।। शब्द का हर पर्यायवाची उसका स्थानापन्न नहीं होता।।
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उर्दू का शब्द 'चेहरा' हिंदी के हिसाब से 5 मात्राओं में ही प्रायः लिखा जाना प्रचलित है, किंतु उर्दू व हिंदी--दोनों में ज़रूरत के मुताबिक 4 मात्राओं में भी पढ़ लिया जाता है। जो प्रचलन में है उसमें दोष ढूँढने की प्रवृत्ति होनी तो नहीं चाहिए। आदरणीय देवेन्द्र शर्मा इंद्र जी को इसे 'चहरे' लिखते हुए भी देखा, सो भी ठीक। पर 4 मात्राओं के हिसाब से एक शब्द हिंदी में 'मुखड़ा' भी है और 2 मात्राओं में मुख भी। पर बावज़ूद, कुछ और पर्यायवाची शब्दों की भी उपलब्धता के, 'चेहरे'/'चेहरा' का कोई स्थानापन्न शब्द नहीं है। क्योंकि किसी के पास इसके समानांतर अर्थव्याप्ति नहीं है। अर्थव्याप्ति ज़बरदस्ती तैयार नहीं की जा सकती, थोपी नहीं जा सकती।
कुछ वाक्यों को देखिए। फलाँ पार्टी के युवा चेहरे हैं।श्री Chitransh Waghmare Bhopal , रविशंकर मिश्र , शुभम् श्रीवास्तव ओम , प्रभात पथिक नवगीत के कुछ उल्लेखनीय युवा चेहरे हैं। यहाँ चेहरे का स्थान मुखड़े कदापि नहीं ले सकता। हम भूल जाते हैं कि भाषा ही खुद को रचती है, वह अपनी विधायिका, अपनी ब्रह्मा स्वयं है। हम भाषा को रच सकें, इतनी सामर्थ्य हममें से किसी में नहीं है। भाषा को उपयुक्त शब्दों की संगति से रचे जाने में बरसों और युगों तक का भी समय लगता है। ऐसे ही बहुत सारे वाक्य और शब्दगुच्छ हैं। लेखन के क्षेत्र में 'समर्थ हस्ताक्षर' शब्दयुग्म को 'मजबूत दस्तख़त' या 'काबिल दस्तख़त' में रूपांतरित नहीं किया जा सकता। चेहरा का अर्थ मुखड़ा होकर भी मुखड़ा के अर्थ से बहुत व्यापक है। उसमें एक प्रकार से संपूर्ण व्यक्तित्व का भी समाहार है। अंग्रेजी में जैसे younger face of the party है, यह इस अर्थ के बहुत करीब होकर भी कुछ बातों में अपनी अर्थगत व्याप्ति को लेकर भिन्न है।
मेरे एक मित्र एक साहित्यिक आयोजन में इस बात पर बल दे रहे थे कि अंग्रेज़ी शब्दों का अनुवाद करके ही हिंदी कविता में प्रयोग करना चाहिए, जैसे फ़ेसबुक को मुखपोथी, मोबाइल को चलभाष। पर क्या ये अनुवाद अपनी अर्थव्याप्ति के मामले में प्रासंगिक भी हैं? ऐसी फ़िज़ूल की टाँग वे ही अड़ाया करते हैं जो प्रथमतः तो भाषा की प्रकृति को नहीं जानते, दूसरी यह कि वे अर्थस्खलन और अर्थव्याप्ति के विषय में सर्वथा अनभिज्ञ है। आप परिहास में कोई भी अनुवाद चुन लें पर सत्य तो यही है कि संज्ञापदों के अनूदित रूप के प्रयोग की परंपरा विश्व की किसी भी भाषा में नहीं है। हिंदी में भी नहीं है। वक्तृता के जोश में भले ही कुछ भी कह लिया जाए।
पंकज परिमल
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