मंगलवार, 13 जुलाई 2021

नवगीत, जनगीत और रमेश रंजक राजेंद्र गौतम पूर्व प्रोफेसर, दिल्ली विश्वविद्यालय

नवगीत, जनगीत और रमेश रंजक
राजेंद्र गौतम 
पूर्व प्रोफेसर, दिल्ली विश्वविद्यालय

काव्य-प्रवृत्तियों के नए प्रस्थानों और नए काव्यान्दोलनों में कवियों का आलोचकीय हस्तक्षेप प्राय: देखा जाता है. छायावाद और 'नई कविता' इसके स्पष्ट उदहारण हैं. ‘पल्लव’ और ‘परिमल’ की भूमिकाएं तो चर्चित रही ही हैं, इनसे बहुत पहले 1913 में ‘प्रियप्रवास’ की भूमिका को भी इसी आलोक में देखा जा सकता है. इसी प्रकार 'नई कविता' की स्थापना में सप्तकों की भूमिकाओं का ऐतिहासिक महत्त्व है. रमेश रंजक नवगीत के महत्त्वपूर्ण हस्ताक्षर हैं और संयोग से वे चर्चा-परिचर्चा के माध्यम से नवगीत के आलोचना-कर्म से भी जुड़े हैं. यद्यपि उनके संग्रहों में नवगीत की उतनी विस्तृत चर्चा नहीं है, तथापि उनके देहांत के लगभग एक दशक बाद 2002 में प्रकाशित उनकी पुस्तक 'नये गीत का उद्भव और विकास' नवगीत की आलोचना में विशेष स्थान रखती है. पुस्तक के प्रस्तोता और रंजक जी के अनुज श्री महेश उपाध्याय के अनुसार पुस्तक बहुत पहले लिखी गयी थी. असल में वे दिल्ली विश्वविद्यालय से इस विषय पर पीएच. डी. उपाधि के लिए शोध करना चाहते थे. उनके द्वारा प्रस्तावित प्रारूप हिंदी विभाग द्वारा स्वीकार नहीं हो पाया था. यदि रमेश रंजक का लक्ष्य पीएच. डी. उपाधि प्राप्त करना मात्र होता तो वे विभाग द्वारा अनुमोदित हो सकने वाला कोई और विषय चुन कर यह कर सकते थे लेकिन उनका उद्देश्य नवगीत पर अपने विचारानुसार पुस्तक लिखने का था, सो उन्होंने स्वतंत्र रूप से इसे पूरा कर डाला। प्रस्तोता के मंतव्यों से स्पष्ट होता है कि पुस्तक 1975 के आसपास पूरी हो गयी थी. अवश्य ही कुछ व्यक्तिगत कारण रहे होंगे कि मृत्यु (1991 में) से पूर्व रंजक जी इसका अद्यतीकरण न कर सके और इस प्रकार पुस्तक की एक सीमा बन गई है कि इसमें 1975 तक के नवगीत की तस्वीर ही प्रतिबिंबित हो पायी है जबकि यह तस्वीर उनके ही जीवन काल में बहुत बदल चुकी थी. कहना मुश्किल है कि पुनर्लेखन में वैचारिकता अथवा अवधारणा की दृष्टि से भी इसमें कोई परिवर्तन होता या नहीं। इस सीमा के बावजूद कवि रंजक को समझने के लिए इस पुस्तक के मंतव्यों से गुजरना बहुत सहायक होगा। 
अवधारणा, नाम और प्रवृत्तियों की दृष्टि से नवगीत का अवतरण 1955-60 के बीच हो चुका था. 1958 में 'गीताङ्गिनी' के प्रकाशन से लेकर अब तक तमाम विरोधों और विवादों के बावजूद प्रगतिशील, आधुनिक और प्रासंगिक समसामयिक गीत के लिए यह संज्ञा स्वीकृत हो चुकी है. स्वयं रमेश रंजक इस धारा के विशिष्ट कवि रहे. लेकिन 1972-73 के आसपास उनका और उनके कई साथियों का रुझान आक्रामक जनांदोलन से जुड़े गीत से रहा. तब नवगीत से हटकर जनगीत की बात आयी थी. सात-आठ वर्ष यह चर्चा में भी रहा. नवगीत शब्द को लेकर रमेश रंजक के मन में निस्सन्देह कुछ रिजर्वेशन थे. उनका खुलासा रमेश रंजक और राजेंद्र प्रसाद सिंह के बीच हुए पत्राचार से होता है. रमेश रंजक को राजेंद्र प्रसाद सिंह द्वारा 22 अप्रैल 1975 को लिखे पत्र के ये अंश द्रष्टव्य है:  "...'नये गीत का उद्भव और विकास' पर स्वागत है पर नामकरण पर तो कुछ आश्चर्य और दुःख हो गया. आप तो जानते हैं मैं 'नवगीत' को समस्त-पद परिभाषित मानता हूँ. यह नए ढंग से लिखे गए या नए तरीके से गाये गए या कुछ महीने, कुछ साल पूर्व की तुलना में कथित 'पूर्वापर' नए गीत के अर्थ नहीं हैं. 
