आज कुछ समकालीन दोहे:
नेताओं का क्या धरम, क्या उनका ईमान।
अपने मुँह से कर रहे, अपना ही गुणगान।।
झूठा उनका नाम है, झूठी उनकी शान।
बाहर से सज्जन दिखें, भीतर से शैतान।।
लोकतंत्र ज़ख़्मी हुआ , टूटे उसके पैर।
हिटलरशाही राज में, नहीं किसी की ख़ैर।।
कैसा अद्भुत देश है, कैसा अद्भुत राज।
सच है पाँवों में पड़ा, झूठ बना सरताज।।
दर्पण से दर्पण कहे , बदल गये हालात।
असली चेहरा ढूँढना, अब है मुश्किल बात।।
जलने को लकड़ी नहीं, ना गहने को हाथ।
लाशों की यह दुर्दशा, सबने छोड़ा साथ।।
दुनिया में इस देश का , चाहे जो हो हाल।
हरदम बस चलती रहे, पैसों की टकसाल।।
समकालीन दोहे:
सारी बातें भूलकर , इतना ले तू जान।
पैसा ही ईमान है , पैसा ही भगवान।।
सच्ची बातों से यहाँ, कब चलता है काम।
जितना बोले झूठ जो, उतना उसका नाम।।
कैसा यह संत्रास है , कैसा हाहाकार।
लगे हुए चारों तरफ़, लाशों के अम्बार।।
दावों पर दावे यहाँ , करते नेता लोग।
भूखों नंगों का मगर , करते हैं उपयोग।।
लेकर चाकू हाथ में, सब करते हैं वार।
जितनी गहरी धार है, उतनी गहरी मार।।
सच का उनकी बात से, कब होता आभास।
पतझर को कहने लगे, लोग यहाँ मधुमास।।
तिनका तिनका जोड़कर, लोग बनाते नीड़।
पर उनको ही तोड़ने, आप जुटाते भीड़।।
जो मन को शीतल करें, बोलें ऐसे बोल।
शब्दों में रस घोलिये, शब्द बड़े अनमोल।।
वक्त बदलता देखकर, सबने बदली चाल।
कोई सौदागर बना, कोई नटवर लाल।।
पेड़ों को मत काटिये, पेड़ों से हैं प्राण।
हो जायेंगे पेड़ बिन, सबके सब निष्प्राण।।
आँखों में सपने लिये, चलते अपनी राह।
मंज़िल पर ही अब रुकें, बस इतनी सी चाह।।
जो करना है आज कर, कल का किसको ज्ञान।
जो पल तेरे हाथ है, उसको अपना मान।।
पानी पर दोहे :
पानी पर प्रस्तावना , लिखने बैठे आज ।
पानी पानी हो गई , अब पानी की लाज ।।
पानी पर होने लगे , अब आपस में युद्ध ।
पानी ना दूषित करें , इसको रक्खें शुद्ध ।।
पानी ही तो मान है , पानी ही सम्मान ।
इसके कारण ही हुआ , हम सबका उत्थान ।
नदियों में जबसे मिला , उद्योगों का मैल ।
हर सरिता के नीर में , ज़हर गया है फैल ।।
पानी की तासीर से , बचकर रहें जनाब ।
पानी भी ना अब कहीं , बन जाये तेजाब ।।
नदिया नदिया ना रही , है बस सूखी रेत ।
पानी ही जब ना मिले , कैसे पनपें खेत ।।
पानी से ही जीत है , पानी से ही हार ।
जीवन में सबसे अहम , पानी का किरदार ।।
चुप होकर मैं सुन रहा , पानी की आवाज़ ।
सबने दूषित कर दिया , देखो मुझको आज ।।
पीड़ा हरती थी कभी , अब देती है रोग ।
नदिया दूषित हो गई , कैसे बने कुयोग ।।
कोई कुछ कहता नहीं , सब बैठे चुपचाप ।
बेसबरी बढ़ने लगी , कुछ तो करिये आप ।।
ऐसा ना हो एक दिन , अपना आपा खोय ।
पानी पानी ही रहे , अब यह ज़हर न होय ।।
ना पानी का देश है , ना पानी की जात ।
लेकिन सबसे है अहम , पानी की औक़ात ।।
पानी को मत यूँ गवाँ , बूंद - बूंद का मोल ।
पानी की कीमत समझ , पानी है अनमोल ।।
सदा रहा है आग से , पानी का अनुराग ।
पानी में जाकर बुझी , जब भी भड़की आग ।।
खूँ से क्यों लथपथ हुई , काश्मीर की झील ।
किसने आकर ठोक दी , उसके दिल में कील ।।
आँखों में पानी नहीं , ना ही कोई लाज ।
पानी को सुनती नहीं , पानी की आवाज़ ।।
पानी पर खिंचने लगी , आपस में शमशीर ।
पानी से लिक्खी हुई , पानी की तकदीर ।।
पानी से बचकर रहो , बहुत तेज है मार ।
चट्टानें भी काट दे , यह पानी की धार ।।
पानी पानी सब जगह , करता हाहाकार ।
ख़बरों में भीगा हुआ , सबका सब अख़बार ।।
पानी सबकी आस है , पानी ही विश्वास ।
पानी से ही बुझ सकी , बड़े बड़ों की प्यास ।।
हिम , पानी औ' भाप हैं , पानी के ही रूप ।
क्या नदिया पानी बिना , क्या पानी बिन कूप ।।
पानी की इज़्ज़त करो , पानी सबसे खास ।
पानी से सम्भव हुआ , सभ्यता का विकास ।।
पानी ही तो राग है , पानी ही आलाप ।
पानी बिन ऐसा लगे , जीवन है अभिशाप ।।
क्या पानी का धर्म है , क्या पानी की जात ।
पर पानी के सामने , किसकी क्या औक़ात ।।
हिन्दी-दिवस पर कुछ दोहे
हिन्दी हिन्दी सब करें, हिन्दी पढ़े न कोय।
जो हिन्दी पढ़ने लगे , वो दुनिया का होय।।
हिन्दी के अधिकार पर, क्यों उठते हैं प्रश्न?
