कुछ कँटीले दोहे
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(१)
पानी पर जितने लिखे, थे मैंने अनुबंध।
अक्षर-अक्षर वे सभी, बने अनुष्ठुप छंद।
(२)
हैं पूजा के थाल में, कुछ अक्षर सुर-ताल।
गीत कंठ से फूटता, कुमकुम लगता भाल।
( ३)
धूप खिली हँसते सुमन,बिखरे रंग-पराग।
गूँज रहा है हर तरफ़,फिर निसर्ग का राग।
(४)
मेघ पिता का प्यार है, वर्षा माँ का नेह।
बूँदें झर-झर झर रहीं, और घुमड़ता मेह।
(५)
जीवन को पढ़-पढ़ गुना,और लिखा बेलाग।
गिनने वाले गिन रहे, कितने गहरे दाग़।
(६)
सब दलाल मुस्तैद हैं, और कमीशनख़ोर।
सुविधाओं की होड़ में, आगे चिन्दीचोर।
(७)
राजनीति के मंच पर, भिन्न सभी किरदार।
कोई शातिर चोर है, कोई चौकीदार।
(८)
बापू तेरे देश में , सत्य करे वनवास।
चाटुकार दरबार के, बेहद ख़ासमख़ास।
(९)
आँखों में जाले पड़े, और मोतियाबिन्द।
वह शैतानी शक्ल को,कहता है अरविन्द।
(१०)
निष्ठा रख दरबार में, कर तू कारोबार।
सिद्धांतों को ताक पर, रखने को तैयार।
(११)
फिर बिल्ली के भाग से, छींका टूटा यार।
दरवाज़े पर आ खड़ी, पद लेकर सरकार।
(१२)
जितना ऊँचा पद मिला,उतना विज्ञ-महान।
कुर्सी छूटी तो हुए , विदा ज्ञान-सम्मान।
(१३)
आन गाँव के सिद्ध पर, किया अंधविश्वास।
बगुलों के षड़यंत्र से, बना गिद्ध का ग्रास।
(१४)
आँखों में सपने लिये, पंखों में आकाश।
पंछी मिलने जा रहा, सूरज से बिंदास।
(१५)
दुखी बिजूका खेत में,फ़सलें और मचान।
आंदोलन की राह पर, बेबस खड़े किसान।
(१६)
मायावी औघड़ हठी, क्रूर निशानेबाज़।
हत्यारे का आजकल, रोज़ नया अंदाज़।
(१७)
इक छोटे जीवाणु से, दुनिया है हलकान।
कोरोना से जंग में, हारे कई महान।
(१८)
जिस काया से मोह है, देखो उसका हाल।
गठरी काँधों पर लिये, जाते चंद सवाल।
(१९)
अवसर है हर आपदा, जिनके हाथ गुलेल।
मानवता देखे विवश, कुछ दुष्टों के खेल।
(२०)
तूफ़ानों में नाव का, टूट गया मस्तूल।
जीवन के अनुबंध में, जैसे सभी उसूल।
(२१)
अधजल गगरी में भरा,ऊपर तक अभिमान।
ख़ुद ही करता फिर रहा,अपना ख़ूब बखान।
(२२)
सस्ता सोशल मीडिया, बौराये कुछ लोग।
जो मर्ज़ी लिख दो ख़बर, है प्रचार का रोग।
(२३)
मौसम दिल का हो गया,ज़रा ख़ुशनुमा और।
घोर उदासी का कठिन, बीत गया वह दौर।
(२४)
सामाजिक दूरी बढ़ी, गाँव-शहर सब ओर।
राजनीति ने काट दी, कुछ रिश्तों की डोर।
(२५)
सत्य कभी कुछ कल्पना,कभी लिखा बकवास।
कहने वाले कह रहे, हर रचना है ख़ास।
(२६)
निष्ठा मौसम की तरह, बदली बारम्बार।
मतलब पूरा हो गया,किसको किससे प्यार।
(२७)
केशकाल१ के घाट से, उतर रहा दिनमान।
शाम पाँचवें मोड़ पर, खड़ी अजब हैरान।
(२८)
चला माड़२ से आयतू३, खाली तूँबा४ साथ।
रान-खमन५ खाली हुए, खाली-खाली हाथ।
(३०)
महँगा होता जा रहा, खाने का सामान।
सस्ते आँसू और कुछ,सहज हुआ अपमान।
(३१)
बार-बार होता गया, ग़लती का दुहराव।
आया जीवन में कहो, कैसा यह ठहराव।
(३२)
इधर छूटते जा रहे,जीवन के सब गीत।
पहले से ज़्यादा अभी,है जंगल भयभीत।
(३३)
कितना उजड़ेगा अभी,और दण्डकारण्य।
शाप दण्ड६ को जो मिला,भोग रहे हैं अन्य।
(३४)
अंधकार का भी अलग,होता है आलोक।
कोटमसर की मछलियाँ,नहीं मनातीं शोक।
(३५)
चाँद कभी होता नहीं, लगता तुम्हें उदास।
जब जैसी मन की नज़र, वैसा ही आकाश।
(३६)
बात हवा की है सखी, फैले उसके साथ।
उड़ती-उड़ती जा लगी, अफवाहों के हाथ।
(३७)
तीखी होती जा रही, संबंधों की धूप।
लगे सूखने आजकल, संवेदन के कूप।
(३८)
राजनीति में आ गये, कैसे-कैसे लोग।
जनसेवा के नाम पर, सुविधाओं का रोग।
(३९)
पक्के गायक गा रहे, बस दरबारी राग।
मिली जगह दरबार में,कुछ बगुले कुछ काग।
(४०)
किया नींद पर बेरहम, ख़्वाबों ने अधिकार।