आप 'नए गीत' 'नए' को अलग कर मात्र गीत कह कर किसी रचना की पहचान कर सकते हैं और अधिक पूछने पर कैसे गीत?... मैं 'नवगीत'  को 'नव' से अलग कर 'गीत' पर रुक कर 'नव' का विशेषणवत प्रयोग नहीं कर सकता। क्योंकि पहचान मेरे लिए मात्र गीत की अलग है, नवगीत  की अलग है. इसमें गीत को मान कर नया, नव, ताज़ी, आजका आदि वैकल्पिक विशेषणों की गुंजाइश इसलिए नहीं है कि पूर्वगत गीत की सामन्यत: वैचारिक काव्यकोण की अधीनता और शैलीक संरचना की एकरम्यता से विमुख हो कर 'नवगीत' अपनी रचना प्रक्रिया की 'पूर्वगीत'  से भिन्नता के फलस्वरूप ही 'नवगीत'  है. यह जो नहीं जानता, समझता हो उसे आप पूरी तरह समझा सकते हैं, फिर भी कमाल है कि आप अपनी पुस्तक का नाम रखना चाहते हैं-- 'नये गीत का उद्भव और विकास' जबकि 1955 से 1975 के बीच विकासी गीत विधा पर यह पहली किताब होगी-- नवगीत विधा पर भी."
रमेश रंजक ने राजेंद्र प्रसाद सिंह के पुस्तक के नामकरण सम्बन्धी सुझाव को तो नहीं माना लेकिन खास बात यह है कि जनगीत आंदोलन के सबसे विशिष्ट हस्ताक्षर होने के बावजूद उन्होंने आलोचना की सैद्धांतिकी में उसे स्थान नहीं दिया। जबकि नवगीत संज्ञा को अंतत: उन्होंने स्वीकार कर लिया था. राजेंद्र प्रसाद सिंह को वे 'गीताङ्गिनी' के माध्यम से इसके नामकरण का श्रेय भी देते हैं यह बात दीगर है कि वे इस संकलन में संग्रहीत अनेक कवियों में नवगीत का अस्तित्व स्वीकार नहीं करते। 'नये गीत का उद्भव और विकास' में छह अध्याय हैं। सभी अध्यायों के साथ नवगीत शब्द का ही प्रयोग हुआ है, जबकि पुस्तक में एक जगह तो वे भूपेन्द्र कुमार स्नेही के ‘गीत-1’ के संपादकीय का समर्थन करते हुए ‘नवगीत’ संज्ञा को अवांछनीय मानते हैं और इसे केवल ‘गीत’ कहने पर बल देते हैं। दूसरी ओर, अंत तक पहुँचते हुए इसे जनगीत से सम्बोधित करना चाहते हैं पर न जाने कौन-सी परोक्ष प्ररेणा है कि वे अपनी इन चाहतों को अमुखर ही छोड़ देते हैं और अंततः ‘नवगीत’ संज्ञा को ही स्वीकार करते हैं। यह द्वंद्व कुछ और नवगीतकारों में भी देखा गया। आठवें दशक में नचिकेता जनगीत के प्रबल समर्थक के रूप में आगे आये थे. यहाँ तक कि तब नवगीत का उन्होंने विरोध भी किया लेकिन अचानक सदी के अंत तक आते-आते वे नवगीत के साथ आ जुड़े। 
यह स्पष्ट है कि रमेश रंजक द्वारा प्रयुक्त पद 'नये गीत' का आशय नवगीत-रचनाधारा से ही है. जब वे गीत में नये परिवर्तन की पड़ताल करते हैं, तब उन्हें छायावाद से जोड़ते हैं. वे कहते हैं:  "यह सामान्यत: माना जा सकता है कि नये गीतों का प्रारम्भ भी छायावादी काव्यधारा के अंदर से ही हुआ है. लेकिन इस सन्दर्भ में कौन-सा कवि पुरोधा है? इस प्रश्न के उत्तर में हमारे सामने दो ही नाम आते है, -- पंत और निराला।" यह रोचक ही है कि "नये गीतों का प्रारम्भ भी छायावादी काव्यधारा के अंदर से ही" मानने के बावजूद वे प्रसाद और महादेवी का उल्लेख ही इस सन्दर्भ में नहीं करते। प्रसाद का उल्लेख न होना इसलिए स्वाभाविक है क्योंकि जिस दौर के गीत की बात वे कर रहे थे, उस समय प्रसाद जा चुके थे. लेकिन नए गीत के उद्भव में महादेवी की भी कोई भूमिका वे शायद इस लिए नहीं देखते क्योंकि एक तो 'दीपशिखा' के बाद महादेवी कविता से उपराम हो जाती हैं, दूसरे परवर्ती गीत की सामाजिकता से उनका काव्य उतना जुड़ा भी नहीं। 