अंग्रेजी के वास्ते , होते ख़ूब प्रयत्न।।
हिन्दी से होने लगा , स्कूलों में खेल।
बच्चे अब होने लगे , हिन्दी में ही फेल।।
फैला है चारों तरफ़ , हिन्दी का संसार।
हिन्दी ही आचार है, हिन्दी ही व्यवहार।।
हिन्दी का इस देश में, मत करिये अपमान।
हिन्दी सबका मान है, हिन्दी ही अभिमान।।
दोहे
राजा के दरबार में , हुआ अजब सत्कार।
जिसने जिसने सच कहा , पड़ी उसी को मार।।
एड़ी चोटी एक कर , जोते खेत किसान।
उसकी फ़सलों को मगर, ले लेता परधान।।
सबके मन में बैर है , सबके मन में खोट।
जिसको अपना मानिये, वो ही करता चोट।।
रिश्तों के अब देखिये , उलझे हैं सब तार।
सींचा जिनको प्यार से , आज बने हैं ख़ार।।
सपनों के आकाश में , जब जब उड़े पतंग।
तब तब उसको काटने , मौसम बदले रंग।।
आज के हालात पर कुछ दोहे:
भीड़-तंत्र के नाम पर, कैसा यह उत्पात।
मानवता देने लगी, दानवता को मात।।
घर में ही बनवास है, घर में ही है जेल।
लोगों का मरना हुआ, अब संख्या का खेल।।
जो रोटी के वास्ते, मरते हैं हर रोज।
उनके जीने का तनिक, रस्ता लीजे खोज।।
दुनिया के बाज़ार में, सबकी टूटी साख।
ख़ुशियाँ बिकती थीं जहाँ, अब बिकती है राख।।
विश्व-पटल पर इन दिनों, बदल गये सब ढंग।
सबका अपना रूप है, सबके अपने रंग।।
मिस्टर ड्रैगन नाम है, ख़ूब मचाये शोर।
कोरोना के रूप में, फैला चारों ओर।।
सबको अपना ही समझ, करता है उपचार।
भारत देखो बन गया, सबका तारनहार।।
कोरोना पर दोहे
कोरोना जिससे बढ़े , मत करिये वो काज।
कोरोना के रूप में, काल खड़ा है आज।।
कोरोना के कोप का, ख़ुद ही लें संज्ञान।
सबसे अब दूरी रखें, आप सभी श्रीमान।।
बाहर निकलें जब कभी , पहन लीजिये मास्क।
हाथों को धोया करें, समझ ज़रूरी टास्क।।
बढ़ते बढ़ते बढ़ गया , देखो चारों ओर।
कोरोना के सामने , हर कोई कमजोर।।
घर से बेघर जो हुए , लौट रहे हैं गाँव।
शहरों में तो ना मिली, उनको असली ठाँव।।
दिन पर दिन बढ़ने लगे, इधर-उधर विद्रोह।
जिनका मकसद तोड़ना, लीजे उनकी टोह।।
उनको यूँ मत छोड़िये , वो सब हैं शैतान।
आर - पार की जंग का, कर दीजे ऐलान।।
जो सेवा के भाव से , करते अपने काम।
उनकी कोशिश को कभी , करिये मत नाकाम।।
आज के दोहे
सच्चाई की हर परत, खोल सके तो खोल।
जितना रुतबा झूठ का, उतने ऊँचे बोल।।
दाना- पानी कुछ नहीं, पंछी सब बेहाल।
सूरज देखो पी गया, सब नदिया औ ताल।।
ढूँढे से मिलता नहीं, अब जीवन में चैन।
कोई भी कहता नहीं, प्यार भरे दो बैन।।
सब कुछ ही महँगा हुआ, क्या रोटी क्या नून।
आँखों से बहने लगा, देखो सारा ख़ून।।
धीरे धीरे चुक गये, जीवन के अनुराग।
उड़ते उड़ते उड़ गया, सारा छंद- पराग।।
ऐसे ही बढ़ता रहे, प्यार भरा व्यवहार।
किसी तरह ना हो खड़ी, रिश्तों में दीवार।।
पल पल ही सच की यहाँ, टूट रही है शाख।
उतना ही है वह सही, जितनी जिसकी साख।।
रामायण सीरियल के आज के एपिसोड पर कुछ दोहे:
अति घमंड जिसमें भरा, उसकी मति फिर जाय।
जिसके सर पर काल हो , उसको कौन बचाय।।
रावण लड़ने के लिये, फिर आया है आज।
उसके सम्मुख राम हैं, लेने सर औ ताज।।
शिव का पक्का भक्त है, रावण को है ज्ञात।
लंका के इस युद्ध में, उसकी होगी मात।।
जानबूझ कर कर रहा, बढ़-चढ़ कर संग्राम।
रावण ख़ुद यह जानता, मुक्त करेंगे राम।।
कुछ दोहे
राहों का रोड़ा बने , जो बेग़ैरत लोग।
उनको जड़ से काटिये , बने हुए हैं रोग।।
घर - घर इनको ढूँढिये, फिर करिये उपचार।
इनके हठ के सामने , हर कोई लाचार।।
उनके दिल में दर्द है , ना कोई अनुराग।
अन्दर केवल जल रही, नफ़रत वाली आग।।
कर्क रोग सा देखिये , फैले चारों ओर।
