समीक्षक
श्रीधर मिश्र
।।भूख थी रोटी नही थी
।। ये वजह छोटी नहीं थी।।
जीवन सन्दर्भों का काव्यांकन--
भूमिका जैन" भूमि" का सद्यः प्रकाशित काव्य संग्रह"" उन्वान तुम्हीं दे देना!!"" में गीत, ग़ज़ल,मुक्तक, आज़ाद अशआर संकलित हैं यह काव्य संग्रह भूमिका के विविधवर्णी काव्य कौशल का दस्तावेज़ है। भूमिका की इन रचनाओं से गुजरते हुए उनकी काव्य प्रवृत्ति की शिनाख्त की जाय तो उसके केंद्र में है प्रेम व दुखबोध।भूमिका के यहां प्रेम मांशलता व महज़ जिस्मानी भावबोध में नही वरन जीवन के मूल तत्व के रूप में आता है व उनके यहां प्रेम की भारतीय छवियां हैं।वे प्रेम का जीवन के कई सन्दर्भों में भाष्य करती हैं व जीवन संघर्षों के संदर्भ में प्रेम को जीवन ऊर्जा के रूप में प्रतिपादित करती हैं, उनका दुख बोध उन्हें जीवन - जगत में घटित हो रही असंगतियों, विसंगतियों, रिश्तों, राजनीति, बाजार, स्त्री जीवन के संघर्षों के प्रति संवेदनशील बनाता है व वे अपनी कविताओं में उन कारकों की सघन पड़ताल भी करती हैं तथा साथ ही एक बेहतर दुनिया के लिए रचनात्मक संघर्ष भी करती दिखती हैं। इन सबके बावजूद वे यह महसूस करती हैं कि चाहे लाख विकास करले ,, ज्ञान- विज्ञान , प्रौद्योगिकी में यह दुनिया चरमोत्कर्ष तक पहुंच जाय लेकिन प्रेम ही बचेगा अंत मे व प्रेम ही बचाएगा अंत मे इस दुनिया को।अतः भूमिका के रचनात्मक संघर्ष में प्रेम एक भरोसे के रूप में बार बार उभरता है वे इसी के बल पर जीवन, समाज, व दुनिया को और बेहतर बनाने की आशा रखती हैं जो आश्वस्ति परक है।भूमिका की सम्वेदना का आयतन विस्तीर्ण है उनकी रचनाओं में मनुष्यता व प्राणिमात्र के प्रति अगाध प्रेम व निष्ठा का भाव है ।
भूमिका की काव्य भाषा के कई प्रस्तर हैं , जिसमे हमारी हज़ार वर्षों की संस्कृति की आवाज़ें हैं, इतिहास व पौराणिक मिथकों के संदर्भ हैं, तथा हमारी आज की बोलचाल की लोक भाषा की उपस्थिति है उनकी यह समावेशी भाषा हिंदी की अंतर्निहित शक्तियों से परिचित कराती है साथ ही उसकी सम्प्रेषण क्षमता की भी अभिवृद्धि करती है। उनकी रचनाओं में लोक भाषा की प्रचुर शब्दावली तो है ही साथ ही वे लोक को महत्व देने वाली कवयित्री हैं उन्हें लोक की ताकत का भरपूर अहसास है अतः वे साक्ष्य शास्त्र से न लेकर लोक से प्राप्त करती हैं।
आज के स्त्री विमर्श के बहुलतावादी युग मे भूमिका की रचनाएं इस क्षेत्र में बड़ी जिम्मेदारी से हस्तक्षेप करती हैं उनके यहां स्त्री विमर्श नारे या प्रतिक्रिया के रूप में नही आता बल्कि वह जीवन के सरोकारों व ब्योरों के रूप में आता है एवम उनमे स्त्री को कम से कम मनुष्य समझने व उसी के अनुसार उसके अस्तित्व को महत्व देने का आग्रह बार बार झलकता है तथा महत्वपूर्ण यह है कि यह आरोपित नही लगता बल्कि कविता में एक सहज बुनावट के रूप में आता है अतः इससे आवेश या आवेग के विद्वेष की जगह सहज आत्मीयता का बोध उत्पन्न होता है और प्रकारांतर से कविता का यही काम होता भी है।
