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मंगलवार, 3 अगस्त 2021

ब्रह्मजीत गौतम जी के दोहे : प्रस्तुति ब्लॉग वागर्थ

परिचय-विवरण
नाम डॉ. ब्रह्मजीत गौतम 
जन्म-तिथि २८ अक्टूबर, १९४० 
शिक्षा       एम. ए., पी-एच. डी. (हिन्दी) 
प्रकाशित कृतियाँ गद्य और पद्य में कुल ग्यारह पुस्तकें ।  
गद्य -- १. कबीर-काव्य में प्रतीक-विधान (शोध ग्रंथ), २. कबीर-प्रतीक-कोश (कोश ग्रंथ), ३. जनक छन्दः एक शोधपरक विवेचन (शोध पुस्तक) पुरस्कृत, ), ४. दृष्टिकोण (समीक्षा-संग्रह), 
पद्य -- ५. अंजुरी (काव्य-संग्रह) पुरस्कृत,  ६. वक़्त के मंज़र (ग़ज़ल-संग्रह),  ७. दोहा-मुक्तक-माल (मुक्तक-संग्रह), ८. जनक छंद की साधना (जनक छंद संग्रह), ९. एक बह्र पर एक ग़ज़ल (ग़ज़ल-संग्रह) पुरस्कृत,  १०. दोहे पानीदार (दोहा-संग्रह), ११. करती है अभिषेक गज़ल (छोटी बह्र की ग़ज़लें) |   
पुरस्कार / सम्मान १. ‘साहित्य-सेवी (बिजनौर), २. ‘कविवर मैथिलीशरण गुप्त अ.  भा. सम्मान’ (मथुरा), ३. ‘राष्ट्रभाषा रत्न’ (कुशीनगर), ४. ‘साहित्यश्री’ (जबलपुर), ५. ‘शाने अदब’ (झाबुआ),  ६.‘हिन्दी साहित्य गौरव’ (ठाणे, महाराष्ट्र) ७. ‘वतन के राही कविरत्न’ (दुर्ग). ८. ‘कविगुरु रवीन्द्रनाथ ठाकुर सारस्वत साहित्य सम्मान’ (भारतीय वाङ्मय पीठ, कोलकाता), ९. ‘डॉ. रमेशचन्द्र चौबे सम्मान’ (कादम्बरी, जबलपुर), १०. ‘साहित्य रत्न’ (सत्कर्मी यशाश्रित सेवाभावी हिन्दी संस्थान महाराष्ट्र), ११. ‘समीक्षाश्री’ (शिव संकल्प साहित्य परिषद्, नर्मदापुरम), १२. ‘हिन्दी साहित्य मनीषी’ (साहित्य-मंडल, श्रीनाथ-द्वारा, राजस्थान), १३. श्रेष्ठ कला आचार्य (मधुवन, भोपाल), १४. ‘श्री हरिशंकर श्रीवास्तव स्मृति सम्मान’ (गयाप्रसाद खरे स्मृति मंच, भोपाल) |           
व्यवसाय       : म.प्र. शासन के उच्च शिक्षा विभाग में हिन्दी-प्रोफेसर के पद से अवकाश-प्राप्त।  सम्प्रति : स्वतंत्र साहित्य-लेखन |  
सम्पर्क : युक्का-२०६, पैरामाउण्ट सिम्फनी, क्रॉसिंग रिपब्लिक, ग़ाज़ियाबाद     (उ. प्र.) २०१०१६   
चलभाष   : ९७६०००७८३८,  ९४२५१०२१५४०  
व्हाट्सएप   : ९७६०००७८३८ 
ई-मेल   : bjgautam2007@gmail.com       
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दोहे – 

वर दे वीणावादिनी, कुछ ऐसा अनुकूल, 
मेरी कविता से झरें, राष्ट्रवाद के फूल ! 

आज मनुज है हो गया, सूरजमुखी-समान
लाभ जिधर है देखता, करता उधर रुझान 

सोच सकारात्मक रखें, फिर देखें परिणाम
‘मरा-मरा’ कहते हुए, मुख से निकले ‘राम’ !

बाबू जी, तुम धन्य हो, कैसा किया कमाल।
मुर्दा पेंशन पा रहा, ज़िन्दा नोंचे बाल।। 

काम कराना हो अगर, रखिये पेपर-वेट। 
जितना भारी काम हो, उतना भारी रेट।। 

पूजा-भेट बिना, नहीं ख़ुश होते भगवान। 
फिर कैसे ख़ुश हों भला, अधिकारी श्रीमान।। 

पैसे में वह शाक्ति है, बजे फूँक बिन शंख। 
फाइल पर पैसा रखो, लग जायेंगे पंख।। 

लोक-तंत्र पर चढ़ गयी तंत्र-लोक की बेल।
नेता बाज़ीगर बने, जनता देखे खेल।।

जातिवाद, क्षेत्रीयता, मज़हब, भाषा-भेद।
लोकतंत्र की नाव में देखो कितने छेद।।

नारे, भाषण, रैलियाँ, जाम, बन्द, हड़ताल।
इनमें दब कर रह गया लोकतंत्र का भाल।।

अमरबेल नेता बने, अफ़सर गाजर घास।
लोकतंत्र का पेड़ फिर, कैसे करे विकास।।

नागफनी औ’ बेशरम उगते जहाँ तमाम।
रखवाला उस देश का कौन सिवाए राम।।

बेटा ! पढ़ना छोड़ दे, देख समय की चाल।
राजनीति में कूद जा, होगा मालामाल।।

पानी सूखा ताल का, तल में पडीं दरार। 
जैसे फट जाते हृदय, खा धोखे का वार।। 

गरज-गरजकर कल तलक, गिरा रहे थे गाज।
पानी-पानी हो गये वे सब बादल आज।। 

ओ पानी के बुलबुले ! करता क्यों अभिमान।
हवा चली हो जायगा, पल में अंतर्धान।।

पानी उतरा ताल का, सूखे पुरइन, पद्म।
पद छिनते ही ज्यों खुलें, नेता के छल-छद्म।।

पानी की लहरें गिनें, या पानी के मोड़।
रिश्वतख़ोरों के लिए, हर धंधा बेजोड़।।

पानी, छाया, धूप से, पूछो उनका रंग।
तब तुम लड़ना बेझिझक, जाति-धर्म की जंग।।

पानी जिसका मर गया, बची न उसकी शान।
चाहे कोई पेड़ हो, या फिर हो इंसान ।। 

चट्टानों को चीरकर, ऊपर आती घास।  
कहती है – संघर्ष से, मिलता है उल्लास।। 


दूर प्रकृति से हो रहे, हम तजकर निज धर्म। 
अच्छे लगते हैं हमें, कृत्रिमता के कर्म।। 

हरियाली कम हो रही, सूख रहे जल-स्रोत। 
ऊसर में कैसे भला, तैरे जीवन-पोत।। 

ख़ुद जलकर दीपक सदा, देता है उजियार। 
स्वार्थी नर ! तू सीख ले, करना कुछ उपकार।।  

बीच नदी होकर खडा, निभा रहा निज धर्म। 
पुल ने कूल मिला दिये, किया लोकहित कर्म।। 

सोच सकारात्मक रखें, फिर देखें परिणाम। 
‘मरा-मरा’ कहते हुए, मुख से निकले ‘राम’।।  

मत कहना होगा वही, जो किस्मत का लेख। 
पुरुषार्थी जन ठोकते, सदा भाग्य में मेख।। 

जो करना है आज कर, कल पर छोड़ न काम। 
पता नहीं कब काल का, आ जाये पैग़ाम।। 

धूप पड़े, देता तभी, तरुवर छाँह ललाम। 
भयवश ही करता मनुज, जग-हितकारी काम।। 

हमने पश्चिम के सभी, दुर्गुण किये गृहीत। 
छोड़ दिए संस्कार निज, पावन और पुनीत।।  

माँ करुणा का छंद है और प्रेम का गीत। 
उसके आगे हेय है, स्वर्गानंद पुनीत।। 

पल-भर में मिट जायगी, चिंताओं की रेख।  
माँ के आँचल में तनिक, सोकर तो तू देख।।  


उस माता को क्या कहें, क्या दें उसको नाम। 
जो बेटी का कोख में, करती काम तमाम।। 

गायन, भाषण, कवि-कला, तन्त्र-मन्त्र, सुर-ताल।
सिखला देती व्यक्ति को कुर्सी सभी कमाल।।

कुर्सी में वह ताप है, वह ऊर्जा वह आर्ट | 
बूढा भी पाकर जिसे, बन जाता है स्मार्ट || 

अंधा बाँचे फ़ारसी, गूँगा भाषण-वीर | 
पंगु कबड्डी खेलता, कुर्सी की तासीर || 

कुर्सी तू वह दीप है, जिसके चारो ओर | 
लोग शलभ-से नाचते, होकर भाव-विभोर || 

कवि केवल सर्जक नहीं, मरजीवा है एक, 
भाव-सिन्धु में पैठकर, लाता रत्न अनेक ! 

पत्थर बोला नींव का, सुन रे दम्भी स्तम्भ,  
तू मुझ पर ही है खडा, फिर भी करता दम्भ !  

भरी दुपहरी में दिखा, आज सुनहरा चाँद, 
फिर क्या था, मन बावला, गया देहरी फाँद ! 

अलकों में काली घटा, आनन में राकेश, 
उलझन में मन का हिरन, अब जाये किस देश ! 

हमें सियासत में मिले, ऐसे भी कुछ लोग, 
जेल पहुँचना था जिन्हें, किन्तु पा रहे भोग ! 

हिंदू, मुस्लिम, सिक्ख हैं, है कोई ख्रिस्तान, 
इन सब में ढूँढ़ू कहाँ, अपना देश महान ! 

अलगू-जुम्मन के नहीं, हल हो रहे सवाल, 
शहर घुसा हर गाँव में, सूनी है चौपाल ! 

उस नन्हे खद्योत को, बारम्बार प्रणाम।  
जो करता है रात में, तम का काम तमाम।। 

करते हैं अब साँप सब, आस्तीनों में वास।  
बाँबी से बढकर उन्हें, यहाँ सुरक्षा ख़ास।। 

कोई चारा खा रहा, कोई खाता खाद।  
नेताओं के स्वाद की देनी होगी दाद।। 

चिड़िया रचती घोंसला, चुनकर तिनके, घास।   
पंख उगे, बच्चे उड़े, चिड़िया हुई उदास।। 

मात-पिता से भी अधिक, है डॉलर से प्यार।  
पुत्र तभी तो उड़ चला, सात समुन्दर पार।। 

जलकर जिसने रात-भर, बाँटी ज्योति नवीन।  
सुबह बुझाकर दीप वह, कर डाला श्रीहीन।। 

जो भू पर न बना सके, एक प्रेम का सेतु।  
जा पहुँचे वे चाँद पर, शहर बसाने हेतु।। 

ज्यों ही देखा सूर्य ने, करके आँखें लाल।  
सभी अँधेरे राह के, भाग गये तत्काल।। 

डरी-डरी है हर कली, सहमे-सहमे फूल।  
उग आये हैं चमन में, कैक्टस और बबूल।। 

तिनका चढ़ा पहाड़ पर, करे हवा से बात।  
हवा थमी तो दिख गयी, तिनके की औक़ात।।  

तिल औ’ गुड दोनों मिटे, लिया नया आकार।  
जो न मिटा सकता अहं, कैसे बाँटे प्यार।। 


दारुण आपत्काल-सी, गयी ग्रीष्म कुख्यात।  
राजनीति-सी लिजलिजी, आ पहुँची बरसात।।  

दारुण आपत्काल-सी, गयी ग्रीष्म कुख्यात।  
राजनीति-सी लिजलिजी, आ पहुँची बरसात।। 

पीते हैं घी-दूध नित, पत्थर के भगवान।  
शिल्पकार उनके मगर, तजें भूख से प्रान।। 

प्यार और शतरंज में, है समान यह बात।  
पता नहीं किस मोड़ पर, हो जाये शह-मात।। 

बनी राष्ट्र-भाषा नहीं, बीते सालों-साल।  
वोट-तन्त्र में उलझकर, हिन्दी है बदहाल।। 

बस कागज़ पर हैं खुदे, कुएँ, बावडी, ताल।   
गाँवों में तो आज भी, है विकास बेहाल।। 

मंदिर, मस्जिद, चर्च में, ढूँढ रहे क्या मित्र।  
अंतस्तल में झाँकिये, है उसका ही चित्र।। 

रख पाओगे बादलो ! कब तक रवि को क़ैद।  
छिन्न-भिन्न करने तुम्हें, हवा हुई मुस्तैद.। 

सारी नदियाँ पी गया, फिर भी बुझी न प्यास।  
रे समुद्र ! तू आज का, पूँजीपति है ख़ास।। 

स्वयं मालियों ने किया, अपना चमन तबाह।  
दोष आँधियों पर मढा, वाह सियासत, वाह।। 

अग-जग में फैली वबा, विश्व हुआ बदहाल। 
कब जायेगी व्याधि यह, सबका यही सवाल।। 


कोरोना को रो रहे, किन्तु न देते ध्यान। 
भीड़ बढ़ाकर सड़क पर, दिखा रहे हैं शान।। 

कोरोना आता नहीं, चलकर अपने पाँव। 
वह पैरों से आपके, घूम रहा हर ठाँव।। 

बेशक है लंबी निशा, और अँधेरा घोर। 
पर क्या रोके से रुका, कभी सुनहरा भोर।। 
  
दोहों में हैं ‘जीत के, कितने गूढ़ विचार।  
जैसे मिलते सीप में, मोती पानीदार।।  

डॉ. ब्रह्मजीत गौतम 
युक्का-२०६, पैरामाउण्ट सिंफनी 
क्रॉसिंग रिपब्लिक, ग़ाज़ियाबाद – २०१०१६ 
    चलभाष : ९७६०००७८३८,  ९४२५१०२१५४ 
 

प्रभु त्रिवेदी जी के दोहे प्रस्तुति ब्लॉग वागर्थ

_______समकालीन दोहा
             तीसरा पड़ाव
             दूसरी किस्त
             बत्तीसवीं कड़ी
             दोहाकार कवि प्रभु त्रिवेदी 
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             21,अगस्त 1955 में जन्में प्रभु त्रिवेदी जी सिद्धहस्त दोहा सर्जक हैं। उन्होंने विविध विषयों में बाक़ायदा सीरीज में दोहे लिखे और उठाये गए विषयों के साथ पूरा न्याय किया। 
             प्रभु त्रिवेदी जी के दोहों में परिवेश,परम्परा और आध्यात्मिक नवीनता देखने को मिलती है। कथ्य और शिल्प की दृष्टि से आपके दोहे निर्दोष होते हैं। प्रस्तुत दोहों में विविध स्तरों पर समकालिक बोध सहज ही आभाषित होता है।
             दोहों की इस सीरीज के लिए सामग्री उपलब्ध कराने के हेतु समूह वागर्थ कवि का आभार व्यक्त करता है।
         प्रस्तुति
 ©वागर्थ ब्लॉग
 ©वागार्थ समूह 

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सूचना
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 स्वास्थ्यगत कारणों से हम कुछ दिनों के लिए इस सीरीज को यहीं विराम दे रहे हैं।
जिन मित्रों ने इस सीरीज के लिए हमें सामग्री भेजी है उस पर काम लौटकर सम्पन्न करेंगे।
मिलते हैं एक अंतराल के बाद
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              प्रस्तुत हैं कवि प्रभु त्रिवेदी जी के दोहे
             ____________________________