अपने विश्लेषण में रंजक जी स्थापना देते हैं कि नये गीतों का प्रारम्भ पंत से नहीं,  बल्कि निराला से हुआ। अपनी स्थापना के पक्ष में वे अपने साहित्यिक आदर्श को तो प्रस्तुत करते ही हैं, इन दोनों कवियों के गीतों के उद्धरणों का विश्लेषण भी करते हैं. रंजक अपने साहित्यिक सरोकारों को स्पष्ट करते हुए कहते हैं: "इतना तो सत्य है कि विकसनशील जीवन-मूल्यों की चेतना के अभाव में कोई रचनाकार अपने जीवन-काल में किसी भी नए साहित्यांदोलन को जन्म नहीं दे सकता। ...साहित्यांदोलनों की यह जीवन-चेतना उस सूक्ष्म विद्रोह का पर्याय है जो प्रचलित और प्रतिष्ठित होती हुई रूढ़ियों को तोड़ कर नयी भाषा, नयी शैली और नये तेवर का निर्माण करती हुई,  क्रमश: व्यापकतर वस्तुगत यथार्थ की ओर उन्मुख होती है. और तज्जनित मानव-मूल्यों को प्रकाशित करती है. दरअसल 'सूक्ष्म विद्रोह' की यह भावना रचनाकार की वह भीतरी आग है जो रचनाकार को परम्परा के मोहवृत्त से निकाल कर उसे एक नई दृष्टि प्रदान करती है." नए गीतों के उद्भव को पहचानने में उनकी यही दृष्टि काम कर रही है. 1984 में मेरी पुस्तक 'हिंदी नवगीत : उद्भव और विकास' प्रकाशित हुई थी. उसमें मैंने नवगीत का पारम्परिक गीत से अंतर गीत में वस्तुपरकता और समष्टि-उन्मुखता के समावेश को माना था. रंजक जी की नवगीत विषयक उपर्युक्त मान्यताओं से मेरा परिचय 2002 में उनकी आलोचना-पुस्तक के प्रकाशन के बाद हुआ. मेरे लिए यह प्रसन्नता का विषय है कि रंजक जी द्वारा नवगीत के सन्दर्भ में "व्यापकतर वस्तुगत यथार्थ की ओर उन्मुख" होने के 1975 से पहले ही किये गये उल्लेख से मेरी मान्यताएं भी मेल खाती हैं.
नवगीत के उद्गम की चर्चा करते हुए रंजक जी उपर्युक्त आकांक्षाओं की पूर्ति निराला के गीतों में ही पाते हैं. पंत में वे एक ही भाव की आवृत्ति अधिक देखते हैं. प्रेम के सन्दर्भ में भी रंजक जी पंत द्वारा सृष्ट नारी में “सामंतवादी दृष्टि और कुलीनवंश की आभिजात्य प्रवृत्ति” मानते हैं. वे मानते हैं --"निराला के उन्हीं गीतों से नए गीत का निकास मानना उचित लगता है जो छायावादी स्वप्निल और काल्पनिक भाव-भंगिमाओं से अपने अस्तित्व को फर्क करते हुए जीवन की ठोस और वास्तविक भूमि पर टिके हैं. " इस सन्दर्भ में रंजक जी निराला द्वारा " 'स्व' के घेरे से निकल कर पूरे ताप और उफान के साथ 'पर' तक की गयी यात्रा" को महत्त्व देते हैं जिसमें उन्होंने "अपने निजीपन के माध्यम से सामाजिक अंतर्विरोधों को बखूबी उजागर किया है”. 
1930 और 50 के बीच प्रतिष्ठित होने वाले उत्तर-छायावाद के कवियों-- दिनकर, बच्चन, अंचल व नरेन्द्र शर्मा के काव्य का भी वे सचेत निरीक्षण करते हैं और नवगीत के सन्दर्भ में इनके धनात्मक और ऋणात्मक पक्षों का बारीकी से विवेचन करते हैं। एक और वे इन कवियों की प्रगतिशील विशेषताओं को रेखांकित करते हैं, दूसरी ओर इन कवियों की उन दुर्बलताओं को भी सामने रखाते हैं, जो गीत को आगे चल कर पतनोन्मुखी बनाती हैं। 
रंजक निराला के बाद नवगीत के प्रेरक सन्दर्भ केदारनाथ अग्रवाल, नागार्जुन और त्रिलोचन के गीतों में दिखलाते हैं, साथ ही उनके शिल्प पर एक रोचक टिपण्णी भी करते है. वे लिखते हैं: " निराला के जिन गीतों से हम नए गीतों का आरम्भ मानते हैं, उस प्रकार के गीत हमें निराला के परवर्ती काव्यों में देखने को इस लिए कम मिलते हैं क्योंकि नयी कविता की सौंदर्यवादी दृष्टि ने कविता  को एक ख़ास घेरे में क़ैद कर दिया। संक्षेप में नयी कविता के गीत कवियों की अनुरक्ति बिम्ब-रचना, चमकदार विशेषणों के प्रयोग और छुई-मुई सौन्दर्यभूति को चरपरी और चटपटी भाषा में अभिव्यक्त करने में रही. चूँकि इन विशेषताओं का आतंक सौंदर्यवादी आलोचकों ने इस सीमा तक पहुंचा दिया कि मजबूरन प्रगतिधर्मी गीत-कवियों को भी बिंबधर्मिता और आंचलिकता और तथाकथित छांदिक रचना के बीच से ही अपनी नयी रचनात्मक दृष्टि निकालनी पड़ी-- जो धरती को पर्यटनशील सौंदर्यवादी दृष्टि से देखती है. इस धरा के गीत-कवियों में केदारनाथ अग्रवाल, नागार्जुन और त्रिलोचन शास्त्री के नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं. यह दृष्टि बिम्बात्मकता को साध्य के रूप में नहीं, साधन के रूप में ग्रहण करती है. इस दृष्टि की सबसे बड़ी विशेषता है अपनी धरती एवं यथार्थ के प्रति अनुरक्ति। अपनेपन की यह गंध गीत-कवियों को नयी कविता के गीत कवियों से अलग ही नहीं करती, बल्कि उनकी सृजनात्मकता को भी एक कदम आगे बढाती है.” 