भूमिका के गीतों में भारतीय छवियां है।
1-तुमने आँखों से छूकर हमें
बांसुरी बांसुरी कर दिया
सुर थिरकने लगे सांस में
तन बदन पाँखुरी कर दिया।।
2-एक पत्थर को छुवो भगवान कर दो
प्रेम के उन्माद को अंतिम शिखर दो
3-देहरी पर दीप रखकर
आस की बाती में जल कर
अपने धीरज में सिमट कर
अंत तक उम्मीद रख कर
मैं प्रतीक्षा में रहूंगी
बस प्रतीक्षा में रहूंगी
भूमिका की काव्य प्रवृत्ति के दूसरे केंद्र में दुख बोध है, कविता के उत्स में ही दुख बोध है ।दुनिया की पहली कविता ही दुख बोध से उत्पन्न हुई है, क्रौंच के जोड़े में से एक को बहेलिये ने तीर से मार दिया और उसके जोड़े के विलाप व आर्तनाद से द्रवित होकर अपने दुख बोध के अतिरेक में ही वाल्मीकि ने उसे शाप दिया था-- मा निषाद प्रतिष्ठाम--शाश्वती --- बहेलिये तेरी प्रतिष्ठा शाश्वत रूप से नष्ट हो जाय, भूमिका के गीतों में यह दुख बोध कुछ तरह आता है--
1- ज्यादा सुख से डर लगता है
तो तुम साथ निभाते रहना
मेरे अंदर अपने होने
का एहसास दिलाते रहना
दुख तुम आते जाते रहना
आज के बाज़ारवाद में जबकि सौंदर्य के मान दण्ड ही बदल गए हैं देह के सौंदर्य की अभिवृद्धि के विज्ञापनों से बाज़ार अटा पड़ा है ऐसे में भूमिका भारतीय मनीषा के सौंदर्य बोध का जिक्र कर प्रकारांतर से एक प्रतिरोध खड़ा करती हैं-
छोड़ कर तन की साज सँवार
चलो कर लें मन का श्रृंगार
करें मानव जीवन साकार
चलो करलें मन का श्रृंगार
यह मन का श्रृंगार याकि व्यक्तित्व का सौंदर्य ही चिर स्थायी होता है। आज के सांस्कृतिक विभ्रम के युग मे हम सब केवल देह के बाह्य सौंदर्य की होड़ में शामिल हैं व ठगे जा रहे हैं।
भूमिका के यहां मृत्यु बोध भी भारतीय दर्शन से आता है, भारतीय मनीषा में मृत्यु अंत नही वरन एक नवीन यात्रा है-- वाशांसि जीर्णानि यथा विहाय-- देह जो पुराना वस्त्र है आत्मा का उसका परित्याग कर नव परिधान धारण करने की प्रक्रिया है-- भूमिका मृत्यु के उसपार की यात्रा का जिक्र कुछ इस प्रकार करती हैं
जिंदगी लेकर तुझे आलिंगनों में
मौत के उस पार जाना चाहती हूँ
भूमिका के यहां रिश्तों से सघन सम्वाद है विशेषकर मां को लेकर उनकी सम्वेदना अत्यंत मर्मस्पर्शी है--
1-सब शब्द मूक हो जाएंगे
उपमाएं नतमस्तक होंगीं
हर अर्थ व्यर्थ हो जाएगा
बस माँ ही शत प्रतिशत होगी
भूमिका का ग्राम बोध उन्हें गांव की स्वाभाविक जीवन वृत्तियों से जोड़ता है--
सतरंगी मौसम वाला है
बहु रँगी तन मन वाला
दूर पहाड़ी पर है ऐसा
एक गांव भोला भाला
एक दूसरे से सब अपने
अपने मन की कहते हैं
कच्चे घर मे पक्के रिश्ते
जीवटता से रहते हैं।
त्योहारों, रीतिरिवाज़ो को लेकर भूमिका की लोक संपृक्ति आकर्षित करती है जैसे होली पर यह गीत--
हठीले होरी के हुरियार, न मोसें खेले होरी
न मोसें खेले होरी न मोसें खेले होरी
हठीले,..सजीले...रँगीले होरी के हुरियार