1
चूल्हा-लकड़ी-रोटियाँ, धुआँ-भोंगली आग
माँ ने आँखें झोंककर, बाँट दिया अनुराग
2
एक ओर गूगल जले, एक ओर लोबान
एक बह्म को बाँटता, ऐ! मूरख नादान
3
उलटे पासे पड़ गए, कल तक थे अनुकूल
कितनी पीड़ा दे गई, ‘दशरथ’ की इक भूल
4
सच्चा सौदा है वही, जो दे ख़ुशी अपार
यूँ तो झूठों के सदा, फलते दिखे विचार
5
धन की सत्ता मोह ले, करवा दे दुष्कर्म
होने में निर्वस्त्र अब,कहाँ  आ  रही शर्म
6
पहने मंगल-सूत्र को, बचा रखे वह लाज
विधवा की निर्लज्जता, कहता लोक-समाज
7
झूठ कभी छुपता नहीं, दिल में रहता साँच
अगर छुपाया झूठ को, चटकेगा फिर काँच
8
जीते जी पूछा नहीं, कभी न झाँका द्वार
मरते ही कहने लगे, हम भी हैं हक़दार
9
आँखें रोतीं बाप की, जीवन में दो बार
बेटा जब मुँह मोड़ता, बेटी छोड़े द्वार
10
माना आँखें थीं नहीं, हृदय कहाँ था पास
एक पिता की धृष्टता, बदल गई इतिहास
11
कुछ दुख किस्मत ने दिये, कुछ मिल गये उधार
सुख बस चर्चा में रहा, जीवन भर निस्सार
12
मिलते हैं प्रारब्ध से, पैसा-पत्नी-पूत
व्यर्थ सभी अभ्यर्थना, पूजन-पाठ-भभूत
13
पद-पैसे के मोह ने, ऐसा फेंका जाल
धूनीवाले संत भी, फिसल गए तत्काल
14
उभय पक्ष की मित्रता, मिले सभी को नेक
चाहे हों दस-बीस पर, ख़ास मित्र हो एक
15
मीठे जल को पी रहा, रत्नाकर यह जान
खारेपन का हो कभी, नदियों से अवसान
16
दादा का बरगद मरा, पापाजी का नीम
नई सड़क से हो गई, पीढ़ी तीन यतीम
17
राम नहीं, पर राम-सम,गढ़ना अगर चरित्र |
फिर कोई वशिष्ठ बने, या फिर विश्वामित्र ||
18
तत्त्व-ज्ञान से हैं भरे,गीता-वेद-पुराण |
माटी में भी फूँककर , पैदा कर दे प्राण ||
19
जहाँ उच्च थी भावना , -ज्ञान रहा आदर्श |
वहाँ अर्थ से जुड़ गया,शिक्षण और विमर्श ||
20
शर्मिंदा तब हो गए, गुरुओं के सद्कार्य |
गए कोरवों के यहाँ , जब से द्रोणाचार्य ||
21
वृद्ध शब्द को भूलिये , रखिये याद वरिष्ठ |
ये अनुभव सम्पन्नता,यों ही नहीं प्रतिष्ठ ||
22
दुश्मन जैसे लग रहे , मौसम के बदलाव |
शहर संक्रमण से भरा, गाँव भूख के घाव ||
23
नई पीढ़ियाँ सीख लें, झुकने के निहितार्थ |
झुकने से मिलते यहाँ, भैया सकल पदार्थ ||
24
दमक-दमककर दामिनी,हृदय करे भयभीत |
धरा-गगन की शुष्कता, सचमुच शब्दातीत ||
25
अश्रु सूख कर आँख में , -भोग रहे वैधव्य |
व्यर्थ-व्यर्थ लगने लगा,गाड़ी-कोठी-द्रव्य ||
26
लहर-लहर में गरल है, भूल-भूल अमरत्व |
काल खड़ा निर्लज्ज अब, भुला रहा देवत्व ||
27
रक्तवाहिनी में पिता, दौड़ रहे दिन- रात |
जीवित लगते है सदा, छायाप्रति अज्ञात ||
28
मोबाइल में हैं फँसे , --कोठी और कुटीर |
उसमें ही भगवान हैं, आओ भक्त कबीर ||
29
कुरता-धोती-चप्पलें,चश्मा-क़लम-दवात |
पिता छोड़कर चल दिए , यादों की बारात ||
30
रद्दी में 'बच्चन' पड़े,सिसके स्वयं 'प्रसाद' |
'महाप्राण ' के छंद का, ठेले पर अनुवाद ||
31
फटे पृष्ठ मस्तक धरे, पहले किया प्रणाम |
क्षमा याचना की बहुत, मुँख बोला हे राम ||
32
सदी छीनने को खड़ी, पुस्तक का उपहार |
जिन्हें सहेजा प्यार से, हमने सौ-सौ बार || 

प्रभु त्रिवेदी
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परिचय
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प्रभु त्रिवेदी
पिता- स्व. पंडित श्रीकृष्ण त्रिवेदी
माता- श्रीमती गोपीदेवी त्रिवेदी
जन्म- 21 अगस्त 1955, भोपाल 
शिक्षा-दीक्षा- रानापुर जिला झाबुआ (म.प्र.)
शिक्षा- तीन विषयों में स्नातकोत्तर, विद्यावाचस्पति, शोधरत।
लेखन विधाएँ- कविता, गीत, दोहे, लघुकथा, कहानी, समीक्षा व चिंतनपरक आलेख। लोकप्रियता दोहों के माध्यम से। ‘दोहा उद्भव-विकास और आज’ प्रकाशनाधीन।
प्रकाशन- चारों दोहा संग्रह पुरस्कृत
1 - झुकता है आकाश (2009), 2 - धरती के उपहार (2011),
3 - शब्द-शब्द में चित्र (2013), 4 - आँखों के अनुबंध (2013),
5 - ई-बुक - माँ की शीतल छाँव (2020), 6 - ई-बुक - पिता प्राण परिवार के (2020)
7 - ई-बुक - प्रिये! तुम्हारा प्यार (2020)   
राष्ट्रीय स्तर पर विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं यथा- कादम्बिनी, नवनीत, हंस, पाखी, मधुमती, हरिगंधा, अक्षरा, सरस्वती सुमन, वीणा, ज्ञानोदय आदि में विगत तीन दशकों से असंख्य रचनाओं का प्रकाशन। म.प्र.लेखक संघ, भोपाल, हिंदी परिवार, इंदौर, श्री मध्यभारत हिंदी साहित्य समिति, इंदौर आदि साहित्यिक व सांस्कृतिक संस्थाओं से सम्बद्धता। आकाशवाणी व दूरदर्शन से समय-समय पर प्रसारण।
सम्मान/पुरस्कार
अर्चना सम्मान (2006) महू, कादम्बरी सम्मान (2010) जबलपुर, कृति कुसुम सम्मान (2013) इंदौर, साहित्य गौरव सम्मान (2014) बल्लारी-कर्नाटक, काव्यश्री पुरस्कार (2014) नर्मदापुरम् होशंगाबाद, अर्चना सम्मान (2014) महू, काव्यकलाधर सम्मान (2016) साहित्य मंडल, श्रीनाथद्वारा, शब्दशिल्पी सम्मान (2016) अभिनव कला परिषद्, भोपाल, हिंदी भाषा भूषण सम्मान (2016) साहित्य-कला एवं संस्कृति संस्थान, श्रीनाथद्वारा, कादम्बरी सम्मान (2017) कादम्बरी साहित्यिक संस्था, जबलपुर, पुष्कर जोशी स्मृति सम्मान (2017) म.प्र लेखक संघ, भोपाल।
विशेष - ज्योतिष पर विशेष कार्य। सैकड़ों आलेख व समीक्षाएँ प्रकाशित।
सम्प्रति- भारत सरकार के सार्वजनिक उपक्रम ‘युनाइटेड इंडिया इंशुरेंस कं. लि. में वरिष्ठ प्रशासनिक अधिकारी पद से (2004) स्वैच्छिक सेवा निवृत्ति। प्राध्यापक व प्राचार्य भी रहे। तद्नन्तर स्वतंत्र साहित्य सृजन।
सम्पर्क - ‘प्रणम्य’, 111, राम रहीम काॅलोनी, राऊ, जिला इंदौर (म.प्र.) 453-331
इमेल- prabhutrivedi21@gmail.com
चलित भाष- 9425076996 , 9755586272

शुक्रवार, 30 जुलाई 2021

प्रभु त्रिवेदी



चूल्हा-लकड़ी-रोटियाँ, धुआँ-भोंगली आग
माँ ने आँखें झोंककर, बाँट दिया अनुराग

एक ओर गूगल जले, एक ओर लोबान
एक बह्म को बाँटता, ऐ! मूरख नादान

उलटे पासे पड़ गए, कल तक थे अनुकूल
कितनी पीड़ा दे गई, ‘दशरथ’ की इक भूल

सच्चा सौदा है वही, जो दे ख़ुशी अपार
यूँ तो झूठों के सदा, फलते दिखे विचार

धन की सत्ता मोह ले, करवा दे दुष्कर्म
होने में निर्वस्त्र अब, कहाँ आ रही शर्म

पहने मंगल-सूत्र को, बचा रखे वह लाज
विधवा की निर्लज्जता, कहता लोक-समाज

झूठ कभी छुपता नहीं, दिल में रहता साँच
अगर छुपाया झूठ को, चटकेगा फिर काँच

मन को पढ़ने की कला, समझ लीजिए आप
घर बैठे ख़ुशियाँ मिलें, मिटें शोक- संताप

जीते जी पूछा नहीं, कभी न झाँका द्वार
मरते ही कहने लगे, हम भी हैं हक़दार

आँखें रोतीं बाप की, जीवन में दो बार
बेटा जब मुँह मोड़ता, बेटी छोड़े द्वार

माना आँखें थीं नहीं, हृदय कहाँ था पास
एक पिता की धृष्टता, बदल गई इतिहास

यद्यपि हो वामांगिनी, कहता यही समाज
दोनों अंगों पर मगर, करो नित्य ही राज

बेटी जैसा प्यार जब, मिले सास के पास
सारा सुख संसार का, उस घर करे निवास

कुछ दुख किस्मत ने दिये, कुछ मिल गये उधार
सुख बस चर्चा में रहा, जीवन भर निस्सार

पूजन-अर्चन-धर्म का, एक रसायन मान
पुण्य-भाव से है जुड़ा, रोटी का विज्ञान

मिलते हैं प्रारब्ध से, पैसा-पत्नी-पूत
व्यर्थ सभी अभ्यर्थना, पूजन-पाठ-भभूत

पद-पैसे के मोह ने, ऐसा फेंका जाल
धूनीवाले संत भी, फिसल गए तत्काल

उभय पक्ष की मित्रता, मिले सभी को नेक
चाहे हों दस-बीस पर, ख़ास मित्र हो एक

मीठे जल को पी रहा, रत्नाकर यह जान
खारेपन का हो कभी, नदियों से अवसान

दादा का बरगद मरा, पापाजी का नीम
नई सड़क से हो गई, पीढ़ी तीन यतीम

राम नहीं, पर राम-सम,गढ़ना अगर चरित्र |
फिर कोई वशिष्ठ बने, या फिर विश्वामित्र ||

तत्त्व-ज्ञान से हैं भरे,गीता-वेद-पुराण |
माटी में भी फूँककर , पैदा कर दे प्राण ||

जहाँ उच्च थी भावना , -ज्ञान रहा आदर्श |
वहाँ अर्थ से जुड़ गया,शिक्षण और विमर्श ||

शर्मिंदा तब हो गए, गुरुओं के सद्कार्य |
गए कोरवों के यहाँ , जब से द्रोणाचार्य ||

वृद्ध शब्द को भूलिये , रखिये याद वरिष्ठ |
ये अनुभव सम्पन्नता,यों ही नहीं प्रतिष्ठ ||

बूढ़ा - बुज़ुर्ग शब्द ये , करें कोष में बंद |
रचते रहिये नित्य ही,नई सुबह के छंद ||

दुश्मन जैसे लग रहे , मौसम के बदलाव |
शहर संक्रमण से भरा, गाँव भूख के घाव ||

जननी-जन्मभूमि यहीं, यहीं जाह्नवी मित्र |
जनक-जनार्दन भी यहीं,यहीं जकार सचित्र ||

नई पीढ़ियाँ सीख लें, झुकने के निहितार्थ |
झुकने से मिलते यहाँ, भैया सकल पदार्थ ||

चपल-चपल चपला करे,घन गरजे घनघोर |
प्रिये! आँजना आँख की, तभी कजीली कोर ||

दमक-दमककर दामिनी,हृदय करे भयभीत |
धरा-गगन की शुष्कता, सचमुच शब्दातीत ||

अश्रु सूख कर आँख में , -भोग रहे वैधव्य |
व्यर्थ-व्यर्थ लगने लगा,गाड़ी-कोठी-द्रव्य ||

जन्म-मृत्यु निश्चित यहाँ,व्यर्थ हमें आश्चर्य |
यही जीवनी शक्ति है, ----जग का नैरन्तर्य ||

लहर-लहर में गरल है, भूल-भूल अमरत्व |
काल खड़ा निर्लज्ज अब, भुला रहा देवत्व ||

रक्तवाहिनी में पिता, दौड़ रहे दिन- रात |
जीवित लगते है सदा, छायाप्रति अज्ञात ||

मोबाइल में हैं फँसे , --कोठी और कुटीर |
उसमें ही भगवान हैं, आओ भक्त कबीर ||

कुरता-धोती-चप्पलें,चश्मा-क़लम-दवात |
पिता छोड़कर चल दिए , यादों की बारात ||

ठेले पर पुस्तक दिखीं,रोका गया कबाड़ |
सोचा रोयें सड़क पर , --मारें ख़ूब दहाड़ ||

रद्दी में 'बच्चन' पड़े,सिसके स्वयं 'प्रसाद' |
'महाप्राण ' के छंद का, ठेले पर अनुवाद ||

फटे पृष्ठ मस्तक धरे, पहले किया प्रणाम |
क्षमा याचना की बहुत, मुँख बोला हे राम ||

सदी छीनने को खड़ी, पुस्तक का उपहार |
जिन्हें सहेजा प्यार से, हमने सौ-सौ बार || 41

-प्रभु त्रिवेदी 

सोमवार, 26 जुलाई 2021

मनीष बादल के समकालीन दोहे प्रस्तुति : ब्लॉग वागर्थ


मनीष बादल के समकालीन दोहे
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गन्ने से गुड़ बन रहा, गमका सारा गाँव।
दोना  लेकर  आ  गये, बच्चे  नंगे पाँव।।

पंचायत महुआ तले, हुक्का पीती जाय।
बेला  है  गोधूलि ये, लौटें  घर को  गाय।।

ओसारे खटिया  पड़ी, लेटे  पाहुन ख़ास।
सरहज पूड़ी तल रहीं, बेना झलती सास।।

समय-समय पर कीजिये, समय-समय की बात।
समय-समय की सीख से, समय   सुधारें   तात।।

अरुणोदय की  रश्मियाँ, निशा  न  पाई   रोक।
अतुल अरुण आभा करे, सकल जगत आलोक।।

हार नहीं है सोचता, नहीं सोचता जीत।
"बादल"  चाहे  तैरना, धारा के विपरीत।।

हार नहीं हरदम बुरी, जीत न हरदम  नेक।
सीमा में अच्छे सभी, बुरा सदा अतिरेक।।

रिश्तों की तुरपाइयाँ, अब करता है कौन।
रिश्ते  झीने क्या  हुए, सब हो जाते मौन।।

जहाँ पनपता है नहीं, शक़ का छूआ-छूत।
रिश्तों  की  होती  वहीं, बुनियादें  मजबूत।।

अक्सर  मारा वो गया, करता सच की बात।
विष का प्याला आज भी, पीता है सुकरात।।

बूँद ओस की कर रही, फूलों पर विश्राम।
सेज न उनकी तोड़िये, ले पूजा का नाम।।

आनन से पढ़ लीजिये, उसके मन को आप।
खुल कर कहता है नहीं, वो   अपने   संताप।।

सोच-समझ कर बोलिये, रहे न कोई खेद।
नाव  डुबोने  के  लिये, एक  बहुत है  छेद।।

कोई   चैती  गा  रहा, गाता   कोई  फाग।
सभी अलापे जा रहे, अपना-अपना राग।।

सतयुग-त्रेता  में मिले, द्वापर-कलयुग संग।
हर युग में हमको दिखे, श्वेत- श्याम से रंग।।