नवगीत के उद्भव की चर्चा में अकसर कुछ ऐसे प्रगतिशील कवियों के गीतों को नज़रअंदाज़ कर दिया जाता है, जो आगे चल कर जनगीत की आधारभूमि तैयार करते हैं. उनमें प्रमुख नाम हैं : मलखान सिंह सिसोदिया, शंकर शैलेन्द्र, शील और में मुकुट बिहारी सरोज। यदि हम रंजक जी की अपनी गीत यात्रा को देखें तो उनके आरम्भिक गीतों का स्वर मध्यवर्गीय नागरिक जीवन का लगभग वैसा ही चित्रण करते हैं जैसा महेश्वर तिवारी और ओम प्रभाकर लेकिन बहुत जल्दी उनके गीतों का स्वर बदल जाता है. इस बदलाव में उपर्युक्त गीतकारों के प्रभाव की भूमिका को नाकारा नहीं जा सकता। उसी का यह परिणाम अथवा प्रमाण यह भी है कि जब वे नवगीत की आलोचना की और प्रवृत्त होते हैं तो वे इस चारों कवियों के महत्त्व कोरखांकित करते हैं. नवगीत की शक्ति के रूप में में सर्वेश्वरदयाल सक्सेना के गीतों को ही नहीं देखते और भारती के एक गीत की किसनई की ही प्रशंसा नहीं करते बल्कि जिनके बिम्बात्मक आग्रह और रूपवाद को वे अवांछनीय बताते हैं, उन केदारनाथ सिंह के गीतों के प्रगतिशील स्वर की सरहाना करते हुए लिखते हैं.: "इसी जगह हमें केदारनाथ सिंह के एक गीत की याद हो आती है:
धान उगेंगे कि प्रान  उगेंगे 
उगेंगे हमारे खेत में 
आना जी बादल जरूर 

यहाँ किसान बालक की ललक देखिये जिसे बादलों से इसलिए प्यार है क्योंकि बादलों के बरसने पर ही उसके खेतों में धान उगेंगे। धान को प्रान काने में जो कविता है उसे लाख चमत्कार से भी व्यक्त नहीं किया जा सकता। मैं इसी को कवि की भाषागत क्षमता मानता हूँ. 
रमेश रंजक रामदरश मिश्र आदि उन आलोचकों के मत का खंडन करते हैं जो नवगीत का उद्भव अज्ञेय के गीतों से मानते हैं. वे गीत से अज्ञेय का जुड़ाव नगण्य मानते हैं. केवल गीतात्मक कविताओं के आधार पर वे अज्ञेय को गीतकार नहीं मानते। अपनी मान्यता के लिए वे यह तर्क देते हैं: "क्या गीतात्मक अनुभूतियों को मात्र छन्दित कर देना गीत होता है? अगर यह सच है तो गीत-साहित्य में काफी कुछ ऐसा साहित्य भी मिलाना पड़ जायेगा जो गीत नहीं है. अन्यथा यह बात स्पष्ट रूप से स्वीकार की जानी चाहिए कि गीतात्मक अनुभूतियों को पंक्तिबद्ध करना ही गीत नहीं होता. केवल प्रथम पंक्ति (ध्रुव पंक्ति) की तुक पर चरण पंक्ति की तुक मिला देने भर से कोई रचना गीत नहीं हो जाती। गीत चाहे सम पंक्तियों में लिखा जाये या विषम पंक्तियों में लेकिन उसके तापक्रम में एकता और समानता का होना बहुत जरूरी है. बेहतर अनुभूति को सघनतर करता हुआ अंत में संवेदना का ऐसा गुम्फन छोड़ जाता है कि पाठक अभिभूत हो जाता है. गीत का यही सौंदर्य उसे कविता के सौंदर्य से पृथक करता है. गीत की घुमावदार लय ही उसकी साधना है. इस दृष्टि से अज्ञेय के प्रतिनिधि घोषित किये गए गेटों को पढ़ कर यह स्पष्ट होते देर नहीं लगती कि अज्ञेय के भीतर न तो गीत के प्रति निष्ठा है और न कोई जागरूक गीतकार है."
'नये गीत का उद्भव और विकास' तक नवगीत के तीन पड़ाव नज़र आते हैं: छायावादी रोमानी अवशेष, आंचलिकता और महानगरीय आधुनिक यथार्थ। रंजक ने अपनी किताब का बड़ा हिंसा पहले पड़ाव के विश्लेषण में खर्च किया है, इस सन्दर्भ में वे भारती और गिरिजाकुमार माथुर के गीतों का विस्तृत विश्लेषण भी करते हैं. उनमें अंतर्विरोध यह है कि इस रोमानी काव्य को वे नवगीत का वरेण्य स्वर न मान कर भी वे इसके अनेक उद्धरणों में खो जाते हैं. नये गीत की दूसरी प्रवृत्ति आंचलिकता की भी वे विस्तृत चर्चा करते हैं लेकिन अंतत: घोषित करते हैं: "यहीं पर एक जरूरी बात कह देना चाहता हूँ कि ऐसे आलोचकों की कमी नहीं है जो आंचलिक अनुभूति को ही गीत की भावभूमि मानते हैं. हमारा ऐसे आलोचकों से विनम्र निवेदन है कि वे इस भ्रम-वृक्ष को जड़ से उखड कर फेंक दें. 'नवगीत' पर धड़ाधड़ छपने वाले सभी लेखों में यही भ्रम कहीं गहरे पड़ा रहा है, इसलिए नवगीत पर बराबर और अब तक आंचलिकता का आरोप लगया जाता रहा है.  यह साजिश उन गीतकार आलोचकों की अधिक रही है जिन्होंने न तो गीत के आलोचना -पक्ष पर ठन्डे दिमाग से सोचा है और न ही नए गीतों के विकास को गहराई से जानने की कोशिश की है."
