गुरुवार, 15 जुलाई 2021

धरोहर में वागर्थ प्रस्तुत करता है स्व.सुरेश श्रीवास्तव जी के नवगीत प्रस्तुति : ब्लॉग वागर्थ


धरोहर में वागर्थ प्रस्तुत करता है स्व.सुरेश श्रीवास्तव  जी के नवगीत
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स्व.सुरेश श्रीवास्तव एक परिचय
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स्व.सुरेश श्रीवास्तव जी का जन्म नरसिंहपुर के एक छोटे से गांव में हुआ था बाद नौकरी के चलते पिताजी नरसिंहपुर आकर बस गये,अपने नौ भाई बहनों में सबसे बड़े होने के चलते शुरु से ही उन पर अतिरिक्त ज़िम्मेदारी थी उसका निर्वाह करते और पढ़ाई करते हुए कालेज के जमाने से ही उनकी प्रतिभा निखरने लगी थी गायन को अपनी कविता का आधार बना वे जल्दी ही लोकप्रिय हो गये।
१९६८ में वे केन्द्रीय विद्यालय में पदस्थ हुए पचमढ़ी में रहते उन्होंने कई मुक़ाम हासिल किए गीत,गजल,कविता,लेख,आलेख कहानी रिपोर्ताज आदि से उनकी प्रतिभा निखरती रही मंच पर भी उतने ही सक्रिय रहे कुछ फ़िल्मों में भी उन्होंने गीत लिखे जिनमें ख़तरा और निरुपमा प्रमुख थीं भोपाल में रहते हुए आकाशवाणी आदि से उनकी कविता गीत आलेखों का प्रसारण होता रहा बाद पदोन्नति के चलते १९९० में वे देवलाली (नासिक) में उप प्राचार्य के पद पर पदस्थ हुए बाद वहीं दिमाग़ी आघात से जुलाई १९९२ में उनका निधन हो गया

कीर्तिशेष स्व.श्री सुरेश श्रीवास्तव 
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आधुनिकता के नाम पर इधर लगातार एक जत्थाबद्ध
शोभायात्रा कविता की छाती पर से गुजर रही है।इन सभी
जत्थों के अपने-अपने अलग-अलग मुखौटे हैं।सही अर्थों
 में जत्थे  कविता के नाम पर ओढ़े गए वे आंदोलन हैं जो
कविता की हाथी पहचान के लिए कुर्सी दर कुर्सी बिछे हुए आचमन की मुद्रा में अनुदानों और पुरस्कारों की ओर टकटकी लगाए हैं।कविता की छाती उनके रोंदे जाने से क्षत-विक्षत है।
ठीक उसी जगह गीत नामक धड़कता हुआ हृदय कविता
की छाती की गंधगुहा में पुष्पित है और उन्हीं जड़ों में से पुन: अंकुरित हो रहा है नवगीत के रूप में।यह आदिम-राग अपने शिल्प,कथ्य और अनुभूतियों में सर्वथा एक नई 
आदिम गंध लेकर जन्मा है।इसलिए यह अपने समय और अपने समय के आदमी के जीवंत परिदृश्य का यथार्थ भोगता हुआ उजागर है।
एक वट वृक्ष की डालों पर लटकी हुई व्यवस्था अर्थ,समय राजनीति आदि की मूलभूत जड़ें गहरी और
मोटी होती जा रही हैं।उनके खुरदुरे पन की सर्वांग पहचान स्व.सुरेश श्रीवास्तव के इन गीतों में है।
( संग्रह से साभार)
जन्म- १४ जनवरी १९४५ नरसिंहपुर(म.प्र.)
शिक्षा-स्नातकोत्तर (हिन्दी साहित्य)
प्रकाशन- तत्कालीन समय की धर्मयुग हिन्दुस्तान दिनमान नवनीत से लेकर सभी प्रतिष्ठित साहित्यिक पत्र
पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित
आकाशवाणी केंद्रों से शतत प्रसारण अपने समय के सर्वाधिक चर्चित गीत कवि।
रचनाएँ- महानाटक(कविताएँ)१९७७
             ऋतु वृंदावन(ऋतु गीत)१९८०
             क्षण मैले गीत वर्तमान (नवगीत)१९८२
             आदमी तेरे क्षण(अप्रकाशित)
निधन- जुलाई 1992

1. देख सकें हम जिसमें अपनी मुस्कान 
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         देख सकें हम जिसमें अपनी मुस्कान 
         नहीं हुआ ऐसे दर्पण का निर्माण ।

         अनचाही आवृत्तियाँ निगल गईं चाँद
         बादल पर बाँध दिया कोहरे ने बाँध,
         लेख सकें हम जिससे भाग्य का विधान
         संदली हथेली पर उगते पाषाण 