युगों - युगों  से   देखिए, लोभ   रहा  बलवंत ।
प्रभु सांसें गिनकर दिए, ख़्वाहिश दिए अनंत।।

पूनम  की  है  चाँदनी, कभी  अमावस  रात।
इससे ज़्यादा कुछ नहीं, जीवन की औक़ात।।

प्रतिभा का सम्मान से, दिखे नहीं अब मेल।
मुकुट उसे जो जीतता, साम-दाम का खेल।।

बादल  से बूंदें लिया, लिया  धरा से धूल।
वादी  में  फैला  रहा,  हर सूँ  ख़ुश्बू फूल।।

"बादल" बादल से कहे, बादल हो तुम ख़ास।
बादल-बादल  बूँद  हो, बादल-बादल प्यास।।

छोटी - छोटी  हार  पर, मम्मी  लेतीं  "पेन"।
पर मुझको समझा रहीं, "बेटा ट्राय अगेन" ।।

बच्चों  को हूँ  डांटता, जब वो  करते भूल।
बच्चे कहते आज के, "कम ऑन डैड, कूल"।।

विपदा में रखिए सदा, मति पर निज विश्वास।
कंकर, गागर  डालकर,  काग  बुझाए  प्यास।।

चाकू-खंजर  से  लगे,  कभी किये हैं ख़ून।। 
कभी नोच घायल किये, जिह्वा के नाखून।।

दिनकर के सँग आचरण, मानव करे विचित्र।
गर्मी  भर  दुश्मन   कहे,  सर्दी   आते   मित्र।।

आख़िर क्यों बदनाम वो, क्या उसमें है खोट।
छेनी  तो  मूरत  गढ़े,  ख़ुद पर  खाकर चोट।।

छत भी जिनकी है नहीं, ऊनी वस्त्र न गात।
उनको हत्यारिन  लगी, ठिठुरन वाली रात।।

दोहन   दोनों  कर  रहे,  ग्वाला - साहूकार।
दुग्धामृत दे एक तो, एक ब्याज की मार।।

उलट-पलट  पढ़ते  रहें, जीवन  के  अध्याय।
'निज अनुभव' ही श्रेष्ठ है, पुस्तक का पर्याय।।

सेहत से रोटी बड़ी, तभी रहा वो खाँस।
भर गुब्बारा  बेचता, बूढ़ा  अपनी साँस।।

नहीं जमेगी स्वार्थ की, दही कभी भी मीत।
मानवता - मथनी  मथे, मिले  नेह  नवनीत।।

हिम्मत देती है बहुत, 'बादल' को ये सीख।
सत्य नहीं है माँगता, कभी समर्थन-भीख।।

ग़ज़ल लिखे, दोहे लिखे, मुक्तक या फिर गीत।
'बादल' ने  जब भी  लिखे, या आंसू  या प्रीत।।

दोनों का  व्यवहार ये,  कितना है विपरीत।
युवा भविष्य जीता सदा, बूढ़ा सदा अतीत।।

झूठों का  आदर यहाँ, झूठों की ही ठाठ।
हरियाली है  झूठ से, सच है सूखी काठ।।

नयनों में ही झाँकिये, जब पढ़ना हो मौन।
नयन सदा सच बोलते, इनसे सच्चा कौन।।

मुस्कानों में  खोजिए, उसके  सारे घाव।
चेहरे पर वो लेपता, ख़ुशहाली के भाव।।

ख़ामोशी से कर लिया, मैंने सब स्वीकार।
हारा  तो हारा  हुआ, जीता  तो  भी  हार।।

क्षिति जल नभ पावक हवा, पाँच तत्व हैं मूल।
इनसे   देह   मनुष्य  की, जीवन  के  अनुकूल।।

निज भाषा, निज संस्कृति, निज सीमा, निज ज्ञान।
जो   इनका   सुमिरन  करे, मानुष    वही   सुजान।।

मुश्किल ने फिर मान ली, उससे अपनी हार।
तुमको ये किस्मत लगे, कोशिश हमें अपार।।

लिखते-लिखते लिख गया, वो कुछ ऐसी बात।
मौन लगा  फिर बोलने, शब्द - शब्द  की  मात।। 

अंतर्मन में  जब  हुआ, अंधियारे  का  शोर।
आशा-किरणें आ गयीं, लेकर उजली भोर।।
  
सद्गुण सारे धुल गए, अहम् बिगाड़े काम।
ज्यों  नींबू  की बूँद  भी, फाड़े  दूध  तमाम।।
                             
फूलों  से  यारी  रखो , मुझे  न  जाओ भूल।
मैं माटी तो क्या हुआ, मुझसे ही फल- फूल।।
                             
सच को मैंने सच कहा, कहा झूठ को झूठ।
बस मुझसे मेरे सभी, गये  तभी  से  रूठ।।

मुखिया बैठा सोचता, हुई कहाँ पर भूल।
मैंने बोया आम था, उपजे मगर बबूल।।

गंगा-जमुना का मिलन, दे ढोलक पर थाप।
बहनों से आकर मिलीं, सरस्वती चुपचाप।।

निष्ठावान   नयन   सदा, धरते   दृश्य   पुनीत।
नित-नित नायक लिख रहा, नेह-पूर्ण नवगीत।।

अतिशयता अच्छी नहीं, हो चाहत या रार।
सीमा में रखिये सदा, अपने सब व्यवहार।।

अंतस में जो घोलते, हैं पुस्तक के ज्ञान।
मनसा वाचा कर्मणा, मानुष हुए महान।।

सबसे ही मुश्किल रहा, अंतर्मन का युद्ध।
राम-लखन जानें इसे, या फिर गौतम बुद्ध।।

परिचय

परिचय 
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नाम ---    मनीष बादल
पिता --- श्री विभूति प्रसाद श्रीवास्तव (से.नि. मुख्य प्रबंधक, भारतीय स्टेट बैंक)
माता --- श्रीमती विमला श्रीवास्तव (से.नि. प्रधानाचार्या)
शिक्षा ---एम.बी.ए. 
वर्तमान पेशा --- विगत चार वर्षों से व्यवसाय 
अतीत पेशा --- वोडाफ़ोन मोबाइल कंपनी, भोपाल म.प्र. में रिटेल हेड और अन्य कंपनियों में अलग-अलग पदों और स्थानों पर कार्यरत
लेखन विधा --- मुख्यतः ग़ज़ल, दोहे, मुक्तक, गीत, पैरोडी, कहानी, संस्मरण
प्रकाशन --- साझा प्रकाशित पुस्तकें.. 
(1) "कोरोना काव्यांजलि" 
 (2) परवाज़-ए-ग़ज़ल -5  
(3) काव्य प्रहरी। 
(4) दो अन्य ग़ज़ल साझा संग्रह (प्रकाशनाधीन)
समय-समय पर देश की अग्रणी समाचार पत्रों/और अग्रणी पत्रिकाओं में प्रकाशन
प्रसारण ---- दूरदर्शन, आकाशवाणी एवं अन्य नेशनल/प्रादेशिक टीवी चैनलों पर समय-समय पर प्रसारण
प्रकाशन - हंस, छपते-छपते एवं अन्य विभिन्न प्रतिष्ठित पत्रिकाओं समेत सभी राष्ट्रीय और प्रादेशिक समाचार पत्रों में प्रकाशन
अन्य --- 1.भोपाल में आयोजित सभी काव्य गोष्ठियों में भागीदारी 
2.राष्ट्रीय कवि सम्मेलनों/मुशायरों में भागीदारी 
प्रमुख उपलब्धि ---  क्रिकेटर सचिन तेंदुलकर पर लिखी सम्पूर्ण "सचिन चालीसा: द एंथम", मीडिया हॉउस - टी.वी. चैनल्स, समाचार पत्रों/ पत्रिकाओं/ एफ.एम. रेडियोज़ में प्रमुखता से  साक्षात्कार के साथ प्रमुख स्थान 
रुचि ---- लेखन के साथ-साथ लुप्तप्राय हो रहे "हवाइयन गिटार" बजाना, पुराने गाने गाना, चित्रकारी करना और समाज सेवा
वर्तमान पता --- फ्लैट न. टॉप - 3,  नर्मदा ब्लॉक,
अल्टीमेट कैंपस, शिर्डीपुरम, कोलार रोड, भोपाल - 462042 म. प्र.
मूल निवास - वाराणसी, उ.प्र.
मो न. - 8823809990



शनिवार, 24 जुलाई 2021

अतिरिक्त पोस्ट में कवि लक्ष्मीनारायण पयोधि के दोहे : प्रस्तुति ब्लॉग वागर्थ



कुछ कँटीले दोहे
*************

         (१)

पानी  पर  जितने  लिखे, थे  मैंने  अनुबंध।
अक्षर-अक्षर   वे  सभी, बने  अनुष्ठुप  छंद।

           (२)       

हैं  पूजा  के  थाल में, कुछ अक्षर सुर-ताल।
गीत  कंठ से फूटता, कुमकुम लगता भाल।

             ( ३)

धूप  खिली  हँसते  सुमन,बिखरे रंग-पराग।
गूँज  रहा  है हर तरफ़,फिर निसर्ग का राग।

               (४)

मेघ  पिता  का  प्यार  है, वर्षा माँ  का नेह।
बूँदें  झर-झर  झर  रहीं, और घुमड़ता मेह।

              (५)

जीवन को पढ़-पढ़ गुना,और लिखा बेलाग।
गिनने  वाले  गिन  रहे,  कितने  गहरे  दाग़।

            (६)

सब  दलाल  मुस्तैद  हैं, और कमीशनख़ोर।
सुविधाओं  की  होड़  में, आगे   चिन्दीचोर।

          (७)

राजनीति  के मंच पर, भिन्न सभी किरदार।
कोई   शातिर   चोर    है,  कोई  चौकीदार।

            (८)

बापू   तेरे   देश   में ,  सत्य  करे  वनवास।
चाटुकार   दरबार  के, बेहद  ख़ासमख़ास।

            (९)

आँखों  में  जाले  पड़े,  और मोतियाबिन्द।
वह  शैतानी  शक्ल को,कहता है अरविन्द।

             (१०)

निष्ठा  रख   दरबार  में, कर   तू  कारोबार।
सिद्धांतों  को  ताक  पर, रखने  को तैयार।

             (११)

फिर  बिल्ली  के भाग  से, छींका टूटा यार।
दरवाज़े  पर आ  खड़ी, पद लेकर सरकार।

               (१२)

जितना ऊँचा पद मिला,उतना विज्ञ-महान।
कुर्सी   छूटी  तो  हुए , विदा  ज्ञान-सम्मान।

               (१३)

आन गाँव के सिद्ध पर, किया अंधविश्वास।
बगुलों  के  षड़यंत्र से, बना गिद्ध का ग्रास।

             (१४)

आँखों  में  सपने  लिये, पंखों  में आकाश।
पंछी   मिलने  जा  रहा, सूरज  से  बिंदास।

              (१५)

दुखी  बिजूका  खेत में,फ़सलें और मचान।
आंदोलन  की राह पर, बेबस खड़े किसान।

              (१६)

मायावी  औघड़   हठी,  क्रूर   निशानेबाज़।
हत्यारे   का  आजकल, रोज़  नया अंदाज़।

            (१७)

इक  छोटे  जीवाणु  से, दुनिया है हलकान।
कोरोना   से   जंग   में, हारे   कई   महान।

             (१८)

जिस  काया से मोह है, देखो उसका हाल।
गठरी  काँधों  पर  लिये, जाते चंद सवाल।

           (१९)

अवसर है हर आपदा, जिनके हाथ गुलेल।
मानवता  देखे  विवश, कुछ  दुष्टों के खेल।

            (२०)

तूफ़ानों  में   नाव   का,  टूट  गया  मस्तूल।
जीवन  के  अनुबंध  में, जैसे  सभी उसूल।

            (२१)

अधजल गगरी में भरा,ऊपर तक अभिमान।
ख़ुद ही करता फिर रहा,अपना ख़ूब बखान।

            (२२)

सस्ता  सोशल मीडिया, बौराये  कुछ  लोग।
जो  मर्ज़ी लिख दो ख़बर, है प्रचार का रोग।

             (२३)

मौसम दिल का हो गया,ज़रा ख़ुशनुमा और।
घोर  उदासी का कठिन, बीत गया वह दौर।

             (२४)

सामाजिक  दूरी बढ़ी, गाँव-शहर सब ओर।
राजनीति ने काट दी, कुछ रिश्तों की डोर।     

           (२५)

सत्य कभी कुछ कल्पना,कभी लिखा बकवास।
कहने   वाले   कह   रहे,  हर   रचना  है  ख़ास।

             (२६)

निष्ठा  मौसम  की  तरह,  बदली  बारम्बार।
मतलब पूरा हो गया,किसको किससे प्यार।

               (२७)

केशकाल१  के  घाट से, उतर रहा  दिनमान।
शाम  पाँचवें  मोड़  पर, खड़ी अजब हैरान।

              (२८)

चला  माड़२  से  आयतू३, खाली  तूँबा४  साथ।
रान-खमन५  खाली  हुए, खाली-खाली हाथ।

            (३०)

महँगा  होता  जा  रहा, खाने  का  सामान।
सस्ते आँसू और कुछ,सहज हुआ अपमान।

             (३१)

बार-बार  होता   गया, ग़लती  का  दुहराव।
आया  जीवन  में  कहो, कैसा यह  ठहराव।

               (३२)

इधर  छूटते  जा  रहे,जीवन के सब गीत।
पहले से ज़्यादा अभी,है जंगल भयभीत।

             (३३)

कितना  उजड़ेगा  अभी,और दण्डकारण्य।
शाप  दण्ड६ को जो मिला,भोग रहे हैं अन्य।

           (३४)

अंधकार  का  भी अलग,होता है आलोक।
कोटमसर की मछलियाँ,नहीं मनातीं शोक।

            (३५)

चाँद  कभी  होता नहीं, लगता तुम्हें उदास।
जब जैसी मन की नज़र, वैसा ही आकाश।

              (३६)

बात  हवा  की  है सखी, फैले उसके साथ।
उड़ती-उड़ती जा लगी,  अफवाहों के हाथ।

            (३७)

तीखी   होती   जा  रही, संबंधों  की   धूप।
लगे   सूखने   आजकल, संवेदन  के  कूप।

             (३८)

राजनीति   में   आ   गये,  कैसे-कैसे   लोग।
जनसेवा  के  नाम  पर, सुविधाओं  का रोग।

            (३९)

पक्के   गायक  गा  रहे,  बस  दरबारी   राग।
मिली जगह दरबार में,कुछ बगुले कुछ काग।

            (४०)

किया  नींद  पर बेरहम, ख़्वाबों ने अधिकार।
ज़ालिम ऐसी मुफ़लिसी, करे कभी भी प्यार।

             (४१)

