ़ते रहें। सादर वैसे तो आपको पढ़ते रहे हैं फेस बुक पर भी और वैसे भी।निश्चित ही इस प्रकार का लेखन गाॅड गिफ्ट लगता है। कभी-कभी मन सोचता है कि ईर्ष्या का भाव जागृत न हो जाए पर जानते हैं यह हमारी प्रवृति में दूर-दूर तक नहीं पर एक ललक उठती है कि काश! हम भी कुछ लिख पाते। रात को सोते हुए ही किसी लेखक की आत्मा कुछ देर के लिये परकाया प्रवेश कर कुछ अच्छा-अच्छा लिखवा ले हमसे!आपकी कलम से तो परिचय है ही अब बात रचनाओं पर।
1-गङ्गा नहाते हैं
गङ्गा नहाना एक मुहावरा हैऔर अगर इसे शीर्षक के रूप में प्रयुक्त किया है तो निश्चित ही गहरा अर्थ रखता है। इस मुहावरे का अर्थ होता है किसी बड़े(कठिन)व जरूरी कर्तव्य को पूरा करना। सामान्यतः मकान बनवाना ,बेटी की शादी या तीर्थ वगैरह के लिये यह प्रयुक्त होता है क्योंकि वो तो जरूरी और कठिन कर्तव्य हैं पर बद्रीनाथ और केदारनाथ तीर्थ करना भी सबके लिये सहज नहीं। यहाँ 1-जरूरी 2-कर्तव्य और तीसरा- पूरा होना; तीनों अलग-अलग महत्वपूर्ण बिंदु हैं । और जब तीनों मिलकर पूर्ण विराम पर पहुँचते हैं तब-मुहावरा सार्थक होता है गङ्गा नहा लिये।
तंत्र की कूटनीतिक चालों और पैतरों को इस नवगीत में बखूबी व्यक्त किया है आपने। मीठा बोल कम तोल कहें लुभावने वादे पर करनी कुछ और; या मुख में राम बगल में छुरी। और बस इसी तरह की कूटनीतिक चालों से अपना काम का काम और नाम का नाम बस; काम हुआ या नहीं, कैसे किया और क्या किया यह समझ पाते और पता चला उन्हें जो करना कर लिया और गङ्गा नहा लिये। पर आपके आखिरी पद ने स्पष्ट किया कि आपने" मन चंगा" से कठौती में गङ्गा"
को लक्ष्य किया है तब भी-
मन चंगा नहीं होने पर भी चंगेपन के दिखावे के साथ नकली गङ्गा को किस तरह की कठौती में किस तरह से दिखाया जा सकता है ।यह आपके नव गीत से सिद्ध हुआ ।
2 -बोल रहे हैं हर-हर गङ्गे
यह नवगीत भी पहले नवगीत की तर्ज पर ही है। इस शीर्षक को नारा भी कह सकते हैं,स्मरण भी और प्रातः वन्दन भी।यहाँ नर्मदा जी हैं तो हर हर नर्मदे प्रचलित
है;राधे-राधे,राम-राम,जय श्री कृष्णा की तरह। सब एक दूसरे को इसी तरह कहकर अभिवादन करते हैं नमस्ते कीऔपचारिकता नहीं चलती।
यहाँ तो गीत स्वतः अपना परिचय दे रहा है। धर्म के नाम पर राजनीति की चालें बिछ रही है। यह कविता बहुत महत्वपूर्ण तीखे तेवर वाली है। सच को शब्द-रूपी तलवार की तेज धार की तरह प्रस्तुत किया है आपने।यहाँ आपकी फोटो में दिखता आपका सरल व्यक्तित्व सख्त और निडर नजर आया
दिल को देखो चेहरा न देखो
चेहरे ने लाखों (करोड़ों)
को लूटा।
पुती हुई है कालिख मन पर
लेकिन चमक ललाट रहे हैं ।
शासन -गङ्गा घाट
वहाँ के चौकीदार-
राजनेता
तो खेवनहार तो ये ही हैं जिस घाट लगा दें या किसी घाट ही ण न लगाएँ, बीच में .....