ऊपर से गाली बकें , ये ऐसे मुँहजोर।।
इनका चिट्ठा खोलिये , ये जग में कुख्यात।
आतंकों से कम नहीं , इनके ये उत्पात।।
एक दिवस के ही लिये, चलते क्यों अभियान।
हर दिन होना चाहिये, हिंदी का सम्मान।।
हिंदी सबका मान है, हिंदी ही अभिमान।
हिंदी से मिलता हमें, सबसे ज़्यादा ज्ञान।।
हिंदी सबके सामने, करती है ऐलान।
हिंदी भाषा के लिये, सब हैं एक समान।।
हिंदी हममें यूँ बसी, ज्यों शरीर में प्राण।
हिंदी बिन जीवन लगे, जैसे हो निष्प्राण।।
हिंदी का अपना अलग, होता है संसार।
हिंदी में आचार हो, हिंदी में व्यवहार।।
शिक्षक-दिवस पर कुछ दोहे:
शिक्षक से बढ़कर नहीं, इस दुनिया में कोय।
जिसके भीतर ज्ञान हो, वो ही शिक्षक होय।।
शिक्षा को मत त्यागिये, ये ही रहती पास।
किसी वजह मत कीजिये, शिक्षक का उपहास।।
गुरु की महिमा जानिये, कीजे कुछ अनुमान।
ये सच है मिलते नहीं, गुरु के बिन भगवान।।
जहाँ जहाँ यह ज्ञान है, वहाँ वहाँ है तीर्थ।
गुरु को जो है पूजता, होता वह उत्तीर्ण।।
शिक्षा तो इक धर्म है, मत समझो व्यवसाय।
बस शिक्षा का ज्ञान ही, जीवन का अभिप्राय।।
दोहे
महँगाई की मार से, बिगड़े हैं सुरताल।
साँस-साँस गिरवी हुई, जीवन हुआ मुहाल।।
पानी जग में एक सा, करता नहीं दुराव।
शीतलता से है भरा, पानी का बरताव।।
बदला बदला रूप है , बदली बदली चाल ।
फिर चुनाव का ज़ोर है , बदले हैं सुरताल ।।
पनघट पनघट प्यास है , आँगन आँगन भूख ।
ख़ुशियों के तो पेड़ सब , आज गये हैं सूख ।।
अपने ही मद में भरे , लोग रहे हैं झूम ।
लोभ और लालच भरे , स्वान रहे हैं घूम ।।
सूखे सूखे ताल हैं , सूखे सूखे कूप ।
अबके मौसम ने लिया , कैसा भीषण रूप ।।
कहने को सब एक हैं , लेकिन करते भेद ।
शासन की इस नाव में , जगह जगह हैं छेद ।।
महँगाई की बोलिये , कब तक झेलें मार ।
यहाँ वहाँ चारों तरफ़ , फैला भ्रष्टाचार ।।
धीरे धीरे आ रहा , कैसा यह बदलाव ।
जीवन के हर पृष्ठ पर , फैला है बिखराव ।।
की बात पर , कैसे हो विश्वास ।
जितना जिसका दायरा , उतनी उसकी प्यास ।।
समय-रेत पर जब लिखा , हमने अपना नाम ।
तेज हवा कहने लगी , पहले ख़ुद को थाम ।।
अब धर्मों के नाम पर , होता है व्यापार ।
सच्चाई दिखती नहीं , झूठ मगर भरमार ।।
मरते खपते हो गये , हमको कितने साल ।
तब भी हम बदहाल थे , अब भी हैं बदहाल ।।
अपने में डूबे रहे , बन सबसे अनजान ।
ख़ुद की सेवा कर रहे , नहीं किसी का ध्यान ।।
वादों से भरमा रहे , वो जनता को आज ।
पर जनता भी जानती , उनके असली काज ।।
जब कुर्सी उनको मिली , भूल गये कर्तव्य ।
सारी जनता जानती , क्या है उनका सत्य ।।
पैसों की पीछे सभी , होते हैं आकृष्ट ।
पैसा ही लेकिन बना , सबका असली कष्ट ।।
सारे सपने हैं गलत , गलत सभी अनुमान ।
जीना मुश्किल हो गया , मरना है आसान ।।
रिश्तों ने संसार में , खोये अपने अर्थ ।
जो थे बरगद की तरह , वो लगते हैं व्यर्थ ।।
आया हूँ तेरी शरण , सारी दुनिया छोड़ ।
सारे बंधन तोड़ के , मुझको ख़ुद से जोड़ ।।
इस झूठे संसार का , बस इतना है सार ।
लोभ-मोह को छोड़ दे , हो जायेगा पार ।।
लोभ-मोह से क्या मिला , आया कुछ ना हाथ ।
साथ कभी कुछ आय ना , जाये कुछ ना साथ ।।
लोभी है दुनिया सभी , लोभी आदम जात ।
मोह-जाल में जो फँसा , उसके दिन भी रात ।।
लोभ-मोह का खेल है , यह सारा संसार ।
इस चक्कर में जो फँसा , उसकी पक्की हार ।।
ईश्वर को भी खो दिया , छोड़ा सब घरबार ।
लोभ-मोह के फेर में , हो बैठे बेकार ।।
सावन सावन सब करें , पर भीगे ना कोय ।
जो इसमें भीगे कभी , ख़ुद सावन सा होय ।।
सावन बरसे झूम के , सजनी को तरसाय ।