ज़ालिम ऐसी मुफ़लिसी, करे कभी भी प्यार।
(४१)
चाल-चलन के नाम पर,जिसे किया बदनाम।
सच्चे मन से कर रहा, मानवता का काम।
(४२)
एक रोग भारी पड़ा, बड़े-बड़ों पर आज।
धरी रह गयी हेकड़ी, बंद हुई आवाज़।
(४३)
सूरज उगता - डूबता, बीत रहे दिन - रैन।
क़ैद घरों में हम हुए, पहरे पर है चैन।
(४४)
सुबह-सुबह आकर मिला,एक पुराना यार।
अँगड़ाई लेकर उठा, सपनों का संसार।
(४५)
जिसको जितना ज्ञान है, उतना ही अनुमान।
कभी नफ़ा ज़्यादा हुआ,कभी हुआ नुक़सान।
(४६)
ऋतुओं का भी आजकल,उल्टा ही व्यवहार।
ज़िम्मेदारी से अलग, सबका कारोबार।
(४७)
जादूगर का मंच पर, ख़ूब जम गया खेल।
छड़ी घुमाकर देश का, वह निकालता तेल।
(४८)
स्वाति-बूँद-सी भावना,सीपी जैसा मन।
दोनों ने मिलकर रचा, मोती जैसा धन।
(४९)
मन मलंग फक्कड़ हुआ,
भाव-सत्य गंभीर।
शब्द-शब्द कहता लगे,भीतर बैठ कबीर।
(५०)
अज्ञानी को मिल गया,अगर बड़ा अधिकार।
ख़ुद को ईश्वर का नया,समझेगा अवतार।
(५१)
दोष समय का कुछ नहीं,स्वारथ है बलवान।
जब जिसको मौक़ा मिला,वही करे कल्याण।
(५२)
फूलों के ख़ुशरंग भी,देते नहीं सुकून।
है उदास तितली चुभे, काँटों के नाखून।
(५३)
कहने वाले कह गये, सबका मालिक एक।
आग ढूँढ़कर तू अलग, रहा रोटियाँ सेक।
(५४)
भूख एक-सी प्यास भी,प्राणवायु सब एक।
कहाँ जीव में भेद है, बाहर-भीतर देख।
(५५)
सरल भाव ही भक्ति है, शुद्ध हृदय भगवान।
कहाँ ढूँढ़ता फिर रहा, ईश्वर को अज्ञान।
(५६)
सुख में दुख में रात-दिन,कुछ चिंतन कुछ ध्यान।
भावों के संसार में, कविता का परवान।
(५७)
कवि-कोविद दरबार का, करने लगे बखान।
लाभ लोभ भय प्रीति को, ख़ूब मिला सम्मान।
(५८)
हठधर्मी है क्रूरता, निर्मम है अभिमान।
दोनों की संगत बुरी,दोनों ही शैतान।
(५९)
खिलकर मुस्कायी कली, बिखरे गंध-पराग।
राग-विराग जगा रही,गुलशन की यह आग।
(६०)
गिल्ली-डंडा खेलना,भूल गये हैं लोग।
शामिल टोपी-दौड़ में,ढूँढ़ रहे संयोग।
(६१)
योग जोड़ है धन जमा, योग करे संयोग।
हानि लाभ का गणित अब, मान रहे हैं लोग।
(६२)
बात पुरानी भाव नव,बदल गये अहसास।
कालपुरुष फिर कह गया,है दोहे कुछ ख़ास।
@ लक्ष्मीनारायण पयोधि
लक्ष्मीनारायण पयोधि
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23 मार्च 1957 को महाराष्ट्र में जन्मे लक्ष्मीनारायण पयोधि आदिवासी अंचल बस्तर (छत्तीसगढ़) में पले-बढ़े।
18 काव्य संकलनों सहित कुल 41 पुस्तकें प्रकाशित।
आदिवासी संस्कृति और संघर्ष पर केन्द्रित काव्यकृति 'सोमारू' का अंग्रेजी और मराठी में अनुवाद।कुछ कविताएँ-कहानियाँ तेलुगू में अनूदित-प्रकाशित।
आदिवासी भावलोक पर आधारित काव्यकृति 'लमझना' चर्चित।नाट्य रूपांतरण भी।
जनजातीय जीवन,संस्कृति और भाषाओं में विशेष रुचि।
गोण्डी,भीली,कोरकू आदिवासी भाषाओं के शब्दकोशों के अलावा जनजातीय संस्कृति और कलाओं पर पाँच शोधग्रंथ और अनेक शोध-आलेख प्रकाशित।
सन् 1910 (बस्तर) के आदिवासी विद्रोह भूमकाल पर आधारित काव्यनाटक 'गुण्डाधूर' और जनजातीय मान्यताओं पर आधारित काव्यनाटक 'जमोला का लमझना' के अनेक मंचन।
जनजातीय जीवन-संस्कृति पर केन्द्रित विभिन्न डॉक्यूमेंट्री फ़िल्मों के लिये शोध-आलेख।
अनेक पुरस्कार-सम्मानों से अलंकृत।
पिछले 31 वर्षों से मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल में निवास।
मध्यप्रदेश शासन के आदिम जाति कल्याण विभाग की विभिन्न संस्थाओं में अकादमिक (संपादन-अनुसंधान) दायित्वों का निर्वाह।
सेवा निवृत्ति के बाद कुछ समय तक विशेषज्ञ सलाहकार की जिम्मेदारी भी।
वर्तमान में स्वतंत्र लेखन।
संपर्क : मो.नं. 8319163206
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