3- हम बहुत कायल हुए हैं
कायल शब्द यहाँ बखूबी प्रयुक्त हुआ
किसी के गुण विशेष के प्रति आकर्षण के लिये इस शब्द को व्यंग्य में पिरोकर रचना को धारदार बना दिया आपने। ऐसा लग रहा है पढ़ते हुए जैसे यही सब तो जी रहे हैं अपन सब!
यहाँ आपकी सृजनात्मकता के हम ही कायल हुए।
4-उठी भागवत
इस रचना में वर्तमान में धार्मिक आडम्बरों में आसक्त जनता की दीवानगी, छलावा और (सब जगह नहीं पर कहीं-कहीं ) पाखंड को निशाना बनाया है। वैसे तो हम स्वयं बहुत धार्मिक हैं पर अंधभक्ति, अंधविश्वास और अंधश्रद्धा से दूर हैं। ईश्वर के अस्तित्व को अगर आप स्वीकार करते हैं तो हर कार्य आप पवित्र मन से ,कर्तव्य बद्धता से करते हैं क्योंकि आप जानते हैं कि ईश्वर अदृश्य है पर देख रहा है।गलत,बुरा या गंदा बोलते हुए डरता है क्योंकि जानता है कि वह सब सुन रहा है। बिनु पद चले सुने बिनु काना,
कर बिनु कर्म करे विधि नाना।।
आनन रहित सकल रस भोगी,
बिनु वाणी वक्ता बड़ जोगी।।
तो बस ,ईश्वर के प्रति समर्पण ,स्वभाव को प्रेमिल,विवेकी और सरल रखता है । हल्का सा भय बुराइयों के प्रति सचेत रखता है। मुश्किलों में वही सर्वशक्तिमान है जानकर भीड़ जुट जाती है। भगवान की बात करने वाला स्वयं भगवान के कितने निकट है यह समझना कठिन नहीं।
अच्छा लिखा है आपने-
वाचक ने पाखण्ड पसारा
नेता ने छल परसा
और यह सब नजर आता है।
5-विराजा गादी पर महाराज
यह रचना भी पूर्व रचना की सहचरी है।
यहाँ तो सिर्फ पाखण्ड ही पाखण्ड है।बहुरूपिये की कला निखर कर नजर आ रही है ।
6-चमचों का दौर
यह चमचों का ही दौर है।चम्मचों की तरह चमचों में भी क्वालिटी होती है।
कुटिल चालों से ही राजा बना जा सकता है। राजनेताओं से ज्यादा भ्रष्ट कोई नहीं और नेतागिरी से ज्यादा भ्रष्टाचार ......नहीं-नहीं!भ्रष्टाचार तो सब जगह है,हर क्षेत्र में । जितना बड़ा पद उतना बड़ा भ्रष्टाचार! अनेक मिलेंगे।
क्षत्रप सब राजा के
संग साथ नाचें
प्रजा के हाव-भाव
एक एक जाँचे
7-दर्पण में झलकता है परायापन
इस रचना ने गंभीर कर दिया। और मन थोड़ा सा आर्द्र हो उठा । एक पल याद आया -
छोड़ आए हम वो गलियाँ
काश समय पलट पाए।पर ऐसा होता नहीं ।
अपेक्षाओं के टूटने का दर्द महसूस हुआ मनोज भाई!
अगर द्वार ही दर्पण है और वहीं परायापन नजर आ जाए तो अंदर प्रवेश कैसे हो?