ऐसा सावन आय कब , जो साजन को लाय ।।
मन की सारी भावना , है साजन के नाम ।
साजन ही गर ना मिले , क्या सावन का काम ।।
सावन के मेले लगे , झूलें सखियाँ संग ।
तरह तरह के खेल हैं , तरह तरह के रंग ।
जा बसे परदेस सजन , बदला जीवन राग ।
सावन में भी जल रही , है विरहा की आग ।।
यह जग मायाजाल है , हो जाता सब नाश ।
ना अपनी है यह ज़मीं , ना अपना आकाश ।।
कैसी रेलम - पेल है , कैसी भागम - भाग ।
सबकी अपनी दौड़ है , सबकी अपनी आग ।।
सच्चाई समझे नहीं , कौन इसे समझाय ।
इस दुनिया के खेल में , सच झूठा पड़ जाय ।।
महँगाई की हर घड़ी , बढ़ती जाये मार ।
इसके चलते हो गये , सबके सब लाचार ।।
तोड़े से टूटे नहीं , ऐसा इसका जोड़ ।
है अटूट यह प्रार्थना , मत तू इसको छोड़ ।।
नफ़रत की इस आग में , सब कुछ ही जल जाय ।
जो कोई भड़काए इसे , वो ख़ुद ही मिट जाय ।।
दुनिया की रफ़्तार से , मेल न अपना होय ।
इसकी रेलम - पेल में , सुख - चैना सब खोय ।।
जागन की बेला भई , बिस्तर रहा रिझाय ।
यह तन तो है आलसी , कौन इसे समझाय ।।
प्राणी अपनी देह पर , काहे को इतराय ।
माटी की यह देह है , माटी में मिल जाय ।।
मन में है पीड़ा घनी , अखियन बरसे नीर ।
अँसुवन की इस बेल से , झरने लगे कबीर ।।
मीरा के मन में नहीं , किसी तरह का खोट ।
चाहे विष-प्याला पिये , रहे श्याम की ओट ।।
बस इस पल की बात कर , कल की चिन्ता छोड़ ।
जाने अगले पल ले ले, जीवन कैसा मोड़ ।।
नफ़रत की इस आग में , सब कुछ ही जल जाय ।
जो कोई भड़काए इसे , वो ख़ुद ही मिट जाय ।।
दुनिया की रफ़्तार से , मेल न अपना होय ।
इसकी रेलम - पेल में , सुख - चैना सब खोय ।।
जागन की बेला भई , बिस्तर रहा रिझाय ।
यह तन तो है आलसी , कौन इसे समझाय ।।
प्राणी अपनी देह पर , काहे को इतराय ।
माटी की यह देह है , माटी में मिल जाय ।।
मन में है पीड़ा घनी , अखियन बरसे नीर ।
अँसुवन की इस बेल से , झरने लगे कबीर ।।
मीरा के मन में नहीं , किसी तरह का खोट ।
चाहे विष-प्याला पिये , रहे श्याम की ओट ।।
कुछ दोहे :-
आँखों के दर पर रुकी, सपनों की बारात ।
बहकी सी ये रात है , बहके से जज़्बात ।।
अपने दिल की बात कर , अब तो चुप्पी तोड़ ।
अन्दर का संगीत सुन , ख़ुद को मुझसे जोड़ ।।
अरमानों की आग में , सुलग रहा यह रूप।
ऐसे में तुम आ मिलो , बन जाड़े की धूप।।
बदला बदला रूप है , बदली बदली चाल ।
गोरी नैहर छोड़ के , आ पहुँची ससुराल ।।
बेटी घर की लाज है , चाहे जिस घर होय ।
प्यार और समृद्धि के , बीज वहीं पर बोय ।।
सबकी अपनी धुन अलग , सबका अपना राग ।
उतना ही बस वो जले , जितनी जिसमें आग ।।
पहले तू समझा नहीं , फिर पीछे क्यूँ रोय ।
अपने मन के मैल को , साबुन से क्यूँ धोय ।।
जगह जगह भटका किये , कुछ ना आया हाथ ।
समय बुरा जब आ गया , सबने छोड़ा साथ ।।
कैसे - कैसे कष्ट हैं , कैसे - कैसे रोग ।
जीवन के इस मोड़ पे , काम न आये योग ।।
मरना तो आसान है , जीना मुश्किल होय ।
कुछ पाने की होड़ में , अपना सब कुछ खोय ।।
बातें उसकी यूँ चुभें , जैसे चुभते तीर ।
ज्यों ज्यों वो बातें करे , त्यों त्यों बढ़ती पीर ।।
बाँहों भर आकाश है , आँखो भर संसार ।
लेकिन दोनों से बड़ा , साजन तेरा प्यार ।।
नैनों में सजने लगी , सपनों की बारात ।
आँखों आँखों में सजन , कर ली हमने बात ।।
बढ़ते बढ़ते बढ़ गई , साजन दिल की बात ।
पाते - पाते पा लिया , मैंने तेरा साथ ।।
सूरज अब दिखला रहा , अपना असली रूप ।
सब छाया को ढूँढते , ज्यों - ज्यों बढ़ती धूप ।।
चढ़ता सूरज देखकर , सबका मन अकुलाय ।
जो पेड़ों को काटता , वह क्यों छाया पाय ।।
