रविवार, 11 जुलाई 2021

देवेन्द्र आर्य के दस नवगीत प्रस्तुति : ब्लॉग वागर्थ




वागर्थ प्रस्तुत करता है देवेन्द्र आर्य जी के दस नगगीत
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                                  देवेन्द्र आर्य जी के गीतों से होकर गुजरना समकालीन जीवन के यथार्थ से होकर गुजरना है। संश्लिष्ट भाव संवेदन और विभिन्न लय से संपृक्त विशिष्ट कहन के गीत उनकी  पहचान हैं। वे गीत लिखने के लिए सचेष्ट उपक्रम करते नहीं दिखते। उनके गीतों में एक सहज प्रवाहमयता है।देवेन्द्र आर्य जी की रचनाएँ पाठक से सहज संवाद स्थापित करती है और चिंतन के लिए मजबूर करती हैं। गीतों में जीवन की विद्रूपताओं का चित्रण एवम् आम जीवन की त्रासद वास्तविकताएँ हैं। उनके गीत आम आदमी की पीड़ा , वर्ग-संघर्ष की व्यथा कथा को स्वर देते विभिन्न लय से युक्त शिल्प सौष्ठव से यथार्थ बोध कराते हुए संवेदना के धरातल में लोकधर्मी मूल्यों व चेतना की समग्र दृष्टि  व जन प्रतिबद्धता का मजबूत स्तम्भ हैं । देवेन्द्र आर्य जी विभिन्न विधाओं में समान रूप से प्रभावी लिखते हैं , उनके गीतों की बुनावट लीक से कुछ हटकर , बेबाकी का पुट लिए है ,जो समय की आँख में आँख डालकर  सवाल करती है ।  कहना न होगा कि देवेन्द्र आर्य जी
विशिष्ट कहन के बेहद संवेदनशील कवि हैं। 
         वागर्थ अपनी सम्पूर्ण निष्ठा के साथ आपको हार्दिक शुभकामनाएँ प्रेषित करता है व आपके उत्तम स्वास्थ्य की कामना करता है  ।

                                            प्रस्तुति
                                     ~।। वागर्थ ।। ~
                                      सम्पादक मण्डल 

(१)

कवि नहीं कविता बड़ी हो

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इस तरह तू लिख
कि लिख के कवि नहीं कविता बड़ी हो

अपने बूते पर खड़ी हो
जो ज़माने से लड़ी हो
ऐसी भाषा 
जैसी भाषा भीड़ के पल्ले पड़ी हो

ह से हाथी 
ह से हौदा
क़द नहीं क़ीमत का सौदा
अपने खेतों पर लिखा है हमने अमरीकी मसौदा

ऐसी क्या दौलत कि बच्चू प्यार में भी हड़बड़ी हो

धूप में सीझा हो सावन
भूख के आगे पसावन
दूघ सा गाढ़ा पसीना
और सपनों का जमावन

हर घड़ी लगती हो जैसे बस यही अंतिम घड़ी हो

लिख कि धरती मुस्कुराए
दुख का सीना चिटक जाए
रक्त में स्नान करने वाला 
यादों में नहाए

प्यास के सहरा में जैसे कोई शीतल बावड़ी हो

इस तरह तू लिख कि लिख के कवि नहीं 
कविता बड़ी हो

(२)

दो रुपये का आज

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बाप न मारी मेंढकी बेटा तीरंदाज़
सुनो सन्नाटे की आवाज़

बाहर रह कर शामिल होना
शो केसों में ख़्वाब संजोना
कथा-कहानी हुई सोखैती
कविताओं में जादू-टोना

फाँक-फाँक नारंगी हो गयी छिलके-छिलके प्याज
सुनो सन्नाटे की आवाज़

पूँछ में पगहा मुँह पर पैना
खोटी नज़रें नाम सुनयना
गंगा तट पर काशी प्यासी
दिल्ली हो गई भिंड मुरैना

बाबू साहब कमा के चिक्कन मूल से ज़्यादा ब्याज
सुनो सन्नाटे की आवाज़

पानी पर दीवार चलाना
बिन ईंधन के दाल गलाना
कोई सीखे बाज़ारों से
नज़र में रह कर नज़र न आना