चाल-चलन के नाम पर,जिसे किया बदनाम।
सच्चे  मन  से  कर  रहा, मानवता का काम।

           (४२)

एक  रोग  भारी  पड़ा, बड़े-बड़ों  पर  आज।
धरी   रह  गयी   हेकड़ी,  बंद  हुई  आवाज़।

              (४३)

सूरज  उगता - डूबता,  बीत  रहे  दिन - रैन।
क़ैद   घरों   में  हम  हुए, पहरे  पर  है  चैन।

             (४४)

सुबह-सुबह आकर मिला,एक पुराना यार।
अँगड़ाई  लेकर  उठा, सपनों  का   संसार।

                (४५)

 जिसको  जितना  ज्ञान  है, उतना  ही  अनुमान।
कभी नफ़ा ज़्यादा हुआ,कभी हुआ नुक़सान।

               (४६)

ऋतुओं का भी आजकल,उल्टा ही व्यवहार।
ज़िम्मेदारी  से  अलग, सबका  कारोबार।

                   (४७)

जादूगर  का मंच पर,  ख़ूब जम गया खेल।
छड़ी घुमाकर देश का, वह निकालता तेल।

          (४८)

स्वाति-बूँद-सी भावना,सीपी जैसा मन।
दोनों ने  मिलकर  रचा, मोती जैसा धन।

                (४९)

मन मलंग फक्कड़ हुआ,
भाव-सत्य गंभीर।
शब्द-शब्द कहता लगे,भीतर बैठ कबीर।

              (५०)

अज्ञानी को मिल गया,अगर बड़ा अधिकार।
ख़ुद को ईश्वर का नया,समझेगा अवतार।

          (५१)

दोष समय का कुछ नहीं,स्वारथ है बलवान।
जब जिसको मौक़ा मिला,वही करे कल्याण।

                (५२)

फूलों के ख़ुशरंग भी,देते नहीं सुकून।
है उदास तितली चुभे, काँटों के नाखून।

                (५३)

कहने वाले  कह गये, सबका मालिक एक।
आग  ढूँढ़कर  तू  अलग, रहा रोटियाँ सेक।

                 (५४)

भूख एक-सी प्यास भी,प्राणवायु सब एक।
कहाँ  जीव  में  भेद  है, बाहर-भीतर  देख।

            (५५)

सरल भाव  ही भक्ति है, शुद्ध हृदय भगवान।
कहाँ  ढूँढ़ता  फिर  रहा, ईश्वर  को  अज्ञान।

              (५६)

सुख में दुख में रात-दिन,कुछ चिंतन कुछ ध्यान।
भावों    के   संसार   में,  कविता   का   परवान।

               (५७)

कवि-कोविद  दरबार  का, करने लगे बखान।
लाभ  लोभ  भय  प्रीति को, ख़ूब मिला  सम्मान।

                (५८)

हठधर्मी है क्रूरता, निर्मम है अभिमान।
दोनों की संगत बुरी,दोनों ही शैतान।

                 (५९)

खिलकर मुस्कायी कली, बिखरे गंध-पराग।
राग-विराग जगा रही,गुलशन की यह आग।

                 (६०)

गिल्ली-डंडा खेलना,भूल गये हैं लोग।
शामिल  टोपी-दौड़ में,ढूँढ़ रहे संयोग।

                  (६१)


योग जोड़  है  धन  जमा, योग करे संयोग।
हानि लाभ का गणित अब, मान रहे हैं लोग।

               (६२)

बात पुरानी भाव नव,बदल गये अहसास।
कालपुरुष फिर कह गया,है दोहे कुछ ख़ास।

                   @   लक्ष्मीनारायण पयोधि


लक्ष्मीनारायण पयोधि
_________________
 23 मार्च 1957 को महाराष्ट्र में जन्मे लक्ष्मीनारायण पयोधि आदिवासी अंचल बस्तर (छत्तीसगढ़) में पले-बढ़े।

 18 काव्य संकलनों सहित कुल 41 पुस्तकें प्रकाशित।

 आदिवासी संस्कृति और संघर्ष पर केन्द्रित काव्यकृति 'सोमारू' का अंग्रेजी और मराठी में अनुवाद।कुछ कविताएँ-कहानियाँ तेलुगू में अनूदित-प्रकाशित।

आदिवासी भावलोक पर आधारित काव्यकृति 'लमझना' चर्चित।नाट्य रूपांतरण भी।

 जनजातीय जीवन,संस्कृति और भाषाओं में विशेष रुचि।
गोण्डी,भीली,कोरकू आदिवासी भाषाओं के शब्दकोशों के अलावा जनजातीय संस्कृति और कलाओं पर पाँच शोधग्रंथ और अनेक शोध-आलेख प्रकाशित।

 सन् 1910 (बस्तर) के आदिवासी विद्रोह भूमकाल पर आधारित काव्यनाटक 'गुण्डाधूर' और जनजातीय मान्यताओं पर आधारित काव्यनाटक 'जमोला का लमझना' के अनेक मंचन।

 जनजातीय जीवन-संस्कृति पर केन्द्रित विभिन्न डॉक्यूमेंट्री फ़िल्मों के लिये शोध-आलेख।

 अनेक पुरस्कार-सम्मानों से अलंकृत।

 पिछले 31 वर्षों से मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल में निवास।

मध्यप्रदेश शासन के आदिम जाति कल्याण विभाग की विभिन्न संस्थाओं में अकादमिक (संपादन-अनुसंधान) दायित्वों का निर्वाह।
सेवा निवृत्ति के बाद कुछ समय तक विशेषज्ञ सलाहकार की जिम्मेदारी भी।

 वर्तमान में स्वतंत्र लेखन।

संपर्क : मो.नं. 8319163206
ई मेल : payodhiln@gmail.com

कवि लक्ष्मीनारायन पयोधि के समकालीन दोहे प्रस्तुति ब्लॉग : वागर्थ

समकालीन दोहा
         कवि :लक्ष्मीनारायण पयोधि
                                     प्रस्तुति
            ©वागर्थ संपादन मण्डल
                        ©ब्लॉग वागार्थ


                           दूसरे  पड़ाव  की अन्तिम कड़ी
कवि लक्ष्मीनारायण पयोधि जी के समकालीन दोहे
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           हमने समकालीन दोहे की इस यात्रा का आरम्भ कवि स्व.देवेन्द्र शर्मा 'इन्द्र' जी पर पहला अंक केंद्रित कर उन्हीं की प्रेरणा और आशीर्वाद से की है ।
          आज हमें कविता (दोहा) के इस फॉर्मेट में,कथ्य का तीखापन और  दोहों के कलेवर में जो धार सर्वत्र दिखाई पड़ रही है, इस पूरे वातावरण निर्मिति में कहीं न किसी इन्द्र जी महती भूमिका है इस दिशा में उनका योगदान अविस्मरणीय है।
                                         एक आलेख में, किसी विद्वान नें उन्हें दोहा के द्रोणाचार्य की संज्ञा दी थी, जो मुझे बड़ी अटपटी लगी , मैं यह नहीं कह रहा हूँ कि मैं उस विद्वान से असहमत हूँ ,या उसे ऐसा नहीं करना चाहिए , पर यदि मुझे उन पर लिखने का अवसर मिलता तो मैं उन्हें 'नये दोहे का एकनिष्ट एकलव्य' कहना ज्यादा उचित समझता  
          क्योंकि  छली  द्रोणाचार्य  ने तो अपने ही शिष्य का अंगूठा माँग लिया था । इस दृष्टि से द्रोणाचार्य तो छल का प्रतीक हैं और समर्पित एकलव्य एक निष्ठ मौन साधना का समर्पण का प्रतीक है। अतः मेरी दृष्टि में आम आदमी का प्रतीक एकलव्य ज्यादा आदरणीय है। गुरुपूर्णिमा के अवसर पर मैं गरूदेव इन्द्र जी का पुण्य स्मरण करता हूँ। और यह अंक उन्हीं को समर्पित करता हूँ। 

                 दूसरे पड़ाव की अन्तिम कड़ी में प्रस्तुत हैं  समसामयिक दोहा के मौन साधक कवि लक्ष्मीनारायण पयोधि जी के दोहे।

दुखी बिजूका खेत में
_______________

पानी  पर  जितने  लिखे, थे  मैंने  अनुबंध।
अक्षर-अक्षर   वे  सभी, बने  अनुष्ठुप  छंद।

हैं  पूजा  के  थाल में, कुछ अक्षर सुर-ताल।
गीत  कंठ से फूटता, कुमकुम लगता भाल।

धूप  खिली  हँसते  सुमन,बिखरे रंग-पराग।
गूँज  रहा  है हर तरफ़,फिर निसर्ग का राग।

मेघ  पिता  का  प्यार  है, वर्षा माँ  का नेह।
बूँदें  झर-झर  झर  रहीं, और घुमड़ता मेह।

जीवन को पढ़-पढ़ गुना,और लिखा बेलाग।
गिनने  वाले  गिन  रहे,  कितने  गहरे  दाग़।

सब  दलाल  मुस्तैद  हैं, और कमीशनख़ोर।
सुविधाओं  की  होड़  में, आगे   चिन्दीचोर।

राजनीति  के मंच पर, भिन्न सभी किरदार।
कोई   शातिर   चोर    है,  कोई  चौकीदार।

बापू   तेरे    देश   में , सत्य   करें   वनवास।
चाटुकार  दरबार  के, बेहद  ख़ासमख़ास।

आँखों  में  जाले  पड़े,  और मोतियाबिन्द।
वह  शैतानी  शक्ल को,कहता है अरविन्द।

निष्ठा  रख   दरबार  में, कर   तू  कारोबार।
सिद्धांतों  को  ताक  पर, रखने  को तैयार।

फिर  बिल्ली  के भाग  से, छींका टूटा यार।
दरवाज़े  पर आ  खड़ी, पद लेकर सरकार।

जितना ऊँचा पद मिला,उतना विज्ञ-महान।
कुर्सी   छूटी  तो  हुए , विदा  ज्ञान-सम्मान।

आन गाँव के सिद्ध पर, किया अंधविश्वास।
बगुलों  के  षड़यंत्र से, बना गिद्ध का ग्रास।

आँखों  में  सपने  लिये, पंखों  में आकाश।
पंछी   मिलने  जा  रहा, सूरज  से  बिंदास।

दुखी  बिजूका  खेत में,फ़सलें और मचान।
आंदोलन  की राह पर, बेबस खड़े किसान।

मायावी  औघड़   हठी,  क्रूर   निशानेबाज़।
हत्यारे   का  आजकल, रोज़  नया अंदाज़।

इक  छोटे  जीवाणु  से, दुनिया है हलकान।
कोरोना   से   जंग   में, हारे   कई   महान।

जिस  काया से मोह है, देखो उसका हाल।
गठरी  काँधों  पर  लिये, जाते चंद सवाल।

अवसर है हर आपदा, जिनके हाथ गुलेल।
मानवता  देखे  विवश, कुछ  दुष्टों के खेल।

तूफ़ानों  में   नाव   का,  टूट  गया  मस्तूल।
जीवन  के  अनुबंध  में, जैसे  सभी उसूल।

                    @   लक्ष्मीनारायण पयोधि

पिछली कड़ी का लिंक
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https://m.facebook.com/story.php?story_fbid=680831689982845&id=100041680609166

शुक्रवार, 23 जुलाई 2021

समकालीन दोहा दूसरे पड़ाव की : नौवीं कड़ी दोहाकार : हरेराम समीप प्रस्तुति ब्लॉग वागर्थ

दूसरा पड़ाव 
नौवीं कड़ी

                               समकालीन दोहा
                               _____________
                 दूसरे पड़ाव की :  नौवीं कड़ी
                 दोहाकार    :   हरेराम समीप
                 _____________________

                    यह महज संयोग ही है कि दूसरे पड़ाव की नौवीं कड़ी के रूप में यह किसी दोहाकार पर मेरी तरफ से दूसरी प्रस्तुति है। यहाँ कुछ मित्र सवाल उठा सकते हैं कि, आठवीं कड़ी के बाद फिर नौवीं कड़ी ! यहाँ तक तो ठीक परन्तु फिर वही दोहाकार !
          क्या कोई और दोहाकार नहीं मिला ? परन्तु जब- जब  मेरा अंतर मन इन दोहों को पढ़ने बैठा तो में इन दोहों की नवता में दोहों की तरलता में प्रयोग शीलता की सरलता में, तल स्पर्शी चाह में,डूबता ही चला गया।
          कहन के स्तर पर, मेरी नजर से अब तक इस स्तर के दोहे कम ही गुजरे हैं। ऐसे दोहे रचने के लिए दोहा के इस आधुनिक कबीर को युगीन असंगतियों ने पता नहीं कितनी कितनी बार तोड़ा होगा।
             कहते हैं सृजन की भी अपनी एक दुनिया होती है उसे छोड़े बिना आप दूसरी दुनिया नहीं रच सकते आइए पढ़ते हैं समकालीन दोहाकार हरेराम समीप के मूल्यपरक और आदर्श समकालीन दोहे।

 प्रस्तुति और चयन
    वागर्थ
संपादक मण्डल
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समापन क़िस्त भाग-दो
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हरेराम समीप के समकालीन दोहे 
1
गर्व करें किस पर यहाँ, किस पर करें विमर्श 
आधा है यह इंडिया,  आधा भारतवर्ष
2
जनता इस जनतंत्र में, बेबस और अनाथ
छोड़ दिया है जिल्द ने, अब किताब का साथ
3
देखा तानाशाह ने, ज्यों ही आँख तरेर 
लगा तख्त के सामने, जिव्हाओं का ढेर
4
क्या बिगाड़ लोगे यहाँ, लोकतंत्र का आप
शिक्षामंत्री है अगर, एक अँगूठा-छाप
5
व्यापारी करने लगे, राजनीति से मेल
हरे पेड़ पर ही चढ़े, अमरबेल की बेल
6
दुनिया में सबसे अलग है अपनी तस्वीर 
यहाँ गरीबों के लिए लड़ते मिले अमीर
7
ये आए या वो गए, सबने चूसा खून 
कौन गड़रिया छोड़ता, किसी भेड़ पर ऊन
8
राजनीति का इसलिए, बढ़ता गया महत्त्व 
कुर्सी पाते ही मिले,  नेता  को  देवत्व 
9
लगता है इस वक्त के, नहीं इरादे नेक
नदी सुखाने के लिए, हुए किनारे एक
10
बस्ती में दो वर्ग हैं, जालिम और मजलूम
इक जंगल का शेर है, एक हिरन मासूम
11
बड़ा विसंगत वक्त यह, सोच हृदय से हीन
हँसते हुए फ़रेब हैं, रोते हुए यक़ीन
12
पुलिस पकड़ कर ले गई, सिर्फ उसीको साथ 
आग बुझाने में जले, जिसके दोनों हाथ
13
शब्दों का कुछ इस कदर, आज हुआ अपमान
नागफनी फैली जहाँ, उसे कहें उद्यान
14
बचपन में जिसकी कलम,वक्त ले गया छीन 
बालपेन वह बेचता, बस में ‘दस के तीन’ 
15
दास-प्रथा अब भी यहाँ, धनिकों का है शौक़
नगर-नगर में बन गए, अब तो ‘लेबर चौक’
16
फिसल हाथ से क्या गिरी, सम्बंधों की प्लेट
पूरी उम्र समीप जी, किरचें रहे समेट
17
यूँ अपारदर्शी हुआ, अपने मन का काँच
बाहर से संभव नहीं, अब भीतर की जाँच
18
सम्बंधों का दायरा, आज हुआ यूँ तंग
बेटा राजी ही नहीं, माँ को रखने संग
19
उस बुढ़िया माँ पर अरे, कुछ तो कर ले गौर
तुझे खिलाती जो रही, फूँक-फूँक कर कौर
20
आया है सय्याद फिर, चलने शातिर चाल
एक हाथ दाने रखे, एक हाथ में जाल
21
भोजन भी जिस देश में, मिले नहीं भरपेट
वहाँ लग्जरी कार के, रोज़ बढ़ रहे रेट
22
फैल गई जब भुखमरी, बना ‘भूख-आयोग’
उसमें शामिल हो गए, सभी अघाए लोग
23
जाने कैसी चाह ये जाने कैसी खोज
एक छाँव की आस में चलूँ धूप में रोज
24
जाने किस दिन माँग ले, वो अपना प्रतिदान
बर्फ शिखर पर दोस्तो, सागर का सामान
25
धरती तेरी गाय है, तू मत इसे निचोड़
कुछ तो बछड़े के लिए, दूध थनों में छोड़
26
मरने पर उस व्यक्ति के बस्ती करे विलाप 
पेड़ गिरा तब हो सकी ऊंचाई की नाप
27
उससे बढ़ कर कौन है, आज यहाँ धनवान
जिसने जीवन भर किया,पल-पल ख़ुद को दान 
28
तेरे पैसों से ब्रदर, माँ को अब आराम
आई बटुआचोर की, इक चिट्ठी गुमनाम
29
तय कर पाये किस तरह‚ तू राहें दुश्वार
लिए सफर के वास्ते‚  तूने पांव उधार
30
देखो तो शालीनता, ये लिहाज-सम्मान
चिट्ठी में इक दुष्ट को, लिखता हूँ ‘श्रीमान’