बढ़ती गर्मी देख कर , सबका धीरज खोय ।
पीने को पानी नहीं , पंछी व्याकुल होय ।।
धरती का पारा चढ़ा , दिखे रूप विकराल ।
गर्मी के चलते हुए , सबके सब बेहाल ।।
गर्मी ने हैं कर दिये , बन्जर सारे खेत ।
नदियों में पानी नहीं , बस दिखती है रेत ।।
ज्यों-ज्यों जंगल कट रहे , त्यों-त्यों बढ़ता ताप ।
पहले जंगल काटते , फिर पछताते आप ।।
खेत सभी बन्जर हुए , सूखे सारे स्त्रोत ।
जाने वो किस आस में , खेत रहे हैं जोत ।।
रोटी के लाले पड़े , सबने छोड़ा साथ ।
मेहनत किस्मत में लिखी , जिनके छोटे हाथ ।।
सबसे सच्चा प्यार है , बाकी सब बेकार ।
दुनिया के बाज़ार में , किसको मिलता प्यार ।।
रिश्तों में खिंचने लगी , अनदेखी दीवार ।
अपने अब अपने नहीं , चलती है तलवार ।।
सबका अपना रूप है , अपनी ही पहचान ।
जो तुझको अच्छा लगे , उसको अपना मान ।।
ढाई आखर प्रेम का , मतलब समझ न आय ।
जितना इसको बूझिये , उतना ही उलझाय ।।
सुनो ज़रा तुम ध्यान से , जीवन का संगीत ।
अगर करोगे प्रीत तुम , भायेगा मनमीत ।।
जीवन भर चलता रहे , सपनों का संसार ।
मुझसे कभी न दूर हो , मेरा अपना प्यार ।।
सोचो तो हैं सब अलग , देखो तो सब एक ।
अन्दर मन में मैल है , बाहर दिखते नेक ।।
कैसा तिरछा खेल है , कैसी तिरछी चाल ।
वो ही मालामाल हैं , जिनकी है टकसाल ।।
हर घर में बिखराव है , हर आँगन दीवार ।
अपनों से ही जीत है , अपनों से ही हार ।।
बाहर से सब ठीक है , लेकिन भीतर द्वंद ।
ऐसे में तुम ही कहो , कैसे हो आनन्द ।।
रोटी की इस जंग में , कबिरा भूखा सोय ।
महंगाई की मार से , बचकर रहा न कोय ।।
पढ़े-लिखों ने अब किया , आपस में ही युद्ध ।
देशप्रेम के नाम पर , बटने लगे प्रबुद्ध ।।
चाहे वो कुछ भी करें , उनसे जनता क्रुद्ध ।
जो विकास की राह को , करते हैं अवरुद्ध ।।
बाहर से अच्छे बनें , मन के अन्दर खोट ।
जनसेवा के नाम पर , माँग रहे जो वोट ।।
मायानगरी है बुरी , क्यों करता है होड़ ।
अपनी चिंता छोड़के , सब कुछ उसपे छोड़ ।।
किसी तरह बुझती नहीं , यह विरहा की आग ।
नागन जब डस जाय तो , मुँह से निकले झाग ।।
ये है दरिया आग का , तैर सके तो तैर ।
प्रेमरोग लग जाय तो , दुनिया होती ग़ैर ।।
काम ऐसा न करो , वक्त बुरा जो आय ।
दिल में जितना प्यार है , सिक्कों में ढल जाय ।।
जायें तो जायें कहाँ , कैसे हो उपचार ।
इक कमरे में रह रहा , सब का सब परिवार ।।
आँगन-आँगन धूप है , आँचल-आँचल छाँव ।
कहीं और मत जाइये , सबसे अच्छा गाँव ।।
कितनी कितनी दूर से , आये हैं सब लोग ।
बरसों में है बन पड़ा , जुड़ने का संजोग ।।
इक छोटी सी बात पर , काहे को इतराय ।
किसमें कितना ज़ोर है , आज पता लग जाय ।।
अम्बर तो हँसता रहे , धरती पर है बोझ ।
कैसे इसको कम करें , तू इसका हल खोज ।।
जिधर जिधर भी देखिये , कष्टों की भरमार ।
कबिरा सच ही कह गए , दुखिया सब संसार ।।
ख़ुशबू तेरी साँस की , साँसों में घुल जाय ।
जो बस मुझको ही नहीं , सारा घर महकाय ।।
किससे रक्खें प्रीत अब , किससे रक्खें आस ।
जीवन के इस मोड़ पर , कोई न रहता पास ।।
जाने क्योंकर बन रहा, वह इतना मासूम ।
बिना पढ़े ही जानते, हम ख़त का मजमूम ।।
घर की साँकल खोल दी , साँकल मन की खोल ।
जीवन को यूँ मत गवाँ , जीवन है अनमोल ।।
रस्ता-रस्ता हम चले , सहरा-सहरा प्यास ।
उतना ही वह दूर है , लगता जितना पास ।।
जाने क्यों वो लड़ रहे , आपस में बिन बात ।
मैं उनसे कुछ भी कहूँ , क्या मेरी औक़ात ।।
दोहा बोला दर्द से , होकर बहुत अधीर ।
अब ना तो वो बात है , और ना वो कबीर ।।
मदिरालय से उठ गए , सारे इंतेज़ाम ।
