कच्चे आँगन, पक्के रिश्ते जाने कहाँ गए : डॉ रामसनेही लाल शर्मा
आज प्रख्यात नवगीतकार रामसनेही लाल शर्मा जी का जन्म दिन है इन दिनों डॉ साहब एमीरिट्स फैलोशिप की परियाजना के तहत नवगीत कोश भाग दो के प्रकाशन सम्बन्धी योजनाओं में अति व्यस्त हैं।समूह वागर्थ की कार्यशैली से प्रभावित होकर उन्होंने हमसे भी वागर्थ की गतिविधियों पर एक सविस्तार आलेख नवगीतकोश दो में शामिल करने की मंशा व्यक्त की है। हमारे प्रयासों को संज्ञान में लेना ही हमारे लिए बड़ी बात यह बात और है कि हम उन्हें आलेख समय पर दे सकेंगे या नहीं !
प्रस्तुत हैं रामसनेही लाल शर्मा जी के चयनित नवगीत
समूह वागर्थ आपको जन्मदिन की अनंत बधाइयाँ प्रेषित करता है।
प्रस्तुति
वागर्थ सम्पादक मण्डल
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1
कितने विंध्याचल
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छाती पर जमकर
बैठे हैं
कितने विंध्याचल
माँ का दर्द
पिता का गठिया
पत्नी की खाँसी
विदा बहिन की
फीस पुत्र की
लगा रही फाँसी
छोटी सी पगार के सिर पर
इतना बोझ लदा
आधे महीने बाद
कलेजे में होती हलचल
मौसम से
कठोर मालिक के
अपुन गुलाम बने
टूटे सपने ले
पत्नी के ताने
रहें तने
कमर कमान हुई
जिजीविषा की
उखड़ी साँसें
मृग मरीचिका छले
आज
शायद बेहतर हो कल
सुबह करे स्वागत
दफ्तर में
साहब की घुड़की
व्यस्त हाथ को
सुननी पड़ती
फाइल की झिडकी
बंधक पड़ी जिंदगी
उम्मीदों के हाथों में
खेल दोस्ती के
आंगन में
खेल रहा छल-बल
2
ढोंगी मुस्कानें
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तन के वियावान में भटके
मन के कस्तूरी मृगछौने
लगता है सदियाँ बीतीं हैं
ये ढोंगी मुस्कानें जीते
अपनेपन के चौराहे पर
बैठे हैं खालीपन पीते
गयी ट्रैन
हिलते रूमालों के
तन पर बिछ गई बिछौने
आयातित सम्बोधन लेकर
द्वार ठेलकर घुसी सभ्यता
परतों वाली प्याज़ लग रही
हर आंगन की बड़ी भव्यता
बोल रहे हैं
यहाँ'स्वागतम्'
चाबी वाले भरे खिलौने
मोहन की वंशी से निकलें
सम्मोहन की मृग तृष्णाएँ
माथे पर जड़ रहीं उदासी
यहाँ अवध वाली संध्याएँ
हुए उपेक्षित
रिश्ते जैसे
पड़े हुए हों जूठे दौने
चमक-दमक वाले कागज पर
स्वर्णिम अक्षर लिखें 'बधाई'
वहीं हाशिये पर से हँसती
हुई उपेक्षा कहे'विदाई'
शिष्टाचार खेलता
सबके आंगन में
ये खेल घिनौने
3
पागल हो क्या?
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रोबोटों की इस दुनिया में
प्रेम कथायें
पागल हो क्या?
मल्टीप्लैक्स , मॉल , कॉलोनी
सेंसेक्स, या सेक्स सनसनी
क्रिकेट , कमेंट्री , कॉल , कैरियर
टेरिरिज्म या पुलिस छावनी
खोज रहे हो यहाँ
समर्पण की निष्ठायें
पागल हो क्या?
लज्जा ,घूंघट , हँसता पनघट
हंसी-ठिठोली , कान्हा नटखट
भरे भवन संवाद आँख के
मान मनौव्वल , नकली खटपट
खोज रहे हो वही प्यार
विश्वास , व्यथायें
पागल हो क्या?
आल्हा के कड़खै या ढोला
रसवंती मल्हार सावनी
जिकड़ी भजन , गीत ,व्रत,उत्सव
रसिया ,चंग , मृदंग फागुनी
खोज रहे हो
दादी वाली दन्त कथायें
पागल हो क्या?
कम्प्यूटर , फ्रिज , कार , कोठियाँ
नकली हँसी , उदासी सच्ची
जाम, जुनून, बोरियत , कॉफी
पक्का स्वार्थ , दोस्ती कच्ची
खोज रहे हो
फागुन की बातून हवायें
पागल हो क्या?