31
जी चाहा तो चख लिया, वर्ना है बेकार
कविता अब तो प्लेट में, रक्खा हुआ अचार
32
संशय की मरूभूमि में बोओ तो विश्वास
बारिश लेकर आएगा चाहत का आकाश
33
आओ हम उजियार दें, ये धरती ये व्योम
तुम बन जाओ वर्तिका, मैं बन जाऊं मोम
34
फिर निराश मन में जगी, नवजीवनकी आस
चिड़िया रोशनदान पर, फिर से लाई घास
 35
खाली माचिस जोड़ कर एक बनाऊं रेल 
बच्चे सा हर रोज़ मैं उसको रहा धकेल
36
तू भी यदि कविता हवा, हो जाएगी मौन
फिर खुशबू के सफर पर, साथ चलेगा कौन
37
जो जैसा जब भी मिला, लिया उसी को संग
यारो मेरे प्यार का, पानी जैसा रंग
38
तुमको हमसे प्यार है, हमको तुमसे प्यार 
कहने में इस बात को, उम्र लगा दी यार
39
बिटिया को करती विदा, माँ ज्यों नेह समेत 
नदिया सिसके देखकर, ट्रक में जाती रेत
40
तुझे देखकर आ गया, मुझे बहुत कुछ याद
गहनों का बक्शा खुला, बड़े दिनों के बाद
41
जा बन जा विद्रोहिणी, और न रह मासूम
माँ ने बेटी से कहा, उसका माथा चूम
42
आज अचानक कर गया बेटा बचपन पार
निकली उसकी जेब से चिटठी खुशबूदार
43
अब भी अपना देश है, डर का बड़ा मरीज़
यहाँ दवाओं से अधिक, बिकते हैं ताबीज़
44
चाहे काटो डालियाँ, या लो पत्ते छीन
पेड़ रहेगा पेड़ यदि, छोड़े नहीं जमीन
45
संघर्षों से भागना, जीवन की तौहीन
सागर से कब भागती, तूफ़ानों में मीन

46
उसके हिस्से की उसे, जो मिल जाये धूप 
पौधा है जी जाएगा, खिल जायेगा रूप
47
बरसों अनजाना रहा, मैं यारों के बीच
‘पंफ्लैट’ ज्यों अनपढ़ा, अख़बारों के बीच
48
चलो एक चिट्ठी लिखें,आज वक्त के नाम
पूछें दुख का सिलसिला, होगा कहाँ तमाम

हरेराम समीप
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शनिवार, 26 जून 2021

राहुल आदित्य राय के समकालीन दोहे प्रस्तुति : वागर्थ


राहुल आदित्य राय के समकालीन दोहे
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दोहे
दर्द पराया देखकर, अगर न उभरे पीर
तो समझो मर गया है, दो नयनों का नीर

अपना भी कुछ इस तरह, मिलना होता काश
जैसे सावन में मिले, धरती से आकाश

आंखों आंखों में मिले, जब दो दिल की प्यास
सागर भी छोटे पड़ें, बढ़ती जाती आस

बाहर से ज्यादा मिला, दिल के अंदर शोर
चिंता, शोक और खुशी, मांगें अपना ठोर

सागर ने समझी नहीं, उस नदिया की प्यास
जो पर्वत को लांघकर, आई उसके पास

बांटें से बढ़ती सदा, पूंजी ऐसी प्यार
दिल के द्वारे खोल दो, बांटो प्रेम अपार

ऐसा हो इस देश में, धर्मों का सम्मान
मस्जिद में गीता पढ़ें, मंदिर पढ़ें कुरान

प्यार बिना जीवन नहीं, ये जीवन का सार
जब तक ये धड़कन रहे, दिल चाहे बस प्यार

अपनों ने समझी नहीं, मेरे मन की पीर
आंखों से बहता रहा, दुख में भीगा नीर

नीचे कितना गिर गया, देखो अब इंसान
पीड़ा का दोहन करे, बस पैसों पर ध्यान

कदम कदम पर छल मिला, कदम कदम पर झूठ
सच के रस्ते में मिले, जाने कितने ठूंठ

धंधे चौपट हो गये, छिना यहां रुजगार
उस पर महंगाई बढ़ी, जीवन है दुश्वार

आसमान तक चढ़ गये, सब चीजों के दाम
सरकारें इठला रहीं, मुश्किल में आवाम

बातों से बनती नहीं, कैसे भी तकदीर
पाना है मंजिल अगर, सन्नाटे को चीर

कुछ भी स्थायी नहीं, सब कुछ है गतिमान
तुम पद का गुरूर करो, या धन का अभिमान

दर्द पराया देखकर, पिघले गर इंसान
दुनिया की मुश्किल सभी, हो जाएं आसान

राजा आत्ममुग्ध है, भक्त करें जयकार
दुखियारी प्रजा मगर, करती हाहाकार

तब तक दुनिया साथ है, जब तक चले नसीब
बुरा हुआ जो वक्त तो, मिलते रोज रकीब

(राहुल आदित्य राय)

शुक्रवार, 25 जून 2021

दीपक कामिल के दोहे प्रस्तुति : वागर्थ ब्लॉग

                         युवा रचनाकार दीपक कामिल से परिचय दो दिन पहले ही हुआ,इतने कम समय में किसी के व्यक्तित्व के वारे में कुछ कहना शायद जल्दबाजी ही होगी। दीपक कामिल, रहस्यमय ढंग से मैसेंजर में प्रकट हुए और अपने कुछ दोहे पहली किस्त में प्रकाशनार्थ भेज दिए। मैंने पढ़ने के उपरान्त इन्हें किसी प्रकार का कोई प्रतिउत्तर नहीं दिया, तदुपरांत दीपक के एक के बाद एक, रहस्यमय डायलॉग मैसेंजर पर रिफ्लेक्ट होने लगे। इन संवादों से मुझे दीपक के व्यक्तित्व को समझने में थोड़ी मदद मिली।
दीपक युवा हैं ,और पूरी ऊर्जा के साथ लेखन में संलग्न हैं। प्रस्तुत दोहों में इनके शायराना अंदाज़ को समझा जा सकता है। दोहों में शायरी की झलक है, पूरी प्रस्तुति में कुछेक दोहे अच्छे और समकालीन बन पड़े हैं।
   यह प्रस्तुति समकालीन दोहों की प्रस्तुति ना होकर दीपक कामिल की प्रतिभा की सराहना की प्रस्तुति भर है।
आइए पढ़ते हैं दीपक कामिल के दोहे
प्रस्तुति
संपादक मण्डल
वागर्थ ब्लॉग
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सागर छलिया है बड़ा, खींचे सुबह-ओ-शाम. 
डूब न जाऊं मैं कहीं, हाथ पकड़ लो राम. 

छुटका बचपन चीख कर, मारे मुझे पुकार.
कामिल जीने के लिये, सपनों को मत मार.

अधनंगी फिर द्रोपदी, पूर्ण नग्न फिर राज.
कृष्ण नही तो ना सही, विदुर कहां है आज.

कुत्तों से भी है गिरी, उन मर्दों की ज़ात.
जो करते मासूम सी, कलियों पर आघात.

किसी देह को नोचना, कर देना बदनाम.
हैवानों ये है नहीं, मर्दों वाले काम.

बेरुज़गारों ना करो, हाय हाय रुज़गार.
तख़्त हिलाकर चीखिऐ, सोये हैं सरकार.

ख्वाजा नानक राम है, गंगा जमुना नीर
सारी दुनिया में नहीं, भारत सी तासीर

बस में कर ले सांवरे, तेरे चंचल नैन
दिन में ये चित ले उड़े, खा जाते हैं रैन

खुद में तपना जानिये, खुद ही हो कर बंद
तब जा कर निखरे कहीं, कुछ दोहों के छंद

हाथ कलम कर दीजिए, उस शायर के आप
जो बिन डूबे लिख रहा, दर्द-ए-दिल का नाप

थोड़ी सुध तो ले ख़ुदा, क्यूं तू है अनजान
तेरे बच्चे कट रहे, ले कर तेरा नाम

सब के पी का हे सखी, सब  के भीतर वास
क्या जाना कैलाश फिर, क्या काबे से आस

तपती धरती देख कर, सावन बरसा खूब
मानो मरहम कर रहा, है कोई महबूब

उनसे मिलकर हँस पड़ी, मन की गहरी पीर
कितने भीतर तक गये, उन नैनों के तीर

दुनिया गर ये जंग है, वो खुद में है फौज
माँ के जैसा शेर दिल, खोज सके तो खोज

बरसों से थी इश्क में, बिछड़न आग शराब
जाने कैसे आ घुसा, इस में अब तेज़ाब

जो भी बोले काट दें, उसकी आप ज़ुबान.
क्या ऐसे ही है बना, कोई देश महान.

कुदरत का कानून भी, कितना बेपरवाह.
इक के हिस्से रतजगे, इक के हिस्से ब्याह.

कामिल काली रात का, क्या है तुझ से बैर.
कितने सपने कर रहे, खुली आँख में सैर.

कविता तेरी भूख अब, बनी गले की फाँस. 
सब रातें खा कर कहे, लाओ दिल का माँस.

होते जिसके वास्ते, हर दिन नये फ़साद.
उस सत्ता को क्यूं नहीं, उसके बच्चे याद.

एक न मानी आपने, काम काम बस काम.
कुदरत से खिलवाड़ का, भुगतो अब परिणाम.

बिखरी-बिखरी थी वफ़ा, छलनी छलनी प्यार।
दूजे की बारात जब, आई तेरे द्वार।

क्या रिश्ते क्या दोस्ती, क्या जीवन उल्लास
आऐ जाने के लिये, सब ही मेरे पास

दुनिया में भोजन मिले, लेकिन फीका स्वाद.
माँ की रूखी रोटियाँ, ज्यूं पौधे को खाद.

लड़ते लड़ते थक गया, मैं जीवन के साथ.
आ माँ सर पर फेर दे, अपने कोमल हाथ.

जितने लेखक तर गये, ऐ दिल तेरे साथ
उस से ज्यादा मर गये, ऐ दिल तेरे हाथ

परिचय
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नाम : दीपक कामिल
जन्म तिथि :
चार आठ सित्यान्वे, सावन की बौछार 
तब कामिल संसार में, रोया पहली बार
शिक्षा एम. कॉम.
निवासी : 
बार्ड क्रमांक -56 प्रतिभा नगर 
चूरू  (राजस्थान)
रचनाएँ : ज्यादातर छंद में लिखना पसंद करता हूँ पर अतुकान्त से भी कोई बैर नही है उस विधा में भी कभी कभी लिखता हूं।



मंगलवार, 22 जून 2021

समकालीन दोहा प्रस्तुति : वागर्थ

समकालीन दोहे 
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मनोज जैन 
106 विट्ठल नगर गुफा मंदिर रोड
लालघाटी भोपाल-462030
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किस्तों में जीवन कटा, घटी उम्र की नाप।
नया दौर यह दे रहा, हमें नये अभिशाप।।

समझ न मुझको नासमझ, और न दर्शक मूक।
 मेरे काँधे  टेककर, चला न निज बंदूक।।

दल सब होते एक से, किसे कहें हम नेक।
पाकर सत्ता-सुन्दरी, खोते सभी विवेक।।

एक तीर से कर लिए, तुमने कई शिकार।
लाठी भी टूटी नहीं, दिया साँप भी मार।।

नहीं किसी के पास इस, तुरुप-चाल की काट।
बौने को घोषित किया, सबने यहाँ विराट।।

दोनों ही हैं एक-से, पंडित हों या शेख।
तेल डालकर आग में, रहे तमाशा देख।।

पत्थर बोला प्यार से, सुन ओ संगतराश।
अनगढ़ में भी  देवता, ढूँढा होता काश।।

चंदन से आई नहीं, जिनको कभी सुगंध।
वे ख़ुशबू पर लिख रहे, अपना शोध प्रबन्ध।।

नेता सब चारण हुए, छुटभैये सब भाट।
दीमक बनकर देश की, रहे प्रतिष्ठा चाट।।

अब भी चर्चा में यहाँ, है पंचायत खाप।
 निज हाथों कानून ले, जो बोती अभिशाप।।

इससे ज्यादा और फिर, क्या होगा अंधेर।
जब￰ सियार को कह रहे, सारे गीदड़ शेर।।

चक्रव्यूह में जा घिरा, अभिमन्यू स्वयमेव।
टुकुर-टुकुर बस ताकते, सारे रक्षक देव।।

गधे पँजीरी खा रहे, कुत्ते खाते खीर।
बँटी प्रजा में इस तरह, राजा की जागीर।।

आदर्शों को इस तरह, मिला यहाँ सम्मान।
गणिका खुलकर खींचती, शीलव्रता के कान।।

पच्चीकारी में निपुण, लालगंज का चोर।
अंधकार को कह रहा, उजली-उजली भोर।।

खुले मंच से कर रहे, संस्कृति का  उपहास।
छक कर भोजन कर लिया, फिर रखते उपवास।।

सरकारें करती रहीं, धन का सत्यानाश।
जनमानस होता रहा, पल-पल यहाँ निराश।।

ख़ुशफ़हमी का है न इस, दूर-दूर तक अंत।
भरी सभा में कह रहा, तुक्कड़ खुद को पंत।।

प्रतिभा ही आधार हो, या फिर अर्जित अंक।
आरक्षण इस देश में, सबसे बड़ा कलंक।।

साज़िश जो रचता रहा, रोज बिछाकर जाल।
वही मित्र नित पूछता, कैसे हैं जी हाल।।

किनको हम अपना कहें, किनको मानें ग़ैर।
जिनको पोसा प्रेम से, वही उखाड़ें पैर।।

दहशत में हर आदमी, निकल रही है चीख।
माँग रहा सरकार से, अच्छे दिन की भीख।।

फिर अच्छे लगने लगे, फागुन वाले रंग।
मन खजुराहो हो गया, पाकर तेरा संग।।

विक्रम से बेताल ने, पूछा एक सवाल।
मछली वाले ताल का, मालिक क्यों घड़ियाल।।

कभी शहद-सी जिंदगी, कभी जहर का घूँट।
बदले नित-नित करवटें , यह किस्मत का ऊँट।।

जाड़ा चाबुक गात पर, फटकारे दिन-रैन।
झोपड़ियों के हो रहे, सावन-भादौं नैन।।

निर्विकल्प हो प्रेममय, योग रहा मैं साध।
एक नदी सी बह रही, तू मुझमें निर्बाध।।

उँगली फिर कौंचा पकड़, धर काँधे पर लात।
शूकर जी चढ़ शीश पर, दिखा रहे औकात।।

कहने में अब डर लगे, किसको कह दूँ खास।
खण्ड-खण्ड होने लगा, इस मन का विश्वास।।

नेकी के बदले मिला, दुख का एक पहाड़।
देखा है हमने यहाँ, तिल को बनते ताड़।।

आग लगाकर जिंदगी, डाल रही घी-तेल।
मेरे दिल से खेल अब, मित्र! आग का खेल।।

पैरों में बेड़ी पड़ीं, हाथों में जंजीर।
मन! मीलों चलना तुझे, होना  पर न अधीर।।

जलते हुए सवाल का, उत्तर देगा कौन।
हल थे जिनके पास में, वे साधे हैं मौन।।

बगुलों को मत दीजिये, हंसों-सा सम्मान।
रखिये कोयल-काग की, कुछ बाकी पहचान।।

राजा जी दिख जाएगी, पल भर में औकात। 
वक़्त साधकर पीठ पर, मारेगा जब लात।।          

सेंध लगाकर घुस गया, घर में काला चोर।
सब कुछ लेकर कह रहा, यह दिल माँगे मोर।।
मनोज जैन 
_________