सब तो पीकर चल दिये , खाली मेरा जाम ।।
रंगत भी उतरी हुई , ख़्वाइश भी नाकाम ।
अब तो मरकर ही हमें , आयेगा आराम ।।
किसी और से युद्ध का , हमें भला क्या काम ।
ख़ुद से ही चलता रहा , अपना तो संग्राम ।।
हर कोई आया यहाँ , करने को कुछ काम ।
सबका ही स्वागत यहाँ , सबका एहतराम ।।
देने वाले ने दिये , सबको दो - दो हाथ ।
ताकत बढ़ जाती अगर , सबका मिलता साथ ।।
मान न अपना खोइये , चाहे कुछ भी होय ।
जाकर वहाँ न बैठिये , पूछे जहाँ न कोय ।।
कैसी ओछी सोच है , कैसे कुत्सित ख़्वाब ।
हर कोई पहने हुए , झूठा एक नकाब ।।
ख़ुद्दारी कैसी यहाँ , कैसा यहाँ ज़मीर ।
सच्चाई अब बन गई , फटी हुई तस्वीर ।।
सुख ने छोड़ा साथ जब , दुख ने थामा हाथ ।
किस्मत से हम जूझते , किस्मत अपने साथ ।।
नेताओं की बात पर , कभी न देना ध्यान।
वादे उनके झूठ सब , झूठे सभी बयान ।।
गरमी , सर्दी व बारिश , करते अत्याचार ।
बदला बदला सा लगे , मौसम का व्यवहार ।।
सच्चाई से दूर तू , चाहे जितना भाग ।
घेरेगी इक दिन तुझे ,ये है ऐसी आग ।।
सोने की चिड़िया यहाँ , बिकती है बेमोल ।
देश-देश में घूमते , लेकर हम कशकोल ।।*
हर कोई यह चाहता , सँवरें उसके काम ।
दुनिया है सबकी मगर , अपने तो बस राम ।।
सबकी बातें मान वो , हरदम धोखा खाय ।
सच्चाई तो है अलग , कौन उसे समझाय ।।
जल संरक्षण कीजिये , इसका नहीं विकल्प ।
इससे जन अरु देश का , होवे कायाकल्प ।।
पानी दूषित हो गया , बिगड़े उसके काज ।
पानी मन में सोचता , क्या कल था क्या आज ।।
कैसे - कैसे धर्म हैं , कैसे - कैसे लोग ।
जो अपने अधिकार का , करते गलत प्रयोग ।।
युगों युगों से हो रहा , अबला संग अन्याय ।
न्याय उसे भी मिल सके , करिये तुरंत उपाय ।।
इस देश के विकास का , सब करते उल्लेख ।
सच्चाई है सामने , देख सके तो देख ।।
दिल को छलनी कर दिया , ऐसा किया प्रहार ।
दोस्त से हमको मिला , कैसा यह उपहार ।।
बादल बरसें ज़ोर से , कैसा तेज बहाव ।
तूफ़ाँ में कैसे चले , यह काग़ज़ की नाव ।।
कुर्सी भी बिकने लगी , कैसा अजब विधान ।
राजनीति के खेल में , सब जायज़ श्रीमान ।।
दया-धरम के नाम पर , सबने जोड़े हाथ ।
नाजायज़ बच्चे मगर , दर-दर फिरें अनाथ ।।
बेटा छोड़े गाँव तो , मुँह से निकले हाय ।
दिल से ये निकले दुआ , वापस जल्दी आय ।।
सीमा की दोनों तरफ़ , कैसा अजब तनाव ।
बटवारे की चोट के , अब तक रिसते घाव ।।
जीवन भी क्या चीज़ है , पल-पल बदले रूप ।
कभी घटा घनघोर है , कभी चमकती धूप ।।
बाहर-बाहर प्यार है , भीतर-भीतर द्वेष ।
लालच के संसार में , अक्सर रहता क्लेश ।।
जीवन के इस मोड़ पे , सबके टूटे साज़ ।
ख़ुद को भी अब ना सुने , ख़ुद की ही आवाज़ ।।
कैसी भागम - भाग है , कैसी रेलम - पेल ।
ख़ुद में ही उलझा हुआ , यह जीवन का खेल ।।
बातें - बातें हर तरफ़ , बातों का ही ज़ोर ।
इन सबसे ऊँचा मगर , ख़ामोशी का शोर ।।
कुछ तो तुमको पढ़ लिया , कुछ पढ़ना है शेष ।
हम कितना भी जान लें, तुम हो सदा विशेष ।।
उससे जब मिलते नहीं , इस जीवन के तार ।
सात जनम की बात फिर , करना है बेकार ।।
किससे बिनती कीजिए , किसके जोड़ें हाथ ।
दुनिया है सबकी मगर , अपने दीनानाथ ।।
सबके दिल में पीर है , सबके भीतर आग ।
जितना गहरा दर्द है , उतना गहरा राग ।।
आनी - जानी देह पर , काहे को इतराय ।
जीवन की जो जोत है , जाने कब बुझ जाय ।।
तेरा - मेरा क्या करे , सब कुछ उसका होय ।
जिस पर तेरा हक़ नहीं , उसके लिए क्यों रोय ।।
जीवन-यापन के लिए , मानव करता श्रम ।
खाना-पीना-ओढ़ना , जीवन का उपक्रम ।।
