डा.अनिल कुमार
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3 फरवरी 1946 को कलुगा सुन्दरगढ ओडिशा में जन्में
डा अनिल कुमार आज हिन्दी साहित्य में किसी परिचय के मोहताज नहीं हैं। वे बहुमुखी प्रतिभा सम्पन्न ऐसे रचनाकार हैं जिन्होंने गद्य और पद्य की प्रायः सभी विधाओं को अपनी लेखनी से समृद्ध किया।
वे प्रबुद्ध, अध्ययनशील और अनुभव सम्पन्न रचनाकार हैं।
अनेक सम्मानों से अलंकृत डा अनिल कुमार के अब तक लगभग एक दर्जन से अधिक संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। जिनमें- केदारगौरी, अचला, अर्धांगनी, स्वरमंजरी (उपन्यास) गाँव पुकारे साँझ सकारे, बेटियाँ (मुक्तक संग्रह) कहानी संग्रह,एवं सोच में डूबी मही है, धड़कन गीत हुई, कितनी आगे बढ़ सदी (नवगीत संग्रह) प्रमुख हैं। इसके अतिरिक्त उनकी कई समीक्षा पुस्तकें और कहानी संग्रह प्रकाशनाधीन हैं। वे कुशल समीक्षक और सशक्त नवगीतकार हैं। अभी हाल में उनकी एक समीक्षा पुस्तक--"नयी सदी के नवगीत-मूल्यऔर मूल्यांकन " प्रकाशित हुई है। परन्तु इस पटल पर हमारी चर्चा डा अनिल कुमार जी के नवगीतों पर ही केन्द्रित है। उनके नवगीतों के शिल्प और रचनाधर्मिता के वैशिष्ट्य को समझने में सुप्रसिद्ध वरिष्ठ नवगीतकार श्री निर्मल शुक्ल जी के द्वारा उनकी पुस्तक " कितनी आगे बढ़ी सदी " के फ्लेप की यह समीक्षकीय टिप्पणी बहुत समीचीन प्रतीत होती है---- " मानवीय संवेदना के वे सारे आयाम जो साम्प्रतिक मानव समाज से सम्बद्ध हैं, वे विसंगतियां और विद्रूपताऐ तथा सम्बन्धों का वह खुरदुरा यथार्थ जिन्हें भोगने जीने को हम आप अभिशप्त हैं, इन सारी स्थितियों को डा कुमार ने अपने नवगीत के कैनवास पर बड़ी विश्वसनीयता के साथ उकेरा है, नग्न सामाजिक यथार्थ को आस्वाद बना देना उनकी कला है। अनुभूति की गहनता और अभिव्यक्ति की सहजता के दो पाटों के बीच खड़ा पाठक या सामान्य व्यक्ति कब अपने को संवेदनात्मक स्तर पर समृद्ध समझने लगता है, यह समीकरण डा अनिल कुमार के नवगीतों से होकर गुजरने का एक आत्मीय अनुभव भर है, शायद यही कारण है कि उनकी रचनाधर्मिता सामान्य पाठक की जिजीविषा का हिस्सा बन जाती है। सरल भाषा, सहज प्रवाह, और कुशल भंगिमा, रचनात्मक संप्रेषण के लिए एक सर्वथा ताजी जमीन तैयार करते हैं। डा अनिल कुमार के गीतों से होकर गुजरना अपनी ही जड़ों की शोध यात्रा है।
आइए आज पढ़ते हैं
डा.अनिल कुमार के नवगीत
प्रस्तुति
वागर्थ सम्पादक मण्डल
1
सुबह - शाम
दुख दारुण सहकर
कितनी आगे बढ़ी सदी।
कभी शहर के आसमान पर
तापोंवाला जेठ देखकर
कहीं गाँव के जले खेत में
भूखा नंगा पेट देख कर
आँसू से लिखती चलती है
घुटन रुदन की चतुष्पदी ।
दर्दों से मुरझाया मुखड़ा
पलकों पर आँसू की धारा
रोज बिखरता बदहाली में
कल का स्वर्णिम सपना सारा
रोने लगता पुलिन विलखकर
देख रेत पर मरी नदी।
हर आँगन में और सदन में
हर पल आता कहर, बवंडर
दरवाजे के हरित नीम पर
असमय ही आ जाता पतझर
उड़ जाती है नींद आँख से
देख- देख कर विकट बदी।
(2)
क्यों कोशिश के
मौके पर
उड़ गये कबूतर।
किसी चमन में
ला न सके
बरसात कभी हम
किया न हमने
दूर कहीं पर
राहों का तम
धुंध घरों में, अंधकार है
बाहर- भीतर।
नयन पटल पर
दिखे सदा
सपने मटमैले
सोचो में भी
रहे रेत
मीलों तक फैले
यत्न किये सौ
लेकिन आया