'नवगीत' के साथ रमेश रंजक की 'हेटर्ड-लव रिलेशनशिप' की स्थिति काफी उलझी हुई दिखाई देती है. जैसा हमने पहले कहा है कि एक ओर वे नए गीत की चर्चा 'नवगीत' शीर्षक के अंतर्गत करते हैं, दूसरी ओर जनपक्षधर गीत से उसकी दूरी भी मानते हैं. यह द्वंद्व दूर तक चलता है. अंतत: वे  'नवगीत' में 1965 के बाद आये मोड़ के बाद नयी प्रवृत्तियों के आलोक में देखते हैं. अंतत: उनके द्वारा 'नवगीत' की स्वीकृति का यही कारण है लेकिन इससे पूर्व नवगीत की क्या स्थिति है, इसके प्रति उनका दृष्टिकोण इस लम्बे उद्धरण से समझा जा जा सकता है: “इस प्रकार 'गीताङ्गिनी' के द्वारा नवगीत का नामकरण तो हुआ, लेकिन 'गीताङ्गिनी' के गीतों का चयन मंचीय गीतों के नए गीतों को पृथक नहीं कर पाया; चूँकि पृथक किया जाना जरूरी था, अत: नवगीत ने एक आंदोलन का रूप धारण किया और एक विभाजन-रेखा वाराणसी से प्रकाशित होने वाली पत्रिका 'बासंती' के द्वारा 'नए गीत : नए स्वर' लेखमाला शीर्षक से खींची गयी. वे गीत जो मंचों पर मुजरों की तरह पेश किये जाते थे, उनसे नए गीतों को संवेदना और शिल्प ले स्तर पर पृथक किया गया. यह तो माना कि उपर्युक्त लेख माला ने गीत को सस्ती भावुक तथा लिजलिजी शब्दावली ले बाजारूपन से बचाया लेकिन क्या यहीं से गीत को 'नवगीत' का लेबिल लगा कर उसे एक खास घेरे में कैद नहीं कर दिया? और यह दायरा निश्चय ही गिरिजाकुमार माथुर से लेकर विशेष रूप से केदारनाथ सिंह का दायरा था. यदि यहीं से नवगीत की विशेषताएं रेखांकित की जाएँ तो कहना होगा कि  नवगीत रोमांस और आंचलिकता के टटके बिम्बों और भाषागत चिकने प्रयोगों  को लेकर पल्ल्वित हुआ. इस प्रकार नवगीत को सप्तकीय गीतों की भावभूमि का सहारा देकर जनता के दुःख-दर्द से कतराते हुए 'इंद्रधनुषी रंगों के घेरे' में कैद भर कर दिया गया. ऐसा इस लिए हुआ कि डॉ. शम्भूनाथ सिंह जो एक आरसे तक मंच से जुड़े रहे थे, बच्चनवादी परम्परा के गीत-कवियों के सामने उखड़ने लगे थे, इसलिए उन्होंने नई कविता के दरवाजे को खटखटाया। निश्चय ही डॉ. शम्भूनाथ को इसी प्रक्रिया के द्वारा महत्त्व मिला है. लेकिन इतने के लिए उन्हें नवगीत क्क लेबिल लगा जार नई कविता के गीतों की काफी वकालत करनी पड़ी. इसी क्रम में डॉ. रवींद्र भ्र्मर, डॉ. रामदरश मिश्र और डॉ. परमानन्द श्रीवास्तव के नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं जिन्हें नवगीत की वकालत के मेहनताने के बतौर नवगीतकार मान लिया गया. इस प्रकार एक विशेष प्रकार की रूमानी और आंचलिक सौन्दर्यप्रधान गीतों को नवगीत के नाम से आंदोलित किया गया.”