सोमवार, 21 जून 2021

दीपक पंडित के दोहे

आज कुछ समकालीन दोहे:

नेताओं  का क्या धरम, क्या उनका ईमान।
अपने मुँह से कर रहे, अपना ही गुणगान।।

झूठा  उनका  नाम  है, झूठी  उनकी शान।
बाहर  से  सज्जन दिखें, भीतर से शैतान।।

लोकतंत्र   ज़ख़्मी   हुआ , टूटे   उसके  पैर।
हिटलरशाही  राज में, नहीं किसी की ख़ैर।।

कैसा  अद्भुत  देश  है, कैसा  अद्भुत   राज।
सच  है  पाँवों  में पड़ा, झूठ बना सरताज।।

दर्पण   से  दर्पण  कहे , बदल  गये  हालात।
असली चेहरा ढूँढना, अब है मुश्किल बात।।

जलने  को  लकड़ी  नहीं, ना गहने को हाथ।
लाशों  की  यह  दुर्दशा, सबने  छोड़ा साथ।।

दुनिया में इस देश  का , चाहे  जो  हो  हाल।
हरदम  बस चलती रहे, पैसों की टकसाल।।

समकालीन दोहे:

सारी  बातें  भूलकर ,  इतना   ले  तू  जान।
पैसा   ही   ईमान  है , पैसा   ही  भगवान।।

सच्ची  बातों  से  यहाँ, कब चलता है काम।
जितना बोले झूठ जो, उतना उसका नाम।।

कैसा    यह   संत्रास   है , कैसा   हाहाकार।
लगे  हुए  चारों  तरफ़, लाशों  के  अम्बार।।

दावों   पर   दावे   यहाँ , करते   नेता  लोग।
भूखों  नंगों  का  मगर , करते  हैं  उपयोग।।

लेकर   चाकू  हाथ  में, सब  करते  हैं  वार।
जितनी  गहरी  धार  है, उतनी  गहरी मार।।

सच का उनकी बात से, कब होता आभास।
पतझर को कहने लगे, लोग यहाँ मधुमास।।

तिनका तिनका जोड़कर, लोग बनाते नीड़।
पर  उनको  ही  तोड़ने, आप  जुटाते भीड़।।

जो   मन   को   शीतल  करें, बोलें   ऐसे  बोल।
शब्दों   में   रस   घोलिये, शब्द  बड़े  अनमोल।।

वक्त   बदलता   देखकर, सबने   बदली  चाल।
कोई    सौदागर    बना, कोई    नटवर   लाल।।

पेड़ों    को   मत   काटिये, पेड़ों   से   हैं   प्राण।
हो   जायेंगे   पेड़  बिन, सबके  सब  निष्प्राण।।

आँखों   में   सपने  लिये, चलते   अपनी   राह।
मंज़िल  पर  ही अब रुकें, बस इतनी सी चाह।।

जो करना है आज कर, कल का किसको ज्ञान।
जो  पल   तेरे   हाथ  है, उसको   अपना  मान।।

पानी पर दोहे :

पानी  पर   प्रस्तावना , लिखने  बैठे   आज ।
पानी  पानी  हो  गई  , अब  पानी की लाज ।।

पानी  पर  होने  लगे , अब  आपस में युद्ध ।
पानी  ना  दूषित  करें  , इसको  रक्खें शुद्ध ।।

पानी  ही  तो  मान  है  ,  पानी  ही  सम्मान ।
इसके कारण ही हुआ , हम सबका उत्थान ।

नदियों  में  जबसे  मिला , उद्योगों  का मैल ।
हर  सरिता  के  नीर में , ज़हर गया है फैल ।।

पानी   की   तासीर   से  ,  बचकर   रहें  जनाब ।
पानी   भी   ना  अब  कहीं , बन   जाये  तेजाब ।।

नदिया  नदिया  ना  रही  ,  है   बस  सूखी  रेत ।
पानी  ही  जब  ना  मिले  ,  कैसे   पनपें   खेत ।।

पानी   से   ही  जीत  है  ,  पानी   से   ही  हार ।
जीवन   में  सबसे  अहम , पानी  का  किरदार ।।

चुप  होकर  मैं सुन रहा , पानी की आवाज़ ।
सबने दूषित कर दिया , देखो मुझको आज ।।

पीड़ा हरती थी कभी ,  अब   देती  है   रोग ।
नदिया  दूषित  हो  गई , कैसे   बने   कुयोग ।।

कोई कुछ कहता नहीं , सब  बैठे चुपचाप ।
बेसबरी  बढ़ने लगी , कुछ तो करिये आप ।।

ऐसा ना हो एक दिन , अपना  आपा खोय ।
पानी पानी ही रहे , अब यह ज़हर  न होय ।।

ना पानी का देश है , ना पानी की जात ।
लेकिन सबसे है अहम , पानी की औक़ात ।।

पानी को मत यूँ गवाँ , बूंद - बूंद का मोल ।
पानी की कीमत समझ , पानी है अनमोल ।।

सदा रहा है आग से , पानी का अनुराग ।
पानी में जाकर बुझी , जब भी भड़की आग ।।

खूँ से क्यों लथपथ हुई , काश्मीर की झील ।
किसने आकर ठोक दी , उसके दिल में कील ।।

आँखों में पानी नहीं , ना ही कोई लाज ।
पानी को सुनती नहीं , पानी की आवाज़ ।।

पानी पर खिंचने लगी , आपस में शमशीर ।
पानी से लिक्खी हुई , पानी की तकदीर ।।

पानी से बचकर रहो , बहुत तेज है मार ।
चट्टानें भी काट दे , यह पानी की धार ।।

पानी पानी सब जगह , करता हाहाकार ।
ख़बरों में भीगा हुआ , सबका सब अख़बार ।।

पानी सबकी आस है , पानी ही विश्वास ।
पानी से ही बुझ सकी , बड़े बड़ों की प्यास ।।

हिम , पानी औ' भाप हैं , पानी के ही रूप ।
क्या नदिया पानी बिना , क्या पानी बिन कूप ।।

पानी की इज़्ज़त करो , पानी सबसे खास ।
पानी से सम्भव हुआ , सभ्यता का विकास ।।

पानी ही तो राग है , पानी ही आलाप ।
पानी बिन ऐसा लगे , जीवन है अभिशाप ।।

क्या पानी का धर्म है , क्या पानी की जात ।
पर पानी के सामने , किसकी क्या औक़ात ।।

हिन्दी-दिवस पर कुछ दोहे

हिन्दी  हिन्दी सब करें, हिन्दी पढ़े न कोय।
जो हिन्दी पढ़ने लगे , वो दुनिया का होय।।

हिन्दी के अधिकार पर, क्यों उठते हैं प्रश्न?
अंग्रेजी   के   वास्ते ,  होते   ख़ूब  प्रयत्न।।

हिन्दी   से   होने  लगा ,  स्कूलों  में  खेल।
बच्चे  अब  होने  लगे , हिन्दी  में ही फेल।।

फैला  है  चारों  तरफ़ ,  हिन्दी  का संसार।
हिन्दी  ही आचार  है, हिन्दी  ही व्यवहार।।

हिन्दी का इस देश में, मत करिये अपमान।
हिन्दी सबका मान है, हिन्दी ही अभिमान।।

दोहे

राजा  के  दरबार में , हुआ अजब सत्कार।
जिसने  जिसने  सच  कहा , पड़ी उसी को मार।।

एड़ी  चोटी  एक  कर , जोते खेत किसान।
उसकी फ़सलों को मगर, ले लेता परधान।।

सबके  मन  में  बैर  है , सबके मन में खोट।
जिसको अपना मानिये, वो ही करता चोट।।

रिश्तों  के  अब देखिये , उलझे हैं सब तार।
सींचा जिनको प्यार से , आज बने हैं ख़ार।।

सपनों के आकाश में , जब जब उड़े पतंग।
तब  तब उसको काटने , मौसम बदले रंग।।

आज के हालात पर कुछ दोहे:

भीड़-तंत्र के नाम पर, कैसा यह उत्पात।
मानवता देने लगी, दानवता को मात।।

घर में ही बनवास है, घर में ही है जेल।
लोगों का मरना हुआ, अब संख्या का खेल।।

जो रोटी के वास्ते, मरते हैं हर रोज।
उनके जीने का तनिक, रस्ता लीजे खोज।।

दुनिया के बाज़ार में, सबकी टूटी साख।
ख़ुशियाँ बिकती थीं जहाँ, अब बिकती है राख।।

विश्व-पटल पर इन दिनों, बदल गये सब ढंग।
सबका अपना रूप है, सबके अपने रंग।।

मिस्टर ड्रैगन नाम है, ख़ूब मचाये शोर।
कोरोना के रूप में, फैला चारों ओर।।

सबको अपना ही समझ, करता है उपचार।
भारत देखो बन गया, सबका तारनहार।।

कोरोना पर दोहे

कोरोना जिससे बढ़े , मत करिये वो काज।
कोरोना  के रूप में, काल खड़ा है आज।।

कोरोना  के  कोप  का, ख़ुद ही लें संज्ञान।
सबसे  अब दूरी रखें, आप सभी श्रीमान।।

बाहर  निकलें  जब  कभी , पहन लीजिये मास्क।
हाथों को धोया करें, समझ ज़रूरी टास्क।।

बढ़ते  बढ़ते  बढ़  गया , देखो  चारों ओर।
कोरोना  के  सामने , हर  कोई  कमजोर।।

घर  से  बेघर  जो  हुए , लौट  रहे  हैं  गाँव।
शहरों में तो ना मिली, उनको असली ठाँव।।

दिन  पर दिन बढ़ने लगे, इधर-उधर विद्रोह।
जिनका मकसद तोड़ना, लीजे उनकी टोह।।

उनको  यूँ  मत  छोड़िये , वो सब हैं शैतान।
आर - पार  की  जंग का, कर दीजे ऐलान।।

जो  सेवा  के  भाव  से , करते  अपने काम।
उनकी   कोशिश   को   कभी , करिये  मत नाकाम।।

आज के दोहे

सच्चाई की हर परत, खोल सके तो खोल।
जितना  रुतबा झूठ का, उतने ऊँचे बोल।।

दाना- पानी कुछ नहीं, पंछी सब बेहाल।
सूरज देखो पी गया, सब नदिया औ ताल।।

ढूँढे से मिलता नहीं, अब जीवन में चैन।
कोई भी कहता नहीं, प्यार भरे दो बैन।।

सब कुछ ही महँगा हुआ, क्या रोटी क्या नून।
आँखों से बहने लगा, देखो सारा ख़ून।।

धीरे धीरे चुक गये, जीवन के अनुराग।
उड़ते उड़ते उड़ गया, सारा छंद- पराग।।

ऐसे ही बढ़ता रहे, प्यार भरा व्यवहार।
किसी तरह ना हो खड़ी, रिश्तों में दीवार।।

पल पल ही सच की यहाँ, टूट रही है शाख।
उतना ही है वह सही, जितनी जिसकी साख।।

रामायण सीरियल के आज के एपिसोड पर  कुछ दोहे:

अति  घमंड जिसमें भरा, उसकी मति फिर जाय।
जिसके  सर  पर  काल  हो , उसको  कौन बचाय।।

रावण  लड़ने के लिये, फिर आया है आज।
उसके  सम्मुख  राम  हैं, लेने सर औ ताज।।

शिव का पक्का भक्त है, रावण को है ज्ञात।
लंका  के  इस  युद्ध में, उसकी होगी मात।।

जानबूझ कर कर रहा, बढ़-चढ़ कर संग्राम।
रावण  ख़ुद  यह  जानता, मुक्त करेंगे राम।।

कुछ दोहे

राहों   का   रोड़ा   बने , जो   बेग़ैरत  लोग।
उनको  जड़  से  काटिये , बने  हुए हैं रोग।।

घर - घर इनको ढूँढिये, फिर करिये उपचार।
इनके   हठ  के  सामने , हर  कोई  लाचार।।

उनके   दिल  में  दर्द है , ना  कोई  अनुराग।
अन्दर केवल जल रही, नफ़रत वाली आग।।

कर्क   रोग  सा  देखिये , फैले  चारों  ओर।
ऊपर   से   गाली  बकें , ये  ऐसे  मुँहजोर।।

इनका  चिट्ठा  खोलिये , ये जग में कुख्यात।
आतंकों  से   कम  नहीं , इनके  ये उत्पात।।

एक दिवस के ही लिये, चलते क्यों अभियान।
हर दिन होना चाहिये, हिंदी का सम्मान।।

हिंदी सबका मान है, हिंदी ही अभिमान।
हिंदी से मिलता हमें, सबसे ज़्यादा ज्ञान।।

हिंदी सबके सामने, करती है ऐलान।
हिंदी भाषा के लिये, सब हैं एक समान।।

हिंदी हममें यूँ बसी, ज्यों शरीर में प्राण।
हिंदी बिन जीवन लगे, जैसे हो निष्प्राण।।

हिंदी का अपना अलग, होता है संसार।
हिंदी में आचार हो, हिंदी में व्यवहार।।

शिक्षक-दिवस पर कुछ दोहे:

शिक्षक से बढ़कर नहीं, इस दुनिया में कोय।
जिसके भीतर ज्ञान हो, वो ही शिक्षक होय।।

शिक्षा को मत त्यागिये, ये ही रहती पास।
किसी वजह मत कीजिये, शिक्षक का उपहास।।

गुरु की महिमा जानिये, कीजे कुछ अनुमान।
ये सच है मिलते नहीं, गुरु के बिन भगवान।।

जहाँ जहाँ यह ज्ञान है, वहाँ वहाँ है तीर्थ।
गुरु को जो है पूजता, होता वह उत्तीर्ण।।