हाथ न तीतर।
सूरज लेकर
कभी मुहूरत
द्वार न आया
सुन्दर साइत
कभी समय का
साथ न पाया
ग्रह काला था
किस्मत में था
चढ़ा शनीचर।
(3)
दुख ने गीत
लिखे हैं कोरे
जोड़- जोड़ कर
आखर थोड़े।
मौसम से दिन
डरा हुआ है
गम से हर पल
भरा हुआ है
तेज हवा से
गिरी दीवारें
अनगिन दुर्ग
बवंडर तोड़े।
अंधकार मशहूर
हुआ है
शर्मिन्दा कुछ
नूर हुआ है
रूठ गई मुस्कान
होठ से
सपने नयनों से
मुँह मोड़े।
आज शिकायत
आम हुई है
सदी बहुत
बदनाम हुई है
बेशर्मी का
हाल देखकर
रिश्ते भले
बुरे से जोड़े ।
(4)
इस गर्मी में
कहाँ बैठकर
सुख- दुख बाँटे ?
वट पीपल के
पेड़ आज
गमले में जीते
बौने होकर
सौ-सौ गम
रहते हैं पीते।
हरित डालियों को
माली मुसका कर छाटे।
उद्यानों में कहीं खड़े
कुछ देवदार हैं।
रूखे -सूखे कहीं- कहीं
पर हरसिंगार हैं।
पाटल हैं, पर उनमें
भरे हुए हैं काँटे।
नदियों पर के
अमलतास हैं
मुरझे औंधे
दोपहरी में
वन भी लगते
छोटे पौधे
शुष्क बाँसवन
सागवान
लगते हैं नाटे।
(5)
बदले सारे रूप शहर के
परिवर्तित हर गाँव ,
बदली सूरत गली - गली की
बदले सारे ठाव ।
सम्बन्धों की हर डाली पर
उगे नुकील शूल
मिटे नेह के मलय सुगन्धित
रिश्ते हुए बबूल।
कड़वी लगती हँसी मित्र की
तीखे लगते दांव ।
रूठा जग से, हँसता सावन
मन से प्रेमिल रास
नयनों की रंगत खोई है
साँसों से मधुमास।
रीते सारे घर आँगन हैं
लुप्त रंगीली छाँव।
हँसी नहीं, कहकहे कहीं हैं
गये ठहाके दूर
खुदगर्जी की मदिरा पीकर
हुये सभी मगरूर
नयी सभ्यता के बन्धन में
बँधे सभी के पाँव।
(6)
पास आओ दूरियाँ
खलने लगी हैं।
मौन तोड़ो
पहर में मधुमास जागे
नयन जोड़ो
सिरहनो में रास जागे
धडकनो की धुन
ह्रदय छलने लगी है ।
पलक खोलो
स्वप्न की तस्वीर देखूँ
मुस्कराते होठ पर
कश्मीर देखूँ।
मदिर मन में
आच सी जलने लगी है।
गुनगुना दो,
जी उठे नवगीत मीठे
खिलखिलाओ
बज उठे संगीत मीठे
मधुर मन में
कल्पना पलने लगी है।
(7)
थके कंठ के मीठे सरगम
और थकी नकली भाषाएँ ।
नयनों के संकेत मिटे सब
मुखमुद्राएँ धूमिल पड़ गई
देख होठ की नकली रश्में
मुस्काने पहले ही उड़ गई
धोखा खाकर साँझ- सबेरे
टूटी मन की सब आशाएँ ।
सम्बन्धों में तल्खी आयी
अपने सारे हुए पराये
मित्रों की भी भीड़ छटी नित
अपनों ने भी हाथ छुड़ाए
मुरझाई हर डार नेह की
बिखरी सारी अभिलाषाएँ ।
बंजर सारी जमी जमी हुई है
तपे रेत सारे मरुथल की
जो थोड़ी सी हरियाली है
तिरछी उस पर दृष्टि अनल की
रूठ गये धरती से बादल
सूख रही कुसमित शाखाएँ।
(8)
रात से सुकुमार सपने
छिन रहे हैं।
मौसमों की
खो रही है रूपरेखा
और विधि की
मिट रही है रोज लेखा
मस्तियों से रिक्त
अब दिन हो रहे हैं।
चाँद की आभा
निरन्तर खो रही है
चाँदनी हर रात
मैली हो रही है
डूबने के पल
सितारे गिन रहे हैं।
वन विकल है
पर्वतों का सिर झुका है
पवन का भी रास्ता
कब से रुका है
नदी नद पर सितम
अनगिन हो रहे हैं।
(9)
कैसे खत में हालत तेरी
लिखूं गाँव मैं।
कहीं न पंछी
सुबह शाम को
दिखा डाल पर,
एक मछेरा
मिला न मुझको
किसी ताल पर,
नहीं सुन सका
किसी चमन से
कूक- काव मैं।
कटहल, जामुन
महुआ का फल
नजर न आया,
मिली न मुझको
किसी चौक पर
पीपल छाया
देख न पाया
तेरे आँगन
मलय छाँव मैं।
जल में हँसते
खिले कमल का
ताल नहीं है
गगन चूमता
झबराया- सा
साल नहीं है
खोज न पाया
बीते कल का
एक ठाव मैं।
(10)
कौन लिखे?