बहुत ही करुण सृजन है यह आपका ।अपनेपन के खोने की पीड़ा दिल तोड़ देती है।
अब बात लेखन और काव्य सौंदर्य पर-
क्या कहें और क्या न कहें ।
हमें नवगीतों की विशेषताओं की ,बारीकियों की कोई जानकारी नहीं ।काव्य अपने हर रूप में हमें लुभाता है।
शब्द-शक्ति में कहें तो आपने लक्षणा और व्यंजना का भरपूर प्रयोग किया वाक्यार्थ के अनुरूप ।
बल्कि व्यंजना और लक्षणा से ही रचनाओं में तीखे कटाक्ष और तीखे महसूस हुए।मुहावरे लक्षित अर्थ के द्योतक हैं ।शब्द गुण में ओज अथिक महसूस हुआ । चुप्पी शैतान की तरह खामोशी से पैनी बात कहने में आप निपुण हैं ।
शब्द-संयोजन बिलकुल परफेक्ट है आपका। एक भी शब्द व्यर्थ नहीं
और शैली की जादूगरी ऐसी कि आप किसी शब्द की जगह भी नहीं बदल सकते।
मुहावरों का प्रयोग जान डाल गया। मुहावरे कम शब्दों में बड़ा अर्थ प्रतिध्वनित करते हैं ।
गङ्गा नहाना
कश लगाना
दिन दहाड़े लूटना
छूट देना
धुएँ के छल्ले उड़ाना
कठौती में गङ्गा तो आ जाए पर मन तो चंगा हो!
और गलत को सही साबित करने की अपनी चालाकियाँ।
सामयिक विषयों पर ज्वलंत आक्षेप है आपकी रचनाओं में ।
रचनाओं में प्रभावशीलता, व्यंग्य और अभिव्यक्ति की तीव्रता सहज और सरल शैली में महसूस हुई।
आह! थोड़े लिखे को अधिक समझें । आजकल इतनी रात तक जागते नहीं पर लिखना जरूरी था।
इतने बेहतरीन सृजन के लिये अनेकानेक बधाइयाँ और भविष्य के लिये शुभकामनायें ।
मधु बहुत-बहुत आभार तुम्हारे पढ़वाने लिये, पर शहद सी मीठी और प्यारी बहन।से गुजारिश है कि 5 रचनाएँ कविता, या गीत की दृष्टि से पर्याप्त होती हैं।
अंत में साहित्य की बात व ब्रज जी का भी आभार इतना अच्छा- अच्छा पढ़ाकर पटल को प्रतिष्ठित करने के साथ हम सबको भी प्रतिस्थापित और प्रतिष्ठित करने के लिये।
नीलिमा करैया
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मनोज जी के नवगीत पढ़कर मन में तृप्ति का भाव जगा। साथ ही एक अपूर्व पाठकीय आनन्द भी मिला। छन्द जिसे लापरवाह या अ-मौलिक कविगण तुकबन्दी, मुलम्मागीरी, भौंडी गायकी आदि के लिए इस्तेमाल कर रहे हैं, ऐसे लोगों के निशाने पर कई दशकों से है जो छन्दोबद्धता को जीवन की बढ़ती हुई जटिलताओं, ऊहापोहों और सूक्ष्मतम द्वन्द्वों के प्रस्तुतीकरण में बाधा मान रहे हैं। मनोज जी जैसे सर्जक जो हर शब्द और हर बिम्ब की खोज में समय लगाते हैं और खानापूरी करने वाली तुकों और जगह भरने वाली बतकही से संतुष्ट नहीं होते, छन्द के प्रयोग का औचित्य अपने नवगीतों से ठहराने का साहस रखते हैं। उनके पास कहन की नवीनता भी है, अभिव्यक्ति की सामान्यता से बचकर निकलने का धैर्य भी है। समाज उनके विचारों के गलियारों में लैम्पपोस्ट की तरह अपनी मौजूदगी बिखेरता है। ज़िन्दगी जिसके अर्थ और सौन्दर्य का अनुसन्धान सृजन का प्राप्य माना जाता है, उनके नज़दीक गौरैया की तरह बेहद आत्मीय अंदाज़ में आती है।
मनोज जी के नवगीतों पर मैं अलग-अलग टिप्पणी नहीं कर रहा हूँ। सुधीजन उनके बारे में अपने विचार पहले ही व्यक्त कर चुके हैं।