4
एक व्यथा
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घर में जंगल
जंगल में घर
केवल यही कथा
तोताराम असल में
तेरी -मेरी एक व्यथा
धृष्ट अँधेरे ने कल सूरज
बुरी तरह डाँटा
झरबेरी ने बूढ़े बरगद
को मार चाँटा
मौसम आवारा था
लेकिन ऐसा कभी न था
तुलसीचौरे तक
आपहुँची
बहती रक्त-नदी
चौखट पर विध्वंस
लिख रही
इक्कीसवीं सदी
कल तालों के घर में
चोरों का अभिनन्दन था
आँगन में सबका हिस्सा है
दादा भैया का
वातायन से फिका घोंसला
कल गौरैया का
बैठक में चर्चा है
वह लगता तो सुंदर था
तोताराम असल में
तेरी-मेरी एक व्यथा
5
सुन हीरामन
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घना अंधेरा है
डरना मत
सुन हीरामन
कठिन राह है
बीहड़ जंगल
गरजे तमीचरों का
छल-बल
तमसवृता हैं दसों दिशाएँ
भय से काँप रहा
पारावत
सुन हीरामन
डरा दिया है
डर ने डर को
नहीं सूझता है
कर-कर को
घटाटोप मूल्यों के घर में
हिलता है यह
सच का पर्वत
सुन हीरामन
नहीं सूझता है
पथ माना
झंझा ने भी
तेवर ताना
जब तक तारनहार न आयें
तब तक रहो
प्रतीक्षा में रत
सुन हीरामन
दाल समूची ही
काली हो
कंस अपरिमित
बलशाली हो
अपराजेय लगे दानव-दल
छोड़ न पर
लड़ने की आदत
सुन हीरामन
6
ग्रामीण परिवेश के नवगीत
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कच्चे आँगन, पक्के रिश्ते
जाने कहाँ गए?
बूढ़ी पगड़ी पूरा गाँव
बाँधकर चलती थी
गैया , गौरैया घर की
रोटी से पलती थी
चाकी की घर-घर
जीवन-संगीत सुनाती थी
हरहारे की तान
सुरीले राग जगाती थी
महँगी इज्जत पर दिल सस्ते
जाने कहाँ गए?
खोया बुआ त्रिवेणी का
धर्मार्थ औषधालय
लोकज्ञान का विश्वकोश
वह बूढा विद्यालय
पेटपीर की दवा अचार
सलोना खोया है
अगिहानों पर सन्नाटा यह
किसने बोया है
मिलकर रोते, मिलकर हँसते
जाने कहाँ गए?
द्वारे से श्यामा गैया का
उखड़ गया खूँटा
दादाजी का सच्चा अनुभव
लगता अब झूठा
चौपालें दिव्यांग होगयीं
लट्ठ हुआ तगड़ा
एक नहीं है गाँव, होगया
अगड़ा या पिछड़ा
दिल तक जाने वाले रस्ते
जाने कहाँ गए?
मुट्ठी भर था चना-चबैना
सबमें बँट जाता
अब सोने का कौर
किसी के काम नहीं आता
दो पैसे में पट्टी पुजती
गुनिया होने को
तुतली पीठ न दुहरी होती
सपने ढोने को
ढैया रटते , छोटे बस्ते
जाने कहाँ गए?
7
उजड़ी कहानी
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कल शयनघर से
बुलाकर ले गए
आम का वह पेड़ ,पगडण्डी पुरानी
खेत का हठ
क्या करूँ
जाना पड़ा
साग सरसों का
वहाँ
खाना पड़ा
हँस पड़ा गेंदा
लजायी रातरानी
दे गया आशीष
वह सूखा कुआँ
झोंपड़ी रोने लगी
जैसे बुआ
देख रोयी , हँसी
दादी की कहानी
एक गागर बहिन जैसी
हँस गयी
वक्ष में फिर
बेटियों सी फँस गयी
चौंतरे , चौपाल की
उजड़ी कहानी
चाहता था चाय
पर मट्ठा मिला
डाँट चिंतन को
हँसी-ठठ्ठा मिला
ढोलकें कहने लगीं
कजरी-कहानी
भटकटैया खेत में
हँसता जवासा
नीम , पीपल
मैं खड़ा था
बहुत प्यासा
मौन रहकर
पीरहा था आग-पानी
8
नदिया , नाव , घाट , मछुआरे
जाल,पाल,कुस , काँस, किनारे
सब के अपने-अपने दुख हैं
तट के वक्त ने सूनी आँखों
देखीं कछुओं की हत्याएँ
खेतों में अब कर्ज उग रहा
या उग रहीं आत्म हत्याएँ
चौपालों पर कब्जा करके
बैठ गईं मूछें हत्यारी
झींक रहा घुरहूलछिमनियाँ
तीस साल की बैठी क्वारी
गांव,गली ,पनघट, ओसारे
छप्पर, ताल , बाग, चौबारे
सबके अपने-अपने दुख हैं
खेत बेच पढ़ने भेजा था
छुटका नहीं शहर से लौटा
उसके लिए निरंजन भैया
क्या दीवाली, क्या फगुनौटा
बंद कर दिए मधुशाला ने