भूमिका की ग़ज़लों में उनका प्रेम व दुख बोध जीवन के लगभग हर परिसर से सम्वाद करता है, उनकी गहन पड़ताल करता है व अनेक कोणों से उनका भाष्य करता है, हालाँकि उर्दू-हिंदी शब्दकोश के अनुसार ग़ज़ल शब्द का अर्थ प्रेमिका से वार्तालाप है, वैसे ग़ज़ल का जन्म अरबी भाषा मे तस्बीब या कसीदा की कोख से हुआ है लेकिन भरण पोषण फ़ारसी में हुआ।उर्दू में ग़ज़ल फ़ारसी से आई और हिंदी में उर्दू से लेकिन ग़ज़ल लोकप्रियता का परवान चढ़ी हिंदुस्तान में, आज भी ग़ज़ल बतकही ही है क्योंकि इसमें अंदाजेबयां या अभिव्यक्ति भंगिमा का विशेष महत्व है ग़ज़ल की परिधि का विस्तार होता गया और वह अब महज़ प्रेमिका से वार्तालाप ही नहीं समूची जिंदगी से वार्तालाप करने लगी है प्रेम, जीवन, भूख, राजनीति, धर्म, पाखण्ड, शोषण, सम्प्रदायवाद, भाषावाद, बाज़ारवाद, मूल्य क्षरण आदि भी अब ग़ज़ल की चिंताओं में शुमार हैं। भूमिका की ग़ज़लें इस लिए भी आस्वस्त करती हैं कि उनमें हमारे समय की तस्वीर साफ साफ देखी जा सकती है और स्पष्ट सुनी जा सकती है उसकी आवाज।
स्त्री स्मिता को लेकर यह दो टूक बयान-
आपकी मेज का गुलदान नही हूँ समझे?
एक औरत हूँ मैं, समान नही हूँ समझे?
भूमिका की ग़ज़लों में भी प्रेम का कई कोणों से भाष्य है तथा सम्वेदना व आत्म परिसर से सघन सम्वाद है-
1-हिना का रंग बाक़ी है अभी मेरी हथेली में
मगर सुर्ख़ी मुहब्बत की नहीं है, तुम चले आओ
2-धड़कनो! शोर मत करो ज़रा ख़ामोश रहो
कोई एहसास तुम्हीं में से गुजरने को है
3-तुम्हे भी पता था मेरी सांस तुम थे
तो मुझमें से तुमको निकलना नही था
4-जिस्म भी रूह से ये कहता है
तू नहीं है तो ज़िंदगी कैसी
ज़िंदगी के सन्दर्भ में कुछ संजीदा बयान की तरह शेर हैं जिनमे ज़िंदगी को लेकर जबरदस्त ज़द्दोजहद देखने को मिलती है।
1- ज़िंदगी! तुमको जिये जाने को
अपने भीतर ही मर गयी सांसे।
2-जो मिला है ज़िंदगी में बांटना सीखो
दूसरों से पहले खुद में झांकना सीखो
आज सबसे अधिक छद्म रोटी को लेकर बोये जा रहे हैं ।किसान आत्महत्या करने को विवश हैं व सर्वहारा वर्ग भूख से मरने को अभिशप्त है ,ऐसे में सत्ता विकास के प्रारूपो का बढ़ चढ़ कर प्रचार करने व अपनी आत्मप्रशंसा में मशगूल है ऐसे में भूमिका का यह शेर इन षड्यंत्रों का पर्दाफाश सूक्तवत रूप से करता है इस शेर का अंदाजेबयां अद्भुत प्रभावोत्पादक है--
भूख थी, रोटी नहीं थी
ये वजह छोटी नहीं थी
जीवन दर्शन का भाष्य करता यह शेर भी महत्वपूर्ण है-
खुद के जैसा ही गर दूसरा चाहिए
फिर तो आंखों को ही आईना कीजिये
मिलान कुंदेरा के एक पद का उपयोग करें जो साहित्य के रेडिकल स्वायत्तता से है, जिससे साहित्य व राजनीति, साहित्य और समाज परावलम्बी तो हैं पर आत्मनिष्ठ भी वे सभी एक समान मूल्य विस्तार से जांचे परखे जाते हैं और उनके बीच कोई वर्ण व्यवस्था नही है , यह रेडिकल स्वायत्ता अगर साहित्य के राजनीति से परखे जाने का अवकाश देती है तो राजनीति के साहित्य द्वारा परखे जाने का भी।इस रेडिकल स्वायत्ता के रहते साहित्य न तो जीवन से मुंह मोड़ सकता है और न राजनीति से। आज के राजनीतिक मूल्य क्षरण के संदर्भ में भूमिका के ये शेर उनकी राजनैतिक चेतना का प्रमाण देते हैं--