शिक्षा तो इक धर्म है, मत समझो व्यवसाय।
बस शिक्षा का ज्ञान ही, जीवन का अभिप्राय।।

दोहे

महँगाई की मार से, बिगड़े हैं सुरताल।
साँस-साँस गिरवी हुई, जीवन हुआ मुहाल।।

पानी जग में एक सा, करता नहीं दुराव।
शीतलता से है भरा, पानी  का बरताव।।

बदला  बदला  रूप है , बदली बदली चाल ।
फिर  चुनाव का ज़ोर है , बदले हैं सुरताल ।।

पनघट पनघट प्यास है , आँगन आँगन भूख ।
ख़ुशियों के तो पेड़ सब , आज गये हैं सूख ।।

अपने  ही  मद  में  भरे , लोग रहे हैं झूम ।
लोभ और लालच भरे , स्वान रहे हैं घूम ।।

सूखे   सूखे   ताल   हैं  ,  सूखे  सूखे  कूप ।
अबके मौसम ने लिया , कैसा भीषण रूप ।।

कहने  को  सब एक  हैं , लेकिन करते भेद ।
शासन की इस नाव में , जगह जगह हैं छेद ।।

महँगाई  की  बोलिये  , कब  तक झेलें मार ।
यहाँ   वहाँ  चारों  तरफ़  ,  फैला  भ्रष्टाचार ।।

धीरे  धीरे  आ  रहा  ,  कैसा  यह  बदलाव ।
जीवन  के  हर पृष्ठ पर , फैला है बिखराव ।।

 की  बात   पर  ,  कैसे   हो  विश्वास ।
जितना जिसका दायरा , उतनी उसकी प्यास ।।

समय-रेत पर जब लिखा , हमने अपना नाम ।
तेज  हवा  कहने  लगी , पहले ख़ुद को थाम ।।

अब  धर्मों  के  नाम  पर  ,  होता  है  व्यापार ।
सच्चाई  दिखती  नहीं  ,  झूठ  मगर  भरमार ।।

मरते  खपते  हो  गये  ,  हमको  कितने साल ।
तब भी  हम  बदहाल थे , अब भी हैं बदहाल ।।

अपने में डूबे रहे , बन सबसे अनजान ।
ख़ुद की सेवा कर रहे , नहीं किसी का ध्यान ।।

वादों से भरमा रहे , वो जनता को आज ।
पर जनता भी जानती , उनके असली काज ।।

जब कुर्सी उनको मिली , भूल गये कर्तव्य ।
सारी जनता जानती , क्या है उनका सत्य ।।

पैसों  की  पीछे  सभी , होते  हैं आकृष्ट ।
पैसा ही लेकिन बना , सबका असली कष्ट ।।

सारे सपने हैं गलत , गलत सभी अनुमान ।
जीना मुश्किल हो गया , मरना है आसान ।।

रिश्तों ने संसार में , खोये अपने अर्थ ।
जो थे बरगद की तरह , वो लगते हैं व्यर्थ ।।

आया हूँ तेरी शरण , सारी दुनिया छोड़ ।
सारे बंधन तोड़ के , मुझको ख़ुद से जोड़ ।।

इस  झूठे  संसार का , बस इतना है सार ।
लोभ-मोह को छोड़ दे , हो जायेगा पार ।।

लोभ-मोह  से क्या मिला , आया कुछ ना हाथ ।
साथ कभी कुछ आय ना , जाये कुछ ना साथ ।।

लोभी  है  दुनिया  सभी , लोभी आदम जात ।
मोह-जाल में जो फँसा , उसके दिन भी रात ।।

लोभ-मोह  का  खेल  है  , यह  सारा  संसार ।
इस चक्कर में जो फँसा , उसकी पक्की हार ।।

ईश्वर  को  भी  खो  दिया , छोड़ा सब घरबार ।
लोभ-मोह   के   फेर   में  ,  हो   बैठे  बेकार ।।

सावन  सावन  सब  करें , पर  भीगे ना कोय ।
जो  इसमें  भीगे कभी ,  ख़ुद सावन सा होय ।।

सावन  बरसे  झूम  के , सजनी  को  तरसाय ।
ऐसा  सावन आय कब , जो साजन को लाय ।।

मन  की  सारी  भावना , है  साजन  के  नाम ।
साजन ही गर ना मिले , क्या सावन का काम ।।

सावन   के   मेले   लगे , झूलें  सखियाँ  संग ।
तरह  तरह  के  खेल  हैं , तरह  तरह  के रंग ।

जा  बसे  परदेस  सजन , बदला जीवन राग ।
सावन  में  भी जल रही , है विरहा की आग ।।

यह  जग  मायाजाल है , हो जाता सब नाश ।
ना अपनी है यह ज़मीं , ना अपना आकाश ।।

कैसी  रेलम - पेल  है , कैसी  भागम - भाग ।
सबकी अपनी दौड़ है , सबकी अपनी आग ।।

सच्चाई   समझे  नहीं , कौन  इसे  समझाय ।
इस दुनिया के खेल में , सच झूठा पड़ जाय ।।

महँगाई  की  हर  घड़ी  ,  बढ़ती  जाये  मार ।
इसके  चलते  हो  गये , सबके  सब  लाचार ।।

तोड़े   से   टूटे   नहीं  ,  ऐसा   इसका  जोड़ ।
है  अटूट  यह  प्रार्थना , मत  तू इसको छोड़ ।।

नफ़रत की इस आग में , सब कुछ ही जल जाय ।
जो कोई भड़काए इसे , वो ख़ुद ही मिट जाय ।।

दुनिया की रफ़्तार से , मेल न अपना होय ।
इसकी रेलम - पेल में , सुख - चैना सब खोय ।।

जागन की बेला भई , बिस्तर रहा रिझाय ।
यह तन तो है आलसी , कौन इसे समझाय ।।

प्राणी अपनी देह पर , काहे को इतराय ।
माटी की यह देह है , माटी में मिल जाय ।।

मन में है पीड़ा घनी , अखियन बरसे नीर ।
अँसुवन की इस बेल से , झरने लगे कबीर ।।

मीरा के मन में नहीं , किसी तरह का खोट ।
चाहे विष-प्याला पिये , रहे श्याम की ओट ।।

बस इस पल की बात कर , कल की चिन्ता छोड़ ।
जाने अगले पल ले ले, जीवन कैसा मोड़ ।।

नफ़रत की इस आग में , सब कुछ ही जल जाय ।
जो कोई भड़काए इसे , वो ख़ुद ही मिट जाय ।।

दुनिया की रफ़्तार से , मेल न अपना होय ।
इसकी रेलम - पेल में , सुख - चैना सब खोय ।।

जागन की बेला भई , बिस्तर रहा रिझाय ।
यह तन तो है आलसी , कौन इसे समझाय ।।

प्राणी अपनी देह पर , काहे को इतराय ।
माटी की यह देह है , माटी में मिल जाय ।।

मन में है पीड़ा घनी , अखियन बरसे नीर ।
अँसुवन की इस बेल से , झरने लगे कबीर ।।

मीरा के मन में नहीं , किसी तरह का खोट ।
चाहे विष-प्याला पिये , रहे श्याम की ओट ।।

कुछ दोहे :-

आँखों के दर पर रुकी, सपनों की बारात ।
बहकी सी ये रात है , बहके से जज़्बात ।।

अपने दिल की बात कर , अब तो चुप्पी तोड़ ।
अन्दर का संगीत सुन , ख़ुद को मुझसे जोड़ ।।

अरमानों की आग में , सुलग रहा यह रूप।
ऐसे में तुम आ मिलो , बन जाड़े की धूप।।

बदला बदला रूप है , बदली बदली चाल ।
गोरी नैहर छोड़ के , आ पहुँची ससुराल ।।

बेटी घर की लाज है , चाहे जिस घर होय ।
प्यार और समृद्धि के , बीज वहीं पर बोय ।।

सबकी अपनी धुन अलग , सबका अपना राग ।
उतना ही बस वो जले , जितनी जिसमें आग ।।

पहले तू समझा नहीं , फिर पीछे क्यूँ रोय ।
अपने मन के मैल को , साबुन से क्यूँ धोय ।।

जगह जगह भटका किये , कुछ ना आया हाथ ।
समय बुरा जब आ गया , सबने छोड़ा साथ ।।

कैसे - कैसे कष्ट हैं , कैसे - कैसे रोग ।
जीवन के इस मोड़ पे , काम न आये योग ।।

मरना तो आसान है , जीना मुश्किल होय ।
कुछ पाने की होड़ में , अपना सब कुछ खोय ।।

बातें  उसकी  यूँ  चुभें  ,  जैसे  चुभते  तीर ।
ज्यों ज्यों वो बातें करे , त्यों त्यों बढ़ती पीर ।।

बाँहों भर आकाश है , आँखो भर संसार ।
लेकिन  दोनों से बड़ा , साजन तेरा प्यार ।।

नैनों  में  सजने  लगी , सपनों  की   बारात ।
आँखों आँखों में सजन , कर ली हमने बात ।।

बढ़ते बढ़ते बढ़ गई , साजन दिल की बात ।
पाते - पाते   पा  लिया  ,  मैंने  तेरा  साथ ।।

सूरज अब दिखला रहा , अपना असली रूप ।
सब  छाया को ढूँढते , ज्यों - ज्यों बढ़ती धूप ।।

चढ़ता सूरज देखकर , सबका मन अकुलाय ।
जो  पेड़ों  को  काटता , वह  क्यों छाया पाय ।।

बढ़ती  गर्मी  देख  कर , सबका धीरज खोय ।
पीने  को  पानी  नहीं  ,  पंछी  व्याकुल  होय ।।

धरती  का  पारा  चढ़ा , दिखे  रूप विकराल ।
गर्मी   के   चलते  हुए  ,  सबके  सब  बेहाल ।।

गर्मी   ने  हैं   कर  दिये  ,  बन्जर  सारे  खेत ।
नदियों  में  पानी  नहीं , बस  दिखती  है  रेत ।।

ज्यों-ज्यों जंगल कट रहे , त्यों-त्यों बढ़ता ताप ।
पहले  जंगल  काटते  ,  फिर   पछताते  आप ।।

खेत   सभी  बन्जर  हुए   ,  सूखे  सारे  स्त्रोत ।
जाने  वो  किस  आस  में  , खेत  रहे  हैं जोत ।।

रोटी के लाले पड़े , सबने छोड़ा साथ ।
मेहनत किस्मत में लिखी , जिनके छोटे हाथ ।।

सबसे सच्चा प्यार है , बाकी सब बेकार ।
दुनिया के बाज़ार में , किसको मिलता प्यार ।।

रिश्तों में खिंचने लगी , अनदेखी दीवार ।
अपने अब अपने नहीं , चलती है तलवार ।।

सबका अपना रूप है , अपनी ही पहचान ।
जो तुझको अच्छा लगे , उसको अपना मान ।।

ढाई आखर प्रेम का , मतलब समझ न आय ।
जितना इसको बूझिये , उतना ही उलझाय ।।

सुनो ज़रा तुम ध्यान से , जीवन का संगीत ।
अगर करोगे प्रीत तुम , भायेगा मनमीत ।।

जीवन भर चलता रहे , सपनों का संसार ।
मुझसे कभी न दूर हो , मेरा अपना प्यार ।।

सोचो तो हैं सब अलग , देखो तो सब एक ।
अन्दर मन में मैल है , बाहर दिखते नेक ।।

कैसा तिरछा खेल है , कैसी तिरछी चाल ।
वो ही मालामाल हैं , जिनकी है टकसाल ।।

हर घर में बिखराव है , हर आँगन दीवार ।
अपनों से ही जीत है , अपनों से ही हार ।।

बाहर से सब ठीक है , लेकिन भीतर द्वंद ।
ऐसे में तुम ही कहो , कैसे हो आनन्द ।।

रोटी की इस जंग में , कबिरा भूखा सोय ।
महंगाई की मार से , बचकर रहा न कोय ।।

पढ़े-लिखों ने अब किया , आपस में ही युद्ध ।
देशप्रेम के नाम पर , बटने लगे प्रबुद्ध ।।

चाहे वो कुछ भी करें , उनसे जनता क्रुद्ध ।
जो विकास की राह को , करते हैं अवरुद्ध ।।

बाहर से अच्छे बनें , मन के अन्दर खोट ।
जनसेवा के नाम पर , माँग रहे जो वोट ।।

मायानगरी है बुरी , क्यों करता है होड़ ।
अपनी चिंता छोड़के , सब कुछ उसपे छोड़ ।।

किसी तरह बुझती नहीं , यह विरहा की आग ।
नागन जब डस जाय तो , मुँह से निकले झाग ।।

ये है दरिया आग का , तैर सके तो तैर ।
प्रेमरोग लग जाय तो , दुनिया होती ग़ैर ।।

काम ऐसा न करो , वक्त बुरा जो आय ।
दिल में जितना प्यार है , सिक्कों में ढल जाय ।।

जायें तो जायें कहाँ , कैसे हो उपचार ।
इक कमरे में रह रहा , सब का सब परिवार ।।

आँगन-आँगन धूप है , आँचल-आँचल छाँव ।
कहीं और मत जाइये , सबसे अच्छा गाँव ।।

कितनी कितनी दूर से , आये हैं सब लोग ।
बरसों में है बन पड़ा , जुड़ने का संजोग ।।

इक छोटी सी बात पर , काहे को इतराय ।
किसमें कितना ज़ोर है , आज पता लग जाय ।।

अम्बर तो हँसता रहे , धरती पर है बोझ ।
कैसे इसको कम करें , तू इसका हल खोज ।।

जिधर जिधर भी देखिये , कष्टों की भरमार ।
कबिरा सच ही कह गए , दुखिया सब संसार ।।

ख़ुशबू तेरी साँस की , साँसों में घुल जाय ।
जो बस मुझको ही नहीं , सारा घर महकाय ।।

किससे रक्खें प्रीत अब , किससे रक्खें आस ।
जीवन के इस मोड़ पर , कोई न रहता पास ।।

जाने क्योंकर बन रहा, वह इतना मासूम ।
बिना पढ़े ही जानते, हम ख़त का मजमूम ।।

घर की साँकल खोल दी , साँकल मन की खोल ।
जीवन को यूँ मत गवाँ , जीवन है अनमोल ।।

रस्ता-रस्ता हम चले , सहरा-सहरा प्यास ।
उतना ही वह दूर है , लगता जितना पास ।।

जाने क्यों वो लड़ रहे , आपस में बिन बात ।
मैं उनसे कुछ भी कहूँ , क्या मेरी औक़ात ।।

दोहा बोला दर्द से , होकर बहुत अधीर ।
अब ना तो वो बात है , और ना वो कबीर ।।

मदिरालय से उठ गए , सारे इंतेज़ाम ।
सब तो पीकर चल दिये , खाली मेरा जाम ।।

रंगत भी उतरी हुई , ख़्वाइश भी नाकाम ।
अब तो मरकर ही हमें , आयेगा आराम ।।

किसी और से युद्ध का , हमें भला क्या काम ।
ख़ुद से ही चलता रहा , अपना तो संग्राम ।।