         चरणचिन्ह हों जैसे बड़े प्रश्नचिन्ह
         रेतीली धरती पर पड़े भिन्न-भिन्न,
         करा सकें हम जिससे उनमें पहचान
         आया ही नहीं अभी ऐसा तूफान

         डूबे प्रतिबिंब नागफनियों के देश
         पानी पर लिखता ज्यों कोई आदेश,
         तट को पाकर मिटती थी जहाँ थकान
         उथलापन ले डूबा भारी जलयान

         एड़ी तक लरज गई बगुलों की पाँत
         श्वेत-सिंधु में छिपती हंसों की जात,
         मन कैसे कागज को सौंपे सम्मान
         साक्षर जब लगा रहा अँगूठा निशान
                       
    २-आदमी इतना अकेला भीड़ में
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        आदमी इतना अकेला भीड़ में
         कोई जंगल खो गया होगा कहीं पर।

         एक पंछी छिपा बैठा नीड़ में
         कुछ अमंगल हो गया होगा कहीं पर।

         हवा लौटी समायी पर
         खून बनते रात अंधी हो गई 
         सूर्य पिंजड़े में नहीं फिर
         राह चलते आग बंदी हो गई 

         एक चिलकन उठा करती रीढ़ में
          कोई दलदल बो गया होगा कहीं पर।

         समूचा अस्तित्त्व गीला किन्तु भीतर
         प्राण सूखे रह गये
         राह चलते कारवाँ से बात करते
         सच कहानी कह गये

         दहकता आँगन अकेला सींड़ में
         कोई आँचल रो गया होगा कहीं पर।
                         
3 सूरज से उजले तन
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        सूरज से उजले तन,काजल से मैले मन
        किरणों से मिलता है बस अंधा आश्वासन ।

        शोक गीत लिखता है दीपक भिनुसारे 
        संध्या के तारे सब गाते मनमारे 
        रात और दिन भूले अपने सद-आचरण ।

        आलिंगन भर पगडंडी का अँधियारा 
        राजमार्ग जीता है गज भर उजियारा
        सारे पथ डाले हैं अनचीन्हा आवरण ।

        स्वार्थ भरे झूठ सदा रहते हैं रीते 
        ख़ालीपन भर लेता है सभी सुभीते 
        सरक रही रेत और हम करते आचमन।

        संबोधन बहके पीकर उथले रिश्ते
        अपनापन महके बासा चंदन घिसते
        ग्रंथ लाँघ जाता है भाषा का संस्करण ।

        अधिकारों पर नभ भर आँखें ऊगी हैं
        द्वारों के पार रुकी गति-मति ऊबी है 
        फूँक कर रखे पाँवों पर चिपके धूलिकण।
                            
४       लड़ता हूँ एक युद्ध
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        लड़ता हूँ एक युद्ध वर्षों से
        हल नहीं निकलता संघर्षों से।

        गणित उलझता मकड़ी जैसा
        ज्यों पानी पर तैरे पैसा
        उत्तर आँखें नहीं मिलाता
        नक्शे पर घर रहा बसाता,

         रीतियाँ बँधी हैं आदर्शों से।

         उजले चेहरे तिल भर काले
         तिल के भी होते रखवाले
         पीलेपन की हद होती है
         भाग्य की हथेली रोती है,

        जमे हुए हैं क्षण सरसों से।

        मिट्टी के तेल सी हवाएँ
        अफवाहों से जलती जाएँ
        तिथियों सी बदल रही साँस
        मटमैले हो गए प्रयास

        ध्वनि नहीं निकलती निष्कर्षों से।

       कितने दिन बहलेगा मन
       अभ्यासी हो गए जतन 
       कब होगा अपना भिनुसार 
       अभी तो प्रकाश है उधार,

       क़र्ज़ भी मिला है कल परसों से।
                  
 ५. ओ संध्या चुप मत रहना
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      ओ संध्या चुप मत रहना
      मंदिर की सँझवाती से मेरे प्रणाम कहना।

      मैं ऐसा स्नेह लिए हूँ जो ज्योति नहीं जन्माता
      मैं ऐसा गेह नहीं हूँ जो खुद मंदिर बन जाता
      पूजन की गंध समेटे मेरे आँगन से बहना
      ओ हवा रुकी मत रहना।

      जब सूनापन लगता है दर्पण देखा करता हूँ
      सागर डूबे चंदा की तड़पन देखा करता हूँ
      लहरों की कोमलता से तट की कटुता को सहना
      ओ नौका तू बँध रहना।

      मैं फूल फूलता कब हूँ अर्पित हूँ मुरझाता हूँ
      मौसम की हठधर्मी सहकर जीवन को पढ़ पाता हूँ
      माली के आश्वासन पर कितने दिन साँसों लहना
      ओ आशा तू मत ढहना।

      इस जली हुई पीड़ा से मैं बना रहा हूँ काजल
      भटकन वाली बिजली को मैं सोंप रहा हूँ बादल
      अब तारों के हाथों में सस्ता सा कोई गहना
       ए धरती तू ही पहना।
                          