आँखों में तो लाज है , लेकिन दिल में प्यार ।
जाने कितने रूप में , लेता यह विस्तार ।।
कहने को है बूंद पर , सागर इसमें समाय ।
पलकों पर ठहरे अगर , ये मोती बन जाय ।।
कबिरा-कबिरा सब करें , मगर न समझे कोय ।
ढाई आखर जो गुने , वो ही कबिरा होय ।।
बाहर से तो मेल है , भीतर से अलगाव ।
ऊपर-ऊपर प्रेम है , अन्दर है टकराव ।।
रोजी- रोटी के लिए , बाहर निकले पाँव ।
याद बहुत आए मगर , हमको अपने गाँव ।।
कैसी भागम-भाग है , कैसी छाँटम-छाँट ।
राजनीति की हाट में , मचती बन्दर-बाँट ।।
हमने जब जब राह में , सच का थामा हाथ ।
सबके सब बैरी हुए , सबने छोड़ा साथ ।।
नदिया तट जाकर सुनो , पानी के उद्गार ।
करते हैं क्यों लोग अब , मेरा ही व्यापार ।।
जल को दूषित कर रहे , आ आकर सब लोग ।
बस इसलिए सब शहर को , घेर रहे हैं रोग ।।
थोड़ी सी तो शर्म हो , थोड़ी सी हो लाज ।
कच्चे चिट्ठे खोल दें , नेताओं के आज ।।
बातों बातों में यहाँ , खिंचने लगी लकीर ।
सच्ची बातें यूँ लगें , जैसे कोई तीर ।।
धीरे धीरे खुल रही , सबकी असली पोल ।
सच्चाई के नाम पर , बोले झूठे बोल ।।
समझाये कोई भले , चाहे जितनी बार ।
हर कोई होता यहाँ , आदत से लाचार ।।
देखे हमने सब नगर , देखे हैं सब घाट ।
जितने मीठे बोल हैं , उतनी गहरी काट ।।
लोगों की क्या बात है , लोगों का क्या खेद ।
दिल ने ही समझे नहीं , दिल के सारे भेद ।।
हर हालत हर काल में , कर्मों के सन्देश ।
इस जीवन का सार हैं , गीता के उपदेश ।।
08)
उसकी ही बस साध है , और न दूजा काम ।
आती-जाती साँस में , बसे हुए घनश्याम ।।
विश्व गौरैया - दिवस पर कुछ दोहे :
अब कोई करता नहीं , गौरैया का मान ।
उसके बिगड़े हाल पर , नहीं किसी का ध्यान ।।
तिनका - तिनका वो चुने , और बनाये नीड़ ।
लेकिन उसके पास में , रहती हरदम भीड़ ।।
बचपन के दिन याद हैं , वह आती थी रोज़ ।
दाने - तिनके की सदा , करती थी वो खोज ।।
घर - आँगन छूटे सभी , छूटा अब वो गाँव ।
गौरैया दिखती नहीं , रूठे उसके पाँव ।।
गौरैया का साथ था , जीवन का अनुराग ।
जब से गौरैया गई , बिगड़े सारे राग ।।
अब भी थोड़ा वक्त है , ख़ुद को ले तू साध ।
दाना - पानी डाल के , उससे कर संवाद ।।
हिन्दी राजभाषा दिवस पर कुछ दोहे : -
हिन्दी भाषा है बनी , हम सबका सम्मान ।
हिन्दी सर का ताज है , हिन्दी ही अभिमान ।।
हरदम ही ज़िन्दा रहे , हिन्दी का अनुराग ।
उसके भी क्या भाग हैं , दे जो हिन्दी त्याग ।।
हिन्दी ही चिन्हित हुई , सबके मन में आज ।
हिन्दी भाषा बन गई , हर जीवन का राज ।।
हिन्दी पर तकरार क्यों , क्यों इस पर मतभेद ।
हिन्दी तो है एक कवच , मत तू इसको भेद ।।
विश्व महिला दिवस पर कुछ दोहे :
नारी के उत्थान के , जुमले हैं बेकार ।
अब तक मिल पाया नहीं , नारी को अधिकार ।।
जब तक समझेगा जहाँ , नारी को बस देह ।
तब तक के होगा नहीं , आपस का यह नेह ।।
घर के भीतर ही नहीं , जब नारी का सम्मान ।
अधिकारों की बात पर , मत करिये अपमान ।।
महिला दिवस मनाइये , पर यह लीजे जान ।
हर कीमत ऊँचा रहे , नारी का सम्मान ।।
नारी से ही मान है , नारी से सम्मान ।
नारी से मिलता हमें , सारे जग का ज्ञान ।।
अपनी छाया देखकर , मानव डरता आज ।
अनजानी सी लग रही , अपनी ही आवाज़ ।।
अपने मन को साफ़ कर , बाहर की तू छोड़ ।
उससे बन्धन जोड़ के , सारे बन्धन तोड़ ।।
जीवन की इस राह में , तू ही नहीं जब संग ।
कैसे फिर उड़ पायगी , सपनों की ये पतंग ।।
मन में तेरे है कसक , होठों पर सत्कार ।
बदला बदला सा लगे , अपना ही व्यवहार ।।
एक ज़रा सी बात को , दिल पर मत ले यार ।
जाने कब चलना पड़े , हो जा तू तैय्यार ।।