बिना पेड़ ,पानी ,चूल्हे के चलता नहीं समाज
सुनो सन्नाटे की आवाज़

अभी समय है अभी बचा लो
सोचो कोई राह निकालो
यह कहना बेमानी होगा
आग लगा कर दूर जमालो

दस रुपये के कल से बेहतर दो रुपये का आज
सुनो सन्नाटे की आवाज़

(३)

देखा जाएगा

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होगा जो भी होगा साला
देखा जाएगा
क्या कर लेगा ऊपरवाला, देखा जाएगा

डर जीवन की पहली और अंतिम कठिनाई है
मौत को लेकर सौदेबाज़ी होती आई है
करो कलेजा कड़ा
आँख में आँखें डाल कहो

ये लो अपनी कंठी माला,  देखा जाएगा

हमां शुमां के लिए ज़िंदगी पल्लेदारी है
जीवन पर बगुला भक्तों की ठेकेदारी है
माँग के ही खाना है
खोद के ही पीना है जब

दे दें हमको देश निकाला, देखा जाएगा

पुल के नीचे एक किनारे दुबकी पड़ी नदी
दुनिया दुनिया वालों से रहती है कटी कटी
सपने सावन के अंधों की भीड़ हो गए हैं

अंधों से भी कहीं उजाला देखा जाएगा ?

मरना सच है जानके भी किसने जीना छोड़ा
सच की राह में अपना टुच्चापन ही है रोड़ा
केवल ख़तरा ख़तरा चिल्लाने से बेहतर है

मार लें हम होंठों पर ताला
देखा जाएगा 

(४)

गर्भवती का गीत

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इधर कई दिन से वसंत मुझसे बतियाता है
सिरहाने मंजरियों के गुच्छे रख जाता है

तना तना सा पेट
बदन कुछ भारी-भारी सा
डाल झुका फलदार पेड़ मन है आभारी सा
जैसे सपनों में सपनों के रंग भर गए हों
लम्बी एक उदास नदी के अंग भर गए हों

कच्ची दीवारों पर कोई चित्र बनाता है
रेशम पल्लू कभी भिंगोता कभी गारता है

बूँद बूँद भरता जाता है कुछ मेरे भीतर
फूलों के धक्के
उठती है मीठी एक लहर 
चौके में घुसने से ही उबकाई आती है
ख़ुद करती हूँ सुबह शाम को दायी आती है

कभी-कभी हम कहाँ फँस गए
मन खिझियाता है
अब तक जो मीठा लगता था आज तिताता है

सोच सोच कर डर लगता है
कौन सम्हालेगा
इनकी देखभाल
घर आँगन
नन्हा सा बिरवा

और किसी को नहीं पता है
तुम भी चुप रहना
किसके मुँह पर इंद्र धनुष हो किसके मुँह टोना

भोर भए सपने विभोर कोई तुतलाता है
घर का कोना -कोना जैसे सोहर गाता है

(५)

शून्य हूँ मैं

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शून्य हूँ मैं
मुझसे मिल कर आपकी औक़ात
कुछ नहीं तो दस गुना बढ़ जाएगी

खो गयी है ज़िद मेरी
असहाय हूँ

मैं दुखों का संगठित समुदाय हूँ
शब्दों की सीमाओं से हूँ बेदखल
मैं हवा में तैरता अभिप्राय हूँ

प्यास हूँ मैं
अपनी आँखों में बसा लो तुम
बूँद के भीतर नदी भर जाएगी

खींच लेती है कटीली सादगी
प्यार ही है क़ाफ़िरों की बंदगी
अपने -अपने देखने का ढंग है
पत्थरों में भी छुपी है नाज़ुकी

मौन हूँ मैं
मुझको बुन लो अपने गीतों में
ज़िंदगी फिर ज़िंदगी हो जाएगी 

(६)

नदिया का पेट काट के
ऊंचे हो गए घरौंदे ।

घुटनों तक रेत में दबी
एक अंजुरी प्यास की नदी
दूसरा विकल्प नहीं है
गीत बचाऊं कि ज़िंदगी 

सागर बन गए पोखरे 
कर के पानी के सौदे ।

शीशी में बंद सुगंधी
जैसा ईमान हो गया 
काग खुली खाली शीशी
जैसा इंसान हो गया 

अंधियारे देखने लगे
खाके किरनों के धोखे ।

पियराए पियराए से
क्यों हैं जीवन के पौधे ।

(७)

सच की तरह ।।
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तोड़ती है
एक चुप्पी
एक
चुप्पी जोड़ती है 
आप किसके
साथ हो, बोलो !