रमेश रंजक कविता को एक गंभीर समाज-सापेक्ष कर्म मानते हैं और गीत में भी इस कर्म की सशक्त अभिव्यक्ति पाते हैं। इसी लिए 'नये गीत का उद्भव और विकास' में उन्होंने मंचीय, ताली-पिटाऊ और भीड़-रिझाऊ गीत की तीखी आलोचना करते हुए 1935 से 1975 तक की गीत-यात्रा का तेजतर्रार शैली में गंभीर विश्लेषण किया है। कविता से अलग काटकर देखने की शुरूआत के साथ ही सन् 50 के आसपास से ही गीत बहुत विवादों में घिरा रहा है। एक वर्ग ने गीत के अस्तित्व और प्रासंगिकता को शून्य माना है, एक दूसरे वर्ग ने इसके प्रगतिशील व्यक्तित्व ‘नवगीत’ को नकार कर इसके रूढ़िबद्ध रूप से आसक्ति दिखलायी है। नवगीत की अपनी खेमेबाजी भी कम नहीं है। बाद में एक नये धड़े के रूप में सामने आये जनगीत ने भी नवगीत पर कम प्रहार नहीं किये हैं। रमेश रंजक के सामने यह पूरा परिदृष्य था। नवगीत के अधिकांश आलोचकों की तरह वे स्वयं भी गीतकार थे। अतएव पूर्णत: तटस्थता की उपस्थिति तो उनकी आलोचना में नहीं दिखलायी देती परन्तु उनकी प्रतिबद्धता पूरी पुस्तक में विद्यमान है। आरंभ में मध्यवर्गीय समाज की यंत्रणा का चित्रण करने वाले नवगीतकार रमेश रंजक बाद में प्रचारपरक नारेबाजी तक पहुँचे जनगीत के लिए प्रतिबद्ध हो गये थे। हिंदी की प्रगतिशील आलोचना में एक विचित्र अंतर्विरोध यह है कि स्वच्छंद कविता में तो जटिल बौद्धिक और बिम्ब प्रधान शिल्प की भी (बल्कि कहें ही) स्वीकार करते हैं।  केदारनाथ सिंह से लेकर देवी प्रसाद तक यह स्थिति देखी जा सकती है पर जब गीत की बात आती है तो प्रगतिशीलता के नाम पर अति सरलीकरण की मांग उठायी जाती है। हाँ, नामवर सिंह ने सातवें दशक में ‘गीत-1’ में लिखा था-‘सवाल गीतों को आधुनिक जीवन की जटिलता के अनुसार जटिल करने का नहीं, बल्कि जटिल अनुभूतियों को ज्यादा से ज्यादा समेटकर सरल करने का है, जैसा कि ‘अर्चना’ और ‘आराधना’ के कवि निराला ने इसी दौर में कर दिखाया...।’ निराला के जिन गीतों की ओर संकेत है, वे जन-जीवन से गहरे जुड़े हैं पर अपनी अभिव्यक्ति में इतने सरल नहीं हो पाये हैं और इसके बावजूद उनका महत्त्व कम नहीं है। रमेश रंजक निराला के इन्हीं गीतों से नये गीत का विकास मानते हैं जिनमें छायावादी स्वप्निल काल्पनिकता की अपेक्षा जीवन की ठोस वास्तविकता पाते हैं। वे चमकदार पर ठंडी आंचलिक बिंबात्मकता वाली रचनाओं से अपनी गहरी असहमति दर्ज कराते हैं और माहेश्वर तिवारी के चर्चित गीत ‘धूप में जब भी जले हैं पांव’ को आधार बनाकर रचे गये अपनी प्रतिबद्धता को दर्ज कराने वाले अपने गीत ‘गीत सन् 1974’ के आधार पर अपनी नवगीत सम्बन्धी मान्यता भी स्पष्ट करते हैं- ‘जो कविताएं नब्बे प्रतिशत जनता के दुःख-दर्द, तनाव-पीड़ा, घुटन, संत्रास, आक्रोश और आक्रामक मनःस्थितियों को काव्यबद्ध करती हुई भी जनता की कविताएं नहीं हो पा रही हैं, वे तभी गीत के सामने एक छोटी लकीर के रूप में देखी जा सकेंगी, जब गीत अपने युग के अहसास को ध्वनित करता हुआ एक ओर तो संशलिष्ट भाषा में यथार्थ की ठोस भूमि पर उतरेगा और दूसरी ओर जनभाषा में गीत को जनोन्मुखता को सार्थकता प्रदान करेगा।“ इसके विकास के संदर्भ में मुकुट बिहारी सरोज, वीरेन्द्र मिश्र, माहेश्वर, देवेन्द्र कुमार, शलभ श्रीराम सिंह में इन विशेषताओं को रेखांकित किया है और यह भी सच है कि इस पुस्तक के विवेचना काल के बाद चर्चित होने वाले नवगीतकारी गुलाब सिंह, देवेन्द्र शर्मा इन्द्र, अनूप अशेष, रामचंद्र चंद्रभूषण, महेश अनघ आदि में भी यथार्थ की ठोस भूमि का ही चित्रण है।