1-इस सियासत के मतलबीपन से
मर रहा आम आदमी रोको
2-चार पउए , और चकना, मेज के नीचे रखे
फाइलों पर दस्तखत मंत्री जी कर दो चुप रहो
आज धर्म संस्था को लेकर चिहुंक बढ़ती जा रही है, लगभग सारे विद्वेष, सामाजिक समरसता का ह्रास केवल धर्म के नाम पर हो रहा है सब अपने अपने भगवानो को बचाने के लिए लड़ मर रहे ऐसे में भूमिका का कबीर मन धर्म व आस्था के संदर्भ में कुछ ऐसा प्रस्ताव प्रस्तुत करता है कि यदि इसे स्वीकार कर लिया जाय तो कदाचित आज की समसे बड़ी सामाजिक समस्या हल हो सकती है यह भूमिका की परिपक्व मानसिकता की बानगी है व एक भारतीय कवि का प्रस्ताव है-
1-कभी मंदिर कभी मस्जिद उसे तलाश लिया
चलो एक बार खुदा खुद में तलाशा जाए
2-एक के रोकने से क्या होगा
हिन्दू मुस्लिम बढ़ो, सभी रोको
यह मध्य युग के सन्त कवि कबीर के--तेरा साईं तुझमे-- का इक्कसवीं सदी की कवयित्री भूमिका द्वारा अपने समकालीन सन्दर्भों में किया गया पुनर्पाठ है , इससे पता चलता है कि भूमिका की कविताओं की जड़ें कितनी गहरी हैं।
दुर्दम जिजीविषा का भाष्य करता यह शेर भूमिका के आत्मसंघर्षो को स्वर देता है
मरना होगा तो मरकर मर जाऊंगी
मैं और जीते जी मर जाऊँ, नामुमकिन
दुर्व्यस्था पर यह व्यंग्य ---
और कहीं जाकर ईमाँ की बात करो
यहाँ नहीं ये तो सरकारी दफ़्तर है
हर युद्ध का अंत समझौते से ही होता है, जहां हथियारों की ज़द खत्म होती है भाषा का काम वहां से शुरू होता है ।भाषा की इसी ताकत का अहसास कराता यह शेर प्रकारांतर से एक बड़ा सन्देश देता है
कोई मसला नहीं ,बात से हल न हो
हाथ ख़ंजर उठाना जरूरी नहीं
आज बेटी पढ़ाओ बेटी बढ़ाओ के सियासी नारे की धूम है साथ ही रोज मासूम बच्चियों को रौंदे जाने की खबरों से अखबार अटे पड़े हैं। इस पूरी कवायद की पोल खोलता यह शेर जैसे व्यवस्था व सामाजिक संरचना के ढांचे को आइना दिखाता सा लगता है
बेटी को शिक्षित करना , कुछ ऐसा है
पंख पसारो, किंतु गगन में उड़ना मत।
मार्क्स ने कहा है कविता मनुष्यता की मातृभाषा है। मनुष्यता की मातृभाषा की समाज जब तक कद्र करता रहेगा मनुष्यता क्षत विक्षत होने से बचीरहेगी। आज कविता से बड़ा कवि हो गया है ।कविता कैसी है इस पर उसे महत्व कम मिलता है कविता किसकी है महत्व निर्धारण इससे होने लगा है इन दोनों का समन्वित भाष्य इस शेर में सूक्तवत होगया है--
शायरों को जवज्जो मिले ना मिले
शायरी की क़दर बाखुदा कीजिये
कविता के संदर्भ में यह शेर भी दृष्टव्य है-
मैं क्या थी और अब क्या हो गई हूं
किताबों में सिमट कर सोचती हूँ
कविता के समकालीन परिदृश्य के संदर्भ में भूमिका की यह चिंता जायज़। है एक समय था जब कबीर ,रहीम व तुलसी आदि की रचनाओं को नीति निर्धारक वाक्य मानकर पंचायते होती थी। उनके आधार पर निर्णय होते थे व आज कविता किताबों व बन्द कमरों के विमर्शों तक सिमट गई है।