एक है कमजोर
गलगल
दूसरी है पुष्ट
दलदल ।
एक गूँगी
अर्थ के अनगिन
झरोखे खोलती है
एक पुस्तक
की तरह
अलमारियों में
डोलती है 
आप किसके
साथ हो, बोलो !

झूठ का
मतलब चिता है
सच का
मतलब अस्मिता है
एक सच्चाई
भरम-सी उम्रभर
रिश्ता निभाती
दूसरी,
सच की तरह
मजधार में ही
छोड़ती है
आप किसके
साथ हो, बोलो !


(८)

21 वीं सदी का आल्हा

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दरवाज़े पर खड़ी टोयोटा
और पिछवाड़े जर्सी गाय
दो कौड़ी की हुई ज़िंदगी, छः अंकों में हो गई आय


घर फोड़नी किरनें हैं शातिर
घुसी चली आएँ मुतवातिर
टाइल मोबाइल के युग में अम्मा झींकें चश्मा ख़ातिर

बचपन के गुड ब्वॉय करे हैं बूढ़ी बूढ़ा को गुड बाय
अबे कबिरवा भी होता तो बस जाता अमरीका जाए

वो तो सरकारी बंदा है
लेकिन जो है मुक्त क्षेत्र में उसका क्यों तिरछा कंधा है
उंगलीगीरी ही धंधा है

आलोचक माने खुरपेंची घर का भेदी लंका ढाय
कौन चूतिया पाल के रक्खे अपने आंगन कुटी छवाय

काहे खड़ी उदास जमालो
शब्दों का बीमा करवा लो
अच्छी क़ीमत पर बिकते हैं राम भरोसे मुर्दे पालो

बँटते - बँटते    कटते-कटते 
सिकुड़ के दिल हो गया निकाय
सुख-दुख डिब्बा बंद हो गए रिश्ते हुए मुतन्नी चाय


बहुत हुआ तो खुरपी होगी
भूख कुल्हाड़ी कभी नहीं
चुल्लू दो चुल्लू भर होगी प्यास पहाड़ी कभी नहीं


पेड़ बचाएं बुरी नज़र से लगे न इनको सदी की हाय
विणा वादनी जाप करे हैं जय लक्ष्मी जी सदा सहाय



(९)

दो रुपये का आज

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बाप न मारी मेंढकी बेटा तीरंदाज़
सुनो सन्नाटे की आवाज़

बाहर रह कर शामिल होना
शो केसों में ख़्वाब संजोना
कथा-कहानी हुई सोखैती
कविताओं में जादू-टोना

फाँक-फाँक नारंगी हो गयी छिलके-छिलके प्याज
सुनो सन्नाटे की आवाज़


पूँछ में पगहा मुँह पर पैना
खोटी नज़रें नाम सुनयना
गंगा तट पर काशी प्यासी
दिल्ली हो गई भिंड मुरैना

बाबू साहब कमा के चिक्कन मूल से ज़्यादा ब्याज
सुनो सन्नाटे की आवाज़

पानी पर दीवार चलाना
बिन ईंधन के दाल गलाना
कोई सीखे बाज़ारों से
नज़र में रह कर नज़र न आना

बिना पेड़ ,पानी ,चूल्हे के चलता नहीं समाज
सुनो सन्नाटे की आवाज़

अभी समय है अभी बचा लो
सोचो कोई राह निकालो
यह कहना बेमानी होगा
आग लगा कर दूर जमालो

दस रुपये के कल से बेहतर दो रुपये का आज
सुनो सन्नाटे की आवाज़

(१०)

वसंत

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पत्नी की देह-गंध को तरसा यह वसंत

आना तो फिर आना 
होठों पर बच्चों के
नींद में लिखी कोई स्वप्न-पगी गीत पंक्ति

उजली सी कोरी सी
आना तो फिर आना
शहर के किनारे उस ताल के थिरे जल में
शाम के हरेपन की आंख में अघोरी सी