असल में 1962 से 1974 तक के गीत में वर्ष-दर-वर्ष आने वाले परिवर्तनों को रमेश रंजक बारीकी से परखते हैं. 1965-72 के बीच के बालस्वरूप राही, शलभ श्री राम सिंह, वीरेंद्र मिश्र , देवेंद्र कुमार, माहेश्वर तिवारी,ओम प्रभाकर  के और स्वयं अपने गीतों के उद्धरणों के माध्यम से वे नवगीत को आंचलिकता से हट कर महानगरीय जटिलताओं से जुड़ता हुआ दिखते हैं. इस परिवर्तन को वे महत्त्वपूर्ण तो मानते हैं लेकिन इसे गीत की उपलब्धि के रूप में नहीं देखते। क्योंकि  इसमें वे यथार्थ का यथास्थितिपरक चित्रण तो पाते हैं, परिवर्तन की कोई आहट नहीं सुनते। यद्यपि तब तक उनके अपने गीत भी इसी स्वर के वाहक हैं. इस स्थिति के प्रति उनकी क्षुब्ध प्रतिक्रिया ऐसी है: "नि:संदेह ये सारे उद्धरण एक बेचैनी, अकुलाहट, रिक्तता, संत्रास, घटन आदि मन:स्थितियों का चित्र उपस्थित करते हैं. इन गीतों की ये विभिन्न मुद्राएं एक-सी भी नहीं हैं, क्योंकि ये सब गीत कवि अपने-अपने परिवेश में एक कसैलापन अनुभव करते हुए अपने-अपने तरीके से उसे अभिव्यक्त कर रहे हैं. निश्चय ही इन सारे उद्धरणों में समसामयिकता अपने आधुनिक रूप में बखूबी चित्रित भी हुई है, लेकिन क्या यह सच नहीं है कि उपर्युक्त उद्धरणों के तेवर एक निरीह, असहाय, घबराये हुए, परेशान व्यक्ति के तेवर हैं? सामूहिक चेतना से उद्भूत होने पर भी ये अनुभूतियाँ अपनी इकाई से ही टूट कर बिखर नहीं जाती हैं?और यदि यह है तो क्या यह सच नहीं है कि में समसामयिकता को ये उद्धरणों केवल यथावत् चित्रित कर रहे हैं? व्यवस्था से परेशान और दुखी होने पर भी एक बंधे हुए निरीह व्यक्ति के एहसास को ही ध्वनित करते हुए ये गीत घर, शहर, दफ्तर, कॉफ़ी हाउस की ओर चले जाते हैं, लेकिन उस तंत्र पर उंगली नहीं रखते, उस व्यवस्था के ख़िलाफ़ आवाज़ नहीं उठाते, जिसके कारण एक मानसिक गुलामी ने हमारे बौद्धिक, सामजिक और आर्थिक विकास के सारे दरवाज़े बंद कर दिए हैं." रंजक का यह कथन ऐतिहासिक है. इस दृष्टि से तब तक क्या, बाद में भी नवगीत को नहीं देखा गया था. वे तब तक के गीत की प्रवृत्तियों को सार रूप में यों प्रस्तुत करते हैं: “इस प्रकार यदि गीतों का सिलसिलेवार अध्ययन किया जाये तो स्पष्ट हो जायेगा की सन् 1972  तक एक ओर तो नवगीत की आंचलिक बिम्बात्मकता अपनी चरमसीमा पर पहुँची, और दूसरी ओर राजनैतिक, सामाजिक, आर्थिक परिस्थितियों से जन्मी हुई अनुभूतियों को एक असहाय निरीह व्यक्ति की ठंडी भाषा में चित्रित करती रही. कहना न होगा कि कुल चित्रात्मकता ही सन् 1972 तक के गीतों का चरित्र बनी रही... चुनांचे, गीतों की शिथिल भंगिमाएं अपने अपरिवेश को गीतबद्ध करती हुई भी 'युग की आवाज़' के साथ हिस्सेदारी नहीं कर पायी अत: इन पंक्तियों के लेखक ने महसूस किया कि गीत को उसकी चमकदार बिम्बात्मक ठंडी  तासीर से निकलना ही पड़ेगा। क्योंकि 'धर्मयुग' के दीपवाली विशेषांक सन् 1973  में प्रकाशित गीत-कवि माहेश्वर तिवारी का जब गीत पढ़ा तो मुझे आश्चर्य हुआ:
धूप में जब भी जले हैं पाँव, घर की याद आयी!” 
उस दौर में रमेश रंजक गीत के भविष्य के प्रति कितने चिंतित थे और उसे क्या दिशा देना चाहते थे, उसका पता इन पंक्तियों से चलता है: "इस गीत को पढ़ते ही कई प्रश्न उठे-- आखिर गीत में यह बालबोध कब तक चलेगा।? क्या यह गीत आज के जागरूक गीत-कवि की तरुण मानसिकता को उभरने में सक्षम है? क्या इस गीत के तेवर आज की कविता के समानांतर है? अत: जरूरी समझा गया कि इसी गीत की एक पंक्ति को लेकर एक विभाजन रेखा खींच दी जाए और गीत को एक जुझारू और पैना तेवर देकर वर्ग-संघर्ष की चेतना को उजागर किया जाये। निदान, वाराणसी से प्रकाशित होने वाली लघु पत्रिका 'परिवेश-5' (सम्पादक : काशीनाथ सिंह) के माध्यम से गीतों को नया स्वर देने का निश्चय किया गया. गीतों में चली आ रही उस ठंडी पर्त को तोड़ने का जोखिम अब उठाना ही पड़ेगा जो गीत को निरंतर कविता के समकक्ष ही न महसूस करती चली आ रही है. इसी लिए मैंने इस गीत को "गीत सन् 1974" शीर्षक दिया। सम्पूर्ण गीत इस प्रकार है. 
गीत सन् 1974 
धूप में जब भी जले हैं पाँव, मैं माहेश्वर तिवारी का आभारी हूँ. क्योंकि उसे पढ़-सुन कर ही प्रस्तुत गीत को लिखने की प्रेरणा मिली।
धूप में जब भी जले हैं पाँव-- सीना तन गया है 
और आदमकद हमारा जिस्म लोहा बन गया है.
तन गयी है रीढ़ जो 
मजबूर थी ग़म से 
हाथ बागी हो गए हैं 
चालाक मरहम से 
अब न बहकाओ छलावा चलनियों में छान गया है. 