मंदिर के पट कुछ बरसों से
शकरकंद से भूख बुझ रही
लालसिंह के घर परसों से
भूख , बेवसी , आँसू खारे
जीप , चुनाव , मुकद्दर प्यारे
सबके अपने-अपने दुख हैं
बूढ़ा पीपल रोज सुनाता
रोती हुई उदास कहानी
मरी सडक पर जिंदा टहले
जलकर मरी हुई नादानी
फटती दीवारों की छाती
बुझे हुए अगिहाने दहके
अम्मा की बेवस लाचारी
पीकर आग जवानी बहके
हीरा , शोभा , मधुआ सारे
होरी के सपने बेचारे
सब के अपने-अपने दुख हैं
9
यह महानगर
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बाहर है युद्ध विराम मगर
अंतर-अंतर में छिड़ा समर
यह महानगर
यह महानगर
वातायन लगने लगा समूचा धुँआ-धुँआ
जहरीली गैस उगलता है हर एक कुआँ
संकट में घिरी अस्मिता , भीड़ , अकेलापन
साँसों में पले तनाव , पसलियों में कम्पन
प्राणों में घायल दर्द
अधर पर हँसी मुखर
यह महानगर
यह महानगर
आतंक, शोर , उन्माद , पोस्टर विज्ञापन
घनघोर व्यस्तता , त्रास , लिजलिजे सम्बोधन
आफिस , गुटबंदी , ढोंग , बोरियत , काफीघर
इस भूल भुलैया से कैसे निकलें बाहर
पूरा परिवेश हुआ है
जैसे एक जहर
यह महानगर
यह महानगर
यह घोर अनिश्चय , भौतिकता ये शंकाएँ
ये रक्तबीज बन -बनकर छलती इच्छाएँ
ये सड़कें , भीड़ , बसें , दुर्घटना और चीख
पुरा जीवन होगया नियति से मिली भीख
मरुथल पर प्यासा
छोड़ रही हर एक डगर
यह महानगर
यह महानगर
साड़ियाँ , मेकअप , सूट ,टाइयाँ औ फैशन
ये मैच , कमेंट्री अंधी दौड़ , दूरदर्शन
टूटी पतवारों वाली नावें और नदी
घनघोर अनास्था का जंगल लग रही सदी
पूरा का पूरा शहर
हुआ ज्यों मुर्दाघर
यह महानगर
यह महानगर
परिचय-सूत्र
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नाम--------------डॉ रामसनेही लाल शर्मा
उपनाम ------------- यायावर
जन्म 5 जुलाई 10949
जन्मभूमि तिलोकपुर (जनपद फ़िरोज़ाबाद का ग्राम (उत्तर प्रदेश)
माता-पिता स्व.श्रीमती अनार देवी
स्व.पं . गया प्रसाद शर्मा ( ताम्रपत्रधारी स्वतन्त्रता सेनानी एवं लोक कवि)
सहधर्मिणी श्रीमती शकुंतला शर्मा
(बालगीत लेखिका)
सम्प्रति------- एसो. प्रोफेसर हिंदी विभाग(डॉ बी आर अम्बेडकर विश्वविद्यालय आगरा) के पद से सेवा मुक्त
2 स्वतन्त्र लेखन
प्रकाशित कृतियाँ क 8 नवगीत संग्रह ख़ 2 मुक्तक संग्रह ग 8 दोहा संग्रह घ 2 सजल संग्रह ङ् 3 विविध विधाओं के काव्य संग्रह च 01 ब्रजभाषा गीत संग्रह छ 11 शोध ग्रंथ एवं शोधपरक आलेख संग्रह ज 1 ब्रजभाषा झ 3 काव्यानुवाद ट 01कवित्त सवैया संग्रह तथा ठ नवगीत कोष(कुल 41पुस्तकें)
सम्पादन 18 कृतियाँ
लेखन-सहभागिता 120 स्तरीय पुस्तकें
मानद उपाधियाँ और सम्मान -----------1-साहित्य भूषण(2018 उ.प्र हिंदी संस्थान) 2 गेस्ट ऑफ ऑनर इंडियन स्कूल मनामा बहरीन के साथ देश-विदेश की 50 साहित्यिक व सांस्कृतिक संस्थाओं द्वारा सम्मान व मानद उपाधियाँ
ध्यातव्य 1 हिंदी-प्रचार हेतु नेपाल , बहरीन , सिंगापुर , दुबई , हांगकांग ,मकाऊ , मलेशिया और मारीशस की यात्रा 2 डॉ राममनोहर लोहिया विश्वविद्यालय फैजाबाद में 3 शोधार्थियों ने डॉ यायावर की साहित्य साधना पर ph. d. की उपाधि प्राप्त की 3 केंद्रीय हिंदी निदेशालय द्वारा प्राध्यापक यात्रा हेतु चयनित 4 विश्वविद्यालय अनुदान आयोग द्वारा एमेरिटस फैलो चयनित 5 आकाश बाणी के आगरा , मथुरा व दिली केंद्रों से रचना प्रसारण
सम्पर्क 86 तिलक नगर, बाई पास रोड
फ़िरोज़ाबाद 283 203
चलभाष 9412316779
9917796897
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