फागुन रथ के आगे अक्खड़ सा तना हुआ
लगता है परशुराम का फरसा यह वसंत


अबकी आए, आए
ठहरो कुछ देर और
फ़र्ज़ है मेरा कहना
बहुत सी निगाहों में तारों की झिलमिल है


अबकी आए, आए
पत्तों का पीलापन सहलाता बैठा हूं
पथरा जाऊँ कैसे फूलों का भी दिल है


काश कोई पढ़ पाता आंखों में निराला की
फिसल रही कविताओं के जैसा यह वसंत


अब मत आना वसंत
भूल गए से लगते फुटपाथों पर ठेले रेहड़ी रिक्शेवाले

जीवन का रण जैसे
अब मत आना बसंत

मन प्राणों में जीवन अमृत का घुलना भी ऐसा क्या
भूल जाए साँसों का प्रण जैसे


तुच्छ बनातीं हमको ये चटोर चिंताए
मंजरियों पर माहो सा बरसा यह वसंत
       

              ~ देवेन्द्र आर्य
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परिचय -
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गोरखपुर (उत्तर प्रदेश) में सन् १९५७ की पैदाइश । 
चार दशक से अधिक की रचना यात्रा  
ग़ज़लों के पाँच और छंद मुक्त कविता के तीन संग्रह प्रकाशित 

पाँच गीत संकलन -

ख़िलाफ ज़ुल्म के

धूप सिर चढ़ने लगी

सुबह भीगी रेत पर

सपने कौन ख़रीदेगा

गीत-रसीदें (प्रकाशनाधीन)

 'शब्द असीमित' आलोचनात्मक लेखों का संकलन

'प्रतिमानों के पार परमानन्द' , 'देवेन्द्र कुमार की प्रतिनिधि कविताएँ ' और 'आधुनिक हिन्दी कविता के पहले दलित कवि देवेन्द्र कुमार बंगाली' का सम्पादन

सामाजिक आंदोलनों और ट्रेड यूनियन में सक्रिय हिस्सेदारी

रंग-कर्म से जुड़ाव । नाट्य लेखन-निर्देशन । नुक्कड़ नाटक और नुक्कड़ काव्य-पाठ ।

रेल सेवा से अवकाश प्राप्त 

सम्पर्क : 'आशावरी" , ए - 127 आवास विकास कालोनी शाहपुर

गोरखपुर - 273006

मोबाइल : 7318323162

1 टिप्पणी:

  1. सहज देशज शब्दों में अपने लेखन का मंतव्य बताने वाले मधुरिम गीतकार देवेन्द्र आर्य जी के नवगीत अपनी भाव-भंगिमा, सीधी-सादी कहना और आंचलिक मिठास से गीतों में गन्नेके रस का स्वाद ले जाते हैं,ठेठ देसी मुहावरे बाप ने मारी मेढ़ुकी बेटा तीरंदाज,को गीत की ध्रुव पंक्ति बनाकर सरस और समय को संबोधित करता गीत कहना उनकी लेखनी की साधना का प्रतिफल है। नवगीत धारा में सक्रिय सभी गीत कभी मंद मंद रस प्लावित करते हैं तो कभी उत्ताल तरंगों से पत्थरों से टकराते हैं। अपने समय की दुरूहता, मन की व्याकुलता और लेखनी की सामर्थ्य को मानते हुए लिख जाते हैं-इस तरह तू लिख कि कवि नहीं कविता बड़ी हो। कवि की प्रतिबद्धता भी अद्भुत है कविता बचाऊं कि जिंदगी। शून्य का प्रतीक लेकर अपनी अभिव्यक्ति को मुखरित करने में समर्थ रहा है साथ ही गर्भवती गीत में संवेदना का अनूठा संदर्शन करा देता है। आदरणीय देवेन्द्र जी की साहित्य साधना प्रणम्य है, बिंब संयोजन में नयापन और ताज़गी गीतों को विशिष्ट बनाते हैं। लेखनी को सादर प्रणाम
    डॉ मुकेश अनुरागी शिवपुरी

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