    ६.  देहरी के आर-पार
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        देहरी के आर-पार काजल की रेखा
        कब तक करते बैठें स्याही का लेखा।

        काँच टूटकर दोनों ओर गिरे बिखरे
        कोशिश करने पर भी बिंब नहीं निखरे
        टुकड़ों को जोड़-जाड़ कर दर्पण देखा।१।

        शब्द जो सहानुभूति के हम बोते हैं
        वाणी के वृक्ष स्वार्थ के फल होते हैं
        आमुख तक छपा नहीं अपने सपने का।२।

        स्याही की रंगत धोने में क्षण बीते
        जुटा नहीं पाए हम दूध के सुभीते
        सूरज ने दिनभर में दाग नहीं सेंका।३।

        मन तो वैसे भी संसार की गजल है
        गुनगुना नहीं सकते साँस तक सजल है
        जीवन तट पर हमने जाल नहीं फेंका।४।
                         
7. जब से मैंने प्राण डुबाए 
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        जब से मैंने प्राण डुबाए
        तब से गंध नहीं आती है
        मैं समझा निर्गंध सुमन है
        मैंने उपवन छोड़ दिया है।

        माली ने भरसक भरमाया
        पँखुरी-पँखुरी तक भटकाया
        मन मनचला मधुप है लोभी
        काँटों पर भी प्यार लुटाया

        पर जबसे सपने मन भाये
        सुख की नींद नहीं आती है
        मैं समझा यादें गीली हैं
         मैंने वसन निचोड़ लिया है।

         हर आकर्षण भूल नहीं है
         रेत-रेत है शूल नहीं है
         छाया तक को चित्र बनाता
          काँच काँच है धूल नहीं है

          पर जबसे आँसू भर आये
          तब से बिंब नहीं बनते हैं
          मैं समझा सूरत दोषी है
          मैंने दर्पण तोड़ दिया है।

          जो अक्षर मेरे सँग डूबे
          वे इस उथलेपन से ऊबे
          भावों की उजली नगरी में
          भाषा के काले मनसूबे

          पर जबसे बहना सीखा है
          तब से थाह नहीं मिलती है
          मैं समझा धारा उल्टी है
          मैनें तट ही मोड़ दिया है।
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2 टिप्‍पणियां:

  1. प्रिय सुरेश के कुछ गीतों का पहला श्रोता होने का सौभाग्य मुझे मिला था।

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  2. कीर्तिशेष सुरेश श्रीवास्तव जी के नवगीत पटल पर सुशोभित हो रहे हैं। जीवन में व्याप्त संघर्ष-विषाद को अपनी लेखनी की शक्ति से रसमय प्रस्तुति देता गीत अनुपम है- अनचाही आवृत्तियां निगल गईं चांद,बादल पर बांध दिया कोहरे ने बांध ,लेख सकें हम जिससे भाग्य का विधान,संदली हथेली पर उगते पाषाण। यहां संदली हथेली पर पाषाण का उगना अनूठी व्यंजना से संघर्ष को पूरी तरह से रूपायित कर देता है। अपने अद्भुत बिंब से सामाजिक मनोविज्ञान को बड़े ही सलीके से कहने में उनके गीत समर्थ हैं , गीत स्वयं बोलते हैं। आदमी अकेला भीड़ में हो या किरनों से मिलता आश्वासन हो सभी गीत प्रतीकों को सजीव करते हुए अपने मनोभावों को अभिव्यक्ति देने में सक्षम हैं, गीत कार ने जो जिया है ,जिस वेदना को पिया है उसे बड़ी ही सहजता से अभिव्यंजित भी किया है। और फिर कह उठा है लड़ता हूं एक युद्ध वर्षों से। मगर हारता नहीं है और संध्या को कहता है -ओ संध्या चुप मत रहना, मंदिर की संझवाती से मेरे प्रणाम कहना। यानि वह आस्था का साथ लेकर लोकमानस के संस्कारों को समेटने में लगा हुआ है। कवि अपनी समकालीनता के साथ जीते हुए अनुभव को शब्दों में बयां कर ही देता है - मैं समझा निर्गंध सुमन है, मैंने उपवन छोड़ दिया। माली ने भरसक भरमाया, पंखुरी पंखुरी तक भटकाया, मनचला मधुप है लोभी, कांटों पर ही प्यार लुटाया। मैं समझा धारा उल्टी है मैंने तट भी मोड़ दिया। यही कवि की सामर्थ्य है जिसे उसने अपनी क्षमता,एवं जिजीविषा से प्रर्दशित किया है,सभी गीत प्रतीकों बिंबों, संवेदनाओं से सराबोर हो कर संवाद करते हैं। भाई मनोज मधुर जी को साधुवाद।
    डॉ मुकेश अनुरागी शिवपुरी

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