हर कोई आया यहाँ , करने को कुछ काम ।
सबका ही स्वागत यहाँ , सबका एहतराम ।।

देने वाले ने दिये , सबको दो - दो हाथ ।
ताकत बढ़ जाती अगर , सबका मिलता साथ ।।

मान न अपना खोइये , चाहे कुछ भी होय ।
जाकर वहाँ न बैठिये ,  पूछे जहाँ न कोय ।।

कैसी ओछी सोच है , कैसे कुत्सित ख़्वाब ।
हर कोई पहने हुए , झूठा एक नकाब ।।

ख़ुद्दारी कैसी यहाँ , कैसा यहाँ ज़मीर ।
सच्चाई अब बन गई , फटी हुई तस्वीर ।।

सुख ने छोड़ा साथ जब , दुख ने थामा हाथ ।
किस्मत से हम जूझते , किस्मत अपने साथ ।।

नेताओं की बात पर , कभी न देना ध्यान।
वादे उनके झूठ सब , झूठे सभी बयान ।।

गरमी , सर्दी व बारिश , करते अत्याचार ।
बदला बदला सा लगे , मौसम का व्यवहार ।।

सच्चाई से दूर तू  , चाहे जितना भाग ।
घेरेगी इक दिन तुझे ,ये है ऐसी आग ।।

सोने की चिड़िया यहाँ , बिकती है बेमोल ।
देश-देश में घूमते , लेकर हम कशकोल ।।*

हर कोई यह चाहता , सँवरें उसके काम ।
दुनिया है सबकी मगर , अपने तो बस राम ।।

सबकी बातें मान वो , हरदम धोखा खाय ।
सच्चाई तो है अलग , कौन उसे समझाय ।।

जल संरक्षण कीजिये , इसका नहीं विकल्प ।
इससे  जन  अरु  देश का , होवे कायाकल्प ।।

पानी  दूषित  हो  गया  , बिगड़े  उसके  काज ।
पानी मन में सोचता , क्या कल था क्या आज ।।

कैसे - कैसे धर्म हैं , कैसे - कैसे लोग ।
जो अपने अधिकार का , करते गलत प्रयोग ।।

युगों युगों से हो रहा , अबला संग अन्याय ।
न्याय उसे भी मिल सके , करिये तुरंत उपाय ।।

इस देश के विकास का , सब करते उल्लेख ।
सच्चाई है सामने , देख सके तो देख ।।

दिल को छलनी कर दिया , ऐसा किया प्रहार ।
दोस्त से हमको मिला , कैसा यह उपहार ।।

बादल बरसें ज़ोर से , कैसा तेज बहाव ।
तूफ़ाँ में कैसे चले , यह काग़ज़ की नाव ।।

कुर्सी भी बिकने लगी , कैसा अजब विधान ।
राजनीति के खेल में , सब जायज़ श्रीमान ।।

दया-धरम के नाम पर , सबने जोड़े हाथ ।
नाजायज़ बच्चे मगर , दर-दर फिरें अनाथ ।।

बेटा छोड़े गाँव तो , मुँह से निकले हाय ।
दिल से ये निकले दुआ , वापस जल्दी आय ।।

सीमा की दोनों तरफ़ , कैसा अजब तनाव ।
बटवारे की चोट के , अब तक रिसते घाव ।।

जीवन भी क्या चीज़ है , पल-पल बदले रूप ।
कभी घटा घनघोर है , कभी चमकती धूप ।।

बाहर-बाहर प्यार है , भीतर-भीतर द्वेष ।
लालच के संसार में , अक्सर रहता क्लेश ।।

जीवन के इस मोड़ पे , सबके टूटे साज़ ।
ख़ुद को भी अब ना सुने , ख़ुद की ही आवाज़ ।।

कैसी भागम - भाग है , कैसी रेलम - पेल ।
ख़ुद में ही उलझा हुआ , यह जीवन का खेल ।।

बातें - बातें हर तरफ़ , बातों का ही ज़ोर ।
इन सबसे ऊँचा मगर , ख़ामोशी का शोर ।।

कुछ तो तुमको पढ़ लिया , कुछ पढ़ना है शेष ।
हम कितना भी जान लें, तुम हो सदा विशेष ।।

उससे जब मिलते नहीं , इस जीवन के तार ।
सात जनम की बात फिर , करना है बेकार ।।

किससे बिनती कीजिए , किसके जोड़ें हाथ ।
दुनिया है सबकी मगर , अपने दीनानाथ ।।

सबके दिल में पीर है , सबके भीतर आग ।
जितना गहरा दर्द है , उतना गहरा राग ।।

आनी - जानी देह पर , काहे को इतराय ।
जीवन की जो जोत है , जाने कब बुझ जाय ।।

तेरा - मेरा क्या करे , सब कुछ उसका होय ।
जिस पर तेरा हक़ नहीं , उसके लिए क्यों रोय ।।

जीवन-यापन के लिए , मानव करता श्रम ।
खाना-पीना-ओढ़ना , जीवन का उपक्रम ।।

आँखों में तो लाज है , लेकिन दिल में प्यार ।
जाने कितने रूप में , लेता यह विस्तार ।।

कहने को है बूंद पर , सागर इसमें समाय ।
पलकों पर ठहरे अगर , ये मोती बन जाय ।।

कबिरा-कबिरा सब करें , मगर न समझे कोय ।
ढाई आखर जो गुने , वो ही कबिरा होय ।।

बाहर से तो मेल है , भीतर से अलगाव ।
ऊपर-ऊपर प्रेम है , अन्दर है टकराव ।।

रोजी- रोटी के लिए , बाहर निकले पाँव ।
याद बहुत आए मगर , हमको अपने गाँव ।।

कैसी भागम-भाग है , कैसी छाँटम-छाँट ।
राजनीति की हाट में , मचती बन्दर-बाँट ।।

हमने जब जब राह में , सच का थामा हाथ ।
सबके सब बैरी हुए , सबने छोड़ा साथ ।।

नदिया तट जाकर सुनो , पानी के उद्गार ।
करते हैं क्यों लोग अब , मेरा ही व्यापार ।।

जल को दूषित कर रहे  , आ आकर सब लोग ।
बस इसलिए सब शहर को , घेर रहे हैं रोग ।।

थोड़ी सी तो शर्म हो , थोड़ी सी हो लाज ।
कच्चे चिट्ठे खोल दें , नेताओं के आज ।।

बातों बातों में यहाँ , खिंचने लगी लकीर ।
सच्ची बातें यूँ लगें , जैसे कोई तीर ।।

धीरे धीरे खुल रही , सबकी असली पोल ।
सच्चाई के नाम पर , बोले झूठे बोल ।।

समझाये कोई भले , चाहे जितनी बार ।
हर कोई होता यहाँ , आदत से लाचार ।।

देखे हमने सब नगर , देखे हैं सब घाट ।
जितने मीठे बोल हैं , उतनी गहरी काट ।।

लोगों की क्या बात है , लोगों का क्या खेद ।
दिल ने ही समझे नहीं , दिल के सारे भेद ।।

हर हालत हर काल में , कर्मों के सन्देश ।
इस जीवन का सार हैं , गीता के उपदेश ।।
08)
उसकी ही बस साध है , और न दूजा काम ।
आती-जाती साँस में , बसे हुए घनश्याम ।।

विश्व गौरैया - दिवस पर कुछ दोहे :

अब   कोई  करता  नहीं  ,  गौरैया  का  मान ।
उसके बिगड़े हाल पर , नहीं किसी का ध्यान ।।

तिनका - तिनका वो चुने , और बनाये नीड़ ।
लेकिन  उसके पास में , रहती हरदम भीड़ ।।

बचपन  के दिन याद हैं , वह आती थी रोज़ ।
दाने - तिनके की सदा , करती थी वो खोज ।।

घर - आँगन छूटे सभी ,  छूटा अब वो गाँव ।
गौरैया  दिखती  नहीं  ,  रूठे  उसके  पाँव ।।

गौरैया  का  साथ  था , जीवन का अनुराग ।
जब   से   गौरैया  गई  ,  बिगड़े  सारे  राग ।।

अब भी थोड़ा वक्त है , ख़ुद को ले तू साध ।
दाना - पानी डाल के  , उससे  कर  संवाद ।।

हिन्दी राजभाषा दिवस पर कुछ दोहे : -

हिन्दी  भाषा  है बनी , हम  सबका सम्मान ।
हिन्दी सर का ताज है , हिन्दी ही अभिमान ।।

हरदम  ही  ज़िन्दा रहे , हिन्दी  का अनुराग ।
उसके भी क्या भाग हैं , दे जो हिन्दी त्याग ।।

हिन्दी ही  चिन्हित हुई , सबके  मन में आज ।
हिन्दी  भाषा  बन  गई , हर जीवन का राज ।।

हिन्दी पर तकरार क्यों , क्यों इस पर मतभेद ।
हिन्दी तो  है एक कवच , मत  तू  इसको भेद ।।

विश्व महिला दिवस पर कुछ दोहे :

नारी   के   उत्थान   के  ,  जुमले   हैं   बेकार ।
अब तक मिल पाया नहीं , नारी को अधिकार ।।

जब  तक  समझेगा  जहाँ  , नारी को बस देह ।
तब  तक  के  होगा  नहीं , आपस का यह नेह ।।

घर  के  भीतर  ही नहीं , जब नारी का सम्मान ।
अधिकारों  की  बात  पर , मत करिये अपमान ।।

महिला  दिवस  मनाइये  , पर  यह लीजे जान ।
हर   कीमत  ऊँचा   रहे  ,  नारी  का  सम्मान ।।

नारी   से   ही   मान   है  ,  नारी   से  सम्मान ।
नारी  से  मिलता  हमें  ,  सारे  जग  का  ज्ञान ।।

अपनी छाया देखकर , मानव  डरता आज ।
अनजानी सी लग रही , अपनी ही आवाज़ ।।

अपने मन को साफ़ कर , बाहर की तू छोड़ ।
उससे  बन्धन  जोड़  के , सारे  बन्धन तोड़ ।।

जीवन की इस राह में , तू  ही  नहीं जब संग ।
कैसे  फिर उड़ पायगी , सपनों  की  ये पतंग ।।

मन  में  तेरे  है  कसक , होठों पर सत्कार ।
बदला बदला सा लगे , अपना ही व्यवहार ।।

एक ज़रा सी बात को , दिल पर मत ले यार ।
जाने  कब  चलना पड़े , हो  जा  तू  तैय्यार ।।

इस  दुनिया का आदमी , ख़ुद  से भी नाराज़ ।
ख़ुद को ही चुभने लगे , ख़ुद अपने अल्फा़ज़ ।।

जिसके काँधे तू चढ़ा , उसका छोड़ा हाथ ।
कैसी   तेरी   सोच   है , कैसी   तेरी  बात ।

ऐसी  वाणी  बोलिये , जो   ठंडक  पहुँचाय ।
बातें  ऐसी  सोचिये , जो  मन  को   हर्षाय ।।

ख़ुद को पाना है अगर , अपने भीतर झाँक ।
मन  के भीतर ही छुपी , तेरी असली आँख ।।

काश कभी तुम जानते , जीवन का यह राज़ ।
रोके  से  रुकती  नहीं , भीतर  की  आवाज़ ।।

अनजाने   में   हो  गई  ,  हमसे  कैसी  भूल ।
जब  फूलों  की  चाह  में , काँटे किये कबूल ।।

‎रिश्तों  में  आने  लगा , कैसा यह अलगाव ।
‎सेना  पर  होने लगा , अक्सर अब पथराव ।।

मन  में  टेसू  खिल  उठे , ऐसी  चली  बयार ।
कानों  में  घुलने  लगी  , बातों   की  रसधार ।।

तन  पर  मेरे राज कर , मन बस में कर लेय ।
मौसम की क्या बात है , मौसम हुआ अजेय ।।

गोरी   की  चूनर  उड़े  ,  दहके  उसके  गाल ।
बासन्ती   उन्माद  में , बहकी  उसकी  चाल ।।

तुझको  पूरी  छूट  है , चाहे  जिसको लूट ।
इस दुनिया में न्याय की , कमर गई है टूट ।।

मार-काट जिसने करी , उसके सँवरे काज ।
उसके ही सर पर सजा , सम्मानों का ताज ।।

रहते  भारत  देश  में , पर  करते   बदनाम ।
जैसी  जिनकी  सोच  है , वैसे  उनके काम ।।

जात-धरम के नाम पर , करते  हैं  जो भेद ।
जिस  थाली  में  जीमते , उसमें  करते छेद ।।

यह  इक सच्ची बात है , कर लीजे स्वीकार ।
जो जितना सच्चा बने  , वो  उतना  लाचार ।।

दोहा छंद : साल

सभी  तरह ख़ुशहाल हो , आने वाला साल ।
कुछ  दे तो कुछ ले गया , जाने वाला साल ।।

खट्टे  मीठे  स्वाद  से  ,  भरा   रहा  यह वर्ष ।
कभी  हुए  अपकर्ष  तो , कभी  हुए उत्कर्ष ।।

अबके  हमसे  हो  गई  ,  जाने  कैसी  भूल ।
शूलों  से  चुभने  लगे  ,  श्रद्धा के सब फूल ।।

जुड़ी  हुई  नववर्ष  से  ,  उम्मीदों  की  डोर ।
अँधियारे  के  बाद  हो , उजियाले  की भोर ।।

जाने  वाले  साल  को  , दीजे  कुछ उपहार ।
बोरी - बिस्तर  बाँध  के , चलने  को  तैयार ।।

अब  तो  भ्रष्टाचार  के  ,  मिलते  नहीं  सबूत ।
पर्दे   में   छिपने  लगी  ,  लोगों  की  करतूत ।।

वो   ही  नेता  श्रेष्ठ  है  ,  जो  भी  बोले  नीच ।
जो  सबका  आदर करे , उसकी कॉलर खींच।

सर्दी पर दोहे :

सर्दी  की  इस  धूप   में , मौसम  लगता  खास ।
शाल  व  स्वेटर ओढ़कर , मन उड़ता आकाश ।।

पारा   लुढ़का   रात भर  ,  सबके   सब  हैरान ।
ठिठुर  रहा  फुटपाथ  पर , सोया   हिन्दोस्तान ।।

दिन  भी  कुछ  छोटे  लगें ,  लम्बी   लागे  रात ।
अब  मुश्किल  से  जेब से , बाहर  निकलें हाथ ।।

सर्दी   आई    देखकर   ,  कपड़े   बदलें   रूप।
लोग  सभी  रहने  लगे  ,  मौसम  के  अनुरूप ।।

रातों   में   जलते   दिखें  , चाहे   जहाँ  अलाव ।
कुछ  ऐसे  भी  लोग  अब , करने  लगे  बचाव ।।

हर कोई छलता हमें , क्या अपना क्या ग़ैर ।
इसी लिए हमको नहीं , आज किसी से बैर ।।

मन   में   है   मूरत  बसी , सूरत   चाहे दूर ।
मीरा को घनश्याम का , हरदम  रहे  सुरूर।।

अपनापन दिल में नहीं , बस लफ़्ज़ों का खेल ।
दिल  ही जब मिलते नहीं , कैसे हो फिर मेल।।

पानी  पर  लिक्खे हुए , पानी के अनुबंध ।
पानी सबको मिल सके , ऐसा करो प्रबंध ।।

पानी  के  कारण रहे , जीवन  में अनुराग ।
पानी  से  फसलें  उगें , पानी   छेड़े   राग ।।

पानी  पानी  सब करें , पर ना जानें मोल ।
पानी  पर  भारी पड़े , राजनीति के बोल ।।

मत कर तू अब ऐ मना , पानी से खिलवाड़ ।
इस  धरती का संतुलन , पानी दे न  बिगाड़ ।।

काग़ज़ पर पानी गिरे , काग़ज़ ही गल जाय ।
आँसू  मिट्टी  पर  गिरे , मिट्टी   में  ढल जाय ।।

पानी  का  क्या रूप है , क्या इसका आकार ।
पानी   ही   आधार   है , पानी   ही   विस्तार।।

बादल   में   पानी  बसा , आँखों   में  विश्वास ।
बुधिया  की उम्मीद पर , टंगा  है  आकाश ।।

दीपक पंडित
9179413444
26/05/2021