मेरा मानना है कि अच्छी कविता हर स्थिति में अच्छी कविता होती है। उसका वैशिष्ट्य, उसकी तरलता, उसकी धार पाठकों को उनकी सहृदयता और संवेदना के मुताबिक़ पृथक्-पृथक् ढंग से छूती है। यह महत्वपूर्ण नहीं है कि वह किस तरह के शिल्प में है यानी छन्द में है या मुक्त अंदाज़ में किसी बड़ी जीवन-स्थिति को रच रही है।
भाषा कई बार गहरे मक़सद रचती है। वह सिर्फ़ कहती नहीं, पूछती भी है, बताती भी है, टोकती भी है, घूरती भी है, वक़्त ज़रूरत आगाह भी करती है, हमारी सुस्तियों और जम्हाइयों का मज़ाक भी बनाती है, कभी-कभी हमारी किसी नासमझी के लिए हमें धिक्कारती भी है, कायरतापूर्ण समझौते करने की हमारी आदत में दख़ल भी देती है।
साहित्य हमें अपने दैनन्दिन विचारों से बाहर निकालकर उन अभिव्यक्तियों के मैदान में ले जाता है जिसकी दूब की एक-एक पत्ती रचनाकार ने सँवारी होती है। यह यात्रा कितनी ही छोटी हो, कई अर्थों में नायाब होती है। हम नये तजुर्बों से रूबरू होते हैं, दुनिया के तमाम अनदेखे-अनसोचे संघर्षों को समझते हैं, जीवन की ऊष्मा को अपने अन्तर्जगत में कुछ इस तरह महसूस करते हैं जैसे हमारा कुछ छूटा हुआ हमारे पास उस रचनाकार की पंक्तियों के माध्यम से वापस आ रहा हो।
मनोज जी के सातों नवगीत हमें कुछ विशिष्ट अनुभूतियां देते हैं जिसके लिए वह बधाई के पात्र हैं।
वह स्वस्थ, प्रसन्न, सक्रिय और इसी तरह कवितामय रहें, उनके जन्मदिन के अवसर पर मेरी यह शुभकामना है।
सत्येन्द्र कुमार रघुवंशी
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बढ़िया गीत
जिनमें विचार भी हैं और शानदार शिल्प भी
बधाई मनोज जी
राज नारायण बोहरे
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एक से बढ़कर एक रचनाएँ! नीलिमा जी और सत्येंद्र जी की टिप्पणियों ने ऐसा उत्साहित किया कि चाय चूल्हे पर जल गयी और मैं नवगीतों का जूस मजे लेकर पीती रह गयी। वाह!
गीता चौबे
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प्रमोद कुमार चौहान: आदरणीय सर जी के गीत बहुत ही प्रभावशाली तरीके से अपने भावों में पिरो व्यक्त किया है ....
आपको लेखन की बहुत-बहुत बधाई और शुभकामनाएं
प्रमोद कुमार चौहान
_________________________
मनोज जी का स्वागत ।
नवगीत के लिये यह नाम जाना माना है ।
धीरे धीरे चढ़े सभी के
फिर से उतरे चोले..
आज का सच उजागर करती हुई ऐसी अनेक पंक्तियों से भरे आपके गीत प्रभावित करते हैं ।
आज के गांव राजनीति के अखाड़े बन चुके हैं । ऐसे में संवेदनशील मन अगर वहां जाने से मुकरता है तो क्या अजब है ।
भावपूर्ण गीत रचनाओं के लिए मनोज जी आपको बधाई ।
सर्वप्रथम मनोज जी को जन्मदिन की अनंत हार्दिक शुभकामनाएं।
आपके नवगीत अद्भुत है। इनका कहन सरल किन्तु मारक है। आपकी रचनाशीलता को प्रणाम
आदरणीय मनोज सर ,जन्मदिन की हार्दिक बधाई...
संवेदनपरक... गहरे शाब्दिक अर्थ लिए उद्गार ...अनुभूतियों की यथार्थपरक व्यंजना...
सामाजिक, धार्मिक, राजनीतिक विद्रूपताओं से गहरी छटपटाहट.. उथलपुथल मन की आवाज पाठकों तक पहुँचाने नवगीत सृजन...