किसको, क्यों पाती
रहे न रिश्ते आज।
बदला दामन
बदली खुशबू
बदले सकल बिहाग
बदला उपवन
बदला चन्दन
बदल गया अनुराग
बदल गये तेवर
मौसम के
बदले सब अन्दाज़ ।
आँगन- आँगन
उठी दीवारें
दरके घर - परिवार
द्वार- द्वार
नफरत के काँटे
सुबह शाम तकरार
हर चौखट
तर्जनी तनी है
कैसा चला रिवाज।
होठों पर
नकली मुस्काने
मन में भरी खटास
टूट रहा है
धीरे- धीरे
रिश्तों से विश्वास।
नकली सूरत,
नकली मुद्रा
रोज गिराती गाज।
डा.अनिल कुमार
परिचय
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परिचय---
डा. अनिल कुमार
जन्म-- 3फरवरी, 1946
कलुगा , सुन्दरगढ़ (ओडिशा )
शिक्षा-- एम.ए.हिन्दी, पी.एच.डी
प्रकाशन-- हिन्दी की प्रायः सभी प्रमुख पत्र- पत्रिकाओं में कविता, कहानी, लेख एवं समीक्षाओं का निरन्तर प्रकाशन।
प्रकाशित कृतियाँ-- उपन्यास ---- केदार गौरी, अचला, अर्धांगनी, स्वर मंजरी, रूपाम्बरा ।
मुक्तक संग्रह-- गाँव पुकारे साँझ सकारे, बेटियाँ।
नवगीत संग्रह--- सोच में डूबी मही है, धड़कन गीत हुई, कितनी आगे बढ़ी सदी।
"सोच में डूबी मही है " नवगीत संग्रह पुरस्कृत।
गृहस्थाश्रम कहानी पुरस्कृत।
आलोचना पुस्तक-- " नयी सदी के नवगीत महत्व एवं मूल्याकंन "
इसके अतिरिक्त कई पुस्तकों का सम्पादन।
सेवा--- अध्यक्ष- भाषा एवं साहित्य (हिन्दी) कालेज ऑफ आर्ट्स, साइन्स एण्ड टेक ., बंडामुडा (ओडिशा)
सम्मान--
नार्थ ओडिशा आदिवासी कल्चरल एसोसिएशन ओडिशा द्वारा " हिन्दी भाषी क्षेत्र में हिन्दी सेवा हेतु।
भारत संचार निगम (लि.) राउरकेला द्वारा हिन्दी के क्षेत्र में बहुमूल्य सहयोग हेतु।
उत्कल मेल समाचार पत्र द्वारा उत्कल मेल सम्मान।(2006)
गौर गौरव सम्मान
बैसवारा हिन्दी शोध संस्थान लालगंज रायबरेली द्वारा " आचार्य नन्द दुलारे वाजपेयी स्मृति सम्मान।
सम्प्रति--सेवानिवृत्ति के बाद स्वतन्त्र लेखन।
सम्पर्क--- ओ /27 , सिविल टाउनशिप, राउरकेला- 769004(ओडिशा)
मोबाइल-- 9437483886 , 8895263904
ईमेल-- dranilkumarsinghdeo@gmail.com
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