भूमिका कबीर को कुछ इस तरह याद कर उनकी प्रासंगिकता को रेखांकित करती हैं
मैं भी कोई नज़ीर हो जाऊं
सोचती हूँ कबीर हो जाऊं
नैन हो जाएं आईना मेरे
और दिल से फकीर हो जाऊं।
टी एस इलियट ने अपने विश्व प्रसिद्ध निबन्ध "ट्रेडिशन ऐंड इंडिविजुअल टैलेंट" में कवि के लिए उसकी व्यक्तिगत प्रज्ञा के स्थान पर उसके परंपराबोध को अधिक महत्वपूर्ण माना है वह लिखता है कि जब हम ब्रिटिश सभ्यता के दो ढाई हजार साल पुराने शब्दो को अपनी कविताओं में आयत्त करते हैं तो वे शब्द ही नही वरन परम्परा के प्रतीक होते हैं। भूमिका में भी गहन परम्पराबोध है व वे अपनी रचनाओं में अपनी परम्पराओं, मिथकों, विश्वासों का अपने समकालीन सन्दर्भों में पुनर्पाठ करती हैं व इस प्रकार वे अपने अतीत व वर्तमान के बीच एक पुल बनाती हैं ।महाभारत की प्रमुख पात्र द्रोपदी के संदर्भ में यह शेर दृष्टव्य है
बच गई एक द्रोपदी यूँ
चाल थी, गोटी नही थी
कृष्ण व मीरा के संदर्भ का यह शेर
श्याम तो श्याम थे सबसे प्यार करते थे
एक मीरा भी हो गयी थी दिवानी भी समझ
संग्रह के कुछ मुक्तक भी ध्यानाकर्षित करते हैं जिनमे समय समाज व हमारे आज के जीवन सन्दर्भो से सघन सम्वाद किया गया है विशेषतः कविता के संदर्भ में यह मुक्तक महत्वपूर्ण है
कल्पनाओं को मित्र बनाना कविता है
मनभावों को इत्र बनाना कविता है
इसी इत्र में कलम डुबाकर कागज़ पर
शब्दों के चलचित्र बनाना कविता है।
संग्रह के अंत मे कुछ "आज़ाद अशआर" हैं जो सूक्तियों की तरह सम्वाद करते हैं व प्रकारांतर से भूमिका से रचनात्मक उम्मीद भी बढाते हैं
कि आने वाले दिनों में आज़ाद अशआर मुकम्मल ग़ज़लों की शक्ल अख्तियार करेंगे
मसरूफ़ियत का अपनी हवाला मुझे न दो
एक वक्त था जब ज़िंदगी कम थी मेरे लिए
याकि
खुद ही अपनी मौत का मातम मना लो
व्यस्तताएं रोज़ बढ़ती जा रही हैं।।
भूमिका एक संभावनाशील कवयित्री हैं। उनकी रचनाओं में विषयवस्तुओं की विविधता व समूची जिंदगी को समझने की भरपूर जद्दोजहद है। जैसे जैसे उनका जीवनानुभव बढ़ेगा उनकी रचनाओं में हमे और भी गहन जीवनबोध देखने को मिलेगा।हर कवि को अपने मुहावरे की तलाश होती है। यह अस्वस्तिपरक है कि भूमिका अपने मुहावरे के काफी नज़दीक हैं।उनकी रचनाओं में उनका रचनात्मक संघर्ष साफ़ साफ़ झलकता है। उनकी कला चेतना व उनकी सोद्देश्य कलात्मकता उन्हें जीवन की बहुविधि गतिविविधियों को समझने व उनमे सार्थक हस्तक्षेप करने को प्रेरित करती हैं।
आशा है यह काव्य संग्रह सुधी पाठकों को आकर्षित करेगा व हमारे समय मे कविता की संभावनाओं को आगे बढ़ाएगा।
श्रीधर मिश्र
09450829617
07703022040
आलोच्य काव्य संग्रह
"उन्वान तुम्हीं दे देना"
( भूमिका जैन" भूमि"
अमृत प्रकाशन
नई दिल्ली
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