हम पसीने में नहा कर 
हो गए ताजे 
खोलने को बघनखों के 
बंद दरवाजे 
आदमी की आबरू की ओर से सम्मन गया है.
और आदमकद हमारा जिस्म लोहा बन गया है.”

और इसके साथ ही रमेश रंजक के रचना संसार में आमूल-चूल परिवर्तन आ जाता है. पूर्व संग्रहों के गीतों में महानगरीय विषाद और टूटन का जो चित्रण था कवि अब उस तरफ लौट कर नहीं जाता। जनवाद अब उनके गीत का विशेषषण बने न बने इससे फर्क नहीं पड़ता बल्कि वह उनकी कविताओं का विषय बन जाता है. यहाँ यह भी अब स्पष्ष्ट हो जाता है की नए गीत के विश्लेषण में जनगीत संज्ञा का सहारा क्यों नहीं लेते असल में वे गीत की आस्था को जीते हुए उसके परिवर्तन में भी आस्था रखते हैं और इस परिवर्तित रूप वाले गीत को सभी छह अध्यायों में नवगीत ही सम्बोधित करते हैं लेकिन वे भविष्य के नवगीत रूपवादी तस्वीर न देख कर उसे अपने दृष्टिकोण से प्रतिबिंबित करते हैं क्योंकि वे इस खतरे को पहचान रहे हैं.: "मैं यहाँ पर यह बात जोर दे कर कहना छठा हूँ कि इस गीत को उद्धृत करने का मेरा प्रयोजन कतई कोई मसीहा बनना नहीं है, अपितु, केवल ितंा ही है कि युग की सचाई और ईमानदारी से कतरा कर, अथवा उसे यथावत चित्रित करके कविता के समकक्ष खड़ा होने में तब तक असमर्थ है जब तक कि वह कविता के तेवर के साथ-साथ (कन्धा मिलकर) नहीं चलेगा।"
 
यों तो गीत पर बहुत आलोचनात्मक सामग्री प्रकाशित हुई है पर कम ही आलोचकों ने गीतों की रचना-प्रक्रिया का इतना गंभीर विश्लेषण है, जितना रमेश रंजक ने किया है। शब्दों के प्रयोग और लय तथा छंद की अर्थगत संगतियों का विवेचन करते हुए वे गीत की अंतर्वस्तु तक पहुँचते हैं। उस अंतर्वस्तु के अभाव में वे नयी कविता के गीतात्मक रूपान्तरण को अस्वीकार करते हैं इसी आधार पर वे अज्ञेय में गीत को अनुपस्थित पाते हैं। नयी कविता के कवियों के द्वारा गीत के रूपक रचने को वे एक टेव के रूप में देखते हैं। शंभुनाथ सिंह जी नवगीत के विवाद के केन्द्र में पिछले दिनों खूब रहे हैं और नवगीत दशकों में वीरेन्द्र मिश्र को शामिल न करने के कारण आलोचना का लक्ष्य भी रहे हैं। रमेश रंजक ने दोनों के विषय में इस प्रकार टिप्पणी की है- ‘जिन्हें डा. शंभुनाथ सिंह नवगीत मानते हैं, हम उन्हें नयी कविता में गीतों के प्रभाव और बहाव में लिखे गये गीत कहना ज्यादा पसंद करेंगे। मुझे यह कहने में कोई संकोच नहीं है कि इस समय के गीत कवियों में जो सीधे मंच से अपने गीतों में नयी कविता के गीतों से प्रभावित होकर परिवर्तन ला रहे थे, उनमें डा. शंभुनाथ सिंह और वीरेन्द्र मिश्र के नाम उल्लेखनीय हैं। लेकिन, ये दोनों गीत कवि अपने गीतों के विषय एवं शिल्प से आने वाली पीढ़ी को कभी भी प्रभावित नहीं कर पाए।’ निःसंदेह ऐसी रमेश रंजक की बहुत सारी व्यक्तिगत मान्यताएं 'नये गीत का उद्भव और विकास' में प्राप्त होती है. इसकी एक बड़ी सीमा यह है कि नवगीत के केवल आरम्भिक काल से जुड़े होने के कारण यह नवगीत की भूमिका ही बन पायीं, विकास का चित्रण इसमें नहीं है परन्तु समकालीन गीत-नवगीत को समझने के लिए यह एक उल्लेखनीय पुस्तक है, इस तथ्य से इनकार नहीं किया जा सकता। 
Û
संपर्क 
राजेंद्र गौतम, पूर्व प्रोफेसर, दिल्ली विश्वविद्यालय
906, झेलम, प्लॉट : 8, सेक्टर : 5 , द्वारका, नई दिल्ली-110075. 
mob: 9868140469, mail ID: rajendragautam99@yahoo.com

1 टिप्पणी:

  1. बेहद अच्छी समीक्षा। विस्तार से रमेश रंजक की किताब की जानकारी मिलती है, और नवगीत को लेकर उनके विचारों की भी जानकारी मिलती है। कभी मैंने कहा था कि नवगीत का इतिहास लिखा जाना चाहिए। इस ओर ध्यान देने की बेहद ज़रूरत है। रमेश रंजक की यह किताब ’नवगीत के इतिहास’ की आंशिक पूर्ति करती है।

    जवाब देंहटाएं