पवित्र गंगा मैया के लिए भटकती युवा पीढ़ी के क्रियाकलापों व भावनाओं प्रति आक्रोश... पाश्चात्य रूझान से क्षीण होती संस्कृति
धार्मिक आडंबर ..भागवत पुराण वांचन की आधुनिक भावभंगिमाएं...पाखंडपन उजागर करता... हरे मुरारी के नाम पर हरते दान..
चमचों की राजनीति... व्यवस्थाओं की पोल खोलती..
अपने अंतर्मन को खंगालती पंक्तियाँ.. दर्पण में झलकता परायापन ..
शानदार..सघन शाब्दिक अर्थ लिए सौन्दर्यपरक लयात्मक नवगीतों से समृद्ध पटल..
बहुत-बहुत बधाई, आदरणीय मनोज सर
बहुत-बहुत आभार, मधुदीदी
एक पाठक
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अच्छाई आपके भीतर है जोकि आपकी रचनाधर्मिता में स्पष्ट दिख भी रही है, लोगों ने सिर्फ सराहा ही नहीं बल्कि आपसे प्रेरणा भी ली है और अपनी लेखनी में धार भी दी है..
पंकज राठौर
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हमारे समय के महत्वपूर्ण नवगीत कवि प्रिय बंधु मनोज जैन जी को जन्मदिन पर अशेष मंगलकामनाएँ।
अपने लेखन में निरन्तर परिष्कार की जैसी ललक उनमें दिखती है, वैसी अन्यत्र कम ही मिलती है। उनके पहले नवगीत संग्रह 'एक बूँद हम' के नवगीत भी शानदार हैं। किन्तु 'धूप भरकर मुट्ठियों में' में वे एक नये तेवर के साथ दिखाई देते हैं। और अब उसके बाद के उनके नवगीत, जो हम इधर पढ़ रहे हैं, उनका तेवर उल्लेखनीय है। इधर के नवगीतों में वे आधुनिक भावबोध से बाहर निकलते हैं। यह जद्दोजहद उनके पहले दोनों संग्रहों में भी दिखाई पड़ती है, किन्तु इधर की नवगीत कविताओं में गहरी समकालीनता मिलती है। इस बात पर मेरी हार्दिक बधाई।
मनोज जैन जितना अपनी नवगीत कविताओं के लिए जाने जाते हैं, उतना ही वे नवगीत पर एकाग्र अपने फेसबुक समूह के लिए भी पहचाने जाते हैं।
आज प्रस्तुत नवगीत कविताओं के लिए मनोज जैन जी को पुनः बधाई।
सादर
राजा अवस्थी, कटनी
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एक दम करारे नव गीत।
शब्द की टंकार, व्यंग्य में।
विसंगतियों पर कटाक्ष करते।
पाठक को उद्वेलित करते।
अपनी लय में बहा ले जाने को आतुर।
सहज, भावप्रवण।
मनोज जी बधाई
मनोज जी की रचनाएं। सहज, सरल, स्पष्ट रूप से सीधे सीधे अपने समय की चिंताओं को व्यक्त करती है। उत्कृष्ट सृजन
प्रदीप गवांडे
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बहुत सही कहा
आज मनोज जी के नवगीतों में gp को गुलज़ार कर दिया ।
सरल तरल कविताये ही मन को लुभाती हैं । धन्यवाद मधु दीदी
आभार मनोज जी।
अर्चना नायडू
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मनोज जी के नवगीत सहज सरल और गेय शैली में हैं जो पाठक और श्रोता दोनों को भावविभोर कर देते हैं
डॉ पद्मा शर्मा
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ठंडी शाम में सबका गर्म स्वागत के साथ सुबह से शाम तक पटल पर मनोज जी के नवगीत महक रहा है—-
सभी नवगीत-
गंगा नहाते हैं
बोल रहे हैं हर हर गंगे
हम बहुत क़ायल
उठी भागवत
बिराजा गाड़ी पर महाराज
चमचों का दौर
सभी नवगीत गीत के साथ समाज पे जहां पर ज़रूरत है वहाँ चोट करती हुई बहुत ही मारक नवगीत
अजय श्रीवास्तव
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प्रस्तुति वागर्थ