इस दुनिया का आदमी , ख़ुद से भी नाराज़ ।
ख़ुद को ही चुभने लगे , ख़ुद अपने अल्फा़ज़ ।।
जिसके काँधे तू चढ़ा , उसका छोड़ा हाथ ।
कैसी तेरी सोच है , कैसी तेरी बात ।
ऐसी वाणी बोलिये , जो ठंडक पहुँचाय ।
बातें ऐसी सोचिये , जो मन को हर्षाय ।।
ख़ुद को पाना है अगर , अपने भीतर झाँक ।
मन के भीतर ही छुपी , तेरी असली आँख ।।
काश कभी तुम जानते , जीवन का यह राज़ ।
रोके से रुकती नहीं , भीतर की आवाज़ ।।
अनजाने में हो गई , हमसे कैसी भूल ।
जब फूलों की चाह में , काँटे किये कबूल ।।
रिश्तों में आने लगा , कैसा यह अलगाव ।
सेना पर होने लगा , अक्सर अब पथराव ।।
मन में टेसू खिल उठे , ऐसी चली बयार ।
कानों में घुलने लगी , बातों की रसधार ।।
तन पर मेरे राज कर , मन बस में कर लेय ।
मौसम की क्या बात है , मौसम हुआ अजेय ।।
गोरी की चूनर उड़े , दहके उसके गाल ।
बासन्ती उन्माद में , बहकी उसकी चाल ।।
तुझको पूरी छूट है , चाहे जिसको लूट ।
इस दुनिया में न्याय की , कमर गई है टूट ।।
मार-काट जिसने करी , उसके सँवरे काज ।
उसके ही सर पर सजा , सम्मानों का ताज ।।
रहते भारत देश में , पर करते बदनाम ।
जैसी जिनकी सोच है , वैसे उनके काम ।।
जात-धरम के नाम पर , करते हैं जो भेद ।
जिस थाली में जीमते , उसमें करते छेद ।।
यह इक सच्ची बात है , कर लीजे स्वीकार ।
जो जितना सच्चा बने , वो उतना लाचार ।।
दोहा छंद : साल
सभी तरह ख़ुशहाल हो , आने वाला साल ।
कुछ दे तो कुछ ले गया , जाने वाला साल ।।
खट्टे मीठे स्वाद से , भरा रहा यह वर्ष ।
कभी हुए अपकर्ष तो , कभी हुए उत्कर्ष ।।
अबके हमसे हो गई , जाने कैसी भूल ।
शूलों से चुभने लगे , श्रद्धा के सब फूल ।।
जुड़ी हुई नववर्ष से , उम्मीदों की डोर ।
अँधियारे के बाद हो , उजियाले की भोर ।।
जाने वाले साल को , दीजे कुछ उपहार ।
बोरी - बिस्तर बाँध के , चलने को तैयार ।।
अब तो भ्रष्टाचार के , मिलते नहीं सबूत ।
पर्दे में छिपने लगी , लोगों की करतूत ।।
वो ही नेता श्रेष्ठ है , जो भी बोले नीच ।
जो सबका आदर करे , उसकी कॉलर खींच।
सर्दी पर दोहे :
सर्दी की इस धूप में , मौसम लगता खास ।
शाल व स्वेटर ओढ़कर , मन उड़ता आकाश ।।
पारा लुढ़का रात भर , सबके सब हैरान ।
ठिठुर रहा फुटपाथ पर , सोया हिन्दोस्तान ।।
दिन भी कुछ छोटे लगें , लम्बी लागे रात ।
अब मुश्किल से जेब से , बाहर निकलें हाथ ।।
सर्दी आई देखकर , कपड़े बदलें रूप।
लोग सभी रहने लगे , मौसम के अनुरूप ।।
रातों में जलते दिखें , चाहे जहाँ अलाव ।
कुछ ऐसे भी लोग अब , करने लगे बचाव ।।
हर कोई छलता हमें , क्या अपना क्या ग़ैर ।
इसी लिए हमको नहीं , आज किसी से बैर ।।
मन में है मूरत बसी , सूरत चाहे दूर ।
मीरा को घनश्याम का , हरदम रहे सुरूर।।
अपनापन दिल में नहीं , बस लफ़्ज़ों का खेल ।
दिल ही जब मिलते नहीं , कैसे हो फिर मेल।।
पानी पर लिक्खे हुए , पानी के अनुबंध ।
पानी सबको मिल सके , ऐसा करो प्रबंध ।।
पानी के कारण रहे , जीवन में अनुराग ।
पानी से फसलें उगें , पानी छेड़े राग ।।
पानी पानी सब करें , पर ना जानें मोल ।
पानी पर भारी पड़े , राजनीति के बोल ।।
मत कर तू अब ऐ मना , पानी से खिलवाड़ ।
इस धरती का संतुलन , पानी दे न बिगाड़ ।।
काग़ज़ पर पानी गिरे , काग़ज़ ही गल जाय ।
आँसू मिट्टी पर गिरे , मिट्टी में ढल जाय ।।
पानी का क्या रूप है , क्या इसका आकार ।
पानी ही आधार है , पानी ही विस्तार।।
बादल में पानी बसा , आँखों में विश्वास ।
बुधिया की उम्मीद पर , टंगा है आकाश ।।
दीपक पंडित
9179